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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ मकारादि मेंसे गोलेको निकालकर उसे गुड़ और हरतालके | रक्तिद्वयमिता कार्या माक्षिकादि वटी शुभा ॥ लेप सहित पीस लें। वेष्टिता पद्मपत्रेण धान्यराशौ निधापिता । __अब इसे कुचलेके रसकी सात भावना देकर यथायोगानुपानेन सेविता संहरेन्नृणाम् ।। धूपमें सुखा कर उसमें उसका तीसवां भाग वैक्रान्त- नेत्ररोगांश्च निखिलान् नानोपद्रवसंयुतान् ॥ भस्म मिला कर मजबूत शीशीमें भरकर रक्खें । स्वर्ण माक्षिक भस्म १ तोला, शुद्ध गन्धक ६ इसके सेघनसे अर्श, क्षय, कुष्ठ, अग्निमांद्य, माशे, शुद्ध पारद ६ माशे; अभ्रक भस्म ६ माशे शूल, अफारा, कफ, स्वास, उन्माद, अपस्मार, तथा मोती और स्वर्ण भस्म ३-३ माशे लेकर वात व्याधि, दुष्ट ज्वर, वात कफज अनेक रोग प्रथम पार गन्धककी कज्जली बनावें और फिर और ग्रहणीका नाश होता है । उस में अन्य औषधे मिलाकर सबको मकोयके पत्तोंके स्वरसकी ३ भावना देकर २-२ रत्तीकी (५५९४) माक्षिकादिचूर्णम् गोलियां बना लें। ( भै. र. ; आ. वे. वि. । प्रमेहा.) इन्हें कमलके पत्तोंमें लपेट कर अनाजके माक्षिकं रससिन्दूरं खर्परं रजतन्तथा । | ढेर में दबा दें (और १ मास पश्चात् काममें शिलाजत्वभ्रलौहानि शाल्मल्याः कुसुमं त्वचम्॥ लावें । ) विदारी गोक्षुरं बीजं चैकत्र परिमर्दयेत् । इन्हें यथोचित अनुपानके साथ सेवन करबल्लमानं प्रयुञ्जीत शुक्रमेहनिवृत्तये ॥ से अनेक उपद्रव युक्त समस्त नेत्र रोग नष्ट ____ स्वर्ण माक्षिक भस्म, रससिन्दूर, खपरिया, होते हैं। चांदी भस्म, शुद्ध शिलाजीत, अभ्रक भस्म, लोह __(५५९६) माणशूरणाद्यं लौहम् भस्म, संभलके फूल, सेंभलकी छाल, बिदारी कन्द (भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. । अर्श.) और गोखरु । सबके समान भाग चूर्ण लेकर सर्बको एकत्र खरल कर लें। माणशूरणभल्लातत्रिवदन्तीसमन्वितम । त्रिकत्रयसमायुक्तमयो दुर्नामनाशनम् ।। इसमेंसे ३-३ रत्ती औषध (शहदके साथ) सेवन करनेसे शुक्रमेह नष्ट होता है । मानकन्द, जमीकन्द, शुद्ध भिलावा, निसोत, दन्तीमूल, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, (५५९५) माक्षिकादिवटी चीतामूल, बायबिडंग और नागरमोथा। इन सबका ( भै. र. । कर्ण.) | चूर्ण १-१ भाग तथा लोह भस्म सबके बराबर माक्षिक तोलकमितं तदर्द्ध गन्धक रसम । (१४ भाग) लेकर सबको एकत्र खरल करें । तथाभ्रश्च समादाय मुक्तास्वर्णौ च पादिकौ ॥ इनके सेवनसे बवासीर नष्ट होती है। काकमाची पत्ररसै स्त्रिधा सम्भाव्य यत्नतः।। (मात्रा-४ रत्तो।) For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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