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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १५० www. kobatirth.org भारत - भैषज्य रत्नाकरः अथ मकाराद्यञ्जनप्रकरणम् (५४३८) मञ्जिष्ठाद्यञ्जनम् ( ग. नि. । नेत्ररोगा. ३ ) मष्ठामधुकोत्पलोदधिमलत्वक्सेव्यगोरोचनामांसीचन्दनशङ्कपत्रगिरिमृत्तालैः सपुष्पाञ्जनैः । सर्वैरेव समांशमञ्जनमिदं शस्तं सदा चक्षुषो ति क्लेदमा शोणितरुजः पिल्लार्मशुक्रापहम् ॥ मजीठ, मुलैठी, कमल, समन्दरझाग, दालचीनी, खस, गोलोचन, जटामांसी, लाल चन्दन, शंख, तेजपात, गेरु, (शुद्ध) हरताल और पुष्पा - ञ्जन । प्रत्येकका अत्यन्त महीन कपड़छन चूर्ण समान भाग लेकर सबको एकत्र घोट कर अञ्जन बनावें । इसे आंखमें लगानेसे आंखोंका क्लेद (चिपचिपाहट), रक्तज पीड़ा, अर्म और शुक्रादिका नाश होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ मकारादि (५४४०) मनःशिलाद्यञ्जनम् (२) ( ग. नि. । बिषमज्वर . ) मनःशिलासैन्धव पिप्पलीनां चूर्ण सतैलं समभागभाजाम् । नेत्रानं तद्विहितं मुनीन्द्रैः सुखाय पुंसां विषमज्वरेषु ॥ मनसिल, सेंधानमक और पीपलका अत्यन्त महोन कपड़छन चूर्ण १-१ भाग लेकर सबको १ भाग (सरसेांके) तेल में मिलाकर घोटें । इसका अञ्जन लगानेसे विषमज्वर नष्ट होता है । (५४४१) मनःशिलाद्यञ्जनम् (३) (ग. नि. । उन्माद ; यो. र. व. से. ; वृ. मा. | अपस्मा. ) ; मनोहा तार्क्ष्यजं चैव शकृत्पारावतस्य च । अञ्जनं हन्त्यपस्मारमुन्मादं च विशेषतः ॥ मनसिल, रसौत और कबूतरकी विष्ठा समान भाग ले कर सबको एकत्र घोट कर अञ्जन बनावें । इसे लगानेसे अपस्मार और विशेषतः उन्माद नष्ट होता है। (५४३९) मनःशिलाद्यञ्जनम् (१) ( वृ. नि. र. । सन्निपात ज्वर . ) तुरङ्गलालासहिता मनःशिला निहन्ति तन्द्रा सकृदअनेन । मनसिलको घोड़ेकी लार (थूक) में घिसकर | मनोहातुत्थकस्तूरीमांसीमलयनागरम् । केवल १ बार अञ्जन लगानेसे सन्निपात ज्वरकी | समांशं शङ्खकर्पूरमशीतिगुणमञ्जनम् ॥ तन्द्रा दूर होती है । एतच्चूर्णीकृतं सर्व षड्विधे तिमिरे हितम् ॥ For Private And Personal Use Only (५४४२) मनःशिलाद्यञ्जनम् (४) ( व. से. । नेत्र रोगा. )
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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