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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चतुर्थी भागः रसप्रकरणम् ] (५५४८) महातालकेश्वररसः (२) ( भै. र. ; धन्व. । कुष्ठा . ) सम्पर्क तालकं शुष्कं वंशपत्राख्यमुच्चकैः । कूष्माण्डीरैः सम्भाव्य त्रिदिनं शोषयेत्पुनः ॥ घृतकन्याद्रवैर्भूयो भावयेच्च दिनत्रयम् । सम्मर्द्य काञ्जिकेनैव दध्नाम्लेन विमर्दयेत् ॥ सम्म चूर्णसलिले रसे पौनर्णवे पुनः I त्रिदिनं मर्दयित्वा तु कारयेत्गुटिका कृतिम् ॥ स्थाल्यां दृढतरायान्तु पलाशक्षारसञ्चयम् । उपर्यधस्तालकस्य क्षारं दत्त्वा शरावकैः || पिधाय लेपयेत्रात्पूरयेत्क्षारसञ्चयम् । पुना रुद्धं शरावेण लेपयेत्तद् दृढं ततः ॥ द्वात्रिंशद्यामपर्यन्तं वह्निज्वाला प्रदीयते । एवं सिद्धेन तालेन गन्धतुल्येन मेलयेत् ॥ द्वयोस्तुल्यं जीर्णता वालुकायन्त्रगं पचेत् । अयं तालेश्वरो नाम रसः परमदुर्लभः ॥ हन्त्यष्टादश कुष्ठानि वातशोणितनाशनः । रक्तमण्डलमत्युग्रं स्फुटितं गलितं तथा ॥ बहुरूपं सर्वजातं नाशयेदविकल्पतः । दुष्टव्रणश्च वीसर्प त्वग्दोषश्च विनाशयेत् ॥ दृष्टो वारसहस्रञ्च रोगवारणकेशरी ॥ उत्तम वंशपत्री हरतालका चूर्ण करके उसे पेठे के रसमें ३ दिन घोट कर सुखा लें। तत्पश्चात् क्रमशः घृत कुमारीके रस, काञ्जी, खट्टी दही, चूने के पानी और पुनर्नवा के रसमें पृथकू पृथकू ३ - ३ दिन घोट कर गोला बना लें । ( प्रत्येक रसमें घोटनेके पश्चात् सुखा लेना चाहिये । ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९९ अब एक मज़बूत कपड़े मिट्टी की हुई होण्डी में पलाश (ढाक ) का क्षार (राख) डाल कर उसके ऊपर उक्त गोला रख दें और उसे पलाशक्षारसे ढक कर उसके ऊपर मिट्टीका शराव ढक दें तथा हाण्डी और शरावकी सन्धि को भली भांति बन्द कर दें एवं हाण्डीके शेष भागको मुंह तक पलाश क्षारसे भर दें और हाण्डीके मुख पर शराव ढक कर उसकी सन्धिको भी मज़बूत बन्द करके उसके ऊपर मिट्टीका लेप अब इस हाण्डीको चूल्हे पर चढ़ाकर ३२ पहर की अग्नि दें और फिर हाण्डीके स्वांग शीतल होने पर उसमें से सावधानी पूर्वक हरताल - भस्मको निकाल लें 1 यह हरताल भस्म १ भाग, शुद्ध गन्धक १ भाग और ताम्र भस्म २ भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर बालुका यन्त्र में पकावें । यह रस अठारह प्रकारके कुष्ठ, वातरक्त, उग्र रक्त मण्डल, स्फुटित कुष्ठ, गलित कुष्ठ, तथा अनेक प्रकारके सर्व दोषज कुष्ट, दुष्ट व्रण, वीसर्प और त्वग्दोषोंको नष्ट करता है । यह सहस्रों बारका अनुभूत प्रयोग है । ( मात्रा - १ रती । ) महातालेश्वररस: (१) (रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; र. चं. । वातरक्त) प्रयोग सं. ५५४८ महातालकेश्वर के समान है। परन्तु इसमें हरताल भस्म पलाश क्षारमें न बनाकर प्र. सं. २६६४ में कथित विधिसे बनानी चाहिये । For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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