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१८८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ मकारादि मिलाकर सेवन करना चाहिये और जरा देर बाद । भक्षयेत्पातरुत्थाय तिलक्षोदमधुप्लुताम् । पानमें सुपारी और कपूर रख कर खाना चाहिये । सिताक्षौद्रयुतां वापि नवनीतेन वा सह ।।
पथ्य-मूंग, भात, धी, खांड, शहद, मिश्री। अयथापानजा रोगा वातजाः कफपित्तनाः । उत्तम सुखदायक पलंग पर बांई करवट सोना; | गदाः सर्वे विनश्यन्ति ध्रुवमस्य निषेवणात् ॥ मनोहर काव्य, कथा, रामायण और संगीत श्रवण स्वर्ण भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध करना; नाटकादि देखना और विकार रहित मनसे | गन्धक, लोह भस्म और मोती भस्म समान भाग सुन्दर चित्रोंका अवलोकन करना चाहिये। लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और ___ इस रसके सेवनमें अपथ्य कदापि न करना
फिर उसमें अन्य ओषधियां मिलाकर सबको चाहिये।
आमलेके रसमें घोटकर १-१ रत्तीकी गोलियां
बनालें। गुण-इसके सेवनसे २ सप्ताह बाद आलस्य और अरुचि उत्पन्न हो जाती है तथा छर्दि होने
इन्हें प्रातःकाल तिलके चूर्ण और शहदके
साथ अथवा खांड और शहदके साथ या नवनीत लगती है । २१ दिन पश्चात् नख गिरने लगते
( नौनी धी ) के साथ सेवन करनेसे वातज और हैं। ४० दिन पश्चात् बाल गिर जाते हैं । ६०
कफपित्तज मदात्यय ( सुरा पानसे उत्पन्न रोग) दिन बाद खाल गल जाती है तथा अस्सी दिनके
अवश्य नष्ट हो जाते हैं। पश्चात् दांत भी गिर जाते हैं । इस प्रकार निरन्तर ३ मास तक सेवन करते रहनेसे ये समस्त
(५५३३) महाकामेश्वरः उपद्रव शान्त हो कर नवीन केश, और दृढ़ दांत
(वृ. यो. त. । त. १४७; वै. र. । वाजीकरण.) निकल आते हैं तथा शरीर अत्यन्त स्वरूपवान | एतस्मिन्रतिवल्लभे यदि कामदेव सदृश हो जाता है। आयु अत्यन्त दीर्घ
पुनः सम्यकुखुराप्तानिका हो जाती है । सैकडों स्त्रियोंसे समागम करने और धत्तुरस्य तु बीजमर्ककसैकड़ों पुत्रोत्पादनकी शक्ति आ जाती है।
___ रभः पाथोऽब्धिशोषस्तथा। इसे ६ मास तक सेवन करना चाहिये ।
| सन्माजूफलकं तथा खस
फलं पक्त्वाऽपि यः क्षिप्यते यह रस १८ प्रकारके कुष्ठ और असाध्य |
| चूर्णार्धा विजया तदा स हि वातरक्तको भी नष्ट कर देता है।
भवेत्कामेश्वरः सज्ञया । (५५३२) महाकल्याणवटी
___ यदि " रति वल्लभ पूगी पाक" में निम्न ( भै. र. । मदात्यया.) ओषधियोंका चूर्ण और मिला दिया जाय तो उसका हेमाभ्रश्च रसं गन्धमयो मौक्तिकमेव च । नाम "महा कामेश्वर मोदक" हो जाता है। धात्रीरसेन सम्मध गुञ्जामात्रां वटीं चरेत् ।। "फलं त्वक्चापि" इति पाठान्तरम् ।
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