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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारतत- भैषज्य रत्नाकरः ४३४ .(६१२३) रसेन्द्रगुटिका (२) (वृहत् ) (भै. र. । राजय . ) कुमार्या त्रिफला चूर्णे चित्रकस्य रसैः क्रमात् । शोधयित्वा पुना राजीगृहधूमहरिद्रया ॥ पक्वेष्टकारजोभिश्च वोह्नापत्ररसेन च । शृङ्गवेररसेनापि शोधयित्वा पुनः पुनः || प्रक्षालनात्पुनः पञ्चाच्छानयेद्रसने घने । air रसेन्द्रस्य भावयेद्विजयारसे || शिलायां खलयेच्चापि यावच्चूर्णत्वमागतम् । कर्णाकाकमाचीरसाभ्यां भावयेत् पुनः ॥ सौगन्धिकपलं शुद्धम मरिचटङ्कणम् । माक्षिकञ्च शिखिग्रीवं तालकं चाभ्रकं तथा । एतांस्तु मिलितान् दत्त्वा भावयेदाद्रकद्रवैः । रक्ति कैकप्रमाणेन कारयेद्गुटिकां भिषक् ॥ इन्ति कासं क्षयं श्वासं रक्तपित्तमरोचकम् । पाण्डुक्रिमिज्वरहरं कृशानां पुष्टिवर्द्धनम् । वाजीकरणमुद्दिष्टमम्लपित्तहरं परम् ॥ पारदको ( १ दिन ) घृतकुमारीके रस में खरल करके मोटे कपड़े से छान लें और फिर उसे इसी प्रकार त्रिफला चूर्ण, चीतेके स्वरस या काथ, राईके काथ, घरके धुंवेके काथ, हल्दी, पक्की ईंटके चूर्ण, धतूर के पत्तोंके रस और अदरक के रस में पृथक् पृथक् खरल करें । हरेक वस्तु के साथ खरल करनेके पश्चात् मोटे कपड़ेसे छान लेना चाहिये । अन्तमें धोकर स्वच्छ कर लें । | अब उपरोक्त विधिसे शुद्ध पारद २|| तोले लेकर उसे पत्थरके खरल में डालकर जयन्तीके रसके साथ इतना घोटें कि उसका चूर्ण हो जाय । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ रकारादि तदनन्तर उसे जलकर्णा और मकोय के रसकी १ - १ भावना देकर उसमें ५ तोले शुद्ध गन्धक और २||२|| तोले काली मिर्च का चूर्ण, सुहागेकी खील, स्वर्णमाक्षिक भस्म, तुत्थ भस्म, शुद्र हरताल ( या भस्म ) और अभ्रक भस्म मिला कर अच्छी तरह मर्दन करें और फिर उसे अदरक के रसमें घोट कर १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें । इनके सेवन से खांसी, क्षय, श्वास, रक्तपित्त, अरुचि, पाण्डु, कृमि, ज्वर और अम्लपित्तका नाश होता तथा कृशता दूर होकर शरीर पुष्ट हो जाता । यह रस वाजीकरण भी है । 59 ( रसेन्द्र सार संग्रह में “ माक्षिकञ्च शिखी इससे पूर्वका पाठ नहीं है अर्थात् स्वर्ण माक्षिकसे पहिलेकी सम्पूर्ण ओषधियों और क्रियाओंका अभाव है । ) (६१२४) रसेन्द्रगुटिका ( ३ ) ( वृहद ) ( र. र. । कासा. ; रखें. सा. सं.; र. रा.सु.; धन्व. । कासा. शुद्धसेन्द्रस्य गन्धस्याभ्रकस्य च । लौहचूर्णस्य ताम्रस्य तालकस्य विषस्य च ।। मनःशिलायाः क्षाराणां बीजं धुस्तूरकस्य च । मरिचस्यापि सर्वेषां चूर्णतुल्यं प्रदापयेत् ॥ जयन्ती चित्रको मानघण्टाकर्णोऽथ मण्डुकी । शक्राशनं केशराजभृङ्गापामार्गकस्य च ।। सिन्धुवारस्य च रसैः कर्षमात्रैश्च मर्दयेत् । हन्ति पञ्चविधं कासं श्वासञ्चैव सुदारुणम् || कफवातमयं रोगमानाहं विविबन्धताम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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