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३ ॥ सेर तेलमें यह कल्क और १४ सेर पानी मिला कर मन्दाग्नि पर पकायें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान लें ।
भारत-2
त-भैषज्य
इसकी नस्य लेनेसे कृच्छ्रसाध्य अपची (गण्डमाला भेद) का भी नाश होता है ।
(६८३०) व्योषाद्यं तैलम् (१) ( यो. र. | मुख रोगा. ; ग. नि. । मुख रोगा. ५) व्योषक्षाराभयावह्निचूर्णमेतत्प्रघर्षणम् । उपजिहा प्रशान्त्यर्थमेभिस्तैलं च पाचयेत् ॥
सेांठ, मिर्च, पीपल, जवाखार, हर्र और चीता समान भाग ले कर चूर्ण बनावें । इसे मलनेसे उपजिहा रोग नष्ट हो जाता है । अथवा इन्हीं ओषधियोंसे तेल पका कर व्यवहृत करना चाहिये ।
तेल पकानेके लिये उपरोक्त ओषधियोंका चूर्ण ५- ५ तोले, तेल ३ सेर, पानी १२ सेर । (६८३१) व्योषाद्यं तैलम् (२) (व. से. । नासा. )
व्योषं धान्यककुसुमं गण्डीर कमवल्गुजम् । एभिस्तैलं पक्वं नासार्शो नाशनं सिद्धम् ॥
कल्क - सोंठ, मिर्च, पीपल, धनिया, लौंग, स्नुही (सेंड - सेहुंड) की जड़ और बाबची ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें।
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३॥ सेर तेलमें यह कल्क और १४ सेर पानी या इन्हीं ओषधियोंका काथ मिला कर
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मन्दाग्नि पर पकावें । जब पानी जल जाय तो तेलको छान
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यह तेल नासाको नष्ट करता है । (६८३२) व्रणराक्षसतैलम् (१) (भै. र. । व्रणा. )
- रत्नाकरः
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सूतकं गन्धकं तालं सिन्दूरच मनःशिला । रसोनञ्च विषं ताम्रं प्रत्येकं कर्षमाहरेत् ।। कुडवं सार्षपं तैलं साधयेत्सूर्यतापतः । नाडीव्रणञ्च विस्फोटमांसवृद्धिं विचर्चिकाम् || दडुकुष्ठापची कण्डूमण्डलानि व्रणांस्तथा । व्रणराक्षसनामेदं तैलं हन्ति गदान् बहून् ॥
कल्क — पारद, गन्धक, हरताल, सिन्दूर, मनसिल, ल्हसन, मीठा विष (बछनाग) और ताम्र चूर्ण ११ - १ | तोला ले कर पारे गन्धककी कज्जली बनावें और अन्य औषधियोंको बारीक पीस लें I
४० तोले सरसोंके तेलमें यह कल्क और २ सेर पानी मिला कर धूपमें रख दें और जब पानी सूख जाय तो तेलको छान ले
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इसे लगाने से नाडीव्रण, विस्फोटक, मांसवृद्धि, विचर्चिका, दाद, कुष्ठ, अपची, कण्डू, मण्डल और arter नाश होता है ।
(६८३३) व्रणराक्षसतैलम् (२) (बृहद् ) ( भै. र. ; धन्व. । व्रग. ) कुडवं सार्षपं तैलं तदर्द्ध गोघृतस्य च । एकीकृत्य पचेत्तत्तु सूर्यावर्त्तरसेन तु ॥ चित्रपत्रप कल्कं दत्वा तत्र विपाचयेत् । daei araत्विा तु चूर्णमेषां विनिक्षिपे ॥
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