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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४२० www.kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः (६०९५) रससाररसः ( २. च.; । रसविकार चि. ; यो. र. ) मुक्तावमवङ्गभूतिसहितं बल्लं पृथक् स्वर्णकम् छिन्नासत्त्वतुगासितानवनितं चालोड्य सम्भ । क्षयेत् ॥ संजाते तृषि नारिकेलसलिलं तत्कालिकं प्राशयेत्। सर्वस्मिन्रसवैकृते च गदितं ह्येतद्धि योगामृते || मोती भस्म, विद्रुम (मूंगा) भस्म, बंग भस्म और स्वर्ण भस्म तथा गिलोयका सत और बंसलोचन समान भाग लेकर सबको एकत्र मिला कर खरल करें। इसे मिश्रीयुक्त नवनीत (नौनी घी) के साथ चाटने से रसजनित विकार शान्त होते हैं । रस सेवन से यदि तृषा उत्पन्न हो जाय तो नारियलका ताज़ा पानी पिलाना चाहिये । (६०९६) रस सिन्दूरम् (१) ( रसे. सा. स. ; यो. र. ) पलमात्रै रसं शुद्धं तावन्मात्रन्तु गन्धकम् । विधिवत्कज्जलीं कृत्वा न्यग्रोधाङ्कुरवारिभिः ॥ भावना त्रितयं दत्वा स्थालीमध्ये निधापयेत् विरच्य कवचीयन्त्रं वालुकाभिः प्रपूरयेत् ॥ दद्यात्तदनु मन्दार्थि भिषग्यामचतुष्टयम् । जायते रससिन्दूरं तरुणादित्यसन्निभम् ॥ अनुपानविशेषेण करोति विविधान्गुणान् ॥ । ५ तोले शुद्ध पारद और ५ तोले शुद्ध गन्धककी कजली करके उसे बड़के अंकुरे के रस की Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ कारादि ३ भावना दे कर सुखा लें और फिर उसे ३-४ कपड़मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भर कर बालुका यन्त्र में रख कर ४ पहरकी मन्दाग्नि दें । तदनन्तर शीशीके स्वांगशीतल होने पर उसे सावधानी पूर्वक तोड़ कर उसमें से बालसूर्य के समान लाल रंग के रसको निकाल लें । इसीका नाम रस - सिन्दूर है | रोगोचित अनुपान के साथ देनेसे यह अनेक रोगको नष्ट करता है । (६०९७) रस सिन्दूररम् (२) ( योग त । त. १७; आ. प्र. । अ. १ ) सुतः पञ्चपलः स्वदोषरहितस्तत्तुल्यभागो बलिद्वौं टङ्कौ नवसादरस्य तुवरीकर्षश्च संमर्दितः । कृपया काचभुवि स्थितश्च सिकायन्त्रे त्रिभिवसरे: पको वह्निभिरुद्भवत्यरुणाभाः सिन्दूरनामा रसः शुद्ध पारद २५ तोले, शुद्ध गन्धक २५ तोले, नौसादर १० माशे और फटकी १| तोला लेकर कज्जली बनावें और फिर उसे कपड़ मिट्टी की हुई आतशी शीशी में भर कर ३ दिन तक बालुका यन्त्रमें पकावें । और तत्पश्चात् शीशी स्वांगशीतल होने पर उसे तोड़कर उसके गलेमें लगे हुवे लाल रंग रससिन्दूरको निकाल लें । (६०९८) रससिन्दूरम् (३) ( आ. वे. प्र. । अ. १ ) कूपी सप्तमृदंशुकैः परिवृता शुष्काऽत्र गन्धेश्वरौ तुल्यौ तौ नवसारपादकलितौ सम्मर्थ तस्यां न्यसेत् । For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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