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धूम्रप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः उसमें १ भाग घी मिलाकर सवको बकरेके नागेन्द्रद्विजशृङ्गहिङ्गुमरिचैस्तुल्यैस्तु धूपः कृतः मूत्रमें घोटें।
स्कन्दोन्मादपिशाचराक्षससुरावेशज्वरघ्नःस्मृतः। इसकी धूप देनेसे समस्त ग्रह-दोष नष्ट
बिनौले ( कपासके बीज ), मोरके पंख, होते हैं।
कटेली, शिवनिर्माल्य, तगरे, दालचीनी, जटामांसी, (५४३५) माहेश्वरधूपः (३) बिल्लीकी विष्टा, नखी, बच, मनुष्यके बाल, सांपकी यो. र. । उन्माद ; व. से. ; बृ. नि. र.। कांचली, हाथीदांत, (गायका) सींग, हींग और काली ___ विषमञ्च. ; यो. त.। त. ७७) | मिरच समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । कार्पासास्थि मयूरपिच्छबृहतीनिर्माल्य पिण्डीतक- इसकी धूप देनेसे स्कन्दोन्माद; पिशोच स्वङ्मांसी वृषदंशविण्नखवचाकेशाहिनिर्मोचनैः। राक्षस और सुरावेश तथा ज्वर नष्ट होता है।
इति मकारादिधूपप्रकरणम्
अथ मकारादिधूम्रप्रकरणम् (५४३६) मनःशिलादिधूमम् (१) एक दोषज, द्वि दोषज और सान्निपातिक कास ( भै. र.। कास.; वृ. नि. र.; वृ, मा. ; यो. र.। (खांसी) नष्ट होती है । कासा. ; वा. भ. । चि, अ. ३)
सैकड़ों प्रयोमेसे न नष्ट होने वाली खांसी मनः शिलालमरिच मांसीमस्तेङ्गदैः पिबेत् ।। भी इससे केवल ३ दिनमें नष्ट हो जाती है। धूमं त्र्यहञ्च तस्यानु सगुडश्च पयः पिबेत् ॥ (५४३७) मनःशिलादिधूमम् (२) एष कासान् पृथग्द्वन्द्वसर्वदोषसमुद्भवान् । (भै. र. ; वृ. मा. ; यो. र. ; वृ. नि. र. । कासा.) शतैरपि प्रयोगानां साधयेदप्रसाधितान् ॥ मनः शिला लिप्तदलं वदर्या उपशोषितम् । ___ मनसिल, हरताल, काली मिरच, जटामांसी, सक्षीरं धूमपानश्च महाकासनिबर्हणम् ॥ नागरमोथा और हिंगोटके फल समान भाग लेकर
बेरीके पत्तों पर मनसिलका लेप करके छाकूट लें। इसका धूम्रपान करके गुड़युक्त दूध पीनेसे यामें सुखा लें । इनका धूम्रपान करके बादमें दूध १ वाग्भटमें मरिच की जगह मुलैठी लिखी है। पीनेसे महाकास नष्ट होती है।
इति मकारादिधूम्रप्रकरणम्
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