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७१६ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि हंसपाद्या द्रवैरेव तद्गोलं चान्धितं पुटेत् ।
(६९३३) वज्रमारणम् अर्कक्षीरैः पुनम तद्वद्गजपुटे पचेत् ॥
( . यो. त. । त. ४३) भक्षयेत्सर्षपवृद्धं यावन्माषं विवर्धयेत् ।।
त्रिवर्षारूढकासमूलमादाय पेषयेत् । शरण्यः साधकानां तु रसोऽयं वज्रपञ्जरः॥
त्रिवर्षनागवल्ल्या वा निजद्रावैः प्रपेषयेत ॥ चित्रकाकसिन्धूत्थमृततीक्ष्णसुवर्चलम् ।
तद्गोलके क्षिपेद्वजं रुवा गजपुटे पचेत् । समं सर्वं सदा चानु भक्ष्यं स्यात्क्रामणे हितम्॥
एवं सप्तपुरैनूनं कुलिशं मृतिमृच्छति ॥ मासषप्रयोगेण जीवेदाचन्द्रतारकम् ।। वलीपलितनिर्मुक्तो दिव्यकायो महाबलः।।।
तीन वर्षके पुराने कपासके वृक्षकी जड़ या
| इतनीही पुरानी पानकी बेलकी जड़को अपनेही हीरा भस्म और पारद भस्म ४-४ भाग
स्वरसमें पीस कर छोटीसी मूषा बनावें और उसमें तथा स्वर्ण भस्म १ भाग ले कर सबको १ दिन
ही रेको बन्द करके गजपुटमें पकावें । हंसपादीके रसमें घोट कर गोला बनावें और उसे
इसी प्रकार सात पुट देनेसे हीरा अवश्य मर सुखा कर शरावसम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें पकावें । तदनन्तर उसे १ दिन आकके दूधमें घोट
जाता है। कर, गोला बना कर सुखावें और शरावसम्पुटमें (६९३४) वज्रशोधनम् (१) बन्द करके गजपुटमें पकावें ।
( वृ. यो. त. । त. ४३) इसे १ सर्षप भरकी मात्रासे सेवन करना व्याघीकन्दगतं वज्रं मृदा लिप्तं पुटे पचेत् । प्रारम्भ करें और प्रतिदिन (१-१ सर्षप भर ) अहोरात्रात्समुद्धत्य हयमूत्रेण सेचयेत् ॥ बढ़ा कर १ माशेकी मात्रा तक पहुंच जाएं। वजीक्षीरेण वा सिञ्च्यात्कुलिशं विमलं भवेत् ॥
चीता, अदरक, सेंधानमक, और सञ्चल नमक; । हीरेको कटेलीकी जड़के अन्दर रख कर उस इनका चूर्ण तथा लोह भस्म समान भाग ले कर | पर मिट्टीका ( २-३ अंगुल मोटा ) लेप कर दें सबको एकत्र खरल कर लें। उपरोक्त रस खानेके | और सुखा कर पुट पोक करें । १ दिन रात तक पश्चात् (आधा माशा) यह चूर्ण खाना चाहिये । पाक करनेके पश्चात् उसे घोड़ेके मूत्रमें या थूहर
इसे ६ मास तक सेवन करनेसे बलिपलित- | ( सेंड ) के दूधमें बुझावें । इस विधिसे हीरा शुद्ध का नाश हो कर बल और आयुकी वृद्धि हो जाता है । होती है।
(६९३५) वज्रशोधनम् (२) वज्रपाणिरसः (महा)
(वृ. यो. त. । त. ४३) (र. का. धे. । कुष्ठा.; वृ. नि. र. । त्वग्दा.) व्याघ्रीकन्दगतं वज्र दोलायन्त्रेण पाचयेत् । प्र. सं. ५५७१ महा वज्रपाणि रसः देखिये। सप्ताह कोद्रवक्वाथे कुलिशं विमलं भवेत् ।।
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