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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि
(६४७६) वटजटाप्रयोगः (६४७९) वत्सकादिक्वाथः (१) (रा. मा. । अतिसारा. १३) ( वृ. मा. । ज्वरातिसा. ; ग. नि. । ज्वराति १;
__ वृ. नि. र. । ज्वराति. ; व. से.। अतिसारा.) गव्येन तक्रेण सह प्रपिष्य न्यग्रोधपादः परिपीयमानाः ।
वत्सकस्य फलं दारु रोहिणी गजपिप्पली। नवोद्गतं हन्त्यतिसारमाशु
श्वदंष्ट्रा पिप्पली धान्यं बिल्वं पाठा यवानिका।।
द्वावप्येतौ सिद्धयोगौ श्लोकार्थेनाभिभाषितौ। बड़की जड़को गायके तक्रमें पीस कर पीनेसे
ज्वरातिसारशमनौ विशेषाद्दाहनाशनौ ॥ नवीन अतिसार शीघ्रही नष्ट हो जाता है। ___ (१) इन्द्रजौ, देवदारु, कुटकी और गज
| पीपल । (६४७७) वटशुङ्गादियोगः
(२) गोखरु, पीपल, धनिया, बेलगिरी, पाठा (व. से. ; ग. नि. । तृषा.)
और अजवायन । वटशुझं सितालोघं दाडिमं मधुकं मधु । ये दोनों काथ ज्वरातिसार और विशेषतः पिबेत्तण्डुलतोयेन छदितृष्णानिवारणम् ।।
दाह नाशक हैं। बड़के अंकुर, सफेद दूब, लोध, अनारकी
___ (६४८०) वत्सकादिक्वाथः (२) कली या पत्ते और मुलैठी समान भाग ले कर
(व. से. । ज्वरा.) सबको एकत्र पीस कर शहदमें मिलाकर चावलेकि पानीके साथ सेवन करनेसे छर्दि और तृष्णाका
वत्सकं पद्मकाष्ठं च नागरं चन्दनामृते ।
पटोल धान्यकं चैव क्वाथो मधुसमायुतः ॥ नाश होता है।
कफपित्तज्वर शूलं दाहं हन्त्यज्रिपाणिषु ॥ (६४७८) वत्सकादिकषायः
इन्द्रजौ, पद्माक, सोंठ, चन्दन, गिलोय, पटोल ( भा. प्र. । म. खं. २ )
और धनिया, समान भाग ले कर काथ बनावें । वत्स कातिविषाशुण्ठी बिल्वहिङ्ग्यवाम्बुदाः।
यह काथ पित्त ज्वर, शूल और दाहको नष्ट चित्रकेण युतः क्वाथ आमातीसारनाशनः ॥ इन्द्रजौ, अतीस, सांठ, बेलगिरी, हींग,
(६४८१) वत्सकादिक्याथः (३) नागरमोथा और चीता समान भाग ले कर काथ | ( हा. सं. । स्था. ३ अ. ३) बनावें ।
वत्सकश्च सुरदारुरोहिणी इसे पीनेसे आमातिसार नष्ट होता है। धान्यबिल्वमगधात्रिकण्टकम् ।
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