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रसप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
इसके सेवनसे प्लीहा, अग्रमांस और शोथ | स्वागशीतां च तां पिष्टी साम्लतालेन मर्दितम् ॥ अवश्य नष्ट हो जाता है।
पुटेदशवाराणि भस्मी भवति रूप्यकम् ॥ (६१६१) रौद्ररसः
शुद्ध पारदको बढलके रसमें घोट कर शुद्ध (रसे. सा. सं. ; र. चं. ; र. रा. सु. । अर्बुदा ;
चांदीके बारीक पत्रों पर लेप कर दें और फिर उन धन्व. ; वृ. नि. र. ; र. का. धे. । अर्बुदा.
पत्रोंके ऊपर नीचे शुद्ध गन्धकका चूर्ण बिछा कर रसे. चि. म. । अ. ९; र. म. । अ. ६)
उन्हें शरावसम्पुटमें बन्द करें । तदनन्तर उस
सम्पुटको बालुका यन्त्रमें रख कर १ दिन तीब्राग्नि शुद्धं मूतं समं गन्धं मध यामचतुष्टयम् ।
पर पकावें। नागवल्लीरसैयुक्तं मेघनादपुननेवैः ॥
___ इसके पश्चात् जब वह स्वांगशीतल हो गोमूत्रपिप्पलीयुक्तं मी रुड्वा पुटेल्लघु ।।
.. जाय तो उसमें से चांदीको निकाल कर उसमें लिह्यात्क्षाद्र ताराद्रा गुआमामा ९ जप" ( उसके बराबर ) शुद्ध हरताल मिलाकर दोनोंको
- शुद्ध पारद और गन्धक समान भाग ले कर | नीबूके रसमें घोटें और शरावसम्पुटमें बन्द करके दोनोंकी कजली बनावें और फिर उसे पानके रस, |
| गजपुटमें फूंक दें। चौलाई के रस, पुनर्नवा (बिस व परा ) के रस,
इसी प्रकार १० पुट देनेसे चांदीकी भस्म गोमूत्र और पीपल के काश्रमें पृथक पृथक् चार चार |
हो जाती है। पहर घोट कर गोला बनावें और उसे सुखाकर शगव-सम्पुट में बन्द करके लघुष्ट में पकावें ।
(६१६३) रौप्यभस्मविधिः (२)
(यो. त. । त. १७) मात्रा-१ रत्ती। इसे शहद में मिलाकर चाटनेसे अर्बुद नष्ट |
| विधाय पिष्टिं मूतस्य रजतस्याथ मेलयेत् । होता है।
तालगन्धं समं पश्चात् मेलयेनिम्बुक द्रवैः ॥
द्विस्त्रिः पुटैर्भवेद्भस्म योज्यमेतद्रसादिषु ॥ रौद्रश्वररसः
१ भाग शुद्ध पारदमें १ भाग शुद्ध चांदीके प्र. सं. ५५६८ " महारौद्रेश्वर रसः "
वर्क मिला कर दोनोंको खरल करें । जब दोनोंकी देखिये ।
पिढीसी बन जाय तो उसमें १-१ भाग हरताल (६१६२) रौप्यभस्मविधिः (१)
और गन्धक मिला कर सबको नीबूके रसमें घोटें (र. र. स. । पू. खं. अ. ५) और यथा-विधि सम्पुटमें बन्द करके गजपुलकुचद्रवमूताभ्यां तारपत्रं प्रलेपयेत् । टमें पकावें। ऊर्ध्वाधो गन्धकं दत्त्वा मूषामध्ये निरुध्य च ॥ इसी प्रकार २-३ पुट देनेसे चांदीकी भस्म स्वेदयेद्वालुका यन्त्रेण दिनमेकं दृढाग्निना। । हो जाती है।
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