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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [वकारादि पीपल ) ३२ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धककी दोपत्रयोत्थेऽपि च सनिपाते कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका | वाताधिकत्वादिह मूतकोक्तः ॥ चूर्ण मिला कर खरल करके सात दिन हींगके कान्त लोह भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध हरताल, पानीमें घोटें और फिर जयन्ती, मकोय, संभालु शुद्ध गन्धक, समुद्रफेन, पांचों नमक ( सेंधा, तथा अदरकके रसकी १-१ भावना दे कर काली | | संचल, सामुद्र लवण, विड लवण, काच लवण ), मिर्च के बराबर गोलियां बना कर छायामें सुखा लें। शुद्ध सुरमा, शुद्ध तूतिया, रौप्य भस्म, मूंगा भस्म, इन्हें उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे शूल, कौड़ी भस्म, वैक्रान्त भस्म, शम्बूक (घोंघों ) की कृमि, अग्निमांद्य, क्षुधावैषम्य, ग्रहणी रोग, शोथ, भस्म, और समुद्रकी सीपको भस्म १-१ भाग पाण्डु, गुल्म, अर्श, वातकफज रोग, उदर रोग. ले कर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और श्वास, खांसी और ज्वरका नाश होता है। फिर उसमें अन्य ओषधियांका चूर्ण मिला कर (६९४६) वडवानलरसः (१) खरल करें। तत्पश्चात् उसमें बारहवां भाग पारद मिला कर पुनः खरल करें और फिर उसे ३-३ ( भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा. ) दिन थूहर ( सेंड ) और आकके दूध तथा चीतेके कान्तश्च मूतं हरितालगन्धं रसमें खरल करके गोला बनावें और उसे सुखाकर समुद्रफेनं लवणानि पञ्च । तांबेके सम्पुटमें बन्द करके उस पर कपरमिट्टी नीलाञ्जनं तुत्थकमेव रौप्य करके सुखा लें और पुटपाक करें। तदनन्तर उसके भस्मप्रवालानि वराटकाध ॥ स्वांगशीतल होने पर उसमें चतुर्थांश ( सबका वैक्रान्तशम्बूकसमुद्रशुक्तिः चौथा भाग ) शुद्ध बछनागका चूर्ण मिला कर सर्वाणि चैतानि सपानि कुर्यात् । जरा देर चीतेके काथमें पकायें और खरल मूतं भवेद् द्वादशभागिकञ्च करके रख लें। स्नुह्यर्कदुग्धेन विमर्दयेच्च ॥ इसे वात प्रधान तथा कफ प्रधान ज्वरमें चीते दिनत्रयं वह्निरसैस्ततश्च और त्रिकुटेके क्वाथके साथ देना चाहिये । निवेशयेत्ताम्रजसम्पुटे तत् । सन्निपात ज्वरम भी, वाताधिक्य होनेके कारण मृदा च संलिप्य रसं पुटे यह रस लाभ पहुंचाता है। त्तद्रसस्ततःस्याद्वडवानलाख्यः ॥ (६९४७) वडवानलरसः (२) तत्पादभागेन विषं नियोज्य ( र. चि. म.। स्त. ८) कृशानुतोयेन पचेत् क्षणं तत् । वातप्रधाने च कफप्रधाने गधाणा दश ताम्रस्य तेषां पत्राणि कारयेत् । नियोजयेत् त्र्यूषणचित्रयुक्तम् ॥ तानि कण्टकवेध्यानि द्वयालैकाङ्गलानि च ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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