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घृतप्रकरणम् ]
क्वाथ - नीम के पत्ते, सतौना, पाठा, गिलोय, शतावर, छोटा अमलतास, लताकरञ्ज, नाटाकरंज, खैर, कुडेकी छाल, धव, पटोल, पित्तपापड़ा, इन्द्रायण और चीता । सब समान भाग मिश्रित ८ सेर लेकर सबको एकत्र कूट कर ६४ सेर पानी में पकावें । जब १६ सेर पानी रह जाय तो छान है।
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इसकी अपेक्षा कल्क यों में पुनर्नवा और दारुप्र. सं. २४४४ त्रिफलावृत देखिये । उसमें हल्दी अधिक हैं 1
चतुर्थी भागः
कल्क-चिरायता, कुटकी, नागरमोथा, दन्तीमूल, पित्तपापड़ा, बच, इन्द्रायणकी जड़, अतीस, मूर्वा, मुलैठी, २ प्रकारकी सारिवा, बाबची, हल्दी, दारु हल्दी, धमासा, लाल चन्दन, बायबिडंग, पीपल, पाठा, चीता, देवदारु, भिलावा, खस. अमलतास और इन्द्रजौ । प्रत्येक ११--११ तोला लेकर सबको एकत्र पीस लें ।
४ से धीमें उपरोक्त क्वाथ. कल्क और ८ सेर आमलेका रस मिला कर पकायें ।
महाफलघृतम् (१)
( व. से. । नेत्र रोगा. ) प्रयोग संख्या २४५१ देखिये |
यह घृतं समस्त प्रकारके कुष्ट, वातरक्त, विसर्प, भयंकर रक्तस्राव, रक्तपित्त, कामला, कण्डू और विप विकार इत्यादि सैकड़ों औषधोंसे न शान्त होने वाले भयंकर रोगों को भी नष्ट कर देता है ।
महाफलघृतम् (२).
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नेत्ररो. :
( व. से.; च. द.; वृ. मा.; धन्व. भै. र. । .; वृ यो त । त. १३१; यो तः । त. ७१ )
प्र. सं. २४५७ देखिये ।
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महाफल वृतम् (३) ( ग . नि. | घृता. )
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(५२३८) महादाडिमाद्यं घृतम् ( भै. र. । प्रमेहा. )
दाडिमस्य फलप्रस्थं प्रस्थञ्च यवतण्डुलम् । कुलत्थं प्रस्थमादाय घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ शतावरीरसमस्थं गव्यदुग्धञ्च तत्समम् । कल्कः सार्द्धपिचुद्रक्षा खर्जूरं त्रिफला तथा ॥ रेणुका चाष्टवर्गश्च देवदारु निशाद्वयम् । faraiकुकमेला च विदातिवला तथा ॥ शिला त्वचमुशीरञ्च शुद्धं कृष्णाभ्रचूर्णकम् । प्रमेहान् विंशतिं हन्ति मूत्राघात त्रयोदश ॥ अश्मरीं मूत्रकृच्छ्रञ्च रक्तपित्तं सुदारुणम् । वातजं पित्तजञ्श्चैव श्लेष्मजं सन्निपातजम् ॥ बृंहणञ्च विशेषेण सर्वमेहहरं परम् | अश्विभ्यां निर्मितं सिद्धं दाडिमाद्यमिदं महत् ॥
क्वाथ अनार, छिलके रहित जौ और कुलथी १-१ सेर लेकर सबको कूट कर २४ सेर पानी में पकावें और जब ६ सेर पानी शेष रह जाय तो ले 1
छान
कल्क - मुनक्का, खजूर, हर्र, बहेड़ा, आमला, रेणुका, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, ऋद्धि, वृद्धि, काकोली, क्षीरकाकोली, देवदारु, हल्दी, दारूहल्दी, कन्दूरी, कूठ, छोटी इलायची, बिदारीकन्द, कंधी (अतिबला), शिलाजीत, दालचीनी, खस