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रसमकरणम् ]
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'चतुर्थी भागः
(६३४४) लघुशिवगुटिका
( यो. र. । क्षय. ; वृ. यो. त. । त. ७६ ) कौटजत्रिफलानिम्बपटोलघननागरैः । भावितानि दशाहानि रसैर्द्वित्रिगुणानि च ॥ शिलाजतुपलान्यष्टौ तावती सितशर्करा । स्वक्क्षीरिपिप्पलीधात्रीकर्कटाख्यान्पलोन्मितान् ॥ निदिग्धिफलमूलाभ्यां पलं युज्ज्यात्त्रिजातकात्। मधुत्रि पलसंयुक्तान्कुर्यादक्षसमान्गुडान् ॥ दाडिमाम्रपयःक्षीररस यूपसुरासवान् । तं भक्षयित्वाऽनुपिवेन्नरन्नो हितभक्ष्यभुक् ॥ पाण्डुकुष्ठज्वरप्लीहतमकार्शो भगन्दरम् । नाशयेन्मूत्रकृच्छ्राणि मूत्रस्थानविबन्धनात् ॥
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as योजितं येन कान्तलोहं तथाऽभ्रकम् | पलं पलं च मिलिते तदा स्यात्किमतः परम् ती दुःखदं पाण्डु प्रमेहं सपरिग्रहम् । राजरोगं च व्याधींश्च जयेदिति किमद्भुतम् ॥
इन्द्रजौ त्रिफला, नीमकी छाल, पटोल, नागरमोथा और सांठ समान भाग लेकर काथ बनावें । तदनन्तर ४० तोले शिलाजीतको इस काथकी १० भावना दें। तत्पश्चात् यह शिलाजीत, ४० तोले सफेद खांड, तथा ५–५ तोले बंसलोचन, पीपल, आमला और काकड़ासिंगीका चूर्ण; २॥ २॥ तोले कटेलीकी जड़ और फलोंका चूर्ण एवं दालचीनी, इलायची और तेजपातका चूर्ण ५ तोले लेकर सबको एकत्र खरल करके १५ तोले शहद में मिलाकर ११ - १ | तोलेके मोदक बना ले 1
अनुपान अनारका रस, आमका रस, दूध, मूंगका यूष, सुरा अथवा आसव ।
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इसे प्रातःकाल निरन्न ( खाली पेट ) खाना और पथ्य पूर्वक रहना चाहिये ।
इसके सेवन से तमक श्वास, अर्श,
नाश होता है ।
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पाण्डु, कुष्ठ, ज्वर, प्लीह, भगन्दर और मूत्रकृच्छ्रका
यदि इस योग में ५ - ५ तोले कान्त लोह भस्म और अभ्रक भस्म मिला ली जाय तो यह अत्यन्त दुःखप्रद पाण्डु, प्रमेह और राजयक्ष्मा में अत्युत्तम फलदायक औषध हो जाती है ।
(६३४५) लघुसिद्धाभ्रकरस: ( र. र. स. 1 उ. अ. १६; र. चं. सु. । ग्रहण्य. )
समांश रसगन्धाभ्रदरदं च विशोधितम् । stard विनिक्षिप्य गव्याजेन समन्वितम् ॥ द्रोणीचुल्ल्यां न्यसेत्खल्वं साङ्गारायां प्रयत्नतः । मर्दकेनापि लौन मर्दयेदिवसद्वयम् ॥ इति सिद्धो रसेन्द्रोऽयं लघु सिद्धाभ्रको मतः । वल्लतुल्यो रसो जीरवारिणा सहितः प्रगे ॥ पीतो हरति वेगेन ग्रहणीमतिदुर्धराम् । अतिसारं महाघोरं सातिसारं ज्वरं तथा ॥ पाचनो दीपनो हृद्यो गात्रलाघवकारकः । नागार्जुनेन कथितः सद्यः प्रत्ययकारकः ॥ :
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; र. रा.
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, अभ्रक भस्म और शुद्ध हिंगुल समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनायें और फिर उसमें अन्य औषधें मिलाकर सबको थोड़े गोघृत में मिलाकर लोह - खरल में डालकर उसे अंगारों पर रक्खें और २ दिन