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चूर्णप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः
४६९ (६२१५) लघुवृद्धदारुकसमं चूर्णम् मांद्य नष्ट होता और जठराग्नि इतनी प्रबल हो
(ग. नि. । श्लीपदा. २) जाती है कि आमिष तथा घृतादि गुरु अन्न पान पिप्पलीत्रिफलादारुनागरं सपुनर्नवम् ।
| भी शीघ्र ही पच जाता है। भागैद्विपालिकैरेषां तत्सम वृद्धदारुकम् ॥ (६२१७) लघुसुदर्शनचूर्णम् काझिकेन पिबेच्चूर्ण कर्षमात्रप्रमाणतः। (यो. र. ; वृ. नि. र. ; वै. र. । ज्वरा. ; वृ. जीर्ण चापरिहारं स्याद्भोजनं सार्वकामिकम् ॥
यो. त. । त. ५९) श्लीपदं वातरोगांश्च हन्यात्प्लीहानमेव च । अग्निं च कुरुते घोरं भस्मकं च नियच्छति ।।
गुडूची पिप्पलीमूलं कणा तिक्ता हरीतकी ।
नागरं देवकुसुमं निम्बत्वक चन्दनं तथा ॥ __ पीपल, हर, बहेड़ा, आमला, देवदारु, सोंठ
सर्वचूर्णस्य चाधीशं कैरात प्रक्षिपेत्सुधीः । और पुनर्नवा १०-१० तोले तथा विधारामूल
एतत्सुदर्शनं नाम्ना लघु दोषत्रयापहम् ।। सबके बराबर लेकर यथा विधि चूर्ण बनावें ।
ज्वरांश्च निखिलान्हन्यानात्र कार्या विचारणा॥ . मात्रा-११ तोला ।
गिलोय, पीपलामूल, पीपल, कुटकी, हर्र, सोंठ, इसे कांजीके साथ सेवन करनेसे स्लीपद, लौंग, नीमकी छाल और सफेद चन्दन १-१ भाग वातरोग, प्लीहा और भस्मक रोग नष्ट होता तथा तथा चिरायता सबसे आधा लेकर चूर्ण बनावें । अग्नि दीस होती है।
___ यह चूर्ण त्रिदोषनाशक है और समस्त __ औषध पचने पर यथेच्छ आहार करना चाहिये । ज्वरोको नष्ट करता है। किसी विशेष परहेजकी आवश्यकता नहीं है।
(मात्रा- ३ माशे ।) ( व्यवहारिक मात्रा-३ माशे। ) (६२१६) लघुवैश्वानरचूर्णम्
(६२१८) लघुहिङ्ग्वादिचूर्णम् (वृ. यो. त. । त. ७१)
( यो. र.; वृ. नि. र. । उदररोगा.) सिन्धूत्थपथ्यामगधोद्भववदिचूर्ण
| हिङ्गु त्रिकटुकं कुष्ठं यवक्षारोऽथ सैन्धवम् । मुष्णाम्बुना पिबति यः खलु नष्टवाहिः। मातुलुगरसेनैव प्लीहशूलहरं परम् ॥ तस्याऽऽमिषेण सघृतेन सहान्नपान हींग, सोंठ, मिर्च, पीपल, कूठ, जवाखार
भस्मी भवत्यशितमात्रमपिक्षणेन ॥ और सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
सेंधा नमक, हरं, पीपल और चीतामूल इसे बिजौ रे नीबूके रसके साथ सेवन करनेसे समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
प्लीहा और शूलका नाश होता है। इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे अग्नि- ( मात्रा-१॥ माशाः।)
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