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रसप्रकरणम् ]
करके लघुपट ( पाठान्तर के अनुसार गजपुट ) में पकावें और स्वांगशीतल होने पर निकाल कर पीस लें ।
चतुर्थी भागः
( मात्रा - २ - ३ रत्ती )
अनुपान - औषध खानेके पश्चात् पीपलका चूर्ण शहद में मिला कर चाटना, या गुड़ में हरे अथवा जीरेका चूर्ण मिला कर खाना चाहिये ।
इसके सेवन से यकृत्, गुल्म, उदररोग, प्लीहा, शोथ, जीर्णज्वर, पाण्डु, कामला और अग्निमाका नाश होता है ।
(६३७९) लोकनाथरस: (८) ( र. चि. म. । स्त. ९
भागाः सप्त कपर्दिभस्म मरिचं पादाधिकांश
विषं । चैकांश रसभस्म विंशतिमिताः स्युर्गन्धकांशा
दश ॥
चत्वारो हिफेनकस्य कनकः पादोनभागः
स्मृतः । चूर्ण तन्मृदितं च सर्वगदहा स्याल्लोकनाथो रसः ॥ ग्रहण्यां कफजे व्याधी वातोद्रेके च पैत्तिके । प्रमेहे मूत्रकृच्छ्रे च कासे श्वासे भ्रमे तथा ॥ सिताज्यचामरिचैः संयुतो दीयते रसः । क्रोधं न कुर्यान्न च तैलसेवां
न राजिकां पित्तकरं न किञ्चित् । न मैथुनं जागरणं न रात्रौ न कामचारं क्रियते कदाचित् ॥
कौड़ी भस्म ७ भाग, काली मिर्चका चूर्ण
१। भाग, शुद्ध बछनाग १ भाग, पारद भस्म २०
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भाग, शुद्ध गन्धक: १० भाग, अफीम ४ भाग और स्वर्ण भस्म पौन भाग ले कर सबको एकत्र खरल करें ।
इसके सेवन से संग्रहणी, कफज रोग, वात और पित्त प्रकोप, प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र, खांसी, श्वास और भ्रमका नाश होता है ।
अनुपान - मिश्री, घी, मोचरस और काली मिरचका चूर्ण |
( मात्रा -- २ रत्ती । )
अपथ्य - - इस रस के सेवन कालमें क्रोध, तेल, राई, पित्तकारक पदार्थ, मैथुन और रात्रि - जागरण से परहेज़ करना चाहिये ।
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(६३८०) लोकनाथरस: (९) (लोकेश्वररसः ) ( लोकेश्वर पोटली ) ( र. र. स. । उ. अ. १४; यो. र. । क्षय र. चं.; र. रा. सु.; रसे. सा. सं. । राजय.) रसस्य भस्मना हेम पादांशेन प्रकल्पयेत् । गन्धकं द्विगुणं दत्वा मर्दयेच्चित्रकाम्बुना || चराचरास्ये सम्पूर्य टङ्कणेन निरुध्य च । भाण्डे चूर्ण प्रलिप्तेऽथ क्षिप्त्वा रुन्धीत मृत्स्नया || शोषयित्वा पुटेर्तेरनिमात्रेऽपराह्न के | स्वांगशीतलमुद्धृत्य चूर्णयित्वाऽथ विन्यसेत् ॥ एष लोकेश्वरो नाम पुष्टिवीर्यविवर्धनः । गुञ्जाचतुष्टयं साज्यं मरिचैश्च समन्वितम् ॥ खादेत्परमया भक्त्या लोकेशे सर्वदर्शिनि । अंगकामां च रसोऽयं कासहिकयोः ॥