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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
इसी प्रकार सात पुट देनेसे लोहकी वारितर | ततः पारदगन्धाभ्यां तत्समाभ्यां सम्मर्दयेत् ॥ भस्म हो जाती है।
पूर्ववद्धान्यराशिस्थं तीक्ष्णं सर्वोत्तमं भवेत् ॥ (६४१७) लोहमारणम् (११) ___कांसीके पात्र में नीबूका रस भर कर उसमें (र. म. ; वृ. यो. त. । त. ४१. )
(आठवां भाग) कसीसका चूर्ण मिला कर उसमें काकोदुम्बरिकानीरैलॊहपत्राणि सेचयेत् ।। तलवारके टुकड़े डाल दें और १ दिन तेज़ धूपमें वह्नितप्तानि षड्वारं कुट्टयेत्तदुलूखले ॥ रक्खें । तदनन्तर उन्हें पीस कर त्रिफला काथके तत्पश्चमांशं दरदं क्षिप्त्वा सर्व विमर्दयेत् ।
| साथ खरल करें और यथा विधि गजपुटमें पकावें। कुमारीनीरतः श्लक्ष्णं पुटेद्गजपुटेन तु ॥
इसी प्रकार वारितर भस्म होने तक त्रिफला काथमें त्रिवारं त्रिफलाकाथैस्तत्संख्यैरपि तत्त्ववित् । घोट घोट कर पुट देते रहें। निरुत्थं जायते लोहं त्रिधाऽप्यत्र न संशयः॥
तदनन्तर १ भाग शुद्ध पारद और २ भाग लोहेके बारीक पत्रोंको तपा तपाकर ६ बार
गन्धककी कज्जली करके उसमें समान भाग उपकठूमरके रसमें बुझा कर कूट लें और फिर उसमें
रोक्त भस्म मिला कर दोनोंको २ पहर घीकुमारके
रसमें खरल करें और फिर उसका गोला बनाकर उसका पांचवां भाग हिंगुल मिला कर घीकुमारके
उसे अरण्डके पत्तोंमें लपेट कर तांबेके शरावसम्पुटरसमें घोट कर खूब बारीक करें एवं टिकिया
में बन्द करें और अनाजके ढेरमें दबा दें तथा बना कर सुखा कर उन्हें शरावसम्पुट में बन्द करें
तीन दिन पश्चात् निकालकर पीस लें। यह लोहकी और उसे सुखा कर गजपुटमें फूंक दें । इसी
| सर्वोत्तम भस्म है। प्रकार ३ पुट दें और फिर ३ पुट त्रिफलाके का. थमें घोट कर दें। हर बार पांचवां भाग हिंगुल
(६४१९) लोहमारणम् (१३)
( यो. र. ; आ. वे. प्र.। अ. ११ ; वृ. यो. मिला लेना चाहिये।
त. । त. ४१) इस विधिसे तीक्ष्ण लोह, कान्त लोह और |
लोहचूर्ण पलं खल्वे सोरकस्य पलं तथा । मुण्ड लोहकी निरुत्थ भस्म हो जाती है।
अच्छगन्धपलं चापि सर्वमेकत्र मर्दयेत् ।। (६४१८) लोहमारणम् (१२)
| कुमार्यद्भिर्दिनं पश्चाद्गोलकं रुबुपत्रकैः। (वृ. यो. त. । त. ४१)
संवेष्टय च मृदा लिप्त्वा पुटेद्गजपुटे भिषक् ॥ निम्बूफलस्य पानीयैः सकासीसैः प्रपूरिते। स्वाङ्गशीतं समुदत्य सिन्दूराममयोरजः । कांस्यपात्रे क्षिपेत्खड्गखण्डांश्चण्डातपे स्थिते ॥ मृतं वारितरं ग्राह्यं सर्वकार्यकरं परम् ॥ दिनैकेन स्फुटन्त्येते दिनान्ते तांस्तु पेषयेत् । पाण्डं पीडयति क्षयं क्षपयति क्षण्यं क्षिणोति त्रिफलाकाथपिष्टं तच्चूण गजपुटे पचेत् ॥ क्षणात्कासं नाशयति भ्रमं नमति श्लेष्मामपुनः पिष्टेन यावत्स्यात्तद्वारितरमुत्तमम् ।
यान्खादति ।
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