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लेपप्रकरणम् ]
चतुर्यों भागः
लाख, कराके पत्ते और पंवाड़के बीज (६३०६) लाक्षागुबर्तनम् समान भाग ले कर सबको एकत्र पीस कर लेप (व. से. । कुष्ठा.; यो. र. । कुष्ठा.; वा. भ. । बनावें।
चि. अ. १९; वृ. नि. र. । त्वग्दोषा.) इसे शिरमें लगानेसे दारुणक नामक शिरो
लाक्षाश्रीवेष्टकं कुष्ठं हरिद्रे गौरसर्षपाः । रोग नष्ट होता है।
व्योषं मूलकबीजानि प्रपुन्नाटफलानि च ।। (६३०४) लाक्षादिलेपः (२) एतान्यम्ल प्रपिष्टानि कुष्ठेषूद्वर्त्तनं परम् । (वृ. नि. र. । वृद्ध्य.)
सिध्मानां किटिभानाञ्च दद्रूणाश्च विशेषतः ।। लाक्षाकरअबीजं च शुण्ठी दारु च गैरिकम् ।
___लाख, श्रीवेष्ट, कूठ, हल्दी, दारु हल्दी, सफेद कुन्दरं च समं कृत्वा चूर्णयेन्मतिमान् भिषक् । काधिकेन तु सम्पेष्य तथा श्वयथुनाशनः । ।
पंवाड़के बीज समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे खट्टी कांजी या नीबूके रसमें पीस पर लाख, करा बीज, सांठ, देवदारु, गेरु और
| कुष्ठ पर मसलनेसे सिध्म, किटिभ और दादका कुन्दर समान भाग लेकर सबको एकत्र पीस कर
नाश होता है। चूर्ण बनावें ।
इसे काफीमें पीस कर लेप करनेसे अन्त्रवृद्धि (६३०७) लाङ्गलीकन्दलेपः और शोथका नाश होता है।
(रा. मा. । व्रणा. २५) (६३०५) लाक्षादिलेपः (३) पिष्टेन लाङ्गलक्याः कन्देन विलेपिते व्रणस्य (ग. नि. । कुष्ठा. ३६)
मुखे। लाक्षा कुष्ठं सर्षपाः श्रीनिकेत
| सद्यो निर्याति क्षताच्छल्यं चिरकालनष्टमपि ।। रात्रिव्योषं चक्रमर्दस्य बीजम् । ___ लांगली (कलियारी) की जड़को पौस कर कृत्वकस्थं तक्रपिष्टः प्रलेपो | ब्रणके मुख पर लेप करनेसे बहुत दिनोंका भीतर
दद्रूष्क्तो मूलकाद्वीजयुक्तः ॥ रहा हुवा शल्य ( कांटा इत्यादि ) भी शीघ्र ही लाख, कूठ, सरसों, श्रीवास (धूप सरल), |
निकल आता है। हल्दी, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, पवांडके बीज (६३०८) लागलीलेपः और मूलीके बीज समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । ( रा. मा. । मुख रोगा. ५)
इसे छाछ (तक) में पीस कर लेप करनेसे यस्याङ्गुष्ठस्य नखो भवति दादका नाश होता है।
समुत्पिष्टलाङ्गलीलिप्तः ।
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