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चतुर्थो भागः
प्रकरणम् ]
(५५७७) महाविषमारिरसः
(र. का. . । ज्वरं . )
अशोधितं रसं तालं खपैरं च मनःशिलाम् । माक्षिकं हिङ्गुलं गन्धं शिखितुत्थं यथाक्रमम् || मर्दद्यामेकं तु भिषक्सम्यग्गुरूक्तितः । इन्द्राणिकाभृङ्गराजकारवल्लीजयारसैः ॥ वेदत्रं विमर्देत ततः कुर्यात्सुगोलकम् । भाण्डमध्यगतं ताम्रपात्रेणैनं पिधापयेत् ॥ अभयारूष्कखटीकल्कैः सन्धि लिम्पेद्गुरूक्तितः सिकता पूरितं कृत्वा पात्रं किञ्चित्प्रदर्शयेत् तत्र त्रिचतुरा सम्यनिवेश्याः शालयः शुभाः । दीप्ताग्निना पचेत्तावद्यवल्लाजा भवन्ति ताः । स्वभावशीतलं ग्राह्यमपकार्क न मेलयेत् ॥ इन्द्राणिकाकारवल्लीस्वरसेन विमर्दयेत् ॥ गुञ्जायं कालकेन तुलसीरसतोऽपि वा । निर्गुण्डी मरिचाभ्यां वा रसोनेन गुडेन वा ॥ ज्वरांच विषमान्सर्वान्नाशयेच्छीतपूर्वकान् । दाहपूर्व छीतयुक्तान् नाशयेद्विषमज्वरान् ॥ पथ्यं ददीत गोक्षीरैः स्नेहाम्लो वर्जयेद्ध्रुवम् । स्त्रीसङ्गो दूरतस्त्याज्यः शीताम्भः सम्परित्यजेत्।। विषमारिर्महान् प्रोक्तः शम्भुना रससागरे ॥
अशुद्ध पारद, हरताल, खपरिया, मनसिल, स्वर्णमाक्षिक भस्म, हिंगुल, गन्धक और नीलाथोथा ( तूतिया ) समान भाग लेकर सबको १ पहर खरल करके कज्जली बनावें और उसे इन्द्रायण, भंगरा, करेला और जयाके रस में ४-४ पहर घोट कर गोला बनावें तथा उस गोलेको एक हाण्डीमें रखकर तांबेकी कटोरीसे ढक दें और दोनोंकी सन्धिको
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हर्र, भिलावा तथा खड़िया मिट्टीके कल्क (गारे) से अच्छी तरह बन्द कर दें। अब हांण्डी में गले तक रेती भरकर उस पर ३-४ धानके दाने डाल दें । इसे चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे तीत्राग्नि जलावें । जब धानकी खील हो जाएं तो अग्नि देनी बन्द कर दें और हण्डी स्वांग शीतल होने पर उसमें से औषधको निकाल लें । ताम्रका जो भाग कच्चा हो उसे ग्रहण न करें और शेष भागको साथ में खरल कर लें। अब इसे इन्द्रायण और करेले के स्वरसकी १-१ भावना दे कर सुरक्षित रक्खें ।
इसमें से ३ रती रस बेरके काथके साथ, या तुलसीरसके साथ, या संभालके रस और काली मिर्च के चूर्णके साथ अथवा ल्हसन और गुड़के साथ खिलानेसे समस्त शीत- पूर्व, और दाह - पूर्व शीतयुक्त विषम ज्वर नष्ट होते हैं ।
पथ्य - गोदुग्ध के साथ पथ्याहार ( भातादि ) खिलावें और स्नेह तथा अम्ल पदार्थोंसे परहेज़ करावें । शीतल जल न पिलावें और स्त्रीप्रसंगका तो नाम भी त्याग करा दें ।
( नोट - - यद्यपि मूल पाठ में "अशोधितं रसं " लिखा है, तथापि समस्त रसोपरस शुद्ध लिये जाएं तो अधिक उत्तम है | )
(५५७८) महावीररसः
र. र. स. । अ. १४ ; र. रा. सु. । राजयक्ष्मा ) निष्कौ द्वौ तुत्थभागस्य रसादेकं सुसंस्कृतात् । निष्कं विषस्य द्वौ तीक्ष्णात् कषशं गन्ध
मौक्तिकात् ॥
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