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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलप्रकरणम् ] चतुर्थों भागः (६८०९) विषादनं तैलम् । हृच्छूले पार्श्वशूले च तथैवाभवभेदके । (ग. नि. । तैला. २) कामलापाण्डुरोगेषु शर्करास्वश्मरीषु च ॥ कम्पिल्लकनिशायुग्मैः शालनिर्यासचित्रकैः । क्षीणेन्द्रिया नरा ये च जरया जर्जरीकृताः । पुरकीटारिसंयुक्तैः पालिकैः मुविचूर्णितैः ॥ | येषाश्चैव क्षयो व्याधिरन्त्रवृदिश्च दारुणा ।। एकीकृत्य समैरेभिविषस्य च पलद्वयम् । अदितं गलगण्डश्च वातशोणितमेव च । आतपे स्थापयेद्धीमान कटुतैलपरिप्लुतम् ।। | स्त्रियो या न प्रसूयन्ते तासाश्चैव प्रदापयेत् ।। विषादनमिदं तैलं लेपासिध्मविचचिके। गर्भमश्वतरी विन्द्यान्न च मृत्युवशं व्रजेत् । हन्ति पामापचीव्यङ्गदुष्टत्रणभगन्दरान् ॥ एत तैलवरं चैव विष्णुना परिकीर्तितम् ।। कमीला, हल्दी, दारुहल्दी, राल, चीता, | कल्क-शालपर्णी, पृष्टपर्णी, खरैटी, शतागूगल और बायबिडंगका चूर्ण ५-५ तोले तथा वर, अरण्डकी जड़, छोटी और बड़ी कटेलीकी जड़, विष (बछनाग) का चूर्ण १० तोले ले कर सबको गवेधुक (नागबला) की जड़ और कटसरैयाकी जड़ सरसे के तेलमें मिला कर धूपमें रख दें। ५-५ तोले ले कर सबको एकत्र पीस लें। (४॥ सेर तेलमें उपरोक्त ओषधियां और २ सेर तेलमें यह कल्क और ८ सेर बकरी १८ सेर पानी मिला कर धूपमें रक्खें। जब पानी या गायका दूध मिला कर मन्दाग्नि पर पकावें । सूख जाय तो तेलको छान लें।) जब दूध जल जाए तो तेलको छान लें । इसकी मालिशसे सिध्म, विचर्चिका, पामा, ___ इसकी मालिशसे वातव्याधि-पीड़ित घोडे अपची, व्यङ्ग, दुष्ट व्रण और भगन्दरका नाश और हाथी भी स्वस्थ हो जाते हैं । पौरुषहीन होता है। व्यक्तियों में पुरुषत्व आ जाता है। इसके अतिरिक्त (६८१०) विष्णुतैलम् (१) यह तेल हृच्छूल, पार्श्वशूल, अञवभेदक, पाण्डु, (भै. र. ; धन्व. । वातव्या; वृ. यो. त.। त. ९०) कामला, शर्करा, अश्मरी, क्षय, भयंकर अन्त्रवृद्धि, अर्दित, गलगण्ड और वातरक्तको भी नष्ट करता है। शालपर्णी पृश्निपर्णी बला च बहुपुत्रिका। एरण्डस्य च मूलानि बृहत्योः पूतिकस्य च ॥ जो पुरुष वृद्धावस्थाके कारण क्षीण हो गये हैं और जिन स्त्रियोंके सन्तान नहीं होती उन्हें गवेधुकस्य मूलानि तथा सहचरस्य च ।। एतेषां पलिकैर्भागैस्तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ | यह तेल सेवन करना चाहिये । आज वा यदि वा गव्यं क्षीरं दद्याचतुर्गुणम् । (६८११) विष्णुतैलम् (२) (मध्यम) अस्य तैलस्य पक्कस्य शृणु वीर्यमतः परम् ॥ (भै. र. ; धन्व. । वात.) अश्वानां वातभग्नानां कुअराणां तथैव च । शतावरी चांशुमती पृश्निपर्णी शटी बला । अपुमांश्च नरः पीत्वा निश्चयेन पुमान भवेत् ॥ । एरण्डस्य च मूलानि बृहत्योः पूतिकस्य च ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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