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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ]] चतुर्थों भागः ७९७ पाश्चाहिकं षष्ठसस्थं पाक्षिक मासिकं तथा। वह र. रा. सु. का पाठ है और उसमें सर्वान् ज्वरानिहन्त्याशु भक्षणादाकद्रौः॥ कस्तूरीका अभाव है तथा उसके स्थान पर हरताल ___कस्तूरी, कपूर, ताम्र भस्म, धायके फूलोंका | लिखी है परन्तु यह भूल प्रतीत होती है वास्तवमें चूर्ण, कौंचके बीजांका चूर्ण, चांदी भस्म, स्वर्ण इसमें हरतालकी जगह कस्तूरी ही होनी चाहिये । भस्म, मोती भस्म, प्रवाल (मूंगा) भस्म, लोहभस्म, (७१०९) वृहत्काञ्चनाभ्ररसः पाठा, बायबिडंग, नागरमोथा, सांठ और । (भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; सुगन्धबाला; इनका चूर्ण एवं शुद्ध हरताल, अभ्रक ___ धन्व. ; र. र. । राजयक्ष्मा. ) भस्म और आमलेका चूर्ण समान भाग ले कर | काञ्चनं रससिन्दरं मौक्तिकं लौहमनकम् । सबको एकत्र मिला कर आकके पत्तोंके रसमें खरल विद्रम मतवैक्रान्तं तारं ताम्रञ्च वनकम ॥ करके (२-२ रत्ती) की गोलियां बना लें। कस्तूरिका लवाञ्च जातीकोषैलवालुकम् । अनुपान-अदरकका रस । प्रत्येकं विन्दुमात्रश्च सर्व मध प्रयत्नतः ॥ इसके सेवनसे द्वन्द्वज ज्वर, विषम ज्वर, भूत कन्यानीरेण सम्म केशराजरसेन च । ज्वर, काम ज्वर, अभिचार जनित ज्वर, शुक्र दोष अजाक्षीरेण सम्भाव्यं प्रत्येक दिवसत्रयम् ॥ सम्बन्धी ज्वर इत्यादि समस्त प्रकारके ज्वर नष्ट | चतुर्गुञ्जाप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिषक् । होते हैं। अनुपानं प्रयोक्तव्यं यथा दोषानुसारतः॥ इसे बेलगिरी और जीरके चर्ण तथा शहदके क्षयं हन्ति तथा कास यक्ष्माणं श्वासमेव च । साथ देनेसे आमातिसार, संग्रहणी और ज्वरातिसार- प्रमेहानविंशतिश्चैव दोषत्रयसमुद्भवान् ॥ का नाश होता है। सर्वरोगं निहन्त्यांशु भास्करस्तिमिरं यथा। इसके अतिरिक्त यह रस अग्निको दीप्त करता स्वर्ण भस्म, रस सिन्दूर, मोती भस्म, लोह है तथा कास, प्रमेह, हलीमक, नवीन और जीर्ण भस्म, अभ्रक भस्म, प्रवाल (मूंगा) भस्म, वैक्रान्त ज्वर, नित्य दो बार आने वाले ज्वर, सन्तत ज्वर, भस्म, चांदी भस्म, ताम्र भस्म, बंग भस्म, कस्तूरी, एकाहिक, तिजारी और चातुर्थिक ज्वर तथा पांचवें लौंग, जावत्री, और एलवालुक समान भाग ले कर छठे, १५ वें दिन या महना महीना भर बाद सबको एकत्र मिला कर घृतकुमारी और काले आने वाले ज्वरको भी नष्ट करता है । भंगरेके रस तथा बकरीके दूधमें ३.-३ दिन खरल करके ४-४ रत्तीकी गोलियां बनावें ।। बृहत्कस्तूरीभैरवो रसः (२) (व्यवहारिक मात्रा-२ रत्ती।) ( मध्यम कस्तूरी भैरवः ) इन्हें दोषोचित अनुपानके साथ सेवन करने( रसे. सा. सं. । ज्वरा.) से क्षय, कास, यश्मा, श्वास और २० प्रकारके प्र, सं. ५५०६ देखिये। | प्रमेहोंका नाश होता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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