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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[लकारादि
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इसे घी, पुराने मद्य, उष्ण जल, बेरके काथ, (६२३०) लवणादियोगः (१) तक, ऊंटनीके दूध और मस्तुमें से किसी एकके (ग. नि. । उदरा. ३२) साथ सेवन करना चाहिये ।
लवणं राजिकामित्रं समं गोमूत्रमिश्रितम् । (मात्रा-२-३ माशे।)
त्रिशाणं हन्ति पीतं हि यकृत्प्लीहोदराण्यपि॥ यह चूर्ण यकृत, प्लीहा, कमरका दर्द, गुद-- सेंधा नमक और राई समान भाग लेकर रोग, उदर रोग, हृदोग, अर्श, विष्टम्भ, अग्निमांद्य चूर्ण बनावें। गुल्म, अष्ठीला, हिचकी, :अफारो, श्वास और इसे गोमूत्रके साथ सेवन करनेसे यकृत, खांसीको नष्ट कर देता है।
प्लीहा और उदर रोगांका नाश होता है । नोट-इन्हों ओषधियोंसे घृत सिद्ध करके मात्रा-३ शाण। भी सेवन कराया जा सफता है।
(६२३१) लवणादियोगः (२) लवणभास्कर चूर्णम् .... (व. से. । विषरोगा.) ( यो. त. । त. २४; ग. नि.। चूर्गा. : वृ. यो. लवणानि त्रिवदन्ती विशाला त्र्यूषण निशा । त. । त. ७१; यो. चि. म.। अ. २; वृ. नि. मञ्जिष्ठा मधुकं शृङ्ग ह्यगदः सर्वकर्मकत् ।। र. । अजीर्णा. )
पांचों नमक, निसोत, दन्तीमूल, इन्द्रायणकी प्रयोग संख्या ४८३३ " भास्करलवण
जड़, सोंठ, मिर्च, पीपल, हल्दी, मजीठ, मुलैठी और चूर्णम् ” देखिये।
अगर समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । (६२२९) लवणयोगः
यह अगद हर प्रकारके विषको नष्ट करता है।
( इसे पान, लेप, नस्य, आदि द्वारा प्रयुक्त ( वृ. मा. । शूला. ; वृ. नि. र.। शूला.)
करना चाहिये ।) लवणत्रयसंयुक्तं पञ्चकोलं सरामठम् । सुखोष्णेनाम्बुना पातुं कफशूले प्रदापयेत् ॥
(६२३२) लवणोत्तमादिचूर्णम्
(वृ. नि. र. ; भै. र. । अर्शी.; च. द. । अर्शो.; सेंधा नमक, काला नमक, बिड नमक, पीपल,
हा. सं. | स्था. ३ अ. ११) पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ और हींग समान भाग
लवणोत्तमवह्निकलिङ्गयवान् । लेकर चूर्ण बनावें ।
चिरबिल्वमहापिचुमर्दयुतान् । इसे मन्दोष्ण जलके साथ सेवन करनेसे जितिन मशिताललितान कफज शूल नष्ट होता है।
यदि मर्दितुमिच्छसि पायुगदान् ॥ लवणादिक्षारः
सेंधा नमक, चीता, इन्द्रजौ, जौ, करञ्जकी (व. से. । अर्शी.) | गिरी, और बकायनके बीज समान भाग ले कर प्रयोग सं. ७८ ' अर्कक्षार ' देखिये । चूर्ण बनावें ।
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