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२ सेर घी में यह कल्क और काथ मिला कर मन्दाग्नि पर पावें । जब काथ जल जाय तो घीको छान लें।
भारत-भैषज्य - रत्नाकरः
इसके सेवन से गुल्म, उदावर्त, पाण्डु, संग्रहणी, श्वास, खांसी, कुष्ठ, ज्वर, प्रतिश्याय, प्लीहा, और अर्शका नाश होता है ।
( मात्रा - १ तोला ।
(६७५६) विश्वौषधाद्यं घृतम् . ( वृ. मा. । ग्रहण्य. ; ग. नि. | ग्रहण्य. ३ ) विश्वौषधस्य गर्भेण दशमूलजले शृतम् । घृतं निहन्याच्छ्यथुं ग्रहणीमामतामयम् ॥
क्वाथ -- २ सेर दशमूलको १६ सेर पानी में पकावें और ४ सेर शेष रहने पर छान लें ।
T - १ - १॥ तोला
( मात्रा - (६७५७) वृद्धदारकघृतं तैलञ्च ( व. से. ; र. र. | श्लीपदा. ) घृतप्रस्थं विपक्तव्यं सव्योषं वृद्धदारकैः । कल्कैः सौवीरसिद्धं स्याच्लीपदानां नि
1 )
[ वकारादि
कल्क - सांठ, मिरच, पीपल और विधारेकी जड़ ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें
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वृत्तये ॥
अग्निं च कुरुते दीप्तमामवाते च शस्यते । एतैः कटु पचेत्तैलं पानाच्छूली पदनाशनम् ॥ सौवीरं सन्धानविशेषः तदभावे काञ्जिकम् ||
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२ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर सौवीरक कांजी मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब कांजी जल जाय तो घीको छान 1
१ सेर घीमें यह काथ और १० तोले सोंठका कल्क मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो घीको छान लें ।
इसके सेवनसे शोथ और आमयुक्त ग्रहणी पाण्डुरोगामवातघ्नं बलवर्णामिवर्द्धनम् ॥
नष्ट होती है ।
इसे सेवन करनेसे श्लीपद और आमवातका नाश होता तथा अग्निदीत होती है ।
इन्ही ओषधियों से सरसों का तेल सिद्ध करके पीने से भी श्लीपद नष्ट हो जाता है ।
(६७५८) वृद्धदारकाद्यं घृतम् ( र. र. । श्लीपदा. )
द्विपलं वृद्धदारस्य तदर्द्धश्च महौषधम् । पिप्पली त्रिफलादार्वी चित्रकं सपुनर्नवम् ॥ एभिश्चार्द्धपलैर्भागैर्धृतप्रस्थं विपाचयेत् । श्लीपदं नाशयत्याशु गृध्रसीशोथशूलनुत् ॥
कलक - विधारेकी जड़ १० तोले, सांठ ५ तोले और पीपल, हर्र, बहेड़ा, आमला, दारूहल्दी, चीता तथा पुनर्नवा (बिसखपरे ) की जड़ २ ॥ - २॥ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें ।
२ सेर घीमें यह कल्क और ८ सेर पानी मिला कर मंशनपर पकावें । जब पानी जल जाय तो घृतको छान लें 1
यह घृत श्लीपद, गृध्रसी, शोथ, शूल, पाण्डु और आमवातको नष्ट तथा बल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि करता है ।
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