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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
संभालू ), कमलगट्टे, कचूर, नागरमोथा, पुनर्नवा, (६८२६) वृहन्मन्दारतैलम् त्रिफला, वाटयालक, (पीले फूलकी खरैटी ),
( भै. र. । वृद्धि.) केशी (जटामांसा), भंगरा, केसर, मण्डूर, आमकी यन्मध्यनारायणनाम तैलं गुठली, काली सर (श्यामा), अनन्तमूल, फूलप्रियङ्गु, तस्याङ्गसङ्घस्तिलज हि तैलम् । कूठ, मुलैठी, झिण्टी, ( कटसरैया ), देवदारु, मन्दारपुष्पस्वरसेन साई पद्माक, सुगन्धबाला, सफेद चन्दन, तेजपात, मेथी, पचेद्विधिज्ञः कमलाभ्मसा च ॥ सौंफ, शतावर, बड़की छाल, गोरोचन, नीलाथोथा, मन्दारतैलं वृहदेतदाशु इन्द्रायणकी जड़, केतकीकी जड़, कौंचकी जड़, बलं च शुक्रं परिवर्द्धयेद्धि । नीलोत्पल, जवाकुसुमके फूल, नीलका पौदा, बहेड़ेके अन्त्रोत्थरोगान् निखिलान् निहन्ति बीज, रास्ना, गेरू, दारुहल्दी, कमल, रसौत, पित्तोत्थवातोत्थकफोत्थितांश्च ॥ जीवनीय गगकी प्रत्येक ओषधि, लाख, श्रीखंड- मध्यम नारायण तैलके कल्क और (४-४ चन्दन, लालचन्दन, नागरमोथा, दालचीनी, तेजपात, गुने ) मन्दार ( आक या पारिभद्र ) के फूलोंके काला अगर और लोध ५-५ तोले ले कर सबको रस एवं कमलके रसके साथ तिल तैल सिद्ध करें एकत्र पीस लें।
___ यह तैल वातज, पित्तज और कफज अन्त्रयह तेल शिरोरोग, नेत्र रोग, वात, पित्त, घार
वृद्धिको नष्ट और बल तथा शुक्रकी वृद्धि अकाल पलित, खालित्य, इन्द्रलुप्त और दारुणक | करता है। नामक शिरोरोगको नष्ट करता है।
वृहन्मरिचाद्यं तैलम् इसके व्यवहारसे बाल काले, स्निग्ध और (यो. त. । त. ४१ ; यो. र.; र. का. धे.। कष्टा. धुंघराले हो जाते हैं।
वृ. यो. त. । त. १२०)
प्र. सं. ५२८८ मरिचाद्यं तैलम् (बृहत् ) इसकी नस्य लेनी, मालिश करनी और इसे | देखिये। पिलाना चाहिये । यदि सिरमें बाल उत्पन्न न हुवे
वृहन्मरिचाद्य विषगर्भतैलम हों या उत्पन्न हो कर नष्ट हो गये हों तो इसके
(ग. नि. । कुष्ठा. ३६ ) व्यवहारसे वे पुनः निकल आते हैं ।
प्र. सं. ५२८८ मरिचाद्यं तैलम् ( वृहद् ) वृहद् भृङ्गराजाद्यं तैलम्
(३) देखिये।
वृहन्माषतैलम् (१) (ग. नि. । तैला. २ )
(वृ. मा. | वाता.) प्र. सं. ४८९९ " भृङ्गराज तैलम् ' (१०) प्र. सं. ५३०५ महामाष तैलम् (२) ( वृहद ) देखिये।
| देखिये।
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