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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
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गोला बना कर उसे मूषामें बन्द करके लघुपुटमें पकावें । तदनन्तर उसके स्वांगशीतल होने पर पुनः उक्त रस में घोट कर लघुपुट दें । इसी प्रकार सात पुट देनेके पश्चात् कस्तूरी और कपूरके पानीकी १-१ भावना दे कर सुरक्षित रक्खें ।
वीर्य और आयुकी वृद्धि होती है । ( मात्रा - १ रत्ती । ) (६९७०) वसन्ततिलकरसः (२) ( भै. र. । प्रमेहा. ) लहं व माक्षिकञ्च सुवर्णश्चाभ्रकस्तथा । प्रवालतारं मुक्ता च जातिकोषफलं तथा ॥ एतेषां समभागेन चातुर्जातश्च मिश्रितम् । मर्दयेत् त्रिफलाका वटिकां कुरु यत्नतः ॥ रोगांश्च भिषजा ज्ञात्वा अनुपानं यथायथम् । वातिकं पैत्तिकञ्चैव श्लेष्मिकं सान्निपातिकम् ॥ वायुं नानाविधं हन्ति पस्मारं विशेषतः । विसूचिकाक्षयोन्मादशरीरस्तब्धमेव च ॥ प्रमेहान विंशतिश्चैव नानारोगं विशेषतः ॥
इसे सेवन करने से कास, श्वास, पित्त, वायु, कफ, पाण्डु, क्षय, शूल, संग्रहणी, विष, प्रमेह,
(६९७१) वसन्तमालतीरसः ( सुवर्ण वसन्तमालती रसः )
अश्मरी, हृद्रोग और ज्वरादिका नाश होता तथा ( भै. र. ; धन्व. । ज्वरा. ; यो. त. । त. २७ ;
र. चं. । ज्वरा . )
सुवर्णमुक्ता दरदमरिचं भागवृद्धया प्रदिष्टं खर्परस्याष्टौ प्रथममखिलं मर्दयेत् क्षणेन ।
. लोह भस्म, वंग भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म, स्वर्ण भस्म, अभ्रक भस्म, प्रवाल (मूंगा) भस्म चांदी भस्म, मोती भस्म, एवं जायफल, जावत्री, दालचीनी, तेजपात, इलायची और नागकेसरका चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलावें और त्रिफला काथमें खरल करके ( ३-३ रत्तीकी) गोलियां बना लें ।
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इन्हें यथोचित अनुपान के साथ सेवन करानेसे वातज, पित्तज, कफज और सान्निपातिक अनेक रोगोंका; विशेषतः वात व्याधि, अपस्मार, विसूचिका, क्षय, उन्माद, शरीरकी स्तब्धता और प्रमेहका नाश होता है ।
व्रजति विलयं निम्बुनीरेण तावद् द्वन्द्वं मधु चपलया मालतीप्राग्वसन्तः ॥ सेवितोऽयं हरेत्तूर्ण जीर्णश्च विषमज्वरम् । व्याधीनन्यश्च कासादीन् प्रदीप्तं कुरुतेऽनलम् ||
स्वर्ण भस्म १ भाग, मोती भस्म २ भाग, शुद्ध हिंगुल ३ भाग, काली मिर्चका चूर्ण ४ भाग. और खपरिया ( अभाव में यशद भस्म ८ भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर प्रथम मक्खनके साथ घोटें और फिर उसमें नीबूका रस डालते हुवे इतना खरल करें कि चिकनाई नष्ट हो जाय ।
मात्रा - २ रत्ती ।
इसे पीपलके चूर्ण और शहद के साथ सेवन करनेसे जीर्ण ज्वर और विषम ज्वर तथा कासादिका नाश हो कर अग्नि दीप्त हो जाती है ।
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६९७२) वसन्तमालिनीरसः (१) (लघु) ( र. चं. ; यो. र. र. रा. सु. । ज्वरा. ) रसकयुगलभाग वल्लि भागमेकम् । द्वितीयमथ सुखल्वे मर्दये क्षणेन ॥
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