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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः २२९ (५५९७) माणिक्यतिलकरसः । बदरीपल्लवोत्थेन लेपनं कारयेत्ततः । (र. र. स. । अ. २०) अरुणाभमधःपात्रं तावज्ज्वाला प्रदीयते ॥ रसगन्धकताप्यालकान्ततीक्ष्णाभ्रभस्मकम् । स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य माणिक्याभो भवेद्रसः । हिङ्गुलं मधुकं कुष्ठं सर्व समविभागिकम् ॥ घृतक्षौद्रेण सम्मा खादयेद्रक्तिकामितम् ॥ शतमूलीनिजद्रावैर्मञ्जिष्ठादिकषायतः । सम्पूज्य देवदेवेशं कुष्ठरोगाद्विमुच्यते । निदिन त्रिदिनं सम्यक् परिमय विशोष्य च ॥ स्फुटित गलितं कुष्ठं वातरक्तं भगन्दरम् ॥ ततस्तु पक्षमूषायां सनिरुध्यातियत्रतः। । | नाडीव्रगं व्रणं दुष्टमुपदंशं विचर्चिकाम् । प्रक्षिप्य वालुकायन्त्रे प्रपुटेदिवसद्वयम् ॥ नासास्यसम्भवान् रोगान् क्षतान् हन्यात्सुमाणिक्यतिलको नाम रसो नासत्यकीर्तितः।। दारुणान् ॥ एष कुष्ठं हरत्याशु सन्मित्रमिव हृद्वद्यथाम् ॥ पुण्डरीकञ्च चर्माख्यं विस्फोटं मण्डलं तथा ॥ शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, स्वर्ण माक्षिक भस्म, वंशपत्री (तबकी) हरतालको सात सात या हरताल भस्म, कान्त लोह भस्म, तीक्ष्ण लोह भस्म, | तीन तीन बार पेठेके रस, खट्टी दही और कांजीमें अभ्रक भस्म, शुद्ध हिंगुल तथा मुलैठी और कूठका | पृथक् पृथक् दोलायन्त्र विधिसे पका कर शुद्ध चूर्ण समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी | करें । तत्पश्चात् उसके चावलके समान बारीक कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधे टुकड़े कर लें और एक मृत्पात्रमें (नीचे सफेद मिलाकर सबको ३-३ दिन शतावरके स्वरस | अभ्रक बिछा कर उस पर ) यह हरताल फैलाकर और मञ्जिष्ठादि क्वाथ में खरल करके सुखा । ( उसके ऊपर दूसरा अभ्रक पत्र रख कर ) पात्रको लें । तदनन्तर उसे एक दृढ़ मूषामें बन्द करके दो शरावसे ढक दें तथा जोड़को बेरीके पत्तोंके कल्कसे दिन बालुका यन्त्रमें पकावें । बन्द कर दें। अब इस पात्रको ( कण्डोंकी अग्नि इसके सेवनसे कुष्ट शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। पर) इतना पकावे कि नीचेका भाग (तली) लाल हो जाय । इसके पश्चात् पात्रके स्वांग शीतल (५५९८) माणिक्यरसः (१) होने पर उसमेंसे रसको निकाल कर सुरक्षित (रसमाणिक्यम् ) | रक्खें । यह रस माणिक्यके समान दीप्तिमान (भै. र ; रसे. सा. सं. ; र. चं. ; धन्व । कुष्टा.) | होता है। तालकं वंशपत्राख्यं कूष्माण्डसलिले क्षिपेत् । इसमेंसे नित्य प्रति १-१ रत्ती रस घी और सप्तधा वा त्रिधा वापि दनाम्लेन तथैव च ॥ शहदके साथ सेवन करनेसे स्फुटित और गलित शोधयित्वा पुनः शुष्कं चूर्णयेत्तण्डुलाकृतिः। कुष्ठ, वातरक्त, भगन्दर, नाडीव्रण (नासूर), ब्रण, ततः शरावके यन्त्र स्थापयेत्कुशलो भिषक् ॥ उपदंश, विचर्चिका, नासा रोग, मुख रोग, पुण्डरीक For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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