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गुटिकाप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः ले कर सबको पानीके साथ एकत्र पीसकर गालियां| उसमें ४० तोले (आधा सेर ) इन्द्रजौका चूर्ण बना लें।
मिला कर पुनः पकावें । जब उंगलीसे दबानेसे उस इनमेंसे १-१ गोली मुंह में रखनेसे प्रवृद्ध । पर उंगलीका निशान पड़ने लगे तो औषधको तृषा भी शीघ्रही नष्ट हो जाती है ।
निकाल कर गोलियां बना लें । (६६६५) वटप्ररोहादिगुटिका (२) इनके सेवनसे हर प्रकारका अतिसार और (यो. र. । तृष्णा.)
ग्रहणी रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। ये वटी वटपरोहयष्टयावकणामधुकृता वटी।
| अग्निको भी दीत करती हैं। मुखस्था चिरकालोत्थां तृष्णां हन्यात्सुदुस्तराम् ॥ (मात्रा-२-२॥ माशे) ____बड़के अंकुर, मुलैठी और पीपल समान भाग वत्सनाभाद्या गुटिका ले कर सबके चर्णको शहदमें मिला कर गोलियां
- (ग. नि. । गुटिका ४) बनावें।
रस प्रकरणमें देखिये । इनमेंसे १-१ गोली मुंह में रखनेसे चिरका
(६६६७) वल्लभा गुटिका लीन तृषा भी नष्ट हो जाती है ।
(न. मृ. । त. ५) वडवामुखीगुटी
बहुफली मोचरसं मुसल्यौ करहाटकम् । (र. र. स.। उ. अ. १६)
तुगा च मर्कटीवीज कोकिलाक्षमुटङ्गणम् ॥ रस प्रकरणमें देखिये ।
गोक्षुरं ह्यमृतासत्वं जपापुष्पं लिसोरकम् । (६६६६) वत्सकाद्या गुटिका
मस्तगी जातिकोशं च लवङ्ग वंशजातकम् ॥ (ग. नि. । अतिसारा. २; व. से. ) । एतानि समभागानि सिता च द्विगुणा भवेत् । वत्सकस्यामृताश्च द्वे पले प्रस्थमौदकम् । पाकं कृत्वा गुटोर्वद्धवा कोलमात्रप्रमाणतः ।। श्रपयित्वा रसे तस्मिन् पादशेषेऽवतारिते ॥ सायंकाले भक्षयित्वा पिबेददुग्धं तदोपरि । अष्टौ पलानि शक्रस्य यावच्चूणों कृतानि च। नपुंसकत्वरोगन्नं वाजीकरणमुत्तमम् ॥ मुद्रापाकं विदित्वा तु यथा चारन्यवतारितम् ॥ बहुफलो, मोचरस, दो प्रकारकी ( सफेद सद्यः सर्वातिसारांश्च सर्वांश्च ग्रहणीगदान् । और काली ) मूसली, अकरकरा, बंसलोचन, नाशयेद्दोपयेच्चाग्निं कृष्णात्रेयस्य शासनात् ॥ | कौंचके बीज, तालमखाना, उटङ्गणके बीज, गोखरु,
कुड़ेकी छाल और गिलोय १०-१० तोले | गिलोयका सत, जपापुष्प, लिसौड़ो, मस्तगी, ले कर दोनोंको एकत्र कूट कर २ सेर पानीमें | जावत्री, लौंग और बंसलोचन समान भाग ले कर पकावें और आधा सेर शेष रहने पर छान कर चूर्ण बनावें । तदनन्तर सबसे २ गुनी खांडकी
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