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२८८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[यकारादि (५७५०) यवक्षारयोगः (४) । (५७५२) यवक्षारादियोगः ( राजमा. । स्त्रो.)
(व. से. । जलदोषा.) मक्कल: प्रशममुपैति कामिनीनां
महाकयवक्षारौ पीत्वा चैवोष्णवारिणा । पीतेन क्वथितजलोपयोजितेन ।
नानादेशोद्भवञ्चैव वारिदोषमपोहति ।।
सोंठका चूर्ण और जवाखार समान भाग ले अभ्युद्यन्नवशूकसम्भवेन
| कर दोनोंको एकत्र खरल करके रखें । क्षारेण ध्रुवमथवा घृतान्वितेन ।।
_इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे देश नवीन यवोंसे तैयार किये हुवे जवाखारको | देशान्तरोंका जलदोष नष्ट होता है। ( परदेशका पके हुवे जल या घीमें मिलाकर पिलानेसे मक्कल पानी विकार नहीं करता ।) शूल* अवश्य नष्ट हो जाता है।
( मात्रा-१ माशा ।) ( मात्रा-४-६ रत्ती ।)
(५७५३) यवक्षाराय चूर्णम् (१)
( वैद्यामृत.) (५७५१) यवक्षारादिचूर्णम्
यवक्षारो यवानी च सैन्धवं चाम्लवेतसम् । (रा. मा. । अर्श.) हरीतकी वचा हिङ्गु चूर्णमुष्णेन वारिणा ।। प्रातर्यवक्षारमहौषधाभ्यां
| सप्ताहादगुल्मनिचयं सशूलं सपरिग्रहम् । चूर्णेन तुल्येन विमिश्रतः यः ।
भिनत्ति नात्र सन्देहो वहेर्टद्धिं करोति च ॥ लेढी घृतं तस्य न शाम्यति
जवाखार, अजवायन, सेंधा, अम्लबेत, हर्र, क्षुद्यो वा पिबत्युष्णजलेन शुण्ठीम् ॥
, बच और घीमें भुनी हुई हींग समान भाग लेकर
चूर्ण बना। जवाखार और सोंठका चूर्ण समान भाग ले। इसके सेवनसे १ सप्ताहमें शूल और उपद्रव कर दोनोंको एकत्र मिला कर रखें ।
| युक्त प्रवृद्ध गुल्म भी अवश्य नष्ट हो जाता है। - प्रातः काल यह चूर्ण घीमें मिला कर चाट- यह प्रयोग जठराग्निको भी प्रदीप्त करता है । नेसे अथवा उष्ण जलके साथ सोंठका चूर्ण सेवन अनुपान-उष्ण जल । करनेसे क्षुधा अत्यन्त प्रबल हो जाती है। ( मात्रा-१ माशा ।) (मात्रा-१ माशा।)
(५७५४) यवक्षाराचं चूर्णम् (२)
(ग. नि. । चूर्णा.) प्रसवके पश्चात् प्रसूताके हृदय, मस्तक | यवक्षार यवानी च पिवेदुष्णेन वारिणा । और वस्तिमें होने वाले शूलको " मक्कल" एतेन वातजं शूलं गुल्मश्चैव चिरोत्थितः ॥ कहते हैं।
भिद्यते सप्तरात्रेण पवनेन यथा घनः ॥
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