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२३८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि (मीठा विष), धायके फूल, मोचरस और आमकी । हल्दी, दारु हल्दी, सहजनेकी छाल, ढाकके बीज, गुठलीकी गिरी समान भाग लेकर कूट छान कर चूर्ण शुद्ध गन्धक, बायबिडंग, बच, अरणी मूलकी छाल, बनावें।
काला नमक और हींग समान भाग लेकर चूणे इसके सेवनसे संग्रहणी रोग नष्ट होता है। बनावें । ( मात्रा-१॥ माशा ।)
इसके सेवनसे कृमि रोग नष्ट होता है । (५६१७) मुस्तादिचूर्णम् (२)
(५६१९) मूत्रकृच्छ्रहरः (र. र. स. । अ. १९)
(भै. र. ; धन्व. । मूत्रकृच्छ्रा.) मुस्ताऽमृताचित्रकयष्टिपिप्पली
विदारी गोक्षुरं यष्टी केशरश्च समं पचेत् । विडाशुण्ठीत्रिफलैर्यथोत्तरम् । तत्कषायं पिबेत्क्षौदै रसभस्मयुतं पुनः॥ चूर्ण सहायोरजसा च संयुतं मूत्रकृच्छहरं ख्यातं सप्ताहात् पित्तजं जयेत् ॥
समासिकं पाण्डुगदापहं परम् ॥ विदारी कन्द, गोखरु, मुलैठी और नागकेसर नागरमोथा १ भाग, गिलोय २ भाग, चीता- समान भाग (१-१ तोला ) लेकर सबको ३२ मूल ३ भाग, मुलैठी ४ भाग, पीपल ५ भाग, | तोले पानीमें पकावें । जब ८ तोले पानी शेष रहे बायबिडंग ६ भाग, सोंठ ७ भाग, हर्र ८ भाग, | तो छान लें । बहेड़ा ९ भाग, आमला १० भाग, और लोहभस्म | इस काथमें शहद डालकर उसके साथ पारद ५५ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें। भस्म ( अभावमें रससिन्दूर ) सेवन करनेसे १
इसे शहदमें मिलाकर सेवन करनेसे पाण्डु- सप्ताहमें पित्तज मूत्रकृच्छू नष्ट होता है। रोग नष्ट होता है।
(५६२०) मूत्रकृच्छ्रहरलौहम् ( मात्रा-३ रत्ती ।)
(र. र. । मूत्रकृच्छ.) (५६१८) मुस्ताय चूर्णम् | अयोरजः श्लक्ष्णचूर्ण मधुना सह योजितम् । (ग. नि.। कृमिरो.)
मूत्रकृच्छ्रे निहन्त्येतत् त्रिभिलोहेर्न संशयः॥
लोह भस्मको शहदके साथ सेवन करनेसे मुस्ताखुपर्णिसुरदारुकणाविशालाश्रीसिन्दुवाररविमूलनिशाद्वयं च ।।
| मूत्रकृच्छ अवश्य नष्ट होजाता है । शिनः पलाशबलियेल्लवचाग्निमन्थ- (५६२१) मूत्रकृच्छ्रान्तकरसः (१)
सौवर्चलं कृमिशतं शमयेत् सहि ॥ ( भै. र. ; र. का. धे. । मूत्रकृच्छ्र.) नागरमाथा, मूषाकन्नी, देवदारु, पीपल, सूतं स्वर्णश्च वैक्रान्तं गन्धत्तुल्यं विमर्दयेत् । इन्द्रायणकी जड, संभालुके पत्र; आककी जड़, | चाण्डालीराक्षसीद्रावैर्बियामान्ते तु गोलकम् ॥
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