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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[वकारादि विष्णुक्रान्ता (कोयल) के चर्णमें खांड मिला- इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे ऊरुस्तकर गोदुग्धके साथ सेवन करने और दूध भातका | म्भकी पीड़ा शान्त होती है। आहार करनेसे ऊर्ध्वगत रक्तपित्त नष्ट होता है। (मात्रा-३ माशे ।) वृद्धगङ्गाधरचूर्णम्
(६६४१) वृषद्वादशकचूर्णम्
(व. से. । अजीर्णा.) प्र. सं. १२३४ गङ्गाधर चर्णम् ( वृद्धम् )
पिपल्यतिविषा हिङ्गु गरेन्द्रयवावचा । देखिये ।
पाठाजमोदकटुकावृषसौवर्चलाभयाः ॥ (६६३९) वृद्धदारुकरसायन:
वृषद्वादशकं चूर्णमजीर्णानाहगुल्मनुत् । ( वृ. मा. । रसायना. ; च. द. । रसायना. भगन्दरश्वासकासमूत्रकृच्छ्राशंसां हितम् ॥ ६५ ; न. मृ. । त. ३)
पीपल, अतीस, हींग, सेांठ, इन्द्रजौ, बच, दृद्धदारुकमूलानि सूक्ष्मचूर्णानि कारयेत् ।
पाठा, अजमोद, कुटकी, बासा, सञ्चल ( काला शतावर्या रसेनैव सप्तवारांश्च भावयेत् ॥
नमक) और हर्र समान भाग लेकर चर्ण बनावें ।
इसे सेवन करनेसे अजीर्ण, आनाह, गुल्म, अक्ष मात्रं तु तच्चूर्ण सर्पिषा सह योजयेत् ।
भगन्दर, श्वास, खांसी, मूत्रकृ'छू और अर्शका मासमात्रोपयोगेन मतिमाआयते नरः ॥
नाश होता है। मेधावी स्मृतिमांश्चैव वलिपलितवर्जितः ।।
( मात्रा-२ माशे ।) विधारेकी जड़के को शतावरके रसकी
(६६४२) वृषादिचूर्णम् सात भावना दे कर रक्खें ।
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ५०) इसे मास तक शहदके साथ सेवन करने
वृषं बृहत्यौ मगधात्रिकण्टाः से मति, मेधा और स्मृतिकी वृद्धि तथा बलि
तथात्मगुप्ता स शतावरी च । पलितका नाश होता है।
सशर्करं गोपयसा घृतेन मात्रा-११ तोला।
पानं नराणां प्रकरोति बीजम् ॥ (६६४०) वृद्धदादिचूर्णम् . ऋषभक, कटेली, बड़ी कटेली, पीपल, गोखरु,
( ग. नि. । ऊरुस्तम्भा. २१) कौंचके बीज और शतावर १-१ भाग तथा खांड पिबेदुष्णाम्बुना वृद्धदारुनागरचूर्णकम् ।। | सबके बराबर ले कर चूर्ण बनावें । ऊरुस्तम्भसमुद्भूतविकारव्यथयाऽन्वितः ॥ इसे धीमें मिला कर गोदुग्धके साथ सेवन
- विधारकी जड़ और सोंठ समान भाग ले कर | करनेसे वीर्यवृद्धि होती है। चूर्ण बनावे।
(मात्रा-६ माशे ।)
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