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रसमकरणम् ]
चतुर्यों भागः
७०७
(६९१७) वङ्गश्वररसः (५)
नीरं तु सन्त्यज्य गृहाण मूतम् । (रे. चं. । प्रमेहा. ; वैद्या.)
तबल्लयुग्मं मधुना समेतं समानभागे शुचिताम्रवङ्गे
___ ददीत पथ्यं मधुरं समुद्गम् ॥
बिल्वोत्थपिण्डं च विपाच्यतके तयोः समानं लवणं प्रसिद्धम् ।
ददीत हिङ्गु दधिवर्जयेच्च । शरावयोः स्थाप्य विधाय मुद्रां
वङ्गं विना रसभस्मेदं लवणस्याददेत्पुटं तस्य गजाभिधेयम् ॥
। विंशतिभागः सर्वरोगोपकारकम् ।। ततो भवेद्भस्म विशेषसौम्यं ___ यथानुपानं ननु सेवनीयम् ।
१ भाग शुद्ध पारद और २ भाग शुद्ध वंग समस्तमेहान्तकमग्निदायि
ले कर प्रथम वंगको पिघला कर उसमें पारद कासापहारि श्वसनापहारि ॥
मिलावें और फिर उसमें २० वा भाग सामुद्र लवण
मिला कर सबको कांजीमें घोट कर टिकिया बना शुक्रस्य दाढर्थप्रविधानदक्षं
कर सुखा लें और उन्हें शरावसम्पुट में बन्द करके प्रमत्तनारी सुखदानबीजम् । इदं हि तत्वं जटिलस्य सेवां
गज पुटमें पकावें । ( जब तक भस्म तैयार न हो
इसी प्रकार पुट देते रहें।) विधाय वैद्येन मया प्रलब्धम् ॥
तदनन्तर उसे पानीमें घोल कर थोड़ी देर ताम्र भस्म और वंग भस्म १-१ भाग तथा | रक्खा रहने दें। जब भस्म नीचे बैठ जाय तो सेंधा नमक २ भाग ले कर तीनोंको एकत्र घोट | ऊपरसे पानीको नितार दें । इसी प्रकार कई वार कर शराव सम्पुटमें बन्द करके गजपुटमें पकार्वे । | धो कर सम्पूर्ण नमक निकाल दें और भस्मको - इसे यथोचित अनुपानके साथ देनेसे समस्त
सुखा
रक्खें । प्रकारके प्रमेह, अग्निमांद्य, कास और श्वासका नाश इसे ४ रत्ती मात्रानुसार शहदके साथ सेवन होता तथा वीर्य और कामशक्तिकी वृद्धि होती है। करनेसे प्रमेह नष्ट होता है। (६९१८) बङ्गेश्वररसः (६)
औषध खानेके पश्चात् बेलगिरीके कल्कको
तक्रमें पका कर खाना चाहिये । (रसे. चि. म. । अ. ९ ; र. का. धे.। प्रमेहा.)
इस पर मूंगका यूष और मधुर रसयुक्त आहार रसेन वङ्गं द्विगुणं प्रगृह्य
देना चाहिये । तथा हींग और दहीसे परहेज़ विद्राव्य निक्षिप्य समुद्रजश्च । करना चाहिये। विमई येदम्लजलेन गोलं
(६९१९) वनेश्वररसः (७) कृत्वा सुसंवेष्टय पुटेत तीब्रम् ॥
( यो. र.। वाजीकरणा.) ततः क्षिपेत् तज्जलपात्रमध्ये .. रसं वङ्गं समं कृत्वा चतुर्भागं च गन्धकम् ।
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