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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
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(७०७५) विषमज्वरान्तकलौहम् (७०७६) विषमज्वरारि रसः (३) ( वृहद् )
( र. का. धे. । ज्वरा.) ( रसे. सा सं. । ज्वरा.)
शुद्धसूतं तथा गन्धं तानं लौहं मनःशिलाम् ।
समभागं विमर्याथ भावयेत्तुलसीदलैः ॥ शुद्धमूतं तथा गन्धं कारयेत्कज्जली शुभाम् ।
कारवल्लीभृङ्गराजधूतनीरैविमर्दयेत् । मृतमूतं हेमतारं लौहमभ्रश्च ताभ्रकम् ॥
अजामूत्रेण दातव्यो वल्लो विषमशान्तये ॥ तालसत्वं वङ्गभस्म मौक्तिकं सप्रवालकम् ।
विषमारीति नामायं विषमान्मूलनक्षमः॥ सुवर्णमाक्षिकश्चापि चूर्णयित्वा विभावयेत् ॥ निर्गुण्डी नागवल्ली च काकमाची स पर्पटी।
शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, ताम्र भस्म, लोह त्रिफला कारवेल्लश्च दशमूली पुनर्नवा ॥
भस्म और शुद्ध मनसिल समान भाग ले कर गुडूची दृषकश्चापि सभृङ्गकेशराजकः।।
सबको एकत्र खरल करके कज्जली बनावें और एतेषाञ्च रसेनैव भावयेत्रिदिनं पृथक्॥
उसे तुलसी पत्र, करेले, भंगरे और धतूरेके रसकी गुआमानां वटीं कुर्याच्छास्त्रवित्कुशलो भिषक् ।।
पृथक् पृथक् एक एक भावना दे कर ३-३ रत्तीकी पिप्पली गुडकेनैव लिहेच्च वटिका शुभाम् ॥
गोलियां बना लें। ज्वरमष्टविधं हन्ति साध्यासाध्यमथापि वा। | इसे बकरीके मूत्रके साथ सेवन करनेसे अभिघाताभिचारोत्थं जीर्णज्वरं विशेषतः ॥ विषमज्वर नष्ट होता है।
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक; पारद भस्म, स्वर्ण (७०७७) विषमारणम् (१) भस्म, चांदी भस्म, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र (र. मं. ; रसे. सा. सं. ; आ. वे. प्र.) भस्म, हरताल सत्व, वंग भस्म, मोती भस्म, प्रवाल
समटङ्कण पिष्टं तद्विषं मृतमुच्यते ।। (मूंगा) भस्म और स्वर्ण माक्षिक भस्म समान भाग योजयेत् सर्व रोगेषु न विकारं करोति हि ॥ ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और
शुद्ध बछनागमें समान भाग सुहागा मिला फिर उसमें अन्य औषधे मिला कर संभालु, पान,
| कर खरल कर लेनेसे विष मर जाता है और हानि मकोय, गोपीचन्दन, त्रिफला, करेला, दशमूल,
नहीं पहुंचाता । पुनर्नवा, गिलोय, बासा, भंगरा और काला भंगश इनके स्वरस या काथकी पृथक् पृथक् ३-३
(७०७८) विषमारणम् (२) भावना दे कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। ( आ. वे. प्र. । अ. ४ ; यो. र. ; वृ. यो. इन्हें पीपलके चूर्ण और गुड़के साथ सेवन
त.। त. ४३) करनेसे साधारणतः समस्त प्रकारके ज्वरोंका और तुल्येन टङ्कणेनैव द्विगुणेनोषणेन च । विशेषतः विषम ज्वरका नाश होता है । विषं संयोजितं शुद्धं मृतं भवति सर्वथा ॥
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