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रसप्रकरणम् ]
तक उसे आराम न हो जाए पुनः लेप न लगावें ।) इसी प्रकार जब तक कुष्ठको आराम न हो तब तक दवा खाते और लेप लगाते तथा ल्हसन बांधते रहें ।
मात्रा -- २ रत्ती ।
अनुपान -- पटोल, हल्दी, दारूहल्दी, नीमकी छाल, कड़वी तोरी, बच, हर्र और मुलैठी ५- ५ तोले लेकर सबको ४ सेर पानी में पकावें । जब १ सेर पानी शेष रहे तो छान लें । इसमें २० तो घी मिलाकर पानी जलने तक पकावें और फिर छानकर रक्खें ।
चतुर्थी भागः
(५५८४) महासूर्यप्रभरसः
( र. का. . । कुष्टा.)
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विष्णुकान्ता देवदाली सर्पाक्षी तण्डुलि मुनिः। नीली ब्राह्मी पलाश च यथालाभं द्रव हरेत् द्वित्रीणामेव निर्यासैः सूतकं मर्दयेद्दिनम् । सूताद्विगुणगन्धोऽयमेकीकृत्य क्षणं पचेत् ॥ लोहपात्रे द्रुतं तावद्यावच्छुत्वाभ्रकौ स्मृतौ । प्रत्येकं सुतपादशं कर्पूरं च विनिक्षिपेत् ॥ अग्नावुत्तारयेच्चूर्ण रस: सूर्यप्रभो महान् । पुण्डरीकहरो निष्कमनुपानं च पूर्ववत् ॥
कोयल, बिंडाल, सर्पाक्षी ( गंध नाकुली ), चौलाई, अगस्ति, नील, ब्राह्मी और पलाश में से जिन २ - ३ ओषधियों स्वरस मिल सकें उनके स्वरस लेकर उनमें १ भाग शुद्ध पारदको पृथक् पृथक् १- १ दिन घोटें । तदनन्तर उस पारदमें २ भाग
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शुद्ध गन्धक मिलाकर दोनोंकी कज्जली बनावें और एक लोहपात्र में घी लगाकर उसमें यह कज्जली डालकर मन्दाग्नि पर पिघलावें । जब कज्जली पिघल जाय तो उसमें पारदसे चौथाई ताम्र भस्म और उतनी ही अभ्रक भस्म तथा कपूर मिलाकर अग्निसे नीचे उतारकर खरल कर लें।
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( व्यवहारिक मात्रा - - २ रत्ती । )
(५५८५) महासेतुरस: (मेह सेतुरसः )
पीना चाहिये ।
औषध खानेके पश्चात् इसमें से २॥ तोले घी (र. चि. म. ; र. र. स. ; र. का. घे. । प्रमेह . ) एक: सूतो द्विधा वङ्गो सर्वद्विगुणगन्धकः । कूपीपको महासेतु वङ्गस्थानेऽथवा विधुः ॥
इसे ५ मोशेकी मात्रानुसार सेवन करने से 'पुण्डरीक कुष्ट' नष्ट होता है ।
१ भाग शुद्ध पारद, २ भाग शुद्ध बंग और ६ भाग शुद्ध गन्धक लेकर प्रथम बंगको पिघला कर पारदमें मिलावें और फिर उसमें गन्धक मिलाकर कज्जली बना लें। तथा उसे आतशी शीशी में भरकर बालुका यन्त्र में पकावें ।
यह रस प्रमेहको नष्ट करता है ।
इसमें बङ्ग (रांग) के स्थान में कपूर भी डाल सकते हैं।
(५५८६) महामगर्भरस: ( महागर्भपोटली ) (र. चं. ; यो. र. । कास. ) शुद्धं सूतं पलैकं स्यात्पादांशं शुद्धहेमकम् । शुद्धगन्धस्य माषैकं प्रतिकर्षं प्रयोजयेत् ॥
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