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भारत-भषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि
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(५७६८) यष्ट्यादिचूर्णम् (२) समय ) चाटनेसे पीडा रहित प्रसव होता है। (व. से. । अतिसारा.)
(मात्रा-चूर्ण ३ माशे । घी ६ माशे, शहद यष्टीमधु तिलाः कृष्णा पद्मकेसरमुत्पलम् ।
| १ तोला।) क्षौद्रमत्स्यण्डिकायुक्तमाजेन पयसा पिबेत् ।।
मिश्री और धनियेका चूर्ण समान भाग ले ___ मुलैठी, काले तिल, कमलकेसर और नीलो
- कर एकत्र मिलावें।
इसे चावलोंके पानीके साथ पिलानेसे गर्भिस्पल तथा भिसरीका चूर्ण समान भाग लेकर शहद |
। णीकी वमन नष्ट होती है। में मिलाकर खानेसे अतिसार नष्ट होता है।
( मात्रा-३-४ माशे।) अनुपान-बकरीका दूध । ( यह प्रयोग पित्तातिसारमें उपयोगी है।)
(५७७१) यष्टयादिचूर्णम् (५) (५७६९) यष्ट्यादिचूर्णम् (३) ।
(रा. मा. । राजयक्ष्मा.) (व. से. । स्त्रीरो.)
यष्टयश्वगन्धा सहिताऽकपुष्पी यष्टिनिम्ब हरिद्रा च निर्गुण्डी धातकी समम् ।
चूर्णीकृता क्षीरयुता प्रदत्ता। चूर्ण स्तनवणे देयं रोपणं कुरुते भृशम् ॥
कृशोऽप्यसौ पीवरतां दधाति मुलैठी, नीमकी छाल, हल्दी, संभालु और ।
पयः कृताहारतयैव मासात् ॥
मुलैठी, असगन्ध और अर्कपुष्पी (सूर्य धायके फूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।।
| मुखी ) समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । यह चूर्ण स्तनके व्रणको भर देता है।
___ इसे दूधके साथ सेवन करानेसे राजयक्ष्मासे ( यदि वणसे मवाद अधिक आता हो तो कृश हुवा रोगी पुष्ट हो जाता है। सूखाही लगाना चाहिये अन्यथा घीमें मिलाकर ।
इसके सेवन कालमें दुग्धाहार करना चाहिये । लगावें । रोज़ाना ब्रणको साफ़ अवश्य करते रहें।)
(५७७२) योगराजः (५७७०) यष्ट्यादिचूर्णम् (४)
(वृ. नि. र. । स्नायु.) (वै. जी. । वि. ३)
रामठं टक्षणक्षारं प्रत्येक शाणसम्मितम् । मध्वाज्ययष्टीमधुलुङ्गमूलं
चूर्णयित्वा सप्तं दिनं खादेत्सन्ध्याद्वयं नरः ॥ निपीय मूते सुमुखी सुखेन । | अनेन योगराजेन स्नायुको नश्यति ध्रुवम् ॥ मुतण्डुलाम्भः सितधान्यकल्क
भुनी हुई हींग, सुहागेकी खील और जवापानाद्वमिर्गच्छति गर्भिणीनाम् ॥ खार समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । मुलैठी और बिजौ रेकी जड़का समान भाग नित्य प्रति दोनों समय ( प्रातः सायं ) यह चूर्ण ले कर एकत्र मिलावें ।
| चूर्ण खानेसे सात दिनमें स्नायुक (नहरवा) अवश्य इसे शहद और घीमें मिलाकर ( प्रसवके । नष्ट हो जाता है।
इति यकारादिचूर्णप्रकरणम् ॥
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