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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
शुद्ध घछनागमें उसके बराबर सुहागा और पारद भस्म ( पाठान्तरके अनुसार वंग २ गुना काली मिर्चका चूर्ण मिला कर खरल कर | भस्म ), हल्दीका चूर्ण, सुहागेकी खील, काली लेनेसे विष मर जाता है।
मिर्चका चूर्ण और तूतिया समान भाग ले कर विषमारी रसः ( महा ) सबको एकत्र मिला कर देवदाली ( बिंडाल ) के " महा विषमारी रसः ” देखिये । रसमें खरल करके सुखा कर सुरक्षित रक्खें । (७०७९) विषयोगः
मात्रा-३॥ माशे। (वृ. यो. त. । त. १२८)
अनुपान-मनुष्यका मूत्र । गोमूत्रेण विषं घृष्ट्वा सशूले श्रवणे क्षिपेत् ।।
इसे पिलानेसे स्थावर और जङ्गम भयंकरसे सद्य एव स्रवः शूल: कण्डूः पीडा च शाम्यति।। भयंकर विष भी नष्ट हो जाता है। ____ शुद्ध बछनागको गोमूत्रमें घिस कर कानमें डालनेसे कर्णशूल, कर्णस्राव और कानकी खाजका
(७०८२) विषवज्रपातो रसः (२) शीघ्रही नाश हो जाता है।
(र. चं. ; भै. र. ; धन्व. ; रसे. सा. सं. । विषा.) (७०८०) विषरक्षणम् निशां सटङ्को सजातिकोषं ( आ. वे. प्र. । अ. ४)
तुत्थं समांशं कुरु देवदाल्याः। रक्तसर्षपतैलेन लिप्ते वाससि धारयेत् ।
रसेन पिष्टवा विषवज्रपातो विषं शुद्धं प्रयत्नेन नान्यत्र गुणहानितः ॥
रसो भवेत्सर्वविषापहन्ता ॥ शुद्ध विषको सरसोंके तेल में भीगे हुवे कपड़े- |
निष्कोऽस्य सञ्जीवयति प्रयुक्तो में रखनेसे उसके गुण स्थिर रहते हैं। (७०८१) विषवजूपातो रसः (१)
नृमूत्रयोगेन च कालदष्टम् । (र. का. घे. । विषा. ; वृ. यो. त.। त. १४५)
जटाविषेणाकुलितं तथान्यरसो' निशा टङ्कणमूषणानि
विषैश्च यं हन्ति तथाऽऽतुरं च ॥ ___ तुत्थं समांशं कुरु देवदाल्याः ।
हल्दी, सुहागेकी खील, जावत्री और तूतिया रसेन पिष्टो विषवज्रपातो
समान भाग ले कर सबको एकत्र खरल करके रसो भवेत्सर्वविषोपहन्ता ॥ देवदाली ( बिंडाल ) के रसमें घोट कर, सुखा कर निष्कोऽस्य सञ्जीवयति प्रयुक्तो सुरक्षित रक्खें । नृमूत्रयुक्तेन च कालजुष्टम् ।
मात्रा--३॥ माशे । जटाविषेणाकुलितं तथान्यै
अनुपान-मनुष्यका मूत्र । दुष्टैविषैश्चूर्णितमातुरं च ॥
इसे पिलानेसे स्थावर और जङ्गम समस्त १. रङ्गमिति पाठान्तरम् ।
प्रकारके भयंकरसे भयंकर विष भी नष्ट हो जाते हैं।
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