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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
[लकारादि
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(६४१०) लोहमारणम् (४)
(६४१२) लोहमारणम् (६) ( शा. सं.। खं. २ अ. ११ ; भा. प्र. । प्र.
(र. प्र. सु. । अ. ४) । खं. ; रसे. चि. म. । अ. ६ ) शिलागन्धादग्धाक्ताः स्वर्णाद्याः सर्वधातवः।
| लोहचूर्ण पलद्वन्द्वं गुडगन्धी समांशकौ ।
| खल्वे विमर्च नितरां पुटे द्विशति वारकम् ॥ म्रियन्ते द्वादशपुटैः सत्यं गुरुवचो यथा ॥ समान भाग मनसिल और गन्धकको आकके
पेषणं तु कर्तव्यं पुटः पश्चात्पदीयते । दूधमें खरल करके उसका स्वर्णादि किसी भी |
| अनेन विधिना सम्यग्भस्मीभवति निश्चितम ॥ धातुके पत्रों पर लेप करके गजपुटमें पकानेसे १२ । सव
सर्वरोगाग्निहन्त्येव नात्र कार्या विचारणा ।। पुट में हरेक धातुकी भस्म हो जाती है। ___लोह चूर्ण १० तोले, गुड़ ५ तोले और शुद्र
(स्वर्ण और चांदोको प्रारम्भमें गजपुटमें न गन्धक ५ तोले ले कर तीनोंको एकत्र खरल करके पकाना चाहिये बल्कि लघुपुट देनी चाहिये और
| शरावसम्मु टमें बन्द करके गजपुटमें पकावें । फिर ज्या ज्यों वे अग्नि सहन करते जायं त्यो त्यों | इसी प्रकार २० पुट देनेसे लोह अवश्य मर जोता अग्निका प्रमाण बढ़ाते रहना चाहिये। है । इसे सम त रोगोंमें दे सकते हैं। ____ जब पुट लगानेसे पत्रोंका चूर्ण हो जाय तो (६४१३) लोहमारणम् (७) उसे मनसिल और गन्धकके चूर्ण में मिला कर
. (र. प्र. सु. । अ. ४) आकके दूधमें घोट कर टिकिया बना कर शराव-सेना पनवातोन दशकाः । सम्पुटमें बन्द करना चाहिये ।)
पुटास्तत्र प्रदेयाश्च सिन्दूराभं प्रजायते ॥ (६४११) लोहमारणम् (५)
____ लोह चूर्णको सफेद पुनर्नवाके पत्तोंके रसमें (र. प्र. सु. । अ. ४)
खरल करके टिकिया बना कर सुखा लें और उन्हें अथापरः प्रकारोऽत्र कथ्यते लोहमारणे।
शरावसम्पुट में बन्द करके गजपुटकी अग्नि दें । लोहचूर्णसमं गन्धं मर्दयेत्कन्यकारसैः ।।
इसी प्रकार १० पुट देनेसे लोहकी सिन्दूरके समान पिण्डीकृतं लोहपात्रे छायायां स्थापयेच्चिरम् ।
लाल भस्म बन जाती है। म्रियते नात्र सन्देहो ह्यनुभूतं मयैव हि ॥ __ समान भाग लोहचूर्ण और गन्धकको 'एकत्र
(६४१४) लोहमारणम् (८) मिला कर घी कुमारके रसमें खरल करें और फिर (र. प्र. सु. । अ. ४ ) उसका गोला बना कर उसे लोहपात्रमें रख कर | लोहचूण घृतात हि क्षिप्त्वा लोहस्य खपरे। दीर्घ काल तक छायामें रक्खा रहने दें। | अग्निवर्णपमं यावत्तावा प्रचालयेत् ॥ ... ' इस क्रियासे लोहकी भस्म अवश्य बन जाती | खल्वे पिष्ट्वा च विपचेत्पश्चवारमतः परम् । है । यह अनुभूत विधि है।
वरोदकैः पुटेल्लोहं चतुर्वारमिदं खलु ।।
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