Book Title: Aadarsh Gyan
Author(s): Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নানা আন ৩৫ ১ ) : ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SWEETEST ause NTDE!!DE2 श्री ज्ञानगुण- पुष्पमाला पुष्प नम्बर १४ श्रीमद्रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्योनमः प्रादर्श-ज्ञान ( प्रथम विभाग ) -प्रकाशक श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला फलोदी - (मारवाड़) वीर सं० २४६६ W ओसवाल संवत् २३९६ ** प्रति ५०० मूल्य दो रुपये ड विक्रम सं० १९९६ S DADE Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री. बाबू दीनदयाल 'दिनेश' के प्रबंध से आदर्श मिंटिंग प्रेस, अजमेर में मुद्रित । Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान भगवान् पार्श्वनाथ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ བབབ་བ©-----བ•བབ་བསཞུ་བབ་བབ་སྤ@j:བས་ श्री पार्श्वनाथायनमः 00000 . reams श्री रत्नप्रभसूरीश्वर पादपद्मभ्यो नमः । श्रीमद् "मरुधरदेशोद्धारक, साहित्यप्रचारक, इतिहास प्रेमी, तात्विक एवं अध्यात्म विषय शीघ्रबोधादिप्रन्थ, दार्शनिक विषय षदर्शन, !! चार समवसरणादि, ऐतिहासिक विषय जैन जाति महोदय, मूर्तिपूजाकाप्राचीनइतिहास, और धर्मवीर समरसिंहादि, समाजसुधारविषय मेझर नामादि, विद्या प्रचार में आदर्शशिक्षादि, औपदेशिक व्याख्या विलासादि, क्रियास्मिक, प्रतिक्रमण-प्रभुपूजादि, चर्चात्मक सिद्धप्रतिमामुक्तावली, एवं गयवरविलास प्रतिमा छत्तीसी, दान छत्तीसी, अनुकम्पा छत्तीसी, भक्तिरस में चैत्यचन्दन, स्तुतिये, गजलें,सिलोका निशानी और स्तवनादि विविध विषय" 100000000000000000000 200000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000005 •CAR ............. mom .................. ............ ..... .. 9000000000000000000 00000000000 Moneamannnnnn.../MA 00000000000000000 - - 000000000000000000000000000000000000000000 10000000 1.0000000000000000 .. - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BIODEOSDOG: 0@COM @ 00000GO ग्रन्थों का ४००००० पुस्तकों @GOO D O O...... सम्पादक एवं लेखक और जैन विद्यालयों, बोर्डिन्गों, लायब्रेरियों, सेवामण्डलों, मारवाड़ जैन तीर्थ प्रबन्धकारणी कमेटी निर्मिता, जैन तीर्थों का जीर्णोद्धार एवं मन्दिरों के प्रतिष्ठापक और पतितों के उद्धार कर्ता पूज्यपाद प्रातःस्मरणीय विद्वद्रत्न वादी विजयता मरुधर-केसरीमुनिवर्य श्री श्री १००८ श्री श्री DO@GO©.... श्रीमान् ज्ञानसुंदरजी महाराज साहिब GOD100@@ का आदर्श-जीवन Disso@Geo-266@@sode-GPSC Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान इतिहास प्रमी-मरुधर केसरी मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज साहिब Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द लौंका ढूंढिया और स्थानकवासी समुदाय को असत्य समझकर उनके अन्दर से निकलकर पूज्य मेघजी० बुटारायनी श्रात्मारामजी बगैरह अनेक साधु समय समय संवेग पक्ष को स्वीकार करते आये है जिसमें गयवरचन्द्रजी भी एक हैं | संवेग पक्ष में आने के पश्चात् वि० सं० १९७२ में ओसियां तीर्थ पर परम योगीराज मुनिश्री रतनविजयजी महाराज के पास संबंग दीक्षा ली थी और आपका नाम ज्ञानसुदरजी रक्खा गया था । गुरुवर्य की श्राज्ञानुसार श्राप उपकेशकच्छ की क्रियासमाचारी करते हैं जो ग्राय: तपा• गच्छ की समाचारी से मिलती जुलती ही है । आप स्वतंत्र विचार के एक निडर एवं वरि साधु हैं । आपकी शुरू से सत्य कहने एवं लिखने की आदत होने से श्राप इतने प्रिय नहीं बन सके कि जितने हाँ में हाँ मिलाने बाले बन सकते हैं आप शासन के शुभचिन्तक एवं हितैषी हैं। शासन का अहित करने वाली प्रवृति श्राप से देखी नहीं जाती हैं फिर कोई माने या न माने पर आप अपनी अन्तरात्मा की पुकार किये बिना क़दापि नहीं रहते हैं । आप ढूंढियापंथ छोड़ के आये और तीसरे ही वर्ष श्रीसिद्धगिरी की यात्रार्थ गुजरात की ओर विहार किया और गुजराती साधुओं का जघन्य आचार व्यवहारादि देखा तो आप से रहा नहीं गया । स्थान स्थान पर श्रापने भाषण व्याख्यान दिया पर हिनाचारियों के साम्राज्य में श्रापकी पुकार सुनता कौन । अतः श्रापने परमात्मा सीमंधर स्वामी की सेवा में एक कागद हुंडी, पैंठ, परपैंठ और मेझरनागा रूपी विनती लिखकर भेजी और अपने दग्ध हृदय को शान्त किया । पर यह तो समय था कलिकाल का, उस शासन सेवा का यह फल मिला कि संवेग-पक्षीय श्रमण समाज श्राप पर एक दम टूट पड़ा और पापी, नास्तिक, भव्य और अनंत संसारा कह कर संघ बाहर ठोक देने की तैयारी कर ली पर जब आपने एक सिंहगर्जना की तो पासत्यों की क्या ताकत कि वे आपके सामने चुं तक भी कर सकें । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेझरनामा लिखने के कारण आपको बहुत कुछ सहन करना पड़ा पर इसके प्रचार से समाज एवं नवयुवकों में जागृति भी कम नहीं हुई थी। उस मेझरनाभ की ऊपरा ऊपरी पांच आवृतियां मुद्रित हुई और जनता ने उसे खूब अपनाया। जो लोग मेझरनामा लिखने के कारण नाराज थे वही लोग आपकी भूरि २ प्रशंसा करने लग गये ।। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आप कितने पुरुषार्थी एवं श्रमजीवी है आप श्री ने अपने परोपकारी जीवन में कैसे कैसे चोखे और अनोखे काम कर बतलाये कि जिसकी सानी का कोई साधु नजर नहीं आते हैं। आज जनता में केवल बातें एवं आडम्बर की ही कदर नहीं पर काम की कदर है। आपने अपने साधुव्रत के नियम पालते हुये शासन की बढ़िया स बढ़िया सेवा बजाई वह इस पुस्तक के पढ़ने से आपको ठीक रोशन हो जायगी। आपन जहां जहां विहार किये और जो जो लोग आपके परिचय में आये वे आपके अलौकिक गुणों पर मन्त्रमुग्ध बन कर आपके परम भक्त बन गये हैं पर भंडारीजीचन्दनचन्दजी जोधपुरवाले तथा वदनमलजी वैद्यमेहता फलौदीवाले अधिक समय आपकों सेवा में रहकर आत्मकल्याण साधन किया करते थे । ___ इन दोनों मक्तों का विचार था कि भविष्य की जनता का कल्याण के लिये आपश्री का जीवन लिखा जाय पर जितनी साधन सामग्री चाहिये उतनी नहीं मिली फिर भी उनका प्रयत्न सर्वथा निष्फल भी नहीं हुआ उन्होंने कई वर्षों तक निरन्तर परिश्रम कर कुछ सामग्री एकत्र करके एक खरड़ा बनाया परन्तु कुदरत आपके सानुकूल नहीं थी कि आप दोनों मकों ने एक ही वर्ष में केवल छः मास के अन्तर से इस फानी दुनिया से विदी ले ली। फिर भी वे अपनी अन्तिमावस्था में भी इस बात की नहीं भले थे। अतः पिछले लोगों का कह गये कि हम जो इस महत्वपूर्ण कार्य को अधूरा छोड़ जाते हैं समय पाकर पूरा कर देना । बस, वह कार्य संस्था पर छोड़ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान मुनि श्री गुणसुन्दरजी भण्डारीजी चन्दनचन्दजी साहब श्रीमान् वदनमलजी वैद्य फलौदी Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) दिया था और संस्था ने इसे पूर्ण करने का प्रयत्न किया । हां, यदि जिन भक्त लोगों ने मसाला एकत्र किया था वे इस कार्य का संपादित करते तो कार्य कुछ और ही रूप में बनता पर खैर, जो बनने का होता है वही बनता है । अस्तु, हम गुरु-भक्ति से प्रेरित हो जैसी बन सका वैसा एक वार्ता के रूप में महाराज के जीवन के साथ घटनाये बनी और हमे जितनी प्राप्त हुई उसको लिख कर जनता के सामने रख दी है जिसको पढ़ने से आप ठीक तौर पर जान सकोगे कि एक परमार्थी पुरुष जनता का किस तरह कल्याण में निमित्त कारण सकता है। पूज्य गुरुबर्थ्य के जीवन में एक यह विशेषता है कि आष जमाना हाल के सुधारक विचार वाले निडर पुरुष होने पर भी शासन के प्रत्येक कार्य में कटिबद्ध होकर भाग लिया करते हैं जब से आप संवेगपक्ष में श्राये उस दिन से ही श्रापका यह मुख्य ध्येय बन गया था कि छोटा-छोटा ट्रक्टों द्वारा समाज में जागृति पैदा करनी और चिरकाल से पडिदुइ कुरूढ़ियों को निकाल नी । इसके लिये सब से पहला आपने सं० १९७३ में फलौदी शहर में श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पयाला नामक संस्था को जन्म दिया और उस सँस्था द्वारा छोटे बड़े २१५ पुस्तक की करीए ४००००० प्रतियें छपवा कर सर्वत्र प्रचार करवाया इनके पूर्वं मारवाड़ में इस प्रकार पुस्तकें का प्रचार नहीं हुआ था जिसमें भी विशेषता यह कि इतना बड़ा कार्य के लिये न रखा पण्डित न रखा नौकर प्रायः सब कार्य मुनि श्री ने अपने हाथों से ही किया था इस सस्था के श्राय व्यव का कार्य भी फलौदी के ज्ञान प्रेमियों ने परमार्थ एवं परोपकार को लक्ष में रख कर ही किया था जिन्हों के हिसाब की सफाई श्राप मुद्रित हिसाब से देख सकते ही । २ - गुरुवर्य की लिखी हुई पुस्तकें एक ही विषय की नहीं पर तात्विक, दार्शनिक अध्यात्मिक, श्रौपदेशिक मक्ति विधिविधान समाजसुधार चर्चा और ऐतिहासिकादि अनेक विषय की है । १ - श्राप भी स्वयं कण्ठस्थ ज्ञान करना और दूसरों का करवाने का भी 'प्रयत्न किया और आपश्री ने अनेक मावुकों की ज्ञान दान दिया । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४-आपश्री को आगम बाचने का भी पूर्ण प्रेम है कई २० वार तो व्याख्यान में श्रीमगवती सूत्र वाचा होगा और कई साधु साध्वियों को सूत्रो की वाचना भी दी थी। ५-ज्ञान प्रचार के लिये आपश्री ने कई स्थानो पर ज्ञानभण्डार एवं लाइब्रेरियो की भी स्थापना करवाई। ६-समाज सेवाके लिये कई ग्राम नगरो मे सेवा मण्डल स्थापन करवाये । ७-विद्या प्रचार के हित कई बोर्डिग एवं विद्यालयां सोलाई । ८-जहां धर्म की शिथिलता देखी तो तीर्थों की रचनादि महोत्सव करवा कर धर्म की जागृति करवाइ। ६-जनता की शान्ति के लिए शान्ति स्नानादि पूजाए पढाइ । १०-कई भावुकों को दीक्षा और कई एकों को समकित एवं व्रत देकर उनका उद्धार किया। ११-कई लोगों ने अपनी अज्ञानता के कारणं जैन धर्म एवं जैन जातियों पर मिथ्या प्रक्षेप किया जिन्हों का मुह तोड़ जवाब भी आपने ही दिया। १२-जहां शास्त्रार्थ का मोका आया वहां शास्त्रार्थ करके वादियों के पराजय भी आपने ही किया। . १३-प्रश्नों के उत्तर-बहुत से लोग आपको रूबरू तथा पत्र द्वारा प्रश्न पूच्छा करते हैं जिसका यथोचित उत्तर आपश्री ने बड़ी योग्यता से दिया १४-ढूंढ़िया पना छोड़ के आये तो आपको तीर्थों की यात्रा करने की भी उत्कण्ठ हो रही थी आपने स्वयं तथा बड़ा बड़ा संघ के साथ कई तीर्थों की यात्रा भी की। __ १५- आपश्री नये मान्दिरों का निर्माण की अपेक्षा जीर्ण मन्दिरों का उद्धार करवाना विशेष लाभ का कारण समझते हैं फिर भी आप श्री ने जीर्णोद्धार एवं नये मन्दिरों की कई स्थानों पर प्रतिष्ठाएं भी करवाई। आशा है कि पाठक एक अलौकिक महात्मा का जीवन पढ़ कर अपना जीवन परोपकारमय बनावेंगे। इति शुभम् ॥ "प्रकाशक" Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका विषय १-वैराग्य का कारण नवयुवक की बीमारी और मुत्ताजी का मिलाप १ दीक्षा की भावना और ब्राह्मण का इलाज २-वंश परिचय राजा उत्पलदेव की संतान से श्रीष्टि गोत्र श्रेष्टि गोत्रीयों की दीक्षा श्रेष्टि गोत्र से वैद्य मेहता शाखा • मेहताजी लालचन्दजी से खुर्शीनामा ३-जन्म ४-विवाह ५-वैराग्य ६-परिणामों का पलटा दम्पति का सम्वाद मुत्ताजी की धमकी ७-दीक्षा के नाम पर एक साधु पर व्यर्थ आक्षेप ८-दिशावर गमन ९-पिताजी की अन्तिम सेवा १०-पुनः दीक्षा की भावना रतलाम में पूज्यजी के दर्शन पूज्यजी के साथ दीक्षा विषय वार्तालाप Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ११-रतलाम में दो मास की स्थिरता दीक्षा का निश्चय आरजियों का अधैर्य दम्पति का दीक्षा के विषय विषयवाद १२-गणेशमलजी का रतलाम पाना देवर भौजाई का मिलाप भंडारीजी की पोलीटीकल काररवाई आखिर का निर्णय १३-साधुओं का मायाजाल पूज्यजी की मुत्सद्दीगिरी भिक्षाचारी का निश्चय १४-पेशाब से घृणा और चाण्डाल की योनि पेशाब की महत्ता निवाड़ा में वेशपरिवर्तन और भिक्षाचारी वीसलपुर का पत्र १५-स्वयमेव दीक्षा लोच की कठोरता परमानन्द अग्रवाल स्वयं दीक्षा लेकर कोटे जाना पूज्यजी की कृपा और नाराजगी १६-आज्ञा के लिये वीसलपुरा जाना साधुनों की वृत्ति पर विचार पालासनी से वीसलपुर . Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय जोधपुर में सालावसवालों का आना जोधपुर से तिवरी और वापिस ब्यावर ब्यावर में मन्नालालजी से मिलना १७-पहला चतुर्मास सोजत में आज्ञापत्र की कोशिश जूओं का पोषण आज्ञा अप्रमाणिक दूसरी बार वीसलपुर जाना स्वामी केवलचंदजी का मिलाप पीपाड़ में कर्मचन्दजी का मिलाप पूज्यजी की नाराजी का कारण जयपुर मन्नालालजी के पास जाना १८-चार साधुओं को जल्दी से जयपुर भेजना मन्नालालजी का पंजाब की ओर बिहार कस्तूरचन्दजी के पास जयपुर में टुक माधुपुर और कोटा भयंकर जंगल और मरणान्त कष्ट १९-जावद में ग्यानमलजी चौधरी की सलाह . २०-भीनासर में पूज्यजी के दर्शन प्रायश्चित की चर्चा गुरु शिष्य के लिये वाद-विवाद २१-दूसरा चतुर्मास बीकानेर ... . पूज्यजी के पैरों में तकलीफ का होना Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ९९ १०१ १०४ १०४ १०६ १०६ विषय व्याख्यान के लिये सबसे पहला गोचरी के दोष की चर्चा प्रायश्चित देना और लेना नागोर में सेठजी की बातें शत्रुजय और मूर्ति को चर्चा पुनः पूज्यजी के पैरों में तकलीफ कुचेग में जोरावरमलजी का आना २२-तीसरा चतुर्मास जोधपुर साधुओं की निर्दयता एक साधु के बदले मासखमण का तप वीसलपुर के प्रतापमलजी की दीक्षा २३-चतुर्थ चौमासा आनंदपुर में साधुओं की निर्दयता साधुओं को सूत्रों की वाचना देशी साधुओं की कुटिलता दिगम्बरों से चर्चा तेरह पंथियों के साथ चर्चा पूज्यजी का आमन्त्रण २४-पांचवां चतुर्मास बीकानेर बीकानेर में व्याख्यान सूत्रों की वाचना एवं थोकड़े बीकानेर वालों की श्रद्धा ब्यावर में मेघराजजी १०७ १०८ ११० ११० ११२ ११३ ११४ ११५ ११५ ११६ '११६ ११७ ११८ ११९ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय श्रद्धा का पलटा २५ - छटा चतुर्मास अजमेर में देवगढ़ में तेरहपंथी से चर्चा फौज मल तेरहपंथी को दोक्षा ' अजमेर में धर्मवाद सेठजी के साथ मूर्ति की चर्चा सेठजी के प्रश्नों का उत्तर पूज्य हुकमीचंदजी के हाथ के लिखे हुए सूत्र २६ - पूज्यजी का गुजरात से पाली पधारना मोडीरामजी की आबू यात्रा पाली में साधुओं का जमघट शोभालालजी और तिवरी के श्रावक तिवरी के श्रावकों की प्रेरणा कर्मचंदजी से धोरण का प्रश्न शोभालालजी और पूज्यजी गयवरचंदजी और पूज्यजौ रोयटग्राम में मुहपति की चर्चा २७ – सातवां चर्तुमास गंगापुर में • व्याकरण का पढ़ना प्राचीन सूत्रों में मूर्तिपूजा तेरहपन्थियों के साथ चर्चा उदयपुर की विनती २८ - उदयपुर में जिवाभिगम सूत्र का व्याख्यान पृष्ठ १२० १२३ १२३. १२४ १२७ १२९. १३२ १३३ १३५ १३५ १३७ १३८ १४० १४१ ४१४ १४५ १५१ १५५ १५६ १५७ १५८ १६४ १६६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ १८० १९० विषय पृष्ठ नेत्रों में तकलीफ १६७ विजयदेव और मूर्तिपूजा भीलाड़े पूज्यजी के पास जाना १७८ पूज्यजी ने रतलाम की आज्ञा दी १७९ शोभालालजी का मिलाप सेठजी के साथ मूर्ति-विषय चर्चा २९-मूर्ति पूजा के विषय दूसरे दिन का सम्वाद ३०--जावरा में पूज्यजी के दर्शन २०५ पूज्यजी की सख्त नाराजी २०६ कस्तूरचंदजी का सहयोग २०६ पूज्यजी का मुत्सद्दी पेच रात्रि में खुलासा २०९ उदयपुर के श्रावकों का जावर में आना २११ दुधारा प्रश्न को टालमटोल छोटी सादड़ी भेज कर पीछा छुड़ाना २१४ नगरी में शोभालालजी से मिलना ३१-आठवां चतुर्मास छोटी सादड़ी व्याख्यान में राजप्रश्नी सूत्र २२१ फूलचंदजी के ९ प्रश्नों को रतलाम भेजना २२३ पूज्यजी की ओर से सेठजी के लिखे उत्तर २२४ चर्तुमास में बीमारी २२८ गुरुजी का चर्तुमास में आना श्रावकों की शक्ति और पूज्यजी का हुक्म २१३ २१७ २२० २२९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २३२ २३३ २३४ २३४ विषय चन्दनमलजी नागोरी और जैन मन्दिर सवा लक्ष ग्रन्थ का पठन पाठन ३३ -गंगापुर में त्रिवेणी का समागम गंगापुर में कर्मचन्दजी गंगापुर में शोभालालजी गंगापुर में मोडीरामजी ३४-तेरहपन्थी पूज्य का पराजय ३५-मार्ग में मेघराजजी का मिलाप ३६-गुरु शिष्य का अलग २ होना जोधपुर में व्याख्यान मूर्ति पूजा विषयक प्रश्न पूज्यजी को नगरी तार देना शोभालालजी का आना और १२ कलमें गुरु शिष्य का अलग २ विहार इति प्रथम खंड समाप्तम् द्वितीय खण्ड ३७-तिवरी में लूणकरणजी लोढ़ा का मिलाप जोधपुर से महामन्दिर दीपचन्दजी मिलापचन्दजी का मिलाप महामन्दिर से तिवरी लुनकरणजी का मिलाप कर्म प्रन्थ की गाथा का अर्थ २३४ २३४ २४० २४४ २४९ २४९ २४९ २५० २५२ २५६ २६१ २६१ २६२ २६५ २६५ २६६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ३८ - ओसियां तीर्थ पर योगीराज के दर्शन प्रतिमा छत्तीसी ओसिया तीर्थ पर आय-व्यय का हिसाब पृष्ठ २७० २७३ २७३ भुवाजी का ना २७५ २७६ ३९ - सियां में स्थान० श्रावकों का श्रागमन मूर्ति पूजा की चर्चा २८० मिथ्यात्व के सामने पूज्य पदवीकी क्या कीमत है १२८३ ४० - योगीराज की नेक सलाह २८४ चुनिलाल मुनीम बोटिंग की योजना तिवरी के श्रावकों का आगमन ४१ - नौवाँ चर्तुमास तिवरी में सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली प्रतिमा छत्तीसी का मुद्रित होना योगीराज का पश्चाताप ४२ - प्रतिमा नकल - निरुपण और सादड़ी श्रीसंघ ४३ - क्या ऋतुवती साध्वी सूत्र बाँच सकती है ? ४४ - चन्दनमलजी नागोरी का तिवरी में मिलाप खरतरगच्छ की रत्नश्रीजी साध्वी स्थापनाचार्य की चर्चा ४५ - संवेग पक्षीय विद्वानों से पत्र-व्यवहार ४६ - दीक्षा की चर्चा और मुहपती का डोरा तिवरी के भावकों को बोध २८७ २८७ २९० २९१ २९२ २९३ २९३ २९४ २९९ ३०२ ३०३ ३०३ ३०७ ३१५ ३१५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ ३२४ ३२७ ३३० ३३१ ३३३ ३३४ ३३८ विषय गच्छों की समाचारिये उपकेशगच्छ ४७-प्राचीन शिलालेख की प्राप्ति ४८-श्रोसियां के बोर्डिंग के लिये प्रयत्न ४९-योगीराज के हाथ से मुनिश्री की दीक्षा मौन एकादशी को छोटी दीक्षा पोष वद ३ को बड़ी दीक्षा योगीराज का कोसाना की ओर विहार ५०-योगीराज के आत्मीय चमत्कार ५१-ओसियां तीर्थ पर मुनियों का समागम पं० चतुरमुनिजी पं० हर्षमुनिजी पं० गुमानमुनिजी और कुमतिकुदालो ५२-मंगीलालजी की बातें पांच छ कल्याणक की चर्चा त्रियों को जिनपूजा निषेध विषय अभयदेवजीसूरि किस गच्छ के थे ? ५३-मुनिश्री का फलोदी पधारना ५४-खरतरों की कोशिश ५५- स्थानक० साधु रूपचन्दजी की दीक्षा उपकेशगच्छ में क्रिया उद्धार । . श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्प माला की स्थापना ५६-पहला चतुर्मास फलौदी ३३९ ३४० ३ occcc ३४२ ३४६ ३४९ ३५० ३५६ ३६६ ३७१ ३७३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय जैन पाठशाला लायब्रेरी ५७ - धर्मशाला से सराय में पधारना ५८ - दूँ ढियों की माफी और पूज्यजी का तार ५९ - धर्मसुन्दर की दीक्षा ६० - वीसलपुर में गलतफहमी का फैलाना गणेशजी व राजकुँवर का आना संवेगी क्यों हुए चर्चा प्यारचंदजी और गयवर विलास कुटम्ब को वासक्षेप देकर संवेगी बनाना ६१ - फलौदी के चतुर्मास में ज्ञान प्रचार ६२ - जैसलमेर की यात्रार्थ विहार ६३ - खीचन्द में पूज्यजी का पधारना पूज्यजी का व्याख्यान और मूर्तिपूजा सूरजमलजी के प्रश्नों का उत्तर ६४ -- फलोदी में पूज्यजी का मिलाप पूज्यजी शास्त्रार्थ को लिये साफ इन्कार जिनप्रतिमा जिनसारखी धनराजजी साधु का श्राना ६५ - लोहावट में सूत्रों की वाचना लोहावट से ओसियां सियां में विजय नेमिसूरि का पधारना अप्रतिष्ठित मूर्तियों की चर्चा प्रश्न- व्याकरण का प्रश्न पृष्ठ ३७४ ३७८ ३८० ३८३ ३८५ ३८७ ३८८ ३९० ३९२ ३९५ ४०१ ४०५ ४०६ ४०७ ४११ ४१२ ४१४ ४१५. ४२० ४२१ ४२२ ४२३ ४२५ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 ४२६ ४२७ ४२८ ४३२ ४३६ - ११ - विषय कवला-गच्छ अर्वाचीन है ? रात्रि में वार्तालाप रत्नप्रभसूरि का बड़ा उपकार है सूरिजी का एक धावा सूरिजी का जादू रूपसुन्दर की विदा. वचन भूल कर दीक्षा मथाणीये दो श्रावकों का आना बदला में समाचार सूरिजी का पश्चाताप ६६-दूसरा चतुर्मास जोधपुर में फलोदी के वर्तमान ... नेत्रों की तकलीफ और डाक्टर नास्तिक सेठ और साध्वी ६७-खरतरों के पर्युषणों का व्याख्यान भंडारियों की हवेली वाले ६८-व्याख्यान में प्रश्न और उनका उत्तर भंडारीजी और ढूंढिया तपस्वी साधु भंडागजी और फूलचन्दजी ६९-शास्त्रार्थ में दूढ़ियों का पराजय ७०-स्वामि-वात्सल्य में मतभेद क्यों साची की चालाकी चैत्य परिपाटी का नया जलूस ४३६ ४३७ ४३७ ४३८ ४४० ४४१ ४४२ ४४४ ४४७ ४४८ ४५० ४५३ ४५८ ४६० ४६४ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पृष्ठ ४६५ विषय .. मँडोवर का मेल ७१-मुनिश्री का गोड़वाड़ में विहार भंडारीजी का संयोग दुढ़ियों के प्रश्नोत्तर सादड़ी में व्याख्यान की एक घटना ७२-श्री केसरियाजी की यात्रार्थ मेवाड़ में .. मरणान्त कष्ट और भंडारीजी - ईडर की गुफाएँ ७३-श्रामनगर और बुढ़िया के प्रश्न ७४-प्रान्तेज और श्रावकों के प्रश्न नरवाड़ा में श्रावक की उदारता (1) ७५- अहमदाबाद में प्रवेश महोत्सव अहमदाबाद में साधुओं का मिलाप पं० गुलाब विजयजी उपकेशगच्छ और साधु सिद्धप्रतिभा मुक्तावली ७६-जघड़िया में गुरुदर्शन ७७-सूरत का नगर प्रवेश ७८-दुर्घटना से पन्यासजी का स्वर्गवास ७९-पाप का घड़ा किस प्रकार फूटता है ८०-योगद्वाहन का गजब मूल्य ८१-तीसरा चतुर्मास सूरत में हेमचन्द्र भाई के प्रश्न ४६७ ४६८ ४६९ ४७० ४७२ ४७७ ४७८ ४८२ ४८४ ४८७ ४८९ ४९१ ४९३ ४९७ ४९९ ५०२ ५०६ ५०९ . ५११ ५१६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ५२३ ५२५ ५२७ ५३१ ५३४ ५३६ ५४५ ५४६ ५४७ विषय संस्कृत का अध्ययन ८२-सागरजी के साथ प्रश्नोत्तर : सागरजी से प्रश्न सूरत के चतुर्मास में साहित्य का प्रचार ८३-सत्याग्रह में जैन मुनियों का व्याख्यान ८४-सिद्धिगिरि की यात्रार्थ प्रस्थान ८५-खंभात में शास्त्रों की चर्चा ८६-मुनिश्री का भावनगर में प्रवेश मारवाड़ी बंडा मारवाड़ियों का ही है। साधुओं की संकीर्णता आराधन के प्रश्नोत्तर बंडा में व्याख्यान ८७-सिद्धगिरि की यात्रा का आनंद मकान और अलग पेढ़ी खरतरों के साधु सावियाँ ८८-मुनिश्री का सिद्धगिरि से विहार विजयधर्मसूरिजी का सूरत में पधारना सूरिजी और योगीराज . भगवान महावीर की जयन्ति बम्बई का आग्रह ज्ञानसुन्दर और उपकेशगच्छ ८९-सागरजी का सूरत में पधारना . सागरजी के साथ वार्तालाप ५४९ ५५२ ५५६ ५५८ ५६० ५६६ ५६८ ५६९ ५७२ ५७३ ५७४ ५७५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१४ ५८२ ५८३ ૧૮૮ ५९१ ५९३ विषय सूरत से विहार आगमोदय समिति के आगमों में अशुद्धियें ९०-चौथा चतुर्मास जघड़िया में जबड़िया में पर्युषण बाबू जीवणलाल दीक्षा के उमेदवार न पास ओसियां का पत्र ९१-मुनिश्री का मारवाड़ की ओर विहार ९२-सरिजी और मेमरनामा ९३-अहमदाबाद से ओसियाँ ... तारंगाजी की यात्रा और उपधान . चंद्रविजय का साथ कुमारियाजी की यात्रा ९४-ओसियाँ बोर्डिंग का हाल बोडिंग उठाने का कारण श्रोसियाँ का बोडिंग और बीकानेर वाले ६०० ६०३ ६१५ ६१८ ६२० ६२३ ६२५ ६२९ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १० ४० ४४ ६६ ८५ ८९ ९४ ९५ १०१ १०९ १२४ १२५ १६३ १६६ १७८ १८६ पंक्ति SN १५ ८ १४ ४ २४ २४ १६ ६ १७ १६ ११ शुद्धि-पत्र श्रशुद्धि परपराम्पार वद्य लोकाचर तपालन पुवक उपालम्ब दशन व्यायावचिया बार ज्यजी पज्यनीय बहल कगड़ा वेरहपन्थी बयाना कई सत्र पूर्व शुद्धि परम्परा वैद्य लोकाचार व्रत पालन युवक उपालम्भ दर्शन व्यावच्च बात पूज्यजी पूज्यनीय बहाल कपड़ा तेरहपन्थी बहाना गई सूत्र Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___पंक्ति शुद्धि उठ कर अशुद्धि डठ कर कमी आपने समयक् खोजने कामी अपने सामयिक खो जाने कई ११६ १९६९ दहुत गया १९६८ बहुत गया १२८ १३३ १४१ १४९ ८४ , अरुचिकर ७४ अरुचिकार जा बन जावें १५२ १r vover १ .20.2ms wr बवलावें शीव्र : शौघ्र १५२ १५६ १५६ । अपने वनकी आपने उनकी भी भी कर दोक्षित करें दीक्षित उल्लेल : उल्लेख द . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१७ - अशुदि पृष्ठ शुद्धि १९९ भटे भेंट साधु .. आधु महाराज प्रकाश स्चने दहा महाराज प्रकाश रचने २०९ २१४ दाह २१८ गथे गये २०७ गहाराज महाराज २२४ पजा पूजा २२८ अतंत्य अंत्यन्त २३० २३१ ज्ञानाध्ययान मेजा २३७ ज्ञानाध्ययन भेजा जिन २३८ जन पूज्यजी. २४३ . २६९ २७० २७८ न्यजी जोग अप उनक सेवग किसी आशातन लोग आप उनके सेवक कोई .. आशातना २९५ पछे पछे । जीवभिग नीवाभिगम Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धि शुद्धि रंज प्रकार ३१६ कर . विष्णु ३३६ ३४० प्रत्येक प्रत्येक ३४१ नष्णु प्रप्येक त्येक यदा क . छी याद ३४२ ३५० ३५. २० २४ ३५४ रुधिर . गयवरमुनि डेढ सौ ३५४ ३६२ . ३६७ २६९ हाय में २३ घेवर मुनि , दोड सौ . हाथ के वालक्षेप तूट अक्षत और वासक्षेप ३७२ - 2 पोर . 0 फिर ४०७ अोस्तवाल साव्यिों .. ओसवाल साध्वियों ४२१ 20 2022 हया ४२८ ४३५ हाय घड़ा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ४४३ ४४६ ४५८ ४९० ४९४ ५०४ ५०४ ५१२ ५२६ ५३९ ५७० ५७९ ५८२ ५८६ ५८८ ५८९ पृष्ट ५९३ ५९४ ६०६ ६२२ ६२७ ६२८ पंक्ति Su २३ १७ ५ १८ ११ १६ २२ १० पंक्ति १९ १३ १६ अशुद्धि प्रदेशी विप्रीत श्रामन्दानी प्रयत्न कर इनने दास किया समकिन विधाव बीना पन्नवरण अशुद्धियाँ मिलाकर पुस्त्रक जी खता अशुद्धि और अपने आधु पुरुषार्थो नहीं ६" चला कर शुद्धि प्रदेशी विपरीत आमदनी प्रयत्न की इ दस क्रिया समकित विधवा विना पन्नवणा अशुद्धियाँ मिल कर पुस्तकजी खाता शुद्धि ओर आपने साधु पुरुषार्थी नहीं है चल कर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-सूची -a मुख्य पृष्ट दो शब्द में नंबर ___चित्र १ भगवान् पार्श्वनाथ २ हमारे चरित्र नायकजी ३ भंडारीजी चन्दनचन्दजी ४ मेहताजी वेदनमलजी ५ मुनि श्री गुणसुन्दरजी महाराज ६ आचार्यश्री रत्नप्रभ सूरीश्वरजी ७ स्थानकवासी साधु-गयवरचन्दजी ८ थोगिराज श्रीरत्नविजयजी महाराज ९ फलोदी श्रीसंघ की ओर से स्वागत १० श्राचार्य श्रीविजयनेमिसूरिजी ११ श्री केसरियाजी की यात्रा १२ अहमदाबाद का स्वागत १५ खम्भात की सभा में व्याख्यान १४ श्रीसिद्धगिरि की यात्रा १५ प्राचार्य विजयधर्म सूरिजी २७१ ३५६ ४२६ ४८७ ५४२ ५५६ ઘ૬૮ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ द्वितीय विभाग नंबर १६ आचार्य सागरानन्दसूरिजी १७ गिरिराज आबू का मन्दिर १८ श्रीमान मेघराजजी मुनौयत १९ श्रीमान सूरजमलजी कौचर २० समवसरण की रचना का दृश्य चित्र २१ लोहावट में व्याख्यान २२ लोहावट का सेवा मण्डल ६३ नागोर में समवसरण २४ फलोदी में जैन जाति के लेखक २५ श्रीकापरड़ाजी तीर्थ २६ मुनि श्री गुणसुन्दरजी महाराज २७ श्रीमान भंडारीजी चन्दनचन्दजी २८ श्रीमान् भंडारी अजयराजजी २९ श्रीकेसरियाजी की यात्रा ३० समरसिंह के लेखक ३१ वाली में समवसरण का दृश्य ३२ पाली में समवसरण ३३ कापरड़ाजी में निर्वृत्ति ३४ सोजत बिलाड़ादि की विनति ३५ श्रीमान् महेताजी गणेशमलजी श्रादि १६ संघपति पाँचूलालजी वैद्य मेहता पृष्ठ ५७४ ६२२ ३१ ३२ ६८ ८२ ८३ १०५ १०६ १६२ १६३ १९६ "" २१५ २३१ २७१ २७२ २७२ २८१ २९० २९४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २९५ ३०७ ३०८ ३१५ ३१६ २९५ २९६ - २२ - नंबर चित्र ३७ श्रीमान लीछमीलालजी वेदमेहता ३८ श्रीमान् शोभाग्यमलजी गुलेच्छा ३९ श्रीमान् फूलचन्दनी झावक ४० श्रीमान् सम्पतलालजी कोचर ४१ श्रीमान् अमरचन्दजी कोचर ४२ श्रीनन्दीश्वरद्वीप की रचना ४३ महोत्सव के कार्यकर्ता ४४ श्रीमान वंशीलालजी बोहरा ४५ मुनीम मुलतानमलजी ४६ श्रीमान् जवहरीलालजी दफतरी ४७ श्रीमान् गयवरचन्दजी जाधड़ा ४८ श्रीमान सुकनचन्दजी जाधड़ा ४९ तीर्थ श्रीकापरड़ाजी ५० श्रीमान सुकनराजजी मांडोत ५१ श्रीमान् समदडियाजी ५२ प्रतिष्टा के कार्यकर्ता ५३ भगवान् पार्श्व की परं० इति० के लेखक ५४ श्रीमान् शंकरलालजी मुनीयत ब्यावर ५५ चैत्य परिवाटी का दृश्य ५६ महेताजी देवकरणजी अजमेर ५७ मुनिश्री गुणसुन्दरनी महाराज २१८ २९७ २९८ ३८४ ३८५ ४०० ४०१ ४०२ ४११ ७०९ Page #38 --------------------------------------------------------------------------  Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदश - ज्ञान 1,000.... @000@..... जन्म वि सं० १९४६ 0:0:0: मुनि श्री गुणसुन्दरजी महाराज जैन संवेगी दीक्षा वि० सं० १९८३ ::::...! MARCH स्थानकवासी दीक्षा वि० सं० १९६१ 'e-ss------००००० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा -पाद म: ~ ~ ~ ~ श्रीमद् रत्नप्रभसूरीश्वर-पादकमलेभ्यो नमः आदर्श-ज्ञान ( कविता मय ) रचयिता-मुनिश्री गुणसुन्दरजी महाराज जिनके उज्ज्वल शासन में हम, आत्म साधन करते हैं। उनके चरण कमल के अन्दर, शीश उठा कर धरते हैं ।। शुभ नाम आपका महावीर है, बीर मार्ग बतलाते हैं । हम भी वीर बन वीरों की, वीर गाथा गा सुनाते हैं ॥१॥ ____ गुरुदेव को नमस्कार कर, गुणिजन के गुण गाऊँगा । वचन रस लब्धि वर दाता, शारद मात मनाऊँगा ।। __पंच परमेष्टी इष्ट हमारा, जिनको, मन में ध्याऊँगा । संक्षेप में गुरु जीवन गाकर, रसना पावन बनाऊँगा ॥२॥ कौन वंश ? और कौन गौत्र के ? कब वे पदवी पाई थी ? किस नगर में वास आपका ? कैसे दीक्षा आई थी ? फिर संशोधन किया था कैसे ? कैसी सेवा बजाई थी ? टूटे फूटे दो शब्द में कह दूँ ? ऐसी दिल में आई थी ॥३॥ जो देखा था निज नज़रों से, कई प्रन्थों में पाया है। कई सुना फिर विद्वानों से, मिश्रमशाला बनाया है ।। कतारथ बनना था मुमको, औरोंका भाव बढ़ानाथा । गय नहीं पर पद्य बनाकर, कविताभाव दिखानाथा ॥४॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४ - वीर निर्वाण से वर्ष सित्तर, मरुधर यज्ञ से छाया था । उपकेशपुर था केन्द्र जिसमें, पाखण्ड खूब मचाया था । राव उत्पलदे वहाँ का राजा, उहड़ मंत्री की कीरती थी । पुर वासी थे सब मिथ्याति, बली चामुंडा लेती थी ॥५॥ रत्नप्रभसूरि मुनि पांच सौ, उपकेशपुर में आये थे । दिया जबर उपदेश सूरि ने, सबको जैन बनाये थे। महाजन संघ बनाय गुरु ने, शुद्धि का प्रचार किया । वीर मन्दिर को करी प्रतिष्ठा, जैन मण्ड फहराय दिया ॥६॥ उत्पलदेव की सन्तान संघ में, कर श्रेष्ठ काम वतलाते थे । जब से उनका गौत्र श्रेष्टि फिर, वैद्य मेहता पद पाये थे। मन्दिर बनाये ध्वज चढ़ाये, द्रव्य की नदियां बहाई थी । संघ पूजा और तीर्थों के संघ, समाज सेवा बजाई थी॥७॥ इस गौत्र में श्रेष्टि नवलमल, वीसलपुर के वासी थे । रूपादेवी थी उनके पत्नी, सुख के वे स्वर्ग वासी थे। स्वप्ने में गज देख माता ने, आनन्द खूब मनाया था । - विजय दशमी साल सेंतीस की, पुत्र जन्म यश गाया था ॥ ८॥ उच्छव किया संकेत स्वप्न का, 'गयवर' नाम गुणधारी थे। बाल कीड़ा अभ्यास विद्या का, विद्वान व्यापार में भारी थे। गणेशमल आदि षट् बन्धव, और कुटुम्ब भी था माहा । मगसर बद दशमी चौपन की, समारोह से किया विवाह ।। ९॥ माता-पिता स्त्री और बन्धव, सामग्री का सर्व संयोग । नव वर्षों लग सुख स्वतंत्र,साधुओं का था हरदम योग ।। दीक्षा की जब हुई भावना, कुटुम्ब आज्ञा नहीं दीनी थी । ठीक कियाअभ्यास ज्ञानाका, स्वयं दीक्षा ले लीनी थी ॥१०॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ कण्ठस्थ सूत्र और बाँचना, याद थोकड़े करते थे । तप करने में शूरवीर फिर, उम्र विहार विचरते थे | वीसलपुर जोधांणे तींवरी, नयानगर में आये थे । मन्नालालजी आदि वहाँ पर उनके दिल ललचाये थे || ११ ॥ ―――― पहला चौमासा किया सोजत में, राज कुँवर वहाँ आई थी। देकर के उपदेश आज्ञा का, पत्रिका लिखवाई थी ॥ करी नहीं मंजूर पूज्यवर फिर वीसलपुर आये थे । आज्ञा प्रदान कर दी माता ने, मुनि 'राज' के मनभाये थे ॥ १२ ॥ पीपाड़ होकर ये ब्यावर, अजमेर में दिया व्याख्यान । जयपुर हो पुनः टूक पधारे, माधुपुर पुगेँगा स्थान ॥ कोटा बूंदी व ढूंढाड़ देश में, दया धर्म का किया प्रचार | मांस मदिरा दुर्व्यसन छुड़ाये, पतितों का गुरु किया उद्धार ॥१३॥ आ रहे थे कोटे से जब, पहाड़ दरा का आया था । निर्जन अटवीप केले, सागारी अनसन ठाया था । उपसर्ग हुआ था प्राण हरण का, फिर भी नहीं घबराये थे । चहा-हा धैर्य कहां लों आपका, कायर सुन कंपाये थे ॥ १४॥ भानपुरे रामपुरे और जावद, नीमच निंबाड़ा गढ़चित्तोड़ | नया नगर से नागोर पधारे, पूज्य आज्ञा की थी यह दोड़े || बीकानेर जाकर पूज्य सेवा में, चौमासा वहाँ ठाया था । बीमारी जब पूज्य पैरों में, व्याख्यान ! आप फरमाया था ।। १५ ।। एकांतर छट छट की तपस्या, और अठाई तप किया । विनय व्यावच्च भक्ति करके, सूत्र वाँचना ज्ञान लिया ॥ कुटुम्ब आपका सब दर्शन को, बीकानेर में आया था । सुन कर के व्याख्यान आपका, अहो भाग्य मनाया था ||१६|| Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वहाँ से आये नगर नगीने, सतरह साधु सुहाये थे । सेठ अमरचन्द थे पीतलिया, पूज्य दर्शन को आये थे | सिद्धाचल की करते महिमा, प्रतिमा पर भाव सवाये थे । अनुमोदन फिर किया पूज्य ने, गूढ़ भेद समझाये थे ॥ १७॥ कुचेरे होकर आये जोधपुर, चौमासा खूब दीपाया था । मास खामण की करी तपस्या, व्याख्यानामृत बरसाया था। पाली होकर आये आनन्दपुर, मुनि केवल से भेट हुई। उनके साधु को दीनी वाँचना, दिगम्बरों से विजय हुई ||१८|| तेरहपंथी को जीता बाद में, देशी का भ्रम मिटाया था । वहाँ से चल कर मिले पूज्य से, फिर ब्यावर आना सुहाया था।। स्थानायाङ्ग व्याख्यान बीच में, सुनके संघ हरवाया था । शोभालाल मुनिवर के साथे, बीकांणे जाना मन भाया था ॥ १९ ॥ भगवत्यादि सात सूत्रों की, ले वाँचना ज्ञान बढ़ाया था । सात थोकड़ा कर कण्ठस्थ, व्याख्यान रंग बरसाया था । ज्ञान दान दिया गृहस्थों को, यशः की भेरी बजाई थी । बजाया था ॥ वहाँ से चल कर आये ब्यावर, श्रद्धा की ज्योति जगाई थी ॥ २०॥ बिहार किया मेवाड़ मूमि में पंथी भ्रम हटाया था । देवगढ़ में शास्त्रार्थ कर, विजय डंका फौजमल को देकर दीक्षा, लाल शिष्य बनाया था । औरों को उपदेश सुना कर, दया दान चमकाया था ।। २९ ।। आकर के अजमेर नगर में, शुभ चौमासा ठाया था । व्याख्यान में श्री सूत्रभगवती, अमृत रस पिलाया था ।। सेठ चान्दमल र उमेदमल, मोखमसिंह मन भाया था । नतमस्तक समाजी हो गये, देशी से प्रेम बढ़ाया था ||२२|| Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ 3 दो बहनों को देकर दीक्षा, पुनः नया नगर में आये थे । पूज्य हुकम ने लिखे हाथों से, उपासकसूत्र वहां पाये थे। आनन्द और अंबड़ श्रावक के, अधिकार पाठ में पाया था । स्पष्ट अक्षर जिन प्रतिमा का, वह सबको दिखलाया था ॥ २३ ॥ पूज्य पधारे गुर्जर प्रांत में, दो वर्षों से पुनः आये थे । जिनकी आज्ञा से मोडीरामजी, आबू यात्रा कर पाये थे। क्रमशः पाली नगर पधारे, शामिल हुए साधु सेंतीस । कर्म कनक शोभा अरूगुरुवर,मूर्तिपूजा की थी जगीश ॥२४॥ चतुराई से चर्चा चलाई, भेद गृहस्थ नहीं पाते थे । पाठ रखे थे सूत्रों के सामने, पूज्य को यों समझाते थे। निपट लिया आपस में मामला, फिर रोयट में आये थे । मुंहपति की थी पुनः चर्चा, डोरा कहां नहीं पाये थे ॥२५॥ . जोधपुर से आये गंगापुर, गुरुवर ने चौमास किया । शुरू किया पढ़नाव्याकरण का, पूज्य मनाई हुक्म दिया । व्याख्यान में श्री सूत्रभगवती, पराजय पंथी को किया । आग्रह उदयपुर श्रीसंघ का, मेवाड़ विहार का लाभ लिया।॥२६॥ बड़े ठाठ. से व्याख्यान हमेशा, उदयपुर में होते थे । राज कर्मचारी और व्यापारी, जैन जैनेत्तर सुनते थे । जीवाभिगम विजयदेव का, अधिकार और भी चलते थे । मूर्तिपूजा था कारण मोक्ष का, सुन के कई अज्ञ जलते थे ॥२७॥ बलवंतसिंह दीवान कोठारी, नन्दलाल थे नगर सेठ । सभ्य समाज ध्यान दे सुनते, कई दुःखाने थे शिर पेठ । पन्ना सूत्र का लेकर हाथ में, 'रत्न' ने बांच सुनाया था । चिंप गये दांत जिभ तालु के, हुल्लड़ खूष मचाया था ॥२८॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८ - उस समय थे श्रीपूज्य भीलाई, कई विरोधी वहां पै गये । सुना दिये सब हाल पूज्य को, असी दुधारा प्रश्न भये ।. जब तक मैं नहीं मिलूगेवर से, कुछ कहा नहीं जाता है । मीठा उत्तर दिया पूज्य ने, यही उनकी विद्वता है ॥ २९ ॥ कई लोगों को पड़ गई शंका, मूर्ति उपासक कई बने । गुप्त हुक्म पूज्य का पाकर, रतलाम जाना धरा मने ।। विहार करते आये सादड़ी, चंदनमल वहां था विद्वान् । बात करने से होगई निश्चय, यहां रहने से बढ़ेगा ज्ञान।।३०॥ क्रमशः आप रतलाम पधारे, शोभालालजी ठाणा दोय । वहां के हाल कहा गुरुवर को, संभाल करके रहना जोय ।। मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी, निज घर में मूर्ति रखते हैं । अनेक तीर्थों की करी यात्रा, फिर भी नाम से जरते हैं ॥ ३१ ॥ सेठजी से हुई बहस सूत्रों की, मूर्ति पूजा के थे प्रमाण । केवल आगम के ही नहीं पर, इतिहास के थे ऐ नाण ।। वहां से चलकर आये जावरे, दर्श पूज्य के पाये थे । उदयपुर के आ गये श्रावक, उनको भी समझाये थे ॥३२॥ मुनि शोभा से मिले नगरी में, सादड़ी जा चौमास किया । राजप्रश्नी सूत्र व्याख्यान में, फूलचन्द को बोध दिया । उसने प्रश्न भेजे पूज्य को, सेठ साहब ने उत्तर लिखे । मध्यस्थ भाव से मूर्तिपूजा, स्वीकार करना स्पष्ट लिखे ॥३॥ हुई बीमारी गुरुवर के तन, पाप कर्म का था उदय । प्रणित होगया पुण्य कर्म में, ग्रन्थ पढ़ने का मिला समय । चन्दनमल नागोरी सहायक, श्रागम पढ़ने को देते थे । जावद से फिर आये गुरुजी, लाभ व्यावञ्च का लेते थे ॥३४॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ चर्चा चली मूर्त्तिपूजा की, उसने जोर पकड़ा भारी । वहाँ से चलकर आये गंगापुर, करनी थी एक नई तैयारी ॥ कर्मचन्दजी वहाँ थे पहले से, मोडीरामजी फिर आये थे । शोभालाल को भेजा पूज्य ने, सर्व योग मन चाहे थे ||३५|| साथ गुरु के आये ब्यावर, वहाँ से जोधाणे आये थे । व्याख्यान बीच में प्रश्न पूछा, मूर्ति के भेद बताये थे | तार द्वारा सब हाल पूज्य को देकर खबर मंगाई थी । लिखत देकर भेजा शोभा को, कार्यवाई सब अन्याई थी ॥ ३६ ॥ उत्सूत्र का वा पाप अरु, मिथ्या जाल का त्याग किया । वीर जन्म के शुभ दिन ने, अलग होने का समय दिया || शिष्य स्नेह के कारण गुरु के, नेत्रों से जल बह रहा । फिर भी मूर्तिपूजा सूत्रों में, स्वीकार वे कर रहा ||३७|| समझ गये पर साहस नहीं था, कुछ कर्मों का उदय रहा । छोड़ नहीं सके इस कारण, फिर भी मध्यस्थ भाव रहा ॥ गुरुवर पधारे नगर फलौदी, आप महामन्दिर आये थे । दीपचन्द व मिलापचन्द मिल, जाकर वहाँ अपनाये थे ||३८|| वहां से आप पधारे तींवरी, लुणकरण लोढ़ा था वहाँ । जिन शासन का था वह रागी, तन धन अर्पण करता जहाँ ॥ चतुर्मास की मानी विनती, तीर्थ ओसियाँ आये थे ! बीर प्रभु की शुभ यात्रा कर, गुरु, रत्न के दर्शन पाये थे ॥ ३९ ॥ समागम से जो आया आनन्द, जिसका मैं क्या करूँ बयान | सुन कर के अभ्यास आपका, दश सूत्रों का कण्ठस्थ ज्ञान ॥ सार्द्धत्रियत पढ़े थोकड़ें, तीस सूत्रों की वाँचना करी । देख गुरुवर ने आश्चर्य पाया, युक्तिवाद था तर्क भरी ||४०|| Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझाने को फिर आये गृहस्थी, जो उनमें अगेश्वर थे । आगम अनुभव उन्हें बताया, पूजा फल पदेश्वर थे । ठकुरा दिया पदवी महत्व को, दर्शन सामने क्या था धन । उत्सूत्र से थी संसार वृध्दि, हटा लिया था उससे मन ॥४१॥ हुक्म दिया गुरुवर ने ऐसा, इस तीर्थ का करो उद्धार । जन्म भूमि है यह आपकी, श्रोसवंश का हुआ प्रचार । विद्यालय की करी योजना, शान्ति स्नात्र पढ़ाई थी । हिसाब साफ रखने के लिए, पेढी वहाँ खुलवाई थी॥४२॥ नित्य नया स्तवन बना कर, वीर स्तवना करते थे। प्रतिमा छतीसी थी लघु कविता, पढ़ के अज्ञ कई जरते थे । गुरु आज्ञा से तींवरी जाकर, चौमासा वहाँ ठाया था। डोंरा सहित मुहपत्ती, मुँह पर, कई अज्ञों को समझाया था ॥४॥ सूत्र भगवती व्याख्यान बीच में, इस कदर फरमाते थे । सुनकर श्रोता वीर वाणी को, आनन्द खूब मनाते थे । प्रभाव आपका था अति भारी, कई जन लाभ उठाये थे । श्रद्धा अनेकों की हुई पूजा से, संघसाथ श्रोसियाँ आयेथे ॥४४॥ चातुर्मास में प्रतिमा छतीसी, छपकर के प्रसिद्ध हुई । जिसका लाभ सादड़ी लीना, समाज में जागृति हुई ॥ शाल बहत्तर मौन एकादशी, तीर्थ औसियाँ दीक्षाधार । रत्नविजय गुरु के चरणो में, उपकेशगच्छ का किया उद्धार ॥४५॥ ज्ञानसुंदर शुभनाम आपका,गुणनिष्पन्न गुरुवरने दिया। अथाह परिश्रम से विद्यालय, सार्थ अपना नाम किया । पोष तृतीया कृष्णपक्ष की, बड़ी दीक्षा गुरुवर के हाथ । गुरु पधारे ग्राम कोसाने भंडारी थे उनके साथ ॥४६॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३१ - गुमान मुनिजी चातुर. मुनिजी, मांगीलालजी आये थे। पन्यान थे श्री हर्षमुनिजी, तीर्थ में दर्शन पाये थे। बोर्डिग की वृद्धि दिन दिन, परिश्रम आपका भारी था । मेला तक तो वहां ही बिराजे, उद्योग ज्ञान प्रचारी था ॥४७॥ प्रतिमा छत्तीसी पहलीरचना, गयवर विलास था विस्तार । सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली पूजा,स्तवन संग्रह भक्ति का सार।। चली थी चर्चा खंडनमंडन की, सत्य धर्म का किया प्रचार । अनेकों को स्थिर किये धर्म में, कई पतितों का किया उद्धार ।।४८।। अति आग्रह फलोदी संघ का, वहाँ पधारे करके विहार । रूपचन्द को देकर दीक्षा, शिष्य बनाया करके उद्धार ॥ रत्नप्रभसूरि का स्मरण, करना था एक अमर काम । रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला, संस्था का रखा था नाम ॥४९॥ माणकलाल कोचर ने उठाया, पाठशाला का जबर काम । जैन लायब्रेरी थी खुलवाई, नवयुवकों ने रखा नाम ।। रत्नज्ञान पुस्तकालय फिर, सेवा मण्डल सुधारा काज । और कई सुधार हुये थे, आभार मान रहा आज समाज ॥५०॥ धूलचन्द को दीक्षा देकर, धर्मसुन्दर रक्खा था नाम । व्याख्यान में श्रीसूत्र भगवती, वाच देना था आपना काम ।। अनेक साध्वियों या कई श्रावक, कर रहे थे कंठस्थ ज्ञान । जैसलमेर की करी यात्रा, शास्त्रार्थ का मंडा मंडन ॥५१॥ खीचंद में एक दीक्षा देने का, उच्छव ठाठ मचाया था । व्याख्यान का था रस अपूर्व, पतितों को जैन बनाया था। पूज्य पधारे उसी स्थान में,जिन प्रतिमा का दिया व्याख्यान । . सूत्रों में है जैसे मूर्ति, नहीं करते हैं हम अपमान ॥५२॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ३२ - दोनों चलकर आये फलोदी, दोनों के व्याख्यान हुए । दोनों और के श्रावक मिलकर, निर्णय को तैयार हुए ।। चलकर के वे गये दोनों में, मुनि श्री ने स्वीकार किया । साफ इन्कार किया पूज्य ने, विजय डंका बजया दिया ॥५३॥ पूज्य पधारे फिर लोहावट, वहाँ भी डंका बजाया था । ओसियों में श्री नेमिसूरिको, संघ के साथ बधाया था ।। कवलागच्छ की प्राचीनता, साबित कर बतलाई थी । रूपसुन्दर को सूरि ले गये, कर गये ऐसी भलाई थी ॥५४॥ फलोदी में जो संस्था स्थपाई, ब्राँच शाखा यहाँ खुलाई थी । विद्यालय का करके निरीक्षण, लाभ की जोड़ मिलाई थी । वहाँ से पधारे प्राम मथाणिये, मनमोहनचंद भंडारी था । था पब्लिक व्याख्यान श्रापका, उपकार वहाँ का भारी था ।।५५॥ तीवरी होकर आये मंडोवर, वहाँ का किला दिखायाथा। . भग्न मन्दिर पुराना वहाँ पर, जोधाणा संघ आया था । अति आग्रह से करी विनती, चतुर्मास वहाँ ठाया था । व्याख्यान में श्री सूत्र भगवती, सुनके संघ हरखाया था॥५६॥ फूलचन्दजी थे साधु प्रदेशी, मूर्तिवाद उठाया था । स्वरूपचन्दजी साहब भंडारी, निर्णय करना चाहायाथा ।। शास्त्रार्थ का करके निश्चय, इतला सबको पहुँचाई थी । फूलचन्दजी नहीं आये सभा में, विजय भेरी बजवाई थी ॥५॥ जब पाली में प्लेग चलता था, दुनियाँ सब घबराई थी । शान्ति स्नात्र करवाई पूजा, शान्ति नगर में छाई थी। वहाँ से क्रमशः आये सादड़ी, व्याख्यान की धूम मचाई थी । वादि नत मस्तक हो छूटे, वहां विजय अपूर्व पाई थी ॥५८॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ संघ साथ में गये रणकपुर, यात्रा आनन्द कारी थी । करके लड़ाई अपने प्रभु से, फिर मेवाड़ भूमि भारी थी || साथ भंडारी चन्दनचंदजी, और कई नरनारी थे । भानपुरा में शान्ति महापूजा, ठाठ सभीने नगर घुलेवा नाथ केसरिया, दर्श अपूर्व जन्म सफल हुआ यात्रा से, संघ में आनन्द छाया था । ईडर जाताँ साथ भंडारी, प्राणों की बाजी लगाई थी || थे ॥ ५९ ॥ था ॥ GIMARY भारी पाया पर नहीं था कुछ आफत का, कर्मों की जाल जलाई थी ॥ ६० ॥ आम नगर बुढ़िया के प्रश्न, प्रान्तेज में भेद बताये थे । नरवाड़ा में देकर शिक्षा, फिर राजनगर में आये थे ॥ सम्मेलन का ठाठ नगर में, व्याख्यान की धूम मचाई थी । प्रसिद्धि उपकेशगच्छ की, यात्रा की युक्त सवाई थी ॥ ६१ ॥ एक मास तक व्याख्यान यात्रा, आनन्द खूब मनाया था । देखी भक्ति मरूधरों की, गुर्जर भी शीश नमाया था || सीमंधर का था वहाँ मन्दिर, शिल्पकला नवाई थी । थे ॥ पाये भेंट हुई सूरि मुनियों की, प्रायः शिथिलता पाई थी ॥ ६२ ॥ भंडारीजी गये सिद्धाचल, ओलियाँका लाभ उठाये थे । हर्ष मुनिजी पन्यास थे वहाँ, वे मारवाड से आये उनके साथ खेड़ा मारत हो, हंस के दर्शन वटादरा में कमलसूरीश्वर, समागम कर हर्षाये गंभीग से फिर आये पादरे, बड़ौदा में व्याख्यान दिये । रास्ता में भेंट हुई मुनियों की, सब मन्दिरों के दर्श किये ॥ चलकर ये तीर्थ जघड़िया, यात्रा कर आनन्द पाया था । गुरुराज वहाँ पहले पधारे, महा-हा ठाठ सवाया था ||६४ || थे । । थे || ६३ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ३४ - गुरु पंन्यास और मुनीश्वर, सूरत नगर प्रवेश किया । सम्मेला का ठाठ अजब था, इन्द्र उच्छव भुलाय दिया । बड़े चोटे गुजराज विराजे, गोपीपुरे पन्यास का स्थान । दुर्घटना के साथ पंन्यास का, आकस्मात् हुआ अवसान ॥६५॥ व्याख्यान में श्री सूत्र भगवती, ठाठ हमेशा लगता था । जैनधर्म की महिमा फैली, जिन वाणि रंग वरसता था ।। कई हजार पुस्तकें छपवाई, ज्ञान प्रचार बढ़ाया था । सागरानन्द सूरि के साथ में, अभव्य प्रश्न उठाया था ॥६६॥ रूढ़ि चुस्तों ने योग दीक्षा का, हुल्लड़ खूब मचाया था। उत्तर मिला सूत्रों की शाख से, फिर जवाब नहीं आया था । देश नेता दयालजी वगैरह, सरघस खूब निकाला था । जैन मुनि भी गये सभा में, भाषण विदेशी कुदाला था ॥६७।। यात्रा करनी थी महातीर्थ की, गुरु आज्ञा प्रदान करी । लब्धिमुनि और माणक मुनिजी, साथ हो गये भावधरी ।। क्रमशः आये अंकलेश्वर में, दुर्घटना एक ऐसी बनी । ग्राम पास में घर दो सौ, जैन पाटीदार थे धनी ।। ६८ ॥ स्वामि नारायण पन्थ जिसका, उपदेशक एक आया था। जैनधर्मको छोड़ अप्रेश्वर, मंदिरों की चाबियां लाया था।। सुनकर के मुनिराज तीनों ही, वहां जाकर समझाया था। पतितों का उद्धार किया, फिर जैन झंड फहराया था ॥६९॥ आमोद जम्बुसर कावीतीर्थ, नाक बैठ खंभात गये । पब्लिक भाषण हुए आपके, चर्चा में वह विजयी भये ॥ धोलका होकर आये वल्लभी, भावनगर प्रवेश किया । प्रश्नोत्तर व्याख्यान बांच कर,जनता को बहुलाभ दिया ॥७॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब देखा सिद्धाचल नजरे, रोम रोम हर्षाया था । . धर्मशाला की देख दुकानें, दुःख भी कम नहीं आया था।। खड़े होकर सड़क बीच में, व्याख्यान भवनिशरणी थी। मरुधरों के दुःख हरने को, अलग व्यवस्था करनी थी ॥१॥ फिर तो कहना किस बात का, मुनीम वगैरह आये थे। प्रबंध हुआ मिन्टों में सब ही, झुक झुक शीश नमाये थे।। कोटावालों को धर्मशाला में गुरुवर ने विश्राम लिया । खरतर गच्छ के थे कई साधु,हाल उन्होंका सुन लिया ॥७२॥ पञ्चवीस दिन तक करी यात्रा, वहां से आये राजनगर। श्राग्रह था वहां चतुर्मास का, जाना था मरुधर को मगर । बुला लिये फिर गुरुराज ने, सूरत श्राये करके बिहार । धर्मसूरीश्वर के कर दर्शन, सागरजी थे चर्चा कार ॥७३॥ गुरु साथ में पाये जघड़िये,ओसियां का पत्र पाया था। ' बोर्डिग का हाल इति श्री है, सुनकर रंज सवाया था । आज्ञा दी गुरुवर तुम जाओ,विद्यालय का करो सुधार। छूटे नहीं सेवा गुरुवर की,फिर भी आज्ञा ली सिर धार ।।७४॥ गुजरात के साधु साध्वियों, आचार विचार में ढीले थे। पक्षपाती थे गृहस्थ वहाँ के जैसे, गोवर के खीले थे। अन्ध श्रद्धा अरु निर्नायकता, स्वच्छन्दता सब छाई थी। देखा नहीं गया गुरुवर से, फिर ऐसी दिल में आई थी।।७।। कहूँ किसी से कौन सुनता है, शासन झांका बनाताहै। अगर कोई कहे किसी को, वह नास्तिक पद पाता है । अनुकरण कर उपाध्याय का,लिपि बद्ध सब करना हाल। महाविदेह में दुकान बड़ी है,यहां की लेगा सार संभाल ।।७।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कागद हुंडी पैठ परपैठ अरु, मेमर नामा किया तैयार सीमंधर के चरणकमल में, भेज भारत की करी पुकार।। पासत्या गुलशोर मचाकर, निज अपमान कराते हैं । नवयुवकों में खूब जागृति, जहां तहां पोल खुलाते हैं ।।७७॥ शुक्ल तीर्थ से आये पादरे, बुधिसागर सूरि थे वहां । राजनगर में नेमिसूरिजी, हटीसिंह की वाड़ी जहां ॥ एक दिन वहाँ गये वन्दन को, डाक उसी समय आई थी । जैनपत्र में था मेमर नामा, देख न बात समाई थी ।।७८॥ मेझर बन्ध करवाने हेतु, कोशिश बहुतसी कीनी थी । शक्ति भक्ति की कर नीति, प्रेम से धमकी दीनी थी । चाहता था जमाना जिसको, आखिर वह प्रसिद्ध हुआ। क्रान्ति फैलाई नवयुवकों में, सुधार का कुछ काम हुआ ॥७९॥ सोरीसर और पानसर की, यात्रा भोयणी न्यारी धी । म्हेसाना हो तीर्थतारंगा, उपधान की वहाँ त्यारी थी । मोती विजय पंन्यास एक शिष्य,कई साठ विधवा नारी थी। वहाँ का ढंग देखकर दिल में,दाह शासन की भारी थी॥८॥ दान्ता हो पहाड़ों के बीच में, तीर्थ कुंमारिये दर्श किया । वहाँ से खराड़ी आर्बुदाचल, यात्रा करके लाभ लिया । सिरोही के चौदह मन्दिर, पाली जोधाणे आये थे । आय ओसियाँ वीर भेटिया, देख बोर्डिंग दुःख पाये थे ।।८१ स्थिरता करके वहाँ कि व्यवस्था, सुंदर काम बनाया था। पास गुरु के थी पुस्तके, ज्ञान भंडार स्थपाया था । अति आग्रह से आये लोहावट, पहला अंग सुनाया था । फलोदी नगर में आप पधारे, स्वागत का ठाठ सवाया था ।।८२॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ - संघ चतुर्विध अर्ज ग्रह से, चतुर्मास वहाँ ठाया था । व्याख्यान में श्रीसूत्र भगवती, जिनवाणी रंग बसाया था ॥ कण्ठस्थ ज्ञान दिया बहुतों को, कई अन्य लाभ उठाया था । जैन-जैनेत्तर भेद भूल कर धर्म का झंडा फहराया था ॥ ८३ ॥ शरीर का था कारण आपके, संघ की श्राग्रह भारी थी । चतुर्मास पुनःकिया दूसरा, धर्म प्रीत एक तारी थी | कालिक और उत्कालिक सूत्र, दो दफे वाँचना होती थी । 9 अहोभाग्य थे उन सज्जनों के, सुन ज्ञान जगाई ज्योति थी ॥ ८४ ॥ समवसरण की रचना अपूर्व, जिसका दृश्य सवाया था । जैन - जैनेत्तर भक्ति करके, आनन्द खूब मनाया था । भूल गये समुदायक भेदों को, प्रेम अपूर्व छाया था । साथ बैठ कर भोजन सबने, वात्सल्य भाव दिखाया था ||८५|| धर्मज्ञों को धर्म करनी में, खुशी बहुत सी श्राती थी । फिर भी थे कई विघ्न सन्तोषी, उनसे देखी नहीं जाती थी । जिसके पास होती है वस्तु, दिखलावे कौन नवाई थी । फिर भी विजय धर्म की हो, इसमें क्या अधिकाई थी ॥८६॥ राधाबाई एक थी श्राविका, उसने संघ का निश्चय किया । जैसलमेर की करनी यात्रा, सहयोग गुरुवर ने दिया || आनंद से संघ कर आये यात्रा, सघन विघ्न सब दूर भये । उस समय की गजल देखकर, हाल सब ही जाने गये ||८७ || पकड़ा जौर कलि कुदरत ने, तीजा चौमासा' ठाय दिया । बढ़ता गया उत्साह धर्म का, विजय डंका बजवाय दिया । सेंतीस तो वहाँ आगम बांचे, पौन लाख थीं पुस्तकें खरी । फला फूल है झाड़ धर्म का, आभार आजलों मन में धरी ॥८८॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ - संघ आग्रह से लोहावट, वहाँ भी श्रानंद छाया था । जैन नवयुवक मित्र मण्डल को, खोल सुधार कराया था । ज्ञान प्रचार संस्था एक स्थापी, पुस्तकें खूब छपाई थी । महामहोत्सव के साथ व्याख्यान में, बच रही भगवती भाई थी ॥ ८९ ॥ न्याति जाति कई हुए सुधारे, धर्म की प्रभा बढ़ाई थी । स्थानकवासी थे हीरालालजी, मत्ति की चर्चा चलाई थी। ► उनके मकान पर जाकर गुरु ने सूत्रों के पाठ दिखाया था । जैन - जैनेत्तर बिच सभा में, विजय डंके बजाया था ।। ९० ॥ वहाँ से चलकर आये नगीने, साथ में वदन भण्डारी थे । बड़ा ठाठ से हुआ सम्मेला, विद्यालय उच्छव भारी थे । व्याख्यान हुआ गुरुवर का वहाँ, सुनकर सब हर्षाये थे । चतुर्मास की करके विनती, श्रानन्द खूब मनाये थे ॥९ ॥ रात्रि जागरण और वरघोड़ा, आगम उच्छव बनाया था । व्याख्यान बीच में सूत्रभगवती, पढ़कर अमृत पाया था ।। वीर मंडल की करके स्थापना, समवसरण रचाया था । बड़ा मन्दिर पर शिखर दंड का, उपदेश आप फरमाया था ॥ ९२ ॥ जैन-धर्म की हुई प्रभावना, चौमासा खूब दीपाया था । वहीँ से पधारे नगर कुचेरे, विद्यालय खुलवाया था । मित्र मंडल की हुई स्थापना, सेवा खूब बजाते थे । हुई जागृति धर्म समाज में, नरनारी गुण गाते थे ॥ ९३ ॥ फिर खजवाने श्राप पधारे, पाठशाला जैन खुलाई थी । स्थापना कर के मित्र मंडल की, वीर जयन्ती मनाई थी ॥ अति श्राह से रूण पधारे, युवक वहां उत्साही थी । ज्ञान प्रकाश मंडल की सेवा, वहाँ सुन्दर कार्यवाही थे || १४ || Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३१ - मारवाड़ में कई मन्दिरों की, आशातना का पार नहीं। देकर के उपदेश आपने, संस्था एक खुलाई सही । तीर्थ प्रबन्ध कारिणी कमेटी, स्थान फलोदी मुकर्रर किया। ईठंतर मन्दिरों के हाल ने, बन्ध नैत्रों को खोल दिया ॥९५।। तीर्थ फलोदी पार्श्वनाथ की, यात्रा आनन्द कारी थी। ध्वजा दण्ड नहीं था मंदिरों पे,और आशातना भारी थी ।। उपदेश दिया था विद्यालय का,भक्तों ने हुक्म उठाया था। इसी गरज से तीर्थ स्थान में, रहना मन ललचाया था ॥१६॥ जाकर दिया उपदेश मेड़ते, बहादुरमल वहाँ हाकम थे। पर कुदरत को मंजूर नहीं था, क्योंकि नसीब ही कम थे।। जैन जाति महोदय ग्रंथ की, शुरुआयत वहां कीनी थी। मुक्तावली की समालोचना, मोती को शिक्षा दीनी थी ॥९७। दिगम्बरों ने वहाँ पूजा बांयने, मन्दिरों में हकजमाया था । ' सेवगों ने मूर्ति गुम करदी, अत्याचार मचाया था ।। ऋषभदादा के गुरुबनने का, मिथ्या भ्रम फैलाया था । सबका स्वागत हुआ यथोचित,सीधा रास्ता बतलाया था।।९८॥ चतुर्मास के बाद मेड़ते, फिर पीसांगन आये थे । उपदेश आपका था मंडेली, कई सुधार करवाये थे । जैन लायब्रेरी थी खुलवाई, फिर अजमेर मन भाया था । बीर निर्वाण से वर्ष चौरासी, ओमाजी लेख दिखाया था ॥१९॥ उस प्रदेश में घूम घूम कर, सत्य उपदेश सुनाया था । पवितों का उद्धार करन में, कष्ट बहुत उठाया था । कुड़की केकीन आनन्दपुर हो, बलुंदे जैतारन आये थे । मरिया में शाबार्थ कर, पाखण्ड जोर हटाये थे ॥१०॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संप आग्रह से आये बीलाड़ा, उपदेश आपका भारी था । सिरेमलजी के षट् प्रश्नों में, नथमल सहचारी था। समझ गये संघवी उत्तर से, कल्पित मत का त्याग किया । आम सभा के बिच सिंघीजी, वासक्षेप गुरुवर से लिया ॥१०॥ ज्ञान प्रकाश मित्र मण्डिल को, स्थापित श्राप उपकारीथे । सेवा भक्ति करते संघकी, मिथ्यामत बिडारी थे। रावत सीरवी और था भाना, बन गये धर्म के रागी थे । वादी नत मस्तक हो गये, शासन के वे दागी थे ॥१०२॥ वहाँ से चलकर आये कापरड़े, चौमुख मन्दिर भारी था । चार मंजिल पार्श्व की प्रतिमा, यात्रा रंग एक तारी था । लग्न लगी तीरथ की दिल में, जन्मभूमि का गौरव था । नेमिसूर का अथाह परिश्रम, अहा-हा तीर्थ गौरव था ॥१०॥ पीपाड़ में छाई थी बेपरवाही, फिर भी आप पधारे वहाँ । व्याख्यान का रंग जमा रात में उपकार आपको करना वहाँ। जैनेत्तर बन गये अनुरागी, चतुर्मास का आग्रह किया । बीलाड़ा संघ की लेकर आज्ञा,वहाँ रहने का वचन दिया ॥१०४॥ पंचम अंग व्याख्यान बीच में, इस कदर फरमाते थे। भूले भटके श्रद्धा हीनों को, सद् रास्ते पर लाते थे । सेठ वन्शी लाल कन्हैया, चन्द्रभान जवहरी थे । मदन मोहन नेमीचन्द अरु, तेज लाभ के धारी थे॥१०५॥ जैन मित्र मंडल खुलवाया, काम उसका सुचारू था । जैन लायब्रेरी और स्थापाई, सभा श्वेताम्बर वारू था ।। बाल मण्डल भविष्य की आशा, जन धर्म चमकाया था। नहीं थे स्वप्ने और पालने, श्रामद से नया बनाया था।।१०६॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४१ - साथ संघ के तीर्थ कापरड़े, यात्रा कारण आये थे । भाग्योदय बीलाड़े पधारे, मैं भी दर्शन पाये थे ॥ महात्मा था दास तनसुख, उसके जरिये मिलाप हुआ । चर्चा चली मूर्ति पूजा की, मिथ्या हट को छोड़ दिया ॥१०७॥ मूर्ति पूजा के थे पाठ सूत्रों में, उल्टा अर्थ हम करते थे। सच्चा भाव बताया गुरु ने, जिसे पहले हम डरते थे ॥ मुँहपत्ती का था प्रश्न दूसरा, मिथ्या डोरा हटाया था। चैत्र कृष्ण तृतिया त्रिअसी, शुद्ध संयम गुरु से पाया था ॥१०८॥ तीर्थ कापरड़े करी यात्रा, पीपाड़ नगर में आये थे। पुत्र लग्न के कारण कोठारी; अठाई उच्छव मनाये थे । वहाँ से चलकर आये बगड़ी, प्रतिष्ठा ठाठ सवाया था। सोजत नगर में रहे. कल्पते, चौथमलजी वहां आया था ॥१०९।। भैसाणा में जैन मन्दिर का, जीर्णोद्धार कराना था । सोजत के अप्रेश्वर साथ में, चलकर वहां पर पाना था।। मालक वहां के रावराजाजी, व्याख्यान सुनके हुक्म दिया। वापिस पाये सोजत शहर में, बिलाड़े जा चौमास किया ॥११॥ प्रभाविक था अंग पांचवाँ, ब्याख्यान में फरमाया था । पतितों को पावन बना कर, धर्म झड फहराया था । हुआ प्रेम फिर जिन मंदिरों से, वहाँ से विलावस आये थे । . पब्लिक हुए व्याख्यान आपके, धीनाव के दर्शन पाये थे ॥१११॥ पाली संघ की थी अति आग्रह, गुरुराज वहाँ पधारे थे। जाना था मेवाड़ केसरिया, सेठ मुलतानमल लारे थे । फिर भी आग्रह श्रीसंघ का, वहाँ पब्लिक व्याख्यान हुए । गुंदोच होकर आये विजावे, वरकाणे पास के दर्श हुए ॥११२॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४२ - रानी स्टेशन वाली मुन्डारे, सादड़ी में प्रवेश किया । देख उत्साह वहाँ के सङ्घ का, स्थिरता कर व्याख्यान दिया । सङ्घ साथ में राणकपुर की, यात्रा कर आनन्द पाया था। 'मुंवारों के दर्शन करके, हर्ष खूब मनाया था ॥११॥ भानपुरा सायरा ढोल नांदामा, गांव घोबूंदे आये थे। करने थे दर्शन मन्दिरों के, पन्थी चाबी नहीं लाये थे । पाखण्डियों को खूब फटकारे, किसने तुम्हें पतित किये ।। मांस मदिरा छुड़वाया जिनको, कृतघ्नी हो विसराय दिये ॥११४॥ नाम सुना जब गयवर मुनि का, चट से चाबी लाये थे । ठहरने को मकान खोल दिया, गोचरी के घर बताये थे । देकर के व्याख्यान उन्हों को, उत्पत्ति हाल बताया था। अवर था प्रभाव आपका, मंदिरों के नियम दिलाया था ॥११५॥ मदार गये फिर उदयपुर के, श्रावक सामने आये थे। प्रबंध किया स्वागत का अच्छा, नगर प्रवेश कराये थे। ओसवंश के श्राद्य संस्थापक, रत्नप्रभ सूरीश्वर थे। माघ शुक्ल पूनम के शुभ दिन, जयन्ति के अप्रेश्वर थे॥११६॥ जुलूस बनाया खूब जोर से, व्याख्यान गुरू का भारी था। श्रोसवंश इतिहास सुनाया, सूरि महा उपकारी था । सुनके अपूर्व हाल गुरुवर से, भक्ति अपूर्व जागी थी। अति आग्रह से करी विनती, पर प्रीत धूलेवे लागी थी ।।११७॥ वहां से चलकर आये केसरिया, यात्रा का ठाठ सवाया था। अनुभव मुंह से कहा न जाता, आनंद अपूर्व छाया था। पांच दिन करी भक्ति यात्रा, फिर उदयपुर श्रये थे। आग्रह था श्रीसंघ का काफी,मरुधर में अन्नजल लायेथे॥११८॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४३ - संघ सादड़ी कई वर्षों से, आशा आपकी रखता था। सफल मनोरथ हुई विनती, व्याख्यान में रंग बरसता था । लुनावा में भाषण हुए फिर, सेवाड़ी बीजापुर आये थे। बीसलपुर में व्याख्यान आपके, हर्ष का पार न पाये थे ॥११९॥ मूर्ति की प्रतीष्ठा करवाई, शान्ति स्नात्र भणाई थी। जीवनमल को देकर दीक्षा, धर्म की प्रभा बढ़ाई थी। सुमेरपुर से शिवगंज पधारे, संघ सकल हरषाया था। ठाठ व्याख्यान का था अतिभारी, ज्ञान अमृत बर्साया था ॥१२०॥ वहाँ से चलकर आये बाली, संघ सामने आया था । गाजा बाजा और धाम धूम से, नगर प्रवेश करवाया था । व्याख्यान सुनकर वहाँ की जनता, जैन धर्म यशः गाती थी। उपदेश दिया था कन्याशाला का वे भी मंगल मनाती थी ॥१२॥ वहाँ से आप मुडारे पधारे, सादड़ी में पहुँची खबर । . नर-नारी का लग गया तांता, उच्छव मनाया अति जबर ॥ खुडाले वालों के कारण संघ में, मतभेद कुछ खड़ा हुआ। जिसका फैसला दिया गुरु ने, शांति का साम्राज्य हुआ ॥१२२॥ फिर तो था क्या कहना संघ में, भगवती का उच्छव किया। नथमल था जाति विदामिया, उसने अग्रे भाग लिया । जाति महोदय ग्रन्थ के कारण, संघ में अच्छा चन्दा हुआ । और अनेकों छपी पुस्तकें, सद् ज्ञान का प्रचार हुआ ॥१२॥ पर्व पर्युषण ठाठ अपूर्व, उत्साह संघ में भारी थे। विशाल स्थान बन गयाथा छोटा,कहाँबठेइतने नरनारीथे। आज्ञादी गुरुवर ने मुझको, बड़ा उपासरे जाकर किया । अट्ठाई और कल्पसूत्र का, जोरों से व्याख्यान दिया ॥१२॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ -- कन्या पाठशाला खुलवाई, अज्ञ को दूर भगाया था । पाठशाला की थी शिथिलता, जिसको आप जगाया था ।। व्याख्यान का रस कहूँ कहा लों, ठाठ हमेशा भारी था । शुभ चिन्तक समाज वहाँ पर, समाज को हितकारी था ॥ १२५ ॥ मुच्छाला महावीर यात्रा, फिर घाणेराव में आये थे । स्वागत किया श्रीसंघ भक्ति से, पब्लिक व्याख्यान सुनायेथे ॥ ओसवाल और पोरवाल में, व्यर्थ का झगड़ा भारी था । उपदेश का कुछ असर हुआ पर, होनहार बलकारी था ।। १२६ ।। पंच तीर्थ की करी यात्रा, फिर नगर लुनावे आये थे वाली जा उपदेश दिया वहाँ समवसरण रचवाये थे । कई ग्रामों के आये भावुक जन, दर्शन कर आनन्द पाया था जैन - जैनेतर जैन धर्म का, यशः धवल गुण गाया था ॥ १२७ ॥ मतभेद था वहाँ के श्रीसंघ में, जिसको आप मिटाया था । कई मुमुक्षु ज्ञान ध्यान कर, अपूर्व लाभ उठाया था ॥ वरकाणा बाग में करके स्थिरता, समर जीवन बनाया था । T संघ आग्रह से आप लुनावे, चतुर्मास वहाँ ठाया था ॥ १२८ ॥ व्याख्यान में श्रीसूत्र भगवती, श्रानन्द अपूर्व छाया था । विद्या प्रचार और सुधारे, युवकों को खूब सुहाया था ।। कन्या पाठशाला थी खुलवाई, बाल मण्डल स्थपाया था । कई हजार पुस्तकें छपाई, अज्ञ को मार भगाया था ।। १२९ ।। पर्युषणों के शुभ अवसर पर, बाली संघ वहाँ आया था । अर्ज करी गुरुवर से काफी, मुझ पर हुक्म लगाया था । जा करके वहाँ पर्युषणों का, संघ को कल्प सुनाया था । हुई प्रभावना श्रीसंघ में, वापिस लुनावे आया था ॥ १३० ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४५ - राणकपुर हो आये सादड़ी विद्या का उपदेश दिया। थी स्कूल पहिले से वहाँ पर, जिसका ही बोर्डिग किया । हो वरकाणे फिर आये पाली, लायब्रेरी खुलवाई थी कन्यापाठशाला झाड़ लगाकर, अविद्या दूर हटाई थी ।।१३१।। चतुर्मास की करी विनंती, फिर भी कापरड़े जाना है। संघ पालीका आया मेले पर, कहो अब क्या फरमाना है। कौसाना बडलू आये फलौदी,रूण खजवाना था नागोर । मंदिर शिखर ध्वजा दंड की, करी प्रतिष्ठा था बहु जोर ।।१३२॥ खजवाना रूण नोका हरसाला; पीपाड़ कापरड़े भाये थे । सोजत हो कर आये पाली, चौमासे ठाठ सवाये थे। जीनाणीजी उच्छव करके, भगवती सूत्र बचाया था। अहा-हा वाणि देव जिनेन्द्र की, धर्म को खूब दीपाया था ॥१३।। कन्याशाला और लायब्रेरी, जिनको मदद पहुँचाई थी। समवसरण की रचना कारण, भावना और बढ़ाई थी । उठा लिया बीड़ा श्रीसंघ ने, फिर देरी का था क्या काम । स्वर्ग सदृश मंडप की रचना, देख जनता पाया आराम ॥१३४॥ बहुत लोग बाहर से आये, नगर के कब शेष रहे । आठ दिन तक उच्छव भारी, जिसकी महिमा कौन कहे ।। वरघोड़ा में आया हस्ती, लवाजमा का पार नहीं। जैन जैनेत्तर मुख से कहते, जैन धर्म की प्रभा सही ॥१३५॥ सोजत होकर आय बीलाड़े, बाले प्रतिष्ठा करनी थी। वहाँ भी धर्म की हुई उन्नत्ति, जोकि हृदय धरनी थी । वहाँ से पधारे तीर्थ कापरड़े, यात्रा करके वीसलपुर । जन्म भूमि उपदेश सुनाया, फिर आये थे जोधपुर ॥१३६॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હું टूटी मूर्ति शान्तिनाथ को, अशातना अनुचित हुई । मूथाजी के मंदिर बीच में, शान्ति स्नात्र जबर हुई || नहीं था ध्वजा दंड मन्दिरों पै, प्रतिष्ठा दो करवानी थी । गोडीपार्श्व और शान्तिनाथ की, मूर्त्तियाँ पधरानी थी ॥१३७॥ स्थानक वालों ने दीना स्थानक, समवसरण रचना के लिये । वरघोड़ों का ठाठ अजब था, चाँदी सोना का रथ देखा दिये । हुई प्रतिष्ठाएँ धाम धूम से, जैन धर्म उद्योत किया । तेरहपंथी को देकर दीक्षा, क्षमासुन्दर नाम दिया ॥ १३८ ॥ भैरूँबाग थी भूमि देव की, स्कूल नाम से हड़प करे । समाज के शुभचिंतक बन कई, आन्दोलन को आगे धरे ॥ भवितव्यता टारी नहीं टरती, देव द्रव्य का पाप जबर । या मन्दिर की भैरूँबाग में, डारी नीव था काम जबर ॥ १३९ ॥ फलोदी संघ के प्रति आग्रह को स्वीकार कर मान लिया । श्राज्ञा हुई गुरुवर की मुझपर, क्षमासुंदर को साथदिया ॥ मंडोवर ओसियाँ करी यात्रा, लोहावट में दिया व्याख्यान । ● बोर्डिंग करना था । नहीं विसरना था || प्रवेश किया फलोदी नगर में, संघ ने किया था बहुमान ॥ १४० ॥ विचार कब से करते थे गुरु, कापरड़े श्रावक वर्ग की थी शिथिलता, फिर भी जोधाणा से आये कापरड़े, नीतिसूरि वहाँ आये थे । माघशुक्ल षष्टि के दिन वहाँ, बोर्डिंगादि खुलवाये थे ॥ १४१ ॥ पीपाड़ में करवानी थी प्रतिष्ठा, कई विघ्न उपस्थित हुए । धराहाथ गुरुवर ने जिस पर विघ्न बदल सब दूर हुए ॥ धूम धाम से हुई प्रतिष्ठा, कलस दंड चढ़वाया था । समवसरण की अद्भुत रचना, देख नगर हरषाया था ॥ १४२ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४७ -- वीसलपुर और पालासणी के, मंदिरों की आशात मिटाई थी । आये चल कर और कापरड़े, विद्यालय नीव जमाई थी । चौमासा कर दिया कापरड़े, व्यवस्था कर पाये थे। पर्युषणों के कारण वहाँ पर, नरनारी तीन सौ आये थे ॥१४॥ फलोदी के थे पाँचूलालजी जैसाणे संघ ले जाना था । सम्मति कारण आये कापरड़े, हुकम गुरु का पाना था । उपदेश दिया था विद्यालय का, विशाल भवन बनाया था। संघ फलोदी आया दुबारे, उनका हुकम उठाया था ॥१४॥ पत्र लिखा सूरि वल्लभ को, संघ के साथ पठाया था। जाय सादड़ी करी विनती, मन्जूरी हुकम फरमाया था । चम्पालाल और गजमलजी, पुनः कापरड़े आये थे । विहार किया गुरुवर ने वहाँ से, वीसलपुर साथ में आये थे ।।१४५॥ जोधपुर फिर पाँचूलालजी, श्रोसियाँ चम्पा आया था। - लोहावट में हुआ सम्मेला, सागर आनन्द पाया था । एक तख्त पर व्याख्यान दोनों का, संघ को खूब सुहाया था। फलोदी से समुदाय मिलकर गुरु दर्शन को पाया था ॥१४६॥ वहाँ से चलकर चीले पधारे. मैं भी जाकर दर्श किया। फलोदी के बहु नर नारी, गुरु दर्शन का लाभ लिया । स्वामि वात्सल्य सङ्घ पति का, तैयारी सबी सुखकारी थी। फलोदी नगर में सम्मेला की, खूब हो रही तैयारी थी ॥१४७॥ दश वर्षों से गुरुराज पधारे, दिल किसका नहीं चाहता था। सम्मेला काठाठ अजब था, नर नारी मंगल गाता था ।। विजयवल्लभ सूरीश्वर आये, उच्छव खूब मनाया था । आमन्त्रण पाके संघ पाया, अहा-हा ठाठ सवाया था ॥१४८॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ थी । सौभागमलजी थे गुलेच्छा, मन मुठ मुनिवर से गई पर घर से भाव दर्शाया पून्य उदय परिणामों की धार, बदल हुआ आपस में खमदखामणा, स्नेह सज्जन सुनकर सज्जनता का, धन्यवाद वरसाया था ॥१४९॥ इस संघ में थी यह अधिकता, खर्च सब संघपति का था । सर्व सामग्री करी एकत्र, हुकम जो गुरुवर का था ॥ सौ गाड़ियों ऊंट दोय सौ, पांच हजार नर नारी थे । सौ साधु साध्वियों संघ में, देरासर अधिकारी थे ।। १५० ।। जैसलमेर लौद्रवा तीर्थ की, संघ यात्रा कर आये थे । केसरिया पेंचा श्रीसंघ को, संघपति ने बंधवाये थे || गाजा बाजा से हुआ सम्मेला, यशः जगत में छाया था । कृपा थी गुरुवर की उन पर, नर नारी गुण गाया था ।। १५१ ।। जाना था कापरड़े आपको, संघ मिलकर आग्रह करी ॥ फलोदी में करना चौमासा, लाभालाभ को दिल में धरी । ग्रीष्मऋतु में ये कापरड़े, विद्यालय को सम्भाला था || ari से चलकर आये फलोदी, अपने वचन को पाला था ।। १५२ ॥ श्री भगवती सूत्र व्याख्यान में, आनंद रंग बरसाया था । पर्युषणों का ठाठ अपूर्व, जन मन सब हरषाया था । सूरजमलजी ने धर्मशाला में सुंदर हाल बनाया था । नंदीश्वर की रचना कारण, दिल सब का ललचाया था ।। १५३॥ फिर तो थी क्या देरी काम में, साधन शीघ्र बनाये थे । } जनगिरि दधिमुखा कनकगिरी, बिच में मेरु दिखाये थे | गुत्तर थे मंदिर उन पर, चौमुख जिन पधराया था । ठाठ महोत्सब का था अपूर्व, भक्ति रंग बरसाया था ।। १५४ || थी । था । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व गुरु थे मोड़ीरामजी, उनका चौमासा फलोदी था। प्रेम भाव से गये मिलने को, गुण के वह अनुमोदी था । नंदीश्वर की रचना उनको, साथ जा कर दिखाया था । जैसे लिखा था सूत्र पाठ में, प्रत्यक्ष यह बतलाया था ।१५५।। अहमदाबाद का संघ आया वहां, दर्शन अपूर्व पाया था। अनुमोदन कर पुन्य बढ़ाया, हर्ष हृदय नही माया था । कई प्रामों के आये भक्तगण, भक्ति कानुगों कोनी थी। भेद रहा नहीं किसी बात का, उदार प्रभावना दीनी थी ॥१५६।। चैत्य महापूजा संघ की ओर से, वासक्षेप गुरु देते थे। भूल गये सब भेद गच्छों के, शिर झुका कर लेते थे। खूब दिपाया चतुर्मास को, यशः का डंका बजाया था। खीचन्द पूजा स्वामि वात्सल्य, वहां से विहार कराया था ।।१५७॥ लोहावट ओसिया जोधाणे पाली, पंचतीथी मन भाई थी। करके यात्रा आये सादड़ी, श्रोलियां वहाँ मनाई थी। वहां से क्रमशः आए शिवगंज,जवाल प्रतिष्ठा भारी थी। नेमिसूरीश्वर के कर दर्शन, धर्म प्रीती विस्तारी थी । १५८॥ शिवगंज संघ की मानी विनती, चौमासा यहां करना था। आग्रह ज्ञान पीपासुओं की, सूत्र भगवती पढ़ना था। फोजमल ने महोत्सव कीना, जबर जुलूस विशाला था। पूजा प्रभावना रात्रि जागरण, उच्छव एक निराला था ॥१५९।। उदारता से की आगम पूजा, रुपये सात सौ आये थे। उस द्रव्य से छपी पुस्तकें, ज्ञान प्रचार बढ़ाये थे। नरनारी सब मिल के तीन सौ, समकित का विधान किया। मोसवालों के जाय पाटिये,गुरु आज्ञा से व्याख्यान दिया।।१६०॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५० - 'पाली श्रीसंघ की थी श्राग्रह, पूज्य तेरह पन्थी आते हैं। दोनों समुदाय में नहीं हैं साधु, मिथ्या भ्रम फैलाते हैं। कार्तिक पूनम कोरंट यात्रा, संघ साथ में कोनी थी। जाना था मुम को सिद्धाचल, गुरु आज्ञा दे दीनी थी ॥१६१॥ सिरोही आबू और पालनपुर, सिद्धपुर फिर म्हेसाना था। भोयणी पानसर करी यात्रा, अहमदाबाद को जानाथा ।। माणकलाल का संघ ठाठ से, देख दिल हरपाया था । लुंबा माली था साथ हमारे, साधु समागम पाया था ॥१६२।। सरखेज होकर आये धंधुके. वल्लभी यात्रा कीनी थी। सिहोर हो फिर आये सिद्धाचल, चैतन बधाई दीनी थी । जन्म सफल यात्रा से कीना, श्रानंद खूब मनाया था । कृपा थी गुरुवर की अनहद, सेठ मुलतान वहां आया था ॥१६॥ छोड़ा नहीं गया सिद्धाचल, फिर भी गुरु में जाना था। . दश दिन तक करी यात्रा मुक्ति पट्टा लिखना था । विहार किया जब सिद्धगिरि से, हर्ष रंज दो आया था। उसी रास्ता से आया वापिस, गर्भावास मिटाया था ॥१६॥ कोरंटा से गुरु पाली पधारे, स्वागत खूब बनाये थे। उपदेश दिया था दया दान का, सज्जन सब हर्षाये थे। था पब्लिक व्याख्यान आपका, राजप्रश्नी सूत्र सार । विषय था मूर्तिपूजा का, सुनते थे सब ही नर नार ॥१६५॥ प्रश्नोत्तर होते थे व्याख्यान में, पन्थी भी कई आते थे। सूत्र पाठ और तर्क युक्ति से, निरुत्तर हो जाते थे। पूज्य पोटले बन्ध रवाने, गुप चुप से वे किया बिहार । विजय झंड फहराय दिया था,दया दान का हुआ प्रचार ॥१६६॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -११ चल कर वहाँ से आये कापरड़े, बोर्डिग का देखा हाल । कोप ऐसा हुआ कुदरत का, जिसने बना दिया बे हाल ।। चोपड़े धोलेरा होकर पाली, शरीर का कुछ कारण था । जोधपुर श्रीसंघ की आप्रह, साधन रोग निवारण था ॥१६॥ भंडारीजी थे साथ बिहार में, चलकर जोधाणे आये थे। गाजा बाजा से हुआ सम्मेला. सज्जन सब हरषाये थे । पर्युषणों का उच्छव अपूर्व, जैन धर्म दीपाया था । बीसलपुर होकर फिर कापरड़े, पार्श्व भेट सुख पाया था॥१६८।। आलवी-चोपड़ा और निंबली, पाली को पावन बनाया था। मूर्ति पूजा की प्राचीनता, इतिहास लिखवाया था । संघ अाग्रह से वहां चौमासा, आनंद खूब मनाया था। बल्लभ विजय को रख पास में, बेचर से ज्ञान दिलाया था॥१६९।। वहां से चल कर आये सोजत संघ सम्मेला भारी था। प्रवृतकजी आदि कई मुनिवर, धर्म स्नेह मनुहारी था । पब्लिक हुआ व्याख्यान आपका,जनता लाभ उठाया था। नया मंदिर दादा बाड़ी पर,जिसका जुलूस सवाया था ।।१७०।। चंडावल, पीपलिये पुनः झूठे, पर गांव सीदड़े आये थे । नया नगर के श्राए भक्तगण, भक्ति भाव दिखाये थे । आग्रह थी वहां श्री सँघ की, पर अजमेर को जाना था । . दो दिन की स्थिरता करके, दो व्याख्यान सुनाना था ॥१७१।। जा रहे थे अजमेर नगर को, संघ सामने आया था । उस दिन ठहरे केसरगंज में,फिर नगर प्रवेश कराया था।। नागोर में श्रीमान समदडिया मंदिर नया बनाया था । प्रतिष्ठा के कारण पाली में, सुखलालजी आया था ॥१७२॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झूठा में फिर माणकचंदजी, अजमेर तनसुख आया था । वहां से ये पीसांगन में, व्याख्यान वहां सुनाया था ॥ वहां से मेड़ता तीर्थ फलोदी, वहां भी समदडिये आए थे । जवाना हो आए मूडवे, नगीने दर्श दिखाए थे || १७३ || सम्मेला का ठाठ अनोखा, नगर प्रवेश कराया था । उत्साह था श्री संघ का भारी मंडल हर्ष मनाया था । नंदीश्वर की अद्भुत रचना, स्टेशन उपर खूब बनी । देश देश के श्राए सज्जन गण, सेवा मंडल बजाई घनी ।। १७४ ॥ जन श्वेताम्बर और दिगम्बर, स्थानकवासी शामिल थे । अहा- हा अतिशय और कुशलता, भक्ति में वे एक दिल थे । आठ दिन के स्वामिवात्सल्य, शहर से महिलाएं आती थी । इंतजाम था खास मोटर का, भक्ति भोजन कर जाती थी || १७५ ॥ . चन्द्रप्रभ की हुई प्रतिष्ठा, वासक्षेप गुरुदेव ने दिया । रत्नप्रभसूरीश्वर के पादुका, गुरु मंदिर में स्थाप दिया || धर्मघोष एक हुए आचारज, सुरांणा जाति बनाई थी । बगेची में उनके पादुका, रख के भक्ति बजाई थी ।। १७६ ॥ फाल्गुन चौमास हुआ वहां पर, ठाठ व्याख्यान के लगते थे। उदार दिल से होती प्रभावना, भेद भाव दूर से भगते थे । वहां से आये नगर कुचेरे, खजवाना में प्रचार किया । -रूण नोके हरसाला गोठण, पीपाड़ आ उपदेश दिया || १७७ ॥ तीर्थ कापरडे करी शुभ यात्रा, सोजतसंघ वहां आया था। अति आह से मानी विनंती, चौमासा वहां ठाया था ॥ वकील थे वहां सम्पतराजजी, उच्छव खूब मनाया था । श्री भगवती निज मकान पर, भक्ते वरघोड़ा चढ़ाया था ।। १७८ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम पूजा खूब ठाठ से, आनंद खूष मनाया था । व्याख्यान का था ठाठ हमेशा, चौमासा जबर दिपाया था । दादाबाड़ी में समवसरण की, रचना रंग दिखाया था । चिंतामणि पार्श्व की प्रतिष्ठा, वरघोड़े हाथी श्राया था ॥१७९॥ वहां से चल कर आए कापरडे,इतिहास ग्रंथ बनाया था। जाना था अजमेर नगर को, बिच मे ब्यावर आया था। संघ श्राग्रह को मान देकर, चौमासा वहां ठाया था। गणेशमल कोठारी जिसने, सूत्र उच्छव मनाया था ॥१८॥ जैन जैनेत्तर भक्ति पूर्वक, जिन बाणि रस पीते थे । चंदरास की कथा रसीजी, सुन के मोह को जीते थे। राइली कंपान मैदान मजाका, पर्युषण वहां मनाया था । व्याख्यान की छबी कहूँ कहां लो, संघ को खूब सुहाया था ॥१८१॥ ब्यावर आए दर्शन कीना, वहां का ठाठ अनोखा था। • पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्य,भक्ति का यह मौका था। वहां से आप अजमेर पधारे, संघ सामने आया था । श्रीसंघ का था जहां उपासरा,वहां मंगलिक सुनाया था॥१८२॥ उपदेश आपका था झंडेली, सुनने को सब आते थे । शुद्धि संगठन और ऐक्यता, विषय सबको सुहाते थे। देवकरण के घर देरासरा, रत्न बिंब मनुहारी था । शान्ति स्नात्र पूजा पढ़ाई, उत्साह जनता में भारी था ॥१८३।। दांतों की बत्तीसी थी बंधानी, ग्रंथ छपाई होती थी। चतुर्मास की थी विनती, भक्ति की फिर न्योती थी। वहां से आये केसरगंज में, पल्लीवालों को बोध दिया। सराधनेहोकराये मांगलिया,अजमेरवालोंने लाभ लिया॥१८॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५४ - 041040 जाना था पीसांगन आपको, अशुभ कमों ने घेर लिया । यही कारण था ब्यावर आने का,संघ ने स्वागत खूब किया।। किया उपकार बहुत दवा का, साफ आराम हुआ नहीं । जाना था कापरडे आपको, विहार वहां से किया सही ।।१८५।। हीन पुरुषार्थी कह देते है, हम एकेले क्या करे । पढ़ लो जीवन गुरुवर्य का, एकेला भी क्या न करे। बोर्डिग खुलाये करके परिश्रम,पाठशालाएँ कई स्थपाई है। सेवा मण्डल कई स्थानों में, लायब्रेरियें खुलाई है ॥१८॥ जीर्णाद्वारों में था हाथ श्रापका, प्रतिष्ठाएँ कई कराई है। तीर्थों की करवाई रचना, संघ यात्रा सुखदाई है ।। घूम घूम उपदेश दिया गुरु, जागृति खूब फैलाई है । पतितों का उद्धार किया था, कई को दीक्षा दिलाई है ॥१८७॥ छोटा बड़ा ग्रंथ दोय सौ, लिखकर आप छपाये हैं । चार लाख पुस्तकों उनकी, सब विषय उसमें आये हैं। प्रचार हुश्रा सर्वत्र ज्ञान का, अज्ञान डूबकर मरते हैं । फिर भी सहायक कौन आपके,सब काम हाथों से कहते हैं।। १८८ सत्य कहने की आदत आपकी, फिर निडर हो कहते हैं । परवाह नहीं किस की सत्य में, योग युक्ति से रहते हैं। मेमरनामा के कारण एक दम,समाज खिलाफ हो पाया था। फिर भी था वह सुधार वाजिंत्र, युवकों ने अपनाया था ।।१८९।। जैन जाति निर्णय लिखने से, कई भाई नाराज हुए । अनुकम्पा और दान छत्तीसी, पन्थी भी कई गुस्से हुए। स्थानकवासी तो थे पहले से, रोस का कोई पार नहीं । व्यर्था भोजक व्हम करके, नाम आप का गाते सही ॥१९०॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य का खड़ग हाथ में लेकर, पेश सभी से आते हैं । जब करते हैं वीर गर्जना, कायर सब भग जाते हैं। इतिहासप्रेमी मरूधरकेसरी, सार्थ कर बतलाया नाम । मैं क्या गाऊँ गुण आपके, सब जग गाता पाकर काम ॥१९१।। नहीं कवि कविता नहीं जाणु, फिर भी मन ललचाया है। गुरु भक्ति से होकर प्रेरित, रास्ता में छन्द बनाया है। गुणियों के सद्गुण गाने से, गुण सहज में आते हैं। मूर्ख को गुरु पण्डित बनावे, सफल मनोरथ पाते हैं ॥१९२।। रत्नप्रभसूरि थे गुण भूरि, महाजन संघ बनाया था । उपकेशपुर के कारण उनका, गच्छ उपकेश कहाया था ।। पाट परम्परा अतिशय धारी, नूतन जैन बनाये थे। उपकार उन्हों का है अति भारी, गुरुवर ने समझाये थे ।।१९३॥ लुप्त होता था गच्छ जिसको, गुरु ने फिर चमकाया है। रत्नविजय गुरुवर की श्राज्ञा, गच्छ उपकेश कहलाया है। ज्ञानसुंदर शुभ नाम अापका, ज्ञान प्रचार बढ़ाया है । उपकार कियाथा मुम पामर पें,मिथ्या मत से बचाया है १९४॥ संवत उन्नीसे साल पचाणु, कृष्ण तृतीया चैत्र मास । दीक्षा भूमि है नगर बीलाड़ा, सफल हुई है मन की आस । गुणसुंदर गुण गाये गुरु के, जनम सफल मनाया है । अनुमोदन कर पढ़ो पढ़ाओ, जिससे सुख सवाया है ।।१९५॥ "इति कवितामय आदर्शज्ञान समाप्तम् " Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादर्शज्ञान-प्रथम-विभाग Page #74 --------------------------------------------------------------------------  Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 一起回家 ........eeeed t का ...... b 리타카 슈육 -타리 -빌드 카테고리 마마마 W ・ ............... .......... .............. ............or cecease GHING | 2 eeeeee 1000000008 ver ces Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-प्रथम-खण्ड मंगलाचरणा ( गुरुस्तुत्यष्टकम् ) दयामयेनैव विलोकनेन, लोकान् पुनानं सकलान् जगत्याम् । लग्नं च नित्यं परकीयकार्ये, गुरुं नमामि प्रथमं महान्तम् ॥ १ ॥ धर्मप्रचारक महाविभूतिं तपः परं लोकसुखेन तृप्तम् (?) जितेन्द्रियं मानमदादिद्दीनं गुरुं नमामि प्रथमं महान्तम् ॥ २ ॥ यो ज्ञानमूर्तिर्व्रतसन्ततीनां प्रसूतिगलोकमयः प्रदीपः । प्रकाशते यो हृदि मन्दिरे च, सुरद्रुमो भक्तखगाश्रयाय ॥ ३ ॥ क्षमामयो ध्यानपरो विपश्चित्, धृतो न रागो हृदि येन कश्चित् । पद्भ्याम् विहारी वचसामृतेन कल्याणकारी सुपरिश्रमेण ॥ ४ ॥ क्रोधस्य लोभस्य जये सुसूरिः, महाव्रताचारपरः कषाये । निवृत्तचेतास्तु वशी सुशीलः, सत्यप्रियो योगनिविष्टभावः ॥ ५ ॥ साहित्य सेवाध्यवसायशीलः, क्रियासु निष्णात मतिर्मतो यः । ऐतिह चतत्वस्य सुविज्ञ एकः, सौजन्यसत्कर्म सुपाटवेऽपि ॥ ६ ॥ विद्याः समप्राः सुकरांगलीषु, नृत्यन्ति नर्तक्य इवेह यस्य । वाचं पुनीमो महिमानमुक्त्वा, नमामि पादौ च गुरोस्तुतस्य ॥ ७ ॥ आनन्दकन्दप्राप्तयर्थे त्यक्त्वार्थे तु निरर्थकम् । "ज्ञानसुन्दर" नामानं वन्देऽहम् प्रवरं गुरुम् ॥ ८ ॥ mininę Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-प्रथम-खण्ड ... आप श्रीमान का जन्म विक्रम संवत् १९३७ विजयदशमी से लेकर वि० सं० १९७२ स्थानक वासी समाज के त्याग पर्यन्त का विस्तृत वर्णन - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वैराग्य का कारण मध्य रात्रि का समय था, मकान के एक कमरे के अन्दर चारपाई पर एक नवयुवक टक टक करता हुआ निश्वास डाल कर रुदन कर रहा था । उसी समय पड़ोस में रहने वाला एक वृद्ध सज्जन पेशाब करने को अपने मकान से बाहर आया, और उसने निःशब्द रात्रि में कारुण्य शब्द सुना तो उसका हृदय दया से लबालब भर उठा। पेशाब कर सीधा ही नवयुवक के पास आया और कहने लगा । बृद्ध – अरे भाई, तू इस प्रकार रुदन क्यों करता है, क्या आज तेरे शरीर में वेदना विशेष हो गई है ? १ युवक – उत्तर में कुछ जवाब नहीं दिया पर जोर जोर से रोने लगा । वृद्ध - आप समझ गये कि वास्तव में आज इसकी वेदना बढ़ गई मालूम होती है । इसी कारण कहा कि भाई तुम जानते हो और व्याख्यान में भी हमेशा सुनते हो कि दुःख एवं सुख कर्मानुसार होता है, और जब वे उदय भावमें आते हैं तब भोगने ही पड़ते हैं। फिर भी दुःख हो या सुख हो वह सदैव नहीं रहता है। कहा है कि " वह भी गुजर गया तो यह भी गुजर आयगा” अतः इस समय रोने की जरूरत नहीं पर परमेश्वर एवं नवकार मंत्र का ध्यान करना चाहिये इत्यादि, वृद्धने धैर्य्य दिलाया । युवक – मुताजी ! मैं इस बात को ठीक तौर पर जानता हूँ कि दुःखं सुख पूर्व संचित कर्मों का ही फल है, पर क्या करूँ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान वेदना इतनी असह्य हो गई है कि जिसको मैं सहन नहीं कर सकता हूँ । अतः रोने के अलावा और कोई उपाय ही नहीं है, यदि आप कृपा कर मुझे कुछ सुनावें तो अच्छा है । वृद्ध - अनाथी मुनि की सज्झाय अर्थात् कवितामय जीवन खूब राग रागनी से गा कर सुनाया और साथ में थोड़ा थोड़ा अर्थ भी कह कर समझाया । ނ ୧ युवक – मुनि श्रनाथी के जीवन को ध्यान लगा कर सुना और उस पर विचार किया कि संसार एवं माता, पिता, भाई, स्त्री आदि कुटुम्ब सब स्वार्थ का है, जिनके लिए हम संसार में रह कर कर्मबन्धन करते हैं, पर जब कर्म भोगने का समय आवेगा तब अकेले को ही भोगना पड़ेगा, जैसे कि मैं आज भोग रहा हूँ इससे तो बेहतर है कि इस संसार को त्याग कर आत्म कल्याण में लग जाना । इस प्रकार के दुःख में भी आपकी भावना यहां तक बढ़ गई कि उन वृद्ध के सामने प्रतिज्ञा कर ली कि अगर मैं इस वेदना से मुक्त हो जाऊँ तो संसार का त्याग कर दीक्षा ग्रहण कर लूँगा, जैसे अनाथी मुनिराज ने की थी । वृद्ध - भाई, प्रतिज्ञा सोच विचार के ही करना, कारण दुःख गर्भित वैराग्य थोड़े ही समय रहता है । युवक – नहीं २ मुताजी, मैं केवल दुःख के मारे ही प्रतिज्ञा नहीं करता हूँ, पर मैं संसार के स्वरूप को जान कर ही प्रतिज्ञा कर रहा हूँ और दुःख जाने पर इस प्रतिज्ञा का शीघ्र ही पालन करूँगा । - वृद्ध- - अच्छा भाई एक बात मेरी भो स्मरण में रखना और वह यह है कि यदि आप दीक्षा लें और बाद में कभी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य का कारण मेरा भी इरादा हो जाय तो मुझे भी आप दीक्षा देकर मेरे कल्याण में सहायक बनना । - युवक-आप मेरे परमोपकारी हैं, अतः मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी कृपा से यदि पहिले मुझे दीक्षा आ जाय, और बाद में आप दीक्षा लेंगे तो मैं दीक्षा देने में जरूर सहायक बनूंगा। मुनि अनाथी की करिता ने तो एक खास डाक्टर का काम कर बतलाया, युवक की वेदना वैराग्य में परिणत हो गई । कुछ देर तक ठहर कर वृद्ध ने कहा कि अब मैं जाता हूँ, तुम अपने चित्त में शान्ति रखना। युवक-ठीक मुताजी, समय मिले तो सुबह और पधारना । वृद्ध के जाने के बाद अनाथीमुनि तो मानो युवक का ध्येय ही बन गया और पल पल में वही बात याद आने लगी कि कब मेरी वेदना जावे और कब मैं दीक्षा ग्रहण करूँ । माता, पिता, भाई, स्त्री आदि संसार से आपको इतनी त्रास आ गई कि वे सब स्वार्थी दिखने लग गये । फिर भी आश्चर्य तो इस बात का था कि उस समय युवक की उम्र केवल २१ वर्ष की थी, जिसमें भी आपके विवाह को मात्र चार वर्ष ही हुए थे। इस हालत में बीमारी का कारण पा कर दीक्षा का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह एक बड़े ही आश्चर्य की बात है। खैर उपादान सुधरा हुआ हो तो कारण भी मिल जाता है। : . यद्यपि आपकी वेदना अभी कम नहीं हुई थी पर परिणामों की धारा में इतना परिवर्तन हो गया कि उस वेदना को भूल कर दीक्षा के अनेक पुल बांधने में शेष रात्रि व्यतीत कर दो। इतना Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादर्श-ज्ञान ही क्यों पर भगवान भास्कर ने अपनी तेजस्वी किरणों का प्रकाश चारों ओर डाल दिया जिसकी भी आप को खबर नहीं पड़ी। युवक के मकान पर एक वृद्ध ब्राह्मण भिक्षा के लिए श्रा निकला। ब्राह्मण-आशीर्वाद सेठ साहब ! इतना दिन आ जाने पर भी आप चारपाई पर लेट रहे हैं, तो क्या आपके शरीर में कोई दर्द तो नहीं है न ? युवक-युवक ने उठ कर अपना पैर दिखाया और कहा कि महाराज मेरी जांघ में एक फोड़ा हुआ है इसका बहुत दर्द है। ब्राह्मण--इसको कितने दिन हुए और इसके लिए आपने क्या इलाज किया ? युवक-पन्द्रह दिन हुए तथा इसके लिए मैंने बहुत इलाज किया, अभी तक आराम नहीं है, इतना ही क्यों पर चार पांच दिन से तो और भी वेदना बढ़ गई है, जिसमें आज की रात्रि तो मैंने बहुत मुश्किल से निकाली है। यदि आप कुछ इलाज जानते हों तो कृपा कर बतलाइये ? ब्राह्मण-सेठजी ! होना न होना तो ईश्वर की मर्जी पर है पर मैं एक ऐसी दवाई आपको बतलाता हूँ कि जिसमें आपको एक पाई तक भी खर्च न हो और मिन्टों में दर्द चला जाय । युवक-फिर तो चाहिये ही क्या कृपा कर जल्दी बतलाइये ? ब्राह्मण-आपके पास कोई आदमी नहीं है जो मैं बतलाऊँ, वह दवाई लाकर उसको पीसकर पट्टी तैयार कर दर्द पर बांध दे । युवक-इस समय आदमी तो मेरे पास कोई नहीं है । ब्राह्मण-क्या भापके घर में आप अकेले ही हैं ? Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य का कारण युवक-नहीं, मेरे माता, पिता, भाई, स्त्री वगैरह सब हैं । ब्राह्मण-तो फिर इस प्रकार की तकलीफ में आप के पास कोई नहीं, इसका क्या कारण है ? युवक-महाराज मैं मेरी आदत से लाचार हूँ। ब्राह्मण-मैं उस आदत को जानना चाहता हूँ ? युवक-मेरी जवानी उम्र है, मेरी संगति भी ऐसे पुरुषों से है जिससे ऐशआराम में अधिक द्रव्य खर्च कर दिया जाता है। यह बात मेरे पिताजी को पसंद नहीं है जो कि पुराने सिद्धान्तों को मानने वाले व सादी चाल चलने वाले हैं । यद्यपि मैं व्यापारादि में द्रव्य उपार्जन भी काफी कर लेता हूँ तथापि खर्च करना उन्हें अच्छा नहीं लगता है, यही कारण है कि उन्होंने मुझे अलग कर दिया है। . . ब्राह्मण-आपकी स्त्री तो आपके पास ही रहती होगी, वह भी क्यों नहीं दिखती है ? ____ युवक-वे अपने पीहर जो यहां से दश कोश के फासले पर सेलावस ग्राम है वहां गये हैं। ___ ब्राह्मण-खैर, सेठजी आपके पास कोई आदमी नहीं है तो मैं दवाई तैयार कर देता हूँ। बज, ब्राह्मण देवता ने पास ही में स्थित एक गूंदी के झाड़ के पत्ते तोड़ कर ले आये और कापरड़ाजी का मूरड़ (मिट्टी), बस इन दोनों को खूब पीस कर करीब एक सेर भर का पिंड बना कर फोड़े पर कस कर बांध दिया, बाद ब्राह्मण ने जाने की इजाजत मांगी। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान युवक-महाराज ! अब आप भिक्षा को न जाना, मैं आपको सन्तुष्ट कर दूंगा, आप भोजन कर यहाँ पधार जाना । ब्राह्मण-सेठजी मैं चार बजे वापिस आकर संभाल लगा आप विश्वास रखें आपका दर्द मिट जायगा। . युवक-ठीक देवता, श्राप जल्दी पधारना । ब्राह्मण तो चला गया, पट्टी ने इतना असर किया कि उसके बांधने से फोड़ा फूट गया और उसके अन्दर से पीप आने लगी। जब चार बजे ब्राह्मण देवता आया, और पट्टी खोलो तो उसके अन्दर से करीब एक सेर बिगड़ा हुआ रक्त (राद) निकल आया। विप्रदेव ने एक पट्टी और बना कर बांध दी । युवक को रात्रि में ठीक निद्रा श्रागई, सुबह पट्टी खोली तो दर्द बिल्कुल जाता रहा । विप्रदेव ने इसके बाद रूई, हल्दी और तेल की पट्टी बांध दी जिससे थोड़े ही दिनों में घाव भर गया, और चार पांच दिनों में तो युवक आनन्द से हिलने फिरने लग गया, इस हालत में युवक ने विप्रदेव को अन्न वस्त्र और नकद द्रव्य देकर खूब ही संतुष्ट किया। नवयुवक महाशय अब बिल्कुल आरोग्य व तन्दुरुस्त हो गये, किन्तु दुःख में की हुई प्रतिज्ञा और मुनिअनाथी की सज्झाय को एक क्षण भर भी नहीं भूला, आपको वैराग्य का रंग दिन दुगुना और रात चौगुना बढ़ता ही गया; यही कारण है कि जिस कमरे (मकान) में कांच, तस्वीर इत्यादि की सजावट थीं उमी कमरे में धार्मिक पुस्तकें और कई नक्शे लगाये गये थे, जिस कमरे में पलंग, गद्दी, तकिये रखे हुये थे उस स्थान में काष्ट के पाटे, ऊन के संस्तारिये और आसन रखे जाने लगे, जिस Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंश परिचय मकान में खाने पीने के विविध पक्वान और माल मिष्ठान्न होते थे, आज वहां रूखे सूखे टुकड़े और उपवासादि व्रत होने लग गये हैं, जिस मकान में रंग, राग और खेल खिलवाड़ होते थे आज वहां लम्बे लम्बे शब्दों से भक्ति एवं वैराग्यमय पद गाये जा रहे हैं । जिस स्थान पर भोगियों की भोग सामग्री दृष्टि गोचर होती थी वहीं आज योगियों की योग सामग्री एकत्र की जा रही है। जहां राग, द्वेष और पर-निन्दा आदि कर्म बन्ध करने वाली गप्पें मारी जाती थी वहां आज सामायिक पौषध प्रतिक्रमण और धर्मचर्चाहो रही है। इतना ही क्यों पर नवयुवक ने तो अपनी वैराग्य की धुन में धीरे धीरे दीक्षा के योग्य वस्त्र पात्र औघा वगैरह सब उपकरणों को मंगवा कर संग्रह कर लिया और दीक्षा के लिए चैत बदी ८ का शुभ मुहुर्त भी निश्चय कर लिया। अहा ! क्या ही सुन्दर कथन है कि वैराग्य का जन्म ही राग से होता है, अर्थात् वैराग्य का कारण ही राग है । २-वंश परिचय इतिहास के अनुसंधान से इस बात का स्पष्ट निर्णय हो चुका है कि वीरात् ७० वर्षे प्राचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेश नगर में पधार कर सूर्यवंशी राजाउत्पलदेव, चंद्रवंशी मन्त्री उहड़ और लाखों क्षत्रियों की मंत्रों द्वारा शुद्धि की, और जैन धर्म में दीक्षित कर उन सबका "महाजन वंश" स्थापन किया था। . Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान महाराजा उत्पलदेव जैसे उपकेशपुर के शासन कर्ता राजा थे, वैसे ही आपकी संतान भी कई पुश्त तक उपकेशपुर तथा अन्य स्थानों पर राज्य करती रही, और उन्होंने धर्म के लिये भी ऐसे सुन्दर एवं चोखे और अनोखे कार्य किये जिनसे कि उनका अमर यश और धवलकीर्ति आज भी इतिहास के पृष्ठों पर गर्जना कर रही है। आचार्य देवोंने अपनी शुद्धि की मशीन से उन आचार पतित क्षत्रियादिकों कों वासक्षेप के विधि विधान से शुद्ध बना कर 'महाजनवंश' की यहां तक वृद्धि की कि शुरू में जो लाखों की संख्या थी वह करोड़ों तक पहुँच गई और वे लोग इस प्रकार के प्रतापी हुए थे कि उनके नाम और कार्य से उस महाजन संघ के कई गौत्र बन गये जिसमें अठारह गौत्र मुख्य थे। ____उन अठारह गौत्रों में सर्व श्रेष्ठ राजा उत्पलदेव की सन्तान थी, जिनका गौत्र श्रेष्ठिगौत्र कहलाया। इल गौत्र में इतने दानी, मानी, उदार और वीर पुरुष हुए थे कि जिनका इतिहास लिखा जाय तो एक महाभारत सा ग्रंथ बन जाय । जैसे वे लोग राजनीति और समाज के कार्यों में नाम कमाया करते थे, इसी प्रकार धार्मिक कार्य में भी वे लोग अग्रभाग लेते थे। नये मन्दिर बनाना, प्रतिष्ठा करवानी, संघ निकाल कर तीर्थ यात्रा करनी, और साधर्मी भाइयों को सहायता पहुँचा कर वात्सल्यता करना तो उनको साधारण क्रिया ही बन गई थी। इतना ही क्यों पर इस गौत्र के आत्म वीरों ने लाखों करोड़ों की सम्पत्ति छोड़ कर स्वपर कल्याणार्थ दीक्षा भी ली थी, जिसमें कई महापुरुषों ने तो आवार्य पद प्राप्त कर गच्छ का भार उठा कर गच्छ एवं Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासक्षेप के विधि विधान से जैन क्षत्रियों का महाजन संघ स्थापित कर रहे हैं । * WIKI HD.CAMALA → चन्द्रवंशी मंत्री ऊइडादि सवालक्ष क्षत्रियों की शुद्धि कर आदर्श-ज्ञान उपकेशपुर नगर में वीर संवत् ७० वे वर्ष में आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज ने सूर्यवंशी राजा उत्पलदेव Page #87 --------------------------------------------------------------------------  Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंश परिचय शासन की बड़ी भारी उन्नति की थी। पट्टावल्यादि ग्रन्थ से पाया जाता है कि प्रभु पार्श्वनाथ की पाट परपराम्पार में-१४वें पाट देवगुप्त सूरि जाति से श्रेष्ठि गौत्र के वीर थे। २१ वें पाट रत्नप्रभसूरि जाति के श्रेष्ठि गौत्रीय थे । २५ वें पाट सिद्धसूरि " " " " " " । २९ वें पाट कक्कसूरि , , , , , ,। ३६ वें पाट कक्कसूरि , " " " " " । ३७ वें पाट देवगुप्त सूर , , , , , ,। ४४ वें पाट सिद्धसूरि " " " " " । इनके अलावा श्रेष्ठि गौत्रीय अनेक दानवीर नर रत्नोंने लाखों, करोड़ों द्रव्य व्यय कर के आचार्यों के पद महोत्सव किए, बड़े बड़े संघ निका न कर तीर्थयात्रा की, कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई और दुष्कालादि के समय असंख्य द्रव्य खर्चकर साधर्मी एवं देश वासियों को सहायता कर उनके प्राण बचाये । इसी श्रेष्ठि गौत्र में विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में स्वनामधन्य मेहताजी लालचन्दजी साहिब नामके प्रख्यात पुरुष हुए, आप पर जैसे गुरु देव की कृपा थी वसे ही सच्चाविका देवी की भी मेहरबानी थी अर्थात् आप बड़े ही इष्ट बली थे । आपकी शादी चित्तौड़ के दीवान सारंगशाह चोरड़िया के यहां हुई थी। एक समय आपका पधारना चित्तौड़ हुआ; महाराणीजी के नेत्रों की असह्य वेदना आपके इलाज से शान्त हुई । महाराणा ने प्रसन्न होकर आप को वैद्यपदवी के साथ बारह प्राम इनाम में दिये, जबसे भापकी सन्तान वैद्य मेहता कहलाई। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान ____ कई वंशावलियों में वद्य पदवी प्राप्त करने वाले मेहताजी लालचन्दजी साहिब का समय विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी का लिखा मिलता है; तदनुसार कई लेखकों ने अपनी पुस्तकों में भी वही समय छपवा दिया है; परन्तु विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के लिखे ग्रन्थों से पाया जाता है कि श्रेष्ठि गोत्र वालों को वैद्य पदवी विक्रम संवत् १३९३ के पूर्व ही मिल चूकी थी, जैसेकि उपकेश गच्छचरित्र में निम्न लिखित प्रमाण मिलता है:"यो वैद्यशाखा व्रतति वसन्तः; सदा मुदा स्वइच्छ मनः स्वभावः । यस्य प्रसादेन मनीषि तेन, __सकर्मणः संघपतिर्बभूवः । ५६० । वि. सं. १३९३ के लिखे उपकेश गच्छ चरित्र से । इस श्लोक से पाया जाता है कि सं० १३९३ के पूर्व वैद्य मेहतों में कई संघपति हो चुके जिनका वणन उपकेश गच्छ पट्टावली में विस्तार से मिलता है । __ कई वंशावलियों में वैद्य पदवी प्राप्त करने वाले स्वनाम धन्य श्रीमान लालचन्दजी साहिब का समय वि. सं. १२०१ का होना वतलाया है। चाणोद के कुलगुरु के पास श्रेष्टिगौत्र एवं वैद्य मेहता शाखा की वंशावली है, जिसमें भी वैद्य पदवी प्राप्त करने वाले लालचन्दजी साहिब का समय वि० सं. १२०१ का ही बतलाया है, इतना ही क्यों पर उस वंशावली की बहियों में तो श्रीमान् लालचन्दजी साहिब से जोरावरसिंहजी साहिब तक का खुर्शी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंश परिचय नामा बड़े ही विस्तार से लिखा है, जिसकी एक नकल मैंने भी उतार ली थी, उसमें से यहां पर केवल नामावली ही देता हूँ:(१) लालोः-वि. सं. ११६९ में ओसियाँ से गढ़ शिवाणे आया, ११८१ में श्री शत्रुजय का संघ निकाल संघने सोना मोहरों की पहरामणी दी आप को १२०१में चित्तौड़ के महाराणा ने वैद्य पदवी प्रदान की थी। (२) मांमणः (३) जैतसी:-गढ़ शिवाने में महावीर का मन्दिर बनाया। (४) धरमसी:-आपके पुत्र नागदेव ने आचार्य देवगुप्तसूहि . | के पास दीक्षा ली। (५) सुलतानसिंहः-सर्व तीर्थों की यात्रा की, जिसमें एक | करोड़ द्रव्य व्यय किया। (६) कुशलसिंह-गढ़ शिवाने में पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाया । (७) भूपतसिंहः-आचार्य सिद्ध सूरि के उपदेश से भूपतिसिंह के | पुत्र रामा ने आचार्य श्री के पास दीक्षा ली थी। (८) मोहनसिंहः (९) काल्हणसिंहः (१०)जगतसिंहः-शिखरजी की यात्रार्थ संघ निकाल कर | पूर्व के सर्व तीर्थों की यात्राकी, उद्यापनादि Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान | धर्म कार्यों में एक करोड़ द्रव्य व्यय किया। (११) हिम्मतसिंहः-आपके चार पुत्रों ने श्राचार्य देवगुप्तसूरि के | पास दीक्षा ली। (१२) लालसिंहः-आप बड़े ही वर योद्धा थे, (१४९५) पठानों | की सेना से युद्ध कर विजय प्राप्त की । आप की जागीरी में ८ ग्राम थे। (१३) सहसकरण : (१४) दलपतसिंह (१५) त्रिभुवनसिंह--आप बड़े ही नामी पुरुष हुए,आप जैसे वीर थे वैसे ही उदार भी थे । दुष्काल में लाखों करोड़ों रुपये का अन्न प्रदान करके देश वासियों के प्राण बचाये थे, और भी अनेक शुभ कार्य कर पुन्योपार्जन किया। (१६) सवाईसिंहः-आप भी बड़े वीर थे। (१७) ठाकुरसिंहः-आपने मुग़लों की फौज के साथ वीरता | पूर्वक युद्ध किया था। (१८) मुकनसिंहः-१६१७ शिवाना से खेरवे गये, आपके दो पुत्र और एक पुत्री ने आचार्य कक्कसूरि के पास दीक्षा ली जिसमें तीन लाख रुपये महोत्सव के निमित्त खर्च किये। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंश परिचय (१९) रत्नसिंहः (२०) रूपणसिंहः-आपने शत्रुजय का विराट संघ निकाला। (२१) जोरावरसिंहः-१६७१ में खेरवा से बनाड़ (बैनापुर) गये, आपके १० पुत्र ७ पुत्रियें और विशाल परिवार था, राज्य की खटपट से खेरवा का त्याग कर दिया, पीछे मनाने को आये तो आप न जा कर अपने एक पुत्र गोपालसिंह को खेरवे भेज दिया था। (२२) राजसिंह-बड़े वीर योद्धा थे । (२३) जैत्रसिंहः-शत्रुजय का संघ निकाला । यात्रा कर लेन | (प्रभावना ) दी जिसमें १३ लक्ष रुपये खर्च 1 किये। (२४) रामसिंहः-देवगुप्त सूरि का पाट महोत्सव किया । (९५) गजसिंहः-आपके पुत्र रघुवीरसिंह आचार्य देवगुप्र सूरि | . के पास दीक्षा लेकर आचार्य हुए । (२६) बोरीदासः-इनको चित्राबेल मिली थी, श्राचार्य श्री देवगुप्त .. । सूरी के शासन काल में बहुत द्रव्य व्यय किया, I बनाड़ में श्री पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया। (२७) मारमः-धीर संग्राम में काम आये, आपको स्मृति के Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान लिये वहाँ छत्री बनाई व उनकी याद में | चैत्र कृष्णा १४ का मेला भरता था। (२८) जीतमलः-आपका चोत्ताल में बड़ा ही मान था। (२९) भूरमलः-बड़े ही मुत्शदी थे। (३०) नवलमलः-बनाड़ से बीसलपुर आये (१९४० वर्ष) - घेवरचन्द गणेशमल हस्तीमल बस्तीमल मीश्रीमल गजमल (हमारे चरित्र नायकजी) माणकचन्द मोतीचन्द जौहरचन्द . ३-जन्मल जोधपुर के पूर्व में ६ मील पर बनाड़ नामक छोटा सा कस्बा है । इसको बैन प्रतिहार ने विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में आबाद किया था, क्रमशः इसने एक खासा नगर का रूप धारण कर लिया था, कहा भी है किः __नव नांदड़ा बारह जाजीवालो, जिण बिच बड़ा बनाई" । __अर्थात् नौ नांदड़ा प्राम और बारह जाजीवालो एवं २१ ग्रामों के बीच में बनाड़ा बड़ा शहर था। .. "सौ कुवां, सवासो बाव, पग पग पाणी सात तलाब"। , Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ जन्म इन कहावतों से भी यही सिद्ध होता है कि पूर्व जमाने में बनाड़ एक बड़ा शहर था । शायद जोधपुर बसने के बाद ही इस नगर ने ग्राम का रूप धारण किया हो । वि. सं. १६७१ में मेहताजी जोरावर सिंहजी ने खेरवा से आकर बनाड़ को आपका निवास स्थान बनाया, उस समय बनाड़ में केवल महाजनों के ५०० घर अच्छे आबाद थे । बनाड़ एक व्यापार का केन्द्र था । बालदियों के बालदों और ऊँटों की कतारों द्वारा यहां लाखों रुपयों का माल आता जाता था । यही कारण था कि वहां के व्यापारी महाजन तन धन से बढ़े ही समृद्धिशाली थे । ऊपर बतलाया गया है कि - मुत्ताजी जीतमलजी साहब के तीन पुत्र थे - ( १ ) भूरमलजी, ( २ ) जोधराजजी, (३) मुलतानमलजी यहां तक तो आपका पेशा राज्य कर्मचारीत्व का ही था। आपके वंश परम्परासे ही दीवान बक्सी हाकिमादिपद पर काम करते आये थे, परन्तु मुताजी ने भविष्य को सोच कर तीनों पुत्रों को पृथक् २ कार्य्य में नियुक्त कर दिये, जैसे कि - (१) भूरमलजी को राजकर्मचारीपन का कार्य्यं । ( २ ) जोधराजजी को जागीरदारों के लेन देन और व्या पार के कार्य में । (३) मुलतानमलजी को दिशावर में दुकान करनेकी आज्ञादी, जिन्होंने नासिक परगने के कौचर ग्राम में जाकर दुकान करदी | इस प्रकार तीनों भाइयों के अलग २ काम होने पर भी श्रायव्यय का हिसाब शामिल ही था । क्योंकि उन तीनों भ्राताओं में अच्छा प्रेम स्नेह था । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान मुताजी भूरमलजी के एक पुत्र नवलमलजी और एक शृंगार बाई पुत्री थे । नवलमलजी का विवाह बीसलपुर के प्रसिद्ध नागरिक श्रीमान् प्रयागदासजी चोरडिया की सुपुत्री रूपादेवी के साथ वि. सं. १९३३ माघ शुक्ला ५ को बड़े ही समारोह से हुआ तथा श्रृंगारबाई का विवाह जोधपुर के मुनौयत पृथ्वीराजजी साहिब के साथ बड़े ही ठाठ से कर दिया था । अतः अपका सब कुटम्ब सुखी था । ____ जोधराजजी साहब के एक पुत्र जीवणचंदजी और दो पुत्रियाँ थी। जिसमें जीवणचन्दजी का विवाह नांदड़े हुआ, और आसीबाई का विवाह जोधपुर के डोसी भागचन्दजी के साथ तथा दूसरी बीरजुधाई का सुरपुरा के जांघड़ा धनराजजी के साथ लग्न कर दिया। मुलतानमलजी साहब के एक पुत्र उदयचन्दजी और एक पुत्री केसरबाई थे, जिसमें उदयचंदजी का विवाह बीसलपुर के शाह फकीरचंदजी सुराणा की पुत्री के साथ हुआ, और केसर बाई का विवाह जसपाली के श्री० केसरीमलजी के साथ कर दिया। मुत्ताजी नवलमलजी का विवाह बीसलपुर के प्रसिद्ध चोरडिया प्रायगदासजी की सुपुत्री रूपादेवीजी के साथ हुआ था। जो ऊपर वतलाया जा चूका है। श्रीमान् प्रयागदासजी साहिब बीसलपुर में एक अच्छे प्रििष्ठत धनाढ्य और व्यापार में अग्रगण्य नागरिक थे पर रूपादेवी के अलावा आपके कोई भी सन्तान नहीं थी, अतएव आपकी जीवन आधार केवल रूपादेवी ही थी। रूपादेवी का विवाह सम्पन्न हुये तीन वर्ष व्यतीत हो गये। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ आपका दम्पत्ति-जीवन बड़ा ही सुख और शान्तिमय व्यतीत होता था। एक समय का जिक्र है कि आप अपने पतिदेव की शैय्यामें आनन्द में सो रही थी, मध्यगत्रि में आपने स्वप्न में एक प्रधान हस्ती देखा बाद में जागृत हुई श्रीर स्वप्नको ज्यों का त्यों याद किया तो मारे हर्ष के सब शरीर फूल उठा। ___रूपादेवीजी ने अपने पतिदेव को जगाकर स्वप्न की सब बात कही तो मुताजी परमानन्द को प्राप्त हो मधुर बचनों से अपनी धर्म पत्नी से कहने लगे कि, हे देवी ! आपके चिरकालके मनोरथ सिद्ध हो गये क्योंकि अपने कुल में एक भाग्यशाली पुत्रान जन्म लेगा। इत्यादि । इस संवाद को सुनकर रूपादेवी को विशेष आनन्द हुआ। रूपादेवी नियमानुसार गर्भ का पालन करने लगी इधर मुत्ताजी के घर में चारों ओर से लाभ का समुद्र उमड़ पाया। गर्भ के प्रभाव से देवीजी को अच्छे अच्छे दोहले ( मनोरथ ) पाते थे जिनको मुताजी ने सहर्ष पूर्ण किये। ____वि. सं. १९३७ की विजयदशमी की रात्रि को मध्य भाग में महादेवी रूपादे ने एक पुत्र रत्नको जन्म दिया। यह समाचार सुनते ही अखिल कुटुम्ब के अन्दर हर्ष की बरसात होने लगी। जब बीसलपुर से यह शुभ समाचार मुताजी के वहाँ बनाड़ पहुँचा तो हर्ष का कोई पार नहीं रहा। कहा भी है कि"रण जीतन तोरण बंधन, पुत्र जन्म उत्साह । तीनों अवसर दान के, कौन रंक कौन राव" । चारों ओर मंगल गीत गायन होने लगे, याचकों को दान तथा जैन मन्दिरों में स्नात्र पूजा पढ़ाई जाने लगी। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ज्योतिष शास्त्र के जानकार पंडितों ने आपके जन्म समय को लेकर जन्म-पत्रिका बनाई जिसमें राज्य योग होना भी बतलाया था। जन्म, चन्द्र सूर्य दर्शन, रात्रि जागरण और एकादशवें दिन सूतक कर्म कर बारहवें दिन बड़े ही महोत्सव के साथ दान स्नान भोजनादि से सबका सम्मान करके स्वप्नानुसार आपका नाम 'गयवरचन्द' रखा। जबसे आपने अपने घरमें जन्म लिया सब कुटुम्बवाले विशेष सुख शान्ति अनुभव करने लगे। आपकी बाल क्रीड़ा से सबका चित्त प्रसन्न था, आपकी तोतली बाणी सबको मनोरंजन एवं कर्णप्रिय लगती थी। बाल्यावस्था से ही आप सर्व प्रिय थे, आपका नियमय सरल व्यवहार सबको रुचिकारक था। ___ मूताजी नवलमलजी साहब कई सुविधाओं के कारण वि० सं० १९४० में बनाड़ को छोड़ बीसलपुर आकर अपना निवास स्थान बनाया, इसी वर्ष आपको दूसरे पुत्र का लाभ हुआ अर्थात् वि० सं० १९४० के भादवा मास में शुक्ल पक्ष की ११ को रूपादेवी ने दूसरे पुत्र को जन्म दिया, और खूब आनन्द पूर्वक दूसरे पुत्र का नाम गणेशमल रखा । मुत्ताजी के दोनों पुत्र जय विजय की तरह वृद्धि पाते रहे और आप सकुटुम्ब बड़े हो अानन्द में संसार निर्गमन कर रहे थे, पर इस कलिकाल के ईर्षा का भी पार नहीं है। इस दुःखमयआरे में सर्वसुखी जोवन कुदरत से देखा नहीं गया, उसकी एक क्रूर दृष्टि मुताजी के खान-दान की ओर पड़ी। दो पुत्रों की सौभाग्यवती माता रूपादेवीजी के शरीर में साधारण सी बीमारी हुई, उसके इलाज Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ के लिये बहुत प्रयत्न किया पर बीमारी ने भयंकर रूप धारण कर इस प्रकार आक्रमण किया कि वि० सं० १९४६ के चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की ८ के दिन रूपादेवी को इस संसार से विदा लेनी पड़ी । मूताजी की ३५ वर्ष की युवक अवस्था जिसमें भी दो छोटे बच्चों का पालन पोषण करना, मानो एक बड़ी भारी आफत भा पड़ी। फिर भी मुताजी कर्म सिद्धान्त के अच्छे ज्ञाता होने से हतोत्साही न होकर हिम्मत रखी और थोड़े ही दिनों में आपका दूसरा विवाह ग्राम सांगरिया में शाह जोरावरमलजी संखलेचा की सुपुत्री तीजाबाई के साथ हो गया। मुताजी के दूसरा विवाह कर लेने के बाद क्रमशः हस्तीमल, बस्तीमल तथा मिश्रीमल, गजराज आदि चार पुत्र और एक पुत्री का लाभ हुआ, जिसमें गजराज तथा यत्न कुंवरी का तो शिशु अवस्था में ही देहान्त हो गया । तथा गयवरचन्द, गणेशमल, हस्तीमल, बस्तीमल और मिश्रीमल आपके अन्त समय तक सेवा में विद्यमान थे । प्रसंगोपात इतना कहकर अब हम हमारे मूल विषय पर आते हैं कि हमारे चरित्र नायकजी शिशु अवस्था को इस प्रकार बिता रहे थे, जिसकी चमत्कार पूर्ण अनेक ऐसी घटनाएँ हैं जो आपके भविष्य की भाग्य रेखा का सहज ही में परिचय करा रही थी, जैसे आपके घर में साधु आर्या गोचरी आते थे तो आप उनके पात्र जबरन ले लेते थे । आपके मातु श्री जब व्याख्यान सुनने को पधारती तब श्राप भी साथ जाया करते थे । बचपन में ही श्रापकी बुद्धि इतनी शीघ्र गामिनी थी कि व्याख्यान में दृष्टान्तादि सुनते वे मकान पर आने के बाद ज्यों के त्यों सुना देते थे । जन्म Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २० कभी कभी तो आप स्वयं पाट पर बैठ के अपने कुटम्बियों को व्याख्यान की नकल करते हुए कुछ न कुछ सुनाया करते थे। कभी कभी तो अपनी उम्र के बालकों में आप साधु बन उन्हों को उपदेश भी दिया करते थे इत्यादि अनेक चेष्टाएँ तो आप बाल्यावस्था में ही किया करते थे । जैसे श्राप धर्म सम्बन्धी कार्यों में बालभाव व्यतीत करते थे वैसे ही सांसारिक कार्य में भी अनेक प्रकार की घटनाएँ किया करते थे। जब आप शिश्ववस्था से कुछ आगे बढ़े तो शिक्षा के हित विद्यालय में प्रविष्ट हुए, वहां पर भी आप सहपाठियों से सदैव आगे ही रहते थे । आपने अल्प समय में आवश्यक एवं आशातीत शिक्षा ग्रहण कर लो । जब आपने आवश्यक विद्या प्राप्त कर ली तब पढ़ाई छोड़ कर व्यापार क्षेत्र में पदार्पण किया, यहां भी आप बड़े ही कुशल निकले । व्यापार के व्यवहार में आपकी हिम्मत और ठौती बड़ी अनुकरणीय थी, जिस कार्य को श्राप प्रारंभ करते उसको बड़े ही उत्साह से अन्त में सफलता प्राप्त कर के ही छोड़ते थे, अतः यह एक आपकी स्वाभाविक आदत सी हो गई। केवल विद्या और व्यापार ही नहीं पर बाल्यावस्था से सत्संग करने का भी आपको बड़ा भारी शौक था । कोई भी साधु संत एवं उपदेशक-सुधारक ग्राम में आते तो आप उनसे अवश्य मिलते एवं योग्य सत्कार किया करते थे । पूर्वजन्म के संस्कारों की प्रेरणा से बचपन से ही धर्म की ओर आपकी अभिरुचि थी, आपके निवासस्थान-बीसलपुर में प्रायः स्थानकवासी साधुओं का ही विशेष सागमन था, आप उनके परमोपासक थे, यही कारण था कि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ जन्म - आप अपनी छोटी उम्र में सामायिक प्रतिक्रमण, स्तवन, समाएँ और कई शास्त्रीय बोलचाल (थोकड़ा) कण्ठस्थ कर लिये थे। इस समय आपकी उम्र केवल १४ वर्ष की थी, पर मुताजी के सिर का भार आपने बिल्कुल हल्का कर दिया था, अर्थात् दूकान का व्यापार खरीदी तथा नावा-जमाखर्च अर्थात रोकड़ रोजनामा का कार्य आपने संभाल लिया था। - जब आपने तारुण्यावस्था में पदार्पण किया तो आपके विवाह के लिये अनेक स्थानों से प्रस्ताव आने लगे पर मुताजी ने पहले से ही निश्चय कर रखा था कि गयवरचंद की जब तक १८ वर्ष की उम्र न हो वहां तक विवाह का कार्य स्वीकार नहीं करना, पर कुटुम्ब वालों की आतुरता भी तो मुताजी के सामने मौजूद थी. और वे मुताजी को हर प्रकार से तंग कर रहे थे । - - ५-विवाह जब हमारे चरित्र नायकजी सत्रहवें वर्ष में पदापर्ण करते हैं तो उधर विवाह सम्बन्ध के लिए प्रस्तावों की भरमार मुताजी को खूब ही तंग कर देती है। आखिरकार मुताजी को अपने निश्चय को एक किनारे रख श्रीमन् भानुरामजी बागरेचा सेलावसवालों की सुयोग्य कन्या राजकुंवर के साथ गयवरचंद का सम्बन्ध करके वि. सं १९५४ के मंगसर मास के कृष्ण पक्ष की १० को अत्यन्त समारोह के साथ विवाह सम्पन्न करदिया,जैसे हमारे चरित्र Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २२ नायकजी सब कार्य में कुशल थे, वैसे ही श्रापी धर्मपत्नी राजकुंवर बाई भी महिलाओं के अनेक सद्गुणों से विभूषित थीं, और गृहकार्य करने में सर्व प्रकार से दक्ष थीं । यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि जहां दुमाता होती है वहां थोड़ी बहुत खटपट हुआ ही क ती है और इसका मुख्य कारण स्त्री शिक्षा का अभाव है । यह बात पाठक पिछले प्रकरण में पढ़ चुके हैं कि मृताजी की पहली पत्नी रूपादेवी के दो पुत्र और दूसरी पत्नी के तीन पुत्र थे । जब गयवरचंदजी का विवाह हो गया, घर में दो स्त्रिएं हो गई, अब थोड़ी बहुत खटपट न हों तो फिर औरतों का अपठित रहने का फलही क्या हुआ ? दूसरे गयवरचन्दजी जैसे पैदास करने में कुशल थे वैसे जवानी में खर्च भी बहुत किया करते थे, जो पुराने समय के मूताजी की प्रकृति के बिलकुल प्रतिकूल था । अतः मुताजी ने इल गरज से गगवरचंद को घर से कुछ भी न देकर अलग कर दिया कि अब यह इतना खर्च कहां से करेगा, अर्थात् इसकी आंखें खुल जावेंगी और अक्ल दुरुस्त हो जावेगी । फिर भी गयवरचन्द अपने पिताजी का विनयवान सुपुत्र था और अलग होने के समय उसे घर से कुछ भी नहीं दिया, इतना ही क्यों अपितु दोनों के शरीर पर जो जेवर था वह भी माताजी ने उतार लिया यह विचार कर कि कहीं अधिक खर्ची न मिलने पर इस पर तो हाथ न पड़ जावे । गयवरचन्द को ऊँच नीच बहुत से अपने हिस्से का माल बटवा तुम्हारे सहायक हैं, पर हमारे चरित्र नायकजी ने उनको ऐसा मधुर एव मुंह तोड़ उत्तर दिया पर घर भंजक लोगों ने समझाया कि तुम अपने पिता सकते हो और इस बात में हम Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ विवाह कि ऐसा करना हमारे लिए एक बड़ा भारी कलङ्क है, कारण पिताजी ने हमें जन्म देकर बड़ा किया, पढ़ाया, और विवाह कर दिया, अब पितामी की सम्पत्ति पर मेरा कुछ भी अधिकार नहीं है । हां, यदि हम सुपुत्र हैं तो उनकी तन, मन तथा धन से सेवा बंदगी करें, इत्यादि वचन सुन कर वे लोग लज्जित हो गये, जब इन शब्दों को हमारे मूताजी ने सुना तो आप बड़े ही संतुष्ट हुए । हमारे चरित्रनायकजी की व्यापार हटोती वैसे ही सुन्दर थी तथा आप थे भी हिम्मत बहादुर, अतएव अलग होते ही तो आपने किसी के शामिल में व्यापार किया, पर बाद में जब आपके पास थोड़ी बहुत रकम हो गई तो स्वतंत्र अर्थात् अपना निजू व्यापार चलाया जो बड़े २ व्यापारियों की स्पी करने से आगे बढ़ गये । आपका खर्चा जैसा का तैसा ही था, जब १९५४ और ५५ में आपके व्यापार में काफी मुनाफा रहा, तो खर्च काटकर बची हुई रकम भी व्यापार में लगादी। जब १९५६ में एक जबरदस्त एवं-सर्व-प्राण हरण दुष्काल पड़ा उस समय सरकार की ओर से 'धोलेराव' में विशाल तालाब के बांध का काम जाहिर हुआ। गयवरचन्दजी ने अपने कई साथियों के साथ अनाज की एक बड़ी दुकान खोलदी जिससे उसमें आपको अच्छी सफलता मिली । खर्च निकाल कर बची रकम से कुछ जेवर आभूषण भी करा लिये। वि० सं० १९५७ की सालभी आपके लिए बहुत ही श्रेष्ठ रही । इस वर्ष आपको व्यापार में अच्छा मुनाफा हुआ, आप जैसे धनोपार्जन करने में पुरुषार्थी थे वैसे खर्च भी विशेष रखते थे और उस खर्च की वजह से आपका नाम भी चारों और फैल गया था। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २४ श्रापका दम्पत्ति - जीवन इतना तो शान्तिमयं था कि लक्ष्मी भी वहां रहने की इच्छा रखती थी । में आपके एक पुत्र भी हुआ था, पर आयुष्य तत्काल ही शान्त होगया । वि० सं० १९९६ कम होने से वह वि० सं० १९५८ का जिक्र है कि राजकुंवरी के लिए अपने पीहर सालावास से निमन्त्रण के लिए गाड़ी आई थी, पहिले भी दो तीन बार वे लोग प्राचुके थे, पर जाने का अवसर नहीं मिला इसका कारण दम्पत्ति प्रेम ही था कि वे अलग रहना नहीं चाहते थे, खैर । इस समय जाना जरूरी समझकर और बहुत श्राम होने से राजकुंवरी को सालावास जाने की इजाजत दे दी । राजकुंवरी के जाने को करीब एक मास भी सम्पूर्ण नहीं हुआ था कि हमारे चरित्र नायकजी की जंघा में फोड़ा की बीमारी हो गई । पहिले तो यह एक साधारण बीमारी जान पड़ती थी, पर बाद में तो उसने एक महा भयंकर रूप धारण कर लिया । बस, हमारे चरित्रनायकजी को संसार त्याग के लिए मानो उस बीमारी ने एक नोटिस का हो काम किया, जिसको आपने प्रारम्भ में हो पढ़ लिया है। जिसके पात्रः- बीमार थे हमारे चरित्र नायक श्रीमान् गयवरचंदजी | वृद्ध पुरुष थे मूताजी प्रतापमलजी जो आपकी दीक्षा में सहायक थे । ब्राह्मण थे, शिवदानजी जिन्होंने दवा की थी । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ - परिणामों का पलटा ! 1 राजकुँवर ने सेलास में यह संवाद सुना कि पतिदेव तो दीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, बस, यह सुनते ही राजकुँवर के ही क्या सब कुटुम्बियों के होश हवास उड़गये । वे शीघ्र ही गाड़ी लेकर बीसलपुर श्राये, आते ही राजकुँवर ने अपने मकान को एक स्थानक एवं धर्मशाला के रूप में देखा, क्योंकि कांच तस्वीरों का स्थान धार्मिक पुस्तकों ने ग्रहण कर लिया था, तथा पलंग, पथरना, गद्दी, तकिये के स्थान पर काष्ट के तख्ते दीख पड़े । शीतल जल और झारी के बदले धोवन के कुँडे पाये; नित्य नये रसवती भोजन के स्थान पर रूखे-सूखे खाखरे जो आंबिल के काम में ही आते देखे,इतना ही नहीं वरन् राग के स्थान पर वैराग्य देख कर खूब छाती फाड़कर रुदन करने लगी और देने लगी अपने पतिदेव को उपालम्भ | हे नाथ ! आप यह क्या कर रहे हो, मुझ अबला को किस के भरोसे छोड़ रहे हो, मेरा ऐसा कौनसा बड़ा कसूर हुआ है जिससे कि आप मुझे छोड़ने को तैयार हुए हो, जबकि अप मेरे बिना एक क्षण भर भी नहीं ठहर सकते थे; श्राप कुछ सोच विचार कर कार्य करें। मैं आपको हर्गिज भी जाने नहीं दूँगी। मैंने अपनी समझ से आपका ऐसा कोई कसूर नहीं किया है जो कि श्राप मुझे निराधार छोड़ कर जाने की तैयारी कर रहे हैं । प्राणेश्वर ! आपने मुझे बुलाने के लिए गाड़ी भेजी किन्तु मैंने अज्ञानवश यह समझ लिया कि आप मुझे बीमारी के बहाने बुला रहे हैं, मैं एक वर्ष से पीहर गई थी और वहाँ मुझे एक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २६ मासभी पूर्ण नहीं हुआ था, इसलिए मैं नहीं आसकी । यदि मुझे ऐसी बीमारी की खबर होती तो मैं एक क्षण भरभी नहीं रुकती; अतएव मुझ अज्ञानिनी की इस मूर्खता के लिए आप क्षमा करें, और दीक्षा की बात को यहीं पर रोक देवें 1 हे सुशीला ! आपका मोह वश कहना कदाचित् ठीक है, पर इस विश्व में सब माया चञ्चल है, कुटुम्ब सब स्वार्थी है, आयुष्य का क्षणमात्र का भी विश्वास नहीं है । यदि बीमारी के समय ही मेरा देहान्त हो जाता तो आप क्या करतीं; यदि श्रापका मुझसे टल प्रेम है तो आप भी कमर कसकर दीक्षा के लिए तैयार हो जाइये, संसार में जन्म लेना और मरना तो सब जीवों के लिए समान है, पर विशेषता उन महानुभावों की है जिन्होंने कि तप संयम द्वारा अपना कल्याण किया करते और करेंगे, अतएव आयुष्य का पता नहीं है आप भी दीक्षा के लिए तैयार होजाईये । प्राणेश! मैं दीक्षा में कुछ भी नहीं समझती हूँ तथापि प से घनि प्रेम होने के कारण मैं आपके साथ होने को तैयार हूँ । पर मेरे उदर में गर्भ स्थित है इसके लिए क्या होगा ? कुछ नहीं तो जब तक यह संकट न टल आय तब तक तो आप दीक्षा का नाम मुँह से न निकालें क्योंकि जब मैं दीक्षा का नाम सुनती हूँ तो अपनी मृत्यु को ही सामने देखती हूँ । जब हमारे चरित्रनायकजी ने अपनी पत्नी के शब्दों में गर्भ का होना सुना तो आप कुछ विचार में पड़ गये, फिर भी आपने सोचा कि सब जीव कर्माधीन हैं, अतएव जो कुछ भगवान ने ज्ञान से देखा है वही होके रहेगा; किन्तु मैंने जो चैत्र कृष्ण ८ को दीक्षा लेना निश्चय किया है वह तो अवश्य दृढ़ रहेगा । तत्पश्चात Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणामों का पलटा राजकुँवरी को ऐसे धैर्य के बचन कहे कि जिससे उनको थोड़ा बहुत संतोष अवश्य हुआ । दूसरे ही दिन राजकुँवर ने अपने मकान पर श्रोघा पात्रादि साधु के कपड़े और कई सूत्र की प्रतिएँ देखीं तो आपका हृदय और भी घबड़ा गया; तथा आपने वह सब सामान गुप्त रीति से लेजाकर अपने सास-श्वसुर को दिखलाया और सब हाल कह सुनाया । मुताजी ने इतने दिन केवल हँसी की बातों में ही व्यतीत कर दिए थे किन्तु जब ओघा पात्रादि सामग्री देखी तो आपको इस बात पर विश्वास होगया कि गयवरचंद दीक्षा लेना चाहता है । फिर तो मुताजी से कैसे रहा जा सकता था, आपके दिल में बहुत दुःख हुआ और गणेशमल को भेजकर गयवरचंद को अपने पास बुलाया और साम, दाम, दंड, भेद आदि सब तरह के बचनों से खूब समझाया; इस पर आपने इतना ही कहा कि मुझे काल का विश्वास नहीं है, न जाने वह किस अवस्था में आकर भक्षण कर जावेगा, श्रतएव मुझे अपना आत्म कल्याण करने दीजिए । ताजी ने यहाँ तक धमकी दी कि या तो मेरा कहना मान कर तुम घर में रहना स्वीकार करलो अन्यथा मैं राज्य शक्ति द्वा तुम्हारी व तुम्हें दीक्षा लेने में सहायता करने वालोंकी खबर लेऊँगा । गवर बंद के दीक्षा की खबर सेलावास आपके सुसराल तक साधारणतया तो पहिले ही पहुँच गई थी पर जब विशेष समाचार सुने तो वे लोग भी एकत्रित होकर बीसलपुर श्राये और हमारे चरित्र नायकजी को बहुत कुछ कह सुन कर हैरान किया; किन्तु यहाँ हल्दी का रंग न था जो कि सहज में ही उड़जावे; पर यहाँ २७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २८ तो आपको ज्यों २ अधिक तपाया गया त्यों २ आपकी दीक्षा का रंग अधिक रंगित होता गया किन्तु फिर भो जैसे तैसे समय निकलते २ फाल्गुन मास का प्रारम्भ आ पहुँचा । ज्यों ज्यों दीक्षा का मुहूर्त्त नजदीक आता गया त्यों त्यों मुताजी की घबड़ाहट बढ़ती गई आपने कई उपायोंका अवलम्बन किया पर वैराग्य-मस्त गयवरचन्दजी पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ आखिर में मुताजी ने एक दिन गयवरचन्दको एक कोठरी में डाल कर उसके द्वार पर ताला लगादिया - दो रात्रि और एक दिन आप कोठरी में बन्द रहे पर ऐसा करने से आपका वैराग्य शिथिल नहीं पर और भी मजबूत होगया; इस हालत में मुताजी हताश होगये और गवरचन्द को घर में रखने के लिये सरकारी मदद के उपाय सोचने लगे Cam ७ - दीक्षा के नाम पर एक साधु पर व्यर्थक्षेप वि० सं० १९५८ में पूज्य जैमलजी की समुदाय के साधु शोभाचंदजी का चतुर्मास बीसलपुर में हुआ। हमारे चरित्रनायक जी आपके पास सदैव आया जाया करते एवं व्याख्यान भी सुनते थे, पर स्वामिजी श्रावार पालन में शिथिल थे अतः उनकी ओर आपकी रुचि थी। जब आपने अपनी बीमारी में दीक्षा की प्रतिज्ञा की थी, पर दीक्षा किसके पास लेनी चाहिये, तब इस विषय में यह निर्णय किया कि आपके और आपके पिताश्री के गुरु Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ दीक्षा के नाम पर एक साधु पर व्याक्षेप आम्नाय पूज्य रुगनाथजी की समुदाय के मुनि श्री रत्नचंदजी की थी और वह साधु भी अच्छे थे उन्हीं के पास दीक्षा लेने का विचार किया, पर उस समय आपका बिराजना धूनाड़े था। हमारे चरित्र नायकजी वंदनार्थ धूनाड़े गये। और वहाँ जाकर अपना सब हाल मुनिजी को सुना दिया। इस पर स्वामिजी ने कहाः-गयवरचंद, तुम्हारी दीक्षा के लिए अभी आज्ञा होना मुश्किल है । कारण-पहिला तो यह है कि मुताजी के तुम सबसे बड़े पुत्र हो, दूसरे अभी तुम्हारे विवाह को चार वर्ष भी पूर्ण नहीं हुए हैं; अतएव अभी तुम्हें दीक्षाका नाम तक भी नहीं लेना चाहिये । हाँ, चर्तुमास के पश्चात् मैं उधर अऊँगा जब नवलमलजी जो कि हमारे भक्तश्रावक हैं उनसे बातचीत करने पर निर्णय करूगा, पर इतना जरूर ध्यान रखना कि मेरे आने के पूर्व तुम कहीं दीक्षा की बात न करना, इस श्रेष्ठ सलाह को मानकर हमारे चरित्रनायकजी वापिस बीसलपुर श्रा गये। बीसलपुर में पांच-सात आदमी परदेशी साधुओं के भक्त थे, उन्होंने समाचार देकर स्वामी केवलचंदजी तथा रत्नचंदजी परदेशी साधुओं को बुलाया और उन्होंने हमारे चरित्रनायकजी से कहा कि देशी साधुओं में साधुत्व नहीं है । वे स्थानक में उतरते हैं, गर्म पानी जो आधा कर्मी होने पर भी लाकर पी लेते हैं, इसके अतिरिक्त और भी कई दोषों से दूषित हैं, यदि तुम घर भी छोड़ते हो तो फिर ऐसे पासत्थों के पास दीक्षा क्यों लेते हो, इत्यादि भ्रम-जाल में डाल कर मनमें शंका पैदा करदी । प्रदेशी साधु और श्रावकों ने तो इतनी लग्न दिखाई कि जैतारण में बालचन्दजी चैत्र कृष्ण ८ को दीक्षा लेते हैं, भाप Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ३० भी उनके साथ दीक्षा ले लें ताकि शीघ्र कल्याण हो । ___ इधर चैत्र कृष्ण ८ का दिन भी नजदीक आने लगा, हमारे चरित्रनायकजी के दिल में एक तो यह बात निश्चय नहीं हुई थी कि दीक्षा देशी साधुओं के पास लेनी चाहिये या प्रदेशियों के पास ? दूसरा राजकुंवर बाई गर्भित थीं, फिर भी दीक्षा लेने का आपका निश्चय दृढ़ बना हुआ था। इधर मुनि श्रीरत्नचंदजी धूनाड़ा से विहार करते हुए चैत्र कृष्णा ५ को बीसलपुर पधारे उनको इस बातका पता नहीं था कि ग वरचंदजी की दीक्षा का प्रश्न इतना विकट बना हुआ है और चैत्र कृष्णा ८ को ही दीक्षा लेने वाले हैं, पर भवितव्यता बड़ी बलवान होती है, इधर तो राजकुँवर के गर्भ का पतन हुआ और इधर मुनि रत्नचंदजी का आगमन हुआ। इन दोनों कार्य में केवल ३ घंटे का ही अन्तर था अर्थात गर्भपतन सुबह ६ बजे हुआ और मुनिजी का पधारना ९ बजे हुआ । जब दो तीन घंटे में गर्भ की चर्चा ग्राम में फैली; तथा निमित्त कारण ऐसा ही था कि लोगों में यह गलत विचार फैल गया कि साधु रतनचंद जी गयवरचंदनी को दीक्षा देने को आये हैं, इस दुःख के मारे राजकुँवर के गर्भ का पतन हो गया है । इधर साधु रत्नचन्दनी गोचरी लेकर स्थानक में आते हैं उधर कई मेहसरनियां, सुनारनियां सेवगनियां, नाइनियां स्थानक के पास आकर रत्न चंदजी साधु को खूब दुर्वचनों से गालियां देने लगी कि, रे दुष्ट साधुओ ! तुम्हारी दया कहाँ गई, बिचारी राजकुँवर के गर्भ का पतन तुम लोगों ने ही करवाया है, इत्यादि। साधु रत्नचंदजी इतना निर्मल और पवित्र साधु था कि उनको Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ दिशावर गमन न तो इस बात की मालूम थी न गयवरचंद से अभी तक मिलेही थे, फिर भी किसी जन्म के संचित अशुभ कर्म उदय होने से ऐसा व्यर्थ आक्षेप सहन करना पड़ा। स्वामि रत्नचंदजी ने इस बात को सुनकर वहां अन्न जल तक भी ग्रहण नहीं किया और विहार कर चले गये । जब गरचंद को इस बात की खबर मिली तो वे साधुजी के पीछे जाकर अपने अपराध की क्षमा मांगने लगे। साधुजी ने कहा कि गयत्ररचन्द मैंने तुम्हें धूनाड़ा में कहा था कि तुम दीक्षा का नाम न लेना, किन्तु तुमने मेरा कहना नहीं माना जिसका ही कटु फल है । किन्तु मैं तो अब भी कहता हूँ कि माता, पिता व स्त्री की राय - सहमत के बिना यदि तुम दीक्षा लेओगे तो फायदा नहीं उठाओगे, श्रतएव जरा धैर्य्य रख शान्ति से काम लेना इत्यादि, गुरु महाराज के यह वचन सुनते ही हमारे चरित्र नायकजी के दिल ने पल्टा खाया और चैत्र कृष्णा को दीक्षा लेने का जो शुभ मुहूत्त था वह घर छोड़ परदेश जाने के रूप में परिणित होगया । ८ - दिशावर गमन प्रदेशी साधु कैसे होशयार होते हैं, जब हमारे चरित्र नायक जी का समागम हुआ तो आपने वैराग्य की ओट में उनको चारों खन्ध करवा दिए, जैसे: Comaghug Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ३२ (१) कच्चे पानी का सर्वथा त्याग (२) कच्ची हरी लीलोती का सर्वथा त्याग (३) रात्रि-भोजन का सर्वथा त्याग (४) मैथुन का सर्वथा त्याग, इनको चारों खन्ध कहते हैं । हमारे चरित्र नायकजी ने अपने वैराग्य की धुन में इन चारों खन्धों का त्याग कर दिया। ____ इधर मुनि रत्नचंदजी के अकारण उपद्रव और गर्भपतन ने आपके विचारों में इतना परिवर्तन कर दिया कि आपके हृदय से दीक्षा को भावना बिल्कुल बिदा हो गई। अब तो आपने संसार में रहने का निश्चय कर लिया । किन्तु २१ वर्ष की जवान उम्र वा संसार में स्त्री सहित रहना और चारों खन्धों का पालन करना यह एक विकट समस्या आपके सामने आ उपस्थित हुई। आखिर. इस निर्णय पर पहुँचे कि बिना संसार छोड़े चार खन्ध पालना मुश्किल है । फिर कभी वह शुभ दिन अवेगा कि मैं इन चारों महा खन्धों को पालन करुंगा अभी तो इन खन्धों को एक डिब्बी में बँध कर सुरक्षित स्थान में रख देता हूँ। ___ लोक लज्जा भी एक ऐसी वस्तु है कि अब आप अपने घर से बाहर भी नहीं निकल सकते थे, यदि कोई घर पर भी आता तो लज्जा के मारे उससे मिल भी नहीं सकते थे। आखिर चैत्र बदी ७ के दिन रात्रि में आपने अपने पिताश्री के पास जाकर सब हाल कह सुनाया कि अब मेरी इच्छा दीक्षा लेने की नहीं है, पर कल दिशावर जाने का विचार किया है, पीछे का सब कार्य आपके भरोसे है। घर में जो कुछ माल है अथवा लेन देन है उसकी व्यवस्था श्राप ही के जिम्मे है। मुताजी को फिर विश्वास नहीं आया, पिछला काम सब Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशावर गमन कर लेवेंगे, किन्तु मैं तुम्हारे साथ चलकर टिकट कटाकर रेल गाड़ी में बिठा दूँ तब ही मुझे विश्वास आवेगा। गयवरचंद ने कहा आप विश्वास रखिये मैं सब सच्चे हृदय से कहता हूँ। इस पर भी मुताजी को विश्वास न हुआ, वे अपने प्रिय पुत्र को लेकर जोधपुर पहुंचे और अपने हाथों से अहमदाबाद का टिकट ले आये तथा एक तार अहमदाबाद केसरीमलजी बागरेचा, जो हमारे चरित्र नायकजी के सुसराल पक्षमें साले लगते थे, दे दिया कि गयवरचंद इस गाड़ी से अहमदाबाद आता है, बस गाड़ी हँकने के बाद मुताजी अपने घर आये और राजकुँवर को अपने मकान पर बुलाकर धैर्य के साथ अपने पास रख ली । गयवरचंद के राजो-खुशी अहमदाबाद पहुंचने का पत्र आ.जाने से सबके दिल को संतोष हो गया। .. हमारे चरित्रनायकजी चार दिन तक तो वहाँ मेहमान की तरह रहे, बाद आपने वहाँ से वबई जाने का विचार किया परन्तु वे लोग श्रापको कब जाने देने वाले थे। उन्होंने कहा कि श्राप १ वर्ष तक तो यहाँ चाहे हमारे साथ ( शामिल ) चाहे स्वतंत्र व्यापार करो जिससे. कि हमको पूर्ण विश्वास होजाय कि आप संसार में रहोगे । अतः आपको फिलहाल हम जाने नहीं देंगे । . . .. केसरीमलजी, मुलतानमलजी, प्रतापमलजी, अचलदास जी आपके बड़े श्वसुर के पुत्र साले लगते थे। जसराजजी आपके साद और कालीदास तेजाजी वगैरह आपके संबंधो लगते थे इन ससुराल वालों की अध्यक्षत्र में रह कर आप व्यापार करना नहीं चाहते थे और यही कारण था कि आपने बंबई जाने का निश्चय कर लिया था। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान ३४ केसरीमलजी मुलतानमलजी ने कहा कि आप यहाँ रह कर व्यापार न करें तो हमारा व्यापार अमरकोट में भी चलता है वहाँ पधार कर व्यापार कीजिये, हम आपको किसी भी हालत में जाने तो नहीं देंगे । इस पर आपने अमरकोट जाना स्वीकार कर लिया । ६ - पिताजी की अन्तिम सेवा गयवरचन्दजी जब अहमदाबाद पहुँचे तो बहुत से सज्जन आपकी अगवानी के लिए स्टेशन पर आये और नगर में ले गये, किन्तु मारे लज्जा के आपका सिर ऊँचा नहीं होता था । वहां आपके ससुराल पक्ष के बहुत से सज्जन थे । कुछ दिन अहमदाबाद में ठहर कर व्यापारार्थ अमरकोट चले गये । वहां कई मास ठहर कर आप मिर्जापुर गये, वहां से वापिस लौटते समय आप को अपने पिताजी के दर्शन की भावना अत्यन्त वेग से उमड़ उठी । दूसरे आप अपनी धर्मपत्नी राजकुँवरी से भी मिलना चाहते थे, श्रतएव चन्द दिनों के लिए आप बीसलपुर पधार गये । भाग्यवशात् मूताजी नवलमलजी साहिब आश्विन कृष्णा १० को एकाएक बीमार हो गये | गणेशमलजी भी दिसावर थे, दूसरे भाई अभी छोटे थे, आपको अमरकोट जाना जरूरी था किन्तु पिताजी की बीमारी के समय उनकी सेवा में रहना भी अत्यन्त आवश्यक समझा गया । आप पिताजी की सेवा में निरन्तर २० दिन रह कर अन्तिम टहल चाकरी-सेवा कर उनके Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ पिताजी की अंतिम सेवा ऋण से कुछ उऋण हुए, आपने उनका बहुत इलाज करवाया, किन्तु श्रायुष्य का उपचार किसी वैद्य, डाक्टर अथवा हकीम के पास नहीं था । आपने अपने पिताश्री को अन्तिम समय तक धार्मिक स्तवन स्वाध्याय वैगरह खूब सुनाये तथा उनकी इच्छानुसार दान भी दिया गया । आखिर आश्विन शुक्ला १५ को मुताजी ने इस असार संसार को त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया । लोकाचर की सब क्रियाएं आप ही के हाथ से हुई । जनता कहने लग गई कि संसार में वे ही भाग्यशाली हैं जो कि अन्तिम समय अपने माता पिता की सेवा कर उनके ऋण से मुक्त हो जाते हैं, आज गयवरचंद भी भाग्यशाली हुआ है जिसने कि पिताजी की अन्तिम सेवा की । मूताजी के देहान्त ने तो आपके सिर पर एक बड़ी भारी सख्ती डालदी । आपने दिसावर जाते समय अपना व्यापार व लेन देन आदि मुताजी को संभलाया था, किन्तु आज तो मुताजी खुद अपना सब व्यवसाय का वजन आपके सिर पर ही डाल गये, यद्यपि आप मूताजी की मौजूदगी में ही अलग हो गये थे, किन्तु इस समय गणेशमल तो दिसावर गया हुआ था शेष सब भाई छोटे थे । विशाल व्यापार और हजारों की लेन देन थी, यदि इसकी ठीक व्यवस्था न की जाय तो भविष्य में खूब हानि उठानी पड़े। आपके माताश्री का या मामाजी चंदमलजी का तथा अन्य सज्जनों का आग्रह पूर्वक कहना था कि अब जुदा शामिल को भूलकर इस काम को हाथ में लेकर सुचारु रूप से चला । आपने कहा कि इतना कहने की आवश्यकता नहीं है, इस कार्य को मैं अपना खास कर्तव्य समझता हूँ । 1 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान ३६ आपने सब कार्य्य हाथ में लेकर उसको व्यवस्था पूर्वक चलाना शुरू किया, कुछ समय के बाद गणेशमल भी दिसावर से आगया । एक वर्ष पर्यन्त दोनों भाइयों ने खूब व्यापार चलाया, पर उसका नतीजा देखा तो खर्च काट कर थोड़ी रकम की बचत रही, इसका कारण यह था कि मारवाड़ के व्यापार में ज्यादा मुनाफा नहीं रहा । आसामियों के व्यापार में भी जमाना ठीक नहीं होने से बहुत कम आमदनी रह गई, इस हालत में दिसावर जाना अच्छा समझ कर गणेशमल को मारवाड़ का व्यापार सौंप कर आप दिसा वर गये और मुगलाई प्रान्त का परभणी शहर में जा कर कुछ समय तक तो नोकरी की, तत्पश्चात् घर का रुजगार किया, इसमें ठीक बचत रहने लगी, इस हालत में गणेशमलजी, हस्तोमल, और राजकुँवरी को भी वहीं बुला लिया, करीब ३ वर्ष व्यापार किया जिसमें अच्छी सफलता मिली । कारण आप और और जो पिताजी के वि० सं० १९६३ में कुछ बीमारी के आपकी धर्मपत्नी राजकुँवरी मारवाड़ आये अन्तिम समय में गणेशमल का विवाह करने की भावना थी जिसकी पूर्ति के लिये आपने सावलता के सांढ़ों के वहां गणेशमलजी की सगाई का सम्बन्ध कर दिया, और जेवर वस्त्र भी वहां भेज दिया, यह मास था श्रावण का और माघ के मास में उसका विवाह करना भी निश्चय कर लिया । हमारे चरित्र नायकजी के नौ वर्षों में चार सन्तानें हुई किन्तु एक भी जीवित नहीं रही । औरतों में यह चर्चा फैल गई कि राज कुँवरी के बड़ली का भैरूँजी को यात्रा बोली हुई है, वह नहीं करने से इनके बाल बच्चा जीवित नहीं रहता है, अतएव बड़ली के Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः दीक्षा की भावना भैरूँ की यात्रा करनी चाहिये । हमारे चरित्र नायकजी तो शुरू से ही सिवाय अरिहन्त देव के किसी को सिर नमाते ही नहीं थे, इतना ही क्यों पर आपके विवाह में सिवाय जैन मन्दिर के और किसी भी देवी देवता की जात तक भी नहीं दी थी, वे बड़ली के भैरूँ के वहाँ जाकर कब शीश झुकाने वाले थे, पर लोक-अपवाद भी एक ऐसी हटीली वस्तु है कि उनके सामने बिना इच्छा भी शीश झुकाना पड़ता है । राजकुँवरी और बहुत से सजनों के अति आग्रह होने से घर से दिसावर जाने के समय जोधपुर आकर बड़ली गये और केवल राजकुँवरी ने ही बड़ली के भैरूँ की जात देकर स्व-इच्छा बोलवा बोली, बाद पुनः जोधपुर आये। इधर तीवरीवाले एवं जलगांव वाले जोधपुर से रतलाम पू०श्रीलालजी के दर्शनार्थ जा रहे थे, उन्होंने हमारे चरित्र नायकजी को भी आग्रह किया, और आपने उन्हीं के साथ रतलाम जाना स्वीकार कर लिया, राजकुँवर को भी पू०श्री. महाराज के दर्शनों की अभिलाषा थी। अतएव दम्पत्ति रतलाम जाकर पूज्य श्रीलालजी महाराज के दर्शन कर आनन्द को प्राप्त हुये । । १०–पुनः दीक्षा की भावना भाद्र पद शुक्ल चौदस का शुभ दिन था, पूज्य श्री महाराज के व्याख्यान में हजारों नर नारी का इतना बड़ा समुदाय था कि विशाल भवन होने पर भी लोगों को बैठने के लिए स्थान नहीं Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ आदर्श-ज्ञान मिलता था, पर हमारे चरित्र नायकजी दर्शनार्थ श्राये हुए विदेशी मेहमान थे, अतः आपको पूज्यजी के नजदीक ही स्थान मिल गया । पूज्य जी की व्याख्यान शैली जैसी मधुर थी वैसी ही रोचक भी थी उस दिन व्याख्यान का विषय था " व्रत भंग और आलोचना " यदि कोई व्यक्ति व्रत लेकर भंग करदे और पुनः उसकी आलो चना कर प्रायश्चित न ले तो वह विराधी हो संसार में अनंतकाल परिभ्रण करता है, इत्यादि, इस पर हेतु युक्ति विषय को इतना भयानक बना दिया कि जिससे हो उसको आलोचना लेना अनिवार्य हो गया । हमारे चरित्र नायकजी ने ज्यों ही व्याख्यान सुना त्यों ही आपका रोम रोम खड़ा हो गया, कारण आपको अपने किये हुए चार खन्धों के त्याग और उसका भंग स्मृति में आ गया, और मन हो मन पश्चाताप करने लगे । आपकी भावना यहाँ तक होगई कि व्रत भंग की आलोचना कर इसका प्रायश्चित आज ही पूज्य श्री से ले लेना चाहिये । समय पर व्याख्यान समाप्त हुआ, अतिथी गण भोजन करने को गये । रतलाम वासियों ने सब के लिये भोजन एक स्थान पर होने का प्रबन्ध कर रखा था पर चतुर्मास के दिनों में लीलण फूलन और त्रस जीवों की उत्पत्ति और विधर्मी रसोइयों के कारण उनकी होती हुई हिन्सा को देख घृणा श्राये बिना भी नहीं रहती थी, क्योंकि एक तो दर्शनार्थ आये हुओं की संख्या बहुत थी, द्वितीय रसोइये सब विधर्मी थे, तीसरे चतुर्मास के दिन थे । धर्म के नाम पर यह भ्रूण हिंसा अधर्म का ही पोषण करती थी, खैर सबके साथ आपने भी भोजन किया पर भोजन के समय आप के मन में तो वही व्याख्यान की आलोचना की ही दोरा दोर दृष्टान्त लगा कर व्रत भंग हुआ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ पुनः दीक्षा की भावना थी। भाप भोजन कर सीधे ही पूज्यश्री के पास आये। उस समय पूज्य महाराज आहार पानी कर आराम कर रहे थे; फिर भी आपको परदेशी जान कर अन्दर आने की आज्ञा दे दी। ___श्राप ने अन्दर जाकर वन्दना नमस्कार कर नम्रता पूर्वक अर्ज की कि पूज्य महाराज मैंने आज आपका अपूर्व व्याख्यान सुना है, और मैं कुछ आलोचना करना चाहता हूँ। पूज्यश्री:-कहो भाई, क्या आलोचना है ? गयवरचन्दजी:-मैंने चार वर्ष पूर्व (१) कच्चा पानी, (२) कच्ची हरी, (३) रात्रि भोजन, और (४) मैथुन इन चारों का त्याग किया था, ये चारों व्रत भंग होगये । इसकी आलोचना लेनी है; कृपाकर जो कुछ दंड प्रायश्चित हो वह देकर मेरा उद्धार कीजिए। __पूज्यजी:-तुम भाग्यशाली हा कि अपने भन व्रतों की आलोचना करते हो। . गयवरचन्दः-यह आपके व्याख्यान का ही प्रभाव है ? पूज्यजी:-अच्छा भाई, व्रत भंग का प्रायश्चित तो हम शास्त्रानुसार दे देवेंगे पर वे चारों व्रत आज से आपको पालन करने होंगे। गयवरचन्द:-पूज्य महाराज ! मैं गृहस्थी हूँ मेरा रहना दिसावर में है, मेरी युवकावस्था है, और स्त्री मेरे पास में रहती है, ऐसी हालत में वे चार खंध मेरे से कैसे पालन हो सकते हैं, अर्थात् बिल्कुल नहीं पलेंगे। पूज्यजी:-भाई, ऐसाही है तो पहिले इन बातों का विचार करके ही व्रत . लेना था। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान ४० गयवरचन्दः - पूज्य महाराज ! उस समय मेरी भावना दीक्षा लेने की थी; वैराग्य की धुन में मैंने व्रत लेलिया । पश्चात् कर्मों का उदय होने से न तो दीक्षा ले सका और न व्रत ही पालन कर सका। अब इसका कोई रास्ता निकालिए ? पूज्यजी: - पुनः तपालन के अतिरिक्त इसका दूसरा कोई रास्ता नहीं है । साथ ही पूज्यजी ने उपदेश भी दिया कि यह संसार असार है, कुंटुम्ब सब स्वार्थी एक सराय के मेले के सदृश है, 'लक्ष्मी और भोग चंचल हैं। आयुष्य अस्थिर है, यदि मनुष्य इन थोड़े से सुखों के लिए जिन्दगी बर्बाद कर देता है तो वह अनंत काल तक संसार में परिभ्रमण करता है; जिसमें भी व्रत ग्रहण कर उसका भंग करता है उसके लिए तो कहना ही क्या है । कहा भी है कि 'व्रत नहीं ले वह पापी और लेकर भंग करता है वह महापापी होता है; ' तुम अपनी स्त्री और व्यवसाय पर क्या मुग्ध होते हो, मैं खुद दो वर्ष की विवाहिता को त्याग कर अठारह वर्ष की उम्र में दोक्षा ली थी और आज अपना कल्याण हूँ । गयवरचन्दजी:— पूज्यजी के थोड़े से शब्द भी जादूसा काम कर गये, आप के दिल में पुनः दीक्षा की भावना पैदा हो गई और कहा कि पू० महाराज जब मैं पूर्वोक्त चारों खंध पूर्णतया पालन करना चाहूँ तत्र तो मुझे दीक्षा ही लेनी पड़ती है, क्योंकि बिना दीक्षा लिए यह व्रत नहीं पल सकता है । पूज्यजी:- दीक्षा लेना कौनसी बड़ी बात है, तुमतो साधारण गृहस्थ हो, पर बड़े २ राजा महाराजा और सेठ साहूकारों Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ रतलाम में दो मास की स्थिरता ने अपनी राजगद्दी और स्त्रियों को त्याग कर दीक्षा ली है, क्या देखते हो मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री बार बार मिलना मुश्किल है, परिणामों को स्थिर करलो । गयंवरः — पूज्य महाराज आपका कहना तो अक्षरशः सत्य हैं, पर क्या करूँ पहिले भी मैंने दीक्षा की बात निकाली पर भोग कर्म के उदय होने से दीक्षा नहीं ले सका और दुनियां में इसके विपरीत मेरी हंसी हुई । पूज्यजी - खैर, जैसी तुम्हारी मर्जी, किन्तु अभी चतुर्माण के दो मास शेष रहे है, तुम यहाँ ठहर कर ज्ञानाध्ययन करो और व्याख्यान सुनो, आगे जैसी तुम्हारी इच्छा । गयवरः — पूज्य मैं आपके कथन को शिरोधार्य करता हूँ । पूज्यजी : - उसी समय थोकड़ा के बोल चाल सीखने के लिए आपको थोड़े से बोल दिए और कहा कि इनको कण्ठस्थ कर श्याम को वापिस सुना देना । गयवर, पूज्यजी के वचनों को तथास्तु कहकर वन्दना कर चल दिया । ११ - रतलाम में दो मास की स्थिरता हमारे चरित्रनायकजी के हृदय ने पुनः पल्टा खाया, व्रतभंग के भय ने तो आपको वैभ्रांत बना दिया आपने सोचा कि बिना दीक्षा के यह पाप छूट नहीं सकता है, पर दीक्षा लेना भी कोई मामूली बात नहीं है, इस विचार में दिन बीत गया, रात्रि में पूज्यजी Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान के पास गये, तो उन्हों ने पूछा, क्यों भाई वे बोल याद कर लिए ? जी हाँ। तो सुनादो । आपने ज्यों के त्यों सुना दिए । पूज्यजी ने सोचा कि इसकी बुद्धि तो खूब ही निर्मल है। उसी समय द्विगुणित बोल और दे दिए और कहा कि इनको सुबह आकर सुना देना । तथास्तु । दूसरे दिन फिर दम्पति पज्यजी के व्याख्यान में आये, पूज्यजी बड़े ही चतुर थे व्याख्यान में उसी आलोचना के विषय को खूब विस्तार से वर्णन किया । अन्त में यही कहा कि व्रत भंगकर अलोचना नहीं करता है वह अनंतकाल संसार में परिभ्रमण करता तो है ही पर फिर किसी भव में व्रत उदय नहीं आता है ।। इस उपदेश ने तो हमारे चरित्र नायकजी पर और भी विशेष प्रभाव डाला, और आपने अपने मन में निश्चय कर लिया कि अब दीक्षा लिए बिना किसी प्रकार भी छुटकारा नहीं है किन्तु अभी इस बात को गुप्त रख कर दो मास तक तो ज्ञानाभ्यास करना ही अच्छा है। ___ आप ने अपनी धर्मपत्नी राजकुँवर से कहा कि पूज्यश्री का व्याख्यान बहुत अच्छा है और दीपमालिका तक दिसावर में कुछ आवश्यक कार्य भी नहीं है अतएव मेरी इच्छा है कि दीवाली तक यहीं ठहरें और पूज्यजी महाराज का व्याख्यान सुनें । स्त्रियां बिचारी हमेशा सफेद कपड़े के समान स्वच्छ हृदय वाली होती हैं; पूज्यजी का व्याख्यान राजकुँवर को प्रिय प्रतीत होता था, अतएव उसने कह दिया कि यदि आपकी इच्छा है तो मैं क्यों इन्कार करूं, दीवाली तक यहीं ठहर जाइये । बस, फिर तो था ही क्या,एक मकान किराये पर लेलिया और Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ रतलाम में दो मास की स्थिरता एक सेविका रखली, और आप दम्पति वहां आनन्द में ठहर गये। पूज्यजी एक अत्यन्त ही चतुर खिलाड़ी थे, ऊपर से तो ज्ञानाभ्यास करवाने की कौशिश करते थे पर अन्दर से इस प्रकार बैराग्य के बाग लगाया करते थे कि सुन ने वालों का दिल पिघले बिना नहीं रहता था, यही कारण था कि गयवरचंदजी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि पूज्य महाराज मैंने दीक्षा लेने का निश्च कर लिया है । बस, पूज्यजी महाराज के हाथ तो एक सोने की चिड़िया लग गई, अब आप कब चुपचाप बैठने वाले थे रात्रि तथा दिन में जितना अवकाश मिलता ज्ञानाभ्यास करवाने में बिताने लगे। इधर गयवरचंदजी की बुद्धि इतनी प्रखर थी कि दूसरा साधु एक मास में जितना ज्ञान कण्ठस्थ न कर सके उतना आप एक ही दिन में कर लेते थे, पूज्यजी ने भी अपने दिल में यह निश्चय कर लिया कि यदि गयवरचन्दजी ने दीक्षा लेली तो यह हमारी पूज्य पदवी का अधिकारी बन जैन धर्म का अवश्य उद्योत करेगा ! करीब दो मास में हमारे चरित्र नायकजी ने ७५ थोकड़ा और देशवैकालिक सूत्र कण्ठस्थ करलिए, इतना ही क्यों पर आपने तो अपनी धर्मपत्नी राजकुँवर को भी सामायिक प्रतिक्रमण कण्ठस्थ करवा दिए, यहाँ तक तो सब आनन्द में ही थे । एक समय का जिक्र है कि रतलाम में हगामजी आरजियां से चौमासा किया था, राजकुँवर सामायिक प्रतिक्रमण करने को वहीं जाया करती थी । वे आय एक वैरागिन को साथ लेकर पूज्यजी महाराज के पास आई, उस समय हमारे चरित्र नायकजी पूज्यजी की सेवा में उपस्थित थे । पूज्यजी ने उस वैरागिन को उपदेश देते हुए कहा कि बहिन, तू तो विधवा है अब दीक्षा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान के सिवाय तेरा संसार में कोई नहीं है पर देख, ये बीसलपुर वाले पुवक सब सामग्री और स्त्री के होते हुए भी दीक्षा ले रहे हैं इत्यादि, बाद आरजियां अपने मकान पर आई, रात्रि में प्रतिक्रमण के पश्चात् बात ही बात में आरजियों के मुंह से निकल गया कि देखो बाई, बोसलपुर वाले गयवरचन्दजी अपनी पत्नी के साथ पूज्य महाराज के उपदेश से दीक्षा लेते हैं, धन्य है इस अवस्था में दीक्षा लेने वाले को आदि । मकान में चारों ओर अंधकार था, राजकुँवर भी वहीं थी, उसने दीक्षा का नाम सुना तो एक दम हृदय में दावानल भभक उठा । बैठका ( श्रासन ) वहीं डालकर वह सीधी मकान पर आई, सेविका मोजूद थी, वर्तन वगैरह जिन लोगों के लाये थे बे सब पहुँचा दिये और विस्तर वगैरह बांध कर प्रस्थान की सब तैयारी करली तथा मकान के द्वार बंद कर खूब फिक्र में बैठी हुई अपने पति देव की राह देख रही थी। सदैव की भांति ११ बजे गयवरचंदजी मकान पर आये तो मकान के दरवाजे बंद पाये और मकान में न देखा सेविका का चिह्न और न पाया दीपक । मकान के किवाड़ खड़खड़ा के पुकारा कि दरवाजा खोलना ! राजकुँवर ने दरवाजा खोला और आप अन्दर गये तो राजकुँवर बड़े ही दुःख के साथ रोने लगी; आपने मधुर वचनों से समझाया और रोने का हाल पूंछने पर राजकुंवर ने कहा किः-आप बड़े ही विश्वासघाती हैं जो कि मुझ अबला से भी विश्वासघात किया है। - पतिः-क्यों मैंने आपसे क्या विश्वासघात किया है? राजकुँवरः-आप दीक्षा लेने को तैयार हुए हैं? पतिः-आपको किसने कहा ? Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतलाम में दो मास की स्थिरता राजकुँवरः-अभी मैं श्रारजियों के यहाँ सुनकर आई हूँ। पतिः-इससे क्या हुआ, लोग तो ऐसे ही अफवाह फैला देते हैं । शायद अपन लोग यहाँ ठहर गये इसलिए लोगों ने बात उड़ादी होगी? राजकुँवरः-लोगों ने क्या, खास पूज्यजी महाराज ने आर. जियों से कही है। पतिः-मुझे इस बातपर विश्वास नहीं है कि पूज्यजी ने कही हो । राजकुंवरः-खैर कुछ भी हो, मैं तो एक क्षणभरभी यहाँ नहीं ठहरूँगी, आप मुझे बीसलपुर पहुँचादें, बाद आप जैसा ठीक समझे वैसा ही करें। ___पतिः-आपकी ऐसी ही इच्छा है तो कल ही बीसलपुर चलो, ऐसा कहने से राजकुँवर का दिल थोड़ा बहुत शान्त हुआ और रात्रि भर स्नेह पूर्ण व्यतीत हुई । सुबह हुआ और राजकुँवर ने कहा, चलो रवाना होओ। पति:-रसोई बनालो, बाद रात्रि की गाड़ी से चलेंगे, राज कुँवर ने रसोई बनाई, दोनों ने भोजन किया, बाद थोड़ी देर में एक कागज लाकर राजकुँवर को पढ़ाया कि यह दिसावर का कागज आया है और मुझे बुलाया भी है; अब तुम्हारी इच्छा बीसलपुर जाने की हो तो पहिले आपको बीसलपुर पहुँचा दूँ और मेरे साथ चलने की इच्छा हो तो मैं २-४ दिनों में जाऊँगा, मेरे साथ चलिए। : पत्नी:-औरतें हमेशा पति के पास रहना हो पसंद करती है, तदनुसार गजकुंवर ने कहा कि यदि आप २-४ दिन में ही यहाँ से रखाना होना चाहते हैं तो मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ। ठीक है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान ४६ पूज्यजी के पास एक जोरावरचंदजी भंडारी कुचेरा वाले रहते थे, और वे आपके अभ्यान्तर के श्रावक, तथा दीक्षा के तो पक्के दलाल ही थे, पूज्यजी महाराज को मालूम हुआ कि आरजियों के - बात करने से सब मामला गड़बड़ सा होगया है, और गयवरचंदजी २-४ दिनों में ही दिसावर जाने वाले हैं, पूज्यजी ने भण्डारीजी को 'बुलाकर कहा कि गयवरचंद एक सुयोग्य और बुद्धिशाली होनहार रत्न है, ऐसा आदमी हाथों से चलाजाय, यह ठीक नहीं, इस लिए कोई भी उपाय करो कि इनकी दीक्षा जल्दी होजावे । भण्डारी जी गयवरचंदजी के पास आये और उनके मन को और भी स्थिर करने के अनेक उपाय करने लगे । राज कुँवर : - इधर ४ दिन बीत जाने पर राजकुँवर ने तकाजा किया कि बस ४ दिन होगये अब यहां से चलो । पतिः - राजकुँवर को उपदेश दिया कि संसार में कुछ भी सार नहीं है; आपको मालूम है कि मेरे चार खन्ध-बड़े व्रतों का भंग हुआ है जिससे अनंत काल संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा, अतएव मैं तो दीक्षा लूँगा, आप भी दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करें। यदि मैं दीक्षा लूं और आप संसार में रहेंगे तो प्रथम तो मेरे दीक्षा लेने के बाद आपको संसार में कोई भी सुख नहीं है; द्वितीय पराधीन रहना और तृतीय केवल भोजन वस्त्र के लिए जीवन व्यतीत करना । इससे तो दीक्षा लेकर श्रात्म कल्याण करना ही अच्छा है । राजकुँवर :- मैं यह नहीं जानती थी कि आप इस प्रकार मुझे धोखा देवें । पतिः - धोखा किस बात का ? Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कोई तो जब राय रतलाम में दो मास की स्थिरता राजकुँवरः-धोखा नहीं तो और क्या है? पतिः-जरा विचारो वो सही संसार में क्या है? राजकुँवर-मैं जानती हूँ कि आपके दीक्षा लेने के बाद मुझे संसार में किसी प्रकार का सुख एवं आगम नहीं है । यदि मैं दीक्षा ले भी लूं तो उसका कैसे पालन कर सकती हूँ क्योंकि अभी तो मैं समझती भी नहीं कि दीक्षा क्या वस्तु है? ____ पति-दीक्षा पालना कोई दुसाध्य नहीं, आपके सामने सैंकड़ों साध्वियें दीक्षा पालती हैं; यह तो जब तक दीक्षा नहीं ली जाय तब तक ही भय मालूम होता है; मेरी तो राय है कि आप दीक्षा लेकर अपना आत्म कल्याण करें। फिर तो श्राप को मरजी । मैंने तो दीक्षा लेने का पक्का निश्चय कर लिया है। राजकुँवर :-तो क्या आप दीक्षा जरूर लेवेंगे ? पतिः-हाँ मैंने पूर्ण निश्चय कर लिया है। राजकुँवरः-रोती हुई गद गद शब्दों से कहने लगी कि खैर अब मैं क्या करूँ ? जो कुछ कर्म में लिखा है, सो ही होगा; मैं भी दीक्षा लेलुंगी किन्तु किसी अच्छी आरजिया के पास में दीक्षा दिलाना जिससे कि मेरा जीवन सुख शान्ति से व्यतीत हो सके। पतिः-यह जिम्मेवारी मेरी है, आपको किसो प्रकार की तकलीफ न होगी। बस, दम्पति दीक्षा के इच्छुक बन गये। जब यह बात पूज्यजी के कानों तक पहुँची तो आपके हर्ष का पार नहीं रहा और भंडारी जी से सलाह करली कि बड़ी सादड़ी में हीरालालजी पन्नालालजी और दो बाइयों की दीक्षा हाल ही मंगसर में होने वाली है, अतः Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आदर्श-ज्ञान ... वहां जाकर राजकुँवर को गयवरचन्दजी की आज्ञा से दीक्षा दिलवा दें; बाद गयवरचन्दजी की दीक्षा का मार्ग निष्कण्टक हो जावेगा। १२-गणेशमलजी का रतलाम में आना इधर गयवरचंजी और राजकुँवर के दीक्षा का निश्चय हो गया, उधर यह खबर बीसलपुर में पहुँची कि गयवरचन्दजी सहपत्नी रतलाम में हैं, और वे दोनों पूज्यजी श्रीलालजी महाराज के पास दीक्षा लेवेंगे । बस, सब कुटुम्ब में शोक के बादल छा गये । उन्होंने यकायक जोधपुर जाकर गणेशमलजी को परभनी तार दिया कि 'तुम रतलाम जा कर गयवरचन्दजी को लेकर बीसलपुर आओ।' तार के पहुंचते ही गणेशमलजी ने एक तार रतलाम गयवरचन्दजी को दिया कि 'मैं आता हूँ, आप वहीं ठहरें मिति कार्तिक शुल्का १४ को गणेशमलजी रतलाम आये । गयवरचन्दजी से तथा अपनी भावज से मिले । पहिले अपनी भावज से कहने लगे कि क्या आप भी दीक्षा लेने को तैय्यार हो गयीं हैं ? . राजकुँवरः-मैं क्या करूँ, मेरा तो दिल नहीं है, किन्तु आपके भाई साहब ने मुझे दोक्षा लेने के लिए मजबूर कर रक्खा है। • गणेशमलः-क्या दीक्षा भी जबरदस्ती हो सकती है? Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणेशमलजी का रतलाम आना राज कुँवर :- किन्तु मैं क्या करूँ जब श्राप दीक्षा लेने को उद्यत हुए तो मैं संसार में रहकर भी क्या करूँगी ? गणेशमलः -भावजजी । दीक्षा कोई बच्चों का खेल नहीं है, किन्तु यह एक हस्तियों का वजन उठाना है, आप जरा दिल में सोचो और समझो । ४९ राजकुँवरः -- मैं कब दीक्षा लेने में खुश हूँ ? मैं तो पुकार २ कर कहती हूँ कि मुझे तो जबरदस्ती से दीक्षा दिलाई जाती है, आप जैसा मुझे कहते हो वैसे अपने भाई साहब से ही क्यों नहीं कहते ? गणेशमलः–भाई साहब को तो मैं कहूँगा ही, पर पहिले आप तो यह वचन देदेवें कि मैं दीक्षा नहीं लूंगी, और बीसलपुर चली चलूंगी । राज कुँवर : - हाँ, मैं तो दीक्षा लेने में खुश नहीं हूँ, और आपके साथ बीसलपुर चलने को तैयार हूँ । गणेशमल—भावज का वचन लेकर भाई साहब के पास गये ओर नम्रता पूर्वक कहा कि आप यह क्या कर रहे हो, क्या पिताजी के वचनों को आप भूल गये हो, पिताजी हम सबको आपके आधार पर छोड़ गये हैं, यदि आप दीक्षा ले लेवेंगे तो हमारा क्या हाल होगा, हम किस के आधार पर हैं ? गयवरचन्दः—जीव सब कर्माधीन हैं, मैं मेरा आत्मकल्याण करना चाहता हूँ व्यर्थ ही तुम लोग क्यों अन्तराय डालते हो ? गणेशमलः -- भाई साहब ! अभी सब भाई छोटे हैं, तथा हाल ही में आपने मेरी सगाई सम्बन्ध किया है तो कृपाकर विवाह भी आप ही के हाथों से करदो, केवल दो मास का काम है । ४ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ५० गयवरचन्द:- भाई, मैं तो किया हुआ विवाह भी छोड़ रहा हूँ तो दूसरों का विवाह करना तो मेरे से कैसे बन सकता है ! गणेशमल:- इस पर गणेशमल और राजकुँवर खूब करुण शब्दों से विलाप करने लगे। जो आस पास के लोगों में भी दया के भाव उत्पन्न होने लग गये और वे कहने लगे कि आप कुटुम्ब वालों के दिल में दाह लगाकर दीक्षा लेओगे तो आपको कोई लाभ नहीं होगा किन्तु इसके विपरीत पाप में डूब जाओगे, इत्यादि । बंस देवरभावज बिना अन्न जलग्रहण किये मारे दुःख के रो रहे थे क्योंकि इसके अलावा तो उनके पास उपाय ही क्या था । भंडारीजी ने आपको सलाह दी कि संसारो कुटुम्ब यों सहज में ही कब जाने देते हैं | यदि आपके हृदय में दीक्षा का सच्चा रंग है तो लो मैं यह बरतन देता हूँ; दो चार घरों से भोजन मांग के लाकर इनके सामने बैठ कर भोजन करलो । गयवरचन्दः- - पर आज चौमासे की चतुदर्शी है न ? भंडारीजी — कुछ हर्ज नहीं है, ले आओ आहार और इनके सामने बैठकर करलो गौचरी । बस, वैराग्य की धुन में हमारे चरित्र नायकजी दो-चार घरों से भिक्षा मांगकर ले आये और उन रुदन करते हुए देवर भावज के सामने बैठकर भोजन कर लिया, किन्तु उन रुदन करते हुए के लिए आपके हृदय में तनिक भी दया न आई । राजकुँवर - गणेश मलजी ! आपके भाई साहब का हृदय कितना कठोर बन गया है कि अपने भूखे प्यासों की इनको तनिक भी दया न आई और सामने बैठकर भोजन कर लिया । क्या अब Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणेशमलजी का रतलाम भाना आशा की जा सकती है कि ये संसार में रह कर अपना साप देवेंगे ? ___इतने में २-४ श्रावक आये और गणेशमलजी एवं राजकुँवर को अपने मकान पर लेजाकर भोजन करवाया। तत्पश्चात् गणेशमलजी ने अपने ज्येष्ठ भ्राता से बहुत नम्रता पूर्वक विनय की कि यदि आपने दीक्षा लेने का निश्चय ही कर लिया है तो आपको कोई रोकने वाला नहीं है, किन्तु मेरी एक छोटी-सी प्रार्थना है जिसे आप सुनकर स्वीकार करके हमारे दुःखदग्ध-हृदयको शान्त करें। प्रार्थना इतनी ही है कि माघ मास में मेरा विवाह आपके हाथों से करके आप दीक्षा ले लीजिए। मैं बीसलपुर में यथा शक्ति दीक्षा का महोत्सव कर राजी-खुशी आपको दीक्षा दिलवा दूंगा, इस बात में रत्ती मात्र भी फर्क नहीं पड़ेगा, श्राप विश्वास रखें, तथा इसमें हम लोगों को संतोष भी हो जायगा। ___ गयवरचंदजी की इच्छा तो नहीं थी पर लघु बान्धव के कहने पर लिहाज आगई, और इस बात का वचन दे दिया कि खैर तुम इतना कहते हो तो मैं माघ मास में बोसलपुर आकर तुम्हारा विवाह करवा दूंगा, किन्तु-स्मरण रहे कि बाद में तुम मेरी दीक्षा में किसी प्रकार की भी बाधा नहीं डाल सकोगे। ___ गणेशमल अपने वृद्ध भ्राता के बचन पर विश्वास कर के तथा अपनी भोर से प्रतिज्ञा करके अपनी भावज को लेकर बीसलपुर की ओर चले गये; गयवरचंदजी रहे पूज्यजी की सेवा में । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ - साधुओं का माया जाल और भिक्षाचारी बीती हुई सब बातें भंडारीजी ने पूज्यजी महाराजको सुनादी, तब पुज्यजी महाराज हताश होकर कहने लगे कि भंडारीजो अपनी की हुई सब मेहनत मिट्टी में मिल गई, कारण गयवरचंद जी विवाह करने को जावें और उनका वैराग्य ज्यों का त्यों रहे यह कदापि संभव नहीं हो सकता है । अतः अब यह उपाय किया जाना चाहिए कि गयवरचंदजी अपने भाई के विवाह के समय वहाँ जा ही नहीं सकें, और साथ ही यह कार्य शीघ्रातिशीघ्र होना चाहिए | भंडारीजी ने कहा पूज्य महाराज ! आप ही बताइये ऐसा कौनसा उपाय है ? थोड़ी देर सोचकर पूज्यजी ने कहा कि बिना श्राज्ञा दीक्षा तो नहीं हो सकती है पर गयवरचंद के गृहस्थी के कपड़े उतरवा कर भिक्षाचारी करवा दी जांय तो विवाह में जाने से रुक सकते हैं ! भंडारीजी ने कहा- ठीक है, आज रात्रि में मैं गवरचंदजी को आपके पास ले आता हूँ, आप उपदेश दीजिए मैं भी कह दूँगा । चातुर्मास समाप्त हो जाने के बाद मगसर कृष्ण १ को साधुओं का विहार हो जाता है, पर गयवरचंदजी के दीक्षा की खटपट में पूज्यजी महाराज को शहर के बाहर ठहरना पड़ा । मगसर कृष्ण ९ को दिन की गाड़ी से गणेशमल व राजकुँवर बाई ग्वाना होगये । उसी दिन की रात्रि के ९ बजे भंडारीजी गयवरचंदजी को साथ ले कर पूज्यजी महाराज के पास आये वहाँ कुछ श्रावक बैठे थे, परन्तु कुछ संकेत करने पर वे सब चले गये । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुओं० मिक्षाचारी पूज्यजी ने कहा-क्यों गयवरचन्दजी आपकी दोक्षा का रंग उतर गया ? गयवर०-नहीं, महाराज। पूज्यजी-आपने अपने भाई के विवाह में जाना मंजूर किया गयवर०-जी हाँ! पूज्यजी-तो फिर दीक्षा की आशा क्यों रखते हो ? गयवर०-विवाह के बाद दीक्षा लेने का मैंने भाई से बचन ले लिया है। पूज्यजी-किन्तु उस विवाह के समय दीक्षा का भाव रहेगा या नहीं, यह तुमको मालूम है ? . गयवर०–मेरे भाव तो दृढ़ हैं फिर ज्ञानी महाराज जानें । . पूज्यजी-भाई, तुम्हारे घर में तुमही बड़ेहो, एवं कर्ता धर्ता हो, फिर उस विवाह जैसे राग रंग के समय में वैराग्य रहे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? ... गयवर०-महाराज, मैं वचन तो दे चुका हूँ; एक बार मुझे नाना तो पड़ेगा ही। - पूज्यजी-यहतो तुम्हारी इच्छा की बात है, किन्तु हाथ में आये हुए चिन्तामणि रत्न,को तुम मुफ्त में खो रहे हो । एक समय तो तुम्हारी दीक्षा के लिए हंसी हो चुकी है, फिर दूसरी वार क्यों करवाते हो ? गयवर०-वचन दे चुका उसका अबक्या उपाय हो सकता है। पूज्यजी- भंडारीजी, क्या इसका कोई उपाय नहीं है। भंडारीजी-पूज्य महाराज उपाय तो बहुत हैं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान पूज्यजी - तो फिर आप गयवरचंदजी को कोई ऐसा उपाय बतला दो कि ये संसार के घोर दुःख से बचकर अपना आरम कल्याण करें । ५४ भंडारीजी - पूज्यमहाराज संसार में जीव पापक्रमों में अनेक बार वचन देता है, और ऐसे वचन पालन करने से अनंत संसार भी बढ़ा है । मेरे विचार से तो ऐसे वचनों पर विश्वास न कर श्रात्म-कल्याण करना ही अच्छा है । पूज्यजी - क्यों गयवरचंदजी आपकी क्या इच्छा है । गयवर० – आप फरमावें वैसा ही करने को मैं तैयार हूँ । पूज्यजी - जब तुम आत्म-कल्याण के लिये दीक्षा लेने को तैयार हुए हो तो किसका भाई किसका विवाह यह तो मोह जाल है । गयबर० -- पर आज्ञा बिना आप दीक्षा भी तो नहीं दे सकते, और मैं अपने बचनानुसार भाई के विवाह में न जाऊँ तो मुझे आज्ञा मिलना भी तो मुश्किल है न । पूज्यजी - एक श्रापही क्यों कोई भी योग्य खानदान और कुटुम्ब वाला हो उसको सहज में ही आज्ञा कौन देदेता है परन्तु श्रात्म-कल्याण करने वाले उस श्राज्ञा के भरोसे ही नहीं रहते हैं । मैं मेरी ही बात कहता हूँ कि मेरे कुटुम्ब वालों ने आज्ञा नहीं दी तो मैं गृहस्थी के कपड़े छोड़ कर भिक्षाचारी करने लग गया ? फिर भी कुटुम्ब वालों ने श्राज्ञा नहीं दी तो मैंने स्वयं दीक्षा ले ली । इसी प्रकार शोभालालजी ने भी स्वयंदीक्षा ले ली थी । इसलिये यदि आपके हृदय में सच्चा वैराग्य और श्रात्म-कल्याण की भावना है तो इस प्रकार भिक्षाचारी करलो और आज्ञा न दें तो स्वयं दीक्षा लेलो । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ साधुओं० भिक्षाचारी ___भंडारीजी-पूज्य महाराज ! गयवरचंदजी का वैराग्य हल्दी के रंग के समान नहीं है; आप वैद्य मेहता के खानदान के हैं, चढ़ती जवानी और बढ़ता वैराग्य । जब इस मगर पचीसी में तरुण औरत और सुख साहिबी की आपको चिन्ता नहीं है, तो स्वयं दीक्षा और भिक्षाचारी करने में कब पीछे हटेंगे। ___ पूज्यजी-हाँ भंडारीजी, श्रापका कहना सोलहों आना सत्य है, गयवरचंद ऐसे ही बहादुर हैं। यदि आप दीक्षा लेंगे तो मैं मेरी पूज्य पदवी का सर्वाधिकार आप ही को दे देऊँगा, क्योंकि आप पूज्य पदवी के योग्य हैं। ____भंडारीजी-हाँ पूज्य महाराज! आपके इतने साधुओं में गयवरचंदजी की सानी का एक भी साधु नजर नहीं आता है। जैसे आप इस युवावस्था में प्राप्य ऋद्धि के त्यागी हैं, वैसे ही आप बुद्धिमान भी हैं। आपने जो ज्ञान दो मास में कण्ठस्थ किया है, उसे दूसरे साधु दो वर्षों में भी नहीं कर सकते हैं। पृष्यजी- क्यों गयवरचन्दजी, आपके क्या जचती है? गयवर०-जो महाराज की आज्ञा हो, वह शिरोधार्य है। भंडारीजी-पूज्य महाराज का तो यही अभिप्राय है कि आप फिलहाल गृहस्थी के कपड़ों को त्याग कर भिक्षाचारी शुरू करदें। अब समय में आपको आज्ञा मिल जायगी तो पूज्य महाराज अपने हाथों से आपको दीक्षा देदेंगे; अन्यथा २-४ मास में आप म्वयं दीक्षा लेकर साधु बन जाइये, जैसे पूज्य महाराज बन गये थे और पूज्य महाराज भापकी सब तरहसे सहायता करेंगे। . गववरचंद-खैर मैं मिक्षाचारी करलं, कदाचित् मेरी श्राक्षा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादश-ज्ञान ५६ न हो, और मैं स्वयं दीक्षा भी ले लूंगा, पर आखिर मैं शिष्य किसका कहलाऊँगा । भंडारीजी-आपके गुरू पूज्यजी महाराज ही हैं । यदि आप स्वयं दीक्षा लेंगे तो भी पूज्यजी महाराज श्रापको पास में रख ज्ञानाभ्यास करवाया करेंगे। __ रात्रि में एक बजे यह निश्चय हुआ कि गयवरचंदजी लोकापवाद के कारण पूज्यजी महाराज के पास नहीं, पर निबाड़े जाकर मगसर कृष्णा ५ के दिन गृहस्थी वेष का त्याग एवं साधु वेष को स्वीकार कर भिक्षाचारी शुरू करदें, केवल ओघा की दाड़ी पर कपड़ा ( नीसथिया ) नहीं रखें, यह निश्चय कर भंडारीजी और गयवरचंदजी पूज्यजी को वन्दन करके, अपने स्थान पर चले गये और पूज्यजी महाराज ने भी सुख से शयन किया। १४-पेशाब से घृणा और चाण्डाल की योनी भंडारीजी और गयवरचंदजी रात्रि में एक मकान में सो रहे थे । प्रातः काल हो गयवरचन्दजी ने कहा कि भंडारीजी साहब, मैं दोघशंकार्थ (टट्टी) जाता हूँ। भंडारीजी ने कहा, ठहरो मैं लोटा ला देता हूँ। भंडारीजी ने एकान्त में जाकर एक लोटे में पेशाब कर के ऊपर दॉक दे कर आपको दे दिया। आपने समझा कि लोटे में पानी होगा, किन्तु जब निपट कर शौच-शुद्धि करने लगें तब मालूम हुआ कि लोटे में पेशाब है । बस आपको इतनी घृणा आई कि वहाँ से सीधे ही कुएँ पर जा के स्नान किया Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ पेशाब. चाण्डाल का योनी और कपड़ों को धो कर भंडारीजी के पास आये और कहा कि भंडारी साहब, आपने यह क्या जुल्म कर डाला जो पानी के बदले पेशाब का लोटा दे दिया ? भंडारीजी ने कहा, वाह, आप दीक्षा लेने को तैयार हुए और पेशाब से इतनी घृणा । दीक्षा में तो सब कामों में इसका ही व्यवहार करना होगा। यह सुनकर गयवरचन्दजी तो बड़े हो लज्जित हो अफसोस करने लगे। भंडारीजी ने कहा कि आपके दिलमें कुछ शंका हो तो पूज्यजी के पास चलो । गयवरचन्दजी ने सोचा कि क्या पूज्यजी महाराज यह कहेंगे कि तुम टट्टी जाकर पेशाब से शौच-शुद्धि कर लेना। बस, भंडारीजी और गयवरचन्दजी पूज्यजी के पास आये और भंडारीजी ने सवाल किया कि गयवरन्दजी दीक्षा लेने को तैयार हो रहे हैं और पेशाव से इतनी घृणा है कि हाथ में लेने मात्र से कुएँ पर जाकर स्नान कर एवं कपड़े धोकर असंख्य अपकाय के जीवों की हिंसा कर डाली है । आप इनको अच्छी तरह से सम. मावें। पूज्यजी ने कहा कि गयवरचन्दजी ने अभी तक शास्त्र न पढ़े हैं, और न सुने हैं ! गयवर०-क्या शास्त्रों में पेशाब को इस प्रकार काम में लेना लिखा है ? पज्यजो-हां, लिखा है, तब ही तो हम लोग पेशाब को काम में लेते हैं। __ तुम गृहस्थ हो, अभी तक तुमका सुमति, गुप्ति की मालूम नहीं है । दूसरे, सब शरीर में यही स्थान उत्तम है, इसी खान से बीर्थङ्कर चक्रवर्ती पैदा होते हैं, अतएव पेशाब से घृणा करने वाला Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ५ ॥ चाण्डाल योनी में उत्पन्न होता है, इत्यादि । पूज्यजी ने ऐसी हेतुयुक्ति से उपदेश दे कर आपके मन की भ्रांति को निकाल दी और पेशाब पर प्रीति बढ़ादी । पूज्यजी ने भंडारीजी को कहा कि अच्छे कार्य में अनेक विघ्न आ जाया करते हैं । आप अब बिल्कुल विलम्ब न करें, क्योंकि जहां तक गृहस्थ के कपड़े गयवरचन्दजी न छोडदें, वहाँ तक कई प्रकार की जोखिम है । आप आज ही रवाना होकर नींबाहेड़े पहुँच जाइये और मगसर कृष्ण ५ को भिक्षाचारी करवा कर समाचार मेरे पास जावरे पहुँचा दीजिये । बस मगसर कृष्णा २ की गाड़ी से भंडारीजी गयवरचन्दजी को लेकर नींबाहेड़े चले गये और कृष्णा ५ को दो पातरे, एक अोघा, चद्दर, चोलपटा इत्यादि साधु का वेश देकर भिक्षाचारी करवानी शुरु करदी और यह समाचार पूज्यजी को भी कहलादिया । बस, पूज्यजी और भंडारीजी की मनोकामना सिद्ध हो गई। भंडारीजी ने थोड़े दिन साथ में रह कर सब क्रिया बतला दी तत्पश्चात् श्रापको अकेला नींबाहेड़े में छोड़कर भंडारीजी पूज्यजी की सेवा में पहुँच गये । ___आपको पांच सुमति, तीन गुप्ति का थोकड़ा पहिले से ही आता था। गोचरी के ४२ तथा १०६ दोष आपके कण्ठस्थ थे। और भी कवित्त, छन्द, चौपाइयाँ और दालों वगैरह का आपको पहिले से ही अभ्यास था, दशवैकालिक सूत्र के शब्दार्थ कण्ठस्थ थे। आप तो उस ग्राम में हमेशा व्याख्यान भी देने लग गये। नींबाहेड़े से बिहार कर छोटे २ ग्रामों में फिरते हुए जावद आये । इधर पूज्यजी भी जावरा मंदसोर होतेहुए जावद पधार गये। आपका समागम जावद में हुआ। पूज्यजी ने भंडारीजी से कहा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ पेशाब. चाण्डाल की योनी कि गयवरचंदजी की आज्ञा की कोशिश क्यों नहीं करते हो । भंडारीजी ने एक पत्र बीसलपुर लिखा कि गयवरचंदजी ने गृहस्थ का वेश त्याग कर साधु के वेश में भिक्षाचारी करनी शुरू करदी है। अब वे आपके काम के नहीं रहे हैं । अकेले विचरने से उनको तकलीफ भी होती है । तथा आपकी आज्ञा बिना साधु अपने में शामिल नहीं करते हैं, और न आहार-पानी ही साथ में करसकते हैं । अतएव श्राप आज्ञापत्र लिखकर उन्हें भेज देवें जिससे कि वे साधुओं में शामिल हो जावें, इत्यादि। ____ यह पत्र बीसलपुर पहुंचा। पढ़कर सबके दिल में क्रोध की ज्वाला भभकने लगी। उन्होंने कहा यह कैसा साधुत्व, यह कैसा विश्वास घात, यह कैसी वचन-प्रतिज्ञा । पत्र के उत्तर में साफ लिख दिया कि जब तक वे गृहस्थ के वेष में एक बार बीसलपुर 'न' पाजावें, तब तक हम न तो श्राज्ञा दे सकते हैं और न हमारी आज्ञा बिना कोई भी साधु उनको अपना शिष्य ही बना सकता है। यह पत्र भंडारीजी ने गयवरचन्दजी को पढ़ाया। आप पत्र पढ़ कर बड़े ही विचार में पड़गये कि, मैंने पूज्यजी व भंडारीजी की फाकी में आकर बिना विचारे काम किया, जिससे वचन पतित और प्रतिज्ञा भ्रष्ट और अविश्वास का पात्र बनगया हूँ। इसका ही नतीजा है कि मैं न घर का रहा, न घाट का, अर्थात् इस समय धोबी के कुत्ते वाली मेरी दशा हुई है । फिर भी आप हतोत्साह न हुए और बड़ी हिम्मत के साथ निश्चय कर लिया कि कोई फिक्र नहीं है; यदि आज्ञा न होगी तो मैं अकेला ही संयम पालूंगा। अहा-हा! छ काया के रक्षक निस्पृही, श्रमायी और सच्चाई Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान ६० के सरदार, एक शिष्य का लोभ के कारण किस प्रकार प्रपंच करके गृहस्थों के घरों को बर्बाद कर बेचारे भद्रिक जीवों को अपने जाल में फंसा कर उसकी किस प्रकार विडम्बना करवाते हैं, जिसका यह एक उदाहरण है । आप आगे के प्रकरण पढ़ेंगे तो ठीक ठीक मालूम हो जायगा कि ऐसे साधु-समाज के रक्षक हैं या भक्षक ? जनता का कल्याण करने वाले हैं या रक्त चूँसने वाले हैं? यदि कोई भद्रिक यह शंका करे कि इस कार्य में उन पूज्य पुरुषों का क्या स्वार्थ था, वे तो संसारी जीवों के कल्याणार्थ ही करते हैं ? तो उसके उत्तर में उन्हें ज्ञात हो कि संसारी जीवों का कल्याण होना या न होना, तो उनके कर्मों के क्षयोपशम के धीन है, पर साधु इस प्रकार धोखेबाजी कर अपनी आत्मा का कल्याण तो जरूर ही करते हैं अर्थात् वह अपने संयम व्रत को तिलाञ्जलि दे चुका है। और इस प्रकार के प्रपंच जाल में दूसरों के कल्याण की भावना नहीं, पर शिष्य-विमोह अवश्य कहा जा सकता है, जिसको आप अगले प्रकरण में पढ़ सकेंगे । ~TING THE Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ - हमारे चरित्र नायकजी की स्वयमेव दीक्षा हमारे चरित्र नायकजी और भंडारीजी बीसलपुर का पत्र लेकर पूज्यजी के पास आये और सब हाल कह कर पूछा कि अब क्या करना चाहिये ! पूज्यजी ने कहा कि हमको तो कोटे की तरफ जाना है, स्वामी मोतीलालजी जवाहिरलालजी नीमच में हैं, वहां जाकर स्वयं दीक्षा लेकर कोटे की तरफ मेरे पास आ जाना । गयवरचन्दजी ने कहा कि नीमच जाने की क्या जरूरत है, मैं आपके समीप ही स्वयं दीक्षा लेकर आपके साथ कोटे चल सकता हूँ, किन्तु पूज्यजी लोकापवाद से डरते थे, अतः आपको नीमच भेज दिया । आपके सिर पर बड़े २ बाल बढ़े हुए थे । गृहस्थ होने पर भी साधु के वेष के कारण नाई से हजामत करवाना नहीं चाहते थे, किन्तु श्राप लोच करना भी नहीं जानते थे । अतः जवाहिरलालजी महाराज से कहा कि, “हमारा लोच आपके किसी साधु से करवा दीजिये" । इस पर उन्होंने कहा कि, "जब तक तुम हमारे पास से दीक्षा न ले लो, तब तक हम लोच नहीं कर सकते हैं ।" “खैर, आप हमको लोच करने की रीति बतला देवें, तो मैं खुद कर लूंगा ।" किन्तु उन कठोर हृदय वालों ने रीति तक नहीं बतलाई, क्योंकि इस कार्य में उनको लाभ भी क्या था । कारण, हमारे चरित्र नायकजी दीक्षा लेते थे पूज्यजी के पास, फिर जवाहरलालजी सहायता कैसे दे सकते थे । यही तो उदारता का नमूना है । आखिर आपने बालों को पानी से गीले कर उस पर राख Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान डाल कर थोड़े से बाल उखेड़े, किन्तु सब लोच नहीं कर सके; “इस हालत में नाई को बुलवा कर मुण्डन करवाया। एक परमानन्द नामक अग्रवाल जवाहरलालजी के पास दीक्षा लेने को आया, किन्तु उसकी भी आज्ञा नहीं हुई थी। जवाहरलालजी महाराज ने उसको भी गयवरचन्दजी के साथ कर नीमच से तीन मील पर जंबुनिया ग्राम में, जहां स्वामी मोतीलालजी ठहरे हुए थे, भेज दिया, और चैत्र कृष्णा ६ को गयवरचन्द व परमानन्द दोनों ने स्वयमेव दीक्षा ले ली। बाद में गयवरचन्दजी ने तो कोटे का रास्ता पकड़ा और रामपुरा, भानपुर होते हुए चैत्र कृष्ण १३ को कोटे पहुँच गये, और उसी दिन पूज्यजी महाराज के पास आपने स्वयं बड़ी दीक्षा धारण करली और कह दिया कि मैं पूज्यजी का शिष्य हूँ। बाद में पूज्यजी के पास रहकर ज्ञानाभ्यास करने लगगये, किन्तु आहार-पानी अपना लाते करते थे। पूज्यजी महाराज की आप पर पूर्ण कृपा थी। आपने उत्तराध्ययन सूत्र, नंदीसूत्र, सुखविपाकसूत्र और वीर स्तुति मूल पाठ कण्ठस्थ कर लिया तथा पहिले के मिला कर आज पर्यन्त करीब १५० थोकड़े भी कण्ठस्थ हो गये। आपको ज्ञान पढ़ने का जितना शौक था उतनी ही बुद्धि भी आपकी निर्मल थी। रात्रि में केवल ३ घंटे ही निद्रा लेते थे। आप हमेशा ८० या १०० श्लोक कण्ठस्थ कर लेते थे। उस समय पूज्यजी महाराज के पास जितने साधु थे, उनमें पहिले नंबर में शोभालालजी और दूसरे नंबर में आप ही थे। आपका उस समय का त्याग बड़ा ही उच्चकोटि का था,उपाधि में सिर्फ एक चहर, एक चोलपट्टा, एक ढ़ाई हाथ का बिछौना Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयमेव दीक्षा और दो पात्र थे, फिर भी आप हमेशा एकान्तर तपस्या निरन्तर ही किया करते थे। ___ जब पूज्यजी महाराज का कोटे से ब्यावर की ओर बिहार हुआ तो आप भी साथ ही थे। पूज्यजी के साथमें जितने साधु थे, वे प्रायः सब अपठित ही थे। हमारे-चरित्र नायकजी की बढ़तो उनसे देखो नहीं गई । उन्होंने आपकी कई प्रकार की झूठी शिकायतें करके पूज्यजी के मनमें जमादी । पूज्यजी ने निर्णय किये बिना ही हमारे चरित्र-नायकजी से मन बैंच लिया। यहाँ तक कि जब ब्यावर तीन मुकाम दूर रहगया तो पूज्यजी ने फरमाया कि गयवरचंद, अभी तुम्हारी आज्ञा नहीं हुई है, इतने दिन तो हमने तुमको साथ रखलिया, किन्तु अब मारवाड़ आता है; तुम्हारे संसारिक कुटुम्ब भी बहुत हैं, और संभव है कि वे श्राकर हमको उपालंभ भी दें। अतएव तुम बीसलपुर जाकर आज्ञा पत्र लिखा लाओ, जिससे कि तुम्हारा आहार पानी शामिल हो सकें। नहीं तो, अब हम तुमको साथ में नहीं रखेंगे। पूज्यजी महाराज के ये वचन सुनकर तो आपके होश-हवास गुम हो गये तथा मनमें विचार किया कि जिन पूज्यजी महाराज के कहने से मैंने सब कुछ किया है, आज वही पूज्यजी मुझे पास में रखने से इन्कार कर रहे हैं; यह कैसी साधुता । गयवर०-पूज्यजी महाराज ! मैं अकेला मेरे संसारी ग्राम में नहीं जा सकता हूँ, कृपाकर एक दो साधुओं को मेरे साथ मेज दें तो मैं आज्ञा लाने के लिए जाने को तैयार हूँ ! पूज्यजी-मैं तो मेरे किसी साधु को नहीं भेज सकता हूँ, Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान ६४ तुमको हमारे साथ रहना है तो बीसलपुर जाकर आज्ञा - पत्र लिखा लाओ । C गयवर० - पूज्यजी महाराज ! मुझे अकेला जाने में लज्जा आती है; कृपा कर आप दो साधुत्रों को अवश्य भिजवादें ! पूज्यजी ने तोते वाली आँख बदल दी और कहा कि, बस तुमको कह दिया कि हमारा कोई साधु तुम्हारे साथ नहीं आवेगा; तुमको हमारे पास रहना है तो आज ही बिहार कर आज्ञा ले आओ, भंडारीजी ब्यावर में हैं, जाश्रो उनसे मिल लेना । गयवरचंद -- हताश होकर एक तरफ जाकर चिन्तातुर होकर बैठ गया । फिर विचार किया कि इस प्रकार चिंता करने से और चुपचाप बैठ जाने से क्या होने वाला है । किन्तु बिहार कर के बीसलपुर जाने के नाम पर आपके पैर पीछे पड़ जाते थे । श्रतः पूज्यजी महाराज से और भी नम्रतापूर्वक विनय की कि आपने रतलाम में मुझे किस प्रकार का विश्वास दिलाया था और आज यह बर्ताव क्यों किया जाता है, यदि मेरा कोई कसूर हुआ है तो आप माफ करावें, और कृपाकर दो साधु मेरे साथ भिजवा देवें । तब पूज्यजी ने सख्त नाराज होकर कह दिया कि यदि तुमको जाना है तो चले जाओ, वरना हमारे साथ नहीं रह सकोगे समझ गये न ? गयवरचंद ने कहा पूज्यजी महाराज, मुझे यह उम्मेद नहीं थी, कि आप जैसे पूज्य पुरुष मुझे विश्वास देकर घर छुड़वा कर मेरे साथ इस प्रकार का वर्ताव करेंगे। परन्तु खैर, आपकी मरजी । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ – आज्ञा के लिए बीसलपुर जाना पज्यजी महाराज की आज्ञा लेकर आप अकेले ब्यावर आये । वहाँ भंडारीजी से मिले और सब हाल कह सुनाया; किन्तु वे तो सब एक ही गुरु के पढ़ाये हुए थे । भंडारीजी ने भी कह दिया, हां, आज्ञा पत्र तो आपको लाना ही पड़ेगा, और आज्ञा आने पर ही पूज्यजी आपको पास में रख सकेंगे । गयवर ० - भंडारीजी, वे वचन आप क्यों भूल जाते हो जो मेरे गृहस्थी के कपड़ों के त्याग के समय आप और पूज्यजी महाराज ने कहे थे । श्राज मैं केवल दो साधुओं को साथ भेजने की प्रार्थना करता हूँ, जिस पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है । यदि मेरे साथ दो साधुओं को भेजने में ही पूज्यजी को दोष लगता हो तो इतने महिने मुझको साथमें रख सब खानगी व्यवहार क्यों करते थे ? यदि उस व्यवहार में दोष नहीं था, तो अब साधु भेजनेमें इन्कारी क्यों की जाती है । क्या पूज्यजी महाराज और आपका यही कर्तव्य है कि मुझ निराधार को अकेले भेज रहे हो । स्त्रैर, मैं तो इन सबको सहन कर लूंगा, पर आप भवियमें किसी दूसरे को इस प्रकार न फँसा देना । बस, इतना कहकर आपने ब्यावर से बीसलपुर की ओर बिहार कर दिया । जब बीसलपुर एक मील दूर रहा, तो आपके पैर वहीं स्तम्भ हो गये । आपने थोड़ी देर वहाँ बैठकर विचार किया कि जैन साधु जगत-बन्धु और जगत् का कल्याण करने वाले कहलाते हैं, साधु ये ही हैं या कोई दूसरे हैं। इन को इतनी भी दया नहीं आई कि हमारे विश्वास पर एक योग्य खानदान के Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-‍ ६६ मनुष्य ने अपनी ऋद्धि, सम्पत्ति, और कुटुम्ब को छोड़कर हमारे कहने से दीक्षा ली है; उसको इस प्रकार निराधार करके अकेला छोड़ दें, इत्यादि । इस विचार ही विचार में करीब १२ बज गये किन्तु बीसलपुर जाने के लिए जीव हिचकिचाता रहा । - ज्ञान. आपने बीसलपुर जाने का विचार स्थगित कर वहाँ से पालासनी जाना निश्चय किया, जो बोसलपुर से एक मील है । पालासनी पहुँचते ही वहाँ से बीसलपुर समाचार पहुँच गया कि गयवरचंदजी आज पालासनी आये हैं तब बीसलपुर से ४-५ श्रावक ये और कहा कि आप बीसलपुर पधारें, आपकी आज्ञा के लिए हम कोशिश करेंगे। यहाँ ही गये । उसी दिन शाम को वे बीसलपुर गये, रात्रि में सब लोग वन्दन करने को एवं मिलने को आये। सुबह व्याख्यान हुआ जिसको सुनकर लोग बड़े हो प्रसन्न हुए । व्याख्यान के बाद गौचरी गये तो सबसे पहले अपनी माता के माताजी, पहिले तो खूब रोई बाद में उपालम्ब देते हुए कहा कि वाह ! तुमने बहुत ठीक किया ? अपने पिता के बचनों को भी ठीक पाला अरे, हमारी नहीं, किन्तु इन छोटे-छोटे तुम्हारे भाइयों की भी तुम को दया नहीं आई इत्यादि । फिर कहने लगी कि अब तुम्हारी माता के कलेजे में दाह लगाने को यहां क्यों आये हो, चले जाओ, मैं तुम्हारा मुंह देखना तक भी नहीं चाहती । नहीं चाहती हो, गयवर० - खैर, आप मेरा मुंह देखना किन्तु मैं तो आपका मुंह देखने को आया हूँ, पूज्य माताजी, सब जीव कर्माधीन हैं, कोई किसी का भला बुरा नहीं कर सकता । भला मैंने तो दीक्षा ली है और आप इतने दुःख के साथ उपा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा के लिये बीसलपुर जाना लम्भ दे रही हैं । किन्तु कई मनुष्य जो आपके सामने जवानी में मर गये हैं, क्या वे कभी मेरी भांति आकर मुँह बतलाते हैं ? इत्यादि बहुत उपदेश दिया। और कहा कि मैं भिक्षा के लिये आया हूँ यदि योगवाई हो तो भिक्षा दीजिये। इस पर माताजी ने शान्त होकर अपने हाथों से आहार पानी दिया, फिर मुनि श्री अपने स्थान पर चले गये। आपके संसारी पक्ष के मामाजी चांदमलजी थे। वे भी मुनिश्री के पास आये। जो कुछ कहना था उन्होंने भी कहा ! आखिर आपने कहा कि मैंने तो दीक्षा ले ली है, अब आपके काम का तो हूँ नहीं, किन्तु आज्ञा बिना साधु अपने पास में नहीं रखते हैं। अतः मैं इसलिये आया हूँ कि आप माताजी को समझा कर उनसे आज्ञा पत्र लिखबादें । इतने में माताजी भी वहीं आगये और चांदमलजी ने सब बात कही। इस पर माताजी ने कहा कि गणेशमल तो दिसावर है, बीनणी ( राजकुंवर) अपने पीहर सालावास है, अतः आज्ञा देना मेरे हाथ की बात नहीं है, यदि आज्ञा की जरूरत ही है तो सालावास जाकर बीनणी से ले आओ। ____आपने सोचा कि यहां तो आज्ञा होने वाली नहीं है, फिर देर करने से क्या फायदा । अतः आपने जोधपुर जाने का निश्चय कर लिया और चांदमलजी ने वहां से सालावास समाचार कहला दिया कि गयवरचन्दजी यहां आये हैं, और कल रवाना होकर जोधपुर जावेंगे। श्राप दूसरे ही दिन बिहार कर जोधपुर गये, और आउवा की हवेली में जहां साधु धनराजजी ठहरे हुए थे, वहीं उनके Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আহা-মুনি पास ठहर गये। वहां सालावास से राजकुँवर तथा आपके कुटुम्ब वाले करीब २०-२५ लोग आये, और खूब गुस्से में आ कर कहने लगे कि आपको किसने आज्ञा दी, किसने दीक्षा दी,हम मुँहपत्ती तोड़ कर एवं हाथ पकड़ कर घर पर ले जावेंगे, इत्यादि खूब हो परिसह दिया; किन्तु आप तो मौन धारण कर बैठ गये। आखिर वे थक गये, उन्होंने आज्ञा की तो बात ही नहीं सुनी और कहा कि आपने हमको क्या सुख पहुँचाया है कि हम श्राप को आज्ञा देकर सुखी करें। संसार का मोहजाल और स्वार्थ का यह एक नमूना है । मुनिश्री ने कहा कि आप आज्ञा दें या न दे, मेरा जीवन तो इसी दीक्षा में नत्म होगा। ___जोधपुर से धनराजजी साधु के साथ आप तीबरी गये । वहां कर्मचन्दजी महाराज के दर्शन कर वापिस लौट कर ब्यावर आये, इन दिनों में सख्त गरमी पड़ने पर भी आप छट छट के पारणना करते थे। ब्यावर में मन्नालालजी महाराज बिराजते थे । मन्नालालजी और पूज्यजी महाराज के आपस में वैमनस्य था। उन्होने आपके सामने पूज्यजी की पट्टावलि पढ़नी शुरु की, जिसको सुनकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ और घर छोड़ने का दुःख होने लगा। उन्होंने देखा कि साधुओं का यह तो साधारण स्व. भाव ही बन गया है कि दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा करना और जो आवे उसको अपना चेला बनाने की कोशिश करना, अस्तु। ___आपका स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था और ब्यावर में पढ़ाई का संयोग भी अच्छा था, इसलिए श्राप मन्नालालजी महाराज के पास ठहर गये। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ आज्ञा के लिये बीसलपुर जाना .. पूज्यनी महाराज अजमेर बिराजते थे वहां से आप के लिये समाचार आया कि गयवरचन्दजी की मर्जी हो, तो वे मेरे पास श्रा जावें, या सोजत में फूलचन्दजी के पास जाकर चतुर्मास कर लें, किन्तु ब्यावर में ठहरने की मेरी आज्ञा नहीं है । इसका कारण शायद् यह हो कि गयवरचन्द को मन्नालालजी भ्रम में डाल कर अपना शिष्य बनालें । अहा-हा-गृहस्थ लोगों में जैसे धन की तृष्णा है और वह धन के लिये अनेक प्रकार के प्रपंच, जाल, माया, मूंठ आदि रचते हैं इसी तरह साधु लोग चेला चेली के लिए किया करते हैं, विशेषता इतनी हो है कि गृहस्थों के इन बातों का सर्वथा पच्चक्खान याने त्याग न होने से पाप तो लगता है, पर व्रत-भंग का दोष नहीं लगता है, परन्तु साधुओं को पाप भी लगता है और वे सर्वथा त्यागी होने से उन्हें व्रत-भंग का दोष भी लगता है। कलिकाल में शायद वह दोष कलियुगी साधुओं से डरता हो तो बात दूसरी है। हाय ! खेद और महा खेद है कि साधु जीवन भी इतना कलुषित है तो गृहस्थ जीवन का तो कहना ही क्या है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७–सोजत-चतुर्मास और आज्ञा-पत्र की प्राप्ति हमारे चरित्र नायकजी ने सोचा कि जब पूज्यजी महाराज की इस समय शुभ दृष्टि ही नहीं है और आज्ञापात्र भी नहीं मिला है, फिर अजमेर जाकर पूज्यजी के साथ चतुर्मास करने में लाभ ही क्या है । इससे तो अच्छा यही है कि सोजत जाकर चतुर्मास करदिया जावे जिससे पूज्यजी की श्राज्ञा का भी पालन हो जायगा और अपने भी शान्ति के साथ ज्ञानाभ्यास होता रहेगा। अतएव आपने ब्यावर से विहार कर सोजत जाकर फूलचन्दजी महाराज के पास चतुर्मास कर दिया । सोजत में बख्तावरमलजी सियाटीया एक अच्छे श्रावक थे और आपको कई थोकड़ा बोलचाल भी याद थे । बस ! आप यही चाहते थे, थोकड़ों का अभ्यास शुरुकिया, जितूने थोकड़े बख्तावरमलजी को आते थे, वे सबके सब आप सीख गये और बदले में आपने अपने थोकड़े उनको सिखादिए। फूलचन्दजी एक अच्छे क्रियाशील साधु थे । आपके पास छगनलालजी और कन्हैयालालजी दो साधु और भी थे, फूलचन्दजी शरीर से कमजोर थे और आपके व्याख्यान में लोगों को रस बहुत कम आया करता था। कभी २ श्रावकों के आग्रह से हमारे चरित्र-नायकजी व्याख्यान दिया करते थे, आपके व्याख्यान से सब लोग संतुष्ट थे, और बार २ कोशिश करके श्राप से ही व्याख्यान दिलवाया करते थे। रिखबदासजी रातड़िया और बख्तावरमलजी सुराण ने आप के आज्ञापत्र के लिए बहुत प्रयत्न किया । आखिर में वे सालावास Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोजत चतुर्मास और भाज्ञा-पत्र की प्राप्ति जाकर राजकुँवर को दर्शनार्थ सोजत ले आये, और आज्ञापत्र के लिए बहुत कहा-सुनी की, पर उन्होंने कह दिया कि यह काम हमारा नहीं, हमारे सासूजी व गणेशमलजी का है। फिर भी पूर्वोक्त दोनों श्रावकों ने एक आज्ञापत्र लिख कर राजकुँवर के पास में आये और जबरन उनके अंगुठे पर स्याही लगाकर नहींनहीं करते ही उनका अंगुठा आज्ञापत्र पर लगा दिया और वह आज्ञापत्र लाकर मुनिश्रीजी को सुपुर्द कर दिया। सोजत के चतुर्मास में हमारे चरित्र-नायकजी ने अपनी उत्कृष्ट त्याग भावना के कारण केवल एक चहर और एक चोलपट्टा ही रखा था और वह भी इतनी मैली कि जिसमें कई जूंऐं पड़गई थीं । जब फूलचन्दजी महाराज को पूँछा तो उन्होंने कहा कि जूओं को इधर उधर डालोगे तो तुम पाप में डूब जाओगे, अतः जूओं का पोषण कर दया पालनी चाहिए । इसी प्रकार कन्हैयालालजी के भी कई जूंएं पड़ गई, उन्होंने भी गुरु श्राज्ञा शिरोधार्य कर जूओं का पोषण किया । नतीजा यह हुआ कि जो शुरु में पाठ दस जूंएं थीं, उनका पोषण करने से वे हजारों की संख्या में पहुँचगई । पोषण का मतलब यह है कि जूओं को एक कपड़े में रखीजाती थी और समय समय पर पैरों की जाघों और साथलों पर रख कर अपना खून उन जूओं को पिलाया जाता था । जब वे खून चूसती थीं, तब मालूम होता कि वहाँ सूई के घाव होते हैं । अन्त में वे घुऐं असंख्य हो गई ऐसी हालत में अरुची होजाना स्वभाविक है। लोग यह भी कहा करते थे कि ढूंढ़ियों के पास जाने पर वे जूंएं डाल देते हैं । और दिन बीतने पर उनका अभाव भी होने लगा, तथा आसोज से पैदा हुई जूओं का चैत्र Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ७२ मास में जाते पीछा छूटा। उत्कृष्टता एवं कपड़े नहीं धोने का यह परिणाम हुआ कि हजारों जीवों की ओर अपने शरीर एवं संयम की विराधनाओं के पाप की पोट सिर पर उठानी पड़ी । सोजत का चतुर्मास समाप्त होने पर हमारे चरित्र नायकजी आज्ञापत्र लेकर पूज्यजी की सेवा में पहुँचे । पूज्यजी अजमेर का चतुर्मास समाप्त कर खरवा पधारे थे । आपने खरवा जाकर पूज्य जी महाराज का दर्शन, वन्दन किया, और श्राज्ञा-पत्र देकर कहा कि अब मेरा आहार -पानी शामिल करने की आज्ञा दिलावें । पूज्यजी महाराज ने श्राज्ञा पत्र देखकर कहा कि यह तो राजकुँवर की आज्ञा है, पर आज्ञा चाहिए माता पिता की; अतएव तुम जाकर अपनी माता की आज्ञा लाओ, तब ही तुम्हारा आहार पानी शामिल किया जावेगा । जब बड़ों की दृष्टि इस प्रकार होती है, तब छोटा आदमी क्या कर सकता है । पूज्यजी के दिल के अन्दर तो दर्द था, बिना आज्ञा मन्नालालजी के पास रहने का और आपने व्यक्त भी कर दिया था कि मेरी आज्ञा बिना तुम मन्नालालजी के पास क्यों रहे, और उनके साथ तुम्हारी जो जो बातें हुई, वे साफ २ क्यों नहीं कहदेते हो । जबतक तुम इस बात का स्पष्ट तौर पर वर्णन नहीं करोगे, कभी सुख से नहीं रहोगे । किन्तु आपका खानदान ऐसा नहीं था कि एक की बात दूसरे को कहकर आपस में वैमनस्य की वृद्धि करे । जो कुछ सुख एवं दुःख है वह भोग लेना ही अच्छा है । हमारे चरित्र नायकजी पूज्यजी की श्राज्ञा लेकर दूसरी बार आज्ञापत्र के लिए बीसलपुर जाने को रवाना हो गये । ब्यावर । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ सोजत - चतुर्मास और आज्ञा-पत्र को प्राप्ति शुरु ये तो यहां केवलचन्दजी साधु मिले जो हमारे चरित्र नायकजों ने में इनके पास ही दीक्षा लेने का विचार किया था । उन्होंने कहा कहो गयबर, क्या हाल है ? गयवर ०. - हाल तो अच्छा ही है । केवल०—फिर अभी तक अकेला क्यों घूमता है ? का ही फल है । गयवर ०. -आप महात्माओं की कृपा केवल ० – तुम्हारी दीक्षा तो होगई है न ? गयवर ०- - जी हाँ । केवल ० – किसके पास और किसका शिष्य हुआ है ? i Copy गयवर० - मेंने स्वयं ही दीक्षा ली है । केवल ० – स्वयं दीक्षा तो तीर्थङ्कर या प्रतिबुद्धि लेते हैं, तो क्या तूं भी प्रतिबुद्ध है ? गयवर० – क्यों ? हमारे पूज्यजी तथा शोभालालजी ने भी स्वयं दीक्षा ली है । केवल ० – कहीं सूत्र में ऐसा उल्लेख है कि बिना गुरु दीक्षा ● हो सके ? गयवर० – सूत्र में तो मैं क्या समझता हूँ, मुझे तो जैसा पूज्यजी महाराज ने कहा वैसा मैंने किया है ? केवल० -- जब पूज्यजी की आज्ञानुसार किया तो फिर अकेला क्यों फिरता ? गयवर० - पूज्य जी का कहना है कि अपने कुटुम्बियों की आज्ञा लाने पर तुम्हारा आहार जल शामिल किया जावेगा । केवल ०- क्या दीक्षा लेने के बाद भी कुटुम्ब रह सकता है । गयवर० – महाराज जब मैं गृहस्थ था, तब आप लोगों की Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ७४ माया, कपटाई, छल, प्रपंच, और धूर्त-विद्या से अज्ञात था, पर अब मालूम हुआ है कि संसार में जितना जाल फैला है, उसका जन्म तो आप लोगों के द्वारा ही हुआ है। ___ केवल-ठीक है गयवर, हमारे जैसे साधु तुमको पसंद नहीं हुए, किन्तु बड़ों के काम ही बड़े होते हैं, और अब तुमको यह मालूम भी हो गया है । पर अब क्या करना है, यदि तुम हमारे पास रहना चाहो तो अब भी समय है, वरना पूज्यजी ढूढाड़े हैं, उनके तीन गांठे तो स्वभाविक ही हैं, और कितनी होगी वह फिर मालूम होंगी, पहिले भी तुमने मेरा कहना नहीं माना, जिसका तो फल भोग ही रहे हो, अब भी समझ जाओ, तो अच्छा है। गयवर०- स्वामीजी आपका कहना ठीक है, किन्तु मैं मेरे मुँह से पूज्यजी का शिष्य बन चुका हूँ, और मेरा खानदान ऐसा नहीं है कि मैं एक को छोड़ दूसरे का नाम धराऊँ । केवल०-देख गयवर,वहाँ तुम्हारे दिल को समाधि नहीं रहेगी इस बात का पहिले विचार कर लेना। अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तू खुद विचारवान है। गयवर०-यदि मेरे में संयम का गुण होगा तो मैं जहाँ रहूँ वहाँ ही समाधि रहेगी, किन्तु मैंने जो पहिले से निश्चय किया है, उसमें तो परिवर्तन करने की बिलकुल इच्छा नहीं है। केवल-अभी पूज्यजी की प्रकृति का तुम्हें पूर्ण अनुभव नहीं हुआ है। ___गयवर०-पूज्यजी की कैसी ही प्रकृति क्यों न हो, और वे मुझे कितना ही कसौटी पर क्यों ना जाँचे, किन्तु मैं अपने निश्चय से कभी विचलित न होऊँगा। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोजत-चतुर्मास और आज्ञा-पत्र की प्राप्ति तब केवलचंदजी-समझ गये कि गयवरचंद अपने हाथ लगने वाला नहीं है इसने तो बिलकुल निराश कर दिया। स्वामीजी ने कहा ठीक है जब कभी तेरी इच्छा हो, तब ही तेरे लिए द्वार खुला है। आप ब्यावर से पीपाड़ गये, वहाँ कर्मचन्दजी महाराज बिराजते थे। उनसे याचना कर एक राजमलजी नामक साधु को साथ में लेकर बीसलपुर गये और मातुश्री की जबानी आज्ञा लेकर वहीं आहार पानी शामिल कर लिया। फिर वापस पीपाड़ बाये । कर्मचन्दजी महाराज के साथ आहार पानी,बन्दना व्यवहार करके वापिस पूज्यजी की सेवा में जानेके लिए विहार कर दिया। जब श्राप पर पधारे तो एक श्रावक द्वारा पता मिला कि मन्नालालजी के पास रहने के कारण पूज्यजी महाराज आप पर सख्त नाराज हैं और अब श्राप को पूज्यजी महाराज अपना शिष्य न करके किसी साधारण साधु का शिष्य बना देना चाहते हैं। यह सुनकर तो आप और भी विचार में पड़ गये फिर भी आपने ब्यावर जाने के लिए बिहार कर दिया। ब्यावर से करीब तीन मील पर जालिया नामक एक छोटा सा प्राम है । वहाँ जाकर रात्रि को ठहर गये और एक पत्र भंडारी जी के नाम पर लिखा कि मेरी श्राज्ञा हो गई है, अब मैं इस शर्त पर पूज्यजी महाराज के पास थाने को तैयार हूँ जैसे आपके वचनानुसार पूज्यजी मेरे को अपना शिष्य बनाले यदि पूज्यजी महाराज ने किसी को अपना शिष्य न करने की प्रतिज्ञा करली हो, तो मेरी इच्छा के माफिक शिष्य बनावें हाँ मैं किसी का भी शिष्य बनूँ पर पूज्यजी महाराज का तो सदैव दास बनकर उनके चरणों में ही Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान ७६ ^ रहूँगा, इत्यादि । इस पत्र का जवाब पूज्यजी महाराज को पूछ कर फौरन लिखो वरना मुझे स्वेच्छ मार्ग स्वीकार करना पड़ेगा । पत्र पहुँचते ही पूज्यजी महाराज को भंडारीजी ने पत्र पढ़ाया और कहा कि इसका क्या उत्तर लिखना । किन्तु पूज्यजी महाराज ने कह दिया कि ऐसे पत्र का जवाब नहीं देना चाहिये । उसको गरज होगी तो आप आजावेगा । इधर गयवरचंदजी के पास दूसरे दिन भी पत्र का जबाब नहीं श्राया तो उन्होंने अनुमान किया कि अभी पूज्यजी कि शुभ दृष्टि नहीं है । आप सुबह ही जालिया से बिहार कर एक ही दिन में ३८ मील चल कर अजमेर जाकर रात्रि को वहीं ठहरे और दूसरे दिन वहाँ से किशनगढ़ की ओर बिहार किया । मार्ग में एक ग्राम में मन्नालालजी महाराज मिल गये । आप उनके साथ जयपुर चले गये, मन्नालालजी ने आपको अपना शिष्य बनाने की कोशिश तो बहुत की, किन्तु आपका दिल पूज्यजी महाराज से हट नहीं सका और न पूज्यजी की योग्यता एवं श्रतिशयता मन्नालालजी में पाई, फिर भी उस आपत्तिकाल में आप मन्नालालजी के पास ही जयपुर में ठहर गये । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८-चार साधुओं को ताकीद से जयपुर भेजे पूज्यजी महाराज को जब यह पता लगा कि गयवरचंदजी मन्नालालजी के पास जयपुर जारहे हैं, तो बड़ा ही अफसोस हुआ कि एक अच्छे होनहार साधु को दुश्मन के हाथ देकर मैंने बड़ी भारी गल्ती की उन्होंने पश्चात्ताप किया, और उसी समय आज्ञा दी कि किस्तूरचंदजी अभी चार साधुओं के साथ विहार कर ताकीद से जयपुर जावें और गयवरचंदजी को मन्नालालजी के साथ पंजाब जाने से रोकें । बस, आज्ञा होते ही किस्तूरचंदजी ४ साधुओं से बिहार कर बड़ी फुर्ती के साथ जयपुर पहुँचे, और जिस मकान में मन्नालालजी ठहरे थे उसी मकान में ठहर गये । रात्रि में गयवरचंदजी को एकान्त में लेकर खूब समझाया और कहा कि पूज्यजी महाराज की आपके ऊपर पूर्ण कृपा है और यही कारण है कि हम लोगों को आपके लिए जल्दी से जल्दी भेजा है। तुम किसी हालत में भी मन्नालालजी के साथ पंजाब मत जाना। पूज्यजी महाराज की आज्ञा है कि गयवरचंदजी यहाँ पाजावें या हमारे (किस्तूरचंदजी के ) पास में रहें। अब, आपकी क्या इच्छा है वह स्पष्ट कहदो ताकि पूज्यजी महाराज को समाचार भेज दिया . जावे । इस पर आपने खूब दीर्घ दृष्टि से सोचा कि कुछ भी हो रहना तो पूज्यजी महाराज के पास ही कल्याणकारक है, और यह मेरो भूल है कि मैं पूज्यजी महाराज को छोड़ कर इधर-उधर भटक रहा हूँ; विना पूज्यजी महाराज की आज्ञा के आराधना किये मुझे शान्ति नहीं है, न जाने पूज्यजी महाराज मेरे लिए क्या Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ७८ हित चाह रहे होंगे; इत्यादि, विचार कर किस्तूरचंदजी को स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि मैं न तो मन्नालाल जी के पास रहूँगा और न इनके साथ पंजाब ही जाऊँगा । मैं पूज्यजी महाराज की आज्ञाओं को ही शिरोधार्य करूँगा; श्राप खुशी से पूज्यजी महाराज को समाचार कहलवा दीजिए। जब एक मास व्यतीत हो गया, तो मन्नालालजी ने कहा कि गयवरचंदजी हम लोग पंजाब में जावेंगे; तुम भी हमारे साथ चलो। गयवरचंदजी-मैं आपके साथ पंजाब नहीं चलूंगा । मन्नालालजी-क्यों ? गयवर०-आप पूज्यजी महाराज की निन्दा करते हो। मन्ना-क्या अब भी तुम पूज्यजी का पक्ष करते हो ? गयवरचंदजी-जी हाँ, पूज्यजी हमको कितना ही कष्ट देकर हमें कसौटी पर कसें, पर मैं पूज्यजी की निन्दा कभी नहीं सुन सकता हूँ। बस, मन्नालालजी ने हताश होकर पंजाब की ओर विहार कर दिया। इधर हमारे चरित्र नायकजी, पूज्यजी कि आज्ञा शिरोधार्य कर, किस्तूरचंदजी के पास रह गये। आपका दिल तो पूज्यजी की सेवा में जाने का था, किन्तु किस्तूरचंदजी टोंक माधौपुर जाने वाले थे; आपका भी मन हो गया कि नजदीक आ गये हैं, पूज्यजी की जन्म भूमि भी देखलें । इस इरादे से आपने किस्तूरचंदजी के साथ एक मास जयपुर में रहकर उनके साथ विहार कर दिया। जयपुर से 'छाड़सु' गये, वहाँ धोवन पानी बहुत कम मिला अतः एक खीवराज नामक साधु कुम्हार के यहाँ गया। कुंम्हारीन ने कहा कि यह कच्चा पानी है। परन्तु वह उसके मना करने पर भी Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ चार साधुओं को ताकीद से जयपुर भेजे बिल्कुल कच्चा पानी का पात्र भर कर ले आया। बाद में दूसरे साधु भी उस कुम्हार के यहाँ जा निकले । कुम्हारिन बड़ बड़ाहट करती हुई पहिले साधु को गाली दे रही थी कि राखऊडियो साधु महारो सब पानो लेगयो “अब मैं महारो काम कयां करूँगी"। दूसरे गये हुए साधुओं ने शान्त चित्त से कुम्हारी को पछा तो निश्चय हुआ कि पहिला साधु जो पानी लेगया, वह बिल्कुल कच्चा था। मकान पर जाकर देखा तो वे दोनों पात्र कच्च पानी से भरे पड़े थे। इस घटना को देख हमारे चरित्रनायकजी का दिल किस्तूरचंदजी के साथ रहने से हटगया. क्योंकि जिस दीक्षा के लिए घर छोड़ा, फिर उसके लिए ऐसा भद्दा बर्ताव क्यों? इसकी बजाय तो संसार में रहना ही अच्छा है । आप किस्तूरचंदजी का साथ छोड़ कर अकेले ही टोंक माधौपुर होतेहुए कोटा पहुंच गए। __मधौपुर और कोटा के बीच में एक दुर्घटना हो गई आप अकेले विहार कर जंगल में जा रहे थे; रास्ते में कई भील मिल गये और उन्होंने वस्त्र एवं पुस्तकें छीन लेने का इरादा किया। आपने सब वस्त्र-पात्र, पुस्तकें एक स्थान पर रख एक कार निकाल कुछ मिट्टी लेकर मुँह के पास रख, नवकार मंत्र पढ़कर उस उपधि पर डालदी और कहा कि जिसकी हिम्मत हो वह इसको उठाले । भील बिचारे डर गये उन्होंने नमस्कार करके माफी मांगी। मुनिश्रीने उनको उपदेश देकर ऐसे दुष्कृत्य करने का त्याग करवाया बाद वे अपने रास्ते चले गये और मुनि श्री निर्धारित प्राम की ओर चल दिए। क्रमशः आप कोटे पधारे । ___कोटा में आप १५ दिन तक ठहरे और हमेशा व्याख्यान भी देते रहे । वहाँ के लोगों ने चर्तुमास के लिए बहुत आग्रह पूर्वक Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान विनती की, किन्तु आपको तो जाना था पूज्यजी की सेवा में। अतः आपने कोटा से बिहार किया, कोटा और भानपुर के बीच में एक दर्रा नामका पहाड़ आता है । जब आप पहिले भान. पुर से कोटे गये थे तो उस समय पहाड़ तोड़ कर रेल्वे लाइन निकाली जा रही थी। उस समय हजारों मजदूर काम करते थे और आस पास के कई महाजन लोगों ने दुकानें लगाई थीं; वहां आपका अच्छी तरह से निर्वाह हो गया था। उसी भरोसे से आपने इस बार भी पहिले ग्राम से बिहार कर दरें पर ठहरने के इरादे से दर के पहाड़ के पास आ पहुँचे, किन्तु वहां देखा तो एक मनुष्य के बच्चे तक को भी नहीं पाया, चारों ओर तीन २ चार २ कोस तक कोई ग्राम नहीं, दिन भी बहुत कम रह गया था, अब कहीं भी जाने का समय नहीं रहा। चारों ओर जंगल और पहाड़ ही नजर आते थे। सूर्य नारायण भी इस घटना को देख पश्चिम की ओर लोप हो गये । सुबह पूर्ण आहार भी नहीं मिला, थोड़ी सी छाछ और पानी मिला था; वह दो कोश पर ही काम में ले लिया। इस समय एक ओर तो क्षुधा और दूसरी ओर प्यास ने इस प्रकार सताया कि रात्रि शायद ही कुशलता से निकले। इस निर्जन जंगल और पहाड़ों के बीच बिल्कुल अकेला आदमी कैसे ठहर सकता है, किन्तु उपाय ही क्या था ? तब आपने साहस के साथ सड़क के पास के एक झाड़ नीचे की भूमिका परिमार्जन कर श्रासन लगा दिया; तथा अपनी प्रतिक्रमणादि क्रिया में लग गये। इधर कृष्णपक्ष के तमस्कार ने अपना प्रभाव चारों ओर फैला दिया बस, जिधर दृष्टि डालो, उधर Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ चार साधुओं को ताकीद से जयपुर भेजे 1 अन्धकार हो अन्धकार था । आपने कुछ देर तो सूत्रों का स्वाध्याय किया बाद में थोकड़े याद करना शुरु कर दिया | करीब प्रहर रात्रि व्यतीत हुई होगी कि चारों ओर पहाड़ों से ऐसा जौर २ के चकार शब्द सुनाई देने लगे, कि जिसको सुनकर कायर पुरुषों के तो कलेजे फट जाते हैं । उस पहाड़ के गुँजित शब्द को सुनकर श्रापका धैर्य छूट गया और दिल में कई प्रकार के संकरूप विकल्प होने लगे, क्योंकि पहाड़ों में शेर बगैरह कई पशु थे और उनकी ही जोर २ से आवाज हो रही थी । हमारे चरित्र नायकजो अपने विचारों को पलटते हुए सोचने लगे कि मरना तो एक ही वार है; घर बार ही छोड़ दिया तो फिर इस नाशवान शरीर पर इतना ममत्व क्यों ? बस, उसी समय, आपने अपने भंडोपकरण एकत्रित करके एक तरफ रख दिए और सागारी अनशन व्रतं धारण कर लिया कि इस उपसग से बच गया तो संयम व्रत की आराधना करूँगा, और यदि आयुष्य ही समाप्त हो गई है तो मैं सर्वत्र प्रकार से शरीर एवं चार आहार और अठारह पापों का जावत्जीव पञ्चखान करता हूँ । बस, आपके दिल में जो भय था वह चोरों के समान पलायमान हो गया, तथा आप नवकार मंत्र का खूब जाप करने लगे । ज्यों ज्यों रात्रि व्यतीत होती गई, त्यों २ पहाड़ अधिक गुँजित शब्द करता ही गया, किन्तु आप तो मृत्यु का सामना करने के लिये निर्भय बन बैठे थे, आपको भय ही क्या था । गत रात्रि में आपको कुछ निद्रा आई और उसी निद्रा में प्रभात हो आया तब उठकर अनशन पारा प्रतिक्रमण और प्रति लेखन कर वहाँ से विहार कर, चार कोश पर एक ग्राम था, वहीं जाकर आहार जल किया । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६-जावद में गेनमलजी चौधरीकी नेक सलाह। हमारे चरित्रनायकजी विहार करते हुए भानपुर आये, वहां चौथमलजी वगैरहः कई साधु थे। आप उनके शामिल न ठहर कर अलग हो ठहरे । बाद में चौथमलजी के साधु आपके पास में श्राये, और पूज्यजी की निन्दा कर आपको अपने पास रखने की बहुत कोशिश की, किन्तु श्राप इन जावरा वाले साधुओं ( चौथमलजी के गुरु हीरालालजी और इनके गुरु जवाहिरलालजी वगैरहः ) के आचार विचार से पूर्ण परिचित थे, श्रतएव आपने स्पष्ट कह दिया कि न तो मैं पूज्यजी महाराज की निन्दा सुन सकता हूँ, और न मैं आपके पास रहना ही चाहता हूँ, आप अपने मकान पर पधारिए । यह सुन कर आये हुए साधु निराश होकर चले गये और आप विहार कर रामपुरे पधारे । रामपुरा में केसरीमलजी सुराणा नामक एक प्रख्यात श्रावक थे । वे कई वर्षों से एकान्तर तप करते थे। उनकी ईर्षा समिती देख कर तो श्राप विस्मय युक्त हो गये, कारण ऐसी ईर्षा समिती किसी साधु के भी नहीं देखी थी। साथ ही आप स्थानकवासियों के माने हुए टया के ३२ सूत्रों के भी पूर्ण ज्ञाता थे, कई साधु तो आपके पास आकर सूत्रों की वाचना लिया करते थे। आपने भी वहां कई दिन ठहर कर दशवकालिक सूत्र सम्पूर्ण और कई अध्ययन उत्तराध्यनजी सूत्र के शब्दार्थ का अभ्यास किया । श्रावकजो ने संयम के लिए भी आप को बहुत कुछ कहा, जिस Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जावद में गेनमलजी चौधरीकी नेक सलाह का भावार्थ यह था कि आज कल के साधु केवल नाम मात्र के साधु हैं, यदि संयम - लेना तो पूर्णतया पालन करना चाहिए, वरना श्रावकपन में रह कर श्रावक के ब्रतों की ही आराधना करना अच्छा है। __पूज्य हुक्मीचन्दजी महाराज कोटा की सम्प्रदाय को छोड़ कर इस प्रदेश में आये हुए थे। उस समय यहां पोतीयाबन्ध श्रावकों का ही साम्राज्य था और उनका पाट स्थान जावद था। वे लोग इसकाल में किसी को पांच महाव्रत धारी साधु होना मानते ही नहीं थे, उसी का नमूना हमारे केसरीमलजी सुराणा रामपुरा में रह गये थे । खैर केसरीमलजी की श्रद्धा कैसी ही हो, किन्तु उनका श्रावकाचार अच्छा था, और उन में दूसरों को ज्ञान पढ़ाने की उदारता अवश्य थी। रामपुरा से विहार कर आप जावद पधारे। वहां भी छोटे प्यारचन्दजी महाराज विराजते थे। आप अलग एक कोठरी में ठहर गये । स्वामीजी ने भी आप को ललचाने की बहुत कुछ कोशिश की और कहा कि गर्मी की मौसिम आगई है ज्यादा नहीं तो यह चतुर्मास श्राप हमारे पास करलो । इत्यादि। __जावद यों तो स्थानकवासियों का एक केन्द्र था। बहुत से अच्छे अच्छे श्रद्धासम्पन्न और धर्मप्रिय श्रावक थे। आप पहले .जावद में ठहरे हुए भी थे, एवं सब लोग जानते थे, अतएव आपने एक दिन वहां व्याख्यान भी दिया, जिस से सब का चित्त प्रसन्न हुआ। किन्तु आपका अकेले रहना सब के दिल में खटकता था। जावद में गेनमलजी चौधरी एक अच्छे मान्यवर और Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान घराने के मुख्य श्रावक थे। आपके लघुभ्राता शोभालालजी ने युवावस्था में वृद्धिचन्दजी महाराज के पास दीक्षा भी ली थी। वे पूज्य श्रोलालजी के लघु गुरु भाई थे। आपका ज्ञानाभ्यास इतना था कि पूज्यजी के समुदाय में कोई भी साधु आपकी बराबरी नहीं कर सकता था। गेनमलजी ने एक दिन हमारे चरित्रनायकजी के पास आकर एकान्त में कहा कि इस समय आपके ज्ञानाभ्यास के दिन हैं, आपने खानदान को और सब ऋद्धि को छोड़ कर वैराग्य के साथ दीक्षा ली है, फिर समझ में नहीं आता, कि आप अकेले इस प्रकार क्यों फिर रहे हैं, आपने पिछला सब हाल कह कर कहा कि श्रावकजी, कर्मो की गति विचित्र हुश्रा करती है। ___ गेनमलजी ने कहा, महागज आप त्यागी, वैरागी और गुणो हैं, जिस साधु से आप मिलेंगे वह आपको अपने पास रखने की कोशिश करेगा, क्योंकि गुणीजन सर्वत्र पूजे जाते हैं, किन्तु मेरी तो यह सलाह है कि ठाकुर ठिकाने ही शोभा पाता है, अतः आपको पूज्यजी की सेवा में रह कर सर्व प्रकार की योग्यता प्राप्त करनी चाहिए, चाहें पूज्यजी महाराज आपको कितना ही कष्ट दें या किसी का भी शिष्य बना दें, पर श्राप को तो पूज्यजी महाराज की आज्ञा का ही पालन करना चाहिए, इस में ही आपका कल्याण और शोभा है, पुनः मेरी तो यही राय है कि आप इस समय विहार कर सीधे हो पूज्यजी महाराज के पास पहुँच जावें और मैं भी पज्यजी महाराज के पास आपके लिए समाचार पहुँचा दूंगा । कहिए, मैंने कहा जिसके विषय में आपका क्या भाव है ? Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीनासर में पूज्यजी महाराज के दर्शन गेनमलजी साहब के कथन ने हमारे चरित्रनायकजी के रोम -रोम में स्थान कर लिया, और आपने कहा कि गेनमलजी आप का कहना अक्षरशः सत्य है और मेरा भी यही इरादा है कि मैं अब जल्दी जाकर पूज्यजी के चरणों की सेवा करू और पूज्यजी की आज्ञा को शिरोधार्य करलू । मैं सुनता हूँ कि शास्त्रकारों ने श्रावकों को साधुओं के माता-पिता के तुल्य बतलाया है, आप की नेक सलाह आज उसी बात का स्मरण करा रही है । ८५ - - भीनासर में पूज्यजी महाराज के दर्शन. २० हमारे चरित्र नायकजी ने तत्काल हो जावद से बिहार कर दिया और निमाहड़ा, नीमच, चित्तौड़, हमीरगढ़, भीलवाड़ा, इत्यादि ग्रामों में विहार करते हुए ब्यावर आ पहुँचे । इस विहार के दरमियान में जितने भी साधु मिले, उन्होंने आपको अपने पास में रखने की कई प्रकार से कोशिशें की एवं कई भांति के लालच भी बतलाये, किन्तु आपकी नजर तो पूज्यजी की ओर लगी हुई थी । ब्यावर में लालचन्दजी स्वामी बिराजते थे, आपको एक साधु की सख्त जरूरत थी । इधर हमारे चरित्र नायकजी जा पहुँचे, उन्होंने कहा गयवरचन्दजी आप अभी यहीं ठहरें, कारण भीनासर यहाँ से बहुत दूर है, गर्मी भी सख्त पड़ती है तथा प विहार भी बहुत करके आये हो । किन्तु आपने कहा कि कुछ भी हो, मुझे तो पूज्यजी के पास जाना है। लिए मैं अपनी थकावट उतारने को ठहर केवल दो चार दिन के सकता हूँ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान ८६ दूसरे ही दिन श्रापका व्याख्यान हुआ, जिसको सुनकर सारा समुदाय प्रसन्नचित्त हो कहने लगा कि हम पूज्यजी महाराज के समाचार मंगवा लेवेंगे, आप चतुर्मास लालचंदजी महाराज के साथ यहीं करावें। ___ ब्यावर के श्रावकों ने भीनासर पत्र लिखा और एक आदमी को भी भेजा, किन्तु पूज्यजी महाराज ने स्वीकार नहीं किया और कह दिया कि लालचन्दजी को साधु की जरूरत है तो हम दूसरे साधु को भेज देवेंगे, किन्तु गयवरचंदजी वहाँ नहीं ठहर कर यहाँ आजावें। ___ बस, फिरतो उपाय ही क्या था? आपने विहार कर दिया और पीपड़ा जाकर कर्मचन्दजी महाराज के दर्शन किए । जेष्ठ के मास में सख्त गर्मी पड़ती थी, तबभी लंबे २ बिहार कर आसाढ़ कृष्णा ५ को आप भीनासर पहुँच गये । पूज्यजी महाराज को ज्ञात होने पर उन्होंने दो साधुओं को आपके सामने भेजा और कई श्रावक तो उदयरामसर तक सामने आये। जब भीनासर में पूज्यजी महाराज के दर्शन हुए तो आपकी आँखों से अश्रु धारा बहने लग गई पूज्यजी महाराज ने भी आपकी पीठ पर हाथ धर बहुत स्नेहपूर्ण शब्दों में आपका सत्कार किया, और दोनों तरफ से हुये सब कसूर क्षमा कर दिये । आपने कहा कि गयवरचन्दजी, तुम सच्चे त्यागी, वैरागी, और खानदान के हो, तथा तुम कसौटी पर सच्चे और खरे ही उतरे । अब पिछली बातों को याद नहीं करना, जो ज्ञानी ने भाव देखा वही बना है। जाओ गौचरी लाओ। ___आपने कहा कि मैं एकान्तर करता हूँ, आज मेरे उपवास है। तब आपने कहा कि अच्छा धोवण तो ले आओ। हमारे चरित्र Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीनासर में पूज्यजी महाराज के दर्शन नायकजी ने सोचा कि धोवण पानी लाने को कह रहे हैं, तो क्या पूज्यजी अपना लाया हुआ धोवरण मुझे नहीं पिलावेंगे ? पर अलग धोवण लाकर तो मुझे भी नहीं पीना चाहिये, इसलिए आपने कह दिया कि मैं तो आज चौबिहार उपवास कर लूँगा । पूज्यजी महाराज भी समझ गये कि यह अलग आहार पानी करना नहीं चाहता है, खैर । सब साधुओं के आहार पानी कर लेने के बाद पूज्यजी ने हमारे चरित्र नायकजी को एकान्त में बुला कर, जालिया ग्राम से अकेले मन्नालालजी के पास गये और वहाँ से भीनासर आये तब तक की आलोचना करवाई। मुनिजी ने साफ २ सब हाल कह दिया और पूज्यजी महाराज ने सब हाल सुनकर विचार किया कि गयवरचंजी बिल्कुल र्निदोष हैं और यह सत्य है कि मेरे लिए इनके हृदय में उच्चासन है, किन्तु व्यवहार शुद्धि के लिए थोड़ा बहुत तो प्रायश्चित् देना ही पड़ेगा । पूज्यजी - गयवरचंदजी, मैं जानता हूँ कि तुम बिल्कुल निर्दोष हो, किन्तु इतने दिन अकेले रहे, इसलिए कुछ प्रायश्चित् लेना पड़ेगा । गयवर०-- जी हाँ । हजूर ! जो आप श्राज्ञा दें, मुझे स्वीकार है । पूज्यजी - शास्त्रानुसार तुमको चातुर्मासिक प्रायश्चित् दिया जाता है । ८७ गयवर०- -आपके वचन तो मुझे स्वीकार हैं, किन्तु यह प्रायश्चित किस दोष का है? पूज्यजी - हाँ, तुम दोषी तो नहीं हो, किन्तु इतने दिन अकेले रहे इसलिए यह प्रायश्चित दिया जाता है, यदि तुमको प्रायश्चिंत नहीं दिया जावे तो कल कोई भी साधु इस प्रकार अकेला Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान रह सकेगा, इसलिए तुम मेरे कहने से इसको स्वीकार करलो । गयवर०-जो आज्ञा । मैं इस प्रायश्चित को आपके कहने से स्वीकार करता हूँ, पर इस प्रायश्चित के लिए क्या तप करना पड़ेगा। पूज्यजी-अभी इसको स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है; तुम तो इसे स्वीकार करलो; कारण; चतुर्मासिक प्रायश्चित अनेक प्रकार का होता है, जैसे-छेद प्रायश्चित, तप प्रायश्चित; पच्चरखान प्रायश्चित, इसमें भी लघु चतुर्मासिक, दीर्घ चतुर्मासिक आदि कई भेद है, इसलिए मैं तुमको बाद में कह दूंगा। गयवर.-ठीक है, मैं तो आपकी आज्ञा के आधीन हूँ, जो आप कहें वह करने को तैयार हूँ, किन्तु मुझे थोड़ा-सा सङ्केत हो जाय तो मेरा चित्त स्थिर हो सकता है। . पूज्यजो०-इस प्रायश्चित में तुमको तप प्रायश्चित दिया जाता किन्तु अभी इसे जाहिर करने की आवश्यकता नहीं है । अब रहा तुम्हारे गुरु के लिए, इसमें तुम्हारी क्या इच्छा है। गयवर:-पूज्यवर, यह बात तो सर्व प्रथम रतलाम में ही तय हो चुकी थी कि मैं आपका ही शिष्य बनूँगा और मेरा यही आग्रह था। पूज्यजी०-गयवरचंदजी तुम्हारा कहना तो ठीक है पर मैंने तो मेरे मुंह से यह नहीं कहाथा कि मैं तुमको अपना शिष्य बनाऊँगा। हाँ भंडारीजी ने तथा अन्य कई साधुओंने अवश्य कहा था कि आप को पूज्यजी महाराज का चेला कर देवेंगे। गयवर०-किन्तु जब भंडारीजी वगैरह ने आपके सामने कहा था तब उस समय आपने इन्कार भी तो नहीं किया था। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ भीनासर में पूज्यजी महाराज के दर्शन पूज्यजी० - हाँ मैंने इन्कार नहीं किया था । गयवर० - यही कारण है कि मैंने निश्चय कर लिया था कि मैं पूज्यजी का ही शिष्य बनूँगा । प्राज पर्यन्त किसी को शिष्य नहीं पूज्यजी महाराज पूज्यजी० - खैर मैंने - बनाया है और संसार में यह भी प्रसिद्ध है कि के चेले बनाने का त्याग है; ऐसी हालत में यदि तुमको चेला कर भी लूँ तो लोगो में अविश्वास का कारण होगा। तुम्हारे लिए मैं किसी का भी नाम कर दूँ, पर तुमको मैं अपना चेला ही समभूँगा, और तुम हमको गुरु समझना अतएव तुम अपना हठ छोड़ दो और मैं कहूँ वैसा करलो । -जैसी आपकी इच्छा मैं तो आपका हुक्म उठाने गयवर० को तैयार हूँ । : ------- पूज्यजी हमारी समुदाय में मोड़ीरामजी, जो मेरे गुरु भाई हैं एक शान्त प्रकृति वाले व्यायावचिया साधु हैं हमारे इतने - साधुओं में से उनकी बराबरी करने वाला एक भी साधु नहीं है। मैं तुमको उन मोड़ीरामजी का शिष्य करना चाहता हूँ तुम - इस बात को स्वीकार करलो । गयवरचंदजी - मोड़ीरामजी से परिचित नहीं थे, पर वास्तव में पज्यजी का कहना सोलह आना सत्य था । मोड़ीरामजी क्या वे साधुओं की माता ही कहलाते थे । आपने पूज्यजी के बचनों को मंजूरकर अपने गुरु मोड़ीरामजी महाराज को स्वीकार कर लिया । बस फिर क्या था, सब तरह से शान्ति होगई । मोड़ीरामजी 'महाराज उस समय पूज्यजी की सेवा में ही थे, अतः उन्हें बुला Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान कर पूज्यजी ने कह दिया कि ये गयवरचदजी तुम्हारे शिष्य हैं; इनको ज्ञानाभ्यास में खूब सहायता करना, इत्यादि । । __मोड़ीरामजी ने-पूज्यजी महाराज की आज्ञा को शिरोधार्य करली और गयवरचंदजी की ओर अपना धर्म स्नेह व प्रेम बढ़ाया, आपको अलग ले जाकर धोवन पिलाया और तपश्चर्य की सुखसाता पूछी। और मुनि श्री ने गुरु महाराज को वन्दन किया । २१-सं०१६६५ का चातुर्मास बीकानेर में पूज्यजी-अपने ११ साधुओं के साथ आसाढ़ शुक्ल तृतीया को बीकानेर पधारे और श्रीमान् अगरचंदजी भैरुदानजी सेठी की कोठरी में आपका चतुर्मास हुआ । हमारे चरित्रनायकजी पर पूज्य महाराज को बड़ी कृपा थो सव साधुओं से अधिक आपका मान सम्मान था। गयवरचंदजी की भक्ति विनय और व्यावञ्च पर पूज्य महाराज बड़े ही प्रसन्न थे एक दिन रात्रि में हमारे चरित्र नायकजी पूज्यजी की पगचम्पी कर रहे थे पूज्यजी ने प्रसन्नचित होकर कहा गयवरचंदजी तुमको कण्ठस्थ ज्ञान करना है या वक्ता ( ब्यारख्याता) बनना है ? गयवरचंदजी ने कहा कि मुझे तो आपका दास बनना है । जो आप हुक्म फरमावे मैं शिरोधार्य करने को तैयार हूँ। पूज्यजी ने कहा-ज्ञानाभ्यास करने का मौका तो और भी मिल जायगा किन्तु व्याख्याता बनने का समय तो यही है क्योंकि तुम बुद्धि Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १९६५ का चातुर्मास बीकानेर में मान हो अतएव तुम सब काम छोड़कर बिना चूके हमारे व्याख्यान में बैठकर व्याख्यान की तर्ज सीखा करो। तथास्तु । बस उसी दिन से आप पूज्यजी के व्याख्यान में बैठकर सब तरह की चातुर्यता धारण करने लगे। पूज्यजी महाराज व्याख्यान बड़े ही जोर से देते थे यहाँ तक कि आपकी मुँहपत्ती थक और श्लेष्म से इतनी गीली होती थी कि उस के लिए हमारे चरित्रनायकजी दो तीन मुँहपत्तियां डोरे सहित तैयार रखते थे कि एक मुँहपत्ती गीली होती कि उसी समय दूसरी मुँहपत्ती दे दी जाती थी। ___ व्याख्यान में कई ऐसी भी बातें आती थी कि जिनको नोट करने की आवश्यकता रहती थी इसलिए आपने पेन्सिल रखनेकी पूज्यजी से आज्ञा मांगी, किन्तु बड़े पूज्यजी ने पेन्सिल रखने की मनाई की थी अतः आप आज्ञा नहीं दे सके । इस हालत में आप काराज और कोलसे का टुकड़ा पास में रख कर जरूरी बातें नोट कर लिया करते थे । ज्ञान की पिपासा इसे ही कहते हैं। पूज्यजी ने शोभागमलजी तातेड़ को साधुओं पर कोतवाल मुकर्रर कर रखा था और इस बात की जिमेवारी दे रखी थी कि सब साधु तीन बजे उठकर ज्ञान ध्यान किया करें। अशुभ कर्मोदय से श्रावण शुक्ल पक्ष में पूज्यजी महाराज के पैरों में ऐसा दर्द हुआ कि जिससे व्याख्यान वाचना भी बंद हो गया, पूज्यजी के पास ११ साधु थे, किन्तु बीकानेर की सभा में व्याख्यान वाचने की किसी की भी हिम्मत नहीं हुई। इसका कारण यह था कि वहाँ कितने ही श्रावक लिखे पढ़े थे तथा व्याख्यान में प्रश्न तथा तर्क वितर्क किया करते थे। एक हनुमानगढ़ के ताराचन्दजी नामक श्रावक थे जो व्याख्यान में जो सूत्र Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान साधु बाचता था, उसी सूत्र के पन्ने हाथ में लेकर बैठते थे । श्रावण का मास था, बीकानेर की विशाल परिषद् थी । व्याख्यान बांचना भी जरूरी था जब चिरकाल की दीक्षा वाले ने ही बीकानेर की परिषद् में व्याख्यान देने से इन्कार कर दिया तब नवदीक्षितों का तो कहना ही क्या था । पूज्यजी महाराज की एक यह भी प्रकृति थी कि आप अपने पास किसी विद्वान लिखे पढ़े साधु को नहीं रखते थे। जो रहते थे वे जी-हुसूर के अति. रिक्त कुछ भी नहीं जानते थे। दूसरे पूज्यजी महाराज की अन्दर की रुचि किसी साधु को पढ़ाकर विद्वान बनाने की भी नहीं थी, और न आपने अपनी जिन्दगी में सिवाय हमारे चरित्र नायकजी के किसी साधु को विद्वान बनाया था। यही कारण था कि आप के इतने साधु होने पर भी पूज्य पदवी जवाहिरलालजी को देनी पड़ी जो दूसरी फली के अनाधिकारी थे । - पूज्यजी महाराज ने गयवरचन्दजी को बुला कर कहा कि जाओ तुम व्याख्यान बांचो । गयवर०-पूज्यजी महाराज, मैं तो अभी नवदीक्षित हूँ, बीकानेर की परिषद् में मैं कैसे व्याख्यान बांच सकता हूँ, आप. किसी दूसरे साधु को भेजदें । पूज्यजी-दूसरा कोई ऐसा साधु नहीं है कि जो बीकानेर की परिषद् में जाकर व्याख्यान बांच सके, अतएव तुम ही जाओ। गयवर०-मैं वहाँ जाकर क्या व्याख्यान बाचूंगा ? पूज्यजी०-तुमने केसरीमलजी से दशवैकालिक सूत्र का शब्दार्थ सीखा है, जाओ व्याख्यान में वही बांच देना । गयवर०-तथास्तु ! तब आप दशवैकालिक सूत्र के पन्ने Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १९६५ का चातुर्मास बीकानेर में लेकर व्याख्यान के पाटे पर जा बैठे। परिषद् तो पहिले से ही खचाखच भर गई थी। ताराचन्दजी ने, मुनिश्री से पूछा कि क्या व्याख्यान श्राप बांचेंगे ? उन्होंने कहा 'हां, पूज्यजी महाराज ने मेरे लिए ही आज्ञा दी है।' 'अच्छा, कौनसा सूत्र वांचोगे ?' 'दशवैकालिक सूत्र का छटा अध्ययन ' । बस ताराचन्दजी भी दशवकालिक सूत्र के कागज ले आये, और छठा अध्ययन निकालकर पन्ने हाथ में लेलिये। ___ हमारे चरित्र नायकजी ने मंगलाचरण के पश्चात् सूत्र शुरु किया नाण दसण सम्पन्न, संजमेण तवणय । गणिमागम संपन्नं, उज्जाणंभि समोसट्टे ।। इस गाथ का पहिले तो आपने संक्षिप्त से शब्दार्थ किया, बाद में विस्तार पूर्वक अर्थ करते हुए नाण शब्द का अर्थ में श्री नन्दी सूत्र से पाँच ज्ञान का विस्तार किया तथा दर्शन शब्द का अर्थ उत्तराध्ययन के अठावीसवे मोक्षमार्ग अध्ययन से विशेष अर्थ किया, चारित्र शब्द का भगवतीजी सूत्र से इस प्रकार अर्थ किया कि जिसमें डेढ़ घंटे का समय लग गया, बाद में एक दो उपदेशपर्ण पद की दाल, राग रागनी से कहकर तथा एक दृष्टान्त देकर परिषद् के मन को अच्छी तरह से रंजन कर दिया । व्याख्यान समाप्त होने पर सबके मुँह से आपकी प्रशसा होने लगी, कि दीक्षा को दो वर्ष भी नहीं हुआ, और आपने ज्ञान का ख़ब ही अभ्यास करलिया, इत्यादि । पर जो श्रावक हाथ में पन्ने लेकर Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आदर्श-ज्ञान सामने बैठे थे, वे अपनी एक गाथा पर ही दृष्टि लगाये रहे, उनको यह इधर-उधर का व्याख्यान अरुचिकर हुआ, क्योंकि पूज्यजी महाराज तो अपनी चातुर्यता से व्याख्यान में उन श्रावकों को एक दो बार बतलाते थे, परन्तु हमारे चरित्र-नायकजी अपनी धुन में २ घंटे तक पंजाब मेल की चाल के भांति व्याख्यान देते ही रहे । ताराचन्दजी वगैरहः ५.६ श्रावकों ने पज्यजी महाराज के पास जाकर कहा कि आप ने ऐसे साधु को व्याख्यान क्यों सौंप दिया, कि जिस गाथा को कहा उसके अतिरिक्त इधर-उधर की बातों से ही व्याख्यान पूरा कर दिया। पूज्यजी ने कहा कि यह तो वक्ता की इच्छा पर है, यदि जिनवचनों से कोई बात विरुद्ध कही हो तो हम उपालम्भ दे सकते हैं, यदि आपको पसंद न हो, तो आप व्याख्यान के समय मेरे पास आया करें, मैं आपको अनुयोग द्वारा सूत्र सुना दूंगा। यह कहकर पूज्यजी महाराज ने हमेशा का झगड़ा मिटाकर व्याख्यान का मार्ग निष्कण्टक बना दिया। ___ हमारे चरित्रनायकजी ने करीब १५ दिन व्याख्यान बांचा, जिसका जनता पर इतना प्रभाव पड़ा कि परिषद् में काफी उन्नति हुई और अच्छे-अच्छे लोगों के मुँह से यही शब्द निकल पड़े कि पूज्यजी महाराज की पदवी के लिए आपके साधुओं में यही गयवरचन्दजी महाराज योग्य हैं। एक दिन का जिक्र है कि हमारे चरित्रनायकजी, अनोपयोग से पहिले दिन कोई साधु धोवण लाये थे, उसी घर से दूसरे दिन भी धोवण ले आये। साधुओं ने पूज्यजी से कहा और पज्यजी ने एक उपवास का दण्ड दिया। कुछ दिन के बाद ऐसा मौका पड़ा कि खुद पूज्यजी महाराज गौचरी के लिए गये, बहुत Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १९६५ का चातुर्मास बीकानेर में से साधु साथ में थे, एक पहिले दिन आहार लाये हुए घर में पूज्यजी महाराज गौचरी जाने लगे, तो एक साधु ने कहा कि इस घर से कल आहार ले आये थे। पूज्यजी ने उस पर लक्ष न दे कर उस घर वाला श्रावक के आग्रह से गोचरी वेहरली। साधु धोवण लेकर मकान पर आया और उसने सब हाल गयवरचन्दजी को कह दिया, बाद में पूज्यजी महाराज मकान पर आये तो गयवरचन्दजी ने विनय की कि नित्य पिन्ड लेने वाले तथा भोगने वाले के लिये क्या प्रायश्चित होता है । पूज्यजी महाराज समझ गये कि यह हमला मेरे पर हो है, पूज्यजी ने गुस्से में आकर कहा कि तुम्हें कहने का क्या अधिकार है। जाओ, तुमको मैं चतुर्मासिक प्रायश्चित देता हूँ। ठीक है, सत्य कहने पर माँ भी मारती है। गयवर०-चतुर्मासिक प्रायश्चित किस बात का है ? । पूज्यजी०-प्रायश्चित मंजूर करलो, वरना तुम्हाग आहार पानी अलग कर दिया जावेगा। गयवर०-पूज्यजी महाराज आप ही ने तो एक दिन कहा था कि अन्याय का दण्ड स्वीकार नहीं किया जाता है । पूज्यजी०-क्या मैं अन्याय का दण्ड देता हूँ ? गयवर०-यदि न्याय है तो कहिए, मैंने क्या कसूर किया है, यदि सत्य कहना भी कसूर समझा जाता हो तो ऐसे न्याय को हजार नमस्कार है । पूज्य महाराज, क्या करूं, मैं मेरी आदत से लाचार हूँ कि सत्य बात कहे बिना मेरे से रहा नहीं जाता है। इतने में मोड़ीरामजी महाराज आये और गयवरचन्दजी को अलग ले गये। ज्यजी ने कह दिया कि गयवरचन्दजी का आहार Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान पानी बन्द है, वह उनका लावें और खावें । किन्तु गयंवरचन्दजी ने उस दिन आहार पानी ही नहीं किया और चौबीहार उपवास कर दिया । रात्रि में सब साधुओं के सो जाने के बाद पूज्यजी महाराज गयवरचन्दजी के पास आये और आपको जगा कर कहने लगे । पूज्यजी क्यों गयवरचन्दजी, आज मैंने तुमको कुछ कह दिया है, जिससे तुम्हारी आत्मा दुःखी है। C गयवर - मुझे दुःख तो इस बात का है कि मैं सत्य कहने पर भी मारा जाता हूँ । पूज्यजी - किन्तु तुमने सबके सामने क्यों कहा? ९६ ܘ गयवर० - पूज्यजी महाराज, क्या करूँ, खरी बात कह देने की एक मेरी आदत ही पड़ गई है । सत्य बात कहने में मुझे आगे पीछे का भान नहीं रहता है । पूज्यजी - इसी कारण तो तुम दुःख पा रहे हो । गयवर०- - फिर मैं क्या करूँ ? सत्य को दबा कर सत्य को स्वीकार कर लूँ । पूज्य जो- -तब ही तो मैं कहता हूँ कि तुम सब तरह से योग्य होने परभी, तुम्हारे में समयज्ञता नहीं है । गयवर० – समयज्ञता किसे कहते हैं ? पूज्यजी - जैसा समय देखना वैसा काम करना, जैसे मैं करता हूँ । KAMERA गयवर० - इसमें माया कपट आदि का दोष तो नहीं लगता है? पूज्यजी - पांचमा आरा में बिल्कुल निर्दोष चारित्र नहीं है, Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ सं० १९६५ का चातुर्मास बीकानेर में थोड़ा बहुत दोष तो लग ही जाता है, किन्तु उसकी अलोचना करने से शुद्ध हो जाता 1 गयवर० - किन्तु जान बूझ कर माया करना भी तो निर्दोष ह्रीं गिना जाता है न ? पूज्यजी - तुम तो हर बात में तर्क किया करते हो । गयवर०- - किन्तु यह सिखाया किसने ? पज्यजी - खैर, अब क्या करना है? - जैसी आपकी आज्ञा हो । ܟ गयवर० पूज्यजी - मैंने तो तुमको चतुर्मासिक प्रायश्चित दे दिया है, उसको मंजूर करलो, तब ही आहार जल शामिल होगा । गयवर० – नित्य पिंड़ मुझे भुगतना पड़े । फिर भी कार करने को तैयार हूँ । आहार लाये आपकी यही आप और उसका दंड आज्ञा है, तो मैं रवी पूज्य जी० – नित्य पिंड आहार मैं जानबूझ कर लाया, जिसका प्रायश्चित मैंने ले लिया है, किन्तु तुमको हमारे सामने बोलने का प्रायश्चित तो लेना ही पड़ेगा । गयवर० - यदि आपने नित्य पिंड का प्रायश्चित ले लिया है, तो आपके दिये हुए प्रायचित को मैं स्वीकार कर ही लूँगा । पूज्यजी ० – मैंने मासिक प्रायश्चित ले लिया है तुम चातुर्मासिक प्रायश्चित का चार एकासना कर देना । - गयवर० - ठीक है, आप आज्ञा देते हैं तो मैं चार एकासना कर लूँगा । क्योंकि बड़ों की प्रसादी छोटों को भी मिलती है । पूज्य जी०-- बस, अब तो तुम्हारा दिल प्रसन्न है न १ गयवर० - जी हां हुजूर ! मैं तो आपका पुत्र हूँ आप मेरे पिता Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान हैं मेरे अवगुणों का आर किसो प्रकार का खयान न करें, और सब अपराधों को क्षमा करदें। __ पूज्यजी०-गयवरचंदजी ! मैं तुम्हारे से बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हारे लिए मुझे गौरव भी है कि तुम हमारे एक ही साधु हो किन्तु क्या करूँ मेरी प्रकृति ही ऐसी है कि मैं मेरे अपमान को सहन नहीं कर सकता। दूसरे मैं गुस्सा भी योग्य साधु पर ही करता हूँ, तुम देखते हो इतने साधु हैं पर मैं दूसरे किसी से भी कुछ नहीं कहता हूँ। इस प्रकार गुरु चेले में प्रेम की बात होकर, दोनों ने अपने स्थान पर जाकर संस्तार कर लिया। अन्य साधुओं के दिल में कई प्रकार के विकल्प हो रहे थे, कई तो कह रहे थे कि देखो बेचारा गयवरचंदजी सत्य बात कहने पर भी इस प्रकार मारा जाता है; कई कहते थे कि गयवरचंदजी ने पूज्यजी महाराज के सामने बोल कर आशातन की है, इसका दंड मिलना ही चाहिए। किन्तु सुबह उठकर देखा तो गयवरचंदजी पूर्ववत् पूज्यजी की सेवा में सब कार्य कर रहे थे और पज्यजी की भी सब तरह से शुभ दृष्टि पाई गई । दूसरे को तो क्या पर खुद मोडीराम जी महाराज को भी मालूम नहीं हुआ कि पूज्यजी और गयवर चंदजी के आपस में कैसे शान्ति हुई, अर्थात् जैसे पूज्यजी महार ज चतुर मुत्सद्दी थे वैसे गयवरचंदजी भी कम नहीं थे। बीकानेर के चतुर्मास में हमारे चरित्र नायकजी ने एक अढ़ाई दो पचोले और फूटकर कई तपस्या की और तीन तपस्वियों की खूब ही व्यावच्चकी, इनके अलावा,श्री आचरंगपूत्र, उत्तराध्यनसूत्र, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ सं० १९६५ का चातुर्मास बीकानेर में और श्रीराजप्रश्नीजीसूत्र की वाचना ली और कई थोकड़े भी कण्ठस्थ किये। ___ आपके दर्शनार्थ बीसलपुर से गणेशमलजी हस्तीमलजी तथा राजकुंवर बाई वगैरह आये थे आपका व्याख्यान सुनकर उनका विरह रूपी दुःख दूर होगया और कहने लगे कि आप धन्य हो जो कि इस घोर दुःखों की खान रूपी संसार को छोड़ कर निकल गये । हम मन्द भाग्य लोग अन्तराय कर्म के उदय से अभी संसार में ही दुःख पा रहे हैं। करीब एक मास तक सेवा कर के वे आप अपने ग्राम को चले गये । ___बीकानेर का चतुर्मास समाप्त होने के पश्चात् आप नागौर पधारे । नागौर में गंगारामजी कनकमलजी छः साधुओं के साथ ठहरे हुए थे और ११ साधुओं सहित पूज्यनी वहाँ पधारे, एवं पूज्यजी के १७ साधु नागौर में एकतित्र होगये । ____ बाहर के ग्रामों से कई श्रावक दर्शनार्थ आये थे जिनमें रतलाभ वाले अमरचन्दजी पीतलिया, रूपचन्दजी अग्रवाले तथा इन्द्रमलजी कावड़िया वगैरह भी थे। ___ रात्रि के समय प्रतिक्रमण के पश्चाचात् सब साधु मंडली बैठी हुई थी। इतने में अमरचन्दजी साहब वगैरह आये । अमरचन्दजी की बातें सुनने की सबको इच्छा रहा करती थी क्यों कि आपकी उत्पातिक बुद्धि अच्छी थी और पूज्यजी महाराज भी आपका सत्कार किया करते थे। पूज्यजी०-क्यों सेठजी आप शबँजय गये थे ? सेठजी-जी महाराज, गया था । पूज्यजी-लोग शत्रुजय की बहुत प्रशंसा करते हैं ? Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १०० सेठजी०-हाँ प्रशंसा करने लायक है। पुज्यजी०-वहाँ क्या विशेषता है ? सेठजी०-एक तो वहाँ अनेकों मुनिवरों ने मोक्ष प्राप्त की जिसके परिमाणु वहाँ जाने वाले के चित को निमल एंव पवित्र बना देते हैं दूसरा वहाँ की मूर्ति का इतना अतिशय प्रभाव है कि दर्शन करने वाले का दिल वहाँ से हटता ही नहीं है । इतना ही क्यों हम सुबह पांच बजे जाते थे और चार बजे वापिस श्राते थे वहाँ भूख प्यास तो क्या पर टट्टी पेशाब तक के लिए जाने की भी शंका नहीं होती थी। पूज्यजी०-और क्या विशेषता है ? सेठजी-जैनियों की भूतकालीन जाहुजलाली का आदर्श नमूना है । पूज्य महाराज ! दो पहाड़ियों के बीच की एक खाड़ भरवाई, जिस में नौ लाख रुपयों के तो केवल रस्से ही लगे बताते हैं । पूज्यजी महाराज, दूसरे २ धर्म के देवों की आकृति के लिए जैनियों का त्याग, वैराग्य, शान्ति श्रादि गुण बतलाने के लिए जैन मूर्ति एक आदर्श है। भवितव्यता ही ऐसी थी कि उधर मूर्तिपूजक समाज ने मन्दिरों में आडम्बर बढ़ा दिया और इधर लौंकाजी ने मूर्ति का खण्डन कर दिया, अत: मतभेद खड़ा होगया। बाकी मेरे ख्याल से मूर्ति का दर्शन करना कोई हानि का कारण नहीं है। वास्तव में देखा जाय, तो जैन-मूर्ति नहीं मानने से ही हमारे घरों में अनेक देवी देवताओं की मान्यता घुस गई है, जो कि मिथ्यात्व का मूल कारण है। पूज्यजी-सेठजी जैन-मूर्ति देखकर मुझेभी बहुतराग होता है । सेठजी-आपने तीर्थंकरोंका समवसरण नजदीकही छोड़ा होगा। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागोर के प्रश्नोत्तर पूज्यजी - मैंने टूक चतुर्मास किया था, तब सदेव मन्दिर के अन्दर से मकान पर आता जाता दर्शन किया करता था । सेठजी - जैन-मूर्ति के दर्शन करने से, मैं तो कोई भी हानि नहीं, पर लाभ ही समझता हूँ । ९०१ स्वामी गंगारामजी के शिष्य कनकमलजी अच्छे विद्वान व शास्त्रों के ज्ञाता थे । आपकी श्रद्धा मूर्ति पूजा की ओर झुकी हुई थी, फिर अमरचन्दजी और पूज्यजी महाराज की बातें सुन कर और भी दृढ़ हो गई । अतएव आप बोल उठे कि जब मूर्ति से लाभ हैं तो फिर इसका खण्डन क्यों किया जाता है ? सेठजी ने कहा कि जो मूर्ति का खण्डन करता है वह मेरे खयाल से जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ है और इस प्रकार उत्सूत्र की प्ररूपना कर मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का बन्धन करता है । J इस पर एक साधु ने कहा - तो क्या पत्थर की मूर्ति को हम भगवान् मान लें ? अमर० - पत्थर की मूर्ति को भगवान् नहीं, किन्तु भगवान् की स्थापना माननी चाहिए । तब मांगीलाल नामक साधु बोला खैर, स्थापना मानल तो क्या उसकी वन्दन पूजन की जा सकती है ? अमर० - जिसका भाव निक्षेप वन्दनीय है, उसके चारों . निक्षेप को शास्त्रों में वन्दनीय कहा है । अतः मूर्ति को निमित कारण समझ कर उसके द्वारा तीर्थङ्करों को वन्दन पूजन करने में कोई दोष नही है किन्तु लाभ ही है, कारण बन्दन पूजन करने वाला वीतराग देव को ही वन्दन पूजन करता है यदि जिसका भाव निक्षेप पज्यनीय है उसका स्थापना Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान १०२ निक्षेप पूजनीय नहीं माना जाय तो अन्य तीर्थियों का भाव निक्षेप अपूजनीय है । उनका स्थापना निक्षेप वन्दनीय एवं पूजनीय ठहरेंगे यह सूत्र का रहस्य है इसको समझ कर ही बोलना चाहिए फिर आप पूज्यजी महाराज से पूछलें । पूज्यजी०- हाँ सेठजो का कहना ठीक है। अमर०-केवल स्थापना निक्षेप ही नहीं किन्तु तीर्थङ्करों का द्रव्य निक्षेप भी वन्दनीय है, जो अपने हमेशा लोगास्स का पाठ कहते हैं । वही लोगस्स भगवान् ऋषभदेव के साधु कहा करते थे, और उस समय २३ द्रव्य तीर्थंकरों को वे वन्दन करते थे, इनके अलावा सिद्ध भगवान को नमुत्थुणं देते हैं, वह भी द्रव्य निक्षेप को ही देते हैं, क्योंकि द्रव्य निक्षेप का मतलब यही है कि भाव निक्षेप का भूत और अनागतकाल, जैसे-ऋषभदेव के समय में २३ तीर्थंकर अनागत काल में होने वालों को वे साधु नमस्कार करते थे, वैसे ही सिद्ध भगवान गत् काल में तीर्थकर हुए थे, उनको नमस्कार किया जाता है। साघु०-क्यों, सिद्ध भगवान् को भाव निक्षेप नहीं कहा जा सकता है ? __ अमर०-सिद्धों को नमुत्थुणं अरिहन्ताआदि का पाठ ही कहा जाता है । वह भाव निक्षेप का नहीं, पर द्रव्य निक्षेप का ही है, क्योंकि सिद्धों में नमुत्थुणं के सब गुण वर्तमान में नहीं है पर भूतकाल में थे। ___पूज्यजी-मांगीलाल तुमको अभी नयनिक्षेप का ज्ञान नहीं है । सेठजी का कहना ठीक है, क्योंकि सिद्धों को नमुत्थुणं दिया जाता है, वह नैगमनय का आरोप नाम का विकल्प है, अर्थात् Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ नागोर के प्रश्नोत्तर भाव निक्षेप का भूत, भविष्य, काल को वर्तमान में आरोप कर वन्दन नमस्कार किया जाता है, उसको नैगमनय कहा जाता है, और नैगमनय चारों निक्षेपों को मानता है । इस तकसे साधु मांगीलालजी को नयनिक्षेप का थोड़ा बहुत ज्ञान हुआ और जो मूर्ति का खन्डन करते थे उसका पश्चाताप करने लगे। बाद में अमरचन्दजी साहब ने साधुओं से एक प्रश्न पूछा कि कहो वीतराग का धर्म किस में है ? उत्तर में, एक ने कहा वीतराग का धर्म दया में, दूसरे ने कहा भगवान का धर्म विनय में, और तीसरे ने कहा वीतराग का धर्म तपस्या में इत्यादि, जो जिस के दिल में आया वही कह दिया । इस पर अमरचन्दजी ने कहा कि वीतराग का धर्म वीतराग की आज्ञा में है, आज्ञा के बिना दया, विनय, दान, शोल, तप वगैरहः सब कर्मबन्धन के हेतु कहें हैं, ऐसा मैंने सूयधड़ायांगजी सूत्र में सुना है । क्यों, पज्यजी महाराज मेरा कहना ठीक है न ? पूज्यजी-हां, सेठ साहब ! सूत्र में इस बात का उल्लेख है। जिस समय उपरोक्त वार्तालाप हुआ, उस समय हमारे चरित्रनायकजी भी मौजूद थे। ___ पूज्यजी महाराज कई दिन नागौर ठहरे और बाद में मोडीगमजी वगैरहः को तो कुचेरा की ओर भेज दिया और आप बिहार कर डेह गाम पधारे। वहां हँसरोजजी नामक एक अच्छे श्रावक थे। वे पूज्यजी महाराज के पूर्ण भक्त और श्रद्धा सम्पन्न थे। उनके आग्रह से पाँच दिन वहां ठहर कर विहार किया। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १०४ पूज्यजी महाराज के पैरों में पहिले से ही तकलीफ थी, किन्तु उस विहार में वेदना और बढ़ गई, उस समय आपकी सेवा में हमारे चरित्र नायकजी और दो वृद्ध साधु ही थे । वेदना यहां तक बढ़ गई कि पूज्य महाराज से एक कदम भी नहीं चला गया, वहां उस जंगल में और कुछ भी साधन नहीं था, अतएव हमारे चरित्रनायकजी अपनी जवानी और पूज्यजी महाराज की भक्ति की धुन में पूज्यजी महाराज को ईगीयार नामक ग्राम जो वहाँ से एक मील था अतः सिर पर उठा कर ग्राम में ले आये तथा १० दिन तक उस छोटे से ग्राम में रह कर खूब हो सेवा की, जिसको पज्यजी महाराज सदैव याद करते थे। ईगीयार ग्राम से कुचेरे आये, उस समय हमारे चरित्र. नायकजी का एकान्तर तप चल रहा था। कुचेरा में चरित्रनायकजी की आखों में अत्यन्त वेदना हुई। करीब १ मास तक तकलीफ उठानी पड़ी, परन्तु उस वेदना में भी आपकी एकान्तर तपस्या वराबर चलती ही रही। पूज्यजी महाराज के कहने पर आपने अष्टमतप चौविहार किया जिससे नेत्रों को कुछ आराम रहा। जब आप कुचारे में थे तब देशी साधु जोरावरमलजी वहां आये । हमारे चरित्रनायकजी आप से पहिले से ही परिचित थे और जोरावरमलजी थे भी अच्छे मिलनसार साधु । स्वामीजी ने उनका शुभागमन करके थोड़ी देर बातें की। इस पर एक साधु ने पूज्यजी से जाकर कहा कि गयवरचन्दजी ने देशी साधु जोरावरमलजी को पधारने को कह दिया जो वे पासत्थे हैं। पूज्यजी ने एक उपवास का दण्ड दे दिया। इस पर आपने विचार Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ कुचेरा की चर्चा किया कि यह कैसी संकीर्णता है ? क्या श्री समन्धर स्वामी से यह प्रदेशी साधु ही साधुत्व का पट्टा करवा लाये हैं जो आप कई प्रकार की माया व छल कपट करते हुए भी, दूसरों को "पधारो" मात्रा कहने में ही महा पाप समझते हैं। ___ गयवर०-पूज्यजी महाराज! श्राप छोटी-छोटी बातो में बिना कसूर ही दंड दे देते हो और कोई भी साधु उस दंड को नहीं करते, फिर इसका क्या अर्थ हुआ? आपने दंड उतारने का तरीका भी खूब बतलाया है कि पांच उपवास करने से ६२५ उपवास और उसपर एक पौरसी करने से १२५० उपवास उतर जाते हैं। क्या ऐसे बिना कुसूर दंड देना और पांच उपवास एवं पौरसी करने से १२५० उपवास उतर जाना किसी सूत्र में लिखा है ? मुझे तो यह कल्पना के सिवाय और कुछ भी मालूम नहीं होता है । _पूज्यजी-क्या मैं बिना कसूर प्रायश्चित देता हूँ ? गयवर०-स्वामी जोरावरमलजी एक अच्छे साधु हैं । वे अपने यहाँ चला कर आये, और उनको 'पधारो' कहदिया तो यह भी कसूर समझा गया । क्या यह कल्पना नहीं है ? ___ पूज्यजी-गयवरचंद, साधुत्व देशी साधु त्रों में है या प्रदेशियों में, इस बात को तो केवली ही जानते हैं , पर अपने को तो व्यवहार ही देखना चाहिये । गयवर०-क्या स्वामी जोरावरमलजी का व्यवहार खराब है पूज्यजी-हाँ, यह शिथलाचारी है ? गयवर०-इसको मानने वाले अपने को मायाचारी बतलाते हैं। जब अपने को कभी वे ' पधारो' कहदें , तो वहभी दंड के पात्र होते होंगे ? Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १०६ पूज्यजी-गयवरचंद! इन बातों को तो केवली ही जानते हैं मैं तो अपनी परम्पराके अनुसार ही करता हूँ । जाओ प्रतिलेखन का समय होगया है, प्रतिलेखन करो। २२–संवत् १६६६ का चतुर्मास जोधपुर में __जोधपुर में फूलचादजी महाराज बिराजते थे। आपके शरीर में कुछ तकलीफ होने से , आपने कुचेग पूज्यजी महाराज को कहलाया कि यहाँ दो साधुओं को आवश्यकता है, पज्यजी महाराज ने एक तो धनराजजी तपस्वी को तथा दूसरे हमारे चरित्र नायकजी को कहा कि तुमको जोधपुर जाना पड़ेगा। आपने उत्तर दिया कि मेरे नेत्रों में अभी तक थोड़ी बहुत वेदना है, तथा मैं ज्ञानाभ्यास के लिए आपकी सेवा में रहना चाहता हूँ। तब पूज्यजी महाराज ने जोर देकर कहा कि बीमार साधुओं की सुश्रुषा करना महाकल्याण कारक है, और वहाँ भी तुम्हाग ज्ञानाभ्यास होता रहेगा। मेरी आज्ञा है कि तुम धनराजजी के साथ जोधपुर चले जाओ। इस प्रकार आपके नेत्रों की तकलीफ होने पर भी पूज्यजी के हुक्म को स्वीकार करना पड़ा । जब कुचेरा से बिहार किया तो उस दिन आपके एकान्तर का उपवास था । धनराजजी एक ऐसे मन चले साधु थे कि कुचेरा से खजवाने गये । वहाँ पहुँचने पर थोड़ा-सा दिन शेष रहा तो, वहाँ के श्रावकों ने बहुत विनती की, पर नहीं ठहरे। फल यह हुआ कि एक घंटा रात्रि चली Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १०७ सं० १९६६ का चातुर्मास जोधपुर में गई, तब जाकर रूण पहुँचे । वहाँ गुप चुप एक दुकान में रात्रि व्यतीत की और सुबह जल्दी ही वहाँ से विहार किया। बाद रूण वालों को खबर हुई तो उन्होंने जा कर पूज्यजी को उपालम्भ दिया कि आपके साधु रात्रि में विहार करते हैं। गयवरचंदजी के उपवास का पारना था, नौका ग्राम में आपतो पारना लाने को गये, और धनराजजी अकेले ही रवाना होकर चले गये। इधर गयवरचंदजी के नेत्रों में वेदना और भी बढ़ गई, फिर भी आपने आकर देखा तो मालूम हुआ कि धनराजजी अकेले ही चले गये। ऐसी अवस्था में आप उसी दिन वहाँ ही रहे, तथा दूसरे दिन विहार किया जब आप दहीकड़े पहुँचे तो धनराजजी अकेले ही जोधपुर पहुँच गये। तीसरे दिन जाते गयवरचंदजी बड़ी मुश्किल से जोधपुर गये । ये लोग केवल मुँह से ही दया २ पुकारते हैं, किन्तु इनके हृदय में दया बहुत कम रहती है। वही धनराज आखिर बराटीया से एक विधवा को लेकर गृहस्थ बन गया, तथा उस पतित अवस्था में ही काल के मुंह में जा पड़ा। हमारे चरित्र नायकजी ने जोधपुर जाकर फूलचंदी की खूब सेवा की, कई सूत्रों की वचना भी ली; तथा संवत १९६६ का चतुर्मास फूलचंदजी के साथ जोधपुर में किया। फूलचंदजी का शरीर ठीक न होने के कारण व्याख्यान भी हमारे चरित्र नायकजी ही देते थे। फूलचंदजी के एक शिष्य छगनलालजी एक मास की तपस्या करना चाहते थे। १५ उपवास के तो उन्होंने पच्चक्खाणभी कर लिए थे, किन्तु शहर में सर्वत्र यह अफवाह फैल गई कि प्रदेशी साधुओं Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १०८ में एकमास खामण तप है; किन्तु जब १५ दिन हुए तो उनकी इच्छा धारणा करने की होगई । बहुत कुछ कहने पर भी उनका दिल पारणा से नहीं रुका। ऐसी अवस्था में फूलचन्दजी महाराज बड़ा ही अफसोस करने लगे कि लोगों में अफवाह तो फैल गई, अब ठीक मालूम नहीं होगा । इस पर हमारे चरित्रनायकजी ने कहा कि आप फिक्र क्यो करते है, मैं मास खामन की तपस्या करने को तैयार हूँ, प्रदेशी साधुओं की बात कभी नहीं जाने दूँगा । बस पहिले दिन उचित धारणा कर एक ही साथ में मास उपवास की तपस्या का पच्चखान कर लिया। हमारे चरित्रनायकजी वास्तव में मारवाड़ के धोरी-वीरथे, अपनी बात का आपको कितना गौरव था? आपने पहिले, ८ उपवास से ज्यादा का तप कभी नहीं किया था, तथापि हिम्मत कर मास उपवास कर लिया । उस तपस्या में भी आर अन्त तक धोरण पानी अपने आप जाकर लाया करते तथा २७ दिन तक व्याख्यान भी देते रहे थे । अन्त में तपस्या का पाराण बहुत आनन्द के साथ होगया; इस तपस्या के पारणों पर श्रावक श्राविकाओं में भी बहुत तपस्या हुई । बीसलपुर सालावास से आपके संसार पक्ष के बहुत से कुटुम्बी दर्शनार्थ आये थे । आप का तप संयम और व्याख्यान की छटा देखकर वे प्रसन्न होये । बीसलपुर के प्रतापमलजी मूथा, जिन्होंने आपके वैराग्य के प्रारम्भ में कारण रूप होकर अनाथी मुनि की स्वाध्याय सुनाई थी, और आपसे यह वचन भी ले लिया था कि आप दिक्षा ले और कभी मेरी भावना होगई तो आप को मुझे भी दीक्षा देनी पड़ेगी । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ सं० १९६६ का चतुर्मास जोधपुर में इस समय आप बीमारी पाकर थोड़े बहुत ठीक हुए तो जोधपुर आये और आपसे विनती की कि मेरा भाव दीक्षा लेनेका है, तथा आपने इसके लिये वचन भी दिया था । अतः कृपाकर दीक्षा देकर मेरा उद्धार करावें । किन्तु उस समय आप फूलचन्दजी की आज्ञा में थे, फूलचन्दजी ने ऐसे बिमार और वृद्ध को दीक्षा देने से इन्कार कर दिया । आपने कहा कि आप फिक्र न करें, यह बीमार अथवा वृद्ध हैं तो इनकी तमाम सेवा मैं करूँगा । मेरा वचन दिया हुआ है, आप दीक्षा देकर इस पवित्र भावना वाले भव्य प्राणी का उद्वार करें । किन्तु फूलचन्दजी का हृदय तनिक भी नहीं पिघला । अतः उनकी आज्ञा को भंग कर हमारे मुनिश्री ने दीक्षा देना उचित नहीं समझा | आपने सलाह दी कि चतुर्मास के ४५ दिन रहे हैं, आप काल में केवलचन्दजी के पास पहुँच जावें । चतुर्मास समाप्त होते ही मैं वहां आकर आपको दीक्षा देकर सेवा करूँगा। उन्होंने ऐसा ही किया। ज्योंही वे कालु पहुँचे, त्यही यहाँ चतुर्मास समाप्त होते ही फूलचन्दजी को आज्ञा ले आप भी कालु गये, और आपने अपने वचन को बहल रखने के लिए प्रतापमलजी को दीक्षा दे ११ दिन तक उनकी सेवा की और धर्म का ज्ञान सुनाया। प्रतिज्ञा पालन इसका ही नाम है । जब प्रताप-मुनि ११ दिनों में ही स्वर्ग वास हो गये तब आप विहार कर वापिस फूलचन्दजी के पास महामन्दिर पहुँच गये । वहाँ से सब साधु विहार कर सालावास पधारे । यहाँ हमारे चरित्रनायक जी के संसार पक्ष का सुसराल था । आप यहाँ चार दिन ठहरे । आपके दो व्याख्यान सार्वजनिक और चार व्याख्यान रात्रि में हुऐ। जिनका खूब ही अच्छा प्रभाव जनता पर पड़ा। वहाँ से Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ११० क्रमशः बिहार कर पाली पधारे वहाँ भी आठ दिन तक आपका झंडेली व्याख्यान होता रहा। २३–सं० १९६७ का चातुर्मास-कालु अानन्दपुर पूज्यजी महाराज की आज्ञा आई कि छगनलालजी और गयवरचंदजी को नगरी साधुओं की व्यावच्च के लिए फौरन रवाना कर दो। फूलचन्दजी ने दोनों साधुओं को मालवानगरी की ओर बिहार करवा दिया। जब दोनों साधु सीयाट पहुँचे, तो गयवरचंदजी के नेत्रों में जोर से तकलीफ हो गई। छगनलालजी एक दिन वहाँ ठहरे, तथा दूसरे दिन आपको बीमार छोड़ कर रवाना होने लगे तब, वहाँ के श्रावकों ने बहुत कुछ कहा कि महाराज साधुओं का यह धर्म नहीं है कि इस प्रकार बीमार आदमी को अकेला छोड़ कर चला जावे, किन्तु उन्होंने किसी की न मानी और वापिस पाली चले गये। खास कारण तो यह था कि छगनलालजी मेवाड़-मालवे जाना नहीं चाहते थे। खैर, उनके जाने के बाद आप अकेले ही रह गये, अब आँखें दुःखने की हालत में कौन गौचरी पानी लावे, कौन पूजन प्रतिलेखन करे, परन्तु पूर्व संचित कर्मों को तो भुगतना ही पड़ता है । आपने नेत्रों की बीमारी में भी कर्मों से युद्ध करने के लिये चौबिहार तैला (अष्टम) तप कर दिया अतः न रहा आहार पानी लाने Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ सं० १९६७ का चातुर्मास कालु० का काम और न रहा निहार का झगड़ा। एक ही मकान में कपाट बन्द कर के लगातार अपने इष्ट का जप करने में तत्पर हो गये । धर्म का फल तत्काल ही मिलता है, चाहिये सच्चे दिल की लग्न । हमारे चरित्रनायकजी की वेदना तीन दिन में चोरों की भांति पलायमान हो गई। तीन उपवास का पारणा हाथों से लाकर किया, फिर वहाँ के श्रावकों के अाग्रह से सात दिन वहाँ ठहर गये, ताकि नेत्रों की ज्योति ठीक हो जाय । दिन को तो लोगों को अवकारा कम मिलता था, किन्तु रात्रि में जैन-जैनेन्तर काफी तादाद में एकत्रित हो जाते थे। आप हमेशा धर्मोपदेश दिया करते थे, यहाँ के लोगों पर आपके व्याख्यान का काफी असर पड़ा। यहाँ तक कि जैनेतर क्षत्रियों ने तो मांस मदिरा शिकागदि का त्याग कर दिया। वे आज तक भी आपको याद करते हैं। ____ जिस समय आप सीयाट में विराजते थे, उस समय आग्ने पूज्यजी का ब्यावर अजमेर की तरफ पधारना सुना अतः पूज्यजीके पास जाने की इच्छा से आपने विहार किया, रास्ते में कालु आया; वहाँ केवलचन्दजी स्वामी अपने शिष्यों के साथ बिराजते थे । एक तो अपनी समुदाय के साधुत्रों की निर्दयता पर घृणा हो रही थी और दूसरे केवलचन्दजी से पूर्व का परिचय था, अतएव केवलचन्दजी के पास थोड़े दिन के लिये ठहर गये । केवलचन्दजी के पास रतनलालजी, सिरेमलजी, रूपचन्दजी, वगैरह साधु और कई साध्वियें जो ज्ञान पढ़ने की इच्छा करते थे, किन्तु उनमें कोई भी लिखा पढ़ा साधु नहीं था । इधर आपका पधारना हो गया, उन लोगों ने प्रार्थना की कि आप कुछ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ११२ अर्सा यहां ठहर कर हम लोगों को सूत्रों की वाचना दें, तो बड़ी कृपा होगी, यदि आपको पूज्यजी के पास ही जाना है, तो पूज्य जी का चतुर्मास ब्यावर या अजमेर होगा, जो यहां से बहुत नजदीक है। बस, उनके लिहाज के वश हो कर आप कालु ठहर गये और उनके साधु साध्वियों को सूत्रों की वाचना देनी शुरू की । ज्ञातासूत्र, जीवाभिगमसूत्र, राजप्रश्नीसूत्र, उववाईसूत्र वगैरह की वाचना दी। रात्रि में साधु तथा श्रावक थोकड़ा, बोलचाल भी सीखते और धर्मचर्चा भी होती थी जिसका वे लोग आज भी उपकार मान रहे हैं। यही कारण है कि कालु के श्रावकों ने आपके ज्ञान पर मुग्ध होकर चतुर्मास के लिये आग्रह पूर्वक विनती कर आपको वहां ही रखने का निश्चय कर लिया। आपने उस समय परोपकार की धुन में यह विचार नहीं किया कि मैं इतनी बड़ी समुदाय को छोड़ कर अकेला चतुर्मास क्यों करता हूँ, परन्तु श्रावकों की भक्ति के वश चतुर्मास की स्वीकृति देदी । केवलचन्दजी स्वामी का चातुर्मास जैतारण होना निश्चत हो गया। कुछ सूत्र की वाचना अधूरी थी, अतः वे आपको आग्रह करके जैतारण ले गये। वहां उन सूत्रों को समाप्त कर पुनः कालु आ गये। इधर मुनि श्री की विनती हो जाने के बाद देशी साधु केसरीमलजी. उदयचन्दजी कालु आये। कालु में सब लोगों के प्रायः गुरु आम्नाय उन साधुओं की हो थी,किन्तु उनके आचार में शिथिलता होने के कारण लोगों की भक्तिभावना प्रदेशी साधुओं पर विशेष थी; फिर भी केसरीमलजी ने सोचा कि हमारे क्षेत्र में प्रदेशियों का चतुर्मास होगा तो अवशेष क्षेत्र भी हाथ से चला जायगा । इसलिये उन्होंने कई Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ सं० १९६७ का चातुर्मास काल आनंदपुर वृद्ध लोगों को बहकाया, और उन्होंने साधुओं को चतुर्मास के लिए कहा। परन्तु साधुओं ने कह दिया कि दोनों समय हमारा ही व्याख्यान हो तो हम चतुर्मास करें। किन्तु पहिले मुनिश्री की विनती करने वालों ने वहाँ स्पष्ट कह दिया कि गयवरचन्दजी महाराज को भी हमने विनती करके रखा है, यदि आप दोनों समय व्याख्यान बांचोगे तो वहां भी दोनों वक्त व्याख्यान बँचता रहेगा और जिसकी जैसी इच्छा होगी वह वहीं जा कर व्याख्यान सुनेगा। केसरीमलजी ने इसको मॅजूर नहीं किया। अन्त में यह तय हुआ कि सुबह केसरीमलजी व्याख्यान देवें और दोपहर को गयवरचन्दजी महाराज। . इस पर केसरीमलजी ने चतुर्मास करना स्वीकार कर लिया कुछ दिन तो पूर्वोक्त नियम का ठीक-ठीक पालन होता रहा, किन्तु बाद में केसरीमलजी ने दोपहर का व्याख्यान भी शुरु कर दिया। इधर हमारे चरित्रनायकजी ने भी सुबह, दोपहर, तथा रात्रि एवं तीनसमय व्याख्यान देना प्रारम्भ कर दिया। चन्द व्य. कियों को छोड़, जैन, जैनेतर सब हमारे चरित्रनायकजी के व्याख्यान में आने लग गये; इसका कारण यह था कि आप की व्याख्यान शैली मधर, रोचक और प्रभावशाली थी; दूसरे, आपका उत्कृष्ट आचार-व्यवहार और तपश्चर्या ने भी जनता पर काफी प्रभाव डाल दिया था। इस चतुर्मास में भी आपने एक अठाई, दो पचोल और फुटकर तपस्या की थी। आश्विन मास में यहां भी आपके नेत्रों की तकलीफ हो गई थी। केसरीमलजी ने कहलाया कि गयवरचंदजी कहें तो हम आहार पानी ला देंगे, किन्तु आपने इन्कार Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ११४ करदिया, और चौबिहार तीन उपवास कर मौन कर ली। गुरू कृपा से विपत्ति चली गई, और आपने अपने हाथों से लाकर पारण किया । कालु में इसवर्ष एक दिगम्बर भट्टारकजी का भी चतुर्मास था । कालु में सरावगियों के घर ज्यादा हैं और वे सब स्थानक - वासी हैं । दिगम्बर भट्टारकजी ने पहिले तो मुनिश्री से अच्छा मेल रखा पर बाद में जब उन्होंने सराबगियों को मुँहपत्ति छुड़ाने का, मूर्तिपूजा करने का या हमेशा मन्दिरजी के दर्शन करने का आग्रह किया, तो मुनिश्री ने मुँहपत्ति बान्धने का तथा मन्दिर मूर्ति नहीं मानने का जोरों से उपदेश दिया । इस पर दिगम्बर भट्टारक चिड़ गये और कहा कि तुम्हारे साधुओं से कह दो कि हमारे से शास्त्रार्थ करें । लोगों ने जाकर केसरीमलजी साधु को कहा, पर वे तो शास्त्रार्थ करने से इन्कार होगये । आखिर हमारे चरित्रनायकजी ने डंके की चोट शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर दिगम्बर भट्टारकजी को कहला दिया कि पधारिए आप मैदान में, हम शास्त्रार्थ करने को तैयार हैं। भट्टारकजी ने कहलाया कि हम हमारा मकान छोड़ कर अन्य स्थान तक नहीं आ सकते हैं, आपको शास्त्रार्थ करना हो तो हमारे मकान पर आ जावें । इस पर हमारे चरित्रनायकजी १०-१५ श्रावकों को लेकर भट्टारकजी के मकान पर गये, किन्तु भट्टारकजी लिखे पढ़े तो थे नहीं, श्रतएव पहले प्रश्न में ही चुप हो गये । प्रश्न था कि श्वेताम्बरों से दिगम्बर निकले या दिगम्बरों से श्वेताम्बर ? जब भट्टारकजी अपनी प्राचीनता साबित नहीं कर सके, तब Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ सं० १९६७ का चातुर्मास कालु आनंदपुर उन्होंने यों ही गाली गलोज करके जनता को अपनी योग्यता का परिचय दिया । इधर मुनिश्री ने श्वेताम्बरियों की प्राचीनता के लिये अनेक अकाट्य प्रमाण दिये और विजय प्राप्त कर अपने मकान पर लौट आये । इसी प्रकार कालु के तेरह पन्थियों से भी एक बार चर्चा हुई और उस में भी मुनिश्री की विजय का ही डंका बजा । चर्तुमास समाप्त होते ही ब्यावर से ७-८ श्रावक आये । वे कहने लगे कि आपको पूज्यजी महाराज ने याद किया है और कहा है कि गयवरचन्दजी इस तरह अकेले विहार करें यह ठीक नहीं है, हमारे पास आ जावें तो हम रखने को तैयार हैं। ऐसी हालत में आपको यहां से विहार कर सीधे हो अजमेर पधारना चाहिए । पूज्यजी महाराज अभी अजमेर पधार कर वहीं ठहरेंगे । कुछ समय हमारे चरित्रनायकजी तो इस बात को चाहते ही थे । आप विहार कर अजमेर चले गये । पूज्यजी महाराज को जो कुछ कहना था कह कर आपको अपने पास. प्रेम के साथ रख लिया । पूज्यजी महाराज ने कहा कि मेरा बिचार तो गुजरात की ओर जाने का है, तुम शोभालालजी के पास रह जाओ, तुम्हारे अच्छा ज्ञानाभ्यास हो जायगा । अस्तु पूज्यजी महाराज की आज्ञा शिरोधार्य कर श्राप शोभालालजी महाराज के पास रह गये, और आपकी विनय भक्ति कर ज्ञान प्राप्त करने लग्न हो गये । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४-संवत् १६६६ का बीकानेर चातुर्मास हमारे चरित्रनायकजी को ज्ञान पढ़ने का शुरु से ही खूब शौक था, और ज्ञान ग्रहण करने की युक्ति भी आपको बहुत अच्छी याद थी। आप बखूबी जानते थे कि ज्ञान प्राप्ति में सब से पहिले विनय, भक्ति और व्यावच्च की आवश्यकता है । ये सब गुण हमारे चरित्रनायकजी में विद्यमान थे। इतना ही क्यों, पर आप इन गुणों को हर समय काम में भी लिया करते थे, यही कारण है कि अपनी समुदाय के करीब १०० साधुओं में आपका आसन दूसरे नम्बर पर था। शोभालालजी एक ऐसी प्रकृति के साधु थे कि आप पूज्यजी की समुदाय में ज्ञानाभ्यास के लिए प्रथम नम्बर के होने पर भी आपकी तेज प्रकृति के कारण न तो काई साधु आपके पास ठहर सकता था और न किसी ने आपके पास से थोड़ासा भी ज्ञान प्राप्त किया था। आपकी प्रकृति में यह विशेषता थी कि आप न तो जरासा भी प्रमाद करते थे और न अपना काम दूसरों से करवाने की आशा ही रखते थे। यहां लाग लपेट का भी काम नहीं था, जो होता वह साफ और सन्मुख ही कह देते थे । आपको कोई भी बोल चाल या प्रश्न एक बार पूंछ ले, फिर दूसरी, बार पूंछने की आवश्यक्ता नहीं, क्यों कि वे कह देते थे कि भाई मैं केवल दूसरों के लिये नहीं हूँ, किन्तु मैं स्वकीय कार्य भी करना चाहता हूँ । यही कारण है कि पूज्यजी को समुदाय में Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ संवत् १९६९ का बीकानेर चातुर्मास केवल एक शोभालालजी को ही ४०० थोकड़ा और ३२ सूत्र की वाचना स्पृष्ट रूप से थी । हमारे चरित्रनायकजी जब से शोभालालजी की सेवा में रहे, तब से उनकी प्रकृति की कुञ्ची आपके हाथ में आ गई, तथा आपकी प्रकृति को बे ठीक तौर पर समझ गये । इतना ही क्यों पर हमारे चरित्रनायकजी की विनय भक्ति, व्यावच्च पर स्वामी जी प्रसन्न होकर खुले दिल एवं उदारता पूर्वक ज्ञान देने लग गये । ब्यावर से विहार कर क्रमशः चर्तुमास के पूर्व आप बीकानेर पहुँच गये, तथा गणेशमलजी मालू की कोठरी में चतुर्मास कर दिया । पहिले तो व्याख्यान स्वामीजी आप ही दिया करते थे, किन्तु आप व्याख्यान में मुख्यकर सूत्र ही ज्यादा बांचते थे । अतएव आम तौर पर लोगों को इतना रस नहीं आता था। बाद में आपकी तबियत भी नर्म हो गई, इधर लोगों का बहुत श्राग्रह होने से व्याख्यान का काम हमारे चरित्रनायकजी के जिम्मे कर दिया था; फिर तो पूछना ही क्या था, परिषद् का ऐसा जमघट होने लगा कि मकान इतना बड़ा होने पर भी जनता को बैठने के लिए स्थान नहीं मिलता था । · इस वर्ष में हमारे चरित्रनायकजी को मुख्य लाभ तो यह हुआ है कि श्रीभगवती सूत्र श्रीपन्नत्रणजी सूत्र, श्रीजम्बुद्वीपपन्नति सूत्र, अनयोगद्वार सूत्र, स्थानायाङ्गजी सूत्र, समवायांगजी सूत्र, और श्रीसूयघड़ायांग सूत्र, एवं सात बड़े सूत्रों की वाचना तथा श्रीभगवती तथा पन्नावरण जैसे कठिन सूत्रों के १२५ थोकड़े कंठस्थ करने का सौभाग्य मिला । जैसे इस चतुर्मास में आपको ज्ञान Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान ११८ पढ़ने का लाभ मिला, वैसे ही श्रावकों को थोकड़े सीखने का भी कम लाभ नहीं मिला। कोई २० अच्छी बुद्धिवाले श्रावक थोकड़ों का अभ्यास करते थे, उन सब को आपने करीब ३०० थोकड़े सिखाये । स्वामी शोभालालजी में जैसा ज्ञान गुण था वैसे ही वात्सल्यता का भी जबरदस्त गुण था । कोई भी पुस्तक अथवा उपकरण का लाभ होता तो वह हिस्सा प्रमाणे सबको देकर ही लेते थे, यह गुण अन्य साधुओं में प्रायः कम पाया जाता है । कहा भी है कि "असंविभागी नवि तस्समोक्खो" । बीकानेर में एक ताराचन्दजी हनुमानगढ़ वाले श्रावक रहते और वे स्थानकवासी कहलाते थे । पर उनकी श्रद्धा तेरह पन्थियों की थी । विरधीचन्दजी बांठिया वगैरह ५-७ श्रावकों को उन्होंने अपने अनुयायी बना लिए थे। हमारे चरित्रनायकजी का भी उनसे परिचय हुआ । उन्होंने स्वामी जीतमलजी का बनाया हुआ भ्रमविध्वंस नामक ग्रन्थ लाकर दिया | आपने पढ़ा तो कई बातों पर आपको शंका हुई; किन्तु जब सूत्र निकाल कर पूर्वापर सम्बन्ध को देखा तो तेरह पन्थियों का मत जैन शास्त्रों से बिलकुल विपरीत ही पाया ऐसी हालत में उन अर्धदग्ध श्रावकों को भी अपने सूत्रों के पाठ बतला कर तथा समझा कर उन पतित होते हुए भव्यों का उद्धार किया । इतना ही नहीं पर आपको भी तेरह पन्थी मत के विषय में अच्छी जानकारी हो गई, तथा उनकी कुयुक्तियों का समाधान करने के लिए आपने अनेक प्रकार की युक्तियाँ स्वयं तैयार कर लीं, जो कि शास्त्रानुकूल थीं । बीकानेर का चतुर्मास समाप्त कर आप क्रमशः विहारकर Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ संवत् १९६९ का बीकानेर चातुर्मास ब्यावर आये, कारण ब्यावर में स्वामी डालचन्दजी वृद्धावस्था के कारण स्थिर वास करके रहे हुए थे। रात्रि के समय जब सब लोग चले गये, तब श्रावक मेघराजजी ने हमारे चरित्रनायकजी के पास में आकर कुछ . प्रश्न किए। . . मेघराजजी:-आप सूत्र पढ़ते हो ? गयवरचन्दजी:-हां। मेघराजजी-सूत्रों का अर्थ किस आधार से करते हो. ? गयवर-टब्बा से। मेघ०-टब्बा किस आधार से बना है ? गयवरः-टीका से टब्बा बना है । मेघ०-टीका को आप मानते हैं ? गयवर०-नहीं। मेघ०-इसका क्या कारण है ? गयवर०-परम्परा से टीका नहीं मानी जाती है, टीका तो संवेगी लोग मानते हैं। __ मेघ०-टीका से टब्बा बनना तो आप स्वीकार करते हो, फिर टब्बा मानना और टीका नहीं मानना, इसके लिए आप समय मिलने पर जरा विचार करना । . इतना कह कर श्रावक मेघराजजी तो चले गये । उन के जाने के पश्वात् हमारे चरित्रनायकजी विचार में पड़ गये, निद्रा देवी ने भी किनारा ले लिया। आप विचारने लगे कि टीका से टब्बा बना है, फिर टब्बा को मानना और टीका को न मानना, यह तो एक प्रकार का अन्याय है । जिस समुद्र का : Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १२० जल क्षारा है, तो उस में से लाये हुए जल के घड़े का पानी मीठा कैसे हो सकता है ? इस पर खूब विचार किया गया, यहां तक कि रात्रि में निद्रा तक भी नहीं आई। प्रातः प्रतिक्रमण और प्रतिलेखन कर थडिले भूमिका जाकर वापिस आये, तो सब से पहिले अापने आचारांग सूत्र निकाल कर देखा तो वहां टब्बाकर स्पष्ट लिखता है कि: "प्रणम्य श्री जिनाधीश, श्री गुरुणा मनु ग्रहात् । लिखते सुखबोधार्थ माचारांगार्थ वार्तिकम् ॥१॥ सतरां शब्द शास्त्रेण तेषां बुद्धिर संस्कृता । व्यमोहो जायते तेषां दुर्गमें वृत्ति विस्तरे ॥ २ ॥ ततोवृतैः समुदत्य मुलभो लोक भाषण । धर्मलिप्सुपकारायादि मांगाऽर्थःपतन्यते ॥३॥ इस उल्लेख को पढ़ कर यह शंका हुई कि टीका से टब्बा बना है, फिर टीका को नहीं मान कर टब्बा ही मानना, इसमें कुछ न कुछ रहस्य अवश्य छिपा हुआ है, किन्तु यह बात किस को पूछी जावे। ___बाद में आपने व्याख्यान दिया, तथा आहार पानी से निवृत्ति पाकर मेघराजजी के पास गये और उनसे कहा कि रात्रि में जो आपने प्रश्न किया था उस प्रश्न ने तो हमको खूब झमेले में डाल दिया, मैंने अभी आचाराँग सूत्र निकाल कर देखा तो टब्बाकार साफ-साफ कहता है कि मैं मन्दबुद्धि वालों के उपकार के हेतु टोका से टब्बा बनाता हूँ, फिर टब्बा मानना और टीका को नहीं मानना, इसका क्या कारण होगा ? Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ संवत् १९६९ का बीकानेर चतुर्मास मेव०-किसी विद्वान से पछ कर निर्णय करना, किन्तु श्राप किसी साधारण व्यक्ति के सामने इस बात की चर्चा न करना, एवं इस बात को खूब ध्यान में रखना । गयवर०-मेघराजजी साहिब, आप तो इसका कारण जानते ही होंगे, फिर आप ही क्यों नहीं बतला देते हो ? जब तक आप इस बात के रहस्य को नहीं बतलावगे, तब तक मेरे दिल के संकल्प विकल्प नहीं मिट सकेंगे। ____ मेघ०-मैं इस विषय में अभी कुछ भी नहीं कह सकता हूँ, आप अवकाश मिलने पर किसी विद्वान पुरुष से जाकर पछ लेना। * गयवर०-आप यह तो बतलावें कि मैं किस विद्वान के पास जाकर इस प्रश्न का समाधान करु। मेघ०-इस विषय का ज्ञान स्वामी कर्मचन्दजी, कनकमलजी और शोभालालजी को है, आप उनसे मिलें तब पूछ कर निर्णय कर लेना। ___ गयवर०- इन तीनों में से एक भी मुनि इस समय यहां उपस्थित नहीं है, हां शोभालालजी यहां पर थे, किन्तु वे भी विहार कर गये हैं। ___ मेघ--खैर, जब मिलें तब पूछ लेना। एक समय की घटना है कि आप के तपस्या का पारना था, हमेशा की भांति सुबह ही बासी रोटी वगैरहः ले आये थे । मेघराजजी ने उसे देख कर कहा कि इतनी बड़ी तपस्या कर आप पौरषी क्यों नहीं करते हो, अर्थात् बासी रोटी खाकर आप असंख्य त्रस जीवों के हिंसक क्यों बनते हो ? Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १२२ गयवर०-वाह, क्या आपको भी किसी संवेगड़ों का रंग लग गया है ? मेघ०-नहीं महाराज, मेरे पास ऐसा साधन है कि मैं बासी रोटी में हिलने चलने वाले त्रसजीव आपको बतला सकता हूँ। गयवर०-लो यह बासी रोटी मेरे पास मौजूद है, याद आप इसमें त्रस जीव बतला देवेंगे, तो मैं आज से बासी रोटी खाने का त्याग कर दूंगा। मेघराजजी उठ का अन्दर से एक खुर्दबीन लाये और रोटी का टुकड़ा तोड़ कर उस खुर्दबीन से देखा तो जहाँ से रोटी का टुकड़ा तोड़ा, वहाँ बारीक-बारीक तन्तु से हिलते चलते जीव दीख पड़े । बस, फिर तो देर ही क्या थी, हमारे चरित्रनायक जी ने बासी रोटी का त्याग कर दिया तथा पात्र के अन्दर की बासी रोटियों को मेघराजजी के सामने रख कर बोसिरा दी। इसी प्रकार नये काजुओं में खुर्दबीन से ईडा देखा तो उसका भी त्याग कर दिया। ब्यावर में ठहरने से आपको और भी कई बातों का लाभ हुआ, जैसे कि: मेघराजजी के पास विक्रम सम्वत् १५२८ का लिखा हुआ एक जूना पन्ना था, उसमें मूर्ति पूजकों ने लौंकाशाह से कई प्रश्न . पूछे थे जिसमें एक प्रश्न यह भी था कि तुम विद्वल मानते हो, यह कौनसे ३२ सूत्र के मूल पाठ में है ? इससे यह पाया गया कि विद्वल को लौकाशाह मानता था। इस प्रकार रस चलित धोवण के अन्दर भी असंख्यों त्रस जीव उत्पन्न होने की सम्भावना को आप मानने लगे, जो आचा. रांग सूत्र तथा दशवैकालिक सूत्र के मूल पाठ में लिखा है । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५–वि० संवत् १६६६ का चतुर्मास अजमेर में डालचन्दजी स्वामी की आज्ञानुसार आप लालचन्दजी को साथ लेकर जैतारण, बीलाड़ा, सोजत होते हुये सारण सिरियारी की घाटी चढ़ कर मेवाड़ में गये और विहार करते हुये देवगढ़ में आये । वहां भी आपके कोई सार्वजनिक व्याख्यान हुये। एक दिन कई श्रावकों के साथ बाजार में थोड़ा सा कपड़ा याचने के लिये गये थे । एक तेरहपन्थी श्रावक की दुकान से केवल पाँच हाथ लट्ठा चोलपट्टा के लिये लेना था। उसने कपड़ा फाड़ कर देते समय धीरे से कहा 'बोसिरे-बोसिरें। हमारे चरित्रनायकजी ने इस ओर ध्यान रखा और कपड़ा हाथ में नहीं लिया। ___ गयवर०-क्यों भाई आपने कपड़ा देते समय क्या कहा था ? तेरहपन्थी-कुछ नही हमतो गृहस्थ हैं । गयवर-तुम हमको कपड़ा देते हो, इसमें पुण्य होता है या पाप ? तेरहपन्थी-हम तो गृहस्थ हैं, पुण्य का काम भी करते हैं, और पाप का भी करते हैं। ____ गयवर०-मैं यह नहीं पूछता हूँ कि तुम गृहस्थ क्या-क्या काम करते हो ? मैं तो सिर्फ, आप मुझे कपड़ा दे रहे थे, उसके लिये ही पुछता हूँ। (इतने में बहुत से जैन और जैनेतर लोग एकत्रित होगये ) तेरह पन्थी-आप तो कपड़ा लिरावें, मैं खुशी से देता हूँ। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-5 -ज्ञान १२४ गयवर० - भाई हम दुनिया को तारने की कोशिश करते हैं; 0 यदि आपको हमें कपड़ा देने में पाप लगता हो, तो हम कपड़ा लेकर आपको डुबोना नहीं चाहते । तेरहपन्थी - हम तेरहपन्थी साधु के अतिरिक्त किसी को भी दान देने में पुण्य नहीं समझते । गयवर०- - तब तो लगना ही समझते हो न ? हमको कगड़ा देने में आपको पाप तेरहपन्थी - पुण्य होना तो मैं हर्गिज भी नहीं समझता हूँ गयवर० - हमको कपड़ा देने में पाप किस प्रकार होता है ? तेरहपन्थी - इतना तो में जानकार नहीं हूँ । गयवर० - तो फिर आप पाप किस प्रकार बतला सकते हो ? तेरहपन्थी - हमारे साधु कहते हैं। गयवर०- - बस आपके साधुओं के कहने पर ही यह मिथ्या हठ पकड़ रखा है। अच्छा हमको कपड़ा देने में पाप समझते हो तो अन्नल देने में भी पाप समझते होंगे ? तेरहपन्थी - हाँ । गयवर : -- - आप तेरह पन्थी साधु को अन्न, जल, वस्त्र देने में पुण्य मानते हो और हमको देने में पाप समझते हो, इसका क्या कारण है । तेरहपन्थी—हमारे साधु भगवान की श्राज्ञानुसार चलते हैं । - इसका क्या प्रमाण है ? भगवान ने तो दीक्षा गयवर० - लेने के पूर्व स्वयं वर्षो दान दिया है, और आप एक पंच - महाव्रतधारी को भी अन्न, जल, वस्त्र देने में पाप समझते हो ? जो लोग उस समय वहाँ उपस्थित थे, वे लोग समझ गये Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ वि० सं० १९६९ का चातुर्मास अजमेर में कि तेरहपन्थियों का मार्ग निर्दयता और शूमता का है । जो जैनसाधुओं को अन्न, जल देने में ही पाप समझते हैं तो दूसरों को तो देवेगे ही क्या ? हाय हाय शायद् ऐसे लोगों से ही पृथ्वी बोझों मरती हो। मुनिश्री वहाँ क़रीब एक मास ठहर कर हमेशा सार्वजनिक व्याख्यान देते रहे । तेरहपन्थियो के साथ हमेशा चर्चा होती रही । फलस्वरूप १२ घर तेरहपन्थी श्रद्धा को छोड़ स्थानकवासी बन गये और शेष में से भी कई लोगों के दिल में यह शंका जरूर पड़ गई कि तेरहपन्थी मार्ग नया भीखमजी ने निकाला है, तथा जो उदारता स्थानकवासी धर्म में है वह तेरहपन्थी में नहीं है। __तेरह पन्थियों के साथ इस प्रकार चर्चा करने का हमारे चरित्रनायकजी का यह पहिला ही मौका था किन्तु इसमें विजय मिलने से आपका उत्साह बढ़ गया और देवगढ़, तारागढ़ वगैरह उधर के ग्रामों में विहार कर दया दान का खूब प्रचार किया और कई तेरहपन्थियों को सद्मार्ग पर भी लिया। इतना ही क्यों , किंतु एक वेरह पन्थी श्रावक फौजमलजी को तो आपने ऐसा उपदेश दिया कि उसने आपके सभीप स्थानकवासी दीक्षा स्वीकार करली, जिसको स्वामी लालचन्दजी का शिष्य बना कर साथ में ले लिया। वे अभी पाली में आये, तब मुनि श्री के दर्शनार्थ आये और आपका बड़ा भारी उपकार माना। ___आप मेवाड़ की भूमि पवित्र कर बला कुंकड़ा होते हुए वापिस ब्यावर पधारे, किन्तु उस बात का शल्य अापके हृदय में ज्यों का त्यों था, कि टब्बा मानना और टीका नहीं मानना । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আহা-মান १२६ आप जिस समय ब्यावर आये, उस समय मेघराजजी बाहर चले गये थे। आपके विहार के समय में जितने साधु मिले, उनसे पूछा गया परन्तु इसका योग्य तथा वाजिब जबाब नहीं मिला फिर भी इसका निर्णय करने को आपको पक्की लग्न थी। आपका चतुर्मास अजमेर में होना निश्चित हुआ; स्वामी लालचंदजी, चाँदमलजी, सिरदारमलजी, फोजमनजी तथा हमारे चरित्र नायकजी अजमेर पहुँच गये । लाखन कोटड़ी में संघीजी की हवेली नामक एक विशाल मकान था, वहाँ आपने चतुर्मास कर दिया । व्याख्यान में सुबह श्री ज्ञानसूत्रजी सूत्र तथा दोपहर को हमारे चरित्र नायकजी साधुओं को श्री भगवतीजी सूत्र की वाचना देते थे; जिसमें श्रावक, श्राविकाएं तथा साध्वियाँ भी आती थीं । सेठजी चांदमलजो उम्मेदमलजी वगैरहः श्री भगवती जी सूत्र बड़े ही उत्साह से सुनते थे तथा भगवतीजी जैसा एक गहन सूत्र, इस प्रकार अचिर काल के दीक्षित मुनि खूब सममा करके बांचें, यह एक आश्चर्य की बात थी। आप श्री भगवतीजी सत्र को इस प्रकार स्पष्ट क्यों बांचते थे, इसका कारण यह था कि आपने श्री भगवतीजी सूत्र के थोकड़े कण्ठस्थ कर रखे थे, जिसमें करीब वारहआने भर श्री भगवतीजी आजाती हैं। वह भी सब द्रव्यानुयोग का विषय था जो साधारण साधुओं के लिए कठिन से कठिन कहलाता है, लेकिन आपने उसको साधारण कर लिया था। आपके व्याख्यान देने की शैली ही इस प्रकार की थी, कि व्याख्यान-भवन खचाखच भर जाने लगा; कारण आपको जिस प्रकार सूत्रों के पाठ कण्ठस्थ थे, वैसे ही छन्द, कवित्त, श्लोक, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ वि० संवत् १९६९ का चतुर्मास अजमेर में कथा- हनियां तथा और भी बहुत से दृष्टान्त याद थे, जिस पर श्रोतागण मुग्ध होजाते थे । इस पर स्थानकवासी साधुओं के दिल में थोड़ा-बहुत इर्षा भाव भी पैदा हुआ, किन्तु लोढ़ा, ढढ्ढा, संघी और सेठजी चांदमलजी साहिब इत्यादि सब हमारे मुनिश्री के सेवा में अग्रसर थे। साथ ही वे पूज्यजी महाराज के पूर्ण भक्त थे। वे सब तीनों समय मुनिश्री की सेवा में आया करते थे। __ स्थानक वासी साधुओं ने इर्षा के मारे दया और सामायिकों की पंचरंगी करवानी शुरू की, तो इधर भी वहाँ से दुगुणा धर्म होने लगा; क्योंकि यहां द्रव्य व्यय करने वाले भी विशेष थे और सेठजी चांदमलजी को इस बात का पूरा प्रेम भी था। आखिर में वादविबद होने से इस विषय पर जोर दिया गया कि देशियों की ओर से सामायिकों की पंचरंगी, सातरंगी, नवरंगी, तक हुई तो यहाँ ग्यारहरंगी, पन्द्रहरंगी तक पहुँच गये । श्रावक इतनी सामायिकें करने वाले नहीं थे, किन्तु जैनेतर लोगों को पैसा सामायिक के हिसाब से सामायिकें करवानी शुरू कर दी । वे विशेष रात्रि में ही कोई पांच, कोई दस और कोई पन्द्रह सामायिकें कर लेते और जितनी सामायिक करते उतने ही पैसे ले जाते । हाँ सामायिक के स्वरूप को नहीं समझने के कारण जब उनको बीड़ी पीने की दिल में आती, तो पेशाब का बहाना कर बाहर जाकर सामायिक में बीड़िये भी पी आते थे। __इतनी अधिक सामायिकें करने का विशेष कारण हमारे चरित्रनायकजी ही थे। वे रात्रि में बड़ी-बड़ी कथा कहा करते थे, जिसमें हास्य, शृंगार, वीर और वैराग्य रस होने से, उसको सुनने में लोगों का समय सहज ही में निकल जाता था। सेठजी Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १२८ की ओर से तो इतनी उदारता थी कि पैसा सामायिक, चार आना दया और एक रुपया का पाठ प्रहर का पोषध, इस रेट से जैन जैनेत्तर कोई भी क्यों न हो, सब से धर्म करवाया करते थे। दुनिया कुछ भी कहे, पर सेठजी तो अपने दिल में यही समझते थे कि लक्ष्मी चंचल है, अतः संसारिक कार्यों में इसका दुरुपयोग किया जाने के बजाय तो किसी को द्रव्य की सहायता देकर उसको इतने समय के लिये पापाचार से बचाना अच्छा ही है ! सेठ साहब की उदारता केवल इस चतुर्मास के लिए ही नहीं थी,किन्तु जोधपुर वगैरहः में निराधार जैन लोगों को रामनाथजी साहिब मुणोत की मारफत इसी प्रकार सामायिकादि धार्मिक कृत्य करवा कर उनको द्रव्य सहायता पहुँचाया करते थे। इतना ही क्यों, पर जब कभी अजमेर में मकोड़े ज्यादा हो जाते थे, और वे सड़कों पर गाड़ी इक्कों और मनुष्यों के पैरों के नीचे बुरी तरह मरते थे, तब आप मजदूर कर उन कीड़ों के डब्बे भरा २ कर बाहर जंगल में छुड़वा देते थे। अतएव यह कहना पड़ता है पंचरंगी का मतलब है किपांच भादमी पांच-पांच पांच आदमी चारचार, पांच आदमी तीन-तीन, पांच आदमी दो-दो और पांच आदमी एक. एक सामायिक करें, इस प्रकार कुल ७५ सामायिकों को पंचरंगी कहते हैं। इसी प्रकार सतरंगी, नौरंगी, ग्यारहरंगी और पन्द्रहरंगी हैं। पन्द्रहरंगी में २२५ भादमी चाहिये, पन्द्रह आदमी पन्द्रह-पन्द्रह, प द्रह ही चौदह-चौदह, पन्द्रह ही तेरह २ इस तरह क्रमशः पन्द्रह हो एक-एक सामायिक करते हैं। कोई भादमी ५ सामायिक करे और पहिले ५ पाँच वालों की भर्ती हो गई है, तो उन ५ सानायिक करने वालों को ३ और २ में अलग २ भी गिनती हो सकती है। यह वाद-विवाद धर्म के लिये नहीं किंतु मान बड़ाई और अपनी बात रखने के लिये ही था। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ अजमेर के व्याख्यान में चर्चा कि धार्मिक कार्यों और दया पर जैसी सेठ साहब की रुचि थी, वैसी थोड़े मनुष्यों में देखने में आतो है। सेठसाहब स्थानकवासी श्रावक थे, पर आपको मन्दिर का भी पूरा इष्ट था, बिना मन्दिरजी के दर्शन किए, आप प्रायः अन्नजल भी नहीं लेते थे। ___एक समय व्याख्यान में द्रौपती के अधिकार में जहाँ जिन मन्दिर और जिनप्रतिमा, का पाठ आया, तथा द्रौपदी जिन प्रतिमा की पूजा करने का अधिकार प्राया, तो हमारे चरित्रनायक जी ने अपने संस्कारों से प्रेरित होकर कह दिया कि यह प्रतिमा कामदेव की थी और द्रौपदी ने विवाह के समय कामभोग के लिए ही पूजा की थी । सेठजी यह सुन कर व्याख्यान में बोल उठे। सेठजी क्यों महाराज ! आप फरमाते हैं ऐसा ही शब्द सूत्र में लिखा है ? ' मुनिजी-सुत्र में तो द्रौपदी ने जिनप्रतिमा की पूजा करना ही लिखा है। सेठजी-तो फिर आप किस आधार से कहते हो कि प्रतिमा कामदेव की थी ? मुनिजी हमने ज्ञातसूत्र की वाचना ली थी, तब हमको यह बात समझाई-कही गई थी। सेठजी-आपने ज्ञातसूत्र किस के पास पढ़ा था ? मुनिजी-फूलचन्दजी महाराज के पास । सेठजी-तो क्या फूलचन्दजी ने आपको यह कहा था कि द्रौपदी ने पूजा की वह प्रतिमा कामदेव की थी। मुनिजी- हाँ। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान , १३० . सेठजी-जब सूत्र में इस बात का जिक्र ही नहीं है तो आपने मान कैसे ली ? .. मुनिजी-वाचना देने वाला कहे वह बात माननी तो . पड़ती है। ____ सेठजी-आप सुत्र के पन्नों को उलट कर फिर दुबारा पढ़ें कि सत' द्रौपदी ने जिस जिनप्रतिमा की पूजा की है, उस समय किन पदार्थों की योजना की है । जैसे नमुत्थुणं श्रान्हिान्तणं तन्नाणं तारियाणं बुद्धाणं वोहियाणं मुताणमोयागाणं-इत्यादि पाठ से द्रौपदी ने तीर्थङ्कर देव की प्रतिमा पूज कर मोक्ष की ही प्रार्थना की है। यदि उस जिनप्रतिमा को कोई अज्ञ लोग कामदेव की प्रतिमा बतलादे, तो क्या नमुत्थुणं के गुण कामदेव में हैं, या कामदेव के पास कोई भी मोक्ष की प्रार्थना कर सकता है; क्या कामदेव मोक्ष का दातार भी सम्झा जा सकता है। अतः महाराज आप आत्मार्थी हैं, आपको ऐसा अर्थ का अनर्थ कभी नहीं करना चाहिए। मुनिजी-तो क्या जिनप्रतिमा को हम तीर्थकरों की प्रतिमा कहें ? .. सेठजी-कहें क्या; वह प्रतिमा तीर्थङ्करों की ही है। मैंने पूज्य वनचन्दजी, पूज्य श्रीलालजी, स्वामी चनणमलजी महाराज आदि कई विद्वान मुनिवरों से अच्छी तरह से निर्णय करलिया हैं, और उन्होंने स्पष्ट कहा था कि द्रौपती ने जिस प्रतिमा की पूजा कर नमुत्थुणं दिया, वह प्रतिमा तीर्थङ्करों की थी। यदि उसको कोई मत्त कदापही कामदेव की प्रतिमा कहे, तो उसको उत्सूत्र प्ररूपक कहना चाहिये । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ अजमेर के व्याख्यान में चर्चा .. मुनिजी-तो फिर फलचन्दजी जैसे उत्कृष्ट क्रियापात्र साधु ने इस प्रकार का मिथ्या भाषण क्यों किया ? सेठजी-महाराज एक फलचन्दजी ही क्यों, पर ऐसे बहुत से साधु हैं कि केवल मत पक्ष के कारण इस प्रकार मथ्या अर्थ करते हैं । इतना ही क्यों, पर इस मत-पक्ष के कारण तो सब सूत्रों को छोड़ केवल ३२ सूत्र और वह भी टीका वगैरहः को छोड़ कर, केवल टब्बा को ही मानते हैं। इस विषय में मैं पूज्य बनैचन्दजी और चनणमलजी महाराज से अच्छी तरह से निर्णय कर चुका हूँ। हां, मन्दिर मार्गियों ने मन्दिरों में धूमधाम बहुत बढ़ा दी, इस कारण अपने वालों ने इसे बिल्कुल ही छोड़ दिया, किन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं होना चाहिए, कि मत-पक्ष के कारण उत्सूत्र बोल कर अर्थ का अनर्थ कर देना। - मुनिश्री-सेठ साहिब ! अपनी समुदाय में ३२ सूत्रों का टब्बा माना जाता है, और टीका क्यों नहीं मानी जाती हैजब कि कहा जाता है कि टीका से टब्बा बना है । सेठजी-महाराज साहिब मैं आपसे कह चुका हूँ कि एक मूर्ति नहीं मानने के कारण एक टीका ही क्यों, पर नियुक्ति भाष्य चूर्णी और कोई ग्रन्थादिका अनादर कर ज्ञान से वंचित रहना पड़ा है। अभी तो आप व्याख्यान वांचे, फिर कभी समय मिला वो आपसे अर्ज करूँगा, क्योंकि मैंने बहुत से विद्वान साधुओं की सेवा की है। ___ इस चर्चा से मुनिजी को यह भी ज्ञात हो गया कि मन्दिर मूर्ति के कारण ही टीका नहीं मानी जाती है, खैर व्याख्यान का Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान १३२ समय हो जाने से आपने कहा-“ठीक है, सेठसाहब! इस विषय में आपके साथ और भी बातें करनी हैं। , सेठजी-ठीक, मैं भी समय मिलने पर उपस्थित होऊँगा। व्याख्यान समाप्त हुआ, सब लोग चले गये मुनि श्री के मनमें कई प्रकार की तरंगे उठने लगों, क्यों कि मेघराजजी वाला प्रश्न आपके दिल में बहुत दिनों से खटक रहा था, जिसका खुलासा आज सहज में ही हो गया। अब तो सेठजी के साथ बार्तालाप करने की मुनिजी की लम इतनी बढ़ गई, कि कभी सेठजी नहीं आते, तो समाचार भेज कर बुलवाये जाते । ___ सेठजी-पूज्यबनेचंदजी. चनणमलजी, पूज्यश्रीलालजी वगैरहा बड़े२साधुओं की सेवा किए हुए थे। जैसे श्राप ज्ञानी थे, वैसे ही गम्भीर भी थे। आपके साथ बातें करने में मुनिश्री को बड़ा ही आनन्द आता था और वे बातें केवल मन्दिरमूर्ति के विषय की ही नहीं थी, पर समय २ पर और २ विषय की चर्चा भी हुआ करती थी। एक समय सेठजी ने पूछा। सेठजी-केवली दिन-रात भर किसका ध्यान करते हैं। मुनिजी-ध्यान तो वे लोग करते हैं, जिनको आगे बढ़ने की अभिलाषा हो । केवली ने तो सब कुछ प्राप्त कर लिया है, स्नको अब ध्यान की जरूरत नहीं है। सेठजी-फिर वे करते क्या हैं। मुनिजी-करना तो उनके लिए कुछ रहा ही नहीं, वे तो जगत् के चराचर पदार्थ के द्रव्यगुण पर्याय के समय २ के भाव देख रहे हैं । उनके ध्यान को रूपातितस्थ ध्यान कहा है। सेठजी-आपने ठीक उत्तर दिया। इस प्रकार आपने थोड़े Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ केवली के ध्यान का प्रश्न से समय में ही ज्ञान और तर्क शक्ति खूब बढ़ा ली है, जिसको देख कर मुझे बहुत ही प्रसन्नता होती है। - अजमेर का चतुर्मास समाप्त कर मुनिजी वापिस ब्यावर आये, क्योंकि वहां स्वामो डालचन्दजी स्थिर बास कर बिराजते थे। यहां पधारने से आपको मूर्तिपूजा के विषय में एक नया प्रमाण भी मिला जो कि पूज्य हुक्मीचन्दजी स्वामी ने अपने हाथों से २२ सूत्र टब्बा सहित लिखे थे, उनमें उपासकदशांग भी एक सूत्र था। पूज्य हुक्मीचन्दजी के पाट पर शिवलालजी और शिवलालजी के पट्टे पर हर्षचन्दजी हुए। उन्होंने पूज्य हुक्मीचन्दजी के हस्तलिखित उपासकदशांग सूत्र के आनंद श्रावक के अधिकार में जहां आनंद अभिग्रह करता है कि मैं अन्यतिर्थियों ने अपनी कर रखी हुई जिनप्रतिमा को नहीं वन्दूंगा। इसमें 'जिन प्रतिमा' शब्द पर 'जो पूज्य हुक्मीचंदजी के हाथों से लिखा था' हर्षचन्दजी स्वामी ने एक कागज की चिपकी लगा दी। बाद में हर्षचन्दजी किसी समय मारवाड़ आये, तब वहां रेखराजजी स्थानकवासी नामक एक बड़े ही विद्वान साधु थे । हर्षचन्दजी की भेंट आप से हुई और जिन प्रतिमा के विषय में बात चली । हर्षचन्दजी ने अपनी उपासकदशांग वाली बात कही । इस पर स्वामी रेखराजजी ने कहा कि हर्षचन्दजी, आपने अनन्त संसार की वृद्धि की है । क्या पूज्य हुक्मीचन्दजी आपके जितने भी नहीं समझते थे जो उन्होंने अपने हाथों से जिन-प्रतिमा का उल्लेख जैसा था वैसा लिख दिया और आपने उस पर कागज चिपका दिया। वाह, आपकी कितनी समझदारी है ? इस प्रकार उपालम्भ देने से हर्षचन्दजी स्वामी ने Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १२४ एक रूई का फूवा गीला कर उसे चिपकाये हुए कागज पर रख बड़ी मुश्किल से उस कागज को उतारा, परन्तु थोड़ा २ धब्बा (निशान ) तो रह ही गया। फिर भी, 'जिनप्रतिमा' अक्षर स्पष्ट पढ़ा जा सकता है। प्रस्तुत उपासकदशांगसूत्र की प्रति पूज्य श्रीलालजी महाराज के पास थी, पर स्वामी, डालचन्दजी ने ब्यावर में स्थिर वास कर लिया, अतः पूज्यजी ने अपने सत्र डालचन्दजी के पास रख दिए थे और उन सूत्रों का हमेशाँ एक बार प्रतिलेखन भी हुआ करता था। एक दिन उन सूत्रों का प्रतिलेखन करने का सौभाग्य हमारे चरित्रनायकजी को मिला और वही पृष्ठ नजर आया, जिस में स्वामी हर्षचन्दजी ने 'जिन प्रतिमा' शब्द पर कागज लगा कर पुनः हटाया था। यह देख कर उन्होंने डालचन्दजी स्वामी को पूछा । उन्होंने ऊपर का सब हाल जैसा हुआ था वैसा सुना दिया जैसा कि हमने ऊपर लिखा है । हमारे चरित्रनायकजी ने निश्चय कर लिया कि जैन शास्त्रों में मूर्ति का उल्लेख तो स्थान २ पर आता है, किन्तु केवल मतपक्ष के कारण कई लोग उस्सत्र भाषण 'कर अनंत संसार की वृद्धि करते हैं । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६-पूज्यजी का गुजरात से पाली पधारना पूज्यजी महाराज दो चतुर्मास गुजरात में समाप्त कर, मारवाड़ पधार रहे थे। हमारे चरित्र नायकजी के गुरू मोड़ीरामजा महाराज भी पूज्यजी की सेवा में थे। जब आप अहमदाबाद से पालनपुर आये, तो मोड़ीरामजी महाराज ने अर्ज की कि आपको आज्ञा हो तो हम आबू होकर मारवाड़ जावें, क्योंकि लोग कहते हैं कि आबू के जैन मन्दिर भारत में एक अनुपम दर्शनीय वस्तु हैं। ___ पूज्यजी महाराज ने कहा कि मोड़ीरामजी, आबू के मन्दिर तो मुझे भी देखना है, पर क्या किया जाय, मैं आबू जाऊँगा तो स्थानकवासी संसार में बिना ही कारण हलचल मच जायगी; अतएव इच्छा होते हुए भी मैं नहीं जा सकता हूँ। किन्तु तुम्हारे मैं अन्तराय देना नहीं चाहता हूँ, तुम खुशी से जाओ, पर लोक व्यवहार की ओर लक्ष्य रखना। बस, मोड़ीरामजी महाराज : अपने साथ ५ साधुआ को लेकर पालनपुर से खराड़ी आये और : वहाँ से आबू की तरफ बिहार कर दिया। जब आप चौकी पर पहुँचे, तो दिन बहुत चढ़ गया था। चौकी वालों ने गर्म पानी और भात के लडुओं का आमन्त्रण किया। देलवाड़ दूर था, : आपने समय को जानकर वहाँ से आहार पानी लेकर कर लिया , और विहार कर देलवाड़े पहुँच गये। वहाँ धर्मशाला में ठहरे ; और बाद में आदीश्वरजी और नेमिनाथजी के मन्दिरों के दर्शन : Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदश-ज्ञान १३६ कर तब बारीकी से देखा तो साधुओं को आश्चर्य होने लगा जब उन शान्तरस वाली मूर्तियों का दर्शन किया तो मानों आपके हृदय कमल में उनका चित्र हो अङ्कित हो गया। दूसरे दिन वहाँ से आप अचलगढ़ पधारे । वहाँ के दर्शन कर वापिस देलवाड़े आकर फिर दर्शन किए तथा बाद में अनादरा की नाल ( सोपान ) होकर सिरोही होते हुए आप सादड़ी पधार गये । ___ इधर जब ब्यावर में सुना गया कि पूज्य महाराज मारवाड़ में पधार रहे हैं, तो सब साधुओं को पूज्य महाराज के दर्शनों की उत्कण्ठा तो लग ही रही थी, उन्होंने डालचदजी स्वामी की आज्ञा लेकर विहार कर दिया। हमारे चरित्रनायकजी भी इनसाधुओं में ही थे । कोई साधु किसी रास्ते और कोई साधु किसी रास्ते होकर पूज्य महाराज के सामने जा रहे थे। गयवरचंदजी गुदोच तक तो साधुओं के साथ रहे। बाद में जब सुना कि गुरू महाराज सादड़ी में पधार गये हैं, तो आप एक साधु को लेकर क्रमशः विहार करते हुए सादड़ी जाकर गुरू महाराज से मिले गुजरात के दो चतुर्मासों की बातें हुई मोड़ीरामजी महाराज ने पूर्वोक्त आबू के मन्दिर का सब हाल कहा। तथा गुरू महाराज वगैरहः साधु पुनः पूज्यजी महाराज के सामने शिवगंज तक जाने के लिए बिहार कर सादड़ी से वाली आये । चतुर्दशी का सबके उपवास था, और वाली में प्रायः सब घर मूर्तिपूजकों के ही थे सुबह सब साधु पारणा और गोचरी का विचार ही कर रहे थे कि वहाँ पोमावा वाले सेठ नवलाजी का संघ, जो केसरियाजी की यात्रार्थ जा रहा था, आगया, साधुओं को देखकर संघपति बोला कि महाराज पधारो, भात पानी का लाभ दिलावें । मोड़ी. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ वाली नगर में भिक्षा रामजी महाराज कुछ कहने लगे, तो हमारे चरित्रनायकजी ने कहा कि गुरू महाराज यदि इनकी भावना है तथा निर्वद्य आहार पानी हो तो इनको तारना ही चाहिए । बस चार साधु गये, और उस संघ से आठ साधुओं के लिए श्राहार व गरम पानी ले आये। वापिस जाकर विचार किया कि देखो उदारता तो मन्दिर-मार्गियों की है; यदि इसी प्रकार मन्दिर-मार्गी साधु आगये हों तथा अपने श्रावक हो, तो इतनी उदारता उनमें नहीं है कि जिस प्रकार संघपति ने श्रद्धा पूर्वक अपना सत्कार किया है इसी प्रकार वे कर सकें, अस्तु । दूसरे दिन वाली से बिहार कर शिवगंज जा रहे थे; रास्ते में सुना कि पूज्यजी ने शिवगंज से पाली की ओर बिहार कर दिया है । बस, मोडीरामजी तथा हमारे चरित्रनायकजी इत्यादि सब साधुओं ने पाली का मार्ग पकड़ लिया । पूज्यजी महाराज के पालो पहुँचने के दूसरे दिन आप भी पाली पहुँच गये । इधर कर्मचंदजी, शोभालालजी, कनकमलजी वगैरह भी पूज्यजी के दर्शनार्थ सब पाली आ पहुँचे । उस समय पाली में ३७ साधु पूज्यजी महाराज के साथ बिराजते थे। जोधपुर, वींवरी, फलोदी, बीकानेर, अजमेर, उदयपुर, रतलाम, ब्यावर, सोजत वगैरह के बहुत से लोग दर्शनार्थ आये थे । नन्दकुवरजी और रंगूजी की आरजियें भी काफी तादाद में वहां उपस्थित थीं । यदि यह कह दिया जाय कि इस समय पाली में चातुर्विध संघ का एक खासा सम्मेलन हो गया था, तो भी अतिशयोक्ति न होगी। पूज्यजी महाराज के समुदाय में स्वामी कर्मचंदजी, कनकमलजी, शोभालालजी और गयवरचंदजी ये चार साधु स्तम्भ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान १३८ एवं विद्वान कहलाते थे. तथा इन चारों की श्रद्धा मूर्तिपूजा को आर झुकी हुई थी, किन्तु थी गुप्त में । चन्द मनुष्य इस बात का पूर' तरह से जानते थे। पूज्यजी के पधारने के पूर्व एक समय शोभालालजी तीवर गये थे। वहां तींवर के किसी श्रावक ने शोभाल लजी से प्रश्न किया कि____यदि कोई श्रावक जिनप्रतिमा को नमस्कार करे, तो उसका क्या फल होता है ? ___ शोभालालजी-यह प्रश्न किसी विद्वान् से पूछना । श्रावक -आपके अतिरिक्त और कौन विद्वान् है ? हम तो आपको ही विद्वान् समझते हैं। शोभा०-मैं तो ऐसा विद्वान नहीं हूँ। श्रावक-आपको इस प्रश्न का उत्तर तोदेना ही पड़ेगा ? शोभा०-खैर, श्रावक जिनप्रतिमा को क्या समझ कर नमस्कार करता है ? श्रावक-जिनप्रतिमा समझ कर । शोभा-यदि जिन-प्रतिमा में जिनवर की भावना लाकर नमस्कार करता है, तो उसका समकित निर्मल होता है, और यदि पत्थर समझ कर नमस्कार करता है, तो मिथ्यात्व लगता है। .. श्रावक-प्रतिमा पत्थर की है, उसको पत्थर समझने से क्या मिथ्यात्व लगता है ? शोभा०-पत्थर को पत्थर सममने से मिथ्यात्व नहीं लगता है, किन्तु प्रतिमा को पत्थर समझ, उस प्रतिमा के पत्थर को नमस्कार करने में मिथ्यात्व लगता है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ शोभालालजी और तीवरी O श्रावक - क्या पत्थर की मूर्ति को जिन समझना मिथ्यात्क नहीं है ? शोभा० – कागज को आचाराङ्ग सूत्र समझने में मिध्यात्व लगता है ? श्रावक — नहीं | शोभा - तो फिर पत्थर की प्रतिमा, जो जिन - प्रतिमा कहलाती है, जैसे कि कागज आचारांग सूत्र कहलाता है, उसको नमस्कार करने में मिथ्वात्व कैसे लग सकेगा, कारण नमस्कार करने वाला का इरादा पत्थर को नहीं, पर जिनराज को है, अतएव जिनराज को नमस्कार कराना समकित निर्मल ही कहलाता है । इन प्रश्नोत्तरों से तीवरी के श्रावक समझ गये कि शोभालालजी की श्रद्धा मन्दिर मूर्ति के प्रति हो गई है, जैसे कि आत्मारामजी की हुई थी । 1 वे तीवरी के श्रावक पाली में पूज्यजी महाराज के दर्शनार्थं आये हुए थे । उन्होंने समय पाकर एकान्त में पूज्यजी से अर्ज की, कि आप तो गुजरात पधार गये, किन्तु यहां सब गड़बड़ घटाला हो गया है । पूज्यजी - क्यों, गड़बड़ कैसे हुई ? श्रावक - आपके समुदाय के अच्छे लिखे पढ़े साधुओं की श्रद्धा मूर्ति-पूजा के प्रति हो गई है । पूज्यजी - किस-किस की १ - श्रावक – किसकी क्या, स्वामीकर्मचंदजी, कनकमलजी, शोभालालजी, तथा गयवरचंदजी, जिनको कि आप अपनी Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १४० - समुदाय के स्तम्भ समझते हो, इन चारों की श्रद्धा मूर्तिपूजा की ओर प्रवृत मान हो गई है 1 पूज्यजी - आप यह बात किस आधार पर कहते हैं ? श्रावक - हम कर्मचंदजो तथा शोभालालजी से तो इस विषय में खूब अच्छी तरह से बातें कर चुके हैं । कनकमलजी तथा गयवरचंदजी के साथ तो प्रश्न करने का समय नहीं मिला है, किन्तु हमने यह सुना है कि इनकी भी श्रद्धा मूर्ति पूजा पर है। पूज्यजी - ठीक है, मैं इनका निर्णय कर, इन्तजाम कर दूंगा । श्रावक - अब केवल इन्तजाम से काम नहीं चलेगा, आप या तो सख्ती से काम लो, अथवा इन चारों को समुदाय से अलग करदो, नहीं तो ये और भी साधुओं को बिगाड़ देवेंगे । पूज्यजी स्वयं मूर्तिपूजा से अज्ञात नहीं थे, वे अच्छी तरह से समझते थे कि जैन सूत्रों में मूर्तिपूजा का उल्लेख स्थान २ पर आता है; किन्तु श्रावकों के दबाव या अपनी प्रतिष्ठा के लिए आपको जान बूझ कर अन्य मार्ग का अवलंबन करना पड़ता था सबसे पहिले श्रापकी बात चीत कर्मचन्दजी महाराज से हुई, जो पूज्यजी महाराज से दीक्षा में बड़े थे । पूज्यजो — कर्मचंदजी महाराज, श्राप धोवण क्यों नहीं पीते हो ? कर्मचंदजी - धोवण फाशुक नहीं मिलता है । पूज्यजी - क्या श्राप धोवण में जीव होना मानते हो ? कर्म० - मैं क्या, शास्त्रकार रसचलित धोवण में जीवनोत्पन्न होना बतलाते हैं। पूज्यजी - क्या सब धोक्ण रसचलित होता है ? Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ पाली में धोवण की चर्चा कर्म-वर्तमान में अपने जो धोवण श्राता है, वह प्रायः सब रस-चलित ही होता है। पूज्यजी-इसका क्या प्रमाण है ? ____कर्म-यहाँ अपने श्रद्धा सम्पन्न श्रावकों में से एक हीराचंद जी डागा, दूसरे समीरमलजी बालिया, जो अपनो समुदाय के परम भक्त हैं, और जैसा धोवण अपने यहाँ लाते हैं, वही धोवण दस बजे ये लोग चख कर एक काष्ट की कुंडी ( पात्र ) में रखलें, फिर पाँच बजे उस धोवण को चख लें, यदि उक्त दोनों श्रावक कह दें कि इतने समय में धोवण का स्वाद नहीं बदला है, तो मैं धोवण पीने के लिए तैयार हूँ । दूसरे, पूज्यनी साहब आप स्वयं विचार कर सकते हैं कि जो धोवण अपने यहाँ आता है, उसमें फुवारा ( कीटाणु, त्रसजीव ) हमेशा दिखाई देते हैं और उसको तालाब कुंए पर जाकर परड़ डालते हैं, तो ऐसे जीव-युक्त धोबण को लेकर पीने की किसी भी तीर्थङ्कर या गणधर ने आज्ञा नहीं दी है । मैं लकीर का फकीर नहीं हूँ, पर सत्य-ग्राही हूँ। पूज्यजी-तब तो सब साधुओं को गर्म पानी ही पीना चाहिए, पर आपने यह भी विचार किया है कि क्या इतना गर्म पानी सरलता से निर्दोष मिल सकेगा ? कर्म-पूज्यजी साहिब मन से चोरी छिपी नहीं है, केवली से भाव छिपे नहीं हैं। गर्म पानी निर्दोष नहीं मिले, तो क्या धोषण निर्दोष मिल सकता है ? जिन गांवों में ५-७ साधु जा निकलते हैं, वहाँ क्या धोवण तैयार मिलता है, या साधुओं के लिए धोवण घर-घर में बनाकर रखते हैं ? पूज्यजी-यदि अपने लोग भी गर्म पानी पीना शुरू कर Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १४२ देवेंगे तो देशी साधु तथा संवेगी साधु और अपने में क्या अन्तर रहेगा ? ____ कर्म०-अन्तर रखना ही क्यों है, पूज्यजी साहिब, केवल धोवण के आग्रह से ही कल्याण नहीं है। मेरा तो ख्याल यहां तक है कि गर्म पानी आधा कर्मी भी मिलता हो, तो रसचलित धोवण से तो हजार दर्जे श्रेष्ठ है । क्योंकि गर्म पानी में तो एकेन्द्र जीवों की विराधना है, पर धोवण में तो त्रस जीवों की विराधना होती है, जो एकेन्द्र से अनंत गुनी पुण्यवानी वाले होते हैं। __ पूज्यजी खुद प्रायः गर्म पानी या लोटे कलसियों का धोवण ( कच्चे पानी के माफिक ) पोते थे। आप समझ गये कि यदि इसकी अधक चर्चा की गई, तो फिर दूसरे साधुओं के दिल में भी शंका पड़ जायगी। पूर्वोक्त दोनों श्रावकों से भी पूज्यजी ने निर्णय करवाना ठीक नहीं समझा क्योंकि चूल्हे के पास का धोवण दस बजे से पाँच बजे तक जैसा का तैसा रह नहीं सकता; उसका वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अवश्य ही पलट जाता है । अतः पूज्यजी महाराज ने चुप रहना ही उचित समझा, और कर दिया कि आज तो रात्रि अधिक आ गई है;फिर इस विषय में निर्णय किया जायगा । पूज्यजी और कर्मचन्दजाका यह वार्तालाप एकान्तमें ही हुआ था, किन्तु एक साधु ने गुप्त रूप से छिप कर सुना, वही हाल यहाँ लिखा गया है। पज्यजी महाराज बड़े ही चतुर मुत्सद्दी थे ! दूसरे दिन व्याख्यान में सब साधु साध्वियों और स्थानिक गृहस्थों के अलावा प्रामों से आये हुए दर्शनार्थी लोग भी मौजूद थे । व्याख्यान में आपने मूति का विषय लिया, जिसमें चातुर्यता यह थी कि किसी Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ पाली में शोभालालजी को धमकी भी पहलू में मूर्ति का खंडन नहीं था, किन्तु स्थानकवासी समुदाय में रहकर मूर्ति पर श्रद्धा रखने वालों पर जोर से कटाक्ष किया था । आपने यहां तक कह दिया कि यदि हमारी समुदाय में भी किसी साधु क मूर्ति पूजा पर श्रद्धा हो तो वह अलग होकर पीले कपड़े - पहिन ले । मैं ऐसे पतितों को एक क्षण भर भी समुदाय में रखना उचित नहीं समझता हूँ । व्याख्यान समाप्त होने के बाद पूज्यजी ने एकान्त कमरे में जाकर सब से पहिले शोभालालजी को बुलवाया; क्योंकि मूर्तिपूजा की श्रद्धा वाले चारों साधुओं में श्राप ही डरपोक थे | आप शोभालालजी से कहने लगे कि तुम कितने ऊँचे खानदान के हो, तथा चढ़ती जवानी में किस प्रकार स्त्र कुटुम्ब आदि को छोड़कर वैराग्य से दीक्षा ली है, ज्ञानाभ्यास के लिए तो अखिल समुदाय में तुम्हारी बरोबरी करने वाला एक भी साधु नहीं है, किन्तु दुःख है कि तुम हमारा और हमारी समुदाय का नाम बदनाम कर रहे हैं | पर याद रखना मैं तुम्हारे लिए घर २ में सूचना करवा देउँगा । तब तुम मारे २ फिरोगे, कोई भी तुम को आदर की दृष्टि से नहीं देखेगा; अब भी समय है, तुम अपने आपको सँभाललो तो है । अच्छा शोभा०- पूज्यजी महाराज, आज हमारे पर आपकी इतनी नाराजी क्यों है, मैंने आपका या समुदाय का क्या नुक्सान किया है ? पूज्यजी - क्या नुक्सान किया ? क्या तुमको मालूम नहीं है कि मैंनें दीक्षा लेने के बाद श्रावकों से आज पर्यन्त उपालम्भ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान १४४ नहीं सुना, और आज तुम्हारे कारण सुनना पड़ा है। और फिर भी, तुम कहते हो कि क्या नुक्सान किया। ___शोभा०-आपने हमारे कारण क्या उपालम्भ सुना है, कृपा कर बतलाईये तो सही ? ____ पूज्यजी-तुमने तीवरी के श्रावकों को मूर्ति के विषय में क्या कहा था, याद है न ? शोभा-हाँ, मुझे बराबर याद है, पर इससे क्या अनर्थ हो गया ?" पूज्यजी-जब क्या तुम्हारी श्रद्धा मूर्ति मानने की है ? शोभा०-मूर्ति कौन नहीं मानता, क्या आप मूर्ति नहीं मानते हैं ? पूज्यजी-हमारी श्रद्धा तुम्हारी तरह नहीं है । शोभा०-आपने मुझे शास्त्र बँचवाया था, तब आपने जिन प्रतिमा का जो अर्थ करके सममाया था, क्या मेरी श्रद्धा उससे भिन्न है। ____पूज्यजी-क्या मैंने तुमको यह कहा था कि तुम श्रावकों के सामने मूर्तिपूजा का पक्ष करना । ___ शोभा०-तो फिर सूत्रों में जिन प्रतिमा आती है, वहाँ क्या अर्थ करना, तथा आपने नागौर में क्या फरमाया था, तथा मोडीरामजी को आबू जाने की आज्ञा क्यों दो थी ! __पूज्यजी-इस समय मैं तुम्हारी एक भी बात सुनना नहीं चाहता, यदि तुमको इस समुदाय में रहना हो, तो इस कागज के नीचे अनंते सिद्धों की साख से हस्ताक्षर करदो । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ लिखत पर हस्ताक्षर शोभा०-यदि आपका ऐसा ही हुक्म है, तो मैं दस्तखत करने को तैयार हूँ, किन्तु मुझे यह कागज तो पढ़ लेने दीजिये कि इसमें क्या लिखा है ? पूज्यजी-पहिले हस्ताक्षर करदो, पीछे पढ़ लेना। शोभा०-जो हुक्म कह कर उस लिखे हुये कागज पर हस्ताक्षर कर दिये। बाद में कागज को पढ़ा तो उसमें लिखा था कि "मूर्ति की प्ररूपणा नहीं करना, इस विषय का कोई प्रश्न पूछे तो उत्तर न देकर बड़ों पर छोड़ देना; धोवण में, बासी रोटी में, विद्वल में जीव की शंका नहीं रखना; इत्यादि इत्यादि १२ कलमें लिखी हुई थीं, जिनको पढ़ कर आपको बहुत दुःख हुआ; किन्तु अब क्या हो सकता है, जब कि हस्ताक्षर कर दिये । ____इतने में साधु गोचरी-पानी ले आये और गोचरी करने की तैयारी की गई । उस समय पूज्यजी महाराज ने स्वामी लालचन्द जी द्वारा गयवरचन्दजी को कहला दिया कि आपका आहार पानी पूज्यजी ने अलग कर दिया है। ___ गयवरचन्दजी को यह भी समाचार मिल गया कि शोभालालजी ने पूज्यजी को लिखित कर दिया है, तथा आपको भी लिखित करना पड़ेगा। इधर आप के छट तप का पारना था। दिन के १२ बज चुकेथे बिचारे सब साधु भूखे प्यासे थे; फिर भी आपने सोचा कि 'संडे से खेती नहीं पकती है' इसलिये 'काम सुधारो तो आप पधारो।' इस युक्ति को याद कर आपने पूज्यजी महाराज के पास जाकर नम्रता पूर्वक अर्ज की कि, क्या मेरा माहार-पानी आपने अलग कर दिया है? पूज्यजी-हाँ। १० Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १४६ गयवर०- - पूज्यजी महाराज, आहार पानी अलग कर देने का तो मुझे रत्ती मात्र भी दुःख नहीं है, क्योंकि सब साधु आहार पानी गृहस्थों के यहाँ से ही लाते हैं । इसी प्रकार मैं भी ले आऊँगा । किन्तु मेरा क्या कसूर है वह कृपा कर बतलावें । पूज्यजी - क्या तुम नहीं जानते हो कि तुम मूर्ति की प्ररूपणा करते हो ? गयवर० - मूर्ति की प्ररूपणा का क्या अर्थ है ? मैं यही 'जानना चाहता हूँ | पूज्यजी - मूर्तिपूजा में धर्म बतलाना । गयवर०- -मूर्ति-पूजा में धर्म है या नहीं, इसके लिए तो मैं अभी कुछ नहीं कह सकता हूँ, किन्तु मूात-पूजा का पाठ तो सूत्रों में स्थान २ पर आता है। पूज्यजी - यह बात तुमको किसने कही थी ? गयवर०- • आपने ही मुझे सूत्रों की वाचना देते समय कही थी । पूज्यजी - तुम कुछ सँभाल के बोलो। क्या मैंने यह कहा था कि सूत्रों में मूर्ति-पूजा का उल्लेख है ? गयवर०—जी हाँ, यदि आपने नहीं कहा हो, तो सूत्रतो श्राज मौजूद हैं न । अब भी देख लीजिए। दूसरे, नागौर में सेठजी और आपके जो वार्तालाप हुआ, वह तो आपको याद ही होगा? ( दोनों ओर से मामला खूब गर्म हो गया । हमारे चरित्र नायकजी सूत्रों पर अड़ गये तो पूज्यजी महाराज अपनी सत्ता पर दृढ़ हुये थे ) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा की चर्चा पूज्यजी - यदि तुमको समुदाय में रहना है तो इस लेख के हस्ताक्षर करदो | १४७ ܘ गयवर० - - इस प्रकार हस्ताक्षर करना और करवाना मैं उचित नहीं समझता हूँ । कारण, आत्मा की साक्षी से चारित्र - पालन करना है फिर साधुओं में इस प्रकार हस्ताक्षर करदेने का क्या अर्थ है । हस्ताक्षर करने का काम तो चोरों का है, जिनका विश्वास न हो । पूज्यजी ने गुस्से में गर्म होकर कह दिया कि मेरे सामने से चले जाओ । गयवरचंदजी वहां से चल कर अन्यत्र जा बैठे । बाद में साधुओं में बड़ी खलबली मच गई । लाया हुआ आहार वैसे ही पड़ा रहा । पूज्यजी ने मोड़ीरामजी को बुलवा कर कहा कि जाओ गयवरचंदजी को समझाओ और कहदो कि पूज्यजी का हुक्म शिरोधार्य करना ही होगा । इत्यादि । मोड़ीरामजी ने गयवरचंदजी के पास आकर कहा कि पूज्यजी महाराज तुम्हारे पर सख्त नाराज हैं। शोभालालजी ने दस्तत कर दिए हैं तथा तुम भी करदो नहीं तो ठीक नहीं रहेगा । गयवर०—आपने लिखत को देखा है कि उसमें क्या लिखा है, जिस पर मेरा हस्ताक्षर करवाया जाता है ? मोड़ी० - नहीं, मैं अभी उस लिखत को नहीं देखा पर सुना है कि शोभालालजी ने लिखत के नीचे दस्तखत कर दिये हैं। यदि ऐसा है, तो तुमको हस्ताक्षर करने में क्या हानि है ? गयत्रर० – गुरू महाराज ! चाहे शोभालालजी महाराज ने हस्ताक्षर कर भी दिये हों, पर मैं आत्मा की साक्षी से चारित्र Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १४४ लिया और आत्मा की साक्षी से उसे पालता भी हूँ, पर ऐसा चोरों वाला काम न तो मैंने किया और न कर ही सकता हूँ। . मोड़ी-अच्छा तो पूज्यजी महाराज से मैं क्या कहूँ। गयवर०-ज्यजी महागज को मेरी ओर से आप अर्ज करदें कि आप पहिले शास्त्र लेकर देखें कि सूत्रों में क्या कहा है । फिर मुझसे हस्ताक्षर कावाइये । पूज्यजी समझ गये कि यहाँ बखेड़ा होने का ढंग मालूम होता है, अतः अब इस मामले को किसी प्रकार से निपटा लेना ही अच्छा है। उन्होंने मोडीरामजी से कहा कि जाओ, गयवरचंदजी को मेरे पास ले आओ। मोड़ारामजी जाकर गयवरचंदजी को पूज्यजी के पास ले आये। । पज्यजी- गयवरचन्दजी, देखो तुम उच्च जाति व कुल के हो। ओसवालों में सबसे श्रेष्ठ वैद्य मेहता का खानदान है, उसी घराने में तुमने जन्म लिया है । तुमने बड़े त्याग और वैगग्य के साथ जवानी में ऋद्धि और स्त्री को त्याग कर दीक्षा ली है । भला, मैं तुमको नहीं कहूँ तो क्या जाट मैणा को कहूँगा; मैंने तो सुना है कि गयवरचन्दजी की श्रद्धा मूर्ति पूजा की हो गई, ऐसी हालत में मुझे गुस्सा आ गया और मैंने तुमको उपालम्भ दे दिया । यदि तुम्हारी बत्तीस सूत्र पर दृढ़ श्रद्धा है, तो तुम सब साधुओं के सामने कह दो, फिर कोई बात नहीं है। अभी तो चलो, पारणा करलो। गयवरचंदजी ने पूज्यजी महाराज के अभिप्राय को जान लिया कि आप अपना मामला सलटाना चाहते हैं। अतः आपने कहा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ मुखवस्त्रिका की चर्चा कि पूज्य महाराज, यदि बत्तीस सूत्रों पर मेरी श्रद्धा नहीं होती, तो मैं घर ही क्यों छोड़ता, मैं विश्वास के साथ कहता हूँ कि बत्तीस सूत्रों पर मेरी दृढ़ श्रद्धा है और आपने जो उपालम्भ दिया है, उसके लिए मुझे कुछ भी दुःख नहीं है, क्योंकि आप मालिक हैं। यदि आप ही न कहोगे तो और कहेगा भी कौन । यदि मेरी तरफ से कोई त्रुटि हुई हो, तो आप उसे क्षमा करें। .. पूज्यजी-मोडीरामजी, जाओ पहिले गयवरचन्दजी को पारणा करवा दो। गयवर०-आप पधारो, मैं पारणा आपहीके हाथ से करूंगा। पूज्यजी स्वयं माडला पर पधारे और गयवरचन्दजी को पारणा करवाया, बाद सब साधुओं ने आहार पानी किया। पूज्यजी महाराज जान गये कि अब कनकमलजा को छेड़ना व्यर्थ है । बस, साधुओं को अलग २ बिहार करवा कर आपने जोधपुर की ओर विहार कर दिया। हमारे चरित्रनायकजी पज्यजी महाराज की सेवा में ही रहे। - पूज्यजी महाराज रोयट नामक ग्राम में पहुंचे ; रात्रि में हमारे चरित्र नायकजी पूज्यजी की पगचंपी कर रहे थे । पज्यजी ने कहा-"क्यों गयवर, मुँह पर मुँहपत्ती बांधने में तो तुम्हारी श्रद्धा दृढ़ है न ? गयवर०-पज्यजी महाराज, इस विषय में मैं कुछ भी कहना नहीं चाहता हूँ । कारण यहाँ ऐसा मामला है कि जो बोलता है, वही मारा जाता है। फिर वह सत्य हो या असत्य । पूज्यजी-नहीं, मैं तो तुमको स्नानगी पूछता हूँ। गयवर०-पूज्यजी महाराज, यदि आप मुझे वादी होकर Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १५० बोलने की आज्ञा दिलावें, तो मैं इस विषय में आपसे कुछ वार्तालाप कर सकता हूँ। पूज्यजी-केवल तुम्हारी तर्क-शक्ति बढ़ाने के लिये मैं तुमको इजाजत देता हूँ कि तुम वादी होकर मेरे साथ मुँह पर मुँहपत्ती बाँधने के विषय में चर्चा करो। ___ गयवर०-क्यों पूज्यजी महाराज ! आप घंटों तक जोर से व्याख्यान फरमाते हो, उस समय आपके मुँह पर बँधी हुई मुँहपत्ती श्लेष्म एवं थूक से गीली होजाती है ; मैं देखता हूँ कि कभीकभी तो मुँह की लार सूत्र के पन्नों पर भी पड़ जाती है ; उस मुँह पत्ती के लगे हुये श्लेष्म में समुत्सम जीव तो उत्पन्न नहीं होते होंगे ? पज्यजी-इस बात के लिये मैं क्या कह सकता हूँ, यह तो केवल ज्ञानी ही जानते हैं। __गयवर०-क्या आपको इस में शंका है जो निश्चित नहीं कहते हो? पूज्यजी-हाँ, निश्चित नहीं कहा जा सकता है; पर थूक में जीवों की उत्पत्ति सूत्र में कहीं भी नहीं कही है। .. गयवर०-थूक के अलावा श्लेष्म भी तो लगता है । मुँहपत्ती को जब हम धोते हैं, तो उस में से चिकना २ श्लेष्म निकलता है और श्लेष्म में जीवों की उत्पत्ति होना आप ही फरमाते हो। पज्यजी-मुंह की गरम हवा से शायद् जीवों की उत्पत्ति नहीं होती हो ! गयवर०-आप यह भी तो फरमाते हो कि योनि तीन Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ मुखवस्त्रका की चर्चा प्रकार की है। उष्ण योनि वाले जीव गरमी में ही उत्पन्न होते हैं, तब फिर गरम हवा का कारण क्यों बतलाया जाता है । अग्निः इतनी गरम होनेपर भी उसमें उष्ण योनि के जीव उत्पन्न होते हैं । पज्यजी-तो क्या तेरी मान्यता मुंह-पत्ती नहीं बांधने की या हाथ में रखने की है ? परन्तु क्या तुम ने कभी संवेगियों को देखा है ? वे हाथ में मुँह-पत्ती रखते हुए निःशंक खुले मुँह बोल कर वायुकाय के जीवों की हिंसा करते हैं। गयवर०-यदि मुँह पत्ती बांधने में समुत्सम जीवों की हिंसा होती हो, तो वायुकाय जीवों का पार अधिक है या समुत्सम जीवों का ? पूज्यजी-पाप तो समुत्सम जीवों का अधिक है, क्योंकि वायुकाय के जीव तो एकेन्द्रिय चार प्राण वाले हैं, और समुत्सम जीव पंचेन्द्रिय नौ प्राण वाले हैं। गयवर०-क्यों, पूज्यजी महाराज, वायु काय के जीव एक खुले मुँह बोलने से ही मरते हैं या अन्य कार्यों में भी मरते हैं ? पूज्यजी-अन्य कोई भी कार्य करो, पर वायु-काय के जीव तो मरते ही हैं, आँख की पलकों के तथा शिर के बाल चलने से भी वायु-काय के जीव मरते हैं। गययर०-फिर केवल एक खुले मुँह बोलने के लिये ही इतना आग्रह क्यों है ? पूज्यजी-खुले मुँह बोलने की भगवान की आज्ञा नहीं है । गयवर०-भगवान् घंटों तक व्याख्यान देते थे तब वे खुद खुले मुँह बोलते थे या मुँह-पत्ती बाँध कर ? Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-5 १५२ पूज्यजी - तीर्थकर वस्त्र ही नहीं रखते तो फिर मुँह-पत्ती कहाँ से बाँधते; पर उनका तो अतिशय था । गयवर०—समवायांगजी सूत्र में तीर्थकरों के ३४ अतिशय कहे हैं, उन में तो यह बात नहीं आई कि तीर्थङ्करों के खुले मुँह बोलने से वायु-काय के जीव नहीं मरते, दूसरा फिर उनके समयसमय कर्म-बंध क्यों होता है ? - पूज्यजी — कुछ भी हो, अपने को तो भगवान ने किया वैसा नहीं, परन्तु कहा जैसा करना चाहिये । -ज्ञान गयवर०- -क्या भगवान् ने किसी सूत्र में यह फरमाया है कि तुम मुँह पत्ती में डोरा डाल दिन रात मुँह पर बाँधी रखना, चाहे बोलने का काम पड़े या न पड़े; और उस में श्लेष्मादि लग कर समुत्सम जीव उत्पन्न हों, उसकी भी परवाह न करना । पूज्यंजी - साधु के ५४ उपकारों में मुँह पत्ती रखना भगवान् बतलाया है । गयवर०- - मुँह - पत्ती तो भगवान् ने कही है, पर भगवान् ने यह कब कहा है कि तुम मुँह- पत्ती में डोरा डाल दिन भर मुँह पर बाँधी रखना । पूज्यजी - अपना उपयोग न रहे और खुले मुँह बोलने में वायु-काय के जीवों की विराधना हो, इसलिये डोरा डाल मुंहपत्ती को मुँह पर बाँधी है । गयवर०- - पर जब मौन या ध्यान में रहते हैं, तो उस समय - पत्ती क्यों बाँधी जाती है ? पूज्यजी - यह तो प्रवृत्ति पड़ गई है, वास्तव में तो बोलते समय ही मुँहपत्ती की आवश्यकता है । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ मुखवस्त्रिका की चर्चा गयवर० - पूज्यजी महाराज, आप फरमाते हो कि भाषा के 'पुद्गल लोक के अन्त तक जाते हैं, रास्ते में पर्वत पहाड़ आते हैं तो उनको भी भेद कर पुद्गल चले जाते हैं, तो फिर मुँहपर मुँह पत्ती बाँधने से वे पुद्गल कैसे रुक सकते होंगे ? मेरा तो खयाल है कि कपड़े की तो क्या, पर लोहे की पट्टी हो तो भी पुद्गल नहीं रुक सकेगा। दूसरे, आप यह भी फरमाते हो कि जहाँ थोड़े भी छिद्र हैं, वहाँ वायु काय के असंख्य जीव हैं, तब तो मुँह की पोलार में भी असंख्य जीव हैं और मुँहपर मुँहपती बाँधी हुई होने पर भी मुँह में जवान एवं होट चलने से असंख्य वायुकाय के जीव अवश्य मरते होंगे। फिर मुँहपत्ती दिन भर मुँह पर बंधी रखने का क्या मतलब हुआ ? हां, इससे वायुकाय के जीवों की रक्षा तो नहीं हुई, पर श्लेष्म से असंख्य पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा अवश्य होती है । पूज्य — गयवरचंदजी, तुम मूर्खहो, यदि ऐसा ही है तो फिर शास्त्रकारों ने मुँहपत्ती रखना क्यों बतलाया है । गवर - मैंने पढ़ा है कि उड़ते हुए मक्खी, मच्छर, पतंगादि सजीवों की रक्षा के लिए मुँहपत्ती रखनो बतलाई है । पूज्य - ऐसा किस शास्त्र में लिखा है ? गयवर—ओघनियुक्ति श्रागम में लिखा है । पूज्य — श्रोघनियुक्ति ३२ सूत्रों में नही हैं ? गयवर - बत्तीस में नहीं, पर ४५ आगमों में तो है । पूज्यजी - अपने तो ३२ सूत्र ही माने जाते हैं न ? गयवर० - बत्तीस सूत्रों में केवल १४ उपकरणों का नाममात्र बतलाया है; उनका प्रमाण एवं प्रयोजन ३२ सूत्रों में नहीं पर Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १५४ ओघनियुक्तिमें ही बतलाया है । उसको न पढ़ने से ही अपनी समु. दाय में न तो १४ उपकरणों का पूरा प्रमाण है और न प्रयोजन की व्यवस्था है, जिससे हर कोई मन चाहे उतने ही प्रमाण के उपकरण रख लेता है। पूज्यजी- क्या तुम ने ओघ नियुक्ति देखी है ? गयवर०-हाँ, तब ही तो मैं यह बात कह रहा हूँ। पूज्यजी-तुम ने ओघ नियुक्ति कहाँ पर देखी थी ? गयवर०-बोकानेर के बड़े उपासरे में थी, वहाँ से लाकर मैंने पढ़ी थी। पूज्यजी-किसकी आज्ञा से ? गयवर०-आत्मा की आज्ञा से । पज्यजी-इस बात के लिये तो तुमको प्रायश्चित लेना होगा ! गयवर०-पूज्यजी महाराज ! क्या सूत्र बाँचने का भी प्रायश्चित लेना पड़ता है ? पूज्यजी-हाँ, बिना गुरु-आज्ञा सूत्र नहीं पढ़ा जाता है । गयवर०-यह बात ३२ सूत्रों के लिये है या अन्य सूत्रों के लिये ; यदि ३२ सूत्रों के अलावा जो कोई भी अन्य सूत्र एवं ग्रन्थादि पढ़ते हैं, उनके लिये भी हो तो उन सब को प्रायश्चित लेना चाहिये, जैसा कि मुझे दिया जाता है। __ पूज्यजी महाराज जान गये कि गयवरचन्द को मुँह-पत्ती बाँधने से अरुचि होगई है । अतः इस विषय की अधिक चर्चा करना ठीक नहीं है । आपने कह दिया कि जब तुम्हारे गुरु मोड़ीरामजी मिलेंगे, तब इस बात का निर्णय किया जायगा। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ मुखवस्त्रिका की चर्चा रात्रि बहुत आ गई है, सुबह बिहार करना है, जात्रो शयन करो, मुझे भी निद्रा आती है। ___ गयवर०-पज्यजी महाराज ! मेरी ओर से किसी प्रकार का अविनय व्यवहार हुआ हो तो क्षमा करावें । मैं तो मुँह-पत्ती डबल डरा डाल कर बाँधता हूँ, केवल आपकी आज्ञा से मैंने वादी बन कर तर्क-वितर्क की है। पूज्यजी-मैंने भी तो तेरी बुद्धि और श्रद्धा की परीक्षा के लिये ही पूछा था । अब जाओ, सो जाओ। सुवह विहार कर पूज्यजी क्रमशः जोधपुर पधार गये। २७-संवत् १९७० का चतुर्मास गंगापुर में ... मेवाड़ में गंगापुर एक अच्छा कस्बा है। तेरह-पन्थियों का वहां बहुत जोर-शोर है। स्थानकवासियों के केवल ३५-४० घर हैं, किन्तु वे लोग जब कभी चतुर्मास करवाते हैं, तब ऐसे योग्य साधुओं का ही करवाते हैं, जो तेरह पन्थियों को पराजित करने में समर्थ हों । इस साल गंगापुर वाले पूज्यजी के पास जोधपुर आये तथा चतुर्मास के लिए आग्रह पूर्वक विनती की । इस पर पूज्यजी महाराज ने हमारे चरित्रनायकजी से कहा कि तुम गंगापुर जाकर चतुर्मास करो। गयवरचंदजी ने कहा कि महाराज मैं तो आपकी सेवा में ही रहूँगा; बीकानेर के चतुर्मास के बाद यही मौका मिला है किन्तु पूज्यजी ने जोर देकर कहा कि गंगापुर में चतुर्मास करने वाला और कोई दूसरा साधु मेरे पास नहीं है तेरह-- Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १५६ पन्थियों के साथ वार्तालाप करने में भी तुम कुशल हो, अतः मेरी आज्ञा है कि तुम गंगापुर जाकर चतुर्मास करो । आखिर बड़ों की आज्ञा शिरोधार्य करनी ही पड़ती है । पूज्यजो ने मगनलालजी नामक व्यावच्च करने वाले एक साधु को श्राप केसाथ देकर आपको गंगापुर भेज दिया । वर्षा ऋतु आगई थी,आषाढ़ का महिना था, रास्ते में जल तथा वनस्पति बहुतायत से हो गई थी, यद्यपि गंगापुर के श्रावकों की भक्ति प्रशंसनीय थी; वे कोसों तक सामने आये तथा उन्होंने मार्गादि का सुभीता कर दिया । आप आषाढ़ शुक्ला ८ को गंगापुर पहुँच गये । व्याख्यान में आपने श्री संघ के आग्रह से श्री भगवती सूत्र का पढ़ना प्रारम्भ किया। ठहरने का स्थान बाजार की दुकानों के ऊपर होनेसे एक सार्वजनिक स्थान ही कहा जा सकता था । यही कारण था कि व्याख्यान में जैन एवं जैनेतरों की संख्या खूब अच्छी रहती थी, साथ ही आपका व्याख्यान भी ऐसे ढंग से होता था कि लोग सुनने को ललचा जाते थे। __ इस चतुर्मास में आपकी रुचि व्याकरण पढ़ने की ओर झुकी क्योंकि बिना व्याकरण न तो शब्द-शुद्धि होती है और न टीकादि प्रन्थ ही पढ़े जा सकते हैं। श्रावकों ने इस कार्य के लिये एक साधारण पंडित को रख दिया। आपने शुरू से सारस्वत व्याकरण का अभ्यास प्रारम्भ किया। उधर जोधपुर में जब पूज्यजी को मालूम हुआ कि गयवरचंदजी गंगापुर में पंडित के पास व्याकरण पढ़ते हैं, तो उन्होंने उसी समय गंगापुर के श्रावकों को कहला दिया कि तुम हमारे साधुओंको बिगाड़ते हो,अतः आइन्दासे तुमको साधु नहीं मिलेगा । पूज्यजी महाराज पहिले से ही गयवरचंदजी Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ सं० १९७० गंगापुर में चतुर्मास को जान गये थे, फिर व्याकरण पढ़ाना तो जान बूझकर साधु को खोना है, यही कारण था कि पूज्यजी ने मनाई करवा दी ऐसी हालत में बेचारे श्रावक क्या करें । श्रातिर पंडितजी का श्राना बन्द कर देना पड़ा । किन्तु एक कोठारीजी ने खानगी तौर पर अपनी ओर से तनख्वाह देकर पंडितजी को ऐसे समय भेजने का प्रबन्ध किया कि जिससे किसी को ज्यादा मालूम न हो सके । अतः मुनिजी का थोड़ा बहुत अभ्यास चलता रहा । किन्तु फिर अगुवे श्रावकों को मालूम पड़ने से पंडितजी को बिल्कुल बंद कर देना पड़ा । I जिस मकान में श्राप चतुर्मास कर ठहरे थे, उसी के पीछे एक जैन मंदिर और उपाश्रय था । उपाश्रय में एक यतिजी का करीब १६ वर्ष का चेला रहता था । ४०५ घर मन्दिर मागियों के भी थे । वे लोग मन्दिर की देख-रेख किया करते थे । उपाश्रय में एक जूना ज्ञान भंडार भी था, जिसमें कई प्राचीन सूत्रों की प्रतिएं भी थीं । मुनिश्री को तो इस बात का पहिले से ही शौक था । आपने जाकर उस ज्ञान भंडार को खुलवा कर सूत्र देखे तो उनमें एक श्रीश्राचाररांगसूत्र की नियुक्ति मिली। उसके अंत में लिखा था कि यह वि० सं० १४०८ माघ शुक्लका ७ को पं० भावहर्ष ने लिखी है उसमें स्पष्ट अक्षरों में यह लिखा हुआ था कि शत्रुं जय गिरनार, अष्टापदादि तीथों की यात्रा करने से दर्शन निर्मल होता है । दूसरा उपासकदशांग सूत्र देखा जिसमें श्रानन्द के अलावा में भी स्पष्ट लिखा था कि अन्य तीर्थों द्वारा ग्रहण की हुई जिन - प्रतिमा को वन्दन करना श्रानन्द को नहीं कल्पता है। तं सरे भगवती सूत्र में भी विद्याचारण मुनियों के अधिकार में 'चैत्य' Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १५८ शब्द का अर्थ जिन - प्रतिमा किया था । ज्ञातासूत्र में द्रौपदी के अधिकार में भी जिनघर जिनप्रतिमा और सत्रह प्रकार की पूजा का उल्लेख देखा | आपने कई अच्छे विद्वान् श्रावकों को भी बे सूत्र दिखाये और उनका मन जिन - प्रतिमा की ओर आकृष्ट कर दिया । उस वर्ष गंगापुर में तेरह पन्थियों का भी चतुर्मास था, उनके भो व्याख्यान बंचता था, किन्तु उनका व्याख्यान पहिले समाप्त हो जाता था और वे सब लोग मुनिश्री के बंचते हुए व्याख्यान के पास से होकर जाया करते थे । एक समय का जिक्र है कि एक तेरहपन्थी साधु किसी दूसरे ग्राम में काल कर गया । गंगापुर के तेरहपन्थियों ने बात उठाई कि हमारे जिस साधु ने काल किया है, वह पांचवें देवलोक में गया है। जब वे लोग हमारे मुनि श्री के व्याख्यान के पास से होकर जाते थे, तब वे इस बात को खूब जोर-जोर से किया करते थे जिससे कि सब लोग सुन लेवें उनके एक दो बार कहने पर तो लोगों ने ख्याल ही नहीं किया, किन्तु वे तो इस बात को बार बार कहते ही रहे । एक दिन मुनिश्री ने अपने एक श्रावक से पूछा तेरह-पन्थी लोग हमेशा क्या कहते हैं ? कि यह श्रावक - इनके एक साधु ने काल किया है, जिसके विषय में ये कहते हैं कि वह साधु पाँचवे देवलोक में गया है । तेरह-पन्थी लोग भी उस समय नजदीक से जारहे थे । मुनिश्री ने जोर से कहा कि इस में कौनसी बड़ी बात हुई, हमारे यहाँ तो एक गधा या कुत्ता भी मर कर पांचवें ही क्यों Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ गंगापुर में तेरहपन्थियों से चर्चा आठवें देवलोक में जा सकता है । यह सुन कर तेरह - पन्थियों को शर्मिंदा होना पड़ा। हाजिर-जवाब इसे ही कहते हैं। एक दिन एक तेरह-पन्थी श्रावक ने मुनि श्री से कहलाया हमको कुछ प्रश्न पूछने हैं, अतः यदि आप समय देवें तो हम आवें । मुनिश्री ने उत्तर दिया कि हम आप से एकान्त में बात करना नहीं चाहते क्योंकि हमें आपका विश्वास नहीं है, आपको हम कुछ कहें और बाहर जाकर आप कुछ और ही कहदें । अतः यदि आपको ग्रश्न करने हैं, तो आम जनता में ही कीजिए, जिससे आपके अतिरिक्त अन्य लोगों को भी प्रश्नोत्तर सुनने का लाभ मिले । अतः प्रश्नोत्तर के लिये समय का निर्णय कर लीजिये । बस, प्रश्नोत्तर के लिए आश्विन शुक्ला ७ को दिन के १ बजे का समय निश्चित कर दिया गया । उक्त मिती को स्थानकवासी तथा तेरह पन्थियों के वार्तालाप होने की खबर गाँव भर में फैल गई । ठीक समय पर मुनि श्री तथा आपके उपासक गण एवं बड़े २ जैनेतर लोग नियत स्थान पर उपस्थित होगये; इधर तेरह - पन्थी श्रावक भी करीब २० आदमियों के साथ आ गये । मुनिश्री ने कहा कहिए आपको क्या पूछना है ? श्रावक - असंयति को दान देना किस सूत्र में लिखा है ? मुनि श्री — दान देने वाला श्राप किसको समझते हैं ? साधु - - को अथवा गृहस्थ को ? तेरह – गृहस्थ को | 6 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान मुनिश्री-तीर्थङ्कर वर्षी दान देते हैं उसे आप स्वीकार करते हैं न ? तेरह-हाँ, तीर्थङ्करों ने वर्षी-दान दिया है। मुनिश्री-वह दान किस ने लिया ? तेरह-गृहस्थ लोगों ने लिया था। मुनिश्री-वे गृहस्थ संयति थे या असंयति ? तेरह-असंयति थे। मुनिश्री-आपके कथन से ही आपका प्रश्न हल होगया। जब तीर्थङ्करों ने ही असंयति को दान दिया है तब दूसरों के लिए तो कहना ही क्या है ? तेरह०---इस दान में हम पुण्य हुआ नहीं मानते हैं। ' मुनिश्री-तो क्या आप पाप हुआ मानते हो ? तेरह० हाँ, हम पाप होना मानते हैं। मुनिश्री-तो फिर तीर्थङ्कर देव ने ऐसा पाप का पंथ क्यों चलाया और वह भी एक नहीं अनन्त तीर्थङ्करों ने। तेरह-यह तो उनका आचार है । मुनि-किन्तु श्राचार में भी पुण्य या पाप तो होता ही है। तेरह-हम तो वर्षी-दान में पाप ही समझते हैं। मुनि०- यह आप अपने दिल से ही मानते हो, या किसी शास्त्र में दान में पाप होना कहा है ? तेरह-हाँ, शास्त्र में कहा है। मुनि-यदि तीर्थङ्करों के वर्षी-दान से पाप लगना शास्त्र में कहा हो तो आप उस शास्त्र का पाठ बतलाइये। तेरहः-यदि पुण्य कहा हो तो आप सूत्र का पाठ बतलावें। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ तेरह पन्थियों के साथ चर्चा मुनि०-देखिये, स्थानायांगसूत्र के नौवें स्थाने में अनादि देने से पुण्य कहा है, और सूयघड़ांग सूत्र में दान-निषेध करने वालों को वृत्ति का छेद करने वाला और प्रश्नव्याकरण सूत्र में दान निषेध करने वाले को चौरे कहा है । इनके अलावा और भी सूत्र देखने हों तो लीजिये-ज्ञाता सूत्र में मल्लीनाथ तीर्थङ्कर ने वर्षीदान देकर पहिला पहर में दीक्षा लो, तथा दूसरे पहर में हो उनको केवल ज्ञान होगया ; यदि वर्षी-दान देने में पाप होता तो बताइये वह पाप मल्लीनाथने किस समय भोगव लिया ? आपके मतानुसार वे मोक्ष में साथ तो नहीं लेगये ? दूसरे राजप्रश्नजी सूत्र में प्रदेशी राजा ने अपने राज्य की श्राय के चतुर्थ भाग से दानशाला करवा कर दान दिया, बाद में वहाँ से मर कर वह सुरियाभा देव हुआ, और वहाँ सुख भोगव कर राजकुँवर दृढ़पाइन्ना होगा और फिर वहाँ भी सुख के साथ मोक्ष प्राप्त करेगा। यदि दान देने में पाप होता, तो वह बिना पाप भोगे, मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकेगा ? तेरह-ठीक है । हमारे महाराज को पूछ कर उत्तर देवेंगे। मुनि०-अच्छा, और कुछ पूछना है ? तेरह-हाँ, एक प्रश्न और पूछना है। मुनि श्री.-क्या प्रश्न है ? तेरह-असंयति जीव को बचाने में आप क्या समझते हो? मुनि श्री.-मरते जीव को बचाने में हम पुण्य समझते हैं। तेरह०-मरते जीव को बचाने के बाद में जब वह पाप करता है, तो वह पाप क्या जीव बचाने वाले को नहीं लगता ? ___मुनि श्री०-नहीं, पाप और पुण्य तो परिणामों से लगता है। जीव बचाने वाले का यह परिणाम नहीं रहता कि मैं Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादश ज्ञान १६२ इस मरते जीव को बचाता हूँ । बार में यदि वह पापारम्भ करेगा तो अच्छा है। यदि आपकी मान्यतानुसार मरते जीव को बचाने के बाद उस जीव का किया हुआ पाप बचाने वाले को लग आय तो देखियेः. १-आप अपने साधुओं को दूध एवं घृत देते हो। साधुओं ने जाकर यदि पात्र खुले रख दिए, और उसमें चार मक्खी पड़ कर मर गई, तो क्या वह पाप आप ही को लगेगा ? . २-आपने अपने साधुओं को मिष्ठान्न दिया और उसके खाने पर उनके पेट में कड़े पड़ गये। शौच करने पर वे सब कीड़े मर गये, तो क्या उनका पाप भी आपही को लगेगा ? क्योंकि आपने ही तो उनको दूध, घृत, तथा मिष्ठान्न दिया था ? ३-आप तेरह पन्थी लोग पापारम्भ कर नरक में जाने योग्य कर्म करते हैं, किन्तु आपके साधु आपको उपदेश द्वारा असत् कर्म से छुड़वाकर धर्मकरणी में लगाते हैं। जब श्राप अपनी मन्यतानुसार मर कर देवलोक में जाओगे, और वहां सैकड़ों देवाङ्गनाओं के साथ मैथुनादि रति-क्रीड़ा करोगे तो वह सव पाप भी आपके साधुओं को ही लगेगा जो कि आपको स्वर्ग में भेजने में कारण स्वरूप बने । क्यों समझ में आगया या नहीं ? तेरह०-हम साधुओं को दूध, घृत एवं मिष्ठान्न वेहरते हैं, वह साधु समझ कर ही वेहारते हैं । बाद मक्खी मरे, या कीड़ा पड़े तो उसको हम मान करके भी अच्छा नहीं समझते हैं। __ मुनि श्री०-यदि इसी प्रकार मरते जीव को बचाने वाला बचाये हुए जीव के पापारम्भ को अच्छा नहीं मानता हो तो Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरह पन्थियों के साथ चर्चा इस काम से आपके साधु को घृत मिष्ठान्न देने के अनुसार पुण्य होता है या नहीं ? ...: तेरह साधु तो संयति है, इसलिए पुण्य होता है; किन्तु असंयति जीवों को पोषण करने में पुण्य नहीं पर पाप ही होता है। ___मुनि०-संयति साधु का श्राप पोषण करते हो परन्तु अंत में वे मरकर तो असंगति हो जाते हैं। यदि जीव बचाने के बाद उन जीवों का किया हुआ पाप जीव बचाने वाले को लगता है तो साधु को पोषण करने के पश्चात् साधु असंयत देवता होकर पापारम्भ करता है, उसका पाप साधु को पोषण करने वाले को क्यों नहीं लगता है, आपकी मान्यतानुसार तो अवश्य ही लगना चाहिये ? - तेरह०-हम तो साधु को निर्जीव आहार-जल देते हैं, पर आप तो कौओं को सजीव धान डालते तथा गायों को कच्चा पानी पिलाने में भी पुण्य समझते हैं न ? . ____ मुनि:-आपका दुष्टाशय तो किसी भी मरते जीव को नहीं बचाने का है, फिर सजीव और निर्जीव का बयाना क्यों करते हो। भलो किसी ने कौओं को निर्जीव चना डाला, गाय को छाछ या दूध पिलाया अच्छा इसमें तो आप पुण्य मानोगे या नहीं ? क्योंकि ये सब तो निर्जीव पदार्थ ही हैं।। ___ इस पर तेरहपन्थी निरुत्तर होगये और उन्होंने कह दिया कि हमारे महाराज को पूछकर इसका उत्तर देवेंगे। मुनि-पापके महाराज को हो यहाँ क्यों नहीं बुलागवे हो, ताकि रुबरु स्पष्टतया निर्णय होजाय । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १६४ तेरह-हमारे पूज्यजी महाराज की आज्ञा है कि श्रीलालजी के साधुओं के साथ चर्चा नहीं करना । ___ मुनि०-इसका क्या कारण है ? शायद यह तो नहीं कि उदयपुर में तेरहपन्थी साधु पूज्य श्रीलालजी के सामने शास्त्रार्थ में बुरी तरह परास्त हुए थे। मुनिश्री ने उपस्थित जैन जैनेत्तर जनता के सामने दया और दान के विषय में स्वमत और परमत के शास्त्रों के पुष्कल प्रमाण देकर यह सिद्ध कर बतलाया कि वर्तमान समय में जितने मत, पन्थ एवं धर्म हैं, उन सबमें सिवाय तेरहपन्थियों के मरते जीव को बचाने एवं अनाथ जीव को दान देने में कोई भी पाप नहीं बतलाते हैं । दुःस्त्र और महादुःख है कि तेरहपन्थी लोग भगवान महावीर के अनुयायी कहलाते हुए भी इस प्रकार मिथ्या-प्ररूपना कर इस पवित्र जैन धर्म पर कलंक लगा रहे हैं, और बेचारे अनजान लोग ऐसे निकृष्ट मत को मानकर मिथ्यात्व की वृद्धि कर रहे हैं । किन्तु मैं आज आम तौर से सूचित करता हूँ कि दया दान में पाप बतलाने वालों को 'जैन' मानने की भूल कोई भी न करे, इत्यादि कहकर सभा विसर्जित की गई। तेरहपन्थी लोग भी शर्मिन्दा होकर नीचा सिर करके चले गये; फिर चतुर्मास में तेरहपन्थियों ने चूँ तक भी नहीं किया। इतना ही क्यों, वे तो आपका नाम ही सुनकर घबराते थे । पूर्वोक्त प्रश्नोत्तर से कई पन्थी लोगों को शंका पैदा होगई थी। उन्होंने चतुर्मास के अन्त में तेरहपन्थियों की श्रद्धा को तिलाञ्जलि देकर दया धर्म को अङ्गीकार कर लिया ।। चतुर्मास में अनेकों ग्रामों के लोग लापके दर्शनार्थ आये थे। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ उदयपुर के आवकों की विनती जिनमें उदयपुर के श्रावक अच्छे जानकार थे । वे लोग आपका व्याख्यान सुनकर एवं ज्ञान-ध्यान देखकर मंत्र-मुग्ध होगये । उन्होंने आपसे उदयपुर पधारने की बहुत आग्रहपूर्वक विनती की । इस पर आपने कहा कि आपकी विनती स्वीकार करना हमारे आधीन की बात नहीं है। हमको तो पूज्यजी महाराज का हुक्म केवल गंगापुर में ही चतुर्मास करने का था । : ' .. उदयपुर के श्रावक बोले कि यदि हमः पूज्यजी महाराज के पास जाकर आपके लिए उदयपुर का हुक्म ले आवें तब तो आप पधारोगे न ? मुनिश्री०-पूज्यजी महाराज आज्ञा दे देवेंगे, तो हमको इन्कार नहीं होगा। , उदयपुर के श्रावक गंगापुर से सीधे ही पूज्यजी की सेवा में जोधपुर पहुंचे, और विनती की, कि गयवरचंदजी महाराज मेवाड़ में पधार गये हैं, तो अब उदयपुर पधारने के लिए आज्ञा मिलनी चाहिए। मुनिश्री के उदयपुर पधारने से ज्ञान-ध्यानादि का बहुत लाभ होगा, सब लोगों को बहुत इच्छा है । इस पर दयालु पूज्यत्री महाराज ने हुक्म दे दिया कि गयवरचंदजो को उदयपुर जाने के लिये मेरी आज्ञा है । बस फिर क्या था, उदयपुर वाले श्रावकों ने गंगापुर आकर पूज्यजी महाराज को आज्ञा मुनि श्री को सुना दी और मुनिश्री से उदयपुर के लिए अभिवाचन लेकर षड़ी पाशा और उत्साह के साथ उदयपुर पहुँच कर सबको हर्ष के समाचार सुनाए । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८-उदयपुर में जीवाभिगम सूत्र का व्याख्यान गंगापुर का चतुर्माप्त समाप्त कर श्राप पुरमांडल आदि प्रामो में भ्रमण करते हुए भीलवाड़े पधारे । आपके व्याख्यान की सब जगह धूम मच जाती थी। आपने अपने सारगर्भित व्याख्यानो द्वारा कई ग्रामों के राजपूतों, दरोगों, और भीलों को मांस मदिरा का त्याग करवा दिया था । मेवाड़ में आपका ऐसा डंका बज रहा था मानो स्वयम् पूज्यजी महाराज ही पधारे हों । ग्राम २ के लोग विनती के लिए आ २ कर आग्रह किया करते थे। ___ गंगापुर के लोगों की श्रद्धा और भक्ति इतनी बढ़ कई थी कि उन्होंने गंगापुर से भीलवाड़े तक मुनि श्री की सेवा में रह कर के लाभ प्राप्त किया। इधर उदयपुर वालों को मालूम हुआ तो वे लोग भी भीलवाड़े में आकर हाजिर हुए तथा उदयपुर पधारने के लिए बहुत आग्रह करने लगे। मुनिश्री ने कहा कि आप का तो बड़ा शहर है, बहुत से साधु आते हैं, किन्तु इन बेचारे ग्रामीण जनों को साधुओं का संयोग कब मिलता है; अतः हम इन ग्रामों में विचरते हुए आवेंगे। आपके धर्म-प्रचार की ऐसी भावना से उदयपुर के लोग भी बहुत प्रसन्न हुए । वे लोग दो-तीन व्याख्यान सुन कर उदयपुर चले गये। इस प्रकार क्रमशः प्रामों में उपदेश करते हुए मुनि श्री ने मंगसर शुक्ल ९ को बड़े सन्मान एवं सत्कार पूर्वक उदयपुर में प्रवेश किया। स्वागत के लिए क्या राज्य कर्मचारी और क्या व्यापारी सब ही अग्रसर थे और बहुत दूर २ तक अगवानी के लिए. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ उदयपुर व्या० में जीवाभिगभ सूत्र श्राये थे, उनके दिलों में हर्ष और उत्साह का सागर उमड़ उठा था। आपके लिए सुरपुरि का नोहरा पहिले से ही नियत कर रखा था, अतः आप वहाँ पर ही ठहर गये । गेहरीलाल जी, राजमलजी, रतनलालजी, धनराजजी, सुजानमलजी, रामलानजी आदि श्रावकों को थोकड़ों का बड़ा ही शोक था । कुछ थोकड़े उन्हें पहिले से भी याद थे, अब मुनि श्री से उन्होंने रात्रि में थोकड़ों का अभ्यास करना शुरू किय।। इधर सूत्र सुनने के प्रेमी सूत्र की बातें कर रहे थे; उन्होंने निर्णय किया कि मुनिश्री से श्रीजीवाभिगम सूत्र सुनना चाहिए। क्योंकि ऐसे सूत्रों को साधारण साधु नहीं बाँच सकते हैं । श्रावकों ने व्याख्यान में श्रीजीवाभिगम सूत्र बांचने की प्रार्थना की और मुनिश्री ने इसे स्वीकार कर दूसरे | हो दिन व्याख्यान में श्रीजीव भिगम सूत्र बांचना प्रारंभ कर दिया । दो, तीन दिन व्याख्यान होने पर तो शहर में सर्वत्र प्रशंसा होने लग गई। नगर सेठ नंदलालजी कोठारीजी, बलवंतसिंहजी लालजी, केसरीलालजी, कन्हैयालालजी इत्यादि बड़े २ आदमी ठीक समय पर उपस्थित हो कर वीर वाणी का रस आनन्द के साथ आस्वादन कर अपने आपको अहो भाग्य समझने लगे । 1 व्याख्यान बाँचते करीब २५ दिन हुये थे कि एकदम आपके नेत्रों में तकलीफ हो गई। श्रावकों ने डाक्टरों से बहुत इलाज: करवाया, फिर भी साता वेदनी का उदय होने से १ मास तकं तकलीफ रही। इसी बीमारी को सुनकर आपके गुरुवर मोड़ीरामजी महाराज वगैरह कई साधु व्यावच के लिए श्राये और कुछ दिन ठहरकर जब आपके नेत्रों में आराम हो गया, तो उन्हों s Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १६८ ने विहार कर दिया। किन्तु मुनि श्री के लिए डाक्टरों ने राय दी थी कि आपके नेत्रों में अभी कमजोरी है, इसलिए आप कहीं भी भ्रमण न करें, और जब तक हम राय नहीं दें, तब तक यहीं ठहरें। इसमें कुछ तो डाक्टरों की राय थी, और कुछ श्रावकों की भक्ति तथा व्याख्यान सुनने की अभिलाषा । अतः डाक्टरों की राय मान कर मुनिश्री को उदयपुर ही ठहरना पड़ा । उदयपुर के श्रावकों की श्राप पर इतनी श्रद्धा हो गई थी कि इस बीमारी में सब तरह के अनुकूल साधनों का उपयोग किया गया था। सबकी यही भावना थी कि आपके जल्दी अराम हो जिससे कि व्याख्यान सुनने का सौभाग्य मिले । नेत्रों में पूर्ण पाराम होते ही डाक्टरों की सलाह से माघ शुक्ल ५ को पुनः व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। उदयपुर में परिषदा का तो पहिले से ही ठाठ था, फिर मुनिश्री का मधुर, रोचक और मनोरंजक व्याख्यान के लिये तो कहना ही क्या था ! __ माघ शुक्ला १४ का दिन था, मकान ऊपर से नीचे तक खचाखच भर गया था। बड़े २ आदमी और राज कर्मचारी जैन एवं जैनेत्तर लोग व्याख्यान में उपस्थित थे। उस दिन सूत्र का विषय विजय देवता का था । जन्म के समय विजय देवता विचार कर रहा था कि मुझे पहिले क्या करना चाहिये जो कि हित सुख कल्याण और मोक्ष का कारण हो तथा पीछे क्या करना, इत्यादि इसके उतर में सूत्र का मूल पाठ पाया कि विजय राजधानी में एक सिद्धायतन ( जिन मन्दिर ) है, उसमें तीर्थङ्करों के शरीर प्रमाण और पद्मासन ध्यान अवस्था की १०८ जिन-प्रतिमाएं हैं तथा तीर्थंकरों की दादों है । उनका अर्चन, पूजन यावत् उपा Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ उदयपुर में मूर्तिपूजा की चर्चा सना करना ही पहिले या पीछे हित, सुख, कल्याण और मोक्ष का कारण था यही अनुगामी क्रिया है। . जब यह मूल सूत्र पाठ और उसका अर्थ सुनाया तो परिषदा एकदम चौंक उठी, क्योंकि यह शब्द स्थानकवासी समाज ने पहिले पहल ही सुने थे । अतः कई लोग बोल उठे कि क्या मूर्ति पूजा करना मोक्ष का कारण हो सकता है ? और यदि ऐसा ही है तो फिर तप, संयम की क्या जरूरत है, साधु लोग इतना कष्ट न उठाकर मूर्ति पूजा ही क्यों नहीं किया करते. इत्यादि । व्याख्यान में बहुत गुलशौर होने लगा, जिसको मुनिश्री मूर्तिवत होकर सुनते रहे। किन्तु बड़े २ समझदार आदमी जो आपके पाटे के पास बैठे हुए थे, जैसे सेठजी नँदलालजी कोठारीजी, बलवंतसिंहजी, लालाजी केसरीलालजी वगैरहः ने अभी तक एक शब्द का भी उच्चारण नहीं किया था। जब मतग्रही लोग कुछ शान्त हुए तो कोठारीजी बलवंतसिंहजी ने, (जिनके पूर्वज मूर्तिपूजक थे) कहा कि महागज यह क्या बात है, हमने पूज्यजी महाराज की बहुत सेवा की, पर उन्होंने यह बात न तो कभी व्याख्यान में कही और न कभी वार्तालाप के समय खानगी में ही कहो कि मूर्ति पूजा मोक्ष का कारण है; इतना हो क्यों, यहाँ पर बड़े २ विद्वान मुनियों का पधारना हुआ है, और उन्होंने चतुर्मास कर सूत्र भो बांचे हैं, किन्तु मैंने तो क्या, किसी भी श्रावक ने यह शब्द नहीं सुना; फिर एक आप ही मूर्ति पूजा को मोक्ष का कारण बतलाते हो इसका क्या कारण है ? __ मुनि श्री ने उत्तरदिया कि कोठारीजी साहब, जो यह सूत्र मेरे हाथ में है, वह न तो मैंने लिखा है और न मेरे बाप दादात्रों Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान १७० ने या मेरे गुरूजी ने ही लिखा है। यह सूत्र तो प्राचीन है और पूज्यजी महाराज ने मुझे पढ़ने के लिए दिया है यदि इस सूत्र में जितने अक्षर हैं, उतना ही मैंने कहा हो तब तो मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ । यदि सूत्र के अतिरिक्त एक अक्षर तो क्या, पर एक रत्ती मात्र भी मैंने मेरे मन से न्यूनाधिक कहा हो, तो मैं चतुधि श्री संघ का बड़ा भारी दोषी हूँ तथा संघ इसके लिये मुझे इच्छानुसार दंड देवे | इतना कहकर आपने अपने हाथ का पन्ना कोठारीजी के हाथ में देदिया और कहा कि आप पढ़कर सुनादें । कोठारीजी ने उस पन्ने को रतनलालजी लूनिया को दिया और कहा कि आप इस को पढ़कर सुना दीजिये । लूनिराजी ने उस पन्ने को परषदा के बीच में खड़े होकर नीचे लिखे अनुसार ज्यों का त्यों पढ़कर सुना दिया । "तरणं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहार पज्जत्तोए पज्जत्तीभावं गयस्स इमेएयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिते मणोगए संकष्पे समुज्जित्था - किं मे पुव्वं सेयं, किं मे पच्छा सेयं, किं मे पुवि करीणज्जं, किं मे पच्छा करणीज्जं, किं मे पुव्विं वा पच्छा वा हियाए सुहाए रूखमाए, णीस्सेसयाते, अणुगामियत्ताए, भविस्सतीतिकट्टु एवं संपेहेति ततेणं तस्स विजयस्स देवस्स सामापिरि सोवणगा देवा विजयस्त देवस्स इमं एतारूवं अत्थितं चितियं पत्थियं मणोगयं संकष्पं समुप्ययणं जाणित्ता, जेणामेव से विजएदेवे तेणामेव उवा गच्छंति Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ उदयपुर में मूर्तिपूजा की चर्चा तेषामेव उवागच्छित्ता विजयदेवं करतलपरिग्गहियं सिरसाव मत्थए अंजलिं कटु जरणं विजएणं वद्धावैति जएणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणोए सिद्धायत सि असतं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं संनिक्खितं चिट्टति सभाए सुधम्माए माणवए चेतियरवंभे वाइरामएस गोलवट्ट समुगातेमु बहुमो जिणसकाओ सन्निक्खित्तानो चिट्ठति जाओ णं देवाणु प्पियाणं अन्नेसिं च बहुणं विजयरायहाणिवत्थव्वाणं देवाणं देवीणय अचणिज्जाओ वंदणिज्जात्रो पूयणिज्जाओ सकारीणज्जात्रो सम्माणणिज्जायो कल्लाणंमंगलं देवयं चेतियं पज्जुवासणिज्जाओ एतएणं देवाणुपियाणं पुविपि सेयं पतगणं देवाणुप्पियाणं पच्छावि सेयं एतण्णं देवा० पुब्धि करणिज्जं पच्छा करणिज्ज एतपणं देवा० पुवि वा पच्छा वा जावाणुगामियत्ताते भविस्सती । त्यारे विजय नाम नो देवता उत्पन्न थई ने देवता सम्बन्धी पाँच पर्याप्ती सम्पूर्ण बाँधी लीधी। ज्यारे तेओ ना एवा प्रकारना अध्यवसाय जावत् संकल्प थया के मने पहला शु कल्याण अने पच्छे हुँ कल्याण नो कारण अने पहना शु करवा योग तथा पच्छि शु करवा योग अने पहला तथा पच्छे मने हित-सुख-कल्याण-मोक्ष बने भनुगामित शु थासे ? एवा विचार थयो अटले सामानीक अने. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-‍ १७२ -परिषदा ना देवता विजयदेव ना तथाप्रकारना अध्यवसाय एवं संकल्प ने जाग ने विजय देवता ने समीप श्राया अने त्यां श्रावी ने दोनों हाथ मस्तक पर लगावी जय विजय कही वधाया अने एम बोलवा लाग्य के हे देवाणुप्रिय ! विजय राजधानीमां सिद्धायतान छे अने तेने मध्य १०८ जिन प्रतिमा -- जिनना शरीर श्रमाणे अर्थात् जघन्य सात हाथ अने उत्कृष्ट ५०० धनुष्य प्रमाण पद्मासन स्थित छे तथा सौधर्मी सभामां मरणवक स्तम्भमा - बजरत्नों ना गोल डाबडा मां बहु जिन दांड़ों छे । तेओ हे देवाणु प्रिय - - तमारे अने विजय राजधानी माँ वसवावाला देवि देवत - ज्ञान , बन्दन, पूजन, सन्मान, सत्कार, कल्याण, मंगल और देवताना चैत्यनो पेटे पयुपासना करवा योग छे । हे देव णुप्रिय ! तेज तमारे पहला कल्याण नो कारण छे तेज तमारे पछि कल्याण नो कारण छे, तेज तमारे पहला करवा योग्य कार्य छै तेज तमारे पच्छि करबा योग कार्य छे, तेज तमारे पहला अने पछे हित-सुखकल्याण-मोक्ष ने अनुगामिक नो कारण छे । इस प्रकार मूल सूत्र और उसका टब्बार्थ लुगियाजी ने पढ़ा और परिषदा ने उसे खूब ध्यान लगाकर सुना । बत्ती सूत्रों के अन्दर जीवाभिगमजी सूत्र के मूल पाठ तथा टब्वार्थ में मूर्त्ति पूजा को हित, सुख, कल्याण, मोक्ष और अणुगामिक का कारण बतलाया देख कर समझदारों के दिल में शंका पड़ जाना एक स्वाभाविक बात थी। पर लूणियाजी ने कहा कि यह तो देवताओं की बात है और देवता जित आचार से जिन प्रतिमा पूजता भी होगा । पर इससे क्या हुआ ? मुनि -- ऐसे उत्सूत्र भाषण द्वारा अनर्थ क्यों करते हो ? मूल Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ मूर्तिपूजा के विषय सूत्रार्थ सूत्र एवं टब्बार्थ में स्पष्ट लिखा है कि जिन प्रतिमा की पूजा करना हित, सुख, कल्याण और मोक्ष का कारण है । फिर उसको देवताओं का जीताचार कह कर निरर्थक क्यों बतला रहे हो । यहाँ मुझे अधिक कहने की आवश्यकता तो नहीं थी; पर आप इस प्रकार उत्सूत्र बोल रहे हैं, इसलिए इस पाठ के साथ सम्बन्ध रखने वाला पाठ मुझे बतलाना पड़ता है | लीजिये, इस पन्ने को भी श्राप पढ़ कर सुना दीजिये । तब लूनियाजी ने मुनिश्री के हाथ से पन्ना ले लिया । जनता उत्सुकता के साथ उसके पढ़े जाने की प्रतिक्षा करने लगी । लनिया जी की वाचना अच्छी थी वे पढ़ने लगे ܟ "तते गं से विजए देवे चउहिं सामाणिय साहम्सीहिं जाव णो िय बहूहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहिय सिद्धिसंपरिवुड़े सव्विड्ढीए सब्बजुत्तीए जाव णिग्धोसाइयरवेणं जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवा-गच्छति २त्ता सिद्धायतरणं श्रणुष्पयाहिणीकरे माणे २ पुरथिमिल्लेणं दारेणं श्रणुपविसित्ती अणुपविसिता जेणेव देवच्छंद ए जेणव उद्यागच्छति २ त्ता आलोए जिरणपड़िमाणं परणांमां करेति २ त्ता लोमहत्थगं गण्डति लोमहत्थगं गेरिहत्ता जिणपड़िमाओ लोमहत्थएणं पमज्जति २ ता सुरभिणा गंधोदएवं होति ता दिव्वाए सुरभिगंधकासाइए गाताई लूहेति २ ता सरसेणं गासीसचंदणेणं गाताणि अपलिं Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान पाइ अलिपेत्ता जि पढ़िमाणं श्रहयाई सेताई दिव्वाइं देवदूसजुयलाई यिंसे नियंसेत्ता गोहिं वरेहि य गंधेहि य मन्लेहि य अच्चेति २त्ता पुप्फा रुहणं गंधारुहणं मल्लारुहणं वारुणं चुणारुहणं आभारणारुहणं करेति करेत्ता असत्तोसत्तविउल बट्टवग्धारितमल्लदाम' करेति ताच्छेहिं सहेहिं रययामहिं अच्छरसातं दुलेहिंजिपड़िमाणं पुरतो मंगलए आलिहति सोत्थियसि - विच्छ जाव दप्पण मंगलगे लिहति आलिहित्ता कय ग्गग्ग हितकरतल पभट्ट विष्प मुक्केण दसद्भवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कदुष्कपुंजोवयार कलितं करेति २ ता चंदष्प भवइरवे रुलिय विमल दंड़ कंचरणमणिरयण भतिचितं कालागुरुपवर कुंदुरुक्क तुरुक्क धूत्रगंधुनमाणुविद्धं धूमवहिं विरिणम्यं तं वेरुलियां यं कडुच्छुयं पग्गहितु पयत्तेण ध्वं दाऊण जिरण वराणं श्रट्टसयविसुद्ध गंथजुत्ते हि महावित्तहिं श्रत्थजुत्तेहिं पुणरुतेहिं संथुइ २ ता सतह पयाई प्रसरति सतट्टपयाई ओसरिता वामं जाएं अंचे २ता दाहिजा र निलंसि विइतिक्खुतो मुद्भाणं धरणियलंसि गमे मित्त ईसि पच्चरणपति २ ता कयतुड़ियथंभिया भुयाओ पड़िसाहरति २ ता करयल परिग्गहियं सिरसावतं मत्थए अंजलि कटु एवं वायसी - रामोऽत्युंगं अरिहंताणं भगवंताणं जाव १७४ ว Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ मूगिता के विषय सूत्रार्थ सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपताणं तिकट्ठ बंदति णमंसति, बंदिता मंसिता" त्यार विजयदेव चार हजार सामाजिक यावत् अन्य भी घणा बांणमित्र देवता अने देवियोंना परिवार थी सर्व ऋद्धिज्योति यावात् सबने साथ ज्यां सिद्धायतन छे, त्या आव्या अने सिद्धायतन ना पूर्वना दरवाजा थी प्रवेश किधो ज्या देव छान्दो छ त्या गया त्याँ जाई ने जिन प्रतिमा ने प्रणाम किधो पछे मौर पिच्छी लइने ते थी जिन प्रतिमानो प्रमार्जन किधो, पछे सुरभिगन्ध पाणी थी जिनप्रतिमानों न्हवण किंधो, पच्छी गौसीस चन्दन थी जिन तिमाना, अंग पर लेपन किधो, पच्छी सपेत निर्मल वस्त्र चढ़ाया पच्ही प्रधान गन्ध माल ना थी अर्चन किधो, पुष्प गन्ध माल्ला वर्ण चूर्ण श्राभरण चढ़ाया, पच्छ' पुष्पों नी माला चढ़ाई, पच्छी अच्छा रत्नोंना चावलों थी अष्ठ मंगलिक मांडिया पच्छे पाँच वर्णना फूलों ना ढगला किधा, पच्छी चन्द्रप्रभ वज वैडूय विमल दँड कांचन मणि रत्न भिंतिचित्र काल गुरु प्रधान कोदरु तीसक गन्ध युक्त धूप वट्टी गन्ध संयुक्त वैडूयमय कुडच्छा थी धूप दिधो जिनराज ने पच्छी १०८ विशुद्ध गाथा महाविस्तार अर्थयुक्त अपुन युक्ति से स्तवना किधी, पछी सात आठ पग पच्छा वली ने डावा दीचण उच्चो अने जीमणो ढीचण धरती ऊपर थापी पोताना मस्तक तीन बार धरती पा लगाड़ी ने भुजा ने प्रति साहरी पछी । बे हाथ जोड़ो मस्तक पर लगाढ़ी अम बोलता हुआ नमस्कार थावो अरिहन्तों ने भगवंतों ने यावत् 'सद्ध गति में प्राप्त थइ गया छे तेने श्रा प्रकारे वन्दन नमस्कार किधु, आ प्रकार बन्दन नमस्कार Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान १७६ करीने - इत्यादि इस प्रकार मूळ सूत्र और टब्बार्थ कह कर सुना दिया । इसका भाव सौलह आना वही निकला जो मुनिश्री ने कहा था । यह सुनकर लोगों ने दाँतों तले उँगलियाँ दबाली तथा सोचने लगे कि श्रीजीवाभिगमसूत्र, ३२ सूत्रों में है और जब इसके मूलपाठ एवं टब्बार्थ में मूर्ति पूजा को हित, सुख, कल्याण और मोक्ष का कारण बतलाया है, तो फिर मूर्ति पूजा की निंदा एवं खण्डन करने हैं वे सूत्र भाषण कर एवं मिध्यात्व का प्रचार करके वाप सिर पर क्यों उठाते हैं ? किसी ने कहा कि नहींजी, इन पाठ का मतलब कुछ और ही होगा, इत्यादि स्वेच्छानुसार बातें करने लगे । बाद में मुनिश्री ने पुन व्याख्यान बांचना शुरू किया और उसी सूत्र से अपनि बात की और भी पुष्टी की अब तो विरोध में बोल ही कौन सकता था ? निश्चित समय होने पर व्याख्यान समाप्त हुआ और सभा विसर्जन हुई। शहर में जहाँ देखो वहाँ इस बात की ही चर्चा होने लगी । कई लोग मुनि श्री के पास खानगी तौर से श्राश्रा कर सूत्र के वे पृष्ठ देखने लगे और उन्होंने देखाकि सूत्र की प्रति पुराणी है, मूल पाठ और टब्बा में यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि मूर्ति पूजा हित, सुख, कल्याण और मोक्ष का कारण है, जिसे साधारणतया लिखा, पढ़ा मनुष्य भी पढ कर समझ सकता है । कई लोग यह भी कहने लगे कि मन्दिर तो हजारों वर्षों के पुराणे है, और अपने धर्म को तो लगभग ४०० वर्ष ही हुए हैं, अतः मन्दिर तो पहिले ही थे । कुछ लोगोंने कहा कि सूत्रमें मूर्तिपूजा को हित, सुख, कल्याण Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ उदयपुर में मूर्ति की चर्चा का कारण बतलाया है सो ठीक ही है; क्योंकि जब तक समाज मूर्तिपूजक था, तब तक जैनियों के घरों में हित, सुख, कल्याण ही था; पर जब से मूर्त्ति पूजा छोड़ी है, तब से ही अहित और अ सुख होने लगा है । कई लोगों ने यह भी कहा कि मुर्त्ति पूजा में तो कितनीक हिंसा है पर अपने पूज्यों के चतुर्मास में कितनी हिंसा होती है और वह सब धर्म के नाम पर ही होती है । कई लोगों का यह मत था कि मूर्त्ति पूजा करनेमें भलेही हिंसा होती हो, परन्तु मूर्त्ति का दर्शन करने में तो किसी प्रकार का नुक्सान नहीं है, वहाँ जाने में कुछ न कुछ लाभ ही है, ऐसी हालत में हम दर्शन करने के लिए मन्दिर में क्यों नहीं जावें । कई लोग कहने लगे कि गयवरचंदजी चाहे कितने ही लिखे पढ़े हों, पर इन की श्रद्धा भ्रष्ट होगई है और इसीलिए मूर्त्ति पूजा में हित सुख बता रहे हैं, जो आजपर्यन्त किसी भी साधु ने नहीं बतलाया है । किसी ने कहा कि इसमें गयवरचंदजी क्या करें जब सूत्र के मूल पाठ और टब्बार्थ में ही ऐसा लिखा हुआ है। तथा अन्य किसी साधु के लिए यह तो बतलावें कि जीवाभिगमजी सूत्र किस यहाँ आकर बाँचा था ? जब सूत्र ही नहीं बाँचा गया तब मूर्त्ति पूजा का पाठ कहाँ से सुने, हमतो सूत्रों के वचन शिरोधार्य करते हैं। इस प्रकार जितने मुँह उतनी ही बातें होने लगी । समाज में बहुत से लोग शंकाशील बन गये। जो लोग कट्टा थे उनके १२ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान १७८ 'पेट में तो मानो चूहों ने दौड़ा दौड़ मचादी; वे कई प्रकार के उपाय सोचने लगे । इधर जब सुना कि पूज्यजी महाराज भीलवाड़े पधारे हैं लगभग ६० आदमी जो मूत्तिं - पूजा के सिद्धान्त से प्रतिकूल थे कमर कसकर भीलवाड़े गये । वहाँ पूज्यजी महाराज के दर्शन कर के उन्होंने बीती हुई घटना अथ से इति तक कह सुनाई । पूज्यजी महाराज सब हाल सुनकर समझ गये कि सत्र की बात तो सच्ची है, किन्तु इन श्रावकों को क्या उत्तर देना चाहिये जिससे कि दोनों तर की बातें बनी रहें । पूज्यजी महाराज ने रात्रि के समय खूब सोच समझ कर सुबह श्रावकों को उत्तर दिया कि जब तक मैं गयवरचंदजी से न मिललू तब तक कुछ भी नहीं कह सकता हूँ । इधर उन्होंने एक खानगी श्रावक को कह दिया कि गयवरचंदजी को कह देना कि वे बिहार कर विना विलम्ब किए रतलाम चले जावें । इसमें तात्पर्य यह था कि रतलाम में सेठजी अमरचन्दजी पीतलिया, रूपचन्दजी अग्रवाला, इन्द्रचंदजी कावड़िया आदि अच्छे श्रद्धासम्पन्न और जानकार श्रावक हैं । गयवरचंदजी वहाँ जावेंगे तो वे हेतुयुक्ति द्वारा उनको समझा देवेंगे । पहिले शोभालालजी को भी इसी इरादे से रतलाम भेजा गया था । उदयपुर के श्रावक हताश होकर जैसे आये थे वैसे ही चले गये । पूज्यजी की आज्ञानुसार हमारे चरित्र नायकजी उदयपुर से बिहार कर बड़ी सादड़ी, कानोड़, छोटी सादड़ी आये । वहाँ के लोगों ने आपका व्याख्यान सुना तो चतुर्मास करने की विनती की। वहाँ पर एक चन्दनमलजी नागोरी नामक मूर्तिपूजक Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ श्रावक थे, आपके पास शास्त्रों का अच्छा संग्रह था । मुनि श्री आप से मिले और पूछा कि यदि हमारा चतुर्मास यहाँ हो जावे, तो क्या आप हमको शास्त्र पढ़ने को देवेंगे? उन्होंने कहाकि अशा - तना न करो और पाठ न उड़ाओ तो मैं आप को शास्त्र देता रहूँगा । यह निर्णय होने के बाद आप वहाँ से विहार कर रतलाम पहुँचे शोभालालजी महाराज वहाँ पहिले से ही मौजूद थे । उन्होंने हमारे चरित्र नायकजी से कहा कि यहाँ अमरचन्दजी श्रावक बड़े ही जानकार उत्पतबुद्धि वाले हैं। एक मास से मेरे पास आते हैं, और मूत्ति के विषय में वार्तालाप होता है । परन्तु यह लोग मूर्तिपूजा के बिल्कुल प्रतिकूल है अतः आप भी यहाँ संभल कर रहना । गयवरचंदजी - आपने उनको समझाया है या नहीं ? शोभालालजी – वे तो कट्टर हैं, उनको मैंने सूत्रों के पाठ बतलाये, किन्तु वे उन पाठों का उल्टा अर्थ करके मूर्तिपूजा का खंडन करते हैं। रतलाम पधारना गयवरचंदजी ०- - फिर आपने क्या किया ? शोभालालजी : मैं क्या करूँ, वे मेरी बात तो सुनते ही नहीं हैं और अपनी मिथ्या बात को सच्ची सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं | ज्यादा कहने का यहां मौक़ा नहीं है, क्योंकि सब लोग इनकी ओर बोलने वाले हैं। फिर सत्य कहने में बिना कारण हीहुल्लड़ हो जाता है, इसीलिए मैं आपसे कहता हूँ कि आपकी प्रकृति आग्रह करने की है, पर यहां तो लेना । अब मेरा तो कल बिहार करने का कल एक मास समाप्त हो जायगा, अतः कल्प शान्ति से ही काम इरादा है । कारण, इतना ही है । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान १८० रतलाम-यह हमारे चरित्रनायकजी की वैराग्य भूमि है,आप गृहस्थावस्था में दो मास यहां रहे हुए थे, अतः सब लोग आपसे परिचित थे। शोभालालजी का विहार होने के बाद आपका व्याख्यान शुरू हुआ। व्याख्यान में श्राप श्री उत्तराध्ययन सूत्र बांचते थे, क्योंकि शोभालालजी ने उक्त सूत्रों को अधूरा छोड़ा था। उत्तराध्ययन सूत्र एक उपदेशयुक्त एवं वैराग्यमय सूत्र है; फिर आपके बाँचने की छटा ने तो जनता पर इस प्रकार वैराग्य का प्रभाव डाला कि व्याख्यान सुनते २ ही लोगों का ऐसा भाव हो जाता था कि संसार असार है, इसको त्यागकर आज ही दीक्षा ले लें, पर मोह कर्म के जोर से यह वैराग्य व्याख्यान सुनते तक तक ही रहता था। ___ एक दिन सेठजी अमरचन्दजी पीतलिया;रूपचन्दजी अग्रवाला, इन्द्रचंदजी कावड़िया दिन को १ बजे मुनिश्री के पास आये और एकान्त में कुछ प्रश्नोत्तर किए। पहिले तो और और बातें हुई, बाद में सेठजी ने जिनप्रतिमा का विषय छेड़ा, जो कि श्रापका खास ध्येय था। सेठजी०-सूत्रों में शाश्वती जिन प्रतिमा बतलाई है, आप उसको किसकी प्रतिमा मानते हो ? मुनिजी०-जिन प्रतिमा को जिनकी प्रतिमा ही मानता हूँ। सेठजी०-किस आधार से ? मुनिजी०-सूत्रों में जिन-प्रतिमा लिखी है। सेठजी०- सूत्रों में जिन तीन प्रकार के बतलाये हैं (१) अवधिजिन, ( २ ) मनः-पर्यव जिन, और ( ३ ) केवली जिन, तो वे जिन प्रतिमाएं किस जिन की हैं ? Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतलाम में मूर्ति की चर्चा ____ मुनिजी०-शास्त्रकारों ने जिनप्रतिमा को जिनके शरीर अर्थात् जघन्य सात हाथ और उत्कृष्टी पांच सौ धनुष्य की तथा पद्मासन और ध्यानावस्था की बतलाई हैं, और उन जिनप्रतिमाओं के सामने सम्यग्दृष्टि देवताओं ने नमोत्थुणं दिया है, अतः वे जिन प्रतिमाएं जिनेश्वरदेव की होना सम्भव है। ___ सेठजी ने इस उत्तर के प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं कहा और आशाश्वति मूर्तियों के विषय में प्रश्न छेड़ा कि अशाश्वति मूर्तियों कब से बनी हैं तथा इस विषय में आपकी क्या मान्यता है ? ___ मुनिजी०-इस विषय का मैंने इतना अध्ययन तो नहीं किया है, पर आचरांग सूत्र की नियुक्ति, जो भद्रबाहुवीमी की रची हुई बतलाई जाती है, उसमें शत्रुजय गिरनार अष्टापदादि की यात्रा करने से दर्शन निर्मल होना बतलाया है। अतः भद्रबाहु स्वामी के पूर्व तीर्थों पर मूर्तियां होना संभव हो सकता है। सेठजी०-क्या भद्रबाहु स्वामी के नाम पर कही जाने वाली नियुक्ति को आप चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु कृत एवं प्रामाणिक मानते हो ? ___ मुनिनी-आचार्य भद्रबाहु स्वामी की रची हुई नियुक्ति हो तो मानने में क्या नुकसान है, क्योंकि भद्रबाहु के रचे हुए व्यव. हार सूत्र, वृहत्कल्पसूत्र और दशश्रुत स्कंध सूत्र ३२ सूत्रों के अन्तर्गत माने जाते हैं। सेठजी०-किन्तु इस बात का क्या प्रमाण है कि नियुक्ति भद्रबाहु स्वामी ने ही रची है ? मुनिजी०-व्यवहारादि सूत्र के लिये भी क्या सबूत है कि वे भद्रबाहु स्वामी ने ही रचे हैं ? Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान सेठजी०-वे तो सूत्र हैं और ३२ सूत्रों में माने गये हैं। मुनिः-हां, सेठ साहिब मुझे यह भी पूछना था कि ३२ सूत्र ही क्यों माने जाते हैं। सेठ०-३२ सूत्र भगवान के फरमाये हुए हैं। मुनि०-क्या भगवान् भी एक सूत्र में दूसरे सत्र की भोलामण देते थे, जैसे भगवतीजी सत्र में पनवणा- सूत्रादि कई सूत्रों की भोलामण है। __सेठ०-भोलामण भगवान् ने नहीं, किन्तु पीछे से लिखने वालों ने दी है। मुनि-लिखने वालों ने कितने सूत्र लिखे थे ? सेठ०-नंदी सूत्र में ७३ सूत्रों के नाम हैं। मुनि०-फिर ३२ सूत्र ही क्यों माने जाते हैं ? सेठ०-परम्परा है। मुनि०-कोई परम्परा वाले यदि २० सूत्र ही मानें तो ठीक है या नहीं ? सेठ-नहीं। मुनि०-तो फिर ३२ सूत्र ही मानना क्यों ठीक है ? सेठ०-आपसे कह तो दिया कि परम्परा है। मुनि०-यह परम्परा कहां से चली और किसने चलाई। सेठ-यह परम्परा लौकाशाह से चली। मुनि-लौकाशाह को कितना ज्ञान था कि जो उसकी चलाई परम्परा को ठीक मान ली जाय और पूर्वधरों की परम्परा का अनादर किया जाय ? Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतलाम में शास्त्र चर्चा सेठ० - लौंकाशाह गृहस्थ था; ज्ञान कितना था यह मालूम नहीं है ! १८३ मुनि० - फिर एक गृहस्थ की परम्परा को मान कर शेष शास्त्रों का अनादर करना; क्या यह वीतराग शासन को उन्मूल करना नहीं है ? 2 सेठ ० - ३२ सूत्रों के अतिरिक्त सत्रों में पीछे से प्राचार्यों ने कई पाठ प्रक्षेप कर दिये हैं । है ? मुनिः - इसका क्या सबूत सेठ ० – उनमें मूत्ति-विषयक पाठ हैं । मुनि-मूर्त्तिविषयक पाठ तो ३२ सूत्रों में भी है; फिर इनको क्यों माना जाता है ? यदि कोई व्यक्ति इन ३२ सूत्रो में भी प्रक्षेप कह दे, तो आप कैसे निर्णय कर सकेंगे ? सेठजी ने इसका जवाब न देकर कह दिया कि कुछ भी हो अपने पूर्वजों ने ३२ सूत्र ही माने हैं; अतः अपने को भी ३२ सूत्रों की ही श्रद्धा रखनी चाहिये । मुनि - अपने पूर्वज तो भगवान् महावीर देव या श्रोसवाल बनाने वाले आचार्य रत्नप्रभ सूरि हैं, उनको ही मानना चाहिये । यदि शास्त्रों की रचना करने वालों को मानो तो द्वादशाङ्ग के निर्माण कर्ता गणधर सौधर्माचार्य हैं और उपाङ्गादि की रचना करने वाले स्थविर पूर्वधराचार्य हैं, जो देवऋ द्विगणि क्षमाश्रमण के पूर्व हुए थे। अगर आगम पुस्तकारूढ़ करने वालों को अपने पूर्वज कहा जाय तो प्राचार्य देवऋद्धिगणि क्षमाश्रमणजी को समझना चाहिये । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १८४ : मुनिजी ! क्या ३२ सूत्रों में श्रावकों का प्रतिक्रमण कहीं आप ने देखा या सुना है ? सेठ०-क्या ३२ सूत्रों में श्रावक का प्रतिक्रमण नहीं है ? . मुनि०-लो, ये आवश्यक सूत्र मेरे पास हाजिर हैं, देखलो। सेठ०-यह तो मैंने आज ही सुना है। मुनि०-ऐसी तो अनेकों बातें ३२ सूत्रों में नहीं हैं, जैसे श्रावक की व्रत ग्रहण विधि, व्रतों को आलोचना और सामायिक पौषध लेना, पारना की विधि; इतना ही क्यों, साधुओं के धोवण छाणने का गरणा तक भी ३२ सूत्रों में नहीं है। .. सेठ-महाराज आपने तो खूब ही शोध खोज की है। मुनि०-सेठजी ! मैंने घर भी तो इसी शोध के लिए छोड़ा है, अब आप ३२ सूत्रों के लिए भी थोड़ा सा सुन लीजिए; श्री ठाणायांगजी सूत्र के चतुर्थ स्थान में ४ पन्नतिए बतलाई हैं:(१) चन्द्र पन्नति, (२) सूर्य पन्नति, (३) जम्बुद्वीप पन्नति, (४) द्वीप सागर पन्नति यह मूल पाठ है, जिसमें से पहिली ३ को मानना और एक को नहीं मानना; क्या इससे ३२ सूत्र भी पूर्णतया माना कहा जा सकता है ? सेठ०-इसका क्या कारण होगा ? मुनि--कल्पित मत की कल्पना । सेठ-क्या आप इस मत को कल्पित मत मानते हो ? मुनि:-आपही समझलो। सेठ-मैं तो कल्पित नहीं कह सकता हूँ। मुनि०-आप नहीं कहें, यह तो बात ही दूसरी है, किन्तु इस मत में सूत्रों के लिए क्या व्यवस्था है, यह तो आप समझ गये Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ रतलाम में शास्त्रों की चर्चा न ? जिन-जिनेन्द्रदेवों के शासन में श्रावकों का इतना उच्चासन होने पर भी, उनके लिए व्रत, प्रत्याख्यान, सामायिक पौषध, प्रतिक्रमण और आलोचना तक का विधान नहीं है, फिर भी ३२ सूत्र मानने का आग्रह करना यह कल्पित मत के अतिरिक्त और क्या हो सकता है । तीन छेद सूत्र और नियुक्तियों के करने वाले एक ही पुरुष हैं, फिर तीन छेद सूत्रों का मानना और नियुक्तियों को नहीं मानना, यह जैन-शास्त्रों के प्रति अन्याय नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ? 1 सेठ०—किन्तु जैसा ३२ सूत्रों पर विश्वास है, वैसा नियुक्तियों पर नहीं है । मुनि० - किसका ? सेठ - अपनी समुदाय का । ० मुनि - यह तो बात ही दूसरी है कि एक समुदाय किसी वस्तु का माने या नहीं माने। सूत्रों में दया और दान के स्पष्ठ पाठ हैं, जिसको एक समुदाय ( तेरहपन्थी ) वाले नहीं मानते हैं, इससे क्या हुआ । मैं समुदाय की बात नहीं करता हूँ, किन्तु जैन - शास्त्रों की बात करता हूँ । केवल एक अपनी मान्यता के कारण सूत्रों का अनादर करना और फिर काम नहीं चलने पर तस्करवृत्ति से उन शास्त्रों को मानना, यह कहाँ की समझदारी है। सेठजी, इस पर भी तुर्रा यह है कि नियुक्ति नहीं मानने वाले लोग सम्राट चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्नों का अर्थ जो भद्रबाहु स्वामी ने कहा है, तथा जिसकी ३२ सूत्रों में गन्ध तक नहीं है, उसको तो मानते हैं और जो खास कर आगम हैं, उनको नहीं मानते । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १८६ सेठ-नियुक्ति में बहुत से स्थानों पर मूर्ति पूजा का विस्तार से वर्णन आता है, इसलिये नियुक्ति नहीं मानी जाती । मुनि०-अच्छा भद्रबाहु के हजारों वर्ष पूर्व सती द्रौपदी हुई है, और ज्ञात सूत्र में सती द्रौपदी के अधिकार में जिनघर और जिन प्रतिमा का उल्लेख पाता है । अत: नियुक्ति ही क्यों, ३२ सूत्रों के मूल पाठ में द्रोपदी के अधिकार में मन्दिर-मूर्ति का उल्लेख है। वह भी तो मन्दिर अशाश्वता ही था । क्यों सेठ साहब इस बात को तो आप मानते हो न ? ___सेठ०-द्रोपदी के अधिकार में जिनघर तथा जिनप्रतिमा का पाठ तो आता है, किन्तु उस समय द्रोपदी मिथ्यात्व अवस्था में थी, क्योंकि उसने पूव भव में नियाण किया था। ____ मुनि०-द्रोपदी को चाहे उस समय समकित हो अथवा मिथ्यात्व, मैं इस बात का निर्णय करना नहीं चाहता, किन्तु द्रोपदी के समय जैन-मन्दिर और मूर्ति तो विद्यमान थे न ? ____ सेठ०–हाँ, द्रोपदी के समय में जिन-मन्दिर और जिनप्रतिमा थी, तो इससे क्या हुआ । यों तो जम्बुद्वीप पन्नति सूत्र में ऋषभदेव और उनके गणधर एवं साधुओं के दाह स्थान पर भी इन्द्र महाराज ने रत्नों के चैत्य बनवाये थे, इससे मन्दिर, मूर्ति, धार्मिक पक्ष में थोड़े ही समझे जाते हैं । ____ मुनि०-यहाँ धर्म-अधर्म का प्रश्न नहीं परन्तु प्रश्न मूर्ति का है। जब आप स्वयं ऋषभदेव के समय से चैत्य होना स्वीकार करते हो, तो आप का प्रश्न आप के कथन से ही हल हो जाता है, कि जैन-मन्दिरों की प्रारम्भता भगवान् ऋषभदेव के समय से ही हो गई थी। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ रतलाम में मूर्ति की चर्चा सेठ०-यह तो जैसे आज-कल राजा महाराजाओं के मृत्युस्थान पर चबूतरा बनवाते हैं या वीरता से मरने वालों के पीछे छत्री बनवा उनकी मूर्ति या पादुका रखी जाती है, इसी प्रकार तीर्थंकरों के भक्तों ने भी तीर्थंकरों के पीछे थड़ा इत्यादि बनवा दिया होगा । बाद में संभव है इसमें विशेषता हो गई हो और थड़ों के स्थान पर मन्दिर बनवा कर मूर्तियाँ स्थापित करदी गई हों; पर उसमें धर्म पुण्य तो नहीं समझा जाता है न ? ____मुनि०-थड़े, छत्रियों में पादुका या मूर्ति क्यों स्थापित की जाती है? सेठ०-उनकी यादगार के लिए । मुनि०-बस, तीर्थंकरों के मन्दिर व मूर्तियों की स्थापना भी उनकी स्मृति के लिए ही की जाती है, ऐसा ही मानलें तो इसमें क्या नुकसान है ? सेठ.-ऐसा मानने में तो कुछ भी नुकसान नहीं है, किन्तु आज तो उन मूर्तियों को पूजा में असंख्य जीवोंकी हिंसा कीजाती है जो कि शास्त्रों के बिलकुल प्रतिकूल है। ___मुनि-सेठजी! मैं स्थानकवासी हूँ, मूर्तिपूजा के विषय में पुष्टि नहीं करता हूँ; किन्तु वादी प्रतिवादी के रूप में यदि आप कहें तो मैं मूर्तिपूजा का पक्ष करके आपके साथ प्रश्नोत्तर कर सकता हूँ। ___ सेठ-मैं इसलिए ही आपके पास आया हूँ और मैंने सुना भी है कि आपकी श्रद्धा मूर्तिपूजा की ओर मुक गई है। मुनि०-खैर, आप बड़े श्रावक हैं, पूज्यजी महाराज भी भाषका मान रखते हैं । इस विषय में तो मैं आपको कुछ भी नहीं Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १८८ कह सकता हूँ। आपने तो बड़े २ साधुओं की सेवा कर ज्ञान उपलब्ध किया है, किन्तु मैं तो अभी नव दीक्षित हूँ, तथा आपके हाथों में ही मैंने दीक्षा ली है । नागौर में आपने जो शब्द पूज्य जी महाराज को कहे थे, वे भी मैं भूल नहीं गया हूँ, और श्रापको भी याद ही होंगे। ___ सेठ.-महाराज आपने थोड़े दिनों में ही बहुत ज्ञानाभ्यास किया है, आपकी तर्क शक्ति देखकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता होती है; किन्तु एक अर्ज है कि आप मेरे सामने कुछ भी कहें, पर श्रद्धा तो अपने समुदाय की है , वही मजबूत रखें। वीतराग का धर्म दया में है, हिंसा में तो किसी हालत में भी धर्म हो ही नहीं सकता । तथा भगवान की आज्ञा-प्रमाणे यदि कोई संयम पालने वाला है, तो वह एक स्थानकवासी समुदाय ही है। आप खुद समझदार हैं, मैं आपको अधिक क्या कहूँ । बस, आज तो समय अधिक हो गया है, आपके भी पूँजन पडिलेहन का समय आ गया। हो सका तो कल फिर सेवा में हाजिर होऊँगा । ___ सेठजी वहाँ से उठकर बाहर गये और रूपचन्दजी, इन्द्रमल. जी आदि को कहने लगे कि यदि गयवरचंदजी समुदाय में रह गये, तो पूज्य पदवी के अधिकारी होंगे। क्योंकि आप इस पद के लिए सर्वथा योग्य हैं। किन्तु मुझे इनकी श्रद्धा देखकर शंका होती है कि ये समुदाय में रहेंगे या मूर्तिपूजक बन जावेंगे। रूपचंद०-नहीं सेठ साहब, आप इनको पक्के मजबूत कर दिरावें । . सेठजी०-आप सुन ही रहे थे कि इनके सामने मेरी युक्ति कुछ काम नहीं देती थी। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ रतलाम में मूर्ति की चर्चा रूप-यह कितना ही लिखा पढ़ा हो, पर आपके सामने कुछ भी नहीं कर सकेगा। आप हमेशा दोपहर को पधारा करें। पूज्यजी महाराज ने इनको आपके पास इसीलिए ही तो भेजा है। शोभालालजी के एक मास यहाँ रहने से उनकी श्रद्धा मजबूत हो गई, तो गयवरचन्दजी की तो क्या बात ? सेठजी-नहीं, शोभालालजी और हैं, और गयवरचन्दजी कुछ और ही हैं । शोभालालजी को तो समझा दिया, पर इनको समझाने में बड़ी भारी कठिनाई होगी। रूप०-खैर, बन सके वहाँ तक तो प्रयत्न करना ही चाहिए;. गदि फिर भी नहीं सममें तो कमों की गति है।। सेठजी-हाँ. इसके अतिरिक्त तो हम लोग कर ही क्या सकते हैं, भगवान महावीर भी गौशाला जमाली को नहीं समझा सके थे। खैर चलो। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६-मूर्ति के विषय में दूसरे दिन का संवाद ___ दूसरे दिन कई लोग जो इस विषय में विशेष अनुरक्त थे तथा जिन्हें संवाद सुनना था, बारह बजे ही आगये । ठीक १ बजे सेठजी वगैरह श्रा पहुँचे । पहिले तो इधर-उधर की बातें हुई; बाद में इस प्रकार वार्तालाप होने लगाः सेठजी-महाराज, जैन धर्म एक शुद्ध,पवित्र और दयामय धर्म था, जिसको मूर्तिपूजकों ने कैसा आडम्बरी और हिंसामय धर्म बना दिया; यदि स्थानकवासी समाज पैदा नहीं होता, तो न जाने वे लोग क्या कर डालते। __मुनिजी-सेठजी, यों तो मैं आपकी बात को स्वीकार कर लेता हूँ; किन्तु यदि मुझे वादी होकर बोलने की स्वतंत्रता मिल जाय तो मैं खूब हो खुले दिल से बोल सकूँगा। सेठजी-जी महाराज ! आप निडर होकर वादो रूप से ही बोलें। मुनिजो-आपने कहा कि 'यदि स्थानकवासी समाज पैदा नहीं होता तो क्या स्थानकवासी समाज नया पैदा हुआ है ? यदि नया पैदा हुआ है, तो इसकी उत्पत्ति कब, क्यों, और किससे हुई, यह मैं जानना चाहता हूँ, बाद में आपके प्रश्न का समुचित उत्तर दूंगा। ____ सेठजी-आप तो जबान निकली नहीं, कि उसको पकड़ना ही चाहते हैं। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ स्थानकवासी स० किसने चलाया - मुनिजी-किन्तु ऐसा किये बिना ठीक जानकरी भी तो नहीं होती है। सेठजी-जब यतिगण शिथिल हो गये और मन्दिरों की धूमधाम अधिक बढ़ गई, तब उस हालत में लौंकाजी ने इस समुदाय को जन्म दिया था। इसका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी, तथा स्थान गुजरात-अहमदाबाद है । मुनिजी-लौंकाशाह कौन था ? सेठजी-एक गृहस्थ था। मुनिजी-तब क्या हमारी समुदाय गृहस्थ की चलाई हुई है? सेठजी-हाँ, इसमें क्या हुआ ? मुनिजी- खैर मैं इसको ही पूछना चाहता था । अब आपने आडम्बर और धूम धाम की बात कही, सेठजी यह तो जमाने की हवा है, और मेरे ख्याल से शायद ही कोई समुदाय इससे बचा हो । जब मैं गृहस्थावस्था मैं आपके यहाँ ठेहरा था और पूज्यजी महाराज का चतुर्मास था, तब हजारों लोग दर्शनार्थ आते थे । क्या वह आडम्बर नहीं था,और चतुर्मासही क्यों, पर जब पर्युषणों के अन्दर भट्टियें चलती थीं, तब कौन देखता था नीलन-फूलन और कौन देखता था लकड़ियों के अन्दर त्रस जीव । विधर्मी रसोइये जब दो-दो मन चावलों का अग्नि-तुल्य गर्म पानी जमीन पर डालते थे, तब उसमें त्रस और थावर जीवों का कितना स्वाह आडम्बर की ओट में होता था। आज भी पूज्यों के चतुर्मास में दश-दश और बीस-बीस हज़ार का खर्चा केवल आडम्बर के लिए ही होता है। क्या पूर्व समय में ऐसा हुआ आपने सुना Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श १९२ है ? किन्तु दुनिया में कहावत है कि 'पगें बलती नहीं, पर डूंगर बलती दीखती है' । सेठजी - हाँ, ऐसे तो आडम्बर सब में ही है, किन्तु मन्दिर मार्गी एक पालकी में भगवान की मूर्ति रखकर ग्राम में क्यों फिराया करते हैं, इसमें क्या धर्म है ? मुनिजी – वे लोग बड़े ही परोपकारी हैं; क्योंकि ऐसा करने से जो लोग मन्दिर में जाकर भगवान के दर्शन नहीं करते हैं, उन जिनेश्वर के माने वालों को सालमें एक दो बार तो दर्शन हो जाय, शायद उनका ऐसा ही इरादा हो । सेठजी - ठीक है, आपने खूब युक्ति बतलाई, परन्तु जब मूर्ति को वंदन - नमस्कार करते हैं, तो उनको बनाने वाले सिलावट को वंदनपूजन क्यों नहीं करते ? - ज्ञान मैना जैसे साधु को वन्दन नमपैदा करने वाले उसके मातानमस्कार क्यों नहीं करते मुनिजी -- जब आप जाट, स्कार करते हो, तो उस साधु को पिता, भील, मैणा आदि को वन्दन इसका क्या कारण है ? सेठजी - जब मूत्ति सिलावट के यहाँ रहती है, तब तो उसको कोई नहीं पूजते, किन्तु मन्दिर में लाकर रखते ही सब लोग पूजने लग जाते हैं, इसका क्या कारण है ? मुनिजी -- जब दीक्षा लेने वाला घर में रहता है तब तो कोई भी उसको वन्दन नहीं करते हैं; किन्तु साधु का वेष पहिनते ही सब लोग उसको वन्दन करने लग जाते हैं । तो क्या दीक्षा कोई श्राकाश में घूमती थी कि उसके शरीर में आकर घुस गई और वह क्षण भर में ही वन्दनीय हो गया । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ मूर्तिपूजा की चर्चा सेठजी-उनको तो करेमिभंने सामायिक उच्चराई जाती है। मुनिजो-मूर्ति की भी मंत्रों द्वारा प्रतिष्टा की जाती है। सेठजी-जब मूर्ति सिलावट के यहाँ पड़ी रहती है, तब उसकी कोई आशातना नहीं टालते हैं, किन्तु मन्दिर में आने पर आशातना क्यों टाली जाती है ? . मुनिजी-एक पाट गृहस्थों के यहाँ रहता है, तो उसकी कोई आशातना नहीं टालता है, वही पाट मुनि मांग के लाता है, तब उसकी आशातना क्यों टाली जाती है ? . इस प्रकार वादी प्रतिवादि के रूप में सेठजी ने बहुत से प्रश्न किए और मुनिजा ने उसके बराबर उत्तर भी दिए । सुननेवालों को इस विषय का इस प्रकार से अपूर्व बोध भी होगया । अन्त में सेठजी ने कहा कि महाराज आपके तो रोम रोम में मूर्ति घुस गई मालूम होती है ? मुनिजी-किसकी मूर्ति ? सेठजी-जिन मूर्ति । मुनिजी-सेठजी ! फिर तो चाहिये ही क्या, यदि मूर्ति के साथ जिन नाम लगा हुआ है, और वह मेरे रोम २ में घुस गया है, तो मैं मेरा अहो भाग्य मानूंगा।। सेठजी-ठीक है महाराज । इस प्रकार कह कर सेठजी चल दिए और फिर दूसरे सब लोग भी डठकर चले गये। दूसरे दिन व्याख्यान समाप्त होने के बाद मुनिश्री गोचरी को गये । रास्ते में सेठजी का मकान आया और सेठजी ने भी आमन्त्रणकिया मुनिश्री सेठजी के मकान पर गये, तो आप एक १३ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १९४ गली में क्या देखते हैं कि एक ताक में श्री केसरियानाथजी को एक बड़ी तस्वीर थी उस पर केसर के छींटे लगे हुए थे, तथा पास में एक धूपदाना पड़ा था। एक ओर दीपक भी रखा हुआ था मुनिश्री ने यह सब देखकर सेठजी को बुलाया और पूछने लगे सेठजी ! यह क्याहै ? सेठजी-महाराज हम तो गृहस्थ हैं। ... मुनिजी-पर आप तो हमारी समुदाय के धोरी श्रावक हैं, आपके यहाँ यह क्यों ? सेठजी-महाराज मैंने तो शत्रुजय गिरनार तीर्थोकी दो बार और केसरियाजी की पांच बार यात्रा की है; वहाँ से यह तस्वीर लाया हूँ। इसकी हमेशा धूप दीप और केसर से पूजा की जाती है। ____ मुनिजी-आप गृहस्थ हो, आपके लिए तीर्थ यात्रा और द्रव्य पूजा वगैरहः सब को स्वतन्त्रता है, कसर तो हम लोगों ने ही किया है, जो हमको मूर्ति का नाम लेने तक का भी अधिकार नहीं है। - सेठजी-महाराज हम गृहस्थ तो सब तरह से स्वतंत्र है, किन्तु आपने तो पांच महाव्रत धारण किए हैं। मुनिजी-जिन मूर्ति का नाम लेने से या दर्शन करने से क्या हमारे पांच महाव्रतों में से एक-दो महाव्रत भंग हो जाते है? सेठजी-महाव्रतों का भंग तो नहीं होता है, किन्तु श्रद्धा में दोष लगता है। . मुनिजी-आपकी और हमारी श्रद्धा एक है या भिन्न २ ? ... सेठजी-श्रद्धा तो एक ही है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिपूजा की चर्चा मुनिजी-तो फिर मूत्तिमानने से यदि आपकी श्रद्धा का भंग नहीं होता है, तो हमारी श्रद्धा का भंग किस तरह से हो जावेगा। ___सेठजी-खैर अभी तो आप पधारिये रसोई घर में और वहाँ जाकर गोचरी ले लीजिये। ____ मुनिजी-रसोईघर में जाकर गोचरी वेहरी और सेठजी अपना पीछा छुड़ा कर दुकान पर चले गये। ___ सेठजी को आशा थी कि मैं मेरी उत्पात बुद्धि और युक्तिवाद से जैसे शोभालालजी को दबा दिया, उसी भाँति गयवरचंदजी को भी दबा दूंगा; किन्तु अब यह सब बात सेठजी के मन की मन में ही रह गई, तद्यपि सेठजी हतोत्साही नहीं हुए। उस दिन तो सेठजी दोपहर में नहीं आये, क्योंकि आप कई प्रकार की युक्तियाँ तैयार करने में व्यस्त थे। __ दूसरे दिन फिर एक बजे के करीब सेठजी और आपके साथी मुनि श्री के पास आये और इधर उधर की बातों के पश्चात सेठजी बोले महाराज ! आपने आचाराँग सूत्र पढ़ा है। मुनिजी-हाँ सम्पूर्ण पढ़ा है। सेठजी-पहिले अध्यायन के पहिले उदेश में पाठ आया है कि धर्म के लिए छः काया की हिंसा करे, तो बोध बीज का नाश होता है। मुनिजी-नहीं सेठजी; बहाँ तो छः कारण बतलाये हैं। देखिये सूत्र यह सूत्र मेरे पास मौजूद हैं। तत्थ खलु भगवया परिन्नाए पवेदिता इमस्स चेव Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १९६ जीवियस्स परिवंदण मारणेणं पूयणाए जातिमरणं मोयणाए दुक्ख पडिघायऊ - से सयमेव वाउ सत्थं समारभति अन्नेहिं वा वाउ सत्थं समारभविइ अन्ने वा वाउ सत्थ समारभते समणु जाणति । तं से अहियाए, तं से बोदिए ( आचारांग सूत्र प्रथम श्रतस्कन्ध, प्रथमोदेशा ) 1 भावार्थ - 'तिवारे निश्चय भगवान ने प्रज्ञा प्रवेदी यानि भगवान ने निश्चय करके कहा है कि इस प्रकार अपने जीतव अर्थात आजीविका चलाने के लिये, परिवंदन के लिये, मान के लिये, अपनी पूजा के लिये, जन्म मरण मिटाने के लिये, आया हुआ दुख को मिटाने के लिये स्वयं वायु काय के जीवों की हिंसा करे दूसरों से वायुकाय की हिंसा करावे, दूसरे कोई वायुकाय की हिंसा करे उसको अच्छा समझे, उसको भवान्तर में हित और अवधि का कारण होगा । यहाँ तो छ कारणों में से किसी भी कारण द्वारा छ काया से किसी भी जीव की हिंसा करने से हिंसा करने वाले को अहित और अबोध ( मिथ्यात्व ) का कारण बतलाया है, तथा पूर्वोक्त कारण आप लोगों के लिए हमेशा ही बनते हैं और उसमें ६ काया के जीवों से कई काया के जीवों की हिंसा भी होती है । फिर आपकी मान्यता से तो आपके हित और अबोध का कारण हमेशा के लिए बना हुआ ही रहता है । सेठजी - नहीं महाराज! पांच कारण वालों को हित होता है और जन्म मरण मिटाने के कारण हिंसा करने वालों को अबोध का कारण होता है । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ आचासंग सूत्र की चर्चा मुनिजी-यह आपकी मनो-कल्पना है या सूत्र में ऐसा पाठ है सेठजी-सूत्र में तो सचमुच पाठ है, किन्तु गुरु गम्यता से ऐसा अर्थ होता है। ____ मुनिजी-किसी भी गुरु ने सत्र का ऐसा अर्थ तो नहीं किया है, क्योंकि पूर्व धरों ने इन सत्रों को जो टीका और नियुक्ति की है उसमें तो यह बात नहीं है जो आप कहते हो, फिर हम किस आधार से आपका कहना मान लें । पूर्वधरों ने तो यह पाठ स्पष्ट मिथ्या-दृष्टियों की अपेक्षा बतलाकर लिखा है, यदि आप सम्यग दृष्टि के लिए यह पाठ समझोगे तो आपकी मान्यतानुसार किसो के भी समकित नहीं रहेग!; कारण, क्या गृहस्थ और क्या साधु, धर्म के हित जो भी हलन चलनादि क्रिया करते हैं उसमें वायुकायादि जीवों की थोड़ी बहुत हिंसा तो अवश्य होती है। ___सेठजी-यह आपने क्या कहा, धर्म के हित कोन हिंसा करता है। ___ मुनिजी–साधु आहार विहार पूंजन प्रतिलेखन, गुरु वन्दना वगैरहः किया करते हैं यह सब धर्म के लिए ही करते हैं और इसमें अवश्य ही असख्य जीवों की हिंसा होती है । इसी प्रकार श्रावक भी सामायिक पौषध गुरुवन्दन, व्याख्यान श्रवणादि जितने भी धम के कार्य करते हैं, उन सब में हिंसा अवश्य होती है। सेठजी-पूर्वोक्त कार्यों में वायु काया श्रादि की हिंसा होती है पर वे हिंसा करने के कामी नहीं हैं, इसलिये उसे हिंसा नहीं कही जाती है। मुनिजी-सव क्या मूर्तिपूजा करनेवाले हिंसाकरने के कमी हैं ? Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान १९८ सेठजी-वे तो जान बूझ कर जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं, जिसमें कि हिंसा होती है। मुनिजी-तब गुरूवन्दन करने में जो वायु काया के जीवों की हिंसा होती है; यह क्या जान बूझ कर नहीं है ? सेठजी-यह तो विधि है। मुनिजी-मूर्ति-पूजा करना भी तो विधि ही है ? सेठजी-मूर्तिपूजा में यदि जल पुष्पादि नहीं चढ़ाये जावे तभी भाव पूजा हो सकती है। मुनिजी-गुरु महाराज को भी उठ बैठ के वन्दन नहीं करके भाव से ही वन्दन करे तो भो हो सकती है, तब उठ बैठ कर वन्दन द्वारा असंख्य जीवों की हिंसा क्यों की जाती है ? - सेठजी-ऐसा करने से शासन में विनय धर्म की नास्ति होती है। मुनिजी-बस, पूजा न करने से भी श्रावक का विनय-गुण नाश हो जाता है। सेठजो-महाराज श्राप थोड़े से ही समय में इतनी तर्क वितर्क कहां से पढ़ आये। मुनिजी-यह श्राप जैसे श्रावकों का ही उपकार है कि जो इस प्रकार तर्क करके हमारे में समाधान करने की शक्ति पैदा करते हैं । मैं मूर्ति पूजक नहीं पर स्थानकवासी हुँ किन्तु प्रतिवादी रूप से ही मैं मेरी युक्ति को काम में लेता हूँ। सेठजी-महाराज प्रश्न व्याकरण सूत्र में भी ऐसा पाठ आता है कि मन्दिर मर्ति के लिए पृथ्वी कायादि जीवों की हिंसा करने वाला मन्द बुद्धि और दक्षिण की नरक में जाने वाला कहा है । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ प्रश्न व्याकरण सूत्र की चर्चा मुनिजी - सेठ साहब ! क्या आपने प्रश्न व्याकरणसूत्र पढ़ा व सुना है ? सेठजी - हाँ महाराज ! मैंने कई वार प्रश्नव्याकरणसूत्र सुना है । मुनिनी - उसमें क्या लिखा है ? सेठजी - घर-हाट, चूल्हा-चक्की और मन्दिर-मूर्ति आदि कार्यों में पृथ्व्यादि जीवों को हिंसा करने वाला मंदबुद्धि और दक्षिण की नरक में जाना लिखा है । मुनिजी - हिंसा करने वाले कौन और किस परिणामों से वे हिंसा करते हैं, इसका भी आपने निर्णय किया है ? सेठजी - हिंसा करने वाले कोई भी क्यों न हों, पर हिंसा करने वाले तो मंद बुद्धि और नरक गामी ही होते हैं । मुनिजी - क्यों सेठ साहब, आप भी तो घर-हाट, चूल्हाaat करवाते हो और भी पापारंभ के कार्य करते हो फिर आप तो मंदबुद्धि और नरकगामी नहीं बन गये होगे ? सेठजी - इसमें क्या, हम पापारंभ करते हैं तो मंदबुद्धि और नरकगामी होते ही हैं ! मुनिजी - जब आप जैसे सामायिक पौसह और नवकार मंत्र का जाप करने वाले भी मंदबुद्धि बन दक्षिण की नरक में पधारने की तैयारी करली है, तब बेचारे क्रूर कर्म के करनेवाले साई कहाँ जायेंगे ? कारण नरक में घोर दुःख का स्थान जो दक्षिण का नरक है, वह तो आप लोग जाकर दबा लोगे, फिर उन विचारे कसाइयों के लिये भी थोड़ी बहुत जगह होनी चाहिये । सेठ साहब, बड़ा ही अफसोस है कि आपने इक मूर्ति के न Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २०० मानने से ही दक्षिण की नरक तक जाने का इरादा कर लिया है । यदि मैं आनन्द कामदेव के लिए प्रश्न पूछू तो आप तो उनके लिये भी मंदबुद्धि और दक्षिण की नरक बता देंगे, क्योंकि वह लोग भी गृहस्थ थे और पृथ्व्यादि जीवों की हिंसा करते थे। सेठजो, श्राप अनुभवी हैं, इस बात को जरा सोचें, समझे, और विचार करें। सेठजी-तो फिर सूत्र में ऐसा पाठ क्यों आया है ? मुनिजी-सेठजी, यह पाठ सम्यग्दृष्टि एवं श्रावक के लिये नहीं है, पर मिथ्यादृष्टि, क्रूरकर्मी, निध्वंश परिणामी, अनार्य लोगों के लिये है। यदि आपकों देखना हो तो सूत्र मेरे पास मौजूद है, आप देख लो पढ़ लो और सुन लो ? ' सेठजी-कृपा कर आप ही पढ़ कर सुनादें। मुनिजी उठ कर पुट्ठा से प्रश्न व्याकरण सूत्र के पन्ने लाये और प्रथम अश्रवद्धार का पाठ निकाल सेठजी को सुनाने लगेः___"एबमाइ सते सतपरिवज्जाए उवहणंति दढ मूढ़ दारुणमति कोहा माणो माया लोभा हास अरति रति सोय वेदत्थी जीय कमत्था धम्महेऊ सवस अवासा अठाए अपठाए य तस्सपाणा थावरे य हिसं ति मंद बुद्धि सवीसा हणंति अवसा हणंति सवसा अवसा दुहाओ हणंति अठाएहणंति प्रणाहाण्य हणंति अठा अठा दुहारोहणंति हास्सराहणंति वेराहणति रतोहणंति हास्सा वेरा रतीहणंति कुद्धाहणंति लुद्धाहणंति मुद्धाहणंति कुद्धा लुद्धा मुद्धाइणंति प्रस्थाहणंति धम्माहणंति कामाहणंति अत्था धर्म Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ प्रश्न व्याकरण सूत्र की चर्चा कामाहणंति कयरेजेते सोयरिया मच्छवधा साउणयावाही कूरकम्मा इमेया बहबा मिलेरकु जाति किंते सका जबणा संबरा बबरा, काय मुरुडो अमुभ लेस्सा परिणामा ___ उपरोक्त पाठ सुना कर टब्वार्थ भी साथ ही साथ सुना दिया। इससे सेठजी की आँखें खुल गई, और उन्हें मालूम हुआ कि इस प्रकार के अनार्य एवं अशुभ परिणाम वालों के स्थान में मैंने श्रावक साधु की हिंसा समझ कर बड़ी भारी भूल की है । __मुनिजी क्यों सेठजी, क्या जो जैन श्रावक मन्दिर-मूर्ति बनाते हैं तथा घर-हाट करवाते हैं, वे आपकी राय में अब भी मंदबुद्धि वाले होंगे और दक्षिण की नरक में जावेंगे ? सेठजी- नहीं महाराज ! मेरी गलती हुई, जो मैंने सुनीसुनाई बात पर विश्वास कर लिया था। अब मैं इसके लिये पश्चाताप करता हूँ। यह प्रश्नव्याकरणसूत्र का पाठ सम्यग्दृष्टि के लिये नहीं, परन्तु क्रूरकर्मी, निध्वंश, परिणामी अशुभ लेश्या वाले अनार्य एवं मिथ्याह ष्टियों के लिये ही है। __मुनिजी-सेठ साहब मुझे फिर कहना पड़ता है कि आप तथा बहुत से अनभिज्ञ श्रावक ही क्यों, पर कई साधु भी कह उठते हैं कि प्रश्नव्याकरण सूत्र में हिंसा करने वाले को मंदबुद्धि और दक्षिण की नरक में जाना बतलाया है । परन्तु सूत्र के पूरे संबंध को पढ़ने पर यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि एकेन्द्रिय से लगा कर पंचेन्द्रिय जीवों तक की निर्दय एवं निध्वंशपरिणामों से हिंसा करने वाले अनार्य लोग ही दक्षिण की नर्क में जाते हैं, वग्ना सम्यग्दृष्टि वो एकेन्द्री जीवों को तो क्या पर मैथुन और संग्राम में पांचेन्द्रि Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आदर्श-ज्ञान जीवों की हिन्सा करने वाला भी मोक्ष या स्वर्ग में जाता है, क्यों कि सम्यग्दृष्टि जीवों के परिणाम बुरे नहीं रहते हैं। और उनका भोग भी कर्म निर्जरा का ही कारण है राजा उदाई और वर्णनाग नतुआ का उदाहरण सत्रों में विद्यमान है। उन्होंने संग्राम में पंचे. न्द्रिय जीवों की हिंसा की फिर भी अपने सम्यग्दर्शन के कारण मोक्ष और स्वर्ग में गये हैं। सेठजी-महाराज आपका कहनातो न्याय संगतहै,आपका युक्ति बहुत ही प्रबल है । मैं इस बात को मानता भी हूँ, किन्तु आप मूर्तिपूजा की हिंसा को हिंसा नहीं मान कर धर्म मानते हो, यह बात मुझे खटकती है। यदि ऐसा ही हो जाय, तो आपने में तथा मत्ति-पूजकों में फरक ही क्या रह जाता है। ___ मुनिज -सेठजा ! फर्क केवल परिणाम का है। जो कार्य मन्दिर मार्गी करते हैं, रूपान्तर में वही काम स्थानकवासी करते हैं। विशेषता इतनी ही है कि अपने को मतपक्ष के कारण मायाकपट आदि प्रपंच अधिक करने पड़ते हैं। थोड़े ही समय पूर्व, स्थानकवासी समाज मूर्ति पूजकों के जिन कार्यों को आगे रखकर निन्दा करता था, वही कार्य आज वह स्वयं कर रहा है । उदा हरणार्थ लीजिये। (१) मर्तिपूजक लोग व्याख्यान में, प्रभावना देते थे, तब अपने लोग उनकी निन्दा करते थे। आज हमारे व्याख्यानों में भी खुल्लमखुल्ला एकेन्द्रिय जीवों की प्रभावना होती है ( नलयेर )। (२) मूर्ति पूजक लोग संघ लेकर यात्रार्थ जाते थे, हम उसकी भी निन्दा करते थे । आज हमारे दर्शनार्थ हजारों लोग आते जाते हैं और रेल्वे को पैसा देकर अधिक हिंसा के पात्र बनते हैं। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ सामान क्रिया विष्ठय यही कारण है कि आज बड़े २ पूज्यों के चतुर्मास के क्षेत्र भी कम रह गये हैं, क्या यह हिंसा एवं आडम्बर नहीं है ? (३) मूर्तिपूजक जब मन्दिर बनाते थे, तब भी हम हिंसा २ कह कर निंदा करते थे। आज स्थानकवासी समाज में भी ग्राम ग्राम में अति सुन्दर स्थानक बन गये है । एक दो समुदाय भले ही उनमें नहीं ठहर सकता है, परन्तु यह कार्य समुदाय में होता तो जरूर है (४) धर्म या समाज के हित कोई उदार गृहस्थ द्रव्य खर्च करता, तो हम कहते थे कि यदि पैसे से ही धर्म होता हो, तो चक्रवर्ती राजा नरक में क्यों जाते । किन्तु आज तो द्रव्य-व्यय करने वालों को अच्छे २ विशेषणों से विभूषित किया जाता है । (५) मूर्त्ति पूजकों के साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में हम निंदा करते थे कि वे लोग शिथलाचारी हैं, परन्तु आज हमारी भी वही दशा हो रही है । इस प्रकार यदि देखा जाय तो सिवाय अपनी पकड़ी हुई बात के अतिरिक्त कोई भी विशेष फरक नजर नहीं आता है । क्या मूर्त्ति पूजक, क्या स्थानकवासी, क्या बड़े २ पूज्य और क्या छोटे साधारण साधु, सब परनिंदा तथा स्वपूजा की धुन घुसी हुई है । यही कारण है कि आज स्थानकवासी साधु फोटू उतरवा कर आप अपने को पुजाने की भरसक कोशिश करते हैं । स्थानकवासी तेरह साधुत्रों का ग्रूफ तो बारह आने में बाजारों में बिकते हैं । क्यों सेठजी, और भी पूछना कुछ वाकी है क्या ? सेठजी समझ गये कि महाराज का कहना सोलह आना सत्य है, और आपके लाग-लपेट भी नहीं है, जो कुछ कहते हैं, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २०४ निडरतापूर्वक साफ और स्पष्ट कहते हैं। किन्तु ऐसा विद्वान् साधु, समुदाय से चला न जावे, इसके लिए पूरा प्रयत्न करना आवश्यक है। __सेठजी--महाराज, इस वर्ष पूज्यजी महाराज का चतुर्मास हम रतलाम में करवाना चाहते हैं। यदि आप पूज्यजी महाराज की सेवा में रतलाम ही बिराजें, तो आपको बहुत लाभ होग। मुनिजी-यदि आप पूज्यजी महाराज से इस बात की कोशिश करेंगे, तो मैं आपका बड़ा अहसान मानूंगा, क्योंकि मैंने कई बार पूज्यजी महाराज की सेवा में रहने की कोशिश की, पर जब कभी ऐसा मौका मिलता है तो एन वक्त पर पूज्यनी महाराज हमको अन्य स्थान पर भेज देते हैं। इस वर्ष तो मेरा पक्का इरादा पूज्यजी महाराज के समीप ही चतुर्मास करने का है। यदि रतलाम चतुर्मास हो जावे, तब तो सोना और सुगन्ध वाली कहावत चरितार्थ हो जाय, क्योंकि यहां आप जैसे विद्वानों का संयोग भी है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०-जावरा में पूज्यजी महाराज का मिलाप, हमारे चरित्र नायकजी रतलाम से विहार कर आस-पास के प्रामों में भ्रमण करते हुए जावरे आये । यहाँ किस्तूरचंदजी महाराज ६ ठाण से विराजते थे। आप जाकर किस्तूरचंदजी के शामिल ठहर गये । किस्तूरचंदजी महाराज दीक्षा में पूज्यजी से बढ़े थे, किन्तु एक शिष्य के कारण आपकी पूज्यजी से ना इत्तफाकी थी। इधर पूज्यजी महाराज मन्दसौर होकर जावरा पधार रहे थे। जब मालूम हुआ कि पूज्यजी महाराज आज जावरा पधारने वाले हैं तो बहुत से लोग दूर २ तक सामने गये । हमारे चरित्रनायकजी भी साधुओं को साथ लेकर पूज्यजी महाराज के सामने गये। जब पूज्यजी महाराज के दर्शन हुए; तो उनका मिजाज बेहद गर्म था । जब हमारे चरित्रनायकजी ने वन्दन कर पैरों के हाथ लगाया, तो पूज्यजी की ओर से सत्कार करना तो दूर रहा, उन्होंने श्रापके हाथों को गुस्से के मारे दूर कर दिया। इस पर आप समझ गये कि पूज्यजी महाराज की सख्त नाराजी है । रास्ते में चलते हुए, आपने अपने गुरु-भाई ताराचंदजी को पूछा कि क्या मामला है । उन्होंने कहा कि रतलाम के समाचार आने से पूज्यजी महाराज आप पर विशेष नाराज हैं । आपने रतलाम में क्या किया था ? खैर, यहाँ तो सँभल कर रहना । गयवरचंदजी ने कहा कि ठीक है। पूज्यजी महाराज अपने १७ साधुओं के साथ जय धनि के नाद Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २०६ से जावरा में प्रवेश किया । किस्तूरचंदजी महाराज जहाँ ठहरे हुए थे, वह मकान थोड़ा सा ही दूर था । फिर भी रास्ते में एक गृहस्थ का मकान को जाँच कर पूज्यजी अपने साधुओं के साथ अलग मकान में ठहर गये । आपका इरादा किस्तूरचंदजी और गयवरचंदजी के साथ उतरने का नहीं था में जब पूज्यजी महाराज अलग स्थान पर ठहर गये, तव गयवरचंदजी ने अपने साधुओं को साथ लेकर वहाँ जाकर पूज्यजी को वन्दन किया; किन्तु पूज्यजी ने ध्यान ही नहीं दिया । बाद गयवरचंदजी ने प्रार्थना की कि क्या मैं अपना भँडोपकरण यहाँ ले आऊँ, इस पर भी पूज्यजी ने कुछ नहीं कहा । तब हमारे चरित्र - नायकजी ने सोचा कि पूज्यजी महाराज इस समय गुस्से में हैं, अतः आप ओर कुछ अर्ज करना ठीक न समझ कर अपने निवास स्थान किस्तूरचंदजी के पास आ गये और गोचरी, पानी लाकर दिन भर वहीं ठहर गये । करीब चार बजे पूज्यजी महाराज थंडिल भूमिका पधारे । वापिस लौटते हुए आप किस्तूरचंदजी के मकान पर आये, परन्तु वहाँ किसी भी साधु ने उठकर आपका सत्कार नहीं किया, कारण आपने भी किसी साधु का आदर नहीं किया था । पूज्यजी थोड़ी देर किस्तूरचंदजी से बात चीत करके अपने मकान पर चले गये । वहाँ जाकर आपने सोचा कि यह सब काम गयवरचंदजी का ही होगा कि जो मैं वहाँ गया और कोई साधु उठकर खड़ा भी न हुआ । शायद वह समुदाय में बखेड़ा तो न डालदे, क्योंकि दो साधु तो गयवरचंदजी के पास हैं और ६ किस्तूरचंदजी के पास हैं और दोनों के साथ प्रतिकूल मामला चल रहा है; अतएव कम Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ जावरा का संवाद से कम गयवरचंदजी को तो मैं मेरे पास बुलालूं, फिर किस्तूरचंद जी से तो कुछ होने वाला भी नहीं है । किन्तु दिन थोड़ा ही शेष रह गया था; फिर भी एक श्रावक को गयवरचंदजी के पास भेजा और कहा कि जाओ, तुम गयवरचंदजी को बुला लायो । आदमी ने आकर गयवरचंदजी से कहा कि आपको पूज्यजी ने बुलाया है। इधर किस्तूरचंदजी की यह इच्छा नहीं थी कि गयवरचंदजी पज्य जी के पास जावें । गयवरचंदजी ने कहा कि मुझे जाने दो, ताकि कुछ मालूम तो हो, कि पज्यजी गहाराज क्या कहते हैं । किस्तूरचंदजी ने कहा कि कहीं ऐसा न हो, कि तुम जाकर पूज्यजी से मिल जाश्रो और हम यहाँ अलग ही बैठे रहे। गयवरचंदजी ने कहा कि आप खातिरी रखें, पहले आपका निपटारा होगा, बाद में हमारा । ___ गयवरचंदजी अकेले ही पूज्यजी महाराज के पास गये और नम्रता पूर्वक विनय कर के बोले कि मेरे लिए क्या आज्ञा है, मैं हाजिर हूँ। पूज्यजी खुश होकर बोले कि क्या मँडोपकार नहीं लाये हो ? गयवर-मैंने दो बार विनय की थी, पर आपकी शुभ दृष्टि नहीं देखी, इसलिए में भँडोपकरण नहीं लाया । पूज्यजी-जाओ, तुम तीनों साधू भँडोपकरण लेकर आ जाओ। गयवर-किस्तूरचंदजी महाराज के लिए क्या आज्ञा है ? पूज्यजी-उसको तो अभी वहीं रहने दो। गयवर-यदि मैं भी कल ही आऊँ तो क्या नुकसान है, क्योंकि अब दिन शेष थोड़ा सा ही रहा है। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान २०८ पूज्यजी-समझ गए कि इनके दिल में किस्तूरचंदजी की बात है; उनका निपटारा हुए बिना यह यहाँ नहीं आवेगा, अतएव आपने आज्ञा दे दी कि अच्छा किस्तूरचंदजी महाराज भी श्रा जावें। ___इस पर गयवरचंदजी वापिस जाकर सब साधुओं को ले आये । प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में वन्दन करने में गड़बड़ रहा, किसी ने किसी को वन्दना की और किसी ने नहीं भी की। जब प्रतिक्रमण हो चुका और सब साधु एकत्र हुए, तब पूज्यजी महाराज ने गयवरचंदजी से कहा। गयवरचंदजी, तुम्हारे व्याख्यान और ज्ञान ध्यान के लिए तो हमें बड़ा भारी गौरव है और यत्र-तत्र तुम्हारी तारीफ ही सुनी जाती है; किन्तु उदयपुर और रतलाम में तुम्हारी जो चर्चा सुनी है, उससेतो बड़ा ही दुःख होता है; जब तुम्हारे जैसे विद्वान् ही इस प्रकार कर रहे हैं, तो फिर साधारण साधुओं के लिए तो कहना हो क्या है ? गयवर-पज्यजी महाराज, उदयपुर में मैंने अग्रसर श्रावकों के आग्रह से व्याख्यान में श्री जीवाभिगम सूत्र बांचना शुरू किया; और उसमें विजय देवता के अधिकार में जो कुछ सूत्र में आया; वह मैने सुना दिया; इसमें मेरा क्या अपराध हुआ ? पूज्यजी-भाई अपराध तो कुछ नहीं, पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव को देखना चाहिए; क्योंकि व्याख्यानदाता में यह गुण सर्व प्रथम होवा आवश्यक है। हमने भी कई बार जीवाभिगम सूत्र बाँचा था, किन्तु तुम्हारी भाँति श्रावकों में हा-हु नहीं मचवाई थी। गयवर-आपने उस पाठ का क्या अर्थ किया ? Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ जवारा का सम्वाद पूज्यजी - तुम्हारी भांति सार्वजनिक व्याख्यान में मूर्ति-पूजा का फल हित, सुख, कल्याण और मोक्ष नहीं कहा था । गयवर - तो फिर आपने उस पाठ का क्या अर्थ किया, मुझे भी बतलाओ जिससे कि भविष्य में ध्यान रहे । पूज्यजी - इस पाठ को व्याख्यान के आदि अन्त में इस तरह कहा जावे कि किसी को स्पष्टतया मालूम ही नहीं पड़ सके श्रौर सूत्र की श्राशातना भी नहीं लगे । गयवर - ऐसा करने से बोतरागकी चोरी तो नहीं लगती है ? पूज्यजी — इसमें चोरी किस बात की ? गयवर- क्यों पूज्यजी महाराज; यदि तेरह पत्थी लोग भी इस प्रकार दया और दान के पाठ को गुप चुप कर दें, तो उनको भी वीतराग की चोरी तो नहीं लगती होगी न ? पूज्यजी - दयादान के लिये तो भगवान् ने स्थान स्थान पर सूत्रों में फरमाया है । गयवर - मूर्त्ति पूजा के लिये जो सूत्रों में स्थान स्थान पर पाठ आते है, वे किसने फरमाया है ? पूज्यजी :- फरमाया तो भगवान् ने ही है, पर दयादान में तो पुन्य बढ़ते हैं, और पूजा में हिंसा होने से पाप बढ़ता है । गयवर - पूण्यजी महाराज ! पुण्य और पाप बढ़ने का कारण क्या है ? पूज्यजी - कारण तो परिणामों का ही है । गयवर - जब पूजा में परमेश्वर की भक्ति का शुभ परिणाम रहता है, तो क्या वहाँ श्राप पाप बढ़ाना मानते हो ? १४ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २१० पूज्यजी-पूजा में जो जीव हिंसा होती है, उसका तो पाप लगता ही है न ? गयवर-दयादान में कौनसा पाप नहीं होता है, वहाँ भी तो एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा होती है, तब वहाँ पाप क्यों नहीं माना जाता है ? पूज्यजी-गयवर, तूंतो मूर्ख है, कभी दया दान में भी हिंसा होती है ? गयवर-क्यों, दान देने में हाथ ऊंचा नीचा करना पड़ता है इसी भांति जीव बचाने में भी काय का योग प्रवृताना पड़ता है, जिसमें असंख्य बायुकाय के जीव मरते हैं । पज्यजी-भले ही कारणमें जीव हिंसा होती हो, पर कार्य तो शुद्ध है न ? ___गयवर-जिस प्रकार दया दान में कारण में जीव हिंसा होने पर भी कार्य शुद्ध माना जाता है, इसी प्रकार जिन-पूजा के लिये भी कारण कार्य क्यों नहीं समझ लिया जाता है। पूज्यजी-दयादान की बात अलग है और मूर्तिपूजा की बात अलग है। गयवर-हाँ दयादान तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यात्वी कोई भी जीव कर सकते हैं और उससे निज्जरा और पुण्य बन्ध होता है पर जिन पूजा तो भाव सहित केवल सम्यग्दृष्टि ही करते हैं, और उनके केवल कर्म की निर्जरा ही होती है, अतः दयादान की बजाय प्रभु पूजा का महत्व विशेष है। पज्यजी-लो अभी तो इस चर्चा को छोड़ो, मैं फिर कभा सूत्रों के पाठ से तुमकों समझाऊँगा । उदयपुर की चर्चा के लिये Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जावरा का सम्वाद २११ इस समय तो तुमको माफी दी जाती है, परन्तु आइन्दा से तुम ऐसी प्ररूपना करोगे, तो शक्तउपालम्मा दिया जायगा, इस बात को ध्यान में रखना। दूसरा तुमने रतलाम में सेठ साहब से वाद-विवाद क्यों कया था ? गयवर-पूज्यजी महाराज, इसमें मैं किंचित् मात्र भी दोषी नहीं हूं, क्योंकि मैंने पहिले ही वादी-प्रतिवादी रूप बनकर सेठजी से ज्ञान-प्राप्ति के लिये ही वार्तालाप किया था। ___ज्यजी-किन्तु ऐसी चर्चा क्यों करनी चाहिए, जिसमें लोगों को अश्रद्धा उत्पन्न हो तथा उल्टी निन्दा करें। गयवर-ठीक, आईन्दा से ध्यान रखूगा। बाद किस्तूरचंदजी महाराज के मामले को निबटाकर आपस में सब साधुओं ने यथा क्रमः वन्दन-व्यवहार कर लिया। पूज्यनी महाराज इतने चतुर मुत्सद्दी थे,कि दाव को नीचा पड़ता देख कर कार्य को ज्यों त्यों निवटा लेते थे। ___इधर तो साधुओं का मामला निपटा कर पज्यजी नीचे पधारे थे, और उधर उदयपुर के कई श्रावक आगये। वे गयवर चन्दजी महाराज को पूज्यजी से उपालंभ दिलाने के लिये ही आये थे, अतएव उन्होंने आते ही पूछा कि क्या गयवरचन्दजी महाराज यहाँ ही हैं ? गयवरचन्दजी ने कहा हाँ, मैं यहाँ ही हूँ, श्राप की राह ही देख रहा था। ___उदयपुर के श्रावक---गयवरचन्दजी महाराज आप जरा नीचे पज्यजी महाराज के पास पधारें। गयवर- हाँ अभी आता हूँ। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदश ज्ञान २१२ के एक तरफ तो गयवरचन्दजी पूज्यजी महाराज के पास आये और दूसरी तरफ जावरा के मन्दिरमार्गी लोग पूज्यजी महाराज दर्शनार्थ आये थे, क्योंकि पूज्यजी महाराज सब से प्रेम रखते थे और इसलिये ही सब लोग आपके दर्शनार्थ आया करते थे अतः वे मन्दिर मार्गी श्रावक भी पूज्यजी की वन्दना कर बैठ गये । ܘ उदयपुर के श्रावकों ने प्रश्न किया कि पूज्यजी महाराज, यदि कोई श्रावक मूर्ति को नमस्कार करे तो उसका क्या फल होता है ? पूज्यजी महाराज विचार में पड़ गये। क्योंकिइधर तो उदयपुर वाले मूर्ति के कट्टर विरोधी थे, उधर जावरा के मूर्ति पूजक श्रावक प्रेम से आये हुए बैठे हैं, तथा एक तरफ गयवरचन्दजी. भी बैठे हैं। उन्होंने सोचा कि मुख्यतो उदयपुर वाले श्रावकों का तथा गयवरचन्दजी का ही यह झमेला है, किन्तु इसको बढ़ने न देना ही अच्छा है । अतएव पूज्यजी ने उत्तर दिया कि पहले तो यह बतलाओ कि श्रावक किसको कहते हैं । श्रावक - अनंतानुबंधी चौक अप्रत्याखानीचौक मिध्यात्व मोहनी, मिश्रमोहनी, समकित मोहनी, एवं ११ प्रकृतियों का क्षय या वक्षयोपसम होने पर श्रावक कहलाता है । " पूज्यजी – अनंन्तानुबन्धी चौक किसे कहते हैं ? - उ० श्रावक - जिसकी गति नर्क की स्थिति जावतू जीव की घात करे, तो समकित की ऐसा क्रोध, मान, माया, लोभ को अन्तानुबन्धी चौक कहते हैं । पूज्यजा०० - अंतानुबन्धी क्रोध कितने परमाणु से बनता है ? उ० श्रावक - चौस्पर्शी अनंत परमाणुओं से बनता है । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ उदयपुरके श्रावकों का प्रश्न पूज्यजी-चौस्पर्शी अनंत प्रदेशी परमाणुओं के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श के कितने रस भाग होते हैं ? इस प्रकार पूज्य जी ने उदयपुर के श्रावकों के प्रश्न को ऐसे समुद्र में डाल दिया कि कई दिनों तक जिसका अन्त नहीं पा सके; जैसे किसो आदमी से बाप के बाप का पता पूछा जावे, तो वर्षों तक अन्त ही नहीं आये। ____ उदयपुर के श्रावक समझ गये कि इस समय हमारे प्रश्न का उत्तर देने की पूज्यजी महाराज की इच्छा नहीं है । ऐसी हालत में श्रावकों ने कहा पूज्यजी महाराज आज आप बिहार कर पधारे हैं, अभी शयन करें, तथा प्रश्न कल पूछ लेगें । इतना कह वन्दन कर उदयपुर तथा जावरा के श्रावक चले गये। साधुओं ने भी अपनी क्रिया कर शयन किया और सब पर निद्रा देवो ने अपना प्रभाव जमा दिया; किंतु एक पूज्यजी महाराज को निद्रा नहीं आई। वे इस विचार में थे, कि अभी तो मैंने उदयपुर के श्रावकों को युक्ति से रोक दिया है। परंतु प्रातःकाल वे गयवरचन्दजी के साथ विवाद किये विना नहीं रहेंगे । अतः कोई ऐसीयुक्ति सोची जाय कि प्रातःकाल जल्दी ही गयवरचन्दजी को यहां से विहार करवा दिया जाय इस विचार से पूज्यजी महाराज रात्रि को १२ बजे गयबरचन्दजी के पास आये और जगा कर कहने लगे गयवरचन्दजी अबकी चतुर्मास कहां करना है ? गयवर०-आपकी सेवा में। पूज्यजो-यदि तुमारे जैसे लिखे-पढ़े और व्याख्यान देने वाले साधु ही मेरे साथ चतुर्मास करेंगे, तो फिर अनपढ़ साधुओं का निर्वाह कौन करेगा? Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २१४ गयवर-पूज्यजी महाराज यह चतुर्मास तो मेरा आपके पास ही होना लाभकारी है । सेठजी अमरचन्दजी साहब ने भी बहुत कहा है कि यह चतुर्मास श्राप पूज्यजी महाराज के पास हो करावें । दूसरा, मुझे कई बातों का निर्णय भी तो करना है, अतः कृपा कर यह चतुर्मास तो आपके पास ही करावें । पूज्यजी -- किंतु छोटी सादड़ी वालों ने तुम्हारे लिए बहुत श्राग्रह से विनती की है; और नाथूलालजी अरणोदिया जैसे कराड़पति श्रावक तुम्हारे जाने पर अपने पक्के पक्षकार बन जावेंगे ? तुम जाओगे तो स्वधर्मियों के लिए कुछ द्रव्य भी खर्च करवा सकोगे । ऋषभदासजी और बिरधीचन्दजी कहते थे कि यदि आप किसी साधु का चतुर्मास नहीं कराओगे तो प्यारचंदजी सादड़ी चतुर्मास कर देवेंगे। अतः हम लोग तो इस वर्ष गययरचन्दजी महाराज का चतुर्मास ही करवाना चाहते हैं, इत्यादि । ऐसी हालत में सादड़ी अपने साधुओं का चतुर्मास अवश्य होना चाहिये, नहीं तो क्षेत्र हाथ मे चला जावेगा। गयवर०-आप किसी अन्य साधु को भेज देवें, मेरा तो निश्चय इस वर्ष आपकी सेवा में हो चतुर्मास करने का है। __ पूज्यजी-तुम ही बताओ कि मेरे पास ऐसा दूसरा कौन व्याख्यानिक साधु है, जि को मैं सादड़ी भेज सकू। अतः मेरी आज्ञा है कि इस वर्ष तुमको सादड़ी जाकर चतुर्मास करना ही पड़ेगा। ___ गयवरचन्दजी ने सोचा कि जब पूज्यजी महाराज का इस प्रकार आग्रह है तो उसका अनादर भी कैसे किया जा सकता है, और करने से हो भी क्या सकता है, जहां पूज्यजी महाराज की Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ पूज्यजी महाराज की चतुराई इच्छा हो, वहां जाना ही पड़ता है । अतः हमारे चरित्र नायक जी ने पूज्यजी की श्राज्ञा शिरोधार्य कर ली । पूज्यजी - सादड़ी प्यारचंदजी जाने वाले हैं, अतएव तुमको वहां जल्दी ही पहुँचना चाहिए। तुम प्रातः ही बिहार कर वहां चले जाओ । गयवर० - अभी तो बहुत दिन हैं, थोड़े दिन मैं आपकी सेवा में रहना चाहता हूँ। अभी मुझे आपके द्वारा कई बातों की जानकारी भी करनी है । पूज्यजी — उन बातों को फिर कभी मिलें तब खुलासा कर लेना, तथा तुम मेरी आज्ञा का पालन करते हो, वह मेरी सेवा हो है । मेरा कहना है कि तुम कल ही विहार कर देना । 1 गयवर० - उदयपुर के श्रावक आये हैं, उनके साथ मिलकर भी तो समाधान करना है; अतएव ५-७ दिन तो मैं यहाँ ही ठहरूंगा । पूज्यजी - उदयपुर के श्रावकों के साथ जो समाधान करना है, वह मैं कर लूंगा; तुम तो सुबह हो बिहार कर देना । गयवरचंदजी समझ गये कि पूज्य जी महाराज का इरादा उदयपुर वाले श्रावकों से मुझे नहीं मिलने देने का ही है; क्योंकि यह काय पूज्यजी के लिये दो मुंह वाले सर्प के समान है। मेरे जाने के बाद मनमानी करने के लिये पूज्यजी स्वतंत्र हो जायेंगे। खैर, पूज्यजी महाराज का इतना कहना है, तो अपने को स्वीकार कर लेना चाहिये । अतः हमारे चरित्र नायकजी ने कह दिया कि आपकी आज्ञा स्वीकार है । पूज्यजी - गयवरचन्दजी तुम हमारे विनयशील साधु हो, Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সাবা-মান २१६ तुम्हारे लिये मेरा चित्त बहुत प्रसन्न है । अच्छा तुम्हारे साथ मगनजीसाधु को भेज दूंगा, क्योंकि वह अच्छा व्यावश्ची साधु है, जिससे तुम्हें आराम रहेगा। ___पूज्यजी महाराज की यह चतुर्यता थी कि कर्मचंदजी, कनक. मलजी, शोभालालजी और गयवरचंदजी के पास किसी अच्छे साधु को नहीं रखते थे क्योंकि उनको विश्वास था कि यदि इनके पास अच्छे साधु को रखा गया, तो ये उसको भी समझा कर मूर्ति पूजा की श्रद्धा वाला बना देखेंगे । अतएव बिना जोखम वाले साधु ही इन चारों को दिया करते थे । पूज्यजी ने वहां से मगनजी साधु के पास जाकर कहा कि तुमको गयवरचंदजी के साथ कल सुबह ही विहार करना पड़ेगा; किंतु इस बात का ध्यान रखना कि तुम बिहार कर सीधे रास्ते ही सादड़ी जाओ यदि गयवरचंदजी नगरी होके जाने को कहें, तो तुम इन्कार कर देना; क्योंकि नगरी होकर जाने में दो तीन कोस का चक्कर पड़ता है। इस प्रकार व्यवस्था कर के पूज्यजी अपने स्थान पर पधार गये । सुबह प्रतिक्रमण के पश्चात् पूज्यजी महाराज ने साधुओं को आदेश दिया कि गयवरचंदजी की उपाधिका जल्दी प्रतिलेखन करवा दो । बस, प्रतिलेखन हुआ कि पूज्यजी महाराज थडिल भूमिका पधारने के आशय से गयवरचंदजी के साथ पधारे और मंगलीक सुनाकर बिहार करवा दिया। - पूज्यजी महाराज वापस मकान पर पधारे; इतने में उदयपुर के श्रावक पूज्यजी महाराज के दर्शनार्थ आ गये। उन्होंने सब साधुओं को वन्दन किया । पर गयवरचंदजी महाराज को नहीं देखा । साधुओं से पूछने पर मालूम हुआ कि गयवरचंदजी तो Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७. उदयपुर के श्रावक बिहार कर गये । तब वे श्रावक पूज्यजी के पास आकर कहने लगे कि क्या गयवरचंदजी महाराज बिहार कर गये ? पूज्यजी - हाँ, जरूरी कार्य था, इसलिए उनको बिहार करना पड़ा । श्रावक - हमतो उनके लिए ही आये थे, आपके सामने उनसे कुछ प्रश्न पूछ कर निर्णय करना था । पूज्यजः - क्या निर्णय करना है, हमसे करलो ? श्रावक - आप तो मालिक हैं, हमें तो उनसे ही निर्णय करना था । पूज्यजी - वे नये साधु हैं, यदि कुछ कह भी दिया हो, तो उस बात की विशेष चर्चा न करना ही अच्छा है, मैंने उनको ठीक समझा दिया है । फिर तो था ही क्या वे श्रावकगण हताश होकर उदयपुर चले गये | 'गवरचंदजी उस दिन तो एक ग्राम में ठहरे, और दूसरे दिन बिहार किया, परन्तु स्वामी मगनजी धीमी चाल से चलते 1 थे । अतः वे पीछे रह गये । हमारे चरित्रनायकजी ने सीधे ही नगरी का रास्ता लिया और जहाँ मार्ग पलटता था, वहाँ ऐसा संकेत कर दिया कि पीछे २ मगनजी स्वामी को भी उधर ही आना पड़ा। जब आप दोनों मिले तो मगनजी ने कहा कि नगरी जाने के लिए पूज्यजी ने मना किया था । गयवरचंदजी ने कहा कि यदि ऐसा ही था; तो आपने मुझे पहले क्यों नहीं कहा था तथा स्वयं पूज्यजी महाराज ने ही मुझे क्यों नहीं कह दिया । नगरी जाने के लिए मनाई करने का यह कारण था, कि Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २१८ नगरी में स्वामि शोभालालजी थे, तथा पूज्यजी का खयाल था कि यदि ये दोनों मिल गये, तो और उत्पात न मचा देंवेंगे; अतः इनको मिलने नहीं देना ही लाभ कारक है। किन्तु गयवरचंदजी इतने भोले कब थे। जो वे हाथ में आये हुए अवसर को जाने देते। उन्होंने मगनजी को कहा-खैर चलो इधर हुकमीचन्दजी महाराज के दर्शन ही हो जायेंगे। इस प्रकार वहाँ से चलकर वे नगरी पहुँचे । वहाँ वयोवृद्ध हुक्मीचंदजो महाराज के दर्शन कर शोभालालजी से मिले । आपने उन्हें रतलाम से लगाकार पूज्यजी के पास से बिहार किया तब तक का सब हाल सुना दिया और कहा कि अब क्या करना है ? शोभा०-कुछ भी हो, अपने को उत्सूत्र को कदापि नहीं बोलना चाहिये ? गयवर०-परन्तु कभी पूज्यजी समुदाय से अलग कर देवेंगे तो क्या करोगे ? शोभा०-भले ही करदें, पर तुमतो हमारे साथ हो न ? गयवर०-मैं तो आपके साथ हूँ, पर अपना निर्वाह कैसे होगा ? शोभा०-इसका तो पहिले विचार कर लेना चाहिये । ____ गयवर०-विचार क्या करना है; स्थानकवासी समुदाय में से आत्मारामजी जैसे अनेक विद्वान् एवं आत्मार्थी साधु उत्सूत्र से बचने के लिए संवेगी साधु बन गये है, अपने को भी उसी मार्ग का अनुकरण करना होगा। शोभा०-परन्तु अभी तक अपनी तो किसी संवेगी साधु से Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ नगरी में शो० मिलाप जान-पहिचान तक भी नहीं है, और सुना जाता है कि संवेगी होने के पूर्व पुनः दीक्षा लेनी पड़ती है, तथा वहाँ का प्रतिक्रमणभी बहुत बड़ा है, देव वन्दनादि कई प्रकार की क्रियायें हैं, वे सब फिर से सीखनी पड़ेंगी। ____ गयवर०-व्यापारीलोग जिस वस्तु की जरूरत देखते हैं, उसे मुलक में जहाँ भी मिलती हो, वहाँ से ही मँगा सकते हैं, अतः अपने को भी यदि किसी साधु की जरूरत होगी तो वह मिल जायगा और क्रिया के लिए ऐसी कौन सी बात है । जिन्होंने हजारों श्लोक और सैकड़ों थोकडे कण्ठस्थ कर लिए, उनके लिए क्रियाकाण्ड कोई बड़ी बात नहीं है । - अब रही पुनः दीक्षा की बात । इसके लिए जैसे पार्श्वनाथ के साधु महावीर के शासन में आये, तो उनको बिना अतिचार पुनः दीक्षा लेनी पड़ी। अतः यदि संवेगियों के नियमानुसार अपने को भी पुनः दीक्षा लेनी पड़े, तो इसमें क्या नुकसान है। आत्मकल्याण के लिए यदि किसी प्रकार का कार्य करना पड़े तो हम खुशी से करने को तैयार हैं। शोभा०-किन्तु इस बात पर पक्की पाबन्दी रखनी चाहिए। गयवर०-मेरी तो पाबन्दी ही है, श्राप डर कर हाँ में हाँ मिला देते हो ! अतएव आप अपने दिल में निश्चय करलें कि किसी भी हालत में उत्सूत्र नहीं बोलेंगे, तथा इस बात का श्राप हमको बचन दिलावें। . शोभा०-लो, मैं बचन देता हूँ कि मैं तुम्हारे साथ में हूँ। • गयवर०-देखो, रतलाम से नगरी नजदीक है; अतः सबसे पहिले पूज्यजी आपको ही बुलावेंगे । वे आपको अपनावेंगे; धम Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २२० कावेंगे; किंतु आप अपनी प्रतिज्ञा पर पूर्ण पाबन्दी रखना । अगर चतुर्मास में ही रंग बदल गया तो मैं आपको सूचना कर दूंगा, आप चतुर्मास समाप्त होते ही रतलाम न जाकर मेरे पास आ जाना। शोभा०-ठीक है। ३१-१९७१ का चतुर्मास छोटी सादड़ी में शोभालालजी से मिलने के बाद दूसरे दिन ही हमारे चरित्रनायकजी ने नगरी से बिहार कर दिया । आप क्रमशः विहार करते हुए अषाढ़ कृष्ण ३ को सादड़ी पहुँचे। हमारे चरित्रनायकजी जब उदयपुर से बिहार कर रतलाम पधार रहे थे, तो उस समय मार्ग में आने वाले प्राम उठाड़ो, भीडर, कानोड़, बड़ी सादड़ी, और छोटी सादड़ी में आपके व्याख्यान हुए तथा थोड़े २ दिन इन प्रामों में ठहरना भी हुआ। छोटी सादड़ी वाले लोगों ने आपके आचार, व्यवहार तथा व्याख्यान पर मुग्ध हो आपका चतुर्मास के लिए पूज्यजी साहब से आग्रह पूर्वक विनती की थी, और अपने कार्य में सफल होने पर उन्होंने बड़ी भारी खुशी मनाई। सादड़ी के मूर्ति पूजक समुदाय में चन्दनमलजी नागौरी नामक एक अच्छे विद्वान् थे। अापक यहाँ एक पुस्तकालय (लाइब्रेरी ) था, जिसमें प्राचीन हस्तलिखित तथा मुद्रितसूत्र और प्रन्थों का अच्छा संग्रह था । जब सर्व प्रथम सादड़ी के स्थानक Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ मादडी में चन्दन० नागोरी बासी समाज ने गयवरचंदजी से चतुर्मास के लिए विनती की थी, तब आप चन्दनमलजी नागौरी से मिले थे। आपने कहा यदि मेग चतुर्मास यहां हो जाय तो श्राप मुझे शास्त्र पढ़ने के लिए देवेंगे या नहीं ? इस पर चन्दनमल जी ने टालमटोल की फिर मुनि श्री के कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि आप असूची (पेशाब ) के हाथ शास्त्रों के लगा देते हो, जिसे हम लोग बड़ी भारी अशातना समझते हैं । अतः हम आपको शास्त्र देना नहीं चाहते हैं । मुनि श्री-मेरी ऐसी श्रद्धा नहीं है, मैं सूत्रों को परम पूज्यनीय समझता हूँ। ___ इस प्रकार वार्तालाप करने से मालूम हो गया कि आपकी श्रद्धा मूर्तिपूजा की ओर झूकी हुई है, अतः चंदनमलजी ने कहा कि आपको जो शास्त्र चाहिएगा, मैं देता रहूँगा, यदि कोई शास्त्र मेरे पास न होगा, तो मैं बाहर से मैंगवाकर भी आपको दूंगा। श्राप प्रसन्नता के साथ चतुर्मास करें। ____ तब मुनिजी ने निश्चय किया था कि यदि यह चतुर्मास पज्यजी महाराज की सेवा में हो जावे तो अच्छा ही है, वरना चतुर्मास सादड़ी ही करना चाहिए क्योंकि यहाँ शास्त्रों का अच्छा संयोग है, तथा चंदनमलजी आदमी भी अच्छा है । दूसरी अनेक बातें जानने का भी यहाँ अच्छा सुभिता रहेगा । इस प्रकार अब मुनिजी के मनोरथ सफल हुए और आप चतुर्मास के लिए सादड़ी पचार गये। सादड़ी के श्रावकों ने आपका बड़े ही सम्मान पूर्वक स्वागत किया । व्याख्यान में सुख-विपाक सूत्र के बाद श्री राजप्रश्नी सूत्र प्रारम्भ हुआ । परिषद् का जमघट इतना होता था कि न्याति Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २२२ नौहरा इतना विशाल होने पर भी मनुष्यों को बैठने के लिए जगह की कमी मालूम होती थी। सादड़ी के श्रावकों में सेठ बिरधीचंद जी. ऋषभदासजी, नाथूलालजी, राजमलजी, रामलालजी, फूलचन्दजी वगैरह अगुआ थे। एक फूलचन्द नामक नवयुवक स्कूल में पढ़कर उस समय ही आया हुआ था, धर्म की ओर उसकी अभिरुचि थी, तथा व्याख्यान सुनने में भी बड़ा प्रेम रखता था। ___एक तो मुनि श्री की श्रद्धा मूर्ति-पूजा की ओर झुकी हुई थी, दूसरा व्याख्यान में श्री राजप्रश्नी सूत्र का बांचना, फिर तो कहना ही क्या था, खुल्लम खुल्ला नहीं तो भी किसी न किसी प्रकार से मूर्ति पूजा की पुष्टि हो ही जाती थो । श्रीयुत फूलचंदजी ने इस ओर ध्यान लगाया और उनकी रुचि निर्णय की ओर आगे बढ़ने लगी। मुनिश्री, चन्दनमलजी नागौरी के यहां से सूत्र लाकर आप भी पढ़ते और जहां मूर्ति का विषय आता वहां फूलचंदजी को भी पढ़ाते थे । आप ऐसी चतुराई से काम लेते थे, कि इतर श्रावकों को तो इस बात का पता भी नहीं लगता था । फूलचन्द नवयुवक होने पर भी अच्छा प्रज्ञावान श्रावक था; उसने अपने निर्णय के लिए कुछ प्रश्न लिख कर सेठजी अमरचन्दजी साहब के नाम पर पूज्यजी महाराज की सेवा में भेजे । सेठजी ने पत्र को पढ़कर पूज्यजी महाराज को पढ़ सुनाया; सेठजी और पूज्यजी समझ गये कि इन प्रश्नों का कारण गयवरचन्दजी ही हैं। किंतु इन प्रश्नों का उत्तर तो देना ही पड़ेगा, नहीं तो श्रावकों के दिल में शंका उत्पन्न हो जावेगी । अतः अमरचन्दजी साहब ने अपनी तस्वीर ( फोटू ) वाली फर्म पर उन प्रश्नों का उत्तर लिख कर भेजा, तथा अंत में लिखा था कि इन प्रश्नों Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ फूलचन्द के ९ प्रश्नोत्तर का उत्तर पूज्यजी महाराज को पूछ कर उनके कथनानुसार लिखा गया है । पाठकों की जानकारी के लिये वे प्रश्नोत्तर हम यहां उधृत कर देते हैं: श्रीमान् फूलचंदजी के लिखे हुए प्रश्न ( १ ) चौथा से चौदहवां गुणस्थान की श्रद्धा एक है या भिन्न भिन्न ? (२) जिन-प्रतिमा सूत्रों में चली है, यह किसकी है ? (३) सुरियाभ देवता ने जिनप्रतिमा को पूजा एक बार की है या बार बार ? क्यों कि सूत्र के पाठ में पूर्वा पच्छा अर्थात् पहले और पीछे पूजा करना कहा है ? . (४) सूरियाभ देव आदि देवताओं ने जिन-प्रतिमा की पूजा कर नमोत्थुणं दिया है, यह करणी समकित की है या मिथ्यात्व की ? (५) पूजा के फल के लिये-हियाए, सुहाए, रकमाए, निस्सेसाए और अणुगमिताए-इस प्रकार पाठ आया है, इसका क्या अर्थ होताहै ? (६) सूत्र में, 'धूवदाउणं जिनवराणं' पाठ आया है, वहाँ देवताओं ने देवलोक में किस जिनराज को धूप दिया तथा इसका क्या मतलब है? (७) यदि सम्यग्दृष्टि देवता अपने राज, भोग, सुख और मंग जिक के लिये जिन-प्रतिमा की पूजा करे, तोवह समकित कापाराधिक हाता है या पिराधी ? और इसी सूत्र में सूरियाम देवने भगवान् के पास आकर पूछा है कि हे प्रभो ! मैं आराधिक हूँ या। विराधिक, श्रादि १२ प्रश्न पूछे हैं। प्रभु ने उत्तर में कहा कि तू आराधिक है, अर्थात् छबोत्त प्रस्तुत कहा है, अर्थात् सम्यग्दृष्टि Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आदर्श-ज्ञान देवता जिनप्रतिमा को पूजा कर नमोत्थुणं के पाठ से स्तुति करते हैं, वह आत्म-कल्याण की भावना से करते हैं या राजभोगादि के लिये; और जो उनका पाराधिक होना बतलाया है, वह किस भावना से ? (८) देवताओं ने जिन-प्रतिमा की पूजा के साथ और भी कई स्थानों पर पूजा की है, पर नमोत्थुणं केवल जिन-प्रतिमा के सामने ही दिया, इसका क्या कारण है ? (९) यदि यह कहा जाय कि देवता ने अपने मंगलिक के लिये जिन-प्रतिमा की पजा की, और अराधी भी हुआ तो इस प्रकार कोई श्रावक भी अपने मंगलिक के लिये जिन-प्रतिमा की पूजा करे, तो फायदा है या नहीं अर्थात् अराधिक होता है या नहीं ? पूर्वोक्त ९ प्रश्नों के उत्तर पूज्यजी महाराज के कहने से सेठजी अमरचंदजो ने लिख कर डाका द्वारा भेज दिये, जिसकी प्रतिलिपि निम्न प्रकार है: १- पहले प्रश्न का उत्तर-चौथा और चौदहवां गुणस्थान की श्रद्धा तो एक है, केवल क्षायक क्षयोपशम को तरतमता अवश्य है; परन्तु जिस धर्म करणी में चौथा गुणस्थान वाला धर्म मानता है, उसमें चौदहवाँ गुणस्थान वाला भी धर्म समझता है । २-दूसरे प्रश्न का उत्तर -'जिन-प्रतिमा' का अर्थ टोकाकार तथा टम्बा कारने 'जिनेश्वरों की प्रतिमा' कहा है; और समास देखने से वे प्रतिमाए निर्वाण अवस्था की पाई जाती है। देवता तो जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण सब ही अवस्थाओं का वन्दन-पूजन करते हैं । अतः उन जिनप्रतिमाओं को जिनेश्वरों की प्रतिमा मानना शास्त्र समान है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ नौ प्रश्नों के उत्तरमें मूर्ति पूजा का फल ___३–तीसरे प्रश्न का उत्तर-सूरियाम आदि देवताओं के सम्बन्ध में देवताओं का धर्म-सम्बन्धी पुस्तक के अनुसार एक बार ही जिन प्रतिमा पूजने का अधिकार सूत्र में आता है, बार बार का नहीं, परन्तु 'पोपच्छा' पाठ के अनुसार पहले और पीछे भी जिनप्रतिमा की पूजा की हो, तो संभव हो सकता है। __४ चौथे प्रश्न का उत्तर-देवता जिन प्रतिमा पूजते हैं, यह उनका मंगलिक ब्यवहार है, यहां समकित- मिथ्यात्व का खुलासा नहीं है। दोनों प्रकार के देवता उत्पन्न होते हैं, और ये लौकिक व्यवहार या जीत ब्यवहार की क्रिया करते हैं । अलबत्ता तीर्थङ्कर भगवान् तीनों लोक में पूजनीय होने से नमोत्थुणं वगैरह कि क्रिया जैन की संभवे है । सम्यग्दष्टि और मिथ्यादृष्टि के परिणाम पृथक् पृथक होते हैं, जिन प्रतिमा को नमोत्थुणं देना, यह क्रिया सम्यग्दष्टि की ही होना संभव है। ५ पांचवें प्रश्न का उत्तर-पूजा के फल के लिये पांच बोलों का अर्थ: १ हियाए-एक मित्र की परे हितकारिता । २ सुहाए-पांचेन्द्रियों के वांच्छित सुखों की प्राप्ति । ३ रकमाए-मल रहित वस्त्र की तरह पवित्रता । ४ निस्सेसाए-उपद्रव्य रहित निर्विघ्नता पूर्वक दुःखों से छूटना और सुखों के सन्मुख होना । ५ अणुगमिताए-एक से लगाकर जावज्जीव पर्यन्त मचकु फल साथ में रहें। अर्थात् पूजा करने में अपनी शुभयोगों की प्रवृत्ति होने से, शुभ बन्ध होता है। १५ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २२६ ___ नोट-इस प्रश्न के उत्तर में अर्थ का कैसा अनर्थ करडाला है क्योंकि न तो इस प्रकार का अर्थ टीका में है और न टब्बा में है फिर भी पक्षपात एक ऐसी बुरी बलाय है, कि उसमें मनुष्य अपना ज्ञान-भान तक भ भूल जाता है । फिर भी आपके लिखे हुये उत्तर में पूजा में शुभ योग और शुभ वन्धन तो आपने स्वीकार कर ही लिया है, जिससे पूजा का करना उपादेय अवश्य समझा जा सकता है। । यदि सेठजी के लिखे हुए उत्तर की ओर देखा जाय तो इस में मूर्ति पूजा का फल यावत्-मोक्ष होना झलकता हैं, जैसे कि आप लिखते हैं कि मित्र की तरह हितकारी, वांच्छित सुखों की प्राप्ति, मल रहित वस्त्र की तरह पवित्रता, उपद्रव्य रहित निर्विघ्नतापूर्वक दुखों से छूटना और सुखों के सन्मुख होना, इत्यादि । पाठक समझ सकते हैं कि पूर्वोक्त मूर्तिपूजा के फल में कल्याण का कारण स्पष्ट मलक रहा है । पूज्यजी महाराज एवं सेठजी कितने ही पक्षपाती हों, पर आपकी समझदारी में उत्सूत्र भाषण के पाप का भय स्पष्ट है । अतएव रूपान्तर अर्थ लिखने पर भी आपके हृदय के भाव नहीं छिप सकते हैं । ६. छठे प्रश्न का उत्तर-उपचार नय की अपेक्षा जिन प्रतिमा को देवता स्थापना जिनवर समझते हैं, और द्रव्य पूजा की विधि में धूप देने की भी विधि है, जिससे धूवदाऊणं जिनवरणां' ____७. सातवें प्रश्न का उत्तर-१२ बोलों में ६ अनुकूल तथा ६ प्रतिकूल हैं, जिसमें सुरियाभ देवता सम्यग्दृष्टि भव्य आराधिक परतसंसारी शुक्लपक्षी और चर्म हैं। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ नौ प्रश्नों के उत्तर में मूर्ति पूजा का फल ____ नोट-यदि सुरियाभ देवता ने अपने पुद्गलिक सुखों के लिये जीत व्यवहार से ही जिनप्रतिमा की पूजा की, ऐसा कहा जाय तो वह आराधिक कैसे हो सकता है ? अतः उसने मोक्षमार्ग की आराधना के लिये ही जिनप्रतिमा का पूजन किया है, ऐसा सूत्र के पाठ से सावित होता है। ८. आठवें प्रश्न का उत्तर-देवताओं ने उपचार नव से जिनप्रतिमा को अनादि-शाश्वती सिद्धों की स्थापना समझ कर सिद्धों को ही नमोत्थुणं दिये जाने का अधिकार चला है । जिन प्रतिमा तो मात्र निमित कारण है इसलिये जिन प्रतिमा को नमो. त्थुणं दिया कहा जा सकता है; तथा इस प्रकार स्तोत्र द्वारा गुणानुवाद भी किया गया है। जिनप्रतिमा के अलावा जहां २ पूजा की हैं वहां पर वे सावद्य के स्थान होने से नमोत्थुणं नहीं दिया है। . नोट-इस प्रश्न के उत्तर में तो आपने साफ हृदय से मूर्चिपूजा को निर्वद्य और मोक्ष का कारण स्वीकार कर लिया है, तदर्थ धन्यवाद। ९. नौवें प्रश्न का उत्तर-देवताओं की करणी जीताचार वह भवप्रति पहले से चौथे गुण स्थान की और तरह की है और देशव्रती श्रावक की करणी जुदी तरह की है; क्योंकि देवता नैगमादि सात नय की श्रहना या प्रवृत्ति वहां पर करते हैं । मनुष्य में श्रावक-साधु की श्रद्दना, प्ररूपना तो सात नय की है, परन्तु करनी यथा उचित नय की है। ___ नोट-यह कितना पक्षपात है ? श्राप ही तो पहले प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं कि चौथे और चौदहवें गुणस्थान की श्रद्ध Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान २२८ एक है, और यहां आपने नयबाद को बीच में लाकर करणी में भेद डाल दिया है । फिर भी देवता, श्रावक, साधु की श्रद्धा प्ररूपना सात नय की बतला कर अज्ञ लोगों की मुवाफ़िक देवता और श्रावक में भेद बतला रहे हैं । यही तो एक महान आश्चर्य की बात है ! फिर भी सब प्रश्नों का मिलान करने पर मूर्तिपूजा मोक्ष का कारण स्पष्ट सिद्ध हो सकता है । ___इन प्रश्नों के उत्तर से श्रीमान् फूलचंदजी और उनके साथियों के सोलह श्राना जंच गई कि शाश्वति जिन प्रतिमाएं तीर्थङ्करों की प्रतिमाएं हैं और उनकी सेवा, पूजा, उपासना करने से हित सुख कल्याण और मोक्ष का कारण होता है । चौथे गुण स्थान एवं चौदहवें गुण-स्थान को श्रद्धा एक है, इसका मतलब यह है कि जिस करणी में केवली धर्म माने. उसमें चतुर्थ गुण स्थान वाले भी धर्म समझते हैं। फिर देवता और श्रावक के बीच भेद बतलाना, यह सिवाय पक्ष-पात के और क्या है। यदि इतना भेद न हो तो अलग समुदाय ही क्यों कहलाता ? फिर भी आपके उत्तर के लिये तो हमें आपका उपकार ही मानना चाहिये। ___चातुर्मास के अन्दर अतंत्य अशुभ कर्मोदय के कारण मुनिश्री के बादी की तकलीफ इतनी हो गई कि पथारी बिछौने ) से उठाबैठा भी नहीं जाता था। इस बीमारी का कारण यह हुआ था कि चार दिन तक वर्षा होती रहने से साधुओं के आचारानुसार इन दिनों में न आहार ला सके और न पानी। इधर तो चार दिनों के भूखे-प्यासे थे उधर सर्दी ने खूब जोर पकड़ा । तदुपरांत मकान में आंवली का झाड़ था, अतः रात्रि में वायु के चलने से Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ बीमारी का हो जाना शरीर बादी से व्याप्त हो गया। पांचवें दिन जब वर्षा कुछ बंद हुई, तो नजदीक के घरों में असमय गोचरी गये, बहां मक्की की रोटी और दही मिला, अतः वही लाकर खा लिया । इन सब संयोगों के मिल जानेसे बादी की बीमारी हो गई । श्रावकों ने इलाज बहुत किया पर बीमारी जोर पकड़ती ही गई। तीन मास तक इतनी वेदना रही कि पत्थारी से बैठनाउठना होता तो दूसरा ही पकड़ कर बैठाता उठाता; किन्तु इस बीमारी में भी आप निरन्तर बड़े २ शास्त्रों का पठन-पाठन किया करते थे । आपने लगभग एक लाख श्लोक जितना पठन-पाठन उस बीमारी में कर लिया। शास्त्र देने वाले थे श्रीमान् चन्दनमलजी नागौरी तथा लाने और वापस पहुँचाने वाले थे फूलचंदजी अतः उस बीमारी की अवस्था में एक तो निवृत्ति थी, दूसरे ज्ञान पढ़ने की आपकी उत्कृष्ट अभिरुचि इतनी थी कि उस पठन-पाठन में आपको वह वेदना कुछ भी मालूम न हुई । वेदना होना तो अशुभ कर्मों का उदय था, परन्तु आपने इस प्रकार ज्ञानाभ्यास कर अनंत कर्मों की निर्जरा कर डाली और इससे उस वेदना को आपने शुभोदय ही समझा। इधर जब जावद में आपके गुरुवर मोड़ीरामजी महाराज को मालूम हुआ कि सादड़ी में गयवरचंदजी बीमार हैं, अतः आप एक सुवालालजी नामक साधु को लेकर कार्तिक कृष्ण ४ को सादड़ी पधारे । कुछ दिन ठहरकर सुवालालजी को श्रापकी व्यावच्च के लिये वहीं रख दिया, और आप बापिस जाबद पधार गये । - मुनिश्री के व्याख्यान और प्ररूपना से सादड़ी के अगुवेश्रावकों को यह तो मालूम हो ही गया कि आपकी श्रद्धा मूर्तिपूजा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २३० की ओर दृढ़ हो गई है। ऐसी हालत में मूर्तिपूजकों के यहां से शास्त्र लाकर पढ़ना उनको खटकने लगा । उन्होंने एक दो बार विनय के साथ मना भी किया, पर आपने उस पर ध्यान नहीं दिया । तब वे श्रावक मिलकर रतलाम गये और सब छाल पूज्यजी महाराज श्री से निवेदन किया । पूज्यजी महाराज के कहने से अमर ० ܬ चन्दजी साहब ने मुनिश्री को एक पत्र लिखा कि आप जो बिना गुरु आज्ञा के शास्त्र पढ़ते हो, वह ठीक नहीं है; तथा पूज्यंजी महाराज की इसके लिये सख्त मनाई है। अतः आप जब तक पूज्यजी महाराज से न मिल लें, तब तक कोई भी शास्त्र व प्रन्थ दूसरों से लाकर नहीं पढ़ें, इत्यादि । सादड़ी के श्रावक पत्र लेकर आये और उन्होंने वह पत्र मुनिश्री को दे दिया । आपने पत्र लेकर सिर पर चढ़ा लिया, किन्तु शास्त्र पढ़ना बन्द नहीं किया । - श्रावकों ने कहाः – महाराज ! पूज्यजी महाराज के मनाई कर देने पर भी आप मन्दिर - मागियों के वहां से पुस्तकें मँगवा कर पढ़ा करते हो, यह ठीक नहीं है क्या आप पूज्यजी महाराज की आज्ञा भी स्वीकार नहीं करते हैं ? मुनि - इस बात की पंचायत के लिए आपको पंच मुकर्रर नहीं किया गया है जो आप मुझे कुछ कह सकें । आपने क्या नहीं देखा था कि पूज्यजी महाराज का पत्र आते ही मैंने सिर पर चढ़ा लिया था; परन्तु शास्त्र पढ़े बिना मेरे से रहा नहीं जाता । पूज्यजी महाराज यदि ज्ञानाभ्यास करने को भी अन्याय समझेंगे ता जो कुछ दंड प्रायश्चित वे देंगे, वह में स्वीकार करूंगा । श्रावको ! मैंने घर ही ज्ञानाध्ययान के लिये छोड़ा है, समझ गये न ? श्रावक — खैर, आप ज्ञानाध्ययन भले ही करें, किन्तु आप Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ शास्त्र के विषय में चर्चा मन्दिर - मार्गियों के यहाँ से सूत्र मँगवा कर क्यों पढ़ते हो ? अपने भंडार में भी बहुत-से सूत्र हैं, आप वहाँ से मँगवा कर पढ़ा करें। मुनि - वे सूत्र भी मन्दिर- मार्गियों के हो हैं। अपने लोगों तो केवल मन्दिर - मार्गियों के शास्त्रों की नकल ही कर ली है, और वे सब सूत्र मैंने पढ़ भी लिए हैं । श्रावक यदि मन्दिर - मार्गियों के शास्त्रों की ही नकल अपने लोगों ने की है, तो फिर दोनों शास्त्रों में इतना फर्क क्यों है ? मुनि - इसके लिये तो किसी विद्वान से पूछ कर निर्णय करना । श्रावक - आप जैसे विद्वान यहां प्रत्यक्ष विराजते हैं तो हम दूसरे किस विद्वान से निर्णय करने जावें । मुनि - मैं इतना विद्वान नहीं हूँ कि आपको समझा सकूँ । श्रावक - खैर, आपकी जैसी इच्छा, हमारा कर्तव्य तो निबेदन करने का था सो कर दिया । रतलाम में पूज्यजीम० ने भी सादड़ी के श्रावकों को खानगी तौर पर कह दिया था कि चतुर्मास के थोड़े ही दिन रह गये हैं, अतः साधुओं से ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करना । अतएव श्रावक लोग साधारण तौर पर बात करके ही वहां से चले गये । मुनिजी की बीमारी के लिए बहुत इलाज किया, बिजली का प्रयोग भी किया गया, किन्तु आराम नहीं हुआ । आखिर नीमच से डाक्टर को बुलवा कर इन्जेकशन दिलवाये गये । इधर वेदना की अवधि भी पूर्ण हो आई थी: मंगसर मास के Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ आदर्श-ज्ञान शुक्लपक्ष में आप थोड़े बहुत चलने-फिरने लगे; फिर भी आपके दिल में शास्त्र देखने की लग्न ने घर कर रखा था। एक दिन आप चंदनमलजी का पुस्तकालय (लाईब्रेरी) देखने के लिये वहां पधारे थे । इस पर भी श्रावकों ने अपनी नाराजी प्रकट की, पर आपने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। दूसरी बार, मंदिर के पास वाले उपासरा में प्राचीन ज्ञानभंडार था, वह देखने को पधारे। पीछे से श्रावकों ने विचार किया कि आज तो मुनिजी मुँहपत्ती का डोरा तोड़ कर संबेगी बन जावेंगे, नहीं तो मन्दिर तो अवश्य ही जावेंगे, अतः उन्होंने चार चार पांच-पांच आदमियों की तीन-चार चौकियाँ बैठा दीं। मुनिश्री ने ज्ञान भंडार को देखा, कई प्रतियें पढ़ने के लिए साथ में ले ली। चन्दनमलजी ने कहा कि मन्दिर का दरवाजा खुला ही है यदि आपकी इच्छा हो तो दर्शन करने के लिये पधारें रास्ता उपाश्रयके अन्दर से ही है। तब मुनिश्री अन्दर गये, और वोतराग की शान्त मुद्रा देखकर आपने परम प्रसन्नता पूर्वक नमस्कार किया । बाहर आये तो श्रावकगण पहिले से ही चौकिए लगाये हुए बैठे थे। उन्होंने कहा महाराज,कहाँ पधारे थे ? मुनिः-उपाश्रय तथा मन्दिर में । श्रावक-क्यों क्या काम था ? मुनि-सूत्र देखने थे। श्रावक-किन्तु मन्दिर में जाने का क्या मतलब था ? मुनि०-वीतराग की मूर्ति के दर्शन करना था। श्रावक- साधु के लिए मन्दिर जाना वर्जित है। मुनि०-ऐसा किस शास्त्र में लिखा है ? और इसमें क्या Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ श्रावको मन्दिर जाने में दोष है आप ही बताइये कि साधु मन्दिर में जावे तो उसके मूल गुण और उत्तर गुण में कौन सा दोष लगता है ? हमारे पूज्यजी ने टोंक में मन्दिर की धर्मशाला में चतुर्मास किया था और उनका रास्ता मन्दिर की तरफ से होने के कारण वे हमेशा मूर्ति के दर्शन करते थे । हमारे गुरु महाराज ने पूज्यजी महाराज की श्राज्ञा से गुजरात से आते समय मन्दिर मूर्तियों के लिये ही आबू तीर्थ पधार कर उनके दर्शन किए थे। गुजरात और काठिया वाड़ के साधु शत्रुजय गिरनार आदि की यात्रार्थ डूंगर पर जाते हैं, इत्यादि ! श्रावक-तो फिर हमको मनाई क्यों की जाती है कि तुम तीर्थ यात्रा या मन्दिर मत जाया करो। मुनि०-किसने आपको मनाई की है ? जाना न जाना यह आपकी रुचि पर है; किन्तु मना करने वाले को अन्तराय का पाप अवश्य लगता है, क्योंकि मन्दिर में जाकर मूर्ति के दर्शन से भगवान याद आते हैं और वहां नवकार नमोत्थुणं एवं स्वध्याय स्तवन को बोलते हैं; अतः मना करने वालों को अन्तराय जरूर लगती है। श्रापक०-आप तो पक्के मन्दिर मार्गी बन गये हैं न ? मुनि-आप अपना जी चाहे सो समझो। ___ इतनी बात तो बाजार में हुई थी, बाद में नोहरे ( स्थानक) में आये, तो वहां बहुत से श्रावक जमा होकर मनमानी बातें कर रहे थे । मुनि श्री ने सोचा कि यहां अब गरीबी से काम नहीं । चलेगा; अतः इनको कुछ हाथ बतलाना चाहिए । आपने कहा Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মানুহ-মাল २३४ अरे वेवकूफ लोंगो तुमने यहां क्या तमाशा एवं मोडी का मठ देख लिया है, चले जाओ यहां से । बस, फटकार खा कर सब लोग चले गये उसी दिन ४ भावक मिल कर पूज्यजी महाराज के पास गये, और सब हाल कह सुनाया। पूज्यजी महाराज ने कहा कि गयवरचंदजी मेरे पास आवें तो भेज देना, नहीं तो उनके पास जो दो साधु हैं, उनको कह देना कि तुम बिहार कर पूज्यजी के पास चले जाओ। ____ उधर चतुर्मास खत्म होते ही पूज्यजी महाराज ने शोभालाल जी को अपने पास बुला कर उन्हें अपना लिया; क्योंकि आप को शक था कि कहीं शोभालालजी गयवरचंदजी के साथ न मिल जावें। ____ सादड़ी से दो साधुओं के चले जाने के बाद हमारे चरित्र नायकजी वहां अकेले रह गये । कई मूर्ति की श्रद्धा रखने वाले आपके पक्ष में भी रहे, पर कई श्रावकों से सम्बन्ध टूट भी गया । मूर्ति पूजक श्रावक नानूलालजी नागौरी ने कहा कि यदि आप यहां पर संवेगी बनें तो मैं आपके लिए दो हजार रुपये खर्च कर बड़ा भारी महोत्सव कर सकता हूँ। किन्तु आप ने अकेले ऐसा करना उचित नहीं समझा और वहां से बिहार कर कर्मचन्दजी महाराज के पास गंगापुर चले गये; क्योंकि मूर्ति की श्रद्धा वाले आप चारों साधुओं में वे नायक थे। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ - गंगापुर में त्रिवेणी का समागम पूज्यजी महाराज को जब मालूम हुआ कि गयवरचंदजी सादड़ी से बिहार कर गंगापुर कर्मचन्दजी के पास गये हैं तो उन्होंने सोचा कि कर्मचंदजी महाराज की श्रद्धा भी मूर्ति पूजा की है और वे भद्रिक भी हैं तथा गयवरचंदजी बड़े ही खटपटी एवं पक्के मुशदी आदमी हैं। श्रतः कहाँ हो कर्मचन्दजी महाराज को फुसला कर वे दोनों संवेगी न बन जावें, इस लिए उन्होंने शोभालालजी को बुला कर कहा कि तुम गंगापुर जाकर गयवरचंदजी को समझा-बुझा और विश्वास दिलाकर मेरे पास ले आश्रो, इसी में तुम्हारी होशियारी है । किन्तु इस बात का वचन दे जाओ कि गवरचन्दजी आवे या नहीं, पर मैं तो वापिस श्राकर आपसे अवश्य मिलूंगा । शोभालालजी ने वचन दे दिया । पूजयजी ने यह भी कह दिया कि कदाचित् गयवरचन्दजी मेरे पास नहीं भी आवें, अतः मैं उनके गुरु मोड़ीरामजी को भी गंगापुर भेजता हूँ । गयवरचन्दजी मोड़ीरामजी के पास रहकर मारवाड़ की श्रोर विहार कर दें, कर्मचंदजी के पास नहीं रहें और तुम हमारे पास श्राजाना । पूज्यजी को विश्वास हो गया था कि शोभालालजी मेरा बन गया है, और यह वचन का भी पक्का है, वापिस मेरे पास आ ही जावेगा । शोभालालजी ने चार साधुओं को साथ ले इतना उम्र बिहार किया कि गवरचंदजी गंगापुर पहुँचे, उसके तीसरे दिन ही वे Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान २३६ भी वहां पहुँच गये । इधर मोड़ीरामजी भी खूब लम्बा २ बिहार कर उसी दिन गंगापुर जा पहुँचे । कर्मचंदजी, शोभालालजी और गयवरचंदजी इन तीनों की श्रद्धा तो मूर्ति पूजा की थी ही अतः इनका मिलाप एक त्रिवेणी का समागम हो गया। साथ में इन्होंने मोड़ीरामजी की श्रद्धा भी सूत्रों के मूल पाठ तथा टब्बार्थ बतला कर मूर्ति-पूजा की ओर झुका दी। साथ के कई साधु भी समझ गये कि जैन सूत्रों में मूर्ति पूजा का उल्लेख अवश्य है। ___ सबसे पहिले गयवरचंदजी गंगापुर में आकर कर्मचंदजी से मिले और अपना सब हाल कर्मचंदजी से कह सुनाया । उन्होंने उत्तर दिया कि तुमने बहुत जल्दी की,काम धीरे २ होता है, पहिले साधु बल को बढ़ाओ, और दूसरे कम से कम तुम्हारे गुरू मोड़ीरामजी को तो पक्का करना चाहिए। __ मुनिश्री-मोड़ीरामजी की श्रद्धा तो मैंने मूर्ति-पूजा की ओर मुका दी है, पर वे वेष परिवर्तन करना नहीं चाहते हैं । दूसरे रतनलालजी, तखतमलजी, किशनचंदजी वगैरह चारपांच साधुओं को मैंने पक्का कर लिया है, सूत्रों के पाठ देख दिये, अतः उनको श्रद्धा भी मूर्ति मानने की हो गई है, पर पूज्यजी इन साधुओं का समागम नहीं होने देते हैं। फिर भी हम दूसरों के भरोसे पर कहां तक रह सकते हैं, अतः आप तैयार हो जाईये । ___कर्मचन्दजी-मैं तो तैयार ही हूँ, किन्तु ५-७ साधु और भी तैयार हो जावें, तो जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा, इसलिये तुम अभी धैर्य रखो। इधर जब शोभालालजो और मोड़ीरामनी गंगापुर पहुंचे तो Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ गंगापुर में वार्तालाप शोभालालजी ने पज्यजी महाराज का संदेश गयवरचन्दजी को सुनाते हुये कहा कि आप एकबार पूज्यजी के पास चले चलो । गयवर०—वहां जाने से क्या लाभ है ? शोभा० - लाभ की तो कोई आशा नहीं है, पर पूज्यजी महाराज ने मुझे कहकर भेजा है कि तुम एक बार गयबरचन्दजी को मेरे पास ले आओ । C गथवर ० - महाराज आप अभी भोले हो, मैं पूज्यजी परन्तु महाराज को अच्छी तरह से जानता हूँ, वे पक्के मुत्सद्दी हैं, अपने पास बुलाकर वे मुझे किसी भी प्रकार से तंग करना चाहते हैं । कारण वहां अपने पक्ष का तो एक भी आदमी नहीं है । खैर, मैं आप से पूछता हूँ कि आपने अब क्या निश्चय किया है, और आपके साथ पूज्यजी महाराज का कैसा व्यवहार है ? शोभा०- पूज्यजी महाराज से जब मैं मिला तो वे सख्त नाराज थे, उन्होंने कहा कि तुमने गयवरचन्दजो से क्या बातें की पर बाद में जब तुम्हारा गंगापुर जाना सुना तो मेरे पर खुश हो कर मुझे यहां मेजा है | मेरी राय से तुम एक बार पूज्यजी के पास चले चलो, तो कोई हर्ज की बात तो है नहीं । गयवर० - हर्ज नहीं, तो लाभ भी क्या है ? मेरा तो विचार है कि इस प्रपंची जाल से छूटना ही अच्छा है, क्योंकि इस वेष में -रहकर सत्यप्ररूपना तो कर ही नहीं सकेंगे। किसी न किसी प्रकार से उत्सूत्र का लाग-लपेट लगे बिना रह ही नहीं सकता है; श्रतः जब आत्म-कल्याण के लिए घर छोड़ा है, तो फिर दक्षिणता किस बात की है । शोभा०- यदि कर्मचन्दजी महाराज तैयार हो जावें तो मैं Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আদা-সাল २३८ भी तैयार हूँ । बस, दोनों मिल कर कर्मचन्दजी महाराज के पास आये और सब हाल कह सुनाया। इस पर स्वामीजी ने कहा कि तुम मोड़ीरामजी को तैयार करो, यदि वे तैयार हो जावें तो मैं भी तैयार हूँ। गयवरचन्दजी ने अपने गुरु मोड़ीरामजी के पास जाकर सब हाल कह सुनाया और कहा कि यदि आप समझते हो कि जन सूत्रों में मूर्तिपूजा का विधान है; और उत्सूत्र भाषण करने में अनम्त संसार की वृद्धि होती है, तो फिर ऐसा वेष बन्धन रखने में फायदा भी क्या है ? _____ मोड़ीरामजी-मैं जानता हूँ कि सूत्रों में जगह जगह मूर्तिपूजा का उल्लेख है, पर मैं वेष छोड़ना नहीं चाहता हूँ। कारण मेरी इतनी बुद्धि नहीं है कि मैं संवेगियों का प्रतिक्रमणादि क्रिया काण्ड सीख सकू। यदि वेष नहीं छोड़े तो भी श्रद्धा शुद्ध होने से कल्याण हो सकता है ! शास्त्रकारों ने तो स्वलिंगी, अन्यलिंगी और गृह-लिंगी सिद्ध होना बतलाया है । मैं तो तुमको भी यही कहता हूँ कि तुम्हारी श्रद्धा भले ही मूर्ति की हो, पर तुम इसी वेष में रहकर तप संयम से अपना कल्याण करो। गयवर०-अब यह बात तो समुदाय में प्रसिद्ध हो ही गई है कि इन साधुओं को श्रद्धा मूर्तिपूजा की है, जहां जावें, वहां प्रश्न पछने वाले मिलते हैं और फिर उत्तर देने में एक पक्ष तो लेना ही पड़ता है । सत्य कहने पर विवाद तथा असत्य कहने पर आत्मा का नुक्सान है, इसलिए एक पक्का निश्चय कर लेना ही अच्छा है दूसरे अपन लोग घर छोड़कर किसी के यहां मूल्य पर तो बिक ही नहीं गये कि जो असत्य को भी सत्य ही बतलावें। मेरी आत्मा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ वेष त्याग की चर्चा तो इस बात के लिए किसी भी हालत में साक्षी नहीं देती है । अतः मैं इस वेष बन्धन में रहना बिल्कुल नहीं चाहता हूँ। ___मोड़ीरामजी-तुम्हारी तुम जानो, मैं तो वेष का त्याग करना किसी भी हालत में ठीक नहीं समझता हूँ । हाँ तुम इस वेष में रहो तो मैं तुम्हारे पास रहने को तैयार हूँ। ___ मोडीरामजी के निराशा मय वचन सुन कर हमारे चरित्रनायकजी पुनः कर्मचन्दजी के पास आये और सब हाल कह सुनाया। इसी बीच में शोभालालजी बोल उठे कि मैं पज्यजी महाराज को वचन दे कर आया हूँ, अतः एक बार तो मैं उनके पास अवश्य जाऊँगा । तब कर्मचन्दजी ने कहा कि गयवरचंदजी तुम फिलहाल ठहरो, जल्दी मत करो, ठहरने से सब अच्छा होगा। ऐसी हालत में भी हमारे चरित्र नायक जी अकेले ही यह कार्य कर सकते थे; किन्तु भविष्य की आशा और सब की मान्यता देखकर आपने फिलहाल इस कार्य को स्थगित कर दिया। शोभालालजी ने गयवरचन्दजी से पूछा कि तुम हमारे साथ पूज्यजी के पास चलते हो, या मोड़ीरामजी महाराज के साथ मारवाड़ की ओर विहार करेंगे ? गयवरचन्दजी ने कहा कि मैं तो गुरु महाराज के साथ मारवाड़ की ओर विहार करूंगा। बस शोभालालजी ने पूज्यजी की ओर, मोड़ीरामजी तथा गयवरचन्दजी वगैरह ने मारवाड़ की ओर, तथा कर्मचन्दजी ने उदयपुर की ओर विहार कर दिया ! Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४-हमारे चरित्रनायकजी तथा तेरहपंथी मोडीरामजी, गयवरचन्दजी, गबुजी, तख्तमलजी तथा रूपचंदजी ने गंगापुर से मारवाड़ की ओर बिहार कर दिया। करीब २ कोस गये होंगे, कि रास्ते में तेरहपन्थी पूज्यजी का लश्कर मिला। उसमें लगभग एक सौ साधु, साध्वी और दो सौ उनके भक्त, भक्तनियें होंगी । साधुओं को जाते देख किसी ने कहा कि पूज्यजी भगवान का तप-तेज देख टीला भाग छूटते हैं। इस पर हमारे चरित्रनायक जी वहीं ठहर गये। थोड़ी देर में पज्यजी आये और कहने लगे कि थे किणारा टोलारा साधु हो ? गयवर०-हम पूज्य श्रीलालजी महाराज के समुदाय के हैं। पूज्यजी०-थांको कांई नाम है ? गयवर०-हमारे गुरु महाराज का शुभ नाम मोडीरामजी महाराज है। पूज्यजी-पण थांको कोई नाम है ? गयवर०-मेरा नाम गयवरचन्द है। तब पूज्यजी ने अपने श्रावकों से धीरे से कहा कि इनको कहदो कि यहां क्यों ठहरे हो, आप खुशी से चले जावो । तदनुसार तेरह पन्थी श्रावकों ने कहाः-आप यहां क्यों ठहरे हो, प्राम दूर है, दिन चढ़ जावेगा तो आपको धोवण पाना नहीं मिलेगा, जाओ आपको कोई नहीं रोकता है, खुशी से चले जाओ। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ तेरह पंथियों के साथ चर्चा गयवर०-यदि कोई रोकना चाहे तो हम रुक भी सकते हैं। आप लोग तो इतनी दूर से पूज्यजी की सेवा करने को आये हैं, और हमें तो अनायास ही ऐसा संयोग मिल गया है। अतः हम लोग भी पूज्यजी की सेवा करेंगे। पूज्यजी समझ गये कि यह वही गयवरचन्दजी दीखता है कि जिस का एक वर्ष पूर्व गंगापुर में चतुर्मास था। उन्होंने श्रावकों से और कहा कि इन्हें चले जाने के लिये कह दो ! _____ श्रावकः-आप पधारें, वरना दिन चढ़ जावेगा। गयवर०-आपने शुरु में जो वचन निकाला, उसकी माफी मांग लें तो हम आगे जायेंगे, अन्यथा पज्यजी की सेवा में गंगापुर ही चलेंगे। .. पज्यजी:-के की माफी मांगां, थां के जाणो हो तो जाओ। इस प्रकार कहकर वे गंगापुर की ओर चल दिए। इतने में गंगापुर के लोग भी सामने आगये । तब गयवरचन्दजी ने गुरु महारज से कहा कि आज अपने को शकुन अच्छे नहीं हुए हैं, अतः आगे नहीं बढ़कर वापिस गंगापुर चले चलना ही ठीक है। ____गुरुजी:-शकुन तो ठीक ही हैं, आगे चलने में कोई हर्ज नहीं है; परन्तु यदि तुमको तेरह पन्थियों से चर्चा करनी हो तो बात दूसरी है। गयवर-जी हां, यही बात है ! गुरुजी:-तब चलो गंगापुर । बस आगे आगे पूज्यजी और पीछे पीछे मोड़ीरामजी । गंगापुर के समीप गये, तो आपके श्रावकों को मालूम हुआ कि मोड़ीरामजी महाराज वापिस पधार रहे हैं। अतः वे लोग Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान २४२ भी सब एकत्रित हो सामने आये । आपने नगर में प्रवेश किया तथा जहां तेरह पन्थी पूज्यजी ठहरे थे, उसके पास ही एक महेश्री की दुकान थी, उससे कहा कि भाई अगर तुम हमका ठहरने के लिये दुकान (केवल बाहर का भाग) देदो तों हम यहां ठहर जावें । महेश्वरी जान गया कि ये तेरह पन्थियों के कारण ही यहां ठहरते हैं, अतः उसने बाहर का भाग खाली कर दिया और मुनिजी वहां ठहर गये। रात्रि में प्रतिक्रमण के पश्चात् दोनों र व्याख्यान शुरु हुआ, जिसमें तेरह पन्थियों के व्याख्यान में तो केवल तेरह पन्थी ही थे, पर मुनिश्री के व्याख्यान में क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या जैन और क्या जैनेत्तर सारा नगर ही उलट पड़ा था। मुनि श्री ने अपने व्याख्यान का विषय रक्खा था 'दया और दान' । तेरह पन्थियों का व्याख्यान तो केवल घण्टे भर ही हुआ परन्तु मुनिश्री का व्याख्यान तो पूरे ढाई घण्टे तक बँचा । तेरह पन्थी लोग भी कान लगाकर सुनते रहे । वे आपस में कान फूँसी करने लगे कि इस झगड़ालूको किसने छेड़ा था अब इससे पीछा छुड़ाना बड़ा ही मुशकिल है, इत्यादि । जब मुनि श्री का व्याख्यान समाप्त हुआ, तो तीन तेरह पन्थी श्रावक ये और पूछने लगे कि आपका क्या इरादा है। क्या आप हमारे पूज्यजी से शास्त्रार्थ करना चाहते हैं ? गयवर०- - बेशक! पर शर्त यह है कि चार मध्यस्थों के बीच शास्त्रार्थ किया जावे, और जिसका पक्ष हार जावे, वह जीतने वाले का धर्म स्वीकार कर लेवे । तेरह०-मध्यस्थों का क्या काम है ? Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ तेरह पंथियों के साथ चर्चा गयवर०--आपकी प्रतीति नहीं है इसलिए मध्यस्थों कोपावश्यक्ता है। तेरह०-ऐसा शास्त्रार्थ करना हमारे ज्यजी नहीं चाहते ! गयवर-तब आपको कहा किसने था ? तेरह--आप बकवाद करते हैं न । गयबर०-हमको आमन्त्रित करके तो आप ही लाये हैं। तेरह०-किसने भामन्त्रित किया था आपको ? गयबर०-आपके पूज्यजी से पूछो कि टोला भागता है ऐसा कहने वाला कौन था ? तेरह-आपतो साधु हैं, यदि किसी बेवकूफ ने कह दिया हो तो आपको इतना गुस्सा क्यों आया ? गयवर०-हम साधु हैं, तब ही तो इस प्रकार धर्म का अपमान सहन नहीं कर सकते हैं। तेरह. इसके लिये आप क्या चाहते हैं ? गयवर-कहने वाला माफी मांग लेवे । इस पर उनमें से एक आदमी उठकर बोला कि मैं माफी मांगता हूँ। गयबर-आप ही कहने वाले हैं न १ तेरह: हाँ, हाँ ,मैंने ही कहा और मैं ही माझी माँगता हूँ। मुनि श्री को तेरह पन्थियों के साथ यह दूसरी विजय थो उस दिन से तेरह पन्थी पूज्य ने अपने साधु श्रावकों से कह दिया कि श्रीलालजी के साधुओं के साथ कोई भी चर्चा नहीं करे। बस मेरे खयाल से उस दिन से आज पर्यन्त तेरह पन्थी साधु श्रावक कहीं पर भी पूज्य श्रीनालजी के साधुओं से किसी प्रकार की चर्चा नहीं की। अस्तु, Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. मार्ग में मेघराजजी से मिलाप - तेरपन्थियों के माफ़ी मांग लेने पर दूसरे दिन मोड़ीरामजी महाराज ने अपने साधुओं के साथ विहार किया । आप क्रमशः विहार करते हुए ब्यावर से ६ कोस पर एक जीवाजा ग्राम में श्राये । यह खबर ब्यावर में मेघराजजी एवं कनकमलजी बोहरा को मिली। वे इक्का लेकर संध्या के समय वहां आये । प्रतिक्रमण के पश्चात् पहले तो मोड़ीरामजी के साथ उनकी वातचीत हुई। बाद में हमारे चरित्रनायकजी के पास में आकर वन्दन कर कुशलता पूछी और कहने लगे : 1 मेघराज - आपने तो अपनी श्रद्धा के लिए खूब प्रसिद्धता प्राप्त कर ली है । मुनिश्री — क्या करूँ, सच्ची बातें छिपाई नहीं जा सकती है। आज से नहीं, वरन् शुरू से ही मेरी आदत सत्य बात को निडर कह देने की है । मेघराज - महाराज आत्मार्थी मुमुक्षु सूत्रों का यह एक विशेष लक्षण हुआ करता है । अब आपका क्या इरादा है ? मुनिश्री - अब तो इस वेश का त्याग करना ही अच्छा समझता हूँ । मेघराज — नहीं महाराज ! वेष- परिवर्तन करना अच्छा नहीं है । मुनिश्री - क्या, जान-बूझ कर कुलिंग रखना अच्छा है ? मेघ - केवल लिंग में ही मोक्ष नहीं है । मुनि - पर कुलिंग के रखने से कभी न कभी तो उत्सूत्र बोलने का पान लग ही जाता है न ? Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ मार्ग में मेघराजजी का मिलाप मेष-यदि मौन ही रखाजाय, तो उत्सूत्र का पाप क्यों लगे ? .. मुनि-अपने सामने किसी का अहित होता हो, उस समय मौन रखना लाभ है या नुक्सान ? .... मेघ-किन्तु दूसरे काभला करने में अपना नुक्सान होता होतो? - मुनि-अपने नुक्सान का काम तो नहीं करे, लेकिन अपने भले के साथ दूसरे अनेकों का कल्याण होता हो तो? ... मेघ-वह काम तो अवश्य करना चाहिये। · मुनि-वेष-परिवर्तन से अपना भला तो है ही, पर साथ में अनेक भद्रिक जीवों का भी भला है, कि जो वे कुमार्ग जाते हुए बच जावेंगे। .: मेघ-पर बेष-परिवर्तन से आपस में वैमनस्य बढ़ेगा, उसके फर्म-बन्धन का कारण भी तो होना पड़ेगा न ? ... मुनि-ऐसी हालत में तो तीर्थङ्करों को भी मौन ही रखनी थी, किन्तु उन्होंने उपदेश देकर अनेकानेक अधर्मियों के अत्याचार पर कटार-धाव किया था। , ___ मेष-किन्तु मैं पूछता हूँ कि यदि वेष-परिवर्तन न किया जावे, खो क्या कल्याण नहीं हो सकता है ? मुनि-नहों। मेघ--क्यों ? . .: मुनि-जब तक वेष रहेगा, तब तक साधारण तौर से सत्य नहीं कहा जा सकेगा। यदि सत्य कहा जावेगा, तो वही वैमनस्य और निंदा से कर्मबन्ध का कारण होगा; अतः वेष त्याग कर डंके की चोट सत्य धर्म सुना कर कुमार्ग पर जाते हुए भद्रिकों का कल्याण क्यों नहीं किया जावे ? Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २४६ मेघ -- मेरी तो राय है कि वेष-परिवर्तन नहीं करना चाहिये । मुनि - - मेघराजजी साहब, सब जीवों की रुचि व प्रकृति एक समान नहीं होती है । कुछ व्यक्ति भले ही मौन करने में संतोष मान लें, किन्तु छती शक्ति गोप कर रखना भी तो एक महान् पाप है । यही कारण है कि केवल ज्ञान हो जाने पर भी तीर्थङ्करों ने पर जीवों के कल्याणार्थ धर्म देशना दी है, उसमें भी मिध्यात्व एवं दुराचार का जोरों से खण्डन किया है । फिर जनता उनको अच्छा समझे या बुरा, इसकी परवाह उन्होंने नहीं की थी। दूर क्यों जाते हो, स्वामी बुटेरायजी एवं श्रात्मारामजी यदि मौन कर वेष- परिवर्तन नहीं करते तो क्या इतना उपकार कर सकते ? लेकिन उन्होंने डंके की चोट सदुपदेश देकर पञ्जाब जैसे प्रदेश में भी जैन-धर्म का जोरों से प्रचार कर दिया । अतः मेरे खयाल से तो वेष परिवर्तन करना हानिकारक नहीं, अपितु बड़े भारी लाभ का ही कारण होगा । मेघ - कर्मचन्दजी तथा शोभालालजी महाराज की क्या राह है ? मुनि - वे वेष छोड़ने को तो तैयार हैं; किन्तु साधु बल बढ़ाने की राह देख रहे हैं, मेरे खयाल से वे भी लोकापवाद से ते हैं । मेघ - कम से कम उनकी राहा से तो आपको सहमत होना चाहिए । मुनि - मैं लाचार हूँ कि इस विषय में मैं उनके साथ नहीं रह सकता । * स्वामी कर्मचन्दजी और शोभालालजी काफी अर्से तक तो उसी वेश Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ मेघराजजी से चर्चा मेघ-तो क्या आप अकेले ही वेष का त्याग कर देवेंगे ? मुनि-मैं उनकी राह कब तक देखता रहूँ। मेघ-तो क्या आपने दृढ़ निश्चय कर लिया है ? मुनि-हां, निश्चय तो दृढ़ ही है, पर ऐसा संयोग "मिलेगा ब होगा। मेष-खैर, अभी तो आप ब्यावर पधारो। मुनि-क्षेत्र स्पर्शना। मेघराजजी, कनकमलजी तो प्रातःकाल हो ब्यावर चले गये; तथा मोडीरामजी महाराज एवं हमारे चरित्रनायकजी तीन दिन पश्चात् ब्यावर पधारे । भावकों की इच्छा गयवरचन्दजी से व्याख्यान बंचवाने की थी, किन्तु मोड़ीरामजी महाराज ने आज्ञो न देकर स्वयं ही व्याख्यान दिया, और ४ दिन ठहर कर जोधपुर की ओर विहार कर दिया। में व्हे. परन्तु भाखिर आप दोनों को उस वेष का त्याग कर गृहस्थधर्म की शरण लेनी.पड़ी। शोभालालजो ने जैन-तीर्थों की यात्रा की तथा ज्ञान का अभ्यास एवं प्रचार किया; परंतु जितना उपकार हमारे चरित्र नायक जी ने किया उतना वे नहीं कर सके। कारण आपने पहले से ही दीर्घ दृष्टि से काम किया था; स्थानकवासी मत एवं वेष का त्याग करके आपने सीधे ही संवेग पक्ष की दीक्षा ग्रहण कर ली, यही कारण है कि मापने सर्वत्र सत्य का डंका बजा दिया। स्थानकवासी साधुओं के साथ कई स्थानों पर शासार्थ हुए, परन्तु भार श्रद्धा और चारित्र भादि सब बातों में ही विजयी हुए। अतः श्रद्धा शुद्ध होने पर वेष-परिवर्तन करना हो. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ गुरु-शिष्य पूर्ण स्नेह के साथ अलग होते हैं जोधपुर स्थानकवासी समुदाय के लिए एक ऐसा क्षेत्र है कि जहां पांच, छः तो समुदाय हैं और उनमें भी मेल-मिलाप बहुत कम है । तथा वहाँ पर देशी प्रदेशियों के तो परस्पर हमेशा ही वैमनस्य चलता रहता है । हमारे चरित्रनायकजी शुरू से ही देशी साधु के उपासक थे। बाद में आपने दीक्षा प्रदेशी साधुओं के पास ले ली; यह बात देशी साधुओं को खटकती तो थी ही, फिर आपके मूर्तिपूजा की श्रद्धा का डंका बजने लगा । ऐसी हालत में देशी समुदाय वाले भी अपनी करनी में कब चूकने वाले थे ! उन्होंने इस बात को खूब जोरों से फैला दी कि देशी साधुओं ने न तो कभी मन्दिर-मूर्ति का खण्डन किया है और न मण्डन ही करते हैं; किन्तु परदेशी साधु, जो पहिले मंदिर मूर्ति का खण्डन करते थे, वे ही श्राज मण्डन करने लगे हैं । . उदाहरणार्थ, कर्मचंदजी, कनकमलजी, शोभालालजी और गयवरचन्दजी के नाम बतलाये जाते थे । मोड़ीरामजी महाराज ब्यावर से विहार कर क्रमशः जोधपुर पधार कर संघीजी के नोहरे में ठहरे । श्रावकों के आग्रह से व्याख्यान गयवरचन्दजी बांचते थे । गुरू महाराज भी व्याख्यान में विराजते थे, जिससे कि गयवरचन्दजी किसी प्रकार को प्रतिकूल प्ररूपना न करें । एक दिन बड़ी तिथी का व्याख्यान था, परिषदा का जमघट भी जोरदार था । व्याख्यान के बीच में ही एक श्रावक ने उठ कर प्रश्न किया: -- महाराज ! यदि Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ जोधपुर में मूर्ति पूजा कोई श्रावक जिन प्रतिमा का पूजन करे तो उसको क्या फल होता है ? इस पर गयवरचन्दजी ने अपने गुरु महाराज से कहा कि आप उत्तर दिलावें । श्रावक - नहीं, मैंने तो प्रश्न आप से ही पूछा है, अतः आप ही उत्तर दिलावें । मोड़ी-अभी व्याख्यान बॅच रहा है, बीच में प्रश्न करने की क्या आवश्यकता है। यदि प्रश्न पूछना है, तो दोपहर को पूछना | श्रावक - प्रश्न का खुलासा करना भी व्याख्यान ही है । इस विषय में बहुत से लोगों को शंका है; अतः व्याख्यान के प्रश्न का खुलासा व्याख्यान में ही होना चाहिए । साथ में दो-चार श्रावक और भी बोल उठे कि महाराज प्रश्न का उत्तर देने में क्या आपत्ति है; यदि आप जैसे विद्वानों से ही दिल की शंका नहीं पूछी जावे, तो और किससे पूछी जाय । तब गुरु महाराज ने गयवरचन्दजी को इशारा किया कि प्रश्न का उत्तर संक्षिप्त में दे देवें । गयवरचन्दजी ने सोचा कि यह प्रश्न तींवरीवाजों का चलाया हुआ है, और इसका उत्तर देने में अभी शोरगुल मच जायगा । अतः इस प्रश्न का उत्तर गुरु महाराज ही दें, तो ठीक है; एवं श्रपने पुनः गुरु महाराज से विनय की कि इस प्रश्न का उत्तर आप ही फरमावें तो ठीक रहेगा । मोड़ीरामजी जानते थे कि यह प्रश्न चर्चा का है, इसमें तर्क Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २५० युक्ति का काम है । यदि श्रावक तर्क करेंगे, तो मैं उसका समा अतः इस प्रश्न धान कर सकूंगा या नहीं, इसमें मुझे संदेह का उत्तर गयवरचन्दजी ही दें, तो ठीक है। बस, गुरु महाराज ने तो अपना पीछा यह कह कर छुड़ा लिया कि नहीं, श्रावक उत्तर तुम से ही चाहते हैं, इसलिए संक्षेप में उत्तर दे दो । गयवर - अच्छा भाई श्रावकजी। जिन - प्रतिमा का पूजन वन्दन करते हैं, वह प्रतिमा को क्या समझ कर करते हैं ? श्रावक - प्रतिमा को प्रतिमा समझकर ही नमस्कार करते हैं । गयवरः - नमस्कार करना तो किसी की ओर पूज्यभाव - ये बिना नहीं होता है; अतः नमस्कार करने वाले का प्रतिमा के प्रति पूज्यभाव अवश्य होता होगा, तब ही वह नमस्कार करता है । अब मैं यह पूछता हूँ कि उस प्रतिमा के लिए पूज्यभाव क्यों आता है ? श्रावक : - जिन - प्रतिमा होने से । गयवरः - जिन - प्रतिमा देख पूज्यभाव जिन के प्रति श्राता है या प्रतिमा के प्रति ? श्रावक - जिनके प्रति । गयवर — जिनके प्रति पूज्यभाव आना और नमस्कार करना यह दर्शन-शुद्धि यानि समकित निर्मलता का ही कारण है । श्रावक : - जिन - प्रतिमा को नमस्कार एवं पूजन करने से समकित निर्मल होता है, तब तो हमेशा जिन-प्रतिमा को नमस्कार और पूजन करना चाहिये ? गयवर - मना कौन करता है 1 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ जोधपुर में मूर्ति पूजा की चर्चा श्रावक-तो फिर आप भी मन्दिर में जाकर जिन-प्रतिमा को नमस्कार क्यों नहीं करते हो ? । गयवर-यह अपनी रुचि पर निर्भर है । यदि मैं मन्दिर में जाकर जिन-प्रतिमा को नमस्कार करूँ, तो मुझे कोई दोष नहीं है। ___ श्रावक-बस, महाराज मुझे इतना ही पूछना था। अब मैं अच्छी तरह से समझ गया कि आपके केवल वेष ही स्थानकवासी का है, किन्तु हृदय में श्रद्धा तो मूर्तिपूजक की ही है । गुरु महाराज इसका कुछ समाधान करने लगे थे, कि इतने में चारों ओर से हा-हु होकर आवाजें आने लगी, कि अरे ! महाराज तो मूर्तिपजक संवेगी हैं, इत्यादि। इनमें ज्यादातर देशी समुदाय के श्रावक थे, जो कि इस बात को चाहते भी थे । इस घटना से प्रदेशी समुदायवालों को नीचा देखना पड़ा और उन्होंने उसी समय एक तार नगरी (मालवा ) पूज्यजी महाराज को दिया, कि श्राज सार्वजनिक व्याख्यान में गयवरचंद जी ने मूर्ति-पूजा की पुष्टि की है। जवाब देवें कि क्या करना चाहिए? तार के जवाब में पूज्यजी ने लिखाया कि यहां से साधु भेजा जा रहा है, गयवरचंदजी को वहीं ठहरायो। पज्यजी महाराज ने नगरी से शोभालालजी को बहुत ही जल्दी जोधपुर भेजा, और वे चारों साधु बड़ी हो शीघ्रता से विहार बर जोधपुर आये। उन्होंने पज्यजी महाराज का संदेशा गयवरचन्दजी को सुनाते हुए कहा कि यह लिखत पूज्यजी महाराज ने भेजा है, इसमें १२ कलमें हैं। इनको मंजूर कर इसके नीचे सिद्धों की साख से हस्ताक्षर कर दोगे, तब तो आप समु Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २५२ दाय के साथ रह सकोगे; वरना पूज्यजी महाराज का हुक्म आपको समुदाय से अलग कर देने का है । वे १२ कलमें निम्न लिखित थीं : (१) मूर्ति पूजा की पुष्टि हो ऐसी प्ररूपना करनी नहीं । (२) छपे हुए तथा टीका के सूत्र बांचना नहीं । (३) धोवरण में जीव की शंका रखनो नहीं । (४) बासी रोटी खाने से इन्कार करना नहीं । (५) विद्वल वस्तु लेने में या खाने में ना कहना नहीं । (६) कोई भी मूर्ति पूजक व्यक्ति के साथ बात करनी नहीं । (७) किसी व्यक्ति को पत्र समाचार देना नहीं । (८) कोई भी मूर्ति पूजा के विषय में प्रश्न करें, तो उत्तर अपनी समुदाय की परम्परा की मान्यता के खिलाफ देना नहीं । (९) मात्रो (पेशाब) परठ कर हाथ धोने का आग्रह करना नहीं । (१०) चूना डालकर भी रात्रि में पानी रखना नहीं । शौच का काम पड़े तो समुदाय की परम्परा मुजब बर्ताव करना । (११) सूत्रों के टब्बा में कहीं पर मूर्ति का उल्लेख हो, तो उस पर श्रद्धा रखनी नहीं; तथा अन्य साधु ग्रों, आरजियों, या श्रावकों को वह अर्थ बतला कर मूर्ति की श्रद्धा करवानी नहीं । (१२) 'सावद्य पाप करी' अर्थात् जिस काम में थोड़ी भी हिंसा हो, उसमें धर्म व पुण्य मानने की श्रद्धा रखनी नहीं । इन १२ कलमों को पढ़कर हमारे चरित्रनायकजी ने कहा कि हम व्यापारियों को देखते हैं कि जहां साहूकारी होती है वहां वे चाणी मात्र से ही हजारों-लाखों रुपये की लेन-देन किया करते हैं, Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ जोधपुर में लिखिन की चर्चा और कहीं हस्ताक्षर नहीं करवाये जाते, अलबत्ता अविश्वासी एवं चोरों के लिए ऐसा कार्य अवश्य होता है । साधुओं में चोरों की भांति हस्ताक्षर करवाना तो हमने कहाँ पर भी नहीं देखा है। संयम लेना और पालना तो आत्मा की साक्षी से होता है । पर हस्ताक्षर करवा कर जबर्दस्ती फन्दा में फँसाये रखना, भले! ऐसी दूकानदारी कहां तक चल सकेगी। खैर, मैं एक बार पूज्य जी महाराज से मिल कर इन १२ कलमों का खुलासा न करल, तब तक इस लिखत के विषय में कुछ भी नहीं कह सकता हूं। ... शोभा-आप मेरे साथ चलकर पूज्यजी महाराज से मिल कर निर्णय कर लेवें। गयवर०-इस समय गर्मी सख्त पड़ती है, और पूज्यजी भी मालवा में दूर हैं, अतः चतुर्मास के बाद में जाकर पूज्यजी से मिल सकता हूं। शोभा०-किन्तु पूज्यजी महाराज की तो यह आज्ञा है कि इस लिखत के नीचे सिद्धों की साख से हस्ताक्षर कर देवें तो गयवरचन्दजी को शामिल रखना, नहीं तो समुदाय से अलग कर देना। . गयवर०-जैसी आपकी इच्छा; किन्तु मैं पूछता हूँ कि पाली में आपने ऐसा ही लिखत के नीचे हस्ताक्षर किये थे, या वह लिखत कोई और था ? शोभा०-हां, यह उस लिखत की ही नकल है। गयवर०-वाह शोभालालजी ! धन्य है आपकी श्रद्धा को, धन्य है आपकी प्रतिज्ञा को, धन्य है आपकी सत्य-प्रियता एवं वीरता को, और धन्य है आपकी लिखत-प्रवृति को! क्या श्राप Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २५४ नगरी में दिये हुए वचन का पालन करने के लिए ही यहां पधारे हैं ? शोभालालजी ! कम से कम ऐसा लिखत लेकर आपको तो नहीं पधारना चाहिए था । क्या आपको यह विश्वास था कि गयवरचन्द जैसा एक स्वतन्त्र विचार वाला साधु जान-बूझ कर इस मिथ्या लिखित पर चोरों की भांति हस्ताक्षर कर देगा ? खैर, मैं आपसे ही पूछता हूँ कि इस लिखित में लिखी हुई १२ बातों को आपने तो सच्चे दिल से स्वीकार कर ली है ना ? शोभा- नहीं, मैं इन बातों को कब मानता हूँ ? गयवर०—- तब तो हस्ताक्षर करना माया एवं कपट ही हुआ ! शोभा० - किन्तु जब मालिक ही माया करवाना चाहे, तब दूसरा क्या कर सकता है । गयवर० – क्या आपसे उस समय इन्कार नहीं किया जाता था ? क्या आपने वीतराग की आज्ञा को भी ठुकरा कर पूज्यजी के वचनों को ही सर्वोत्कृष्ट समझा है ? आपको तो यह भी मालूम है कि पूज्यजी स्वयम् मूर्तिपूजा को मानते हुए भी अपने लोगों को धमकाते हैं; तिस पर भी आप जैसे डरपोक साधु ने लिखित पर हस्ताक्षर कर दिए । भला, इतने ढूंढियों में से साधु निकल कर संवेगी हुए और कई ढूढियों में रहते हुए भी मूर्ति की श्रद्धा रखते हैं; किन्तु लिखित पर हस्ताक्षर करने की नजर आपने आज पर्यन्त कहाँ पर भी सुनी है ? शोभा०- नहीं । गयवर ० तो आपने हस्ताक्षर कैसे कर दिए, तथा मेरे से भी हस्ताक्षर करवाने के लिये कैसे आ गये ? इस बात पर मुझे बड़ा अफसोस होता है । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर में लिखित को चर्चा शोभा०- तुम तो हिम्मत बहादुर हो, हमारे से तो इस प्रकार नहीं कहा जाता है । गयवर २ - शोभालालजी साहिब, मेरा कहना याद रखना, आज मेरी बारी है; कल आपके लिये भी यही दिन आवेगा और आपको इस चौरपली से अलग होना पड़ेगा । पूज्यजी ने आज आपको प्रसन्न कर लिया है, लेकिन इनकी गति बदलते देर नहीं लगती है । २५५ इस जोरदार चर्चा को सुन कर मोड़ीरामजी महाराज श्राये । उन्होंने भी उस लिखित को पढ़ कर कहा कि साधुओं के लिए ऐसा लिखत करवाने की क्या आवश्यकता है ? 1 हमने अभी तक साधुत्रों के लिए ऐसा लिखित नहीं देखा है, क्योंकि श्रद्धा और संयम का पालना तो आत्मा की साक्षी से ही हो सकता है । यदि पूज्यजी महाराज को ऐसा ही करना था, तो जब जावरा में गयवरचन्दजी ने पूज्यजी से प्रश्न पूछा था, उस समय रूबरू क्यों नहीं किया । गबवरचन्दजी तो मूर्ति-पूजा के विषय का पाठ आज भी बतला रहे हैं; उसका समाधान न कर इस प्रकार लिखत करवाना तो एक प्रकार की कमजोरी ही है । क्यों शोभालालजी, तुमने भी पाली में ऐसा ही लिखित के नीचे दस्तखत किये थे और अब गयवरचन्दजी से करवाने के लिए आये हो ? शोभा० - मोडीरामजी महाराज, मैं क्या करूं, और इसमें मेरा कसूर भी तो क्या है ? जैसा पूज्यजी महाराज कहैं, वैसा तो करना ही पड़ता है । मोडी ० - शोभालालजी, यदि ऐसा लिखत पर किसी ने Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान २५६ हस्ताक्षर कर भी दिये और बाद में वह इन बातों को न भी पाले, तो क्या उस पर दावा किया जायगा ? जैसे आप स्वयं भी लिखत पर हस्ताक्षर कर उन सब कलमों का पालन नहीं करते हो ! इतना हो क्यों पर बड़े पूज्यजी की बनाई हुई कलमों का लम्बा चौड़ा लिखत किया हुआ पड़ा है, उसको कोई दूसरा तो क्या, पर खुद पूज्यजी महाराज भी नहीं पालते हैं। क्या पूज्यजी पर भी दावा होगा ? फिर इस प्रकार एक योग्य साधू का अपमान करने में मैं तो लाभ के बजाय हानि ही देखता हूँ। खैर, गयवरचन्दजी कोई ऐसा बच्चा तो नहीं हैं, यदि पण्यजीमहाराज की ऐसी ही आज्ञा है, तो इनको यहाँ ही रहने दो, और आप अपने विहार करो । शोभाः - महाराज, मेरा दिल तो नहीं चाहता है कि मेरे ही आने से गयवरचन्दजी अलग हो जाँय, पर क्या करूँ, मैं लाचार हूँ जो पूज्यजी के कहने से ऐसा लिखित लेकर मैं श्राया । -- * मोड़ी: - खेर, अपने तो कल विहार करना है । क्यों गयवरचन्दजी, तुम्हारी क्या मरजी है, क्या तुम यहाँ ही ठहरोगे ? गयवर — गुरु महाराज, जैसी आपकी आज्ञा । मैं अकेला रहने में घबराता तो नहीं हूँ, पर पूज्यजी महाराज इस प्रकार दावपेच से मुझे अकेला रखना चाहते हैं, इस बात का रंज अवश्य है । हां, एक बार पूज्यजी के पास जाकर जवाब सवाल कर लेता तो अच्छा था । मोड़ी:—क्या जवाब- सवाल करना है। पूज्यजी का कहना है कि तुम मूर्ति की प्ररूपना मत करो और तुम कहते हो कि मैं सत्य बात निःशंक होकर कहूँगा । बस, बात तो इतनी ही है न ? Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ गुरु-शिष्य का अलग होना अनन्त संसारी बनाना चाहते हैं, इसका तो अब उपाय ही क्या है ? और इस प्रकार मिथ्यात्व-युक्त पदवी को तो मैं एक विषसंयुक्त सुन्दर पकवान ही समझता हूँ। गुरु-गयवरचन्दजी, मैं इस बात को मानता हूँ कि सूत्रों में मूर्ति का पाठ बहुत जगह पर आता है । पूज्यजी स्वयं इस बात को जानते हैं, उन्होंने कई बार मुझे कहा भी था, किन्तु तुम यह सब बातें आम जनता में कह देते हो, इस बात को ही पूज्यजी महाराज सहन नहीं कर सकते हैं। गयवर०-किन्तु जानने के बाद सत्य बात को छिपा कर रखना अथवा उस बात को बदल कर कहना भी तो कर्म-बन्ध का कारण है। इस संसार में थोड़ी-सी वाह-वाही के लिये असत्य बात को फैलाना कौन समझदार व्यक्ति स्वीकार करेगा ? ___ गुरु-खैर, जैसा भगवान् ने भाव देखा वैसा ही हुआ और होगा । बन सके तो अभी, या अन्यथा चतुर्मास के बाद पूज्यजी महाराज से मिल कर सफ़ाई कर लेना, हमारा तो यही कहना है, फिर तुम्हारी इच्छा । इतना कह कर गुरु महाराज ने फलौदी का रास्ता लिया और हमारे चरित्रनायकजी पुनः जोधपुर पधार गये। यह शुभ दिन था चैत्र शुक्ला १३ का, जिस दिन जनता में छाया हुआ अन्धकार को दूर करने के लिये एक क्रांतिकारी दिव्य महात्मा ने जन्म लिया और जिसका शुभ नाम था भगवान महावीर ! ___ आज भी ऐसा ही निमित्त कारण मिला है कि जो मारवाड़ की भूमि पर फैला हुआ मिथ्यान्धकार को निर्मूल करने को तथा हमारे चरित्रनामकजी ने अपने स्वतन्त्र विचारों का प्रचार करने के लिये कमर कसी है । अहाह ! कैसा सुअवसर है । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamimararam.marrrrr. wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww आदर्शजान प्रथम-खण्ड-समाप्तम् AN Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आदर्शज्ञानद्वितीय खण्ड- प्रारम्भ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ विक्रम संवत् १६७२ के चैत्र शुक्ला १३ + विक्रम संवत् १६७६ के चैत्र शुक्ला १३ ts to की Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ लूनकरणजी लोढ़ा का तीवरी में मिलाप हमारे चरित्र नायकजी श्रद्धा एवं सचाई की धुन में अपने गुरूजी से पृथक् तो हो गये, परन्तु स्थान पर पाकर वे विचार में इतने तल्लीन हो गये कि उन्हें न तो क्रिया-काण्ड का ही ध्यान रहा और न गौचरी पानी का ही। इसका कारण यह था कि आप एक प्रतिष्ठित स्नानदानी घराने में से थे। दूसरी बात यह भी थी कि खास जोधपुर और आस-पास के प्रदेश में आपके बहुत से सम्बन्धी थे। और वे थे भी सब लोग स्थानकवासी अतः इस प्रकार अपने गुरूजो से पृथक् हो जाना निबन श्रात्मा के लिये लज्जाजनक भी था । अस्तु आपके मन में नाना प्रकार की तरंगें उठने लगों। - इस विचार में आप इतने व्यस्त हो गये कि शेष सारा दिन व्यतीत हा चला और जब दिन बहुत थोड़ा शेष रह गया वो आपने बिना भोजन किये ही प्रतिलेखन कर प्रतिक्रमण किया। तत्पश्चात् फिर आप इसी विचार में लग गये और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये ? इसी समय आपको चन्दनमलजी नागौरी सादड़ी वालों का स्मरण हो आया । सादड़ी में चन्दनमलजी ने जब कि मुनिश्री का चतुर्मास सादोड़ी में था एक बार निवेदन किया था कि जब कभी आपको किसी भी कार्य की आवश्यकता पड़े तो मुझे याद फरमा ताकि मैं आपकी सर्व प्रकार से सेवा करने में भाग्यशाली बनूं । पर अब बात यह थी कि चन्दनमलजी को सूचना कौन दे । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २६२ मुनिश्री के संसार पक्ष के भुड़ाजी भाग्यचंदजी डोसी जोधपुर में थे और आप थे भी मूर्तिपूजक श्रावक । सूर्योदय होते ही आपने क्रिया-काण्ड से निवृत्ति पाई । तत्पश्चात् प भाग्यचनजी की दुकान पर पधारे और अपना सारा वृत्तान्त सुनाने के बाद यह इच्छा प्रगट की कि चन्दनमलजी नागौरी छोटी सादड़ी वालों को तार द्वारा ऐसी सूचना दी जाय कि आप को वरचन्दजी ने याद किया है । इस बात को भाग्यंचन्दजी ने स्वीकार कर लिया । मुनिश्री जोधपुर से विहार कर महामन्दिर पधार गये । आपके पीछे जोधपुर में यह अफवाह सर्वत्र फैल गई कि प्रदेशी समुदाय का एक लिखा-पढ़ा विद्वान् साधू गयवरचन्दजी मूर्तिपूजा की श्रद्धा होने के कारण समुदाय से पृथक् हो कर महामन्दिर पवार गये हैं । इस बात को भाग्यचन्दजी के लघु भाई मिलाप - चन्दजी ने भी सुना और उन्होंने दूकान पर आकर भाग्यचन्दजी से सब हाल कहा । भाग्यचन्दजी ने मिलाप चन्दजी से कहा कि आज सुबह गयवर चन्दजी यहाँ पधारे थे और चन्दनमलजी नागौरी छोटी सादड़ी वालों को एक तार देने के लिये कह गये थे । अतः तुम जाओ एक तार दे आश्रो मिलापचन्दजी ने इसको स्वीकार तो कर लिया पर साथ यह भी कहा कि मैं पहले दीपचन्दजी साहब पारख से मिल लूँ तब बाद में तार दे दूंगा। तत्पश्चात् मिलापचन्दजी, दीपचन्दजी के पास पहुँचे और दीपचन्दजी सा० को सारा वृत्तान्त कह सुनाया । 1 दीपचन्दजी मिलपचन्दजी के साथ विचार करके महा मन्दिर गये और दोनों की मुनिश्री से एक घण्टे तक बात-चीत होती रही । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ जोधपुर के श्रावकों से वार्तालाप इस वार्तालाप से मिलापचन्दजी और दीपचन्दजी दोनों ही पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्हें निश्चय हो गया कि साधु बड़े ही विद्वान् हैं और सौभाग्य से यदि आप संवेगी हो गये तो आप दूसरे आत्मारामजी होंगे । दीपचन्दजी और मिलापचन्दजी ने मुनिश्री से निवेदन किया कि चन्दनमल जी को बुलाने की आपको क्या श्रावश्यकता है ? जिस कार्य की आवश्यकता हो हमसे कह दीजिये हम लोग सेवा करने को तैयार हैं । इस पर मुनिश्री ने फरमाया कि इस समय मुझे और तो काई कार्य की आवश्यकता नहीं है । मैं केवल यही चाहता हूँ कि किसी विद्वान् संवेगी साधु से मिलूं । 'i I 0 दीप - बहुत अच्छी बात है । इस समय ओसियाँ में परम योगिराज, महान विद्वान् मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज विराजे हुए हैं, जो आप १८ वर्ष ढं ढ़यों में रह चुके हैं। यदि आप फरमावें तो उनको यहाँ हम बुला लावें । - मुनिश्री — ऐसे विद्वान् महात्मा को क्यों कष्ट दिया जाय ? मैं स्वयं वहाँ जाकर मिल लूंगा, वहां जाने से मुझे श्रोसिया तीर्थं की यात्रा का भी लाभ प्राप्त हो जावेगा । दीप:- जैसी श्रापकी मरजी, यदि आपके साथ आदमी वगैरह की आवश्यकता हो तो फरमावें हम सब प्रबन्ध कर देंगे । मुनिश्री - नहीं, मुझे अपने साथ आदमी वग़ैरह की कोई आवश्यकता नहीं है । मैं तो स्वयं आदमी हूँ । दीप- ठीक है, आप ओसियाँ पधारें, हम लोगों को खबर मिलने पर हम भी वहां आयेंगे । इतना निवेदन करने के उपरान्त वे दोनों सज्जन बड़े हो हर्ष मनाते हुए वहां से चल कर जोधपुर पधार गये । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २६४ ___ इससे मुनिश्री के मन में संतोष हो गया और श्रोसियाँ जाने के लिये आपका उत्साह बढ़ गया। महामन्दिर में मुनिश्री के हमेशा व्याख्यान होते थे । कितने ही लोग जोधपुर से भी आपके व्याख्यानों को सुनने के लिये पाया करते थे । वे लोग पुनः समु. दाय में रहने के लिये भो प्रयत्न करते रहते थे परन्तु मुनिश्री तो जैसे सपं कंचूक को त्याग कर पुनः उसके सामने नहीं देखते वैसे ध्यान तक भी नहीं दिया। अलावा इसके जो लोग मुनिश्री के. समीप आते उन्हें सूत्रों के पाठ बतला कर कहा करते थे कि जैनसिद्धान्तों में मूर्तिपूजा के पाठ तो स्थान स्थान पर हैं । हम इस बात पर कहां तक पर्दा डालते रहें । और एक बात यह भी विचारणीय है कि जनता में जब यह उपदेश दिया जाता है कि एक अक्षर ही नहीं पर एक मात्रा तक न्यूनाधिक कहने मात्र से अनन्त संसार को वृद्धि होती है तो फिर मूल सूत्रों के पाठ एवं अर्थ को बिल्कुल ही निकाल देना एवं छिपा कर रखना कितना अन्याय है ? ... मुनिश्री ने कुछ समय तक महामन्दिर में निवास किया इसके उपरान्त विहार करते करते तीवरी ग्राम में पधारे। इस प्राम में गबूजी आदि तीन साधु वर्तमान थे। जब उन्होंने यह सुना कि गयवरचन्दजी यहां आये हुए हैं तो उन्होंने अपने भक्त लोगों से कहा कि गयवरचन्दजी भ्रष्ट हो गये हैं अतः उन्हें भोजन-जल, मकान इत्यादि किसी प्रकार को भी सहायता और आश्रय न दिया जाय । इतना ही नहीं पर उन्होने अपने भक्तों को यहां तक कह दिया कि उनके पास जाने तक में पाप लग जाता है। फिर स्वामीजी ने तो यहाँ तक ओर्डर दे दिया कि इनके पास सूत्र वगैरह है वह भी छीन लेना चाहिये । . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ लुनकरण जी की भेट - मुनिश्री ग्राम में इधर-उधर घूमते रहे, परन्तु किसी ने भी आप से आकर नहीं पूछा कि आपको किस वस्तु की आवश्यकता है । परिणाम स्वरूप आपको न तो भोजन जल मिला और न ठहरने के लिये मकान आदि का ही प्रबन्ध हो सका। फिर भो मुनिश्री हताश एवं निरुत्साह नहीं हुए । प्राम बाहर एक टूटी. फूटो छत्री थी वहीं जाकर आपने विश्राम किया। ___लूनकरणजी लोढ़ा मूर्तिपूजक समुदाय में एक मुख्य थे । जब आपको इस बात का पता चला कि इस प्रकार एक मुनिश्री पधारे हैं और प्राम बाहर एक जीर्ण और खण्डित छत्री में विराजे हुए हैं तो आप मुनिश्रीजी के पास पहुँचे और पूछाः लूनकरणजी-आपका शुभ नाम मैं जान सकता हूँ? मुनिश्री-मेरा नाम गयवरचन्द है। लून०-श्राप अकेले कैसे हैं ? और यहां कैसे निवास किया ? मुनिश्री-जोव मात्र अकेला है, और यहां ठहरने के लिये तो साधुओं को जहाँ स्थान मिलजाय वहीं ठहर जाते हैं। ___ मुनिश्री के ऐसे विनम्र भद्रतापूर्ण उत्तर को सुन कर लोढ़ानी समझ गये कि जिनके लिये मैंने जोधपुर में सुना था ये वे ही मुनिश्री हैं । तदन्तर लूनकरणजी ने पूछा कि क्या आपने . शाबों का भी अध्ययन किया है ? मुनिश्री ने उत्तर दिया-यथाक्षयोपशम । लनकरणजी ने मुनिश्री से निवेदन किया कि आप नाम में पधारें। आपके लिये मकानादि सर्व प्रकार का प्रबन्ध हो जायगा। मुनिश्री ने कहा- नहीं भाई, आप व्यथ क्यों कष्ट करते हो, Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २६६ मुके स्थान आदि को चिंता नहीं है, मैं तो श्रोसियाँ जा रहा था, मार्ग में ग्राम आ गया अतः मैंने यहां विश्राम ले लिया है। ___लूनकरणजी-खैर, आप ओसियां पधारें लेकिन अभी एक दो दिन तो इसी ग्राम में विराजें और दो एक व्याख्यान भी दें ताकि यहाँ के लोगों का आपकी विद्वता और पाण्डित्य का परिचय मिले अन्यथा उन्हें आपके उपदेशों का ज्ञान-लाभ कैसे हागा और वे क्या जानेंगे कि हमारे ग्राम में अमुक साधु आये थे। ___ मुनिश्री-लोढ़ाजी के आग्रह और निवेदन से ग्राम में पधारे और एक मकान में निवास स्थान किया। तदन्तर मुनिश्री गौचरी जल लाये और आवश्यक कार्यों से निवृत्त हुए ही थे कि लनकरण जी लोढ़ा एक धर्म पुस्तक लेकर मुनिश्री के पास आये और मुनिश्री के सन्मुख निम्न लिखित गाथा रख कर अर्थ समझाने के लिये कहागाथा-"उमग्ग देसणा मग्ग नासणा, देव दब्य हरिण । हंसण मोह जिण मुणि चेहय, संघाइ पडाणियो॥५६॥ ___'कर्म ग्रन्थ प्रथम, इस मूल गाथा को पढ़ कर मुनिश्री ने इस प्रकार अर्थ किया-"सद्मार्ग का लोप करना, उन्मार्ग का उपदेश देना, देव द्रव्य का हरण ( नाश ) करना, जिन, मुनि, चैत्य (मन्दिर) तथा चतुर्विध श्री संघ का प्रतनिक (बैरी) यानना एवं निंदा करना, इन पूर्वोक्त कारणों से जीव दर्शन मोहनीय कर्म का बन्ध करता है । 'लूनकरणजी इस अर्थ को सुन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए और Page #346 --------------------------------------------------------------------------  Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AILS OROळळ-*-*-*-*-*-on परमोपयोगीराज . गुरुवर्य -रत्नविजयजी महाराज साहिब (जन्म सं० १९३२) OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOD PCOCOCOCOCOCCOCOCOCOCOCOCOCOCOCOCOOCOCOCOCOCOCOCOCOCOCC स्था० दीक्षा १९४२ * जैन दीक्षा १९६० स्वर्गवास सं० १९७७ 00ळ00* *ळOOOOOF Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे चरित्र नायक स्थानकवासी साधु गयवरचन्दजी S Page #349 --------------------------------------------------------------------------  Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ लुनकरण जी से वार्तालाप कहा कि आपने यथार्थ फरमाया। अब आपकी श्रद्धा भी यही है ना ? लोढ़ाजी ने जानना चाहा । ___ इस पर मुनिश्री ने उत्तर दिया कि हाँ, यही जिनाज्ञा है, इसके विपरीत मेरी श्रद्दा कैसे हो सकती है ? ___ इसके पश्चात् तो लूनकरणजी और मुनिश्री में दिल खुल कर बातें हुई। लोदाजी ने मुनिश्रा से निवेदन किया कि आप किसी बात की चिंता न करें । यह कार्य वीर पुरुषों का है, और आप स्वयं वीर हैं, आप खूब ही उत्साह से कार्य करें। मैंने अपने इस जीवन में एक लाख रुपया हाथों से कमाया है और उसे व्यय करने का पूर्ण अधिकार भी मुम को स्वाधीन है। अतः आपकी आज्ञानुसार जहाँ जितने द्रव्य की आवश्यकता होगी मैं व्यय करने को तैयार हूँ। यदि दीक्षा का अवसर आ गया तो हम दो-तीन व्यक्ति दीक्षा लेने से भी पीछे नहीं रहेंगे। हम लोग आपके प्रत्येक कार्य को तन, मन, और धन से सहायता करने के लिये तैयार हैं आप तो भगवान महावीर के सिद्धान्त एवं धर्म को डंके की चोट बतलाया करें। लोदाजी के इन शब्दों से मुनिश्री अत्यन्त प्रसन्न हुए और कहा कि आप लोगों का यहो कर्त्तव्य है। धर्म के लिये प्राणोमात्र को सर्वस्व अर्पण कर देना चाहिये । पर इस समय तो मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । जब जरूरत होगी आपको. याद करूंगा । कल तो मेरा इरादा ओसियां जाने का है ? . ___ लोढ़ानी- और, कल तो आप यहीं व्याख्यान फरमावें । यदि आपको यहाँ ठहरने में कुछ लाभ मालूम हो तो कुछ रोज ठहरने की कृपा करावें वरन विहार तो करना ही है । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २६८ लोढ़ाजी के निवेदन और आग्रह पर मुनिश्री ने एक दिन के लिये व्याख्यान की स्वीकृति देदी । ___ तत्पश्चात् श्रीमान् लोढ़ाजी ने ग्रामनिवासियोंको इस बात की सूचना देदी कि कल मुनिश्री गयवरचन्दजी का पब्लिक व्याख्यान होगा तथा इसके सम्बन्ध की समस्त तैयारियां कर दो। दूसरे दिन मुनिश्री का आम जनता में भाषण हुआ। भाषण का विषय था 'उन्नति' । मुनिश्री ने समाजोन्नति, धर्मोन्नति एवं आत्मोन्नति इन विषयों पर तीन घण्टे तक भाषण दिया। आपके भाषण से क्या जैन क्या जैनेतर सब लोग बड़े प्रभावित हुए एवं मंत्रमुग्ध बन गये । भाषण के पश्चात् श्रोताओं ने मुनिश्री से , प्रार्थना की कि आप कम से कम दो चार मास तक यहीं विराजें और हम लोगों को भाषणों द्वारा सद् उपदेश प्रदान करें। ____ मुनिश्री तो पहले ही ओसियां जाना निश्चय कर चुके थे। आपने उनसे कहा कि मेरा तोकल ओसियां की ओर विहार करने का इरादा है अतः मैं आप लोगों के आग्रह को स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। किन्तु जनता कब मानने वाली थी उन्होंने आखिर मुनिश्री से केवल ४ दिवस ठहरने के लिये ही विशेष आग्रह और प्रार्थना की, तथा लूचकरणजी वगैरह के श्राग्रह से मुनिश्री ने चार दिन भाषण करने की और स्वीकृति दे दी। ___आपका दूसरा व्याख्यान 'धर्म' विषय पर हुआ इसी प्रकार तीसरा 'मनुष्य कर्तव्य' चौथा संगठन और अन्त में 'मैं अकेला क्यों तथा मेरी श्रद्धा में परिवर्तन कैसे हुआ ?' इस विषय Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ चतुर्मास की धाग्रह पर हुए । आपके इन व्याख्यानों से जनता का मानस आपके चरणों में भूकगया वह जोग आपको कब जानेदेने वाले थे। __तत्पश्चात् लोढ़ाजी ने मुनिश्री से निवेदन किया कि कम से कम एक चतुर्मास आपका यहां हो जाय तो यहां की जनता को बड़ा भारी लाभ पहुँचेगा । इस समय यहां ३० घर स्थानकवासी प्रदेशी समुदाय के हैं जो आपके विरुद्ध हैं । १२५ घर देशी स्थानक समुदाय के हैं और ये लोग मूर्तिपूजक समुदाय से मिलते-जुलते रहते हैं । मन्दिर एवं वरघोड़ा में इन लोगों का आना-जाना भी है । इस समय आपके मुख पर मुंहपट्टी बंधी हुई है आप देशी स्थानकवासियों की प्रार्थना स्वीकार कर यहां चतुर्मास व्यतीत करें। आपके इस प्रकार चतुर्मास करने से उन लोगों पर भी अधिक असर पड़ेगा। इस पर मुनिश्री ने कहा कि मेरा निश्चय तो यह है कि पहले ओसियाँ जाकर योगिराज श्री का दर्शन करूँ और तत्पश्चात् चातुमाम का निर्णय करूँ। - इस पर लोदाजी ने कहा-आप इसकी फिक्र न करें। हम सब लोग आपके साथ चल कर ओसियां की यात्रा और योगि राज से भेंट करवा देंगे पर इस समय स्थानकवासियों का प्रेम आपकी ओर उमड़ा हुआ है। अतः चातुर्मास की प्रार्थना स्वीक र करना ही लाभ दायक है। हम मूर्तिपूजक तो आपके भक्त हैं ही खर्च इत्यादि जो कुछ होगा वह सब हम लोग करेंगे ही किन्तु चातुर्मास स्थानकवासी लोगों की प्रार्थना को स्वीकार कर किया जाना अत्यन्त सुन्दर फल का द्योतक है। लोढ़ाजी के इस विशेष आग्रह पर मुनिश्री ने स्वानगी तौर Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श -₹‍ -ज्ञान द्वितीय खण्ड २७० 1 पर कह दिया कि ठीक है स्थानकवासी लोग विनती करेंगे तब देखा जायगा । लोड़ा जी ने मुनिश्री का अभिप्राय ले लिया पश्चात् स्थानकवासियों के पास गये । और उन्हें सर्व प्रकार समझाया कि"ये प्रदेशियों के विद्वान् साधु इस प्रकार सहज ही में अपने हाथ लग गये हैं। यदि आप लोग इनका चातुर्मास यहां करवादें तो बड़ा ही लाभ का सुअवसर है। आपके विद्वतापूर्ण भाषण और सूत्रों को श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया है । इस अवसर पर यहां प्रदेशी - साधुओं का भी चतुर्मास है । उनसे बदला लेने का भी यह सुयोग प्राप्त हुआ है । मुनिश्री को यहाँ से किसी प्रकार भी नहीं जाने देना चहिये । इस शुभ कार्य में जो कुछ भी कार्य एवं द्रव्य व्यय होगा सब हम करेंगे। अप तो केवल विनती कर चातुमस मुक़र्रर करवा लें इत्यादि । ― की ये बातें उन लोगों के मन में उतर गईं। उन सबने मुनिश्रीजी से चातुर्मास तीवरी में ही करने की आग्रह पूर्वक विनती की जिसे मुनिश्रीजी लाभालाभ का कारण जानकर स्वीकार कर ली । इससे उन लोगों में अपार हर्ष छा गया किन्तु प्रदेशीसमुदाय वालों को मुनिश्री का तीवरी चतुर्मास होना एक दुःख का कारण अवश्य था पर वे विचारा इसक उपाय भी तो क्या कर सके क्योंकि घर की फूट का यही नतीजा हुआ करता है । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अोसियाँ तीर्थ पर योगिराज का मिलाप तीवरी के देशी स्थानकवासियों की विनती को स्वीकार कर मुनिश्री ने तोवरी में चातुर्मास करना निश्चय कर लिया, इस हालत में प्रदेशी समुदाय वाले चर्चा और निन्दा करें यह तो एक स्वभाविक बात थी। उन्होंने कहा कि गयवरचन्दजी श्रद्धा से भ्रष्ट हो जाने पर पूज्यजी महाराज ने अपनी समुदाय से निकाल दिया, ऐसा पतित साधु चातुर्मास कर समाज का क्या भला करेगा। इस पर देशियों ने जवाब दिया कि देशी समुदाय वालों ने न तो आज पर्यन्त मूर्ति को निन्दा की, न सूत्रों के पाठ को छिपाया और न गलत अर्थ ही किया है । हाँ, यह कार्य प्रदेशियों ने जरूर किया । यही कारण है कि आत्मारामजी वगैरह प्रदेशियों के साधु निकल २ कर संवेगी हुए हैं, यदि गय. वरचन्दजी महाराज भी संवेगी हो जावेंगे तो हम क्या करें, शर्म आनी चाहिये प्रदेशियों को, इत्यादिकई प्रकार की चर्चा होती रही ! फिर भी मुनिश्री कई दिन तक तीवरी में ठहर कर डंके की चोट व्याख्यान देते हो रहे, और आप यह भी कहते रहे कि यदि किसी के अंदर सत्यता एवं शक्ति हो वे मेरे सामने आवे । पतित मैं हूँ या मुझे पतित कहने वाले पतित हैं । श्रद्धा और आचार इन दोनों के विषय श्राप व्याख्यान में ही खुलासा कर दिया करते थे, जिसमें देशी समुदाय वाले तो केवल आप पर ही नहीं बल्कि मूर्ति के प्रति भी श्रद्धा सम्पन्न बन गये । बाद में श्राप २५ श्रावकों के साथ श्री ओसियाँजी तीर्थ पर Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २७२ पधारे, सबसे पहिले आपने भगवान महावीर के मन्दिर में जाकर वीतराग की शान्त मुद्रा के दर्शन किए। आपको उस समय इतना हर्ष हुआ कि हाथ में ओघा लेकर नाचने लग गये और कहने लगे कि हे प्रभो ! मेरे किस जन्म के अंतराय कर्मों का उदय हुआ था कि मैं आपके दर्शनों से वंचित रहा ? दर्शन करने के बाद परम योगिराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज से मिले । योगिराज को पहिले से ही जोधपुर से सूचना मिल हुई थी तथा आप इतने मिलनसार थे कि आपके पास आते ही मुनिश्री का बड़ा आदर सत्कार किया। ___ रात्रि में दोनों मुनिवरों में ठीक ज्ञान चर्चा हुई, जिसमें मुनिश्री के शास्त्रों का अभ्यासक को सुन कर हमारे योगीराज बहुत ही प्रसन्न हुए । जब मुनिश्री ने दीक्षा की बात निकालो तो योगिराज ने कहा कि आप अभी नये हैं, इतनी जल्दी क्यों करते हो इस संवेगी समुदाय में भी कई गच्छ हैं और थोड़ी २ बातों में वे एक दूसरे को मिथ्यात्वी कहते हैं । अतः आप पहिले वर्तमान में जितने गच्छ विद्यमान हैं, उनका परिचय करलो फिर जिसकी ओर आपका दिल लग जाय वहाँ दीक्षा ले लेना । यदि आप बिना सोचे उतावले होकर काम करेंगे तो अन्त में आपको पछताना पड़ेगा। ढूंढिये तो विचारे एक छोटासा तालाब है पर यहां तो बड़ा समुद्र है, अतएव मेरी सलाह है कि आप जो कुछ करना चाहें वह धैर्य पूर्वक दीर्घ दृष्टि से सोच समझ कर ही करें। मैं इस बात का अनुभव कर पक्का भौमिया बन चूका हूँ, इसलिए आपको यह सलाह दे रहा हूँ।" इस प्रकार की निस्पृह और नेक सलाह सुन कर हमारे चरित्र Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ ओसियां तीर्थ की यात्रा नायकजी ने विचार किया कि आज शिष्य बनाने के लिए जहाँ अन्य साधु कई प्रपंच करते हैं पर यहाँ इन योगीराज को मेरे जैसा घड़ाघड़ाया साधु हाथ लग जाने पर भी कुछ परवाह ही नहीं है यह वास्तव में श्रात्मार्थी मुमुक्षु हैं । तीवरी वाले श्रावकों और योगिराज के बीच जो बातें हुई उनमें यह तय हुआ कि मुनिराज १२ वर्ष तक मुँहपर मुँहपत्ती बँधी रख कर इसी वेष में सदुपदेश करते रहें। इससे शासन को बड़ा भारी फायदा पहुँचेगा और हम तन मन धन से इनकी सहायता करते रहेंगे । यह बात जब मुनिश्री को सुनाई गई तब आपने भी इसके लिए अपनी सम्मति दे दी । मुनिश्री को कुछ कविता करने का भी शौक था। आप प्रतिदिन एक नया स्तवन बना कर ही मन्दिर में जाकर प्रभु की स्तवना किया करते थे । एक दिन जब आप प्रतिमा-छत्तीसी की रचना कर मन्दिर में जाकर बोल रहे थे, उस समय योगिराज भी मन्दिर में उपस्थित थे । जब उन्होंने इसे ध्यान लगा कर सुना तो उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा क्योंकि इस एक छोटीसी कविता में मूर्ति विषय के ३२ सूत्रों के स्थान बतलाये गये थे जो कोई साधारण बात नहीं कही जा सकती; मन्दिर से बाहर आने के बाद योगिराज ने अपनी नोटबुक में प्रतिमा - छत्तीसी ज्यों को त्यों उतारली । ओसियाँ तीर्थ का काम उस समय फलौदी निवासी सेठ: फूलचन्दजी गोलेच्छा देखते थे। आप धार्मिक काययों में विशेष भाग भी लेने वाले अच्छे धर्मात्मा पुरुष कहलाते थे । किन्तु ओसियाँ तथं की आय - व्यय के हिसाब का लिए न तो उस तीर्थ पर Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड २७४ कोई पेट थो न रसीद बुक थी और न था कोई हिसाब किताब | यही कारण था कि लोगों में अफवाएँ फैल गई थी कि ओसियाँ तीर्थ के हजारों रुपयों का रावन हो रहा है । उनका कोई हिसाब भी नहीं है । इस अफशर का दूसरा कारण यह भी था कि फलोदी की कई साध्वियों ने जो दीक्षा लेते समय रकम जमा कराई थी वह भी गायब थी। तीसरा, कई गुजराती भाइयों की शिकायतें भी थी कि ओसियाँ तीर्थ के नाम से जो रकम इमसे इकट्ठी की गई है उसकी न तो हमको रसीदें मिली हैं और न हमें यह हिसाब ही बतलाया गया है कि हमारी रकम कहाँ लगाई गई है। योगिराज ने इन सबको जान कर सेठजी को उपदेश दिया कि इस तीर्थ पर एक पेढ़ी खोज दी जाय, जिससे श्राय व्यय का हिसाब साफ रहा करे । सेठजी ने योगीराज की योजना स्वीकार करके पेढ़ी खोलने का निर्णय कर लिया गया। इससे एक बात यह भी हुई कि कार्यकर्त्ताओं ने सोचा कि यहाँ पेढ़ी खुल जाने से इसके पूर्व का हिसाब कोई नहीं पूछेगा और अपनी साहूकारी का सिक्का ज्यों का त्यो बना रहेगा ।. बैसाख शुक्ला १५ को श्री मन्दिरजी में बृहत् शान्ति स्तोत्र पढ़ा कर उसी दिन पेढी की स्थापना करवाई गई । वहाँ का मन्दिर महावीर स्वामी का था और उसकी प्रतिष्ठा आचायं रत्नप्रभसूरि ने करवाई थी । अतः उनकी स्मृति के लियेही पेढी का नाम भी " मंगलसिंह रत्नसिंह” रख दिया गया । इधर तो मन्दिर में बड़ी शांति से शान्ति स्नात्र पूजा भणाई जा रही थी, उधर जोधपुर से हमारे चरित्र नायकजी के संसार पक्ष के त्रासाब छोगीबाई वगैरह जो कि कट्टर स्थानकमार्गी थे Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ दया के विषय प्रश्नोत्तर वहां आ गये थे। मुनिश्रीको पूजा में बैठे हुए देख कर वे तो यहां तक कहने लगे कि “गयवरचंदजी महाराज तुम्हारी ९ वर्ष की दया कहां गई ? तुमने हमारे कुल को कलंकित कर दिया। "अरे ! तुमको पैदा होते ही सर्प ने क्यों नहीं काट खाया, यदि तुम मर जाते तो हमको इतना दुःख नहीं होता जो कि इस प्रकार संवेगी होने में हो रहा है।" मुनिश्री ने उत्तर दिया--"बाईजी ! मानो कि मेरे दिल में तो दया न होगी, पर आप तो दया के अवतार ही हैं, जो कि इस धर्म स्थान में एक साधु के लिये इस प्रकार निर्दयत्ता के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। आपके लिये हम दिल में दया लाने के सिवाय और क्या कर सकते हैं ? बाईजी ! आपको अभी रसोई करने और धोवन पीने से अधिक ज्ञान नहीं है।" इस प्रकार शांति पूर्वक शब्दों से उन्होंने बाईजी को शांत किया । शांति स्तान के समय शुभमुहूर्त में जो पूर्णिमा के दिन योगीराज के वासक्षेप से पेढी की स्थापना हुई वह आज पर्यन्त अपनी उन्नति करतो हुई चली आ रही है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ प्रोसियाँ में स्था० श्रावकों का श्रागमन जब पूज्यजी ने यह समाचार सुना कि जोधपुर में गयवरचंदजी अलग हो गये और मोड़ीरामजी आदि सब साधुओं ने फलौदी की ओर विहार कर दिया है, तो उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ कि मैंने गुस्से के वशीभूत होकर एक सुयोग्य, होन हार साधु को अपने हाथों से खो दिया, किंतु अब पछताये क्या होता है, जब चिड़िया चुग गई खेत । खैर, गयवरचंदजी के विषय में पूज्यजी महाराज के पास समय समय पर समाचार पहुँचते ही रहते थे । पूज्यजी ने यह भी सुना कि तोवरी के देशी समुदाय वालों ने विनती कर गयवरचंदजी का चतुर्मास तीवरी में कराने का निश्चय किया है और इस समय वे श्रीसियां गये हैं। उन्हें यह भी मालूम हुआ कि वहां एक संवेगी साधु है, जो १८ वर्ष ढूँढ़ियों में रह कर संवेगी हुआ है । शायद गयवरचंदनी उनके पास संवेगी हो जावें ऐसा अनुमान लगाया गया किंतु फिर उन्होंने सुना कि अभी तक तो उन्होंने अपने मुँह पर मुँहपत्ती बांध रखी है; और सम्भव है कि वे र्तवरी का चतुर्मास इसी वेष में व्यतित करेगा । पूज्य महाराज विहार करते हुए जावद पधारे। वहाँ पर गेनमल जी चौधरी ने उन्हें उपालम्भ दिया कि आपने थोड़ी सी बात के लिए गगवरचंदजी जैसे सुशिक्षित और सुयोग्य साधु को समुदाय से अलग कर दिया यह ठीक नहीं किया, क्योंकि आपके समुदाय में कोई ऐसा एक भी साधु नहीं है जो आपकी पूज्यपदवी को संभाल सके । केवल गयवरचंदजी ही इस पद के योग्य थे । 1 पूज्यजी ने कहा, गेनमलजी ! इस बात का तो मुझे भी रंज Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ पूज्यजो का पश्चाताप है, पर क्या करूं ? जोधपुर वालों का तार देख कर उस समय मुझे क्रोध आगया था और मैंने शोभालालजी को भेज कर उनसे कहला दिया था इत्यादि यह मेरे उस क्रोध का ही फल है । गेनमल जी ने उत्तर दिया-"पूज्य महाराज ! आप भी गजब कर रहे हैं कि साधुओं से जबरन लिखित करवाते हैं। क्या पहिले भी कभी ऐसा लिखित किसी पूर्व पूज्यों द्वारा करवाया गया था ? शोभालालजी महाराज ने तो आपके दबाव से लिखत कर दिया, किंतु गयवर चन्दजो ऐसे नहीं थे कि वे इस प्रकार लिखत कर देते । मेरा तो ख्याल है कि यदि अब भी कोशिश की जावे तो गयवरचन्दजी पुनः पा सकते हैं।" - पूज्य महाराज ने कहा, "गेनमलजी ! गयवरचंदजी केवल विनयवान ही नहीं पर एक विद्वान हमारे सलाहगीर साधु था। मैंने कई बार उसे उपालम्भ दिये, पर उसने मेरा एक बार भी अनादर नहीं किया। मैं कभी नहीं चाहता था कि मेरा ऐसा साधु चला जाय । पर क्या कहा जाय वह समय ही ऐसा था खैर अब भी कोई उपाय हो तो आप ही करें और गयवरचंदजी को किसी तरह वापिस लावें।" ____ इधर रतलाम, उदयपुर, बीकानेर आदि प्रामों के श्रावक पूज्य महाराज के दर्शनार्थ आये थे। जब उनके सामने गयवरचंदनी की चर्चा चली तो उन लोगों को भी उनका चला जाना नागवार गुजरा। इस पर गेनमलजी ने कहा कि "यदि आप लोग मेरे साथ चलें तो सम्भव है कि मैं समझा-बुझा कर गयवरचंदजी को एक दफे पूज्यजी की सेवा में लाकर हाजिर कर सकुँ" पूज्य महाराज ने भी इसी विषय का उपदेश दिया। जिससे दो १८ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २७८ उदयपुर के, दो रतलाम के, दो बीकानेर के और एक जावद का, कुल ७ श्रावक जावद से रवाना होकर श्रोसियाँ आये । ___ वहाँ पहिले तो उन्होंने जाकर मन्दिर में श्रीमहावीर देव की मूर्ति के दर्शन किए । उस शाँत मुद्रा मूर्ति का उन लोगों पर इतना जबरदस्त प्रभाव पड़ा कि वे इस बात को अच्छी तरह समझ गये कि मूर्ति में मनुष्य का कल्याण करने की अपूर्व क्षमता है । मन्दिर से बाहर आते ही योगिराज के दर्शन हुए। योगिराज ने कहा, "क्या गयवरचंदजो को लेने के लिये आये हो ?" श्रावकों ने उत्तर दिया, हाँ। योगिराज ने कहा कि “गयवरचंदजी ऊपर बैठे हैं आप खुशी से उनको समझा बुझा कर ले जा सकते हैं।" योगिराज को गयवरचन्दजी के विषय में पूर्ण विश्वास था कि उनक हल्दी के समान रंग हल्का नहीं, अपितु क्रीमची रेश्म के समान रंग पक्का है । दूसरा उनकी परीक्षा भी हो जायगा। श्रावक चल कर हमारे चरित्र नायकजी के पास आये । बन्दन के बाद पहिले तो वे इधर उधर की बातें करने लगे। फिर वे अपने मतलब की बात पर आये और बोले कि "महाराज ! आप इतने समझदार और विद्वान् हैं पूज्यजी महाराज की भो आप पर पूर्ण कृपा है । फिर इन सब बातों के होते हुए भी आपने यह क्या किया ? आप किस खान दान के हैं तथा आपने किस त्याग और वैराग्य के साथ दीक्षा ली थी, इन बातों का जरा आप विचार कीजिए।" मुनिजी ने उत्तर दिया, "यह कार्य अशिक्षित और ना समझ लोगों का नहीं अपितु समझदार और विद्वानों का ही है । जो खामदानी, के त्यागी वैरागी और आत्मार्थी होते हैं, वह लोग ही Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ पूज्य पदवी की प्रार्थना लोकापवाद की तनक भी परवाह न कर वीतराग के सत्य मार्ग का अवलम्बन कर अपना कल्याण कर सकते हैं।" श्रावकों ने पूछा-"क्या आप जिस मार्ग का अवलम्बन करने को उद्यत हुए हैं, उसके सिवाय और कहीं पर आत्म कल्याण है ही नहीं ? यदि ऐसा है तो फिर शास्त्रों में स्वलिंगी, अन्यलिंगी और गृहलिंगी सिद्ध होना क्यों कहा है ?" मुनि-गृहलिंगी एक समय ४, अन्य लिंगी एक समय १०, और स्वलिंगी एक समय १०८ सिद्ध होना शास्त्रकारों ने बतलाया है । इस पर आप समझ सकते हैं कि धौरी मार्ग स्वलिंगी का ही है । मैं आज मूर्ति की उपासना करता हूँ और मुँहपत्ती का डोरा दूर रखने को तैयार हुआ हूँ यही तो धौरी मार्ग है।" ____ श्रावक-"मूर्ति की उपासना करने से और मुंहपत्ती का डोरा तोड़ देने से आपका कल्याण हो जावेगा न ? और क्या मर्ति न पूजने वाले. या डोराडाल दिनभर मुँह पर मुंहपत्ती बांधने वाले सबके लिये कल्याण का मार्ग रूक जायगा। या वे सब लोग नकही में जावेंगे ?" ____ मुनि-मूर्ति न पूजने और डोराडाल, दिनभर मुंहपर मुंहपत्ती बांधने से केवल इतना ही नुकसान नहीं होता, बल्कि इन असत्य बातों को सत्यं बनाने में अनेक प्रकार से उत्सूत्र, प्ररूपना कर अनन्त संसार की वृद्धि भी करनी पड़ती है।" ___ श्रावक-"क्या मूर्ति न पूजने वाले और डोराडाल कर दिन भर मुँहपत्ती बांधने वाले इतने बड़े समुदाय में ऐसा कोई भी मात्मार्थी मुमुक्षु नहीं है जो उत्सूत्र भाषण कर अनन्त संसार बढ़ाने से डरता हो।" Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २८० मुनि०-"यह बात तो तेरहपन्थी लोग भी कह सकते हैं कि क्या दया दान में पाप बतलाने वाले इतने बड़े समुदाय में कोई, भी आत्मार्थी नहीं है ? इसका आप क्या उत्तर देंगे?" श्रावक-"वे तो प्रत्यक्ष उत्सूत्र बोलते हैं, सूत्रों में जगह २ भगवान ने अपने श्रामुख से दया दान में धर्म एवं पुण्य होना बतलाया है । अतः तेरह पन्थी समुदाय में चाहे त्यागी, वैरागी, तपस्वी एवं विद्वान् हों, पर वे दया दान में पाप बतला कर उत्सूत्र प्ररूपते हैं, अतः हम उनको अनन्त संसारी समझते हैं।" .. मुनि-"इसी प्रकार आप अपने को भी समझ लीजिए । क्योंकि सूत्रों में कई स्थान पर मूर्ति पूजा का उल्लेख है, उसको न मानना और अपनी असत्य बात को सत्य बनाने के लिए कुर्तक करना तथा मुँहपत्ती में होरे का कहों पर उल्लेख न होने पर भी डोराडाल कर मुंहपत्ती को दिनभर मुँहपर बांधे रखना और उसकी स्थापना करना क्या यह उत्सूत्र नहीं है ? भला अष पूज्यजी महाराज से यह तो कहला दें कि ३२ सूत्रों में मूर्ति पूजा का अधिकार नहीं है, और मुंहपत्ती में डोरा डाल रात दिन मुंह पर बँधी रखने का अधिकार है ?" श्रावक-"यह बात पूज्यजी महाराज नहीं कहते । हाँ, उका यह कहना तो जरूर है कि मन्दिर मार्गियों ने मन्दिरों में धूमधाम ज्यादा बढ़ा दी, इसलिए हमारे पूर्वजों ने बिलकुल मन्दिर को छोड़ दिया है। दूसरे जब मन्दिरमार्गी मुंहपत्ती हाथ में रखते हुए भी खुले मुंह बोलने लग गये, तो अपने समुदाय वालों ने मुंहपत्ती में डोरा डाल मुँह पर बांधना शुरू कर दिया।" मुनि-मैं आपसे यह पूछता हूँ कि जब सिर पर बाल बढ़ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ पृज्य पदवी की प्रार्थना जाते हैं तो बालों को काटने की जरूरत होती है या सिर ही काट डालने की । ठीक इसी प्रकार जब मन्दिरों में धूमधाम बढ़ गई थी तो धामधूम मिटानी चाहिये थी न कि मन्दिर-मूर्ति को छोड़ कर दूर बेठ जाना । इसी तरह से जब मूर्तिपूजक साधु लोग हाथ में मुँहपत्ती लेकर खुले मुँह बोलते थे तो उसका ही विरोध करना था । भला उसका विरोध न करके मुंह पर डोराडाल मुँहपत्ती रातदिन बांध कर कुलिंग धारणा करना कहाँ तक उचित था ? इसके अलावा यह कहना कि मूर्ति सूत्रों में है और हम नहीं मानते, तो मेरी माँ और बांझड़ी' वाली कहावत को ही चरितार्थ करना है। खैर, मैं आपसे इतना ही पूछता हूँ कि आप अभी जब मन्दिर में गये थे तो वहाँ आपके विचार एवं भावनाएँ जैनधर्म के अनुकूल रही या प्रतिकूल ?" ___श्रावक-"प्रतिकूल क्यों पर हमारी भावना तो जैनधर्म के अनुकूल ही रहो इतना ही क्यों पर मूर्ति का दर्शन से बड़ा ही आनंद आया था।" __मुनि-"तब फिर मन्दिर जाकर दर्शन करने वालों को रोक देना क्या एक अंतराय कर्मबंध का कारण नहीं है।?" श्रावक-“मन्दिर जाने की मनाई तो कोई नहीं करता है।" मुनि-"तब फिर इतने बड़े समुदाय ने मन्दिर जाना क्यों छोड़ दिया है ? इतना ही नहीं वे तो मन्दिर-मूर्ति के कट्टर शत्रु बन कर उसकी निंदा तक करने लग जाते हैं ?" श्रावक-"खैर मन्दिर जाना और न जाना तो अपनी २ रुचि पर है, किंतु मन्दिरों मूर्तियों की निंदा करना तो वास्तव में वन पाप बँध का ही कारण है।" । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड २८२ मुनि - " श्रवकजी ! मूर्ति के न मानने से केवल इतना हो नुक्सान नहीं हुआ है, बल्कि और भी काफी नुक्सान हुआ है।" श्रावक - " और क्या नुक्सान हुआ है महाराज ? 1 मुनि - जैन साहित्य जो समुद्र के सदृश विशाल है, उ में से केवल ३२ सूत्र, वे भी मूल पाठ और उसका टब्बा मानना, उसमें से भी मूर्ति पूजा विषयक पाठों का अर्थ बदल देना क्या यह क्रम नुक़सान है ? उस पर भी तारीफ़ यह है कि जब ३.२ सूत्रों से काम नहीं चलता है, तब उनके अतिरिक्त सूत्र, अँथ, टीका निर्युक्त इत्यादि की शरण लेनी पड़ती है । दूसरा एक मूर्ति नहीं मानने के कारण आज अनेक देव-देवियों को जैनों के घरों में एवं हृदय में स्थान मिल गया है और आचार विचार को इतना भद्दा बन गया है कि जिसको कहने की आवश्यकता नहीं आप स्वयं जानते हो । V श्रावक - महाराज ! यों हो बहुत चर्चा है, जिसका अन्त आ ही नहीं सकता। उस पर भी आप ठहरे विद्वान् और हम रहे अनजान | इसलिए इसको तो आप अभी यहीं रहने दीजिए और हम जिस काम के लिए आये हैं, वह सुन कर आप हमारी प्रार्थना स्वीकार करें और हमें अपना कृतज्ञ बनावें ।" मुनि - "कहिये आप किस काम के लिए आये हैं ? " श्रावक - " हम लोगों की यह सानुरोध प्रार्थना है कि आप पूज्यजी महाराज के पास पधारें। वहाँ हम सब मिल कर आपको 'युवराज' की पदवी देंगे जिसको आप उदारता पूर्वक स्वीकार करें ।” मुनि - आप जानते हैं कि मेरी श्रद्धा मूर्ति की उपासना करने Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ पूज्य पदबी की प्रार्थना की है। साथ ही में यह भी निश्चय कर चुका है कि जो भूलेभटके लोग उन्मार्ग पर जा रहे हैं, मैं उनको उपदेश देकर सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करूँगा। यदि आप इस विषय में मुझ पर कोई रोक-टोक न करने का पक्का विश्वास दें तो मैं आपका कथन स्वीकार कर सकता हूँ। ___ श्रावक-महाराज ! यह बात तो कैसे बन सकेगी ? हम व्यापारी लोग जिस दुकान पर बैठते हैं, उसी की पुष्टि करते हैं, दूसरी की नहीं। इसी भांति आप स्थानकवासी समुदाय में रहें और उपदेश मूर्ति का दें यह तो कैसे हो सकेगा ?" . __ मुनि-किंतु मैं भी क्या करूं ? मेरे तो रोम २ में मूर्ति ने स्थान कर रखा है। जब कभी मैं आत्मकल्याण का उपदेश देता हूँ तो सवसे पहिले मर्ति का उपदेश ही उसकी भूमिका बन जाती है । ____ श्रावक-आप समझदार हैं, यदि मूर्ति पूजा का उपदेश न दें तो भी श्रात्म-कल्याण के लिए बहुत से उपदेश दिये जा सकते हैं। - मुनि-"किन्तु जान-बूझ कर इस प्रकार सत्य धर्म को छिपा रखने से मिथ्यात्वका दोष भी लगता है न ?" ... श्रावक-"महाराज ! आप आई हुई पूज्य पदवी को क्यों ठुकराते हैं ? मुनि-पर मिथ्यात्व के सामने पूज्य पदवी की क्या क़ीमत है ? मैं एक थोड़ी सी वाह वाह ! के लिए मिथ्यात्व का सेवन करना इस लोक तथा परलोक दोनों ही के लिए हित का कारण नहीं पर अहित का हो कारण समम I हूँ। ____श्रावक-"महाराज ! यहाँ आपको वापिस दीक्षा लेकर किसी के आधीन शिष्य बन कर रहना पड़ेगा और वहां सौ साधुओं के Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड २८४ अधिपति बन कर रहेंगे। इसका भी प्रापजरा विचार करलीजिए।" मुनि-"क्या आप नहीं जानते हैं कि समकित के साथ तो सातवी नरक में रहना भी अच्छा है, किंतु समकित के बिना चक्रवर्ती जैसी ऋद्धि या देवताओं के सुख भी निष्फल रही है।" ___ इस पर सब आये हुए श्रावक समझ गये कि यहां कार्यसिद्धि की आशा नहीं है। अतः वे वहां से विवश होकर उठ कर नीचे गये और भोजन आदि से निवृत्त होकर गाड़ी के समय पर स्टेशन के लिए चल पड़े। ४० योगीराज की नेक सलाह __पास के कमरे में बैठे हुए योगीराज, मुनिजी और श्रावकों के श्रापस के वार्तालाप को सुन कर बड़े प्रसन्न हुए। तत्पश्चात् दोनों महात्मा प्राम में भिक्षा के लिए पधारे । ओसीयां ग्राम में जैनों का तो एक भी घर नहीं था, केवल कुछ माहेश्वरी लोगों के घर थे और वे योगीगज के पास आकर उपदेश सुनते थे, अतः वे लोग बाहर पानी देने की अच्छी भावना और व्यवस्था रखते थे। योगीराज का उपदेश सुनते रहने से वे आहार पानी देने की सब विधि भी जान गये थे जिसको कई श्रावक भी नहीं जानते थे। अस्तु दोनों मुनिवर ग्राम से भिक्षा ले आये। गोचरी करने के बाद फिर धर्म चर्चा होने लगी। योगीराज ने ओसियां नगरी और आचार्य रत्नप्रभसरि का इतिहास सुनाया। वे कहने लगे कि रत्नप्रभसूरि प्रतिबोधित क्षत्रियों के अट्ठारह गोत्र हुए हैं। जिनमें राजा उत्पलदेव को संतान श्रेष्टि गोत्र कहलाती है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ उपकेश गच्छ के बारा में वैद्य मेहता उसी श्रेष्टि गोत्र की एक शाखा है ।उसी खानदान में मुनिजी ! आपका जन्म हुआ है । परिणाम स्यरूप ओसियां की पवित्र भूमि के साथ आपका घनीष्ट सम्बन्ध है । अब आप इस तीर्थ के काम को हाथ में लेकर इसका उद्धार करें । यह सुन कर मुनिजी ने नम्रता के साथ में कहा, तथास्तु । ___ इसके बाद योगीराज ने फिर कहा, "मुनिजी ! लो और सुनो ! आपके पूर्वजों को प्रतिबोध देने वाले श्राचार्य रत्नप्रभसरि का गच्छ उपकेश गच्छ है । यह गच्छ सब से जेष्ठ गच्छ माना जाता है। इस गच्छ में बड़े २ प्रभावशाली प्राचार्य हुए हैं जिन्होंने अपना अत्मकल्याण के साथ साथ शासन की भी सब तरह से काफी सेवायें की हैं । पर खेद है कि इस समय उपकेश गच्छ में यतियों के अलावा कोई भी त्यागी साधु नहीं है। मेरी राय है कि आप उपकेश गच्छ में क्रिया-उद्धार कर इस गच्छ को पुनः प्रकाश में लावें, और कृतघ्न बने हुए लोगों को कृतज्ञ बनावें।" "पूज्य योगिराज! आपके वचनों को मैं आशीर्वाद समझ कर शिरोधार्य करता हूँ। किन्तु मेरी ऐसी सामर्थ्य नहीं है कि मैं अकेला कुछ कर सकूँ।" योगिराज-"अरे ! अकेला तो सब कुछ कर सकता है । केवल साहस चाहिए। जितना काम तुम अकेले कर सकोगे, उतना काम बहुतों के साथ रह कर नहीं कर सकोगे। अतएव मेरी सलाह है कि जब तक कोई योग्य शिष्य न मिले, वहाँ तक आप अकेले ही रहो तथा आत्म-कल्याण के साथ यथासाध्य गच्छ का उद्धार करो।" Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २८६ मुनि-"यदि आपकी कृपा इसी प्रकार रही तो सब कुछ हो सकेगा और मैं इस बात का प्रयत्न करता रहूँगा।" एक दफे का जिक्र है जब आप स्थानकवासो में थे, तब आप एक दिन ब्यावर में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे। एक सज्जन ने आपको किताब पढ़ते हुए देख ताना देते हुए कहा कि आप दूसरों की रची हुई किताबें ही पढ़ा करेंगे या कभी आप भी कोई अच्छी किताब लिख कर दुनिया के हाथ में पढ़ने को देंगे ? यह ताना आपके कलेजे में सीधा कांटा सा जा चुभा, और आपने उसी समय से मूर्तिपूजा के विषय में एक किताब लिखना प्रारम्भ कर दिया । सम्पूर्ण होने पर उस किताब का नाम 'सिद्ध प्रतिमा मुक्तावलि' रखा जो 'यथानाम तथागुण' अर्थात् यथार्थ ही था। उस समय पर वही हाथ से लिखी हुई पुस्तक आपने योगिराज महाराज की सेवा में लाकर भेंट की । योगिराज उस पुस्तक को पढ़ कर परमानन्द को प्राप्त हो गये विचार करने लगे कि यह पुस्तक ४ प्रश्नों पर प्रश्नोत्तर के ढंग पर बड़ी ही खूबी से लिखी गई है । फिर भी विशेषता यह है कि इसमें ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ स्थान २ पर बत्तीस सूत्रों के मूल पाठों के प्रमाण भी प्रचुरता से दिए गये हैं । यदि इसको मुद्रित करवा दी जाय । तो जनता को इसले बड़ा भारी लाभ होगा। यों तो मूर्तिपूजा के विषय में बड़े २ धुरंधर विद्वानों ने अनेक ग्रंथ रचे हैं, किन्तु बाल जीबों के लिए जितना उपकार मुनिजी की रची पुस्तक करेगी, उतना दुसरी नहीं कर सकती है। यागिराज ने मुनिजी की बहुत तारीफ की और आपके ज्ञानाभ्यास एवं युक्तिवाद की प्रशंसा करते हुए कहा कि "आपकी रची हुई Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली पुस्तक बड़ी उपयोगी है, किंतु इसमें भाषा की त्रुटिये सर्वत्र पाई. जाती हैं। मैं जानता हूँ कि यह व्याकरण ज्ञान का अभाव हो है । यदि यह पुस्तक किसी हिन्दी के सुलेखक से शुद्ध करवा दी जावे तो यह सोने में सुगन्ध वाला काम कर निकलेगी । श्रोसियां में मुनिजी ने योगिराज की सेवा में एक मास से अधिक ठहर कर बहुत कुछ जानकारी प्राप्त करली, जिसमें गच्छ गच्छान्तर का हाल तो आपने बिल्कुल ही अपूर्व सुना था । इसके सुनने से आपको प्रत्येक गच्छ की समचारियें पढ़ने की भी इच्छा हुई, जो योगिराज ने अन्य स्थानों से मंगवा कर आपको पढ़ने को दी। आपने उन सब समाचारियों को पढ़ने का निश्चय भी कर लिया तथा विहार में साथ भी ले जाने का विचार कर लिया । सियाँ तीर्थ पर एक काठियावाड़ी चुन्नीलाल भाई नामक मुनीम था, वह अच्छा धार्मिक और साधुओं का पूर्ण भक्त था । मन्दिर के एक तरफ पुरानी धर्मशाला थी । एक तरफ नई धर्मशाला भी बन रही थी, जिसके पोल, दरीखाना, कुछ कोठरियां और एक चौबारा तो बन चुके थे, किंतु अभी बहुत सा काम अधूरा ही पड़ा था । मुनिश्री ने इस तीर्थ के उद्धार के लिए कई उपाय सोचे । आखिर आपने यह निश्चय किया कि प्रथम तो सामयिक पत्रों में इस विषय के लेख प्रकाशित करवाये जांय, पुस्तकें छपवा कर उपहार के तौर पर वितरण कर दी जाय और यहाँ पर एक विद्यालय की स्थापना की जाय । अतएव मुनिजी ने अपना यह विचार गुरुवर योगीराज के पास आकर पूर्ण रूप से कह सुनाया। आपको इस योजना पर वे बहुत ही प्रसन्नयेर चुन्नीलाल भाई को बुला कर कहा कि मुनिजी ने तीर्थ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २८८ उद्धार के लिये बहुत अच्छी योजना तैयार की है। इसमें तुमको हर प्रकार से सहायता देनी चाहिये । मुनीम चुन्नीलाल भाई ने भी योगीराज का हुक्म सहर्ष शिरोधार्य कर लिया। ___ज्येठ शुक्ला पूर्णिमा का दिन था। इधर से तीवरी वाले लंदाजी वगैरह कई श्रावक मुनिश्री को लेने के लिये आये, उधर फलोदी से फूलचन्दजोगोलेछा, जोगराजजी वेद, मेघराजजी मुनीयत, माणकलालजी कोचर इत्यादि बहुत से श्रावक तीर्थयात्रार्थ एवं मुनिश्री के दर्शन के लिये आये थे। सबकी इच्छा थी कि मुनिजी का व्याख्यान हो। योगीराज से प्रार्थना करने पर आज्ञा भी मिल गई । फिर तो भला देर ही क्या थी ? मुनिश्री ने द्रव्यानुयोग अथांत् षद्रव्य के द्रव्य गुण पर्याय पर सुन्दर एवं सारगर्भित व्याख्यान दिया । अन्त में श्रापने फ़रमाया कि सामयिक, पौषध, तपश्चर्या और देवपूजा करने से तो करने वाला आदमी एक अपना ही कल्याण कर सकता है, किंतु तीर्थोद्धार करवाने से करवाने वाला अपने कल्याण के साथ अनेकों का कल्याण कर सकता है। क्योंकि तीर्थ अनेक वर्षों तक अनेक भव्य जीवों का कल्याण करने में कारण बन जाता हैं। ओसियां जैसा एक प्राचीन महत्वशाली तीथे जो श्रोसवालों की जन्म-भूमि होने पर भी कई लोगों के लिये अभी तक अपरिचित ही बना हुआ है यह कितने दुःख की बात है । अतः प्रत्येक व्यक्ति और विशेषतः इस तीर्थ के कार्यकर्ताओं का मुख्य कर्तव्य है कि वे तन, मन और धन से इस तीर्थ को प्रसिद्धि में लावें । मैंने इस तीर्थ के लिये कुछ योजना तैयार कर गुरुवर योगीराज के सामने निवेदन किया था और आज आपसे भी कहे देता हूँ कि प्रथम तो Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ तीर्थोद्धार की योजना सामयिक पत्रों में इस तीर्थ के विषय के लेख प्रकाशित कराये जायं, दूसरे इस विषय की पुस्तकें (ट्रेक्ट ) छपवा कर उन्हें विस्तृत संख्या में अमूल्य वितरण कराया जावे, तीसरे इस तीर्थ पर एक विद्यालय स्थापित किया जावे । भुनिश्री का व्याख्यान एवं उपदेश श्रोतावर्ग ने बहुत ही रुचि के साथ ग्रहण किया तथा सब के दिल में यह बात जच गई कि मुनिजी की योजना अवश्य ही कार्य रूप में परिणित की जाय । सब से पहिले तीवरी वाले लूणकरणजी लोढा ने कहा कि यदि यहाँ बोर्डिंग स्थापित किया जाता हो तो ये ११) मैं मुहूर्त के तौर पर देता हूँ, तथा विश्वास दिलाता हूँ कि मैं भविष्य में भी इसकी सहायता करता रहूँगा। दूसरे लोगों ने कहा, "क्या ११) रुपयों से बोडिंग स्था. पित हो सकता है ?" कम से कम दस-बीस हजार का चन्दा होना चाहिये । ऊपर बिराजे हुए रोगीराज ने कहा कि ११) रुपयों में तो सब कुछ हो सकेगा । आप रो इन रुपयों को शुभ शकुन समझ कर हाथ बढ़ा कर ले लीजिये। योगीराज के वचन पर सबको विश्वास था । अतः वे ११) रुपये लेकर उन पर कुंकुम के छींटे डाल कर गुरु महाराज का वासक्षेप हलवा कर शुभ स्थान में रख दिये गये । फूलचन्दजी ने योगीराज से निवेदन किया कि मुनिजी का चातुर्मास इसी तीर्थ पर हो तो बहुत अच्छा है। इससे बोर्डिङ्ग वगैरह विचारी हुई सब योजना सफल हो जावेगी। किंतु गुरुवर ने अपनी ओर से यह प्रगट करते हुए फरमाया कि सेठजी ! ऐसा नहीं हो सकता है। साधु को अपने दिये हुए वचन को तो निभाना ही चाहिये । सेठजी-"यह तो ढूंढियापने में दिया गया वचन है। दूसरे Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड २९० आप गुरु हैं, यदि आपकी आज्ञा होगी तो मुनिजी को चातुर्मास यहाँ करना ही पड़ेगा।" ___ योगोगज-"ढूंढ़ियापने में वचन दिया गया तो क्या हुआ। . आखिर वे भी तो साधु ही हैं । और पाँच महावत भी वे ही हैं। हाँ, श्रद्धा में जो फर्क था, वह निकल जाने से समुदायान्तर अवश्य हुआ है । पर इस सम्बन्ध में ऐसा कोई कारण नहीं है । अतः दिया हुआ वचन तो बराबर पूरा करना ही चाहिये । दूसरे मैं इनके गुणों में वृद्धि करना चाहता हूँ न कि क्षीणता। इन सब बातों को देखते हुए मुनिजी का यह चातुर्मास तोवरी में ही होगा।" फलोदी वाले योगराजजी वैद, मेघराजजी मुनैत, माणकलालजी कोचर, मुनिजी का चातुर्मास फलौदी करवाने की विनती करने वाले ही थे किन्तु योगीराज का यह कथन सुन वे स्वयं ही 'चुप रह गये। इतना उन्होंने अवश्य कहा कि अभी तो तीवरी वालों का भाग्य है, किंतु भविष्य का चातुर्मास आप दोनों महात्माओं का फलौदी होना चाहिये, हम अभी से ही विनती करते हैं अतः आप हमारी प्रार्थना को लक्ष में रखावें । योगी-क्षेत्र स्पर्शना एवं वर्तमान योग। श्राषाढ़ कृष्णा प्रथमा को मुनिजी ने तीवरी के श्रावकों के साथ विहार किया। गुरु महाराज वहाँ ही बिराजे और फलौदी के श्रावक मुनिश्री की प्रशंसा करते हुए अपने नगर की ओर चल दिये। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ सं० १९७२ का चतुर्मास तीवरी में तीवरी के देशी स्थानकवासियों और मूर्तिपूजकों ने मुनिजी का खूब स्वागत किया, और श्री दादाजी के उपाश्रय में आपको ठहराया । दूसरे दिन व्याख्यान हुआ। करीब १७० घर वाले व्याख्यान में आये, जिससे उपाश्रय में श्रोताओं को बैठने तक को जगह नहीं मिल सकी। प्रारम्भ में आपने श्री सुखविपाक सूत्र शुरू किया और बाद में श्री भगवतीजी सूत्र व्याख्यान में और भावनाधिकार में चंदराजा का रास बांचने का निर्णय किया। - एक तो श्रीभगवतीजी सूत्रका प्रभाव ही ऐसा था कि जिनका नाम सुनने से ही जनता की अभिरुचि बढ़ जाती थी दूसरे मुनिश्री ने श्री भगवती सूत्र के प्रायः सब थोकड़े कण्ठस्थ कर रखे थे। इसके अलावा आपकी व्याख्यान बांचने की शैली ही ऐसी थी कि क्या जैन और जैनेतर, जिसने आपका एक दिन व्याख्यान सुन लिया वह दूसरी बार सुनने का प्रयत्न अवश्य करता था अतः ऐसी सुन्दर थी आपकी व्याख्यान देने की शैली। ___ तात्पर्य यह है कि व्याख्यान या भावनाधिकार में तथा दृष्टान्त वगैरह में प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी भांति एक बार तो मूर्ति का विषय आ ही जाता था। वह भी अप्रामाणिक नहीं किंतु ३२ सूत्रों के मूल पाठ के प्रमाण से सिद्ध किया जाता था। सुनने वाले मूर्तिपूजकों के अतिरिक्त देशी समुदाय वाले भी थे और उनके भाव मूर्ति के प्रति विशेष रूप से झुकने लगे। अत. एवं मुनिजी का कथन सबको अधिकाधिक रुचता गया। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड २९२ मुनिश्री ने ढूँढ़ियापन में रह कर जो 'सिद्ध प्रतिमा मुक्तावलि' नामक पुस्तक बनाई थी और जिसकी भाषा सम्बन्धी त्रुटियें किसी अच्छे हिन्दी के लेखक द्वारा संशोधित करवानी तथा वापिस लिखवानी थी, उसे संशोधित कर लिखवाने के लिए तीवरी के श्रावकों ने एक लिखने वाले को बुलाया, किन्तु वह भी शुद्ध हिन्दी लिखना नहीं जानता था । इस हालत में लूनकरणजी ने उस किताब को ज्यों की त्यों बम्बई आचार्य कृपाचन्द्रसूरि के पास भेज दी तथा मुनिजी का पूर्ण परिचय लिख कर उनसे किताब को शुद्ध करने की प्रार्थना की। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि लोढ़ाजी कृपाचन्द्रसूरि के किस प्रकार पूर्ण भक्त थे । लोढ़ाजी ने तो मुनिश्री से यह भी विनय की कि आप जब कभा संवेगी दीक्षा लें तो कृपा चन्द्रसूरि के पास ही लें, क्योंकि वे बड़े पण्डित एवं जैनशास्त्रों के अच्छे जानकार हैं। यदि आपको कुछ पूछना हो तो अवश्य पुछावें । मुनिश्री ने कहा कि ठीक है समय पाकर मैं कभी पत्र लिखूंगा । 1 1 इधर सादड़ी के शाह हुकमजी आदि कई श्रावक ओसियाँ योगिराजश्री के दर्शन करने को आये थे । बात ही बात में मुनिश्री के विषय में भी चर्चा चल पड़ी । योगिराज ने कहा कि मुनिजी शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता हैं, देखो उन्होंने एक प्रतिमा छत्तीसी बनाई है, जिसमें ३२ सूत्रों का सार डाल दिया है । जब योगिराज ने 'प्रतिमा-छत्तीसी' पढ़ कर सुनाई तो उस श्रावक ने उसकी नक़ल उतार ली । बस सादड़ी के शा० हुकमजी तिलोकजी ने बम्बई पहुँच कर निर्णय सागर प्रेस में 'प्रतिमा - छत्तीसी' को २००० प्रतिएँ छपव Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ अखबारों में आन्दोलन कर कई ग्रामों में भेज दीं । प्रतिएँ स्थानकवासी समाज के हाथ भी आईं और उन्होंने एक अजब ही हुल्लड़ मचा दिया । साथ ही उन्होंने अपने यहां से निकलने वाले समाचारपत्रों में लेख निकलवाना भी प्रारम्भ कर दिया, जिनके शीर्षक इस प्रकार होते थे, – “भ्रष्टाचारी गयवरचंद से बचो”, “धर्मधूर्त से सावधान”, “गयवरचंद के पास कोई मत जाओ" " इसको श्रहार पानी तथा मकान मत दो" "यदि इसकी सँगति करोगे या शिष्य का मोह कर समुदाय में रक्खा गया तो जैसे अग्नि को रूई में छिपाने से जो लाभ (1) होता है उतना ही इस भ्रष्ट श्रद्धा वाला गयवरचन्द को समुदाय में रखने का होगा क्या समाज भूल गई है कि दण्डी आत्माराम की श्रद्धाभ्रष्ट होने के बाद समुदाय में रखने से वह २२ साधुओं को पतित बना कर अपने साथ ले गया था यदि गयवरचन्द को भी समुदाय में रख लिया तो संभव है कभी यह ४० साधुत्रो को ले निकलेगा श्रतः समाज जल्दी से सावधान हो जाय और भ्रष्टश्रद्धा वाला गयवरचन्द के साथ सब सम्बन्ध तोड़ दें इसमें ही स्थानकवासी समाज का भला है । जब इस प्रकार अख़बार सियाँ योगिराज के पास पहुँचे तो आपने अपने भद्रिकपना से हुई भूल पर बहुत पश्चात्ताप किया और aat मुनिश्री को लिख दिया कि जो बारह वर्ष मुँहपत्ती बांध सत्योपदेश करने की योजना तैयार की गई थी, वह मेरी ग़लती से निष्फल हो गई है । अब चातुर्मास समाप्त होने पर तुमको वेष परिवर्तन कर किसी भी संवेगीं साधु के पास दीक्षा लेनी पड़ेगी । श्रतः दीक्षा किसके पास लेना, इसका तुम स्वयं निश्चय कर लेना, ୨୧ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड २९४ इत्यादि । यह पत्र मुनिश्री तथा लोढ़ाजी ने पढ़ा और इस कार्य को भवितव्यता पर छोड़ दिया । जब स्थानकवासियों द्वारा प्रत्येक सप्ताह में इस प्रकार के सभ्य और अश्लील शब्दों में लेख प्रकाशित होने लगे, तो उनका उत्तर देना भी मुनिश्री का कर्त्तव्य बन गया । परिणाम स्वरूप वे सत्य प्रमाण एवं सभ्य भाषा और पूर्ण योग्यता के साथ स्थानकवासियों के तमाम लेखों का उत्तर जैन- अस्त्रबांरों द्वारा देने लगे । जिसका स्था० समाज पर काफी प्रभाव हुआ और उस समय कई ७-८ साधू और भी उनसे निकल संवेगी बन गये । ४२ प्रतिमानक्लनिरूपन और सादड़ीकासंघ इधर सादड़ी में स्थानकवासी साधु संतोषचन्दजी, मोतीलालजी का चातुर्मास था । मोतीलाल जाति का कुम्हार था उसने अपने गुरु के प्रच्छन्नपने कुछ श्रावकों को उत्तेजित कर एक 'प्रतिमा नकल निरूपन' नाम की पुस्तक प्रकाशित कराई, जिसमें उसने पहिले के बने हुए मूर्ति खण्डन के कुछ पद संग्रह किये तथा १ - २ और नये पद बना कर शामिल कर दिये । इस पुस्तक दोनों समाज में खूब अग्नि भभकाने का कार्य किया, क्योंकि मुनि श्री की बनाई 'प्रतिमा छत्तीसी' में ढूँढ़िया या स्थानकवासियों के लिए एक शब्द भी ऐसा नहीं था जिसको कि निन्दा का रूप दिया जा सके। पर, 'प्रतिमा नकल निरूपन' में शंत्रुजय गिरनार जाने वालों को नर्क का कारण बताया और मन्दिर मूर्तियों की स्थापना करने वाले प्रभाविक आचायों को भ्रष्टाचारी कहा गया और ऐसे अनेक हल्के एवं नीच शब्दों से मूर्ति एवं मूर्ति पूजक आचार्यों को Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ सादड़ी का मतभेद तथा उनके समाज की निन्दा की गई थी । वह किताब सादड़ी के मूर्तिपूजकों के हाथ में आई, पढ़कर उनके क्रोध का कोई पार न रहा। वे अपने समाज को एकत्रित कर सबकी सम्मति के साथ एक चाकरीदार- सेवग के साथ स्थानकवासी समाज के अग्रेसरों को कहलाया कि आपने द्वेष बढ़ाने वालो पुस्तक को प्रकाशित किया है । या तो आप शास्त्रीय प्रमाणों से यह सिद्ध करें कि शत्रुजय गिरनार जाने वाले नर्क में जाते हैं, नहीं तो इस किताब को भंडार में दाखिल कर दो, वरना आपके हक़ में ठीक न होगा । इसके उत्तर में कई निष्पक्ष लोगों ने तो कहा कि यह किताब किसने छपाई है और ऐसी किताब छपाकर आपस में क्लेश क्यों पैदा किया जाता है ? पहिले भी धार्मिक झगड़े के कारण १२ वर्ष तक आपस में रोटीबेटी व्यवहार बन्द रहा था । किन्तु उन बिचारों की कौन सुनता था जो किताब छपवाने वाले कुम्हारोपासक थे, उन्होंने कहलाया कि आप की ओर से भी 'प्रतिमा छत्तीसी' नामक पुस्तक निकली है. फिर हमको क्यों दबाते हो ? हमने तो 'प्रतिमा छत्तीसी' के उत्तर में ही यह पुस्तक छपवाई है । प्रत्युत्तर में मूर्ति पूजकों ने कहलाया कि 'प्रतिमा छत्तीसी' में आपकी या आपके समाज की निन्दा का एक शब्द भो नहीं है । यदि आपको 'प्रतिमा छत्तीसी' के जवाब में ही लिखना था तो आप गयवरचंदजो के लिए लिख सकते थे, किन्तु शत्रुजय गिरनार या पूर्वाचार्यों के लिये लिखने का आप को क्या अधिकार था ? इत्यादि । अन्त में सादड़ी के मूर्ति पूजक समाज ने सादड़ी के स्थानक वासियों के साथ रोटी तथा बेटी व्यवहार किस तरह बन्द कर Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड २९६ दिया ( देखो गोड़वाड़ के मूर्तिपूजक और सादड़ी के लौंकों का; मत भेद नामक पुस्तक )। इधर सादड़ी के चार अगिवान श्रावक श्रोसियाँ पहुँचे औरः वे परम पूज्य योगीराज के दर्शन कर मुनिश्री गयवरचन्दी से तीवरी जाकर मिले । वार्तालाप करने से मालूम हुआ कि साधु तो सर्व प्रकार से योग्य एवं समर्थ है । अतः उन्होंने विनय की कि यदि काम पड़ गया तो शास्त्रार्थ के लिये आपको सादड़ी एवं गोड़वाड़ में पधारना पड़ेगा। हम आपके पीछे ही झूझते हैं । मुनि श्री ने कहा "बेशक ! जिस समय आप याद करेंगे, हम आने को तैयार हैं।" श्रावकों को विश्वास हो गया, अतः वे तीर्थ यात्रा और गुरू बन्दन कर वापिस लौट गये। फिर भी सादड़ो के स्थानकवासी शान्त न रह सके । उन्होंने कहा कि यदि सादड़ी के मूर्ति पूजकों ने हमारे साथ रोटी-बेटी का व्यवहार बन्द कर दिया है तो क्या हुआ, हम गाडेवाड़ के मूर्ति पूजकोंकी लड़कियों को लाकर मुंहपर मुंहपत्ती बंधा कर बाजार से निकालेंगे। इस ताने को सुन कर सादड़ी के मूर्तिपूजक लोगों ने वरकाणे जाकर जाजमडालो और अखिल गोड़वाड़ को वरकाणे एकत्रित कर 'प्रतिमा नकल निरूपन' नामक पुस्तक पढ़ कर सुनाई और उनका खून गर्म होते ही लिखत कर डाला कि सादड़ी के स्थानकवासियों के साथ रोटी-बेटी व्यवहार बन्द किया जाता है। यदि सादड़ी के अतिरिक्त गोडवाड़ के स्थानकवासी सादड़ी के स्थानकवासियों के साथ बेटी,व्यवहार करेंगे तो उनको भो सादड़ी के स्थानकवासियों के सदृश समझा जावेगा । यह सुनकर सादड़ी के अलावा गोडवाड़ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९७ सादडी का मतभेद के स्थानकवासियों ने लिखत में दस्तखत कर दिये कि हम गोडवाड़ के मूर्तिपूजक समाज के साथ हैं। सादड़ी के स्थानकवासियों के साथ रोटी-बेटी व्यवहार नहीं करेंगे । फिर भी सादड़ी के स्थानकवासी चुप नहीं रहे, उन्होंने कांठा में जाकर एक मूर्तिपूजक की लड़की के साथ सगपण कर सादड़ी श्राये और खूब गौरव के साथ कहा, लो गोड़वाड़ वालों ने हमारा व्यवहार बन्द किया तो क्या हुआ, हम कांटा के मूर्तिपूजक को लड़की को लाकर मुहपर मुहपत्ती बांधकर बाजार से निकालेंगे इस पर सादड़ों के मूर्तिपूजकों को और भी गुस्सा आया । अतएव ३२ आदमियों ने कांटा में पहुँच कर वहां के ३२ ग्रामों को एकत्र कर घोषित कर दिया कि अगर आप सादड़ी के स्थानकवासियों के साथ बेटी व्यवहार करेंगे तो गोड़वाड़ तुम्हारे साथ व्यवहार बन्द कर देगा । परिणामस्वरूप कांटा के ३२ ग्राम वालों ने उस किये हुए सम्बन्ध का विच्छेद कर दिया और सादड़ी के स्थानक वासियों के साथ व्यवहार बन्द करने का लिखत कर लिया । अतः गोड़वाड़ का झगड़ा श्रभी तक ज्यों का त्यों बना हुआ है । RRZR Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३क्या ऋतुवती प्रारजियाँ सूत्र बाँच सकती हैं? जब तीवरी में हमारे चरित्रनायकजा का चातुर्मास था, उसो समय प्रदेशियों में नंदकुँवरजी की प्रारजियाँ पानकुंवरजी काचातु मांस भी था। और वहां भी दोपहर के समय श्रीभगवतीजी सूत्र बांचती थों। मोतीलालजी श्री श्रीमाल, और अचलदासजी लोढ़ा वगैरह उनके भक्त थे । मुनिश्री प्रातः समय व्याख्यान में श्रीभग वतीजी सूत्र बांचते थे,अतः अचलदासजी वगैरह सुबह मुनिश्री से श्रीभगवतीजी सुनते थे और दोपहर को पानकुंवरजी के पास । __सुनने वाले कई बार दोनों तरफ के व्याख्यान सुन कभी २ प्रश्न करते थे, किंतु मुनिश्री के प्रश्न को पानकुंवरजी हल नहीं कर सकती थीं । ऐसी दशा में उनके पास सिवाय निंदा के और क्या था ? मुनिश्री ने कहा कि थली में जन्मी हुई विचारी पान कुंवर ने कब भगवतीजी बांची है, किंतु अँधों के बीच काँना भी राव हुश्रा करता है। ____ अचलदासजी-पानकुँवरजी तो बड़े ही पाण्डता हैं, अप द्वेष भाव से ही तो ऐसा न फरमाते हैं ? मुनि०-यदि पानकुँवरजी लिखी-पढ़ी हैं तो उनको पूछो कि श्रीभगवतीजी सूत्र कालिक हैं या उत्कालिक ? अचलदासजी ने पानकुंवरजी से जाकर प्रश्न किया कि श्रीभगवतीजी सूत्र कालिक हैं या उत्कालिक ? . पान०-कालिक । अचल-कालिक सूत्र काल में बंचता है या उत्काल में ? Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ क्या ऋतुवती सूत्र बाच सकती पान० - काल में । अचल० - फिर आप उत्काल में क्यों बांचते हैं ? पान०- गुरू- परम्परा यह सुन अचलदासजी ने मुनिश्री के पास श्राकर सब हाल कह सुनाया । मुनिजी ने प्रश्न किया, कि कौन से गुरू की परम्परा ? अच० - गुरु लौंकाशाह की परम्परा । मुनि - लौंका शाह तो गृहस्थ था फिर उनको कितना ज्ञान था ? अचा०—साधारण ज्ञान होगा ? मुनि० - फिर गणधरों की परम्परा छोड़कर ऐसे अज्ञ गुरु की परम्परा बतलाना अज्ञान के सिवाय और क्या है । गणधरों की आज्ञा पालनी चाहिए या गृहस्थ गुरु की परम्परा ? अचल० - गणधरों की आज्ञा पालन करनी चाहिये । मुनि० - इसको आप स्वयं सोच लें। खैर, पानकुँवरजी स्त्री हैं, ऋतुधर्म भी आती होगी। फिर वह लगातार सूत्र कैसे बांचती है ? अचलदासजी पुनः पानकुंवरजी के पास गये और सवाल किया कि श्रारजियाँ ऋतुधर्म होने पर सूत्रों को छूती हैं या परहेज रखती हैं ? पान० - ऋतुधर्म तो त्रियों का स्वाभाविक धर्म है, इससे क्या होता है ? मैं स्वयं उस अवस्था में श्रीभगवती बांचती हूँ । अचल० - महाराज जुल्म करते हो, ऋतुधर्म का तो गृहस्थ लोग भी बड़ा भारी परहेज रखते हैं, फिर आप सूत्र कैसे बांचते हैं । पान० - आपको किसने भ्रम में डाल दिया है ? अचलदासजी चुप हो गये और वहां से उठ कर मुनिश्री के Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३०० पास आये और कहने लगे कि आपका कहना सोलह आना सत्य है, यह लोग जुल्म अवश्य करते हैं । इस बात का निर्णय करने के लिये किसी प्रसंग पाकर अचल. दासजी, और मोतीलालजी पूज्यजी के दर्शनार्थ ब्यावर गये और वहाँ पर प्रश्न किया कि ऋतुधर्म आई साध्वी क्या सूत्र बाँच सकती है ? - पूज्य:-सूत्र बाँचना तो दूर रहा, उसे तो सूत्र को स्पर्श भी नहीं करना चाहिये। अचल०-क्या यह किसी सूत्र में कहा है ? पूज्य०-हाँ ठाणायाँग सूत्र में असजाई बतलाई है। अचल-तीवरी में पानकुँवरजी ऋतुअवस्था में भी महा प्रभाविक श्री भगवती जी सूत्र बाँचती हैं। . पूज्य०-मैं तो इसे ठीक नहीं समझता हूँ, यदि वे मानें तो मेरे नाम से आप कह देना कि इस प्रकार सूत्रों की आशातन कर ज्ञानवर्णीय कर्म न बाँधे। जब अचलदासजी ने पूज्यजी से मूर्ति और मुंहपत्ती के विषय में प्रश्न किया तो पूज्यजी ने साफ कह दिया कि मति की निन्दा करने वाले महा मोहनीय कर्मोपार्जन करते हैं। कारण मूर्ति में स्थापनानिक्षेप के साथ नामनिक्षेप भी रहा हुआ है और चार नय वाले चारों निक्षेप को मानते हैं । अतः जैन शास्त्रों के जानकार न तो मूर्ति का निषेध करते हैं और न निन्दा ही करते हैं । हाँ मूर्तिपूजा में हिंसा होती है उसको हम धर्म नहीं मानते हैं पर सत्य बात तो यह है कि जब मूर्तिपूजकों ने मन्दिर की धूम-धाम बढ़ा दी, तब अपने समुदाय ने उसे बिलकुल हो छोड़ दिया। दूसरे Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य जी और भचलासजी मुँहपत्ती में डोरा डालने का किसी सूत्र में विधान नहीं है पर उपयोग न रहने के कारण अपने पूर्वजों ने करीब दो सौ वर्ष से डारा डाल मुंह पर मुंहपत्ती बांधनी शुरू की है । लेकिन अचलदासजी ! यदि आप मेरी राय मानें तो मैं सलाह दूँगा कि आप इस चर्चा में ज्यादा न उतरें, कारण कि वाद-विवाद में यदि कहीं ही उत्सूत्र भाषण हो जायगा तो मिथ्यात्व का बज्रपाप लगेगा। अचल-क्यों पूज्य महाराज ! यदि मन्दिर में जाकर जल पुष्पादि न चढ़ा कर केवल मूर्ति को नमस्कार कर नमोत्थुणं वगैरह तीर्थङ्करों के गुण स्तवना करे तो इसमें हर्ज तो नहीं हैं न ? पूज्य-इसमें कोई भी हर्ज नहीं है अचलदासजी ! केवल मत-भेद के कारण अपने लोग मन्दिरों के हक़ से हाथ धो बैठे हैं जो लाखों करोड़ों की सम्पत्ति हैं। पर लोग इतने शंकाशील और अविवेकी हो चले हैं कि अन्यमत के देव देवी और पीर पगम्बरको तो मान लेते हैं पर जैनों के देव के लिये ही खेंचा तान करते हैं पर यदि यह बात सबके सामने कह दी जाय तो लोग कह देंगे कि पूज्यमहाराज की श्रद्धा भ्रष्ट हो गई है, इत्यादि । अचल-पूज्य महाराज ! आप जैसे महान् पुरुष भी जब सत्य कहने में संकोच रखते हैं, तो फिर हमारा उद्धार ही कैसे हो सकता है। पूज्या०-भाई ! क्या करे समय ही ऐसा है जैसी वायु चले, मा ही आश्रय लेना पड़ता है। अचल-लोग कहते हैं कि गयवरचन्दजी भ्रष्ट हो गये, इसलिये पूज्याजी ने निकाल दिया है । क्या यह बात सत्य है ? पूज्य-नहीं गयवरचन्दजी के चारित्र में तो कोई दोष नहीं Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३०२ है। केवल उनकी श्रद्धा मूर्ति की हो जाने से एवं वे आम तौर पर व्याख्यान में प्ररूपना कर देने से उन्हें अलग कर दिया है । अचलदासजी ! श्राप जानते हैं, किसी साधु पर अनहोता झूठा कलंक लगा देना कैसे कर्म बन्ध का कारण है ? __ अचल-हाँ, पूज्य महाराज ! आत्मार्थी का यह काम नहीं है कि किसी की झूठी निन्दा करे । मुझे तो गयवरचन्दजी का आचार-विचार में कोई दोष मालुम नहीं होता है। अचलदासजी वगैरह जान गये कि मूर्ति का मानना शास्त्र सम्मत है, और मुँहपर मुंहपत्ती बांधने की प्रवृति पिछले लोगों ने अपनी मनकल्पना से चलाई है । गयावरचन्दजी की सत्य कहने की आदत पड़ गई है, और "साँच कहने से माँ भी मारती है", यही कारण आपके अलग होने का है। ४४ चन्दनमलजीनागौरी का तीवरी में मिलाप तीवरी में उस समय खरतरगच्छ की साध्वी रत्नश्रीजी का भी चातुर्मास था । पहिले तो साध्वीजी लोढ़ाजी के बहुत कहने सुनने पर भी मुनिश्री के पास नहीं आया करती थीं, कारण मुनिश्री के मुँह पर मुँहपत्ती बंधी हुई थी,तथाओषा भी लंबा था, शायाद इससे डर गई हों किंतु जब छापों में चर्चा चली सब जयपुर में सोनश्रीजो को मालूम हुआ। उन्होंने एक पत्र साध्वीजी को लिखा कि तुम गयवरचन्दजी के पास जाना, अपने गच्छ का प्रतिक्रमण सिखाने की कोशिश करना तथा अपने गच्छ का स्थापना भी उन्हें देदेना। दूसरा पत्र लोढ़ा जी को लिखा था क्योंकि वे खरतरगच्छ की क्रिया करते थे। सोनश्री Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ चन्दनमलजी का मिलाफ जी ने उन्हें लिखा था कि लोढ़ाजी तुम खरतरगच्छ के पक्के श्रावक हो, अपने गच्छ में कोई ऐसा विद्वान् साधु नहीं है । गयवरचंदजी ने आपके वहाँ चातुर्मास किया है और वे चातुर्मास के पश्चात् संवेगी होने वाले हैं । अतः उनकी दीक्षा अपने सिघाड़ा में ही होनी चाहिये । इस विषय में मैं आपको ज्यादा नहीं लिख सकती हूँ इत्यादि । लोढ़ा जो ने सोनश्रीजी का पत्र मुनिश्री को बँचाया तथा रत्नश्रीजी को भी जाकर उपालम्भ दिया कि मैंने आपसे पहिले ही कह दिया था कि श्राप मुनि जी के पास जाकर उन्हें अपनायें । रत्नश्री ने कहा कि लोढ़ाजी ! मुझ से ग़लती हुई । खैर, अब आप ठहरें,मैं भी आपके साथ चलती हूँ। रत्नश्रीजी मुनिजी के पास आई और फेटाबन्दन कर कहा कि आपको कोई भंडापकरण प्रतिक्रमण की पुस्तक तथा स्थापना की आवश्यकता हो तो मैं ला कर हाजिर करूँ। इस पर मुनिश्री ने कहा कि इस समय तो मुझे किसी बात की जरूरत नहीं है, यदि जरूरत पड़ेगी तो मैं आपको कहला दूंगा। पर लोढ़ाजी ने साध्वियों से कहा कि कम से कम आप मुनिजी को स्थापना तो ला दे, क्योंकिप्रतिक्रमणादि करने में स्थापना की तो पहली जरूरत रहती है। रत्नश्री ने अपनी छोटी साध्वी को भेज कर प्रतिक्रमण की पुस्तक और स्थापना मँगा कर दे दी। .. यद्यपि गुरू महाराज के पास गये बिना आप किसी पक्ष का निर्णय नहीं करना चाहते थे, तथापि आपने लोढ़ाजी और साध्वियों के आग्रह से पुस्तक और स्थापना रख ली। कार्तिक मास के शुक्लपक्ष में चन्दनमलजी नागौरी तीवरी गये । उन्होंने मुनिश्री से मिल कर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उपा Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३०४ लम्भ भी दिया कि मैंने आपसे सादड़ी में विनय की थी कि जब आपको काम पड़े तो श्राप मुझे याद करना, किन्तु आप तो मुझे भूल ही गये ? मुनिश्री ने कहा, मैं आपको भूला तो नहीं था । जब जोधपुर में मैं अलग हुआ था, उस समय मुझे आपकी आवश्यकता हुई थी। और मैंने एक श्रावक को कहा भी था, श्रापको तार द्वारा सूचित कर दें किन्तु उन्होंने कहा कि धुंदनमल जी का सब काम हम कर देंगे, उनको क्यों तकलीफ दी जाय । इसी प्रकार वे बहुतसी बातें करते रहे । प्रतिलेखन का समय होने पर जब मुनिश्री ने अन्य उपकरणों की प्रतिलेखन करते हुए स्थापनाजी का भी प्रतिलेखन किया तो चंदनमलजी ने स्थापना देख मुनिश्री से साश्चर्य प्रश्न कियाः चंदन:-क्या आपने खरतरगच्छ की क्रिया करने का निश्चय कर लिया है ? मुनि-नहीं। · चॅदन-तो फिर आप के पास यह खरतरगच्छ की स्थापना क्यों हैं ? मुनि०-साध्वी रत्नश्री जो ने ला दी है । चँदन०-तो स्थापना यहीं रखी जावेगी ? मुनि०-नहीं गुरू महाराज कहेंगे वहीं रखूगा । चंदन०-मैंने आपके लिए ईरान से बहुत ही अच्छे स्थापनानी मँगवाये हैं, और उनकी प्रतिष्ठा भी अभी ज्ञानपंचमी को ओसियाँ में योगिराज से करवाई है । मुनिः-वे कहाँ हैं ? Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दनमलजी और स्थापनाजी चंदन० - मेरे पास हैं और आपको देने के लिए ही लाया हूँ। इसके लिए योगिराजश्री की सम्मति भी मैंने ले ली है। मुनि - तो फिर लाइये देरी किस बात की है ? चंदन०- पर एक बात है कि जब आप खरतरगच्छ वालीस्थापना वापिस देंगे तो वे मुझ पर ही संदेह करेंगे । मुनि - इसमें संदेह की क्या बात है । मैं तो योगिराज रत्न विजयजीमहाराज को अपना गुरू बना चुका हूँ। इसलिए जैसा वे कहेंगे वैसा ही तो मैं करूँगा । चंदन०—तब यह स्थापनाजी हाजिर हैं । आपको ज्ञात होगाकि स्थापनाजी के लिए श्री भद्रबाहुस्वामी ने एक स्थापना कुलक बनाया है, जिसमें स्थापनाजी के सुलक्षण लिखे हैं । उनमें से बहुत सुलक्षण इन स्थापनाजी में हैं । मुनिजी ने स्थापनाजी को नमस्कारपूर्वक ग्रहण कर लिया और पूछने लगे कि क्या यह मूल्य से मिलता है ? चंदन० - हाँ मोहनलालजी महाराज के पास एक ही स्थापनाजी सहस्र रुपयों का था । मुनि०- लेकिन सुना है कि मोहनलालजी महाराज तो खरतरगच्छ के यति थे । फिर उन्होंने तपागच्छ की स्थापना क्यों रखी थी ? चंदन० - यह ठीक है कि मोहनलालजी खरतरगच्छ के यति थे, पर वे क्रिया तपागच्छ की ही करते थे । उनके शिष्य पन्या स हर्ष मुजी भी फलौदी में हैं। वे भी तपागच्छ की ही क्रिया करते हैं । इसके अलावा भद्रबाहुस्वामी ने जो स्थापना के लक्षण. बतलाये हैं वे प्रकृतिक (सभावी) स्थापना में ही होते हैं, चंदन की Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३०६ बनाई हुई स्थापना में नहीं । अतः मोहनलालजी तपागच्छ की स्थापना रखते थे और क्रिया भी तपागच्छ की ही करते थे । मुनि० - अच्छा तो आप जो यह स्थापना लाये हैं, वे कितने -मूल्य की होगी ? चंदन - इसके ईरान में सवासौ रुपये लगे हैं । इसमें -मूलनायकजी हैं जो बड़े ही सुलक्षण वाले हैं। मुनिः - क्या इसकी भी प्रतिष्ठा होती है ? चंदन० -- हाँ, प्रतिष्ठा होने के पहिले यह वन्दनीय नहीं समझे जाते हैं, जैसे मूर्ति की प्रतिष्ठा का विधान है, वैसे ही स्थापना जी की प्रतिष्ठा का भी विधान है। मैं अभी श्रोसियाँ में हो कार्तिक शुक्ला पंचमी ( ज्ञान -पंचमी) को गुरू महाराज से प्रतिष्ठा करवा के लाया हूँ । मुनि० - अच्छा, श्रावकजी ! यह लाभ आपको ही है । चंदन ० - महाराज ! हम लोगों के भाग्य ऐसे कहाँ हैं कि - इस प्रकार से लाभ मिल सके। वैसे देखा जाय तो संसार के कार्यों में तो अनेक प्रकार से खर्च हो जाता है पर ऐसे परमार्थ का अवसर तो कभी कभी हो आता है । इस प्रकार चन्दनमलजी अनेक बातें कर एक दिन यहाँ ठहरने के बाद मेवाड़ में पधारने की श्राग्रहपूर्वक विनती कर चले गये । मुनिश्री के चातुर्मास करने से तीवरी की जनता पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा । ज्ञान, ध्यान, तपश्चर्या, पूजा, प्रभावना आदि बहुत उत्साह से हुए। मंदिर मूर्ति की ओर लोगों की श्रद्धा भी दृढ़ एवं बढ़ती रही । तोवरी में जैन श्वेताम्बर सभा नामक एक संस्था स्थापित हुई Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० प. पत्र व्यवहार जिसका उद्देश्य छाटे २ ट्रैक्ट छपा कर सर्वत्र ज्ञान प्रचार करना था। और उसने आगे चलकर अपने उद्देश्य में कुछ सफलता भी प्राप्त की थी। तीवरी के मन्दिरों में पूजारियों का भी कई प्रकार का जुल्म था मुनि श्री के उपदेश से उनको भी ठोक व्यवस्था हो गई। ४५ संवेग पक्षीय विद्धान मुनियों से पत्र व्यवहार समाचारपत्रों में यह चर्चा जोरों से चल रही थी कि स्थानकवासी समाज से एक विद्वान् साधु गयवरचन्दजी अलग हो गये हैं, अभी उनके मुंहपत्ती बंधी हुई है और तीवरी चातुास है; चातुर्मास के बाद वह संवेगी होने वाले हैं। यह बात स्वाभाविक ही है कि विद्वान् शिष्य की सब आशा रखते हैं। अतः मुनिश्री के पास कई साधु एवं श्रावकों के पत्र आये, कई साधुओं की ओर से श्रावक भी आकर मिले, किंतु मुनिश्री ने सबको यही कहा कि अभी तो मैं योगीराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज की सेवा में जाऊंगा फिर समय पा कर दूसरे साधुओं से मिलंगा अतःअभी तक तो कुछ भी निश्चित नहीं है । इसके अतिरिक्त आपने संवेगपक्षीय विद्वान आचार्यों और मुनिवरों को पत्र द्वारा कई प्रश्न भी पूछे थे कारण कि इस सम्प्रदाय में कौन २ मुनि किस २ प्रकार के विद्वान् हैं ? हमारे लोदाजी ने विद्वत्ता के विषय में सबसे अधिक प्रशंसा तो कृपाचन्द्रसूरि की ही को थी। इसलिए मुनिश्री ने सब से पहिला पत्र बम्बई कृपाचन्द्रसूरि को बड़े हो विनय के साथ लिखा था। उसमें निम्न लिखित प्रश्न भी पछे थे। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय वण्ड ३०८ (१) केवली जो समुध्धात करते हैं, वह की हुई होती है या स्वाभाविक ? (२) भरत क्षेत्र में रहे हुए केवली समुद्घात करते हैं तो उनके आठ रूचक प्रदेश कहाँ पर रहते हैं ? . इन प्रश्नों का उत्तर खास कृपाचन्द्रसूरि के हस्ताक्षरों से आया था, जिसमें आप लिखते हैं किः (१) केवली जो समुद्धात करते हैं वह की हुई होती है । सूत्र में पाठ है कि 'करइ करइता' । (२) केवली जिस क्षेत्र में समुद्धात करते हैं, उनके रूचक प्रदेश उसी क्षेत्र में रहते हैं। ___ इसके प्रतिवाद के लिए मुनिश्री ने लिखा था कि: (१) केवली समुद्धात की हुई होती है तो काया का योग प्रवृताने में असंख्य समय लगते हैं और केवली समुद्धात को केवल आठ समय ही लगते हैं। ऐसी दशा में उदारीक शरीर से समुद्घात को की हुई कैसा समझा जाय १ अर्थात् योगों से कृत कार्य पाठ समय में हो ही नहीं सकता। (२) केवली जिस क्षेत्र में समुद्धात करे उसी क्षेत्र में यदि रूचक प्रदेश रहते हों तो वे सम्पर्ण लोक को कैसे पर सकते हैं ? क्योंकि लोक का मध्य भाग मेरुपर्वत के आठ रूचक प्रदेश के स्थान पर है । अतएव इन बातों को फिर विचारकर सूचित करावें । ___ कृपाचन्द्रसूरि ने यह लिख कर अपना पीछा छुड़ाया कि सूत्र के आशय गहन हैं । ऐसे प्रश्नोत्तरों का समाधान कभी रूबरू मिलने पर ही हो सकता है। मुनिश्री ने दूसरा पत्र लिखा था तपागच्छीय आनन्दसागर Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ सं० ५० मुनियों से प्रश्न जी (हाल के सागरानन्द सूरि ) को, जो संवेगी समुदाय में एक सर्वोपरि शास्त्रज्ञ बतलाये जाते हैं । आपकी पत्र लिखने की पद्धति इतनी सुन्दर थी कि जिन आचार्य मुनिवरों को जो पदवी उपाधि थी उन विशेषणों के साथ आप सविनय जिज्ञासु बन कर प्रश्न पछते थे। - (१)पन्नवणा सूत्र पद १२ वाँ में असुरकुमार के देवताओं के बैक्रिय शरीर के वंदेलगा सूची प्रांगुल के प्रथमवर्गमूल के संख्यात वें भाग जितने कहा है, तब इसी पन्नवण सूत्र के तीसरे पद में ९८ बोल की अल्पा बहुत की, टीका में प्रथम वर्ग मल, तीसरा वर्ग के गुणा करने से प्रदेशो की राशि हो, इतना प्रमाण बतलाया है। इसका क्या कारण है ? (२) पन्नवणापद ३६ वें पद की टीका में केवली समुद्धात करें, जिसके प्रथम समय में ३९ प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। इसमें श्रताप उद्योत भी है । और दूसरे कर्म ग्रन्थ की गाथा २८ में पूर्वोक्त दोनों प्रकृतियों का नौवें गुणस्थान के दूसरे भाग में अभाव कहा है । अतः जिन प्रकृतियों का नौवें गुण. में क्षय हो गया है, उनको सत्ता तेरहवें गुणस्थान तक कैसे ठहर सकती है ? इन सूत्रों का संशोधन तथा मुद्रण आपकी ही अध्यक्षता में हुआ है ? ___ (३) आचरांग सूत्र अ० १, उ०३ में अवस्थित काल की स्थिति आठ समय की कही है, पर भगवती सूत्र के श० २५, उ० ६-७ वें में सात समय की कही है । इसका क्या कारण है ? (४) जीवाभिग सूत्र में तीन वेदों की पल्पा बहुत में खेंचर पुरुष संख्यात, गुणा और पन्नावणा सूत्र पद तीन में खेचर पुरुष असंख्यात गुणा कहा है, इसका क्या कारण है ? Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३१० इन प्रश्नों के उत्तर में सागरजी महाराज ने लिखा था कि अगर तु को इन प्रश्नों का उत्तर लेना है तो हमारे रूबरू आ कर ले लो ? तीसरा पत्र आचार्य श्री विजयनेमिसूरि को सादड़ी दिया, जिसमें निम्नलिखित प्रश्न किये थे: (i) प्रश्न व्याकरण सूत्र तीसरा संबर द्वारा में साधु को प्रतिदिन फल, फूल, हरी, वनस्पति को गृहस्थ से आज्ञा लेना लिखा है । इसका क्या कारण है ? क्या पूर्व जमाना में साधु फल, 5. फूल, हरी काम में लिया करते थे ? यदि लेते थे वे सचित थे या चित ? (२) पन्नवणा सूत्र पद पहला में 'लहसन' को साधारण वनस्पति कहा है, तब उत्तराध्याय अ० ३६ में लहसन को प्रत्येक कार्य में गिना है, इसका क्या कारण है ? (३) जब श्रावक की उत्कृष्ट गति १२ वें देवलोक तक की है, तब परिहार विशुद्ध चारित्र प्रतिसेवी होने पर भी उसको ८ वें देवलोक तक जाना बतलाया है, इसकी क्या वजह है ? इसका उत्तर आया कि पत्र में कितना लिखा जावे, उत्तर रूबरू लेना ही अच्छा है चतुर्मास के बाद तुम यहां आ जाना | चौथा पत्र आचार्य विजयकमलसूरि और मुनिश्री दान विजय जी को लिखा, जिसमें निम्नलिखित प्रश्न किये गये थे:[१] एक प्रकाश प्रदेश पर अजीब के ५६० भेदों में से कितने भेद मिलते हैं ? - 8 नोट- जब सूरत में मुनिश्री सागरजी से मिले तो प्रश्नों के उत्तर के लिए कहा कि अभी तो मुझे अवकाश नहीं है, फिर समय मिलने पर सूत्र निकाल कर देखेंगे मतलब टालमटाल का ही था । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं०प०मुनियों से प्रश्न पत्र [२] कितने रस विभाग का एक स्पर्द्ध बनता है ? [३] कितने स्पर्द्ध का एक कंडक बनता है ? [४] कितने कंडक से कर्म वर्गणा बनती है ? [५] कर्मों का निसर्ग किसको कहते हैं ? [६] ऋषभदेव भ० की दीक्षा चैत कृष्ण ८ को और वर्षी तप का पारण बैशाख शुक्ल ३ को हुआ तो फिर वर्षी तप कैसे हुआ ? इन महात्माओं का तो पत्र पहुँच जाने पर भी उत्तर तक ही नहीं मिला । जब रूबरू मिले तब मालुम हुआ कि पत्र आपको पहुँच गया था । पाँचवा पत्र मुनिश्री वल्लभविजयजी ( हाल के विजयवल्लभसूरि ) को लिखा गया, जिसमें यह प्रश्न थे: -- [१] तीर्थङ्करों की मूर्ति की फल फूल से पूजा की जाती है, वह अग्र पूजा है या अंगपूजा ? [२] तीर्थङ्करों की मूर्ति को मुकुट; कुण्डल, हार, कड़ा, कण्ठी धारण कराये जाते हैं, यह शास्त्रीय विधान है या आधुनिक चलाई हुई प्रवृति है ? ३११ [३] जैन मन्दिर में रात्रि दीपक या रोशनी की जाती है, इसका शास्त्रों में उल्लेख है या यह कल्पित क्रिया है ? [४] जैन मति ध्यानावस्था में विराजमान है। फिर उनके नेत्र खुले हुए क्यों हैं ? क्या ध्यान करने वाले इस प्रकार नेत्र खुला रख सकते हैं ? [५] देव द्रव्य कहा जाता है, यह शास्त्रीय विधान है या कल्पना है ? इन प्रश्नों का उत्तर शीघ्र ही आया । उत्तर में उन्होंने लिखा Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३१२ [१] फल-फूल मूर्ति की श्रम पूजा है, कई स्थानों पर फूल मूर्ति पर चढ़ाने की प्रथा चल पड़ी है । यह कल्पना मात्र है । [२] मूर्ति पर आभूषण चैत्यवासियों से शुरु हुआ है और उनके राज्य में लिखे हुए ग्रंथों में इसका उल्लेख भी मिलता है । [३] जैन मन्दिर में रात्रि दीपक का शास्त्रीय विधान नहीं है । [४] मूर्ति के चक्षु का आग्रह श्वेताम्बर दिगम्बर का भेद होने के बाद हुआ है । ܘ " [५] देव द्रव्य शास्त्रीय विधान नहीं, किन्तु संघ की कल्पना है । छठा पत्र आचार्य विजयधर्मसूरिजी को उदयपुर लिखा गया था, जिसमें भी कई प्रश्न थे, किंतु उनका भी उत्तर संतोष जनक नहीं मिला। उदयपुर में श्राचार्य विजयधर्मसूरिजी का चातुर्मास था । उस समय पूज्य श्रीलालजी महाराज का भी चातुर्मास वहीं था । श्रतः परस्पर खूब चर्चा चली । संवेगियों की ओर से १०८ प्रश्न ढूँढ़ियों से पूछे गये, जब कि ढूंढ़ियों की ओर से १५१ प्रश्न संवेगियों से पूछे गये थे । इन दोनों ओर से किये गये प्रश्न पुस्तकाकार में भी छप गये थे । संवेगियों की ओर से जो प्रश्न पूछे गये वे विद्वत्ता पूर्ण थे; किंतु ढूँढ़ियों की ओर से पूछे गये प्रश्न केवल थोकड़ों के बोलचाल से ही सम्बन्ध रखते थे । आचार्य विजयधर्मसूरि ने १५१ प्रश्नों वाली पुस्तक हमारे चरित्रनायकजी के पास निशान करके भेजी कि इन प्रश्नों का उत्तर लिख कर तुरत भिजवा दो। हमारे चरित्र - नायकजी को ४०० थोकड़े कण्ठस्थ थे, मिन्टों में ही उन प्रश्नों का उत्तर लिख कर भेज दिया गया । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ उदयपुर के प्रश्नोत्तर उदयपुर में एक सार्वजनिक सभा कर के स्थानकवासी समाज को आमन्त्रित किया गया और कहा गया कि आप हमारे प्रश्नों का उत्तर दें या न दें, किंतु आपके पूछे हुये १५१ प्रश्नों का उत्तर हम सार्वजनिक सभा में देने को तैयार हैं। कृपया आप प्रश्नों का उत्तर समझ कर ले लें । इस हालत में कोई भी स्थानकवासी प्रश्नों का उत्तर लेने को नहीं आया। हाँ, सभा देखने को कई लोग अवश्य आये थे । दूसरे राजकर्मचारी एवं जैनेतर लोग भी सभा में बहुत थे । आचार्य विजयधर्मसूरि की अध्यक्षता में मुनिश्री न्यायविजयजी ने स्थानकवासियों के किये हुए १५१ प्रश्न और उनके उत्तर सभा के समक्ष सुना कर अपने ऊपर जो प्रश्नों का वजन था उसको उतार दिया, किन्तु स्थानकवासी समाज पर जो १०८ प्रश्नों का भार था वह ज्यों का त्यों रह गया, केवल उनमें से ८ प्रश्नों का उत्तर जवाहरलालजी स्वामी की ओर से छपा था। पर वह भी विद्वानों को संतोष जनक प्रतीत नहीं हुआ। उसमें निरा वितंडावाद ही झलक रहा था। ___ इस वाद-विवाद में आचार्य धर्मविजयसूरि की इच्छा थी कि गयवरचदजी को यहाँ बुला कर पूज्य श्रीलालजी की विद्यमानता में खूब ठाठ के साथ दीक्षा दी जाय, जिससे स्थानकवासी समुदाय पर गहरा प्रभाव पड़े। अतः आपने परम योगिराज रत्न विजयजी महाराज को जोर देकर लिखा और आदमी भेजा; किन्तु ऐसा करना न तो योगिराज ही चाहते थे और न इसे मुनिश्री ही उचित समझते थे । इसका कारण यह था कि आज आप भले ही श्रीलालजी से अलग हो गये हों किन्तु उनका उपकार ता आप पर था ही जिसको कि आप भूल नहीं गये थे। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३१४ अतः श्रापने साफ़ शब्दों में इन्कार कर दिया कि इस समय मैं उदयपुर नहीं आ सकता । आपके पास कई मुनियों एवं आचार्यों के यहाँ तक समाचार आये कि तुमको वापिस दीक्षा तो लेनी ही होगी, फिर रेल सवारी कर के हमारे पास आ जाओ तो क्या नुक़सान है । उत्तर में आपने कहला दिया कि जैसे आप मुझे रेल सवारी से बुलाना चाहते हैं, वैसे यदि आप ही रेल सवारी कर यहां पधार जावें तो क्या नुक़सान है ? इसके उत्तर में जवाब आया कि हम तो साधु हैं रेल में बैठ कर कैसे आ सकते हैं ? मुनि० - मैं कौनसा गृहस्थ हूँ जो मैं रेल में बैठ कर श्रा सकता हूँ ? इस पर वहां से कई आदमी आये और उन्होंने कहा आदमी - आपको तो पुनः दीक्षा लेनी पड़ेगी । मुनि०- यह तो एक समुदाय की मर्यादा है, किन्तु मैं यह नहीं समझ सकता कि मैंने जो नौ वर्ष साधुधर्म का पालन किया, वह संवेगी बनने से नष्ट हो जाता है । मेरी श्रद्धा का परिवर्तन हुआ है न कि दीक्षा काः I इस पर वे लोग समझ गये कि यहाँ पोल का महकमा नहीं किंतु खराखरी का खेल है। ऐसे महात्मा को कोटिशः बन्दन है । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ दक्षिा की चर्चा तथा मुँहपत्ती का डोरा तीवरी का चातुर्मास सानद समाप्त हुआ। आपके विहार के समय जैन जैनेतर प्रायः सब लोग आपकी सेवा में उपस्थित हुए। विशेषता यह रही कि जो प्रदेशी समुदाय वाले पहिले आपके प्रतिकूल थे, वे लोग भी विहार के समय उपस्थित हो गये । इसका कारण यह था कि आपकी शांत प्रकृति तथा समयज्ञता एवं चातुर्य ने उन पर अच्छा प्रभाव डाल कर अपनी ओर आकर्षित कर लिया था । अतः वे कहने लगे, “कहना सुनना हुआ है तो क्षमा करें" यह कह कर मँगलिक सुन कर वे वापिस लौट गये। __ शेष लोगों का आगे चल कर मुनिश्री ने रवानगी का पुनः मँगलिक सुनाया । पर मँगलिक सुन कर वापिस जाने वाले लोगों के मुख उदास हो गये थे तथा नेत्रों से अश्रुधाग बहने लग गई थी। उन्होंने उन दिन शाम को रज के मारे शायद ही भोजन किया हो, क्योंकि धर्मानुराग ऐसा ही होता है । खैर लगभग ६० पुरुष तथा २० खियाँ तो आपके साथ ओसियाँ तीर्थ की यात्रा करने के लिए कटिबद्ध हो गये। . दूसरे दिन सब लोग ओसियाँ पहुँचे । बोर्डिंग के ४ लड़के व मुनिम वगैरह बाजा-गाजा लेकर सामने आये और मुनिश्री का अच्छा स्वागत किया । गुरू महाराज की इतनी कृपा थी कि आप स्वयं अपने विनयवान् शिष्य को लेने के लिए ग्राम के बाहर तक पधारे । जिस समय शिष्य ने गुरु महाराज के चरणों की रजको अपने Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड ३१६ मस्तक से स्पर्श की, उस समय का दृश्य जनता के हृदय में जैन शासक के विनय का एक अपूर्व भाव पैदा करता था । सब लोगों ने शासनाधीश भगवान महावीर की जय ध्वनि के साथ मंदिर में आकर वन्दन, स्तुति एवं चैत्यवन्दन कर अपने आप को भाग्यशाली समझा मन्दिर में जितने भाई बहिन थे, उन सबको डोरो डाल मुँहपत्ती बँधाने का त्याग तथा दिन में एक बार मँदिरजी के दर्शन का नियम दिलवा दिया गया । बाद मँदिर से धर्मशाला में आये । सब संघ ने गुरु महाराज को वन्दन किया । गुरु महाराज ने तोवरी के लोढ़ाजी वग़ैरह की ओर इशारा कर कहा कि 'लो भाई ! बोर्डिंग का बीज तो हमने बो दिया है, किंतु अभी तक बाहर प्रामों का एक भी लड़का नहीं आया है । इसका कारण यह है कि लोगों में व्यर्थ ही यह ग़लतफ़हमी फैली हुई है कि ओसवाल का लड़का ओसियां में रात्रि में नहीं ठहर सकता है । अतः दो सेवग, एक महेश्वरी और एक ब्राह्मण, इस प्रकार कुल चार लड़के आते हैं, जिनका गुरु (मास्टर) मैं हूँ । अब हमारे मुनिजी आ गये हैं, यदि पुरुषार्थं करके आप अपने लगाये हुए पौधे को सींचते रहेंगे तो श्राशा है कि इसका शुभ फल अवश्य ही मिलेगा । मुनिश्री ने तीवरी के श्रावकों को प्रभावशाली उपदेश दिया। परिणामस्वरूप उन्होंने अपनी २ शक्ति के अनुसार बोर्डिंग के लिए द्रव्य द्वारा सहायता दी । फिर वे दो दिन यात्रा कर वापिस लौट अपने ग्राम को चले गये । यों तो तीवरी के हाल समय २ पर ओसियाँ पहुँच हो जाते थे, किंतु मुनिश्री ने गुरु भक्ति से प्रेरित होकर वहाँ के सब हाल Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ गुरु शिष्य के वार्तालाप तथा जो संवेगी आचार्यों और मुनिवरों से पत्रों द्वारा प्रश्न पूछे थे उनको नकलें और उत्तर में आये हुए पत्र दिखाये और ए+ पी जैन लश्कर वालों के लेखों के उत्तर में शास्त्रों के आधार पर तैयार किया हुआ 'गयवर-विलास' जो प्रतिमा छत्तीसी का ही एक प्रकार से विस्तृत रूप था, उन्होंने गुरु महाराज की सेवा में हाजिर किया। इनको देख कर योगीराज बहुत ही प्रसन्न हुए । वार्तालाप के पश्चात् मुनिश्री ने विनय की कि गुरु महाराज ! अब मुँहपत्ती बँधी रखने का मुझे कोई कारण नहीं दीखता है, क्योंकि 'प्रतिमा छत्तीसी' छप जाने से तथा दोनों तरफ के वाद-विवाद के लेख निकल जाने से अब इसकी आवश्यकता ही नहीं रह गडे है । अतएव अच्छा हो कि आप कोई अच्छा दिन देख कर मुझे जो क्रिया करवानी हो वह करवा कर आर अपना शिष्य बना लें। गुरु महाराज ने फरमाया कि, हाँ ! अब मुंहपत्ती बंधी रखनी तो मैं भी योग्य नहीं समझता । यह डोग आज ही दूर कर दिया जावे । और दीक्षा के लिए तो मौन एकादशी के पहिला कोई अच्छा दिन मालूम नहीं होता है, और शिष्य के लिये तो यह बात है कि मैं शिष्य बनाने की अपेक्षा अपना धर्ममित्र बनाना अधिक पसंद करता हूँ, तथा मजाक ही मज़ाक में वे कहने लगे कि मैंने तो अपना गच्छ ही दोस्तानागच्छ बना रखा है । कोई भी गच्छ का साधु क्यों न हो, मित्र बन कर जितने दिन इच्छा हो मेरे पास रहे और जब मन चाहे तब ही चल दे। संयम पालना यह वाड़ाबंदी का काम नहीं, किंतु आत्मार्थी मुमु. क्षुओं को आत्मा की साक्षी से ही पालन करना होता है। मुख्यतः मेरी तो यही सलाह है कि तुम गच्छ मत के बंधन में न Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३१८ पड़ो, कारण कि गच्छों की समाचारियाँ तो तुमने देख ही ली हैं जिनमें कि वे लोग छोटी छोटो बातों के लिए एक दूसरे को मिथ्या वादी बतला रहे हैं । जैसे एक ओघा की गांढे देता है, दूसरा फांसी लगाता है । फिर भी गांठों वाला फांसी और फाँसी वाला गाठों वालों को मिथ्यात्वी कहता है । एक भगवान महावीर के पांच कल्याणक मानता है तो दूसरा छः मानता है, इसमें भी वे आपस में मिथ्यात्वी बतलाते हैं । एक स्त्रियों की पूजा करना शास्त्र सम्मत मानता है तो दूसरा उसका निषेध करता है। इस प्रकार सामायिक प्रतिक्रमण पौषध, चैत्यवंदन, स्थापना, मुंहपत्ती, पात्रों के रंग वगैरह धर्मक्रिया में भेद है और तुम्हारी प्रकृति मैंने देख ली है, तुम हरेक बात का खोजपूर्वक निर्णय करना चाहते हो । ढूंढ़ियों की तो छोटी सी दुकान थी वहाँ तुमने निर्णय कर लिया, किन्तु यहां यदि निर्णय करने को निकलोगे तो मिथ्यात्वी की उपाधि पाये बिना न रह सकोगे । अतः मेरा यह आग्रह नहीं है कि तुम तपागच्छ में दीक्षा लो या खरतरगच्छ में, किंतु जो कुछ करना है, वह खूब सोच समझ कर करना चाहिये ताकि फिर झगड़े में न पड़ना पड़े।" ____ मुनिश्री गुरु महाराज ! गच्छों की समाचारियां देख कर तो मेरा भी मन व्याकुल होगया है । जब कि सर्व आगम पंचाङ्गी और पूर्वाचार्यों के ग्रंथों को मानने वालों का यह हाल है तो बिचारे टूढियों का तो कहना ही क्या ? फिर भी आश्चर्य की बात तो यह है कि खर-तरगच्छ वाले त्रियों को जिन पूजा का निषेध करते हैं और इसके मल उत्पादक जिनदत्तसूरि जैसे नामांकित आचार्य बतलाये जाते हैं । अतः ढूंढ़ियों की नीव तो उन्होंने Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु शिष्य के वार्तालाप ३१९ ही डाली । उन्होंने शासन का एक अङ्ग काटा है, बाद में ढूँढ़ियों ने उसकी वृद्धि कर दूसरा अंग भी काट डाला है । योगीराज ने कहा कि ऐसी तो गच्छ गच्छान्तर की कई चर्चाएँ हैं, यदि तुम इसमें उतर जाओगे तो तुम्हारी उम्र इसमें ही समाप्त हो जावेगी । अतः इन सब बातों को छोड़ तुमको जो कुछ करना है, उसीका निश्चय कर डालो | मुनि०- मैं तो आपकी शरण में आया हूँ, जो मार्ग आप बतलावें मैं स्वीकार करने को तैयार हूँ । C योगीराज - मेरी तो राय है कि तुम ढूँढियों में से आये हो, तुमको पुनः दीक्षा तो लेनी ही पड़ेगी, और मैं दीक्षा देने को भी तैयार हूँ, अतः तुम दीक्षा लेकर तुम्हारा जो खास गच्छ है उसका ही उद्धार करो । मुनि०- गुरु महाराज ! मेरा खास गच्छ कौनसा है, जिसका अभी तक मुझे पता ही नहीं है ? योगी० - क्या तुम अपने मुख्य गच्छ को नहीं जानते ? मुनि - नहीं, कृपा कर आप बतलावें । ० योगी० - तुम वैद्य मेहता हो । तुम्हारे पूर्वजों को इसी स्थान पर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने जैन बनाया था और इसी नगर के नाम से श्राचार्य रत्नप्रभसूरि के गच्छ का नाम उपकेश गच्छ कहलाया है, अतः आपका गच्छ उपकेश गच्छ है 1 मुनि 10 – क्या इस गच्छ में कोई साधु है ? --- योगी :- अभी कोई साधु नहीं है, हाँ यतिवर्ग अवश्य है । 31 मुनि-तब मैं किसके पास दीक्षा ले सकता हूँ ? योगी ० - दीक्षा मैं दूंगा । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३२० मुनि०-क्या ऐसा हो सकता है कि दीक्षा किसी गच्छ वाले दें और क्रिया नाम किसी गच्छ का हो सके ? ___ योगी०-हाँ, हो सकता है पुराने जमाने में ऐसे कई उदा. हरण मिलते हैं। इतना ही क्यों तुम्हारे व्यवहार सूत्र में भी ऐसा उल्लेख है। मुनि०-हमारे जो कुलगुरु आते हैं, वे तो कॅवला गच्छ के हैं । योगी-यह उपकेश गच्छ का ही अपर नाम है। मुनि०-कँवला गच्छ कब से हुआ ? योगो:-उपकेश गच्छ तो रत्नप्रभसूरिजी से हुआ जो सब गच्छों में ज्येष्ठ प्राचीन गच्छ है । और विक्रम की बारहवीं शताब्दी में जब करड़ा रहने वालों को खर-तर कहा गया तब नम्र एवं कोमल रहने वालों को कवल कहने लगे। मुनि-उपकेश गच्छ को क्रिया और तपागच्छ की क्रिया में क्या अन्तर है ? योगी-विशेष अन्तर तो नहीं है, केवल प्रतिक्रमण में एक वैरूट्या देवी की स्तुति और प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का चार लोगस्स का काउस्सगा अधिक किया जाता है और यह भी प्राचीन नहीं, पर आधुनिक प्राचार्यों की चलाई हुई आचरणा है । मैंने सुना है कि आचार्य सिद्धसूरि को वैरूट्या देवी का इष्ट था और वह देवी आचार्य श्री के याद करते ही आकर उपस्थित हो जाती थी। अतः उन्होंने प्रतिक्रमण में श्रत देवता और क्षेत्र देवता के साथ वैरूट्या देवी की स्तुति कहनी शुरू कर दो । रत्नप्रभसूरि का काउस्सगा खरतर गच्छ वालों के साथ अधिक परिचय होने के कारण वे उनकी देखा-देखी करने लग गये हैं । अतः Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ गुरु शिष्य के वार्तालाप ये दोनों क्रियाएं तुम करोगे तो लोगों में उपकेशगच्छ को पुनः प्रख्याति होगी और न भी करोगे तो कोई हानि नहीं है, क्योंकि यह क्रियाएं जरूरी नहीं पर उपकारी पुरुषों का स्मरण करना जरूरी है । अतः तुमारी मरजी पर निर्भर है । मुनि० – आपकी आज्ञा को मैं शिरोधार्य करता हूँ । मुनिजी के मन में अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि इस कलिकाल में भी ऐसे निःस्वार्थी निस्पृही महात्मा विद्यमान हैं कि जिनको अपने शिष्य बनाने का तनिक भी मोह या ममत्व नहीं है । जो दूसरे साधु एक साधारण व्यक्ति को चेला बनाने में अनेकों प्रपंच करते हैं; पर यहाँ एक पढ़ा-लिखा शिष्य बिना परिश्रम हाथ लग जाने पर भी उसकी परवाह नहीं की जाती, ऐसे महात्मा को कोटिशः वन्दन है | मुनिजी ने फिर विनय की कि गुरू महाराज मेरे लिए और क्या आज्ञा है ? योगी० – तुम स्वयं सुयोग्य हो, तुम्हारे लिए दूसरी क्या आज्ञा हो सकती है ? फिर भी एक बात मैं तुमसे कह देता हूँ कि यदि तुम श्रात्म-कल्याण करना चाहते हो या सुखी रहना चाहते हो तो दूसरी खटपट में या शिष्य परिवार बढ़ाने में न पड़ना, क्योंकि ये बातें आत्म-कल्याण में अन्तराय डालने वाली हैं । तुमने सुना होगा कि महाविदेह क्षेत्र में कोई किसी का नुक्सान करता है तो उसको गाली दी जाती है कि जाओ तुम भरतक्षेत्र में बहु परिवारी तथा बहुधनी होना । मुनि - यह ग. लो कैसे हुई ? क्योंकि बहुपरिवारी और बहुघनी होना तो प्रत्येक व्यक्ति चाहता ही है । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३२२ C योगी - चाहता तो है, किन्तु बहुपरिवारी और बहुधनी होने के पश्चात् उसको पूछा जावे कि तुम कैसे सुखी हो, तो वह कहेगा कि मेरा जैसा दुखी शायद ही इस दुनिया में कोई होगा । कारण बहुपरिवार में कोई भला, कोई बुरा, कोई सुपुत्र, कोई कुपुत्र, कोई सुखी, कोई दुःखी, किसी का मरना, किसी का पैदा होना इत्यादि घटनायें नित्य घटित होती रहती हैं । अतः बहुपरिवार वाला हमेशा दुःखी ही रहता है । बहुधनी का भी यही हाल है, पहिले तो धन पैदा करने में कष्ट, दूसरे उसकी रक्षा करने का दुःख तीसरे चोर ले जावें या पानी में डूब जावे, उसका दुःख, या धन के पीछे पुत्रादि आपस में लड़ें-झगड़ें, आखिर उस धन को छोड़ परभव में जाते समय ममत्व के कारण मर कर सर्पादि होना आदि दुःख ही है । मुनि - इस विषय में आपका क्या कहना है ? 0 योगी ० - तुम सुखी रहना चाहते हो तो जब तक कोई सुयोग्य शिष्य न मिले तब तक तुम अकेले ही रहना और पुस्तकादि किसी प्रकार की उपाधि का संग्रह न करना, यही मेरा कहना है । मुनि -जब आप शिष्य करने की मनाई करते हैं, तो फिर उपके गच्छ की क्रिया करने का आदेश क्यों देते हो, क्योंकि बिना शिष्य के उनको चलावेगा कौन ? 91 योगी :- मैंने गच्छ है, बल्कि दूसरे गच्छ के कर आत्मकल्याण करने के और उपकेशगच्छ एक ऐसा गच्छ है कि इसकी और किसी ने दृष्टि कर क़लम नहीं उठाई है श्रपितु सब गच्छ वालों चलाने का तुमको आदेश नहीं दिया फड़गों में न पड़ कर एकान्त में रह लिये मैंने तुम्हें आदेश दिया है । भी क्रूर Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ मुंहपत्ती का डोरा दूर करना ने पूज्य भाव से हो बहुमान किया है । इसका कारण यह है कि जैन समाज पर उपकेशगच्छ का बड़ा भारी उपकार है । आज जो ओसवाल, पोरवाल, श्रीमाल आदि जातियाँ जैन धर्म पालन कर जैन धर्म को चला रही हैं। यह उपकार उपकेशगच्छाचायों का ही है, अतः मैंने तुमको उपकेशगच्छ के लिये आदेश दिया है । दूसरे, मुझे मालूम हुआ है कि तुम यहाँ से फलौदी जाओगे । वहाँ साध्वियों की जमात बहुत रहती है और साधुओं के साथ उनका बहुत परिचय भी है । मैं तुमको सलाह देता हूँ और कहता हूँ कि तुम मेरे इस कहने को हर समय याद रखना कि बिना व्याख्यान के साध्वियों या बाइयों को मकान पर न आने देना और न उनके साथ किसी प्रकार का विशेष परिचय ही रखना । . मुनि० - आपका कहना अक्षरशः सत्य और हितकारी है । इस कलिकाल में ऐसी सलाह देने वाले श्राप जैसे विरले ही पुरुष हैं। मैंने तो इस उम्र में केवल आपको ही देखा है । गुरु महाराज ! मैं आपका उपकार क्या इस भव में और क्या पर भव में कहीं भी और कभी भी नहीं भूल सकूँगा । ढूँढियापन में भी मुझे इस बात की बड़ी चिढ़ थी कि बिना व्याख्यान के कोई भी साध्वी या बाई स्थानक पर आवें, पर आपने तो आज कृपा कर साफ साफ ही फरमा दिया है । योगी - ठीक, लो मुह पत्ती का डोरा तो निकाल दो । मुनिश्री ने अपने मुँह पर से मुंहपत्ती उतार कर योगीराज के हाथ में दे दी और गुरुवर ने उस अप्रामाणिक मुँहपत्ती और डोरे को तोड़ फाड़ कर परठ देने का आदेश दिया । फिर पेडी से कपड़ा मंगवा कर प्रामाणिक मुंहपत्ती बना कर देदी, जिसको Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३२४ आपने स्वीकार कर गुरु महाराज को नमस्कार किया तथा कहा कि मैं आपके आदेश से भले उपकेशगच्छ का कहलाऊं, पर मेरे गुरु तो आप ही हैं। गुरु०-यह आपका सौजन्य है। योगी-मुनिश्री अब सब से पहिले आपको प्रतिक्रमण, देववन्दन, चैत्यवन्दन, पूंजन, प्रतिलेखन, संस्तारापौरषो बगैरहः साधु की आवश्यक क्रिया कण्ठस्थ करके उसी प्रकार क्रिया करनी चाहिये। मुनि-जी हाँ! कुछ पाठ तो आपने तीवरी में कर लिया था, शेष गुरु महाराज के पास में रह कर कण्ठस्थ कर लिया। आप १००-१०० श्लोक प्रति दिन कण्ठस्थ करने वाले बुद्धिमान थे, आपके लिये इतना सा विधि-विधान कण्ठस्थ कर लेना कौनसी बड़ी बात थी। आप चम्म दिनों में सब क्रिया विधान कण्ठस्थ कर गुरु महाराज के सामने क्रिया करने लग गये। ४७ प्राचीन शिलालेख की प्राप्ति ___ एक दिन स्कूल की छुट्टी थी। मास्टर विद्यार्थी, मुनीम और हमारे युगल मुनिवर प्राचीन मन्दिरों को, जो भग्न एवं खण्डहर अवस्था में थे, देखने को पधारे । कई प्राचीन स्थानकों का निरीक्षण करते करते एक प्राचीन जैन मन्दिर के खण्डहर दीख पड़े। उन खण्डहरों में उन्होंने मस्तकरहित चन्द्र के चिन्ह वाली एक जिन प्रतिमा देखी, जिसका अंग प्रत्यंग खण्डित था । उसके अधो. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ प्राचीन स्थानों की शोध भाग में एक टूटा हुआ पत्थर था, जिस पर कुछ अक्षर खुदे हुए थे । जब योगीराजश्री ने उसे खूब बारीकी से देखा तो उसमें___"सं० ६०२ वैशाख मासे शुक्ल पक्षे तृतया उपकेश शे अदित्यनाग गौत्रे शाह......................." __ स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। इसके आगे का शेष भाग टूट गया था। ___ योगिराज ने कहा "मुनिजी ! यह शिलालेख बहुत काम की वस्तु है । मेरे खयाल से यह उपकेशवंश का प्राचीन शिलालेख है । अतः आप इसको सुरक्षित रख लीजिये। मुनि-गुरुवर्य, ऐसे टूटे हुए पत्थर को लेकर क्या करेंगे ? और इससे लाभ भी क्या है ? योगी-इस समय भापकी दृष्टि में इससे कोई लाभ नहीं होगा, पर जब कभी आपकी इसको जरूरत पड़ेगी तो यह आपको अमूल्य रत्न का काम देगा। अतः इसको आप संभाल कर रख दीजिये। ___ मुनि-ऐसा एक शिलालेख तो अपने मन्दिर में भी लगा योगी-वह भी इसी प्रकार किसी खण्डहर से आया हुआ है। मुनि-क्या वह मन्दिर वाला शिलालेख अपने महावीर मन्दिर का शिलालेख नहीं है ? ____ योगी-नहीं, महावीर मन्दिर तो विक्रम से ४०० वर्ष पूर्व बना है और वह शिलालेख वि० सं० १०१३. का है। दूसरा उस शिलालेख में न तो महावीर मन्दिर बनाने या प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है और न किसी भाचार्य का ही नाम है । उसमें तो केवल Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३२६ किसी जिनदेव श्रावक ने रंगमण्डपादि स्मर काम करवाया है। और यह ६०२ वाला लेख तो और भी अधिक पुष्टि कर रहा है। इनके अलावा वि० सं० १०११ में इस मन्दिर में आचार्य कक्कसूरि की अध्यक्षता में होने वाला शान्तिपूजा का शिलालेख इसी मन्दिर में विद्यमान है इससे तुम समझ सकते हो कि १०११ तथा ६०२ पूर्व यहां उपकेश वंश एवं महावीर मन्दिर विद्यमान था। ____ मुनि-यदि मन्दिर प्राचीन हो तो क्या और अर्वाचीन हो तो क्या, ऐसे टूटे-फूटे शिलालेख से क्या होने वाला है ? ____योगि-अभी श्रापको इस बात का अनुभव नहीं है पर जब कभी इस ओर लक्ष्य पहुँचेगा, उस समय आप को हजारों लाखों प्रयत्न करने पर भी ऐसी प्राचीन सामग्री नहीं मिलेगी । अतः मेरे कहने से ही आप इस शिलालेख को लेकर सुरक्षित स्थान में रख दो। ____ मुनि श्री ने मुनीम चुन्नीलाल भाई से कहा कि गुरु महाराज के इस कथन में जरूर कोई छिपा रहस्य होगा, जो आज अपने को नहीं दीखता है । तथापि यह शिलालेख वाला पत्थर उठा लो और अच्छे सुरक्षित स्थान में रख दो। ___मुनीम उस पत्थर को एक आदमी के शिर पर रख कर धर्म शाला में लाया और उसको एक अच्छे स्थान में रख दिया। इस शिलालेख ने योगिराज की आत्मा में इतनी प्रेरणा भर दी कि वे जब कभी अवकाश मिलने, पर प्राचीनता की शोध में निकल जाते और जहाँ तहाँ जंगल में भमण किया करते । आपने दो दो तीन तीन कोस तक इस नगर के खण्डहरों का पता लगाया था । खेद है कि उस समय हमारे चरित्रनायकजी की रुचि ऐसे कार्यों में Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ प्राचीनता की शोध खोज बहुत कम थी । परिणाम यह हुआ कि योगिराज के पास रहते हुए भी वे इस कार्य में जितने लाभान्वित हा सकते थे, उतने न हो सके। ४८ अोसियाँ बोर्डिङ्ग के लिए प्रयत्न एक दिन गुरू महाराज ने मुनिजी से कहा कि बोर्डिङ्ग तो स्थापित कर दिया, किन्तु अभी तक जैनों का एक भी लड़का नहीं आया है । अतः तुम आस-पास के ग्रामों में जाकर उपदेश दो और लड़कों को लाओ, क्योंकि तुम ही इस बोर्डिङ्ग के जन्मदाता हो। ___मुनि०-बोडिंग का जन्मदाता तो मैं नहीं, किन्तु आप हैं । मैं तो आपकी आज्ञा का पालन करने वाला एक अनुचर मात्र हूँ। योगी०- खैर, तुम कुछ भी समझो। मैं ऐसी झंझटों में पड़ना नहीं चाहता । यदि बोर्डिङ्ग चलाना है तो पहिले लड़कों को लाने की कोशिश करो। - मुनि०-श्रापका हुक्म सिर पर है, किन्तु मुनीम चुन्नीलाल भाई को आप साथ भेज सकें तो मुझे बड़ी ही सुविधा रहेगी। ____ योगी०-ठीक है, मुनीम को ले जाओ। बस, मुनीम को बुला कर कह दिया गया कि यदि तुमको बोर्डिङ्ग चलाना है तो मुनिजी के साथ लड़कों को लाने के लिए ग्रामों में जाओ और जैसा मुनिजी कहें वैसा करो, कारण मैं इस कार्य में मेरा समय नहीं दे सकता हूँ और न मेरे से यह खटपट होती है। अतः मुनिजी कहें वैसा तुम किया करो। ___मुनीम-जैसा आप फरमा, वैसा मैं करने को तैयार हूँ। हाँ, मैं जानता हूँ कि आप योगिराज हैं। ऐसी खटपट आपको Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३२९ पसंद नहीं है, किन्तु आप की शुभ दृष्टि से ही हम लोगों का कल्याण है और मुनिजी के सहयोग की तो इसमें परम आवश्यकता है फिर भी वह सब आपकी अतुल कृपा का ही फल है । योगी-अच्छा, मुनिजो कल विहार करेंगे। . मुनिम-मैं भी सेवा में साथ जाने को तैयार हूँ। मागसर कृष्ण १० को गुरू महाराज का मांगलिक सुन कर मुनीम के साथ विहार कर दिया। उन्होंने पण्डितजी की ढाणी, रायमल वाला खेतार वगैरह आस-पास के गांवों में जाकर विद्या का महत्व लोगों को समझाया और यहां तक विश्वास दिलाया कि तुम तुम्हारे लड़का को खुशी से ओसियां पढ़ने के लिए भेजो, इनका बाल भी बांका न होवेगा। यदि ओसियाँ रहने में तुम्हारे लड़कों को कुछ भी तकलीफ हो तो हम स्टाम्प के काराज पर तुमको दस्तखत कर दें कि तुम्हारे लड़के के बदले हम तुमको लड़का देवेंगे इत्यादि । १० दिन घूम कर सात लड़कों को लाये और मुनीम नोटावट जाकर ४ लड़के वहाँ से लाया। इस प्रकार ११ बड़के जैनों के और ४ लड़के जैनोत्तरों के, कुल १५ लड़के बोर्डिंग में हो गये। जब मास्टर की आवश्यकता हुई तो एक वहाँ के ही ब्राह्मण को मास्टर रख लिया गया तथा सदासुख-सेक्ग की साली समरथ बाई को रसोईदार निश्चत कर लिया। इस कार्य में मुनीम चुन्नीलाल भाई बड़ा ही हुशियार था, उसने सब तरह की व्यवस्था ठीक जमा दी। बोडिंग का काम बढ़ने लगा तो इस पर एक आदमी की आवश्यक्ता प्रतीत होने लगी। गुरू महाराज की शुभ दृष्टि से जोधपुर के श्री श्रीमाल चौथमलजी नौकरी के लिए वहां आ निकले। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ कौसाना का मंदिर के लिये चर्चा का यहां आवश्यकता थी ही । बस, उनको भी रख लिया और बोडिंग कार्य सुचारु रूप में चलने लग गया । श्रधिष्ठायक की ऐसी कृपा हुई कि उन दिनों में यात्री लोगों का भी आगमन गहरी तादाद में हुआ, अतः बोर्डिंग को आर्थिक सहायता भी अच्छी मिली । पीपाड़ के पास कौसना नामक एक ग्राम है, वहां २० घर ओसवालों के होने पर भी एक भव्य, मनोहर और शिल्पकला का आदर्श नमूना रूप जिन प्रतिमा की बड़ी आशातना होती थी और मन्दिर के अभाव में मूर्ति एक दुकान में रखी हुई थी । इसका कारण यह था कि वहाँ के सब लोग स्थानकवासी बन गये थे । दैववशात् जोधपुर के भंडारी जी चन्दनचन्दजी वहाँ श्रमीन के तौर पर प्रधारे। आपको दृष्टि ओर पहुँची और आपने ग्राम के छोटा बड़ा मन्दिर बनाने को कहा उस मूर्ति की महाजनों को आशातना की एकत्र कर एक । पर वहां के लोगों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया । फिर भी भंडारीजी की सच्ची लगन ने उन्हें विवश किया कि वे ग्राम वालों की अनुमति लेकर मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर दिया । बाहर से चन्दा कर के द्रव्य ला कर उसको आगे बढ़ाया । इस कार्य में भंडारीजी साहब को अनेक आफतें उठानी पड़ीं । पर भंडारी जी हतोत्साही न हुए । उन्होंने थोड़े ही दिनों में एक भव्य मन्दिर तैयार करवा दिया और उसकी प्रतिष्ठा भी करवा ली। भंडारी जी एक दिन श्रोसियां पधारे; जब उन्होंने योगीराज श्री को निवेदन किया कि आप एक दिन कौसने पधार कर मन्दिर जो का दर्शन अवश्य करें, कारण ऐसी सुन्दर एवं चमत्कारी मूर्ति बहुत थोड़े स्थानों में पाई जाती हैं। योगीराज ने कहा भंडारी जी मैं यहां से विहार Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञानद्वितीय खण्ड ३३० करूंगा, तब क्षेत्र-स्पर्शना होगी तो कौसने के मन्दिर का दर्शन अवश्य करूंगा। भंडारीजी को विश्वास हो गया कि योगिराज ने वचन दिया है तो कभा न कभी अपनी भावना अवश्य सफलो. भूत होवेगी। ४६ योगीराज के हाथों से मुनिजी की पुनःदीक्षा ___ इधर मौन एकादशी का दिन समीप आ रहा था। मुनीम जी ने जोधपुर, तीवरी, फलौदी और लोहावट वालों को ख़बर दी और बहुत से लोग मागसर शुक्ला १० को आ भी गये । मागसर शुक्ला ११ को प्रातःकाल शासनाधीश भगवान महावीर के . मन्दिर में परम योगिराज मुनिवर श्रीरत्नविजयजी महागज ने विधि विधान के साथ दीक्षा देकर बनी शाखा कोटीकगण तपागच्छ और मुनि......रत्नविजय......महाराज का शिष्य कह कर गुरुपना का वासक्षेप डाला और आपका नाम ज्ञान-सुन्दर रखा। साथ ही साथ आपने यह भी फरमा दिया कि मुनिजी को मैंने दीक्षा दी है, यह तो समुदाय की मर्यादा का पालन ही किया है। कारण वर्तमान में जब दीक्षा दी जाती है तब किसी न किसी गुरु का नाम तथा उनकी शाखा-गण-गच्छ का नाम कहना पड़ता है जो कि मैंने अभी कहा है। किन्तु साथ ही में मैं मुनिजी को यह भी आदेश देता हूँ कि आज से आप उपकेशगच्छ के उद्धा. रक हैं,और उपकेशगच्छ की क्रिया करते हुए उपकेश गच्छ के ही कहलाना, मैं तो आपको केवल दीक्षा देनेवाला हूँ। उपस्थित लोगों ने योगिराज की इस प्रकार निस्पृहता और उपकेशगच्छ के उद्धार की भावना देख मन हो मन में प्रसन्न होकर चौथा Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ ओसियां में मुनिज । की दीक्षा पारा को याद करने लगे । उस समय बाहार से आये हुए श्रावकों, बोर्डिंग के विद्यार्थी, मास्टरों और मुनीमजी को जयनाद से मन्दिर गूंज उठा था। जब दीक्षा की क्रिया समाप्त हुई, तो चैत्यवन्दन कर मन्दिर के बाहार आये । मुनिश्री के साथ सब ने पहिले तो गुरुवर को वन्दन किया, पश्चात् सब लोगों ने मुनिश्री को विधि पूर्वक वन्दन किया । आज ओसियां तीर्थ पर सैंकड़ों वर्षों से यह आनन्द का कार्य इतिहास के पृष्ठों पर सुवर्णाक्षरों में लिखने योग्य सम्पन्न हुआ है। ___ मुनिश्री की दीक्षा के कारण जोधपुर के बहुत से सज्जन ओसियाँ आये थे, उसमें भंडारी जी चन्दनचन्दजी भी थे । आप के दिल में बहुत समय से भावना थी कि योगिराज को कोसने ले जा कर मन्दिर का दर्शन कराऊं। अतः इस समय भी आपने भक्तभाव से प्रेरित हो योगिराज श्री को विनती की कि यदि इस समय अवसर हो तो कौसनानी की ओर पधारें। मैं यहाँ से कौसना तक आपकी सेवा में रहने को तैयार हूँ, इत्यादि बहुत आग्रह से प्रार्थना की। ___ योगीराज बड़े ही ध्यानी थे, एक तो आप ओसियों में करीब १ वर्ष भर रह चुके थे। दूसरे मुनिश्री को दीक्षा देने से एक से दो हो जाने में भी आपके ध्यान का समय कुछ खर्च हो जाता था, तीसरे वहाँ बोडिंग होने से यद्यपि आप इस खटपट से अलग ही रहते थे तदापि थोड़ा बहुत समय इसमें भी व्यय करना पड़ता था, इन कारणों से अब भापका दिल उठ गया था, इधर भंडारीजी का निमित्त कारण मिल गया । बस, आपने तो Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३३२ तोतेवाली आँख बदल कर कहा कि मेरे को तो कोसना की यात्रा करनी है। ___ मुनिश्री ने कहा, "गुरु महाराज, अभी तो आपने हमको दीक्षा दी है, अभी बड़ी दीक्षा देनी है, मैं बिल्कुल नया हूँ, आप मुझे अकेले को छोड़ कर कैसे पधारते हैं।" योगी०-शेर तो अकेले ही रहते हैं, भेड़ें साथ रहा करती हैं, यदि तुम्हारा यही आग्रह है तो पौष कृष्णा ३ को बड़ी दीक्षा देकर जाऊंगा। ___ मुनि०--यदि आपने विहार करने का निश्चय कर लिया है तो मैं भी आपकी सेवा में चलने को तैयार हूँ। ___योगी-यदि तुम मेरे साथ चलोगे तो यह बोडिंग रूपी जो पौदा लगाया है वह जलसिंचन बिना सूख जावेगा और करीकराई मेहनत मिट्टी में मिल जावेगो। तुम जानते हो कि इस बोडिंग से केवल विद्या प्रचार ही नहीं अपितु इस तीर्थ की भी प्रसिद्धि तथा उन्नति होगी। अतएव तुम यहीं ठहरो। मुनि-पर आप यह तो कह जाश्रो कि कौसना से वापिस ओसियां ही आऊँगा ? ___ योगी-इतना ज्ञानी तो मैं नहीं हूँ कि भविष्य का निश्चय कह सकू और यह बात क्षेत्र-स्पर्शना के हाथ है । बीच में ही भंडारी जी बोल उठे कि आप इतना श्राग्रह क्यों करते हैं मैं जैसे योगीराज को ले जाता हूँ वैसे साथ में आकर यहाँ पहुँचा जाऊँगा। आप इस बात की खात्री रखें। ___ बस, पौष कृष्ण ३ को मुनिजी को बढ़ी दीक्षा देकर उसी दिन विहार कर ग्राम के बाहर पादुका वाली पहाड़ी है वहां जाकर ठहर Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ योगिराज जी का विहार गये । सुबह विहार के समय मुनिजी, मुनीमजी, बोर्डिंग के विद्यार्थी, और ग्राम के कई महेश्वरी लोग आये और बहुत दूर तक पहुँचाने को गये । जब गुरू महाराज आगे की ओर बढ़ने लगे तो हमारे मुनिजी की आँखों में से अश्रुधारा बहने लगी । गुरू महाराज ने मुनिजी के सिर पर हाथ रख कर कहा कि तुम वीर होकर इतने अधीर क्यों होते हो, तुम खुद सुयोग्य हो, तुम जाओगे वहीं तुम्हारी जय होवेगी; तुम शासन को प्रभावना करोगे; किन्तु मेरी दो बातें याद रखना जो कि मैंने तुम्हें पहिले कह दीं थीं तो भी उनको फिर दुहरा देता हूँ । ( १ ) किसी को शिष्य नहीं बनाना, यदि कोई ढूंढ़ियों से निकला हुआ सुयोग्य हो तो उसको सम्मा पर लाकर दीक्षा देने मात्र का निमित्त कारण बनना, जैसे मैं बना हूँ । दूसरे साध्वियों या बाईयों का बिल्कुल परिचय नहीं रखना, बस इन दोनों बातों पर पूर्ण लक्ष रखोगे तो तुम्हारा डंका चारों ओर बजता हो रहेगा । इतना कह कर गुरु महाराज तो विहार कर गये और हमारे मुनिजी गुरुवचन को शिरोधार्य कर सबके साथ ग्राम की ओर लौट आये । गुरु महाराज के साथ मुनिश्री बहुत थोड़े समय रहे पर आपके सद्गुणों से इतने मुग्ध बन गये कि बापिस आने के बाद एकान्त में जाकर बैठ गये, आपके दिल में इतनी उदासीनता छा गई कि बस सिवाय गुरु महाराज के आपका ध्यान कहीं भी चलायमान नहीं हुआ। इसमें आप गोचर - पानी की सुध भी भूल गये । मुनीमजी ने कर आहार पानी का आमन्त्रण किया, जिस पर भी लक्ष नहीं दिया गया, हां सच्चे विनोत शिष्यों का यही हाल हुआ करता है । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० योगीराज के आत्मीय चमत्कार __योगिराज मुनिवर्य श्री रत्नविजयजी महाराज श्रोसियाँ से विहार कर मथाणीये होकर बैरी ग्राम पधारे, दो गत्रि वहाँ ठहरे । जब जोधपुर के भक्त लोगों को खबर मिली तो वे मोटरों, इक्कों, साईकिलों द्वारा बैरी आ पहुँचे । गुरु महाराज के दर्शन कर जोधपुर पधारने की प्रार्थना की, किन्तु आपको कोसने जाना था। वहाँ से कई भक्तगण साथ में हो गये; मंडोर, मुताजी के मन्दिर, बनाड़, बीसलपुर, बुचकला होते हुए आपने कौसने पहुँच कर वीतराग की भव्य मति के दर्शन किये; भंडारीजी की कही हुई बात सोलह आना सत्य निकली । दर्शन से चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। उन दिनों में भी भंडारोजी कौसना में राज की ओर से पदाधि. कारी थे। ___ योगीराज मूर्ति के दर्शन कर एक भग्न उपाश्रय में आकर ठहर गये, बाद में गोचरी के लिये पधारे लेकिन आपके पास एक पात्रा और एक तृपणी ही थी; गोचरी लेकर आये जिसको एक तरफ रख आष ध्यान में एकान्त में विराज गये । होनहार को नमस्कार है कि वहाँ एक श्वान आया और लाई हुई गोचरी वह कर गया। ____ योगीराज ने आकर देखा तो गोचरो का यह हाल हुआ, उसी समय तृपणी पात्रा लेकर वहाँ से चल धरे । बजार में आये तो श्रावकों ने पूछा कि महाराज कहाँ पधारते हो ! योगीराज हुँ ! कह कर चल धरे । श्रावक सब ढूँढ़िये थे, जान गये कि शायद थडिले भूमिका जाते होंगे। बाद में भंडारीजी आये, उपाश्रय में जाकर Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ कौसाना के दर्शन और बिहार देखा तो वहाँ न तो योगीराज हैं और न उनके कोई भंडोपकरण । बाहर भाकर बाजार में पूछा तो एक ने कहा कि थोड़ी देर हुई, आर के महाराज इधर पधारे हैं । भंडारी जी ने क्रोध में आकर कहा, अरे भाग्यहोनी ! तुम्हारे फूटे हुए भाग्य में ऐसे महात्मा कहाँ लिखे हैं; मैं कितने प्रयत्न के साथ तो उनको लाया था, तथा तुम लोगों ने कुछ भी परवाह ही नहीं रखी, यह एक बड़े ही अफ सोस की बात है। ____भंडारीजो ने उनको ढूंढने के लिये कई श्रादमियों को भेजा तथा श्राप स्वयं भी पृथक् रास्ते की ओर गये किन्तु योगीराज का कुछ भी पता नहीं लगा। उसी दिन योगीराज कालु पहुँच गये जो कौसना से लगभग ४० मील की दूरी पर है । यह खबर एक ऊँटसवार से मालूम हुई थी, तथा योगीराज के लिये यह कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है; वे योगबल द्वारा इच्छित कार्य कर सकते थे। कालु में आप एक व्रष्णु के मन्दिर में जाकर ठहर गये और वहीं व्याख्यान दिया । जैन स्थानकवासियों ने आकर कहा कि आप जैन साधु होकर यहाँ क्यों ठहरे ? अपने स्थानक एवं मन्दिर है वहाँ पधारें । योगीराज ने कहा यह भी तो धर्म स्थान-मन्दिर ही है, यहां ठहरने में क्या नुक्सान है। ___ समीप में ही महेश्वरियों के घर थे, उनकी भक्ति भी बहुत थी, योगीराज ने गोचरी लाकर कर ली । जैन लोगों ने कुछ चर्चा की, योगीराज वहां से रवाना हो सीधे ही पुष्करनी पहुँच गये जो कि वहां से ५० मील की दूरी पर होगा । वहाँ आपको एक कालु का महेश्वरी मिला और कहा कि महाराज रात्रि में तो Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड आप कालु थे, आज यहां कैसे आ गये ? योगीराज वहां से रवाना हो मथुराजी पहुँच गये और वहाँ बिल्कुल दिगम्बर हो बोगप्रभ्यास करने लगे। वहाँ एक यति आय था, योगिराज तो ध्यान भूमि पर गये और यति सब भंडोपकरण लेकर नौ दो ग्यारह हो गया। योगिराज ने आकर देखा तो भंडोपकरण नहीं पाया, आपने दिगम्बर अवस्था में ही रहने का विचार कर लिया, किन्तु रात्रि में अकरात आवाज हुई कि इस काल में इस अवस्थो का उदय नहीं है । तुम अपना वेष पहिन लो। योगीराज ने एक पत्र मुनिजी पर लिखकर श्रोसियाँ भेजा जिसमें कि सब समाचार लिख दिये । इस पर मुनिजी ने मुनिम चुन्नीलाल भाई को साधु के सब उपकरण देकर मथुरा भेजा मुनीमजी ने वहाँ जाकर पू. योगीगज के दर्शन कर भंडोपकरण सेवा में हाजिर किए। ___ योगीराज वहाँ से विहार कर चातुर्माप के लिए लश्कर पधार गये ओर मुनीमजी ने वापिस भोसियाँ आकर मुनिश्री से सब हाल निवेदन किया। योगराज इतने ध्यानी और चमत्कारी थे कि वे अपना कोई भी बार्य प्रसिद्धि में लाना नहीं चाहते थे। एक बार आप सादड़ी विराजते थे वहाँ के तेजमल भंडारी के शरीर में कोई देव का इतना उपद्रव था कि सैकड़ों उपाय करने पर भी वे उस उपद्रव से मुक्त नहीं हुए, जब ये योगीराज के पास आये तो न मालुम आपने क्या किया वासक्षेप डाल कर कह दिया कि प्रत्येक पूर्णिमा को आंबिल किया करो बस उस दिन से ही वह उपद्रव शान्ति हो गई। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ योगीराज के चमत्कार एक समय उसी तेजमल की तिजोरी जिसकी चाबी उसके पास सुरक्षित थी, और तिजोरी से जेवर का डब्बा चला गया । प्रसंगवश तिजोरी को खोली तो डब्बा नहीं पाया, उसने सीधे ही गुरु महाराज के पास आकर अपना सब हाल निवेदन किया । गुरु महाराज ने कहा, तुम केसरियाजी की यात्रा करो | तेजमलजी ने केसरियाजी जाकर यात्रा की, बाद शाम को धर्मशाला में आकर ठहरे । वहाँ कारखाने का एक आदमी पुकार करता है कि तेजमल भण्डारी कौन है ? तेजमल ने जवाब दिया कि क्या काम है, तेजमल भण्डारी मैं हूँ । आदमी ने कहा कि चलो, कारखाने में तुमको बुलाते हैं। तेजमल कारखाने में गया तो वहाँ का मुनिम कहने लगा कि तुम्हारा इतना ज़ेवर यहाँ जमा है; या तो तुम ले जाओ, नहीं तो देवस्थान महकमा उदयपुर को भेजा जाता है । तेजमल विस्मित हो गया कि यह क्या बात है ? तेजमल ने मुनिम के कहने पर अपनी जमानत देकर जेवर ले लिया, वह जेवर उतना ही था जितना कि तिजोरी के डब्बे में था; योगीराज के इस चमत्कार को देख बड़ा भारो आश्चर्य हुआ; उसने वहाँ से श्रोसियाँ आकर योगीराज का दर्शन कर सब हाल कह ! ! इस प्रकार एक नहीं वरन् अनेकों चमत्कार योगीराज के प्रसिद्ध थे, और योगाभ्यासियों के ऐसे चमत्कार हों तो इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है, क्योंकि श्रात्मा में अनेक लब्धियें विद्य मान हैं। जितना जितना क्षयोपसम होता है, उतना उतना प्रकट हो ही जाता है । दूसरे शास्त्रकारों ने निमित्त कारण भी बतलाया है, जिसके निमित्त कारण से किसी का भी भला होना हो, उसमें वैसा ही Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३३८ निमित्त बन जाता है । सम्यदृष्टि मुमुक्षु आप अपने स्वार्थ के लिए ऐसे चमत्कारों का प्रयोग नहीं करते हैं, पर वे परोपकार के लिए निःस्वार्थ भाव से ही किया करते हैं । इसमें हमारे योगीराज महात्मा को भी हम स्थान दे सकते हैं । ५१ प्रोसियां तीर्थ पर मुनियों का समागम मुनिश्री के प्रयत्न से ओसियाँ के बोर्डिङ्ग का काम बढ़ता ही गया, समचार पत्रों के लेखों और इश्तिहारों से चारों ओर ख़बर पहुँच गई कि ओसवालों की उत्पत्ति के स्थान ओसियाँ में एक विद्यालय स्थापित हो गया है। पढ़ाई अच्छी है तथा लड़कों की अच्छी हिफाजत की जाती है, इत्यादि । विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि होती गई, अब तो एक मास्टर की आवश्यकता और होने लगी । श्रतएव उस रिक्त स्थान को अधिष्ठायक ने एक जैन युवक काठियावाड़ी, 'जिसका नाम दीपचन्द भाई था, से पूर्ण किया । दीपचन्द भाई लिखा पढ़ा तो मामूली था, न जानता था धार्मिक ज्ञान और न जानता था महाजनी हिसाब, केवल गुजराती मामूली पढ़ा हुआ था, किन्तु उसमें दो गुण असाधारण थे - ( १ ) सबके साथ मिलकर चलना, ( २ ) पुरुषार्थीपना | मुनीश्री के कहने से मुनिमजी ने दस रुपैये माहवार पर दीपचन्द को रख लिया । दीपचन्द बोर्डिंग के काम के समय तो वहाँ का काम करता था और शेष टाईम में मुनीश्री से धार्मिक अभ्यास, तथा रात्रि में मारवाड़ी महाजनी हिसाब श्रादि का अभ्यास किया करता था । मुनिश्री की आप पर पूर्ण कृपा थी जो कि वे अपना समय खर्च कर दीपचन्द को अभ्यास करवाया करते थे । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ मुनिराजों का समागम दीपचन्द की अवस्था जवान होने से किसी कारण वश वह नौकरी छोड़कर चल दिय, किन्तु अधिष्ठायक की प्रेरणा से एक मास में ही पुन: लौटकर अपने अपराध की क्षमा-याचना कर बोर्डिङ्ग में प्रवेश हुआ । फलौदी में पन्यासजी हर्ष मुनिजी का चतुर्मास था, आपने ओसियाँ में मुनिश्री को अकेला सुनकर आपके विहार के पूर्व ही अपने शिष्य मुनिश्री चतुरमुनिजी को श्रोसियाँ भेजदिया । चतुरमुनिजी बड़े ही मिलन सार साधु थे, ओसियां पधार कर मुनीश्री से मुलाकात की और अपने गुरु पं० हर्षमुनिजी के सब समाचार कहे, जिसका मतलब था कि आप पन्यासजी के पास रहोगे तो ज्ञानाभ्यास वैगरह अच्छा होगा, और वे आपको पदवी घर भी बना देंगा तथा इस जमाने में अकेला रहना ठीक भी नहीं है। मुनीश्री ने कहा कि आपका कहना ठीक है, पन्यासजी महाराज यहां पधारेंगे तब मैं मिल लूंगा । मुनिश्री के कपड़े स्वल्प थे ओर वे भी मैले बहुत थे, क्योंकि दूढियापने के संस्कार ही ऐसे थे । चतुरमुनिजी ने कहा, मुनिजा इन कपड़ों में जूँऐं पड़ गई तो इस उत्कृष्टाई का क्या हाल होगा ? लो, आपके पास कपड़े नहीं हों तो मेरे पास से ले लीजिये और यह सब मैला कपड़ा मुझे दे दें कि मैं आपके कपड़ों को धोदूं । मुनिश्री ने कहा कि महाराज जब इतने कपड़ों से मेरा काम चल जाता है, फिर अधिक उपाधि रख कर वीर का पोटिया बनने में क्या लाभ है ? चतुर मुनिजी ने मुनिजी के मैले कपड़ों का काँप कहाड़ दिया, फिर देखा तो मुनिजी के पास पात्रे भी दो ही थे । चतुर मुनिजी ने फलौदी कहलाकर एक तृपणी और एक पात्रों की जोड़ मंगा कर Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३४० मुनिजी को कहा कि आपके पात्रों को तो यहाँ रख दो और आप यह जोड़ ले लो ? मुनिजी ने कहा कि मैं अकेला साधु सात पात्रों की जोड़ को क्या करूं। चतुरमुनिजी ने हास्य में कहा कि अभी तक ढूंढिये के पात्रों से आपकी ममत्व नहीं हटी है, पर इन पात्रों में नो पानी का तो व्यवहार नहीं किया था न ? मुनिश्री ने अपने पास के पात्रे रख कर दो पात्रे और एक तृपणी चतुर मुनिजी से ले ली। ___ बाद पन्यासजी हर्ष मुनिजी महाराज ओसियाँ पधारे, आपकी भी,प्रकृति बड़ी ही शान्त औरांमिलनसार थी; आप इतने प्रतिष्ठित होने पर भी मान अहंकार यामोटाईपना तो आपको स्पर्श भी नहीं कर पाया था । आपका कहना तो था ही पर इतना आग्रह नहीं था कि तुम हमारे पास ही रहो, खैर-आप कई दिन विराज कर जोधपुर की ओर विहार कर दिया। मुनिश्री.आपश्री का उपकार मानते हुए बहुत दूर तक पहुँचाने को गये । ___थोड़े ही दिनों के पश्चात् प० गुमानमुनिनी भी पधारे आपश्री मोहनलालजी महाराज के शिष्यों में एक थे, पहिले आप तपा. गच्छ की क्रिया करते थे, पर बाद में यश मुनिजी खर-तरगच्छ के श्रावकों के धोखे में श्राकर खर-तरगच्छ की क्रिया करने लगे, तब से गुमानमुनिजी ने भी खरतरगच्छ की क्रिया स्वीकार कर ली थी। आपके पास शास्त्रों की कई पेटिये थी वे भी रेल द्वारा श्रोसियाँ आ गई थों। गुमान मुनिजी ने भी मुनिश्री को अपने पास रखने की बहुत कोशिश की, मुनिश्री किसी को भी ना नहीं कहते थे, कारण वे आप त्येक के भाव जानना चाहते थे, मुनिश्री ने उत्तर में कहा कि Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ शास्त्रावलोकन मैंने दीक्षा तो योगीराजश्री के पास ले ली है, अब रहना किसके पास इस विषय के लिये विचार करता हूँ। एक दफे मैं बड़े २ सब साधुत्रों से मिलना चाहता हूँ, फिर जहाँ मेरा दिल स्थिर हो जायगा, वहाँ ही ठहर जाऊँगा । आपके पास रहने को भी मैं ना नहीं करता हूँ। किंतु आप कुछ समय ठहर कर मुझे समागम के लिये समय दें। इस पर गुमानमुनिजी ने कहा कि मेरे को जैसलमेर जाना है, फिर गर्मी की मौसिम आ रही है, अतः मैं तो जैसलमेर जाता हूँ, मेरी पुस्तकों की सब पेटिय तुम्हारे पास रख जाता हूँ, तुम इनको पढ़ो और मैं मंगाऊं वहाँ भेज देना, या तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी मेरे पास आजाना, इतना कह कर मुनिजी फलौती की ओर विहार कर गये । __आपने गुमानमुनिजी के शास्त्रों की पेटियां खोली मुनिश्री ने उसमें देखा अधिकाँश पुस्तकें तपा-खरतरों के वादविवाद की हो थीं, कारण यह था कि गुमानमुनिजो पहिले तपागच्छ को क्रिया करते थे। तब खरतरों के खण्डन का साहित्य संग्रह किया था, बाद खरतरों की क्रिया करने लगे तो तपों के खण्डन का सामान एकत्रित किया । मुनिश्री को पढ़ने का सहज हो मौका मिल गया। पुस्तकें देखते देखते उपाध्याय धर्मसागरजी रचित कुमति कुहाला नामक ग्रन्थ भी आपके देखने में आया, यद्यपि वह ग्रंथ मूल प्राकृत और टीका संस्कृत में था, फिर भी आप प्राकृत से उसके मतलब को समझ सकते थे। ___ प्रस्तुत प्रन्थ में दश मत का खण्डन है, किन्तु सबसे अधिक जोर खरतर गच्छ के खण्डन पर दिया गया था, इनके अतिरिक्त और भी कई ग्रन्थ देखे और गुरु महाराज के वचनों को यदा Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड किया कि आपने पहिले से ही कहा था कि यहाँ गच्छों के बहुत झगड़े है। ५२ माँगीलालजी से वार्तालाप थोड़े ही दिनों के बाद का जिक्र है कि मुनिश्री ऊपर क कमरे में विराजते थे. नीचे एक पीले वस्त्र पहिने हुए साधु आया जो अकेला ही था, अतः दरवाजे में प्रवेश करते ही मुनीमजी ने पूछाः मुनीम०-आपका क्या नाम है ? पीत वस्त्रधारी-मेरा नाम मांगीलाल है। मुनीम०-सोचा कि संवेगी साधुओं का तो ऐसा नाम नहीं होता है, अतः फिर पूछा कि इस समय आप कहां से पधारे हो ? पात-मैं आज जोधपुर से आया हूँ । मुनीमः-पदल आये हो ? पीत:-नहीं, रेलगाड़ी से आया हूँ। मुनीम-फिर ये पीले वस्त्र क्यों । क्या आप संवेगी हैं ? पोत-मैं संवेगी साधु नहीं हूँ। मुनीम०-तो आप कौन हैं ? पीत-मैं दांडिया साधु था। मुनीम-किसी संवेगी साधु के पास दीक्षा ली है या नहीं ? पीत०-दीक्षा तो नहीं ली, किन्तु लेने का विचार करता हूँ। मुनीम-फिर यह पीली चहर ओढ़ कर संवेगी साधुओं को कलङ्कित क्यों करते हो ? पीत-इसमें कलंकित करने की क्या बात है ? मीनम:-पीली चद्दर से लोग यही जानेंगे कि यह संवेगी Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ मुनिम और पीतवस्त्र धारो साधु होगा, और इस प्रकार संवेगी साधु रेल में भी बैठते होंगे, यह कलङ्क नहीं तो और क्या है ? पीतल-पीली चद्दर बिना रोटी भी कौन देता है ? मुनीम०-क्या आपने केवल रोटी के लिए ही पीली चहर रखी है। पीत०-इसको ठीक तो मैं भी नहीं समझता हूँ, किन्तु अब मैं शीघ्र ही संवेगी दीक्षा ले लूँगा। मुनीम-तुम ढूंढ़ियों में किस टोले के थे ? पीत०-पूज्य श्रीलालजी की समुदाय में । मुनीम०-संसार में आपका कौन ग्राम और क्या जाति थी ? पीत०-जयपुर राज्य में उलताणा मेरा ग्राम, था, और मैणा . मेरी जाति थी। . मुनीम०- आपने मैणा होकर दूँढ़ियों में दीक्षा कैसे ली ? . पीत०-मेरा पिता गरीब था, मुझे स्वामि कर्मचन्दजी को सौंप अपना स्वार्थ सिद्ध कर चले गये । स्वामिजी ने मुझे दीक्षा दे कर एक कजोड़ीमलजी साधु का चेला बना दिया। उस समय मैं जैन-दीक्षा में कुछ भी नहीं समझता था पर अपनी सुविधा के लिये हँदियों के पास रह गया था। मुनीम०-फिर ढूंढ़ियों की दीक्षा क्यों छोड़ी ? पीत०-द्वंदिया मेरे से छूत-अछूत का परहेज रखते थे, आहार पानी मेरे साथ नहीं करते और कभी अपना लाया आहार मुझे देते तो ऊपर से डाल देते थे, इस अपमान के मारे मैं वहाँ से निकल गया। मुनीम-अब किसके पास दीक्षा लेने का विचार है ? Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३४४ __पीता-मैं दो तीन यतियों के पास गया, किन्तु उन्होंने मुझे मैणा समझ कर रखने से इन्कार कर दिया । अतः मैं कृपाचन्द्रसूरि के पास बम्बई गया उस समय मेरा पिता भी मेरे साथ था। ___ मुनीम०-फिर उसको कुछ दिलाया या नहीं ? पीत०-मैने कृपाचन्द्रजी को कहा, पर उनके पास हजारों रुपये होने पर भी कुछ भी नहीं दिया और मुझे कहा कि तुम पीली चहर कर के मुर्शिदाबाद जाकर चतुर्मास करो तो तुम्हारे पिता का काम बन जायगा, बाद मेरे पास श्रा जाना । अतः मैं मुर्शिदाबाद में चतुर्मास कर ४५०) रुपये लाया जिसमें रु० ३००) मेरे बाप को दे दिया और १५०) रु० मैं अपने साथ ले आया हूँ, अतः मैं मुर्शिदाबाद रेलसे गया और वहाँ से रेल में ही आया हूँ। मुनीम-यहाँ आने का क्या कारण है ? . पीत०--कृपाचन्द्रसूरि का पत्र आया था कि तुम्हारे ढूंढ़ियों से निकला हुआ गयवरमुनि ओसियाँ में है; तुम ओसियाँ जाकर उसको समझा बुझा कर रेल में बैठा कर बम्बई ले आना, अतः मैं गयवरमुनिजी से मिलने के लिए आया हूँ, कहाँ है गयवरमुनिजी ? मुनीम०-ऊपर एक कमरे में विराजमान है। पीत०--क्या मैं ऊपर जा सकता हूँ ? मुनीम-ठहरो मैं पूछ के आता हूँ। मुनीमजी ने ऊपर जा कर मुनिश्री को पूछा कि माँगीलालजी आये हैं और आप से मिलना चाहते हैं, यदि आपकी आज्ञा हो तो वह ऊपर आने की इच्छा करता है ? मुनिश्री- ऊपर आने की मनाई नहीं है, खुशी से आवे । मुनीम-जा कर कह दिया । माँगीलालजी प्यासे थे अतः Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ मुनिश्री और मांगीलालजी नीचे कच्चा पानी पीकर ऊपर आया, थोड़ी देर इधर उधर की बातों के पश्चात् मांगीलाल जी ने पूछा कि: मांगीलालजी-गयवरचन्दजी क्या तुमने संवेगी दीक्षा लेली ? मुनि:-हां। मांगी-किस के पास ? मुनि--परमयोगीराजमुनिश्री रत्नविजयजीमहाराज के पास । मांगी०-वे तो तपागच्छ के हैं ? मुनि०-इससे क्या हुआ ? मांगो०-तपागच्छ वाले तो उत्सूत्रभाषी मिथ्यात्वी हैं । शुद्ध समाचारी तो एक खरतर गच्छ की ही है, आपने निर्णय किया है या यों ही ढूढियापना छोड़ कर मिथ्यात्व में जा घुसे हैं । मुनि-मैंने निर्णय पूर्वक ठीक सोच समझ के ही काम किया है पर तुम जो तपागच्छ को उत्सूत्रभाषी कहते हो, इसका क्या कारण है ? मांगी-तपागच्छ वाले भगवान महावीर के पांच कल्याणक मानते हैं, वास्तव में सूत्रों में छ कल्याणक लिखा है, इसलिए तपा गच्छ वाले सब मिथ्यात्वी हैं । ___ मुनि०--तबतो आचार्य श्री हरिभद्र सूरि और अभयदेव सूरि भी मिथ्यात्वी ही होंगे क्योंकि उन्होंने भी तो भगवान महावीर के पांच कल्याणक ही माने हैं। . मांगी०-हरिभद्रसूरि और अभयदेवसूरिने महावीर के पांच नहीं अपितु छः कल्याणक माने हैं, और अभयदेवसूरि तो खास खरतरगच्छ के थे वे पांच कल्याणक कैसे मान सकते थे ? Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३४६, मुनि० - क्या आपने पंचासक नामक शास्त्र देखा है, जिसके मूल कर्ता हरिभद्रसूरि और टीका कर्त्ता अभयदेवसूरि हैं ? मांगो० - क्या पंचासक में हरिभद्रसूरि और अभयदेव सुरि ने भगवान् महावीर के पांच कल्याणक माने हैं ? मुनि - हां । मांगि० - क्या आपके पास पंचासक की प्रति है ? मुनि:-- मेरे पास तो नहीं है, किन्तु गुमानमुनिजी की पुस्तकें यहां पड़ी हैं जिसमें पंचासक की प्रति भी है। मांगि० - लाओ, उसमें क्या लिखा है, मुझे देखना है । मुनि० - पेटी खोल पंचासक की प्रति ला कर उसका मूल पाठ और टीका निकाल कर सामने रखी कि इसको तुम पढ़ो, वह पाठ इस प्रकार था - तेसु दिणेसु धरणा, देविंदाइ करिति भत्तिणया । जिण जत्तादि विहाणा, कल्लाणं अपणो चेव ॥ ३ ॥ इ ते दिया पसत्था, ता सेसेहिंपि तेसु कायब्बां । जिण जत्तादि स हिरसंते, इम वद्धीमाणस्स ॥ ४ ॥ साढ़ मुद्धि बट्टी, तह चिते सुद्धि तेरसी चेव । मगसिर कह दसमी, वेसाहि सुद्ध दसमी य ।। ५ ॥ कतिय कण्हे चरिमा, गब्भाइ दिया जहक्कमं एते । हत्थुत्तर जोएणं चउरो, तह साइएण चरमो ॥ ६ ॥ हिगय तित्थविहिया, भगवंति निदसिया इमे तस्स । तित्थे सुविरा ||७|| गाथाओं में मितिवार पांच सेसा वि एवं चित्र, निश्च नि श्राचार्य हरिभद्रसूरि के इन मूल Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच छ कल्याणक की चर्चा कल्याणक लिखा है जिसमें चार हत्थुत्तरा और अन्तिम (पांचवा) स्वाति नक्षत्र में बतलाया है। इस पर आचार्य अभयदेवसरि ने टोका करी है जिसको भी आप पढ़ लीजिए, वह टीका-- ___"वर्तमानस्य-महावीर नजिस्य भवन्तिति गाथार्थ प्रासादगाहा-आषाढशुद्धिषष्टो-आसाढ़ मास शक्ल पक्ष षष्ठी ति स्थिरकं दिनं १ एवं चैत्रमासे तथेति समुच्चये शद्धत्रयोदशमे वेति द्वियीयं २ चैवेल्यवधारणे तथा मार्ग शीर्ष कृष्णदशमीति तृतीय ३ बैशाख शुक्ल दशमीति चतुर्थ ४ च शब्द समुच्चयाथे कार्तिक कृष्णे चरमा पञ्च दशीति पञ्चमं ५ एतानि किमित्यह-गर्भादि दिनानि (१) गर्भ, (२) जन्म, ( ३ ) निष्क्रमण, ( ४ ) ज्ञान (५) निर्वाण दिवसा यथा क्रमं क्रमेणैवा।। इस पर तुम विचार कर सकते हो कि हरिभद्रसूरि ने खास भगवान महावीर के पांच कल्याणक की पांचों तिथि अलग अलग कही हैं, और पूज्य अभयदेव सूरि ने उन पांचों तिथियों की टीका कर महावीर के पांच कल्याणक स्पष्ट बतलाये हैं, अब उत्सूत्र भाषी पांच कल्याणक मानने वाले हैं या छ कल्याणक मानने वाले ? यदि आप पांच कल्याणक मानने वाले को उत्सूत्र प्ररूपक मानते हो तो आचार्य हरिभद्रसूरि और अभयदेवसूरि मिथ्यात्वी ठहरे और छः कल्याणक मानने वाले को उत्सूत्र भाषी समझते हो तो खरतराचार्य उत्सूत्र प्ररूपक ठहरे और अभयदेव सूरि पांच कल्याणक मानने वाले होने से वे खरतर नहीं किन्तु खरतर मत .अभयदेवसूरि के बाद पैदा हुआ मानना पड़ेगा। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३४८ यदि आपके हृदय में पक्षपात ने स्थान नहीं किया हो और सत्य निर्णय की ओर हो आपका लक्ष है तो मैं आपको खास तौर पर खरतरों का ही प्रमाण बतलाता हूँ कि चित्तौड़ में रह कर जिनवल्लभसूरि ने भगवान महावीर के छः कल्याणक की नई प्ररूपना की है, देखिये यह गणधरसार्द्ध शतक - तत्र कृतचातुर्मासिककन्यानां श्रीजिनवल्लभवाचनाचार्याणामाश्विनमासस्य कृष्णपक्षत्रयोदश्यांश्रीमहावीरदेवगर्भापहारकल्याणकंसमागतं । ततःश्राद्धानांपुरो भणितं जिन वल्लभगणिनाभोः श्रावका ! अद्यश्रीपहावीरस्यषष्ठं गर्भाप हारकल्याणकं "पंचहत्थुत्तरे होत्थासाइणापरिनिव्वुड़े"इति प्रकटाक्षरैरेवसिद्धांतप्रतिपादनादन्यच्चतथाविधं किमपि वि धिचैत्यं नास्ति, ततोऽत्रैवचैत्यवासिचैत्यगत्वादिदेवावंद्यतेतदाशोभनं भवति, गुरुमुखकमलविनिर्गतवचनाराधकैःश्रावकै रुक्तंभगवन् यधुष्माकं सम्पतं तत्क्रियते,ततःसर्वेपौषधिकाः श्रावकासुनिर्मलशरीरानिमलवस्त्रागृहीतनिर्मल पूजोपकरणा गुरुणासहदेवगृहेगंतप्रवृत्ताः । ततो देवगृहस्थितयार्यिकया, गुरुश्राद्धसमुदायेनागच्छतोगुरुन्दृष्ट्वाः पृष्ठको विशेषोऽद्य केनापिकथितं । वीरगर्भपहार षष्ठकल्याणककरणार्थे मेते समागच्छंति, तयाचिंतितं पूर्वकेनापि न कृतमेतदेतेऽधुनाक रिष्यंतीति नयुक्तं । पश्चात्संयती । देवगृहद्वारेपतित्वास्थितां द्वारमाप्तान् प्रभूनवलोक्योक्तमेतया,दुष्टचित्तयामयामृतया यदि मनयाप्रविशत ताहगीतिकंज्ञात्वा निवत्यै स्वस्थानं गताः Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ छ कल्याण की प्ररूपना पूज्याः । श्राधैरुक्तं भगवनस्माकं बृहत्तराणि सदनानि संति, तत, एकस्यगृहोपरि चतुर्विंशतिपट्टकं धृत्वादेव वंद नादि सर्व धर्मप्रयोजनं क्रियते, षष्ठकल्याणकमाराध्यते । गुरुणा भणितं तकिमत्रायुक्तं । तत आराधितं विस्तरेण कल्याणकं, जातं समाधानमन्येद्य गीतार्थैःश्रायकैमत्रितं, यथाविपक्षेभ्योऽविधिप्रवृत्तेभ्यःपार्शन्जिनोक्तो विधिविधात न लभ्यतेततो यदि गुरोःसम्पतं भवति तदा तले उपरि च देवगृहद्वयं कार्यते, स्वसमाधानं, गुरुणां निवेदितं गुरूमि रप्युक्त। "इस गणधरसार्द्धशतक के मूलकर्ता जिनदत्तसूरि और उसके अन्तर्गत प्रकरण कर्त्त-चारित्रसिंहगणि है इसमें स्पष्ट लिखा है कि जिनवल्लभसूरि ने यह नयी प्ररूपना की जिसका उस समय जबर्दस्त विरोध भी हुआ था जो उपरोक्त लेख से आप जान सकते हो। मांगीलालजी! अपन तो ढूदिया पंथ को उत्सूत्र प्ररूपक समझ कर आत्म-कल्याण की भावना से यहां आये हैं, अतः न तो तपों का पक्षहै और न खरतरों का । जहाँ सिद्धांतोक्त शुद्ध समाचारी हो उनका ही उपासना कर आत्मकल्याण करना है । मेरे ख्याल से खरतरगच्छ वाले केवल इन कल्याणक के लिए ही उत्सूत्र नहीं प्ररूपते हैं, पर इनके अलावा और भी कई बातों के लिए उत्सत्र की प्ररूपना करते हैं । अतः पक्षपात को दूर कर देखना चाहिये । __ मांगी०-वहाँ आपने अच्छी शोध-खोज की। बतलाई ये तो सही कि, खरतरगच्छ वालों ने क्या क्या उत्सूत्र प्ररूपना की है ? मुनि-यह बात तो सत्रों में जगह २ पर आती है कि जैसे Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३५० पुरुष जिनपूजा करते हैं वैसे स्त्रियाँ भी पूजा करती हैं। द्रौपदी, मृगावती, चैलना जयन्ति वग़ैरह स्त्रियों ने पूजा की है तो फिर खर तरगच्छ वालों ने स्त्रियों को जिनपूजा का निषेध किया, यह उत्सूत्र की प्ररूपना है या नहीं, तुम स्वयं अपनी बुद्धि से विचार लो ? मांगी० - स्त्री पूजा का निषेध नहीं किंतु ऋतुवती स्त्रियों के लिए निषेध है और इस निषेध का करने वाला ऐसा वैसा व्यक्ति नहीं किंतु बड़ा दादाजी श्रीजिनदत्तसरि हैं । ृ मुनि - क्या जैन समाज में दादाजी के पूर्व ऋतुवती स्त्रियाँ जिनपूजा करती थी, और इसको किसी आचायों ने निषेध नहीं किया जिससे जिनदत्तसरि को निषेध करना पड़ा ? आपने अभी तक खरतरों के ग्रन्थों को पढ़े नहीं होंगे, देखिये खास खरतरगच्छ वालों ने ही लिखा है कि : 'संभव आलेsविदुकुसुमं महिलाण तेण देवाणां । पूचाइ अहिगारो न, श्रोत्र सुत निद्दिशे ॥ १ ॥ न विविंति जहा देहं श्रोसरभाव जिरणवरिंदाणं । तह तपडिमपि सया पूति न सड्ढ नारियो || २ ॥' 'जिनदत्तसरि के बनाये कुलक की यह गाथाएं हैं, इस पर जिनकुशल सरि ने विस्तार में वृत्ति भी रची है।' इस गाथाओं में तो जिनदत्तसूरि ने स्पष्ट कहा कि स्त्रियों का अकाल में ऋतुवती होना संभव है, तथा भाव जिनको स्त्रियाँ छी नहीं सकती थीं, इस कारण श्राविकाएं पूजा न करें । उपरोक्त खरतराचायों के कथन को पुष्ट करने वाला एक और भी प्रमाण मिलता है कि पट्टण के मन्दिर में जिनदत्तसूरि दर्शन करने को गये थे वहाँ रूद्र के छांटे देख कर कहा था कि : Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ स्त्रियों को जिन पूजा निषेध अह प्रणया कयाई, रूहिरं दट्ट्टण जिणहरे रूहो । इत्थीणं पच्छिनं देह, जिणच पडिसेहं ।। ३५ ।। संधुति भय पलाएणे, पट्टणओ ऊट्ट वाहणा रूढ़ो । पत्तो जाबलीपुरं, जण कहणे भरणइ विज्जाए || ३६ || " प्रवचन परीक्षा प्रन्थ पृष्ठ २६७ " क्या यह अर्द्ध ढौंढक की श्रद्धा नहीं है ? क्या इसको उत्सूत्र नहीं कहा जा सकता है ? इसके अतिरिक्त खर-तरों ने प्ररूपना की थी कि पर्व के सिवाय पौषध नहीं हो सकता है और सूत्र में कई स्थान पर चतुर्दशी, पूर्णिमा, और त्रयोदशी या प्रथमा के पौषध अर्थात् अष्टम् तप का उल्लेख मिलता है, तथा खरतरों ने आहार कर के ( एकासना या अंबिल ) पौषध करना भी निषेध किया है जो श्री भगवती सूत्र में शंख पोखली का स्पष्ट पाठ है कि उन्होंने आहार पानी खाते पीते पौषध किया था । मांगी० - अभयदेवसूरि जो नौ अंग टीकाकार हुए हैं, किस में हुए हैं आपकी क्या मान्यता है ? गच्छ मुनि०- -इस विषय का मैंने इतना अभ्यास तो नहीं किया हैं किन्तु इतना तो मैं जानता हूं कि नौ अंग टीकाकार अभयदेवसूरि महावीर के पांच कल्याणक मानने वाले थे, अतः वे खरतरगच्छ में तो नहीं हुए थे वे आप अपने को चान्द्रकुल के होना बतलाये हैं । मांगी० - खरतरगच्छ की उत्पत्ति आप कब से मानते हैं ? मुनि० - जिनवल्लभसूरि ने महावीर के छः कल्याणक की प्ररूपना कर इसकी नींव डाली और जिनदत्तसूरि ने स्त्रियों को जिन पूजा निषेध की, अतः प्रश्नोत्तर के समय आपकी खरतर प्रकृति के - Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३५२ कारण लोग उनको खर तर २ कहने लग गये थे, उस समय यह खर तर शब्द अपमान रूप में समझा जाता था | बाद वही खरतर शब्द गच्छ के रूप में परिणित हो गया । मांगी० – गवरचन्दजी आपने थोड़े ही दिनों में बहुत अभ्यास कर लिया और खरतरगच्छ के तो तुम कट्टर शत्रु ही वन गये हो, किन्तु यह सब बिना गुरु गम्यता से ग्रंथ पढ़ने का ही परिणाम है कि तुम इस प्रकार खर तर गच्छ के प्रतिकूल हो गये हो, किन्तु मेरी सलाह मानो तो एक बार मेरे साथ बंबई कृपाचंद्रसूरि के पास चलो तो आपकी इन सब शंकाओं का ठीक समाधान हो जायगा मुनि० - तुम मेरे साथ पैदल चलोगे या गाड़ी में ? मांगी० - मैं तो रेल द्वारा जाऊँगा और आपभी मेरे साथ रेल में चलोतो क्या हर्ज है बंबई चलकर पुनः दीक्षा तो लेनी ही है ? 1 मुनि० - वाह । मांगीलालजी आपने खूब ही सलाह दी, - आप पतित बने सो तो बने ही किन्तु दूसरों को भी पतित बनाने की राय देने को तैयार हुए हैं। खैर मैंने तो संवेगियों में दीक्षा ले ली है, और दूँ ढियों से निकल कर कच्चा पानी पीना या रेल में बैठने वालों को मैं पतित समझता हूँ, क्योंकि ढूंढियों में भी पांच महाव्रत वे ही थे जो संवेगियों में हैं। केवल अज्ञानवश श्रद्धा विपरीत थी, जब इस बात का ज्ञान हुआ तो श्रद्धा शुद्ध कर ली किन्तु पांच महाव्रत तो वे के वे ही रहे । जिस कच्चे पानी की बूंद में असंख्य जीव समझ उसका संगठा तक भी नहीं किया जाता था, वही लोग कच्चा पानी पी जावें फिर उसके हृदय में Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ मुनिश्री और मांगीलाल महाव्रत की भावना ही कहाँ से रहती है, इसी प्रकार रेल में बैठना तथा रुपया पैसा रखना समझ लीजिये। ___ अब रही पुनः दीक्षा लेने की बात, यह तो एक समुदायिक मर्यादा है, किन्तु इससे पहिले पाली हुई दीक्षा चली नहीं जाती है. जैसे पार्श्वनाथ के शोसनवर्ती साधु महावीर के शासन में श्राते हैं तब निरातिचार पुनः दीक्षा लेते हैं, तो इससे उनकी पहिले पाली हुई दीक्षा चली नहीं जाती है इसी प्रकार अपनी दीक्षा को भो समझ लीजिये। खैर मैं तो तुमको यही कहता हूँ कि तुम ढूंढियापना छोड़ा सो तो अच्छा ही किया, किन्तु रेल में बैठना, कच्चापानी पीना, रुपयापैसा पास रखना ये कार्य बिल्कुल ठीक नहीं किए । खैर, जो भवितव्यता थी वह होगई किन्तु अभी पक्षत्व को छोड़ खूब अच्छी तरह से निर्णय करके ही दीक्षा लेना ताकि फिर पश्चात्ताप न करना पड़े। मांगी-आपने तो निर्णय करके ही पुनः दीक्षा ली है ना ? मुनि०-हाँ, मैंने मेरी बुद्धि से तो पूर्णतया निर्णय कर लिया है। मांगी०-अब आपको खरतरगच्छ में तो नहीं पाना है न ? मुनि०-यदि खरतरगच्छ वाले मुझे ठीक समझा देवें तो मुझे इन्कार नहीं है। मांगी-आपको तो पहिले से ही तपागच्छवालों ने पक्का कर दिया है, दूसरे गुमानमुनिजी की पुस्तकों ने तुम्हारे पर पक्का रंग चढ़ा दिया है, अब तुमको समझाने वाला कौन है, अच्छा मैं जाता हूँ, यदि रेल किराये का प्रवन्ध हो सके तो करवा देना । सुनि:- इस विषय में मैं क्या कहूँ। तुम मुनीम से मिलो। मांगीलाल ने नीचे जाकर मुनीम से कहा कि मुझे बम्बई जाना! Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३५४ है हो सके तो यहाँ से रेल किराया दिला दें घेवरमुनिजी ने कहा है कि मुनीमजी से मिलो। ___मुनीमजी-अभी आप कहते थे कि दोड सौ रुपये मेरे पास हैं फिर आप किराया की याचना क्यों करते हो और जब आप पुनः संवेगीदीक्षा लेना चाहते हो फिर उन रुपयों को क्या करोगे ? ___मांगी० रुपयों का तो मेरे पास बहुत सा काम है मैं यहाँ आ गया हूँ और घेवरमुनिजी का यहाँ विराजना है अतः बम्बई तक का किराया तो मिलना ही चाहिये ? ___ मुनीमजी-मैं तो यहाँ नौकर हूँ इस प्रकार साधुओं को रुपये देने का मुझे अधिकार नहीं है यदि आप ठहरें तो मैं फलोदी से समाचार मंगवा कर आपको जवाब दे सकता हूँ। मांगी०-यदि फलौदी से मनाई श्रा जावे तो ? मुनीम-मैं एक पाई भी दे नहीं सकता हूँ। मांगीलाल-कपड़ा लेकर रवाने हो गया। मांगीलालजी के जाने के बाद मुनिश्री ने सोचा कि शास्त्रकारों ने दीक्षा के लिये जाति कुल की उत्तमता का उल्लेख किया है वह सोलह आना सत्य है । बिचारा जाति का मैणा और मूल्य खरीद किया हुआ, फिर भी माता पिता का पोषण करने वाला जैनदीक्षा का कैले पालन कर सकता है, केवल इतना ही नहीं किन्तु इसके विपरीत जैनधर्म को कलंकित कर रहा है, यद्यपि 'कर्मणा गहन गति' कह कर संतोष करना पड़ता है। मुनिश्री ने सब से पहिले प्रतिमा छत्तीसी नामक एक छोटी सी पुस्तक बनाई थी, जिसकी २००० प्रतिएं सादड़ी वालों की ओर से छपी थी । वह इतनी लोक प्रिय बन गई कि थोड़े ही Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ मुनिश्री और मांगीलाल दिनों में समाप्त हो गई और उस की मांग बहुत ज्यादा आने लगी, इस हालत में तीवरी जैन श्वेताम्बर सभा की ओर से ७००० प्रतिएँ और छपवाई गई, और प्रतिमा छत्तीसी में दिये हुए सत्रों के नाम एवं स्थानों को साक्षात्कार करने को तथा हमारे स्थानक वासी ( ए + पी ) भाई लश्कर वाला ने जो अखबारों द्वारा व्यर्थ ही कुयुक्तियों से मूर्तिपूजा का विरोध किया था उसके समाधान रूप में 'गयवर विलास' की १००० प्रतिएं भी तीवरी जैन श्वेताम्बर सभा से मुद्रित करवाई। 'सिद्ध प्रतिमा मुक्तावलि' जो तीवरी से बम्बई कृपाचन्द्रसूरि के पास शुद्ध करवाने के लिये भेजी थीं, उसको भी वहाँ से भावनगर विद्याविजय प्रेस में छपवाने के लिये भिजवादी । ___ मुनिश्री के प्रयत्न तथा मुनीम चुन्नीलाल के सुप्रबन्ध से ओसियाँ बोर्डिंग का कार्य दिन ब दिन उन्नति के पथ पर पयाण करता हुआ आगे बढ़ रहा था अर्थात् बोर्डिंग की नींव सुदृढ़ हो गई थी। ____फाल्गुन शुक्ला ३ को ओसियाँ का मेला था, यों तो प्रति वर्ष मेले पर यात्रीगण आया ही करते हैं, किन्तु इस वर्ष मुनिश्री के विराजने से आस पास के भक्तों के अतिरिक्त गोड़वाड़ तक के लोग आये थे ! और सब लोगों की इच्छा मुनिश्री को अपने अपने नगर की ओर ले जाने की थी तथा समय पाकर सब लोगों ने विनती भी की; किन्तु फलौदी के श्रावक ही भाग्यशाली थे कि जिन्हों की विनती स्वीकार हो गई थी। ___ जो लोग दूर बैठे मुनिश्री का नाममात्र सुनते थे, लेख एवं पुस्तके पढ़त थे पर वे आज अ.पश्री के दर्शन कर एवं व्याख्यान सुनकर और Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ भादर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड वार्तालाप करके आप स्वयं अपने को भाग्यशाली समझने लगे। मुनिश्री के उपदेश से व्याख्यानों से, लेखों से, पुस्तकों से ओसियां तीर्थ की दुनिया में इतनी प्रसिद्धि हो गई कि कई ओसवाल कहलाते हुए एवं अपनी उत्पत्ति का खास स्थान श्रोसियाँ होने पर भी उस को नहीं जानते थे वे भी जानने लग गये कि ओसियाँ हमारी उत्पत्ति का खास स्थान है। ५३ मुनि श्री का फलौदी पधारना फलौदी के श्रावक अच्छे बुद्धिमान एवं भक्तिवान थे, वे जानते थे कि मार्ग में जैनों के घरों का अभाव होने से साधुओं को तकलीफ पड़ती है अतः मेले पर आए हुए श्रावकों में से कितने ही वहाँ ठहर गये कि हम मुनिश्री के विहार में साथ रह कर सेवा का लाभ प्राप्त करेंगे। ____फाल्गुन शुक्ला पंचमी को मुनिश्री श्रेसियों से विहार कर बीकु कोर आये । जब यह खबर लोहावट वालों को मिली तो वहाँ से छोगमलजी, रावतमलजी, गेनमलजी मालचन्दजी कोचर, हजारी मलजी, कुनणमलजी, रेखचन्दजी,माणकलालजी पारख पृथ्वीराज जी चौपड़ा आदि सामने आये और फलौदी के श्रावक पहले से ही साथ में थे। ___ हरड़ायां से बिहार कर १२ मील लोहावट गये, वहाँ लोहावट के दोनों वास वाले श्रावक तो थे ही, किन्तु फलौदी से भी बहुत से श्रावक उसी समय रेल द्वारा आ पहुँचे । गाजे बाजे के साथ आप को अगवानी इस प्रकार हुई कि इसके पूर्व शायद ही इस प्रकार किसी की अगवानी हुई हो। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोहावट में साधुओं का मिलाप फलौदी वालों की इच्छा थी कि मुनिश्री विहार कर शीघ हो फलोदी पधार जायं किन्तु लोहावट वाले भी ऐसे सुअवसर को हाथ से कब जाने देने वाले थे, इधर फाल्गुन चतुर्मासा भी श्रा गया, ज्यों त्यों कर ८ दिनों की स्थिरता तो करवा ही दी। दोनों वास के मन्दिरों एवं दादावाड़ी के दर्शन किये तथा हमेशा प्रातः काल में व्याख्यान तथा मध्यान्ह में ज्ञान चर्चा होती रही। पाठ दिनों में फलौदी वालों ने तो फलौदो और लोहावट के बीच मानों तांता सा लगा दिया। व्याख्यान में जैन जैनत्तर लोग इतने एकत्रित होते थे कि इत नी बड़ी धर्मशाला को छोड़ कर मैदान में व्याख्यान देनापड़ता था। ___लोहावट में मालचन्दजी कोचर एक अच्छे विद्वान श्रावक थे, किन्तु अपेक्षा बाद को न समझने के कारण आपके दिल में कई प्रकार की शंकाओं ने स्थान कर लिया था, मुनिश्री ने हेतु युक्ति और शास्त्रीयप्रमाणों द्वाग सब प्रकार से समाधान कर दिया; यही कारण था कि आपके घराने को लग्न मुनिश्री की ओर विशेष झुक गई। ___लोहावट. में खरतरगच्छीय मुनिश्री तिलोकसागरजी तथा आपको साध्वियां का भी अच्छा जमघट था, वे लोग हमेशा मुनिश्री का व्याख्यान सुनते थे । आपकी प्रकृति चातुर्य और विद्वता देख कर उन लोगों ने विचार किया कि यदि ऐसा विद्वान् साधु अपने सिघाड़ा में आ जाय तो गच्छ और सिघाड़ा की बड़ी भारी उन्नति हो सकती है, अतः उन्होंने कोशिश तो बहुत की किन्तु आपने कहा कि मुझे एक बार फलौदो जाना है। चैत्र कृष्णा २ को मुनिश्री वहाँ से चीले पधारे जो कि फलौदी २३ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३५८ से ४ क.स का फासला पर है । फलौदी और चीला के बीच में श्रावक श्राविकाओं का खासा तांता लग गया । शेष रहे हुए रेलगाड़ी से आ गये, लगभग ५०० श्रावक श्राविकाएं चीले में जैनधर्म की जय नाद कर रहे थे, इधर ५० श्रावक लोहावट से भी मुनि श्री को पहुँचाने को आ गये थे, फलौदी वालों की ओर से स्वामिवात्सल्य हुआ और दिन भर खूब चहल पहल रही। - सुबह की गाड़ी में कई लोग तो फलौदी चले गये, क्योंकि उनको आगे जाकर अगवानी को सुन्दर तेयारी करनी थी। - चैत्रकृष्णा ३ को प्रातःसमय हो मुनिश्री ने फलौदी की ओर विहार करदिया । फलौदी की जैनसमाज में उस दिन अजब उत्साह छाया हुआ था । कई लोग तो प्रातः जल्दी ही उठ कर चीले के मार्ग मुनिश्री के सन्मुख चले गये,कई लोग लवाजमे की तैयारियाँ कर रहे थे कई लोग बाजे गाजे, नक्कार निशान, कोतल आदि की अगवानी के लिये तैयारियाँ कर रहे थे; जगह जगह पोलें बनाई गई थीं, स्थान २ पर ध्वजा, बावटे, फरिये, शुभागमन और वेल कम एवं बोर्ड लगाये गये थे । फलौदी की जनता में इस प्रकार का उत्साह फैलने के कई कारण भी थे; सर्व प्रथम तो आप ढूंढ़ियों से निकल कर आये थे, द्वितीय आपकी प्रशंसा पहिले से फैली हुई थी। फलौदी में मुख्यतः तीन गच्छ हैं, किसी एक गच्छ का साधु आता तो वे सब के सब इस प्रकार उत्साही नहीं बन जाते थे, किन्तु आपके लिये तपागच्छ वालों ने तो यह समझ लिया कि योगिराज रत्न विजयजी ने आपको दीक्षा दी है अतः आप हमारे वपागच्छ में हैं; खरतर गच्छ वालों को पहिले से गुमानमुनिजी कह गये थे कि ढूंढ़ियों से आया हुआ गयवर मुनि अच्छा विद्वान Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ मुनिश्री का फलौदी में प्रवेश है, यदि यहाँ आवे तो तुम भक्ति कर अपनी ओर मुका लेना; अतः खरतरगच्छ की साध्वियां और गृहस्थ भी आपकी सेवा करने में तत्पर थे। तीसरे उपकेश ( कवला ) गच्छ वालों के साथ वो आपके तीन सम्बन्ध थे; एक तो आप संसार में जाति के वैद्य मेहता हैं और फलौदी में १०० घर वैद्य मेहतों के थे और दूसरे अपनी जाति में ऐसे लोकोत्तर पुरुष के होने का किसको गौरव नहीं होता है, तीसरे आपने उपकेश गच्छ के उद्धार के लिये कमर कस रखी थी जो गच्छ प्रायः लुप्त होने में था। अतः इन कारणों को देखते हुए हर्ष और उत्साह होना स्वाभाविक ही था। . ___ यों तो फलौदी में बहुत से विद्वान् साधु और प्राचार्य महाराज पधारे थे, किन्तु इस समय की अगवानी का ठाठ कुछ अनोखा हो था । हजारों नर नारियों फिर भी बाजे गाजे के साथ नगर के पांचों मन्दिरों के दर्शन किए जिसमें विशेषता यह थी कि आप जिस मन्दिर के दर्शन करते थे वहीं नया स्तवन बनाकर प्रभु की स्तुति किया करते थे जब धर्मशाला में पधारे उस समय लोगों को खड़े रहने तक का स्थान भी नहीं मिला, बहुत से लोगों को तो बाहर ही ठहरना पड़ा। मुनिश्री ने अल्प किन्तु सारगर्भित देशना दी बाद प्रभा वना हुई और जनता हर्षनाद से जय बोलती हुई स्व २ स्थान गई। सब लोगों के चले जाने के बाद खरतरगच्छ को साध्वी ज्ञातश्री बल्लभश्री ने विनय को के आप थके हुए पधारे हैं और दिन भी बहुत आ गया है, हम लोग गोचरो पानी ले आवेंगे। मुनिः-नहीं, मैं खुद जा कर गौचरी पानी ले आऊँगा। _. साध्वी०-आप इतना सँकोच क्यों रखते हो? हमारे साधुओं के लिये भी हम ऐसे अवसर पर आहार पानी ला देती हैं और Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३६० वे ले भी लेते हैं, अतः आप कष्ट न उठा हम लोग बाहार पानी ले आवेंगे। मुनि०-फिर कहा कि, नहीं, मैं ले श्राऊंगा। . साध्वियें-खैर नजदीक के घरों से श्राप गौचरी ले आवें, पानी तो ठरा हुआ हम ले आवेंगे। ____ मुनि०-स्वीकृति तो नहीं दी किन्तु लिहाज के कारण इन्कार भी न कर सके अतः मौन रहकर श्राप पात्रा ले गोचरी के लिए चले गये और पीछे से साध्वीजी ने ठरे हुए पानी की एक मटोली लाकर रख दी, मुनिश्री गोचरी लेकर आये तो पानी की मटोली पड़ी देखी, आपने सोचा कि मैंने आज तक साध्वी का लाया हुआ आहार पानी नहीं किया है,किन्तु इस क्षेत्र में पहले पहल ही आना हुआ है, अब पानी लेने से इन्कार कर दिया जावेगा तो साध्वी जी अप्रसन्न होंगी तो न जाने इसका भविष्य में क्या नतीजा होगा अतः आपने सोचा कि साध्वीजी का लाया हुआ पानी थडिले मात्रे के काम में ले लेंगे इस विचार से रख लिया और आप स्वयं जाकर पीने के लिये पानी ले आये । फलौदी में खरतर गच्छ की साध्वियां तीन उपाश्रय में अलग अलग ठहरी हुई थीं उनके श्रा. पस में अनबन होने पर भी आपके व्याख्यान में सब आती थीं। आहार पानी करने के पश्चात् करीब १बजे बहुत से श्रावक श्रा गये, और ज्ञानश्री वल्लभश्री आदि बहुतसी खरतरगच्छ की साध्वियाँ भी आ गई,श्रावकों में मूलचन्दजी गुलेच्छा, मूलचन्दजी नि माणी, रेखचन्दज़ीगोलेछा, फूलचन्दजीगोलेछा, मोतीलालजी माणक लालजी लीछमीलाल जो कोचर,शिवदानमलजी कानुंगा, रेखचन्दजी लोकड़, सुलतानचन्दजी जोगराजजी भतुजी वेद मेघराजजी मुनौत Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ व्याख्यान में सूत्र पूजा इत्यादि अच्छे जानकार श्रावक थे, तथा स्थानकवासियों में अगर चन्दजी वैद्य, बख्तावर चन्दजीढढा आदि भी आये । कई शास्त्रों के प्रश्न किए जिसका मुनिश्री ने अच्छी तरह से समाधान भी किया जिससे उपस्थित श्रावकों और साध्वियों को अच्छा सँतोष हुआ । व्याख्यान में फिलहाल श्री सुख विपाक सूत्र बांचने का निर्णय हुआ। शाम को बहुत से लोग प्रतिक्रमण में आये; आपने अपने बनाये हुए स्तवन और स्वद्याय अच्छी राग एवं उच्च स्वर के साथ सुनाये जो कि लोगों को बहुत रुचीकर प्रतीत हुए और प्रतिक्रमण में श्रावकों की सँख्या भी बढ़ने लगी । प्रतिक्रमण के पश्चात् भी कई श्रावक प्रश्नोत्तर के लिए बैठ जाते थे और अनेक विषयों पर प्रश्नोत्तर हुआ करते थे । लोगों को आश्चर्य इस बात का हुआ करता था कि ढूंढ़ियापन से निकले को थोड़े ही दिन हुए, और आपको संवेगी साधुओं का विशेष परिचय न होने पर भी इस प्रकार से प्रत्येक प्रश्न का स्पष्ट समाधान कैसे कर देते हैं ? 1 दूसरे दिन व्याख्यान के निश्चित समय के पूर्व ही धर्मशाला श्रोतागणों से भर गई। कई लोग थाली में नारियल, चांवल, सुपारी, कुँकुम, फल-फूल, और रोकड़ मुद्रिकादि लेकर आये । मुनिश्री ने पूछा यह क्यों ? श्रावकों ने विनोद में कहा कि महाराज ! यहाँ ढूँढ़ियाधर्म नहीं है, हम लोग सूत्रजी की पूजा करेंगे तत्पश्चात् विनय, भक्तिपूर्वक सूत्र सुनेंगे। मुनिजी विचक्षण थे, आपने कहा कि आप लोग बड़े ही बुद्धिमान् हैं कि हम लोगों को उपदेश देने की आवश्यकता ही नहीं हुई । केवल आप ही क्यों, पर जिसका उल्लेख श्रीराजप्रश्नी सूत्र के मूल पाठ में है, पुस्तक की पूजा तीन ज्ञान वाले सम्यग्दृष्टि देवताओं ने भी की है। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादर्श-ज्ञानद्वितीय खण्ड - सूत्र को पूजा के पश्चात् व्याख्यान प्रारम्भ हुआ, सावियाँ भी सुखविपाकसूत्र के पाने हाथ के लेकर व्याख्यान में बैठ गई किन्तु जब आपका व्याख्यान आरम्भ हुआ तो नगरी के अधिकार में मूलसूत्र में 'वरणओं' पाठ आया इसका अर्थ करना शुरू किया तो साध्वियों के पन्ने हाथ के हाथ में ही रह गये, और व्याख्यान एक नगरी के वर्णन में ही समाप्त हो गया; जो उत्पत्तिक सूत्र में नगरी का वर्णन किया था वह मुनिजी ने बिना ही सूत्र मुँहजबानी कह सुनाया, साध्वियों उस नगरी का वर्णन सुन कर चकित हो गई । क्योंकि ज्ञानश्री, वल्लभश्री, गेवरश्री, रत्नश्री, मुक्तिश्री, प्रश्न श्री, इत्यादि अच्छी सममदार और ज्ञानरुचि वाली थीं। ___ भावना अधिकार में आपने एक कथानीक चरित्र छेड़ दिया ताकि श्रोतागणों की इच्छा व्याख्यान से उठने की न हो; आप भी अकेले फक्कड़ थे, और गोचरी की तो आपको परवाह हो नहीं थी। बस, व्याख्यान की प्रसिद्धि सर्वत्र शहर में हो गई; जो आदमी पर्युषणों में भी नहीं आते थे वे भी मुनिश्री के व्याख्यान में आने लगे । दिन-ब-दिन परिषदा बढ़ने लगी, यहाँ तक कि इतनी विशाल धर्मशाला होने पर भी देरी से आने वालों को स्थान के अभाव में बाहर खड़ा रहना पड़ता था । ___एक तो फलौदी में सम्प्रदाय के घर बहुत थे, दूसरे लोग प्रायः दिसावरी थे कि उनके ऐसा ज़रूरी काम भी नहीं था, तीसरे लोगों को व्याख्यान सुनने का शौक था, जिसमें महिलाएं तो यहाँ तक कि वे रसोई करना छोड़ कर व्याख्यान सुनना चाहती थीं और सबसे बढ़िया बात तो यह थी कि मुनिश्री की व्याख्यान देने Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ खरतरगच्छ वालों की कोशीश की छटा ही निगली थी। जिस पर भी आपकी भाषा मीठो और मारवाड़ी फिर तो कहना ही क्या था । जब कभी लोग प्रभावना देते थे तो रेखचन्दजी गोलेछा जैसे बोल उठते थे कि भाई साहिब ! व्याख्यान में घोटाला क्यों करते हो; लड्डू और पताशों से तो महाराज साहब का व्याख्यान कई गुणा ज्यादा मीठा है; फिर भी करने वाले तो ऐसा लाभ कब जाने देते थे, वे कर ही गुजरते थे । ५४ खरतरगच्छवालों की कोशिश खरतरगच्छ में एक लक्ष्मीश्री नामक लगभग ८० वर्ष से अधिक आयु वालो साध्वीजी जो कि सब के ऊपर प्रवृतनी थी; उनका आचार व्यवहार इतना सरल एवं सुन्दर था कि कोई भी साध्वी तेल या दवाई रात्रि में रख लेतों तो वह कहती थी कि साध्वियां तुम यतनिये ( श्राचरपतित वेष धारनिये ) बन जाओगी अर्थात् सख्त उपालम्भ दिया करती थी । लक्ष्मीश्रीजो व्याख्यान हमेशा सुनती थीं, पर न जाने कि मुनिश्री का उनके साथ पूर्व भव में कोई निकट संबंध था कि मुनि श्री के ऊपर उनकी इतनी भक्ति एवं धर्मानुराग हो गया कि जब मुनिश्री कभी विहार का नाम लेते तो उनका आहार पानी छूट जाता और कर प्रार्थना करतीं कि मैं आपको मेरा गुरु समझती हूँ, और मेरी आयु अब अधिक नहीं है, आप यह चतुर्मासा यहां कर मेरा मृत्यु सुधार दें। आप सूत्र बांचते हो तो मुझे इतना आनन्द आता है कि जिसको मैं मेरे मुख द्वारा वर्णन नहीं कर सकती । यह धर्मराग केवल इकतरफा नहीं था किंतु मुनिश्री जब Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३६४ उस साध्वी जी को देखते थे तब चौथा श्रारा ही आप को याद श्राता था, तथा उन साध्वीनी को अपनी माता से भी अधिक समझते थे सत्य है पूर्व जन्म के संस्कार अवश्य प्रेरणा करता है । बड़ी धर्मशाला ( जहां मुनिश्री ठहरे थे ) के पास ही खरतर गच्छ की साध्वियों की धर्मशाला थी, साध्वियां अपना आचार व्यवहार से सुशील और मर्यादा वाली थी तद्यपि आप के शुरु से ही ऐसा संस्कार पड़ गया था कि विना व्याख्यान के साध्वियों या बाइयों का श्राना श्राप को रुचिकर प्रतीत होता था । जब खरतरगच्छ की साध्वियां उनके साधुओं की सेवा करने में दिन का अधिक भाग वहां ही ठहरने में व्यतीत करती थीं और यहि व्यवहार मुनिश्रा के साथ रखना चाहती थीं अतः मुनिश्री कभी कभी व्याख्यान में फटकार लगा ही देते थे कि बिना व्याख्यान के न तो साध्वियों को साधु के उपासरे आना कल्पता है और न बिना कारण साधुओं को साध्वियां के मकान पर जाना ही कल्पता है । जिस से कि शंका अवश्य रहती थी । और सिवाय व्याख्यान वाचना के उनका आना जाना बन्द ही रहता था । खरतरगच्छ की साध्वियों और श्रावकों को इतनी भक्ति क्यों थी ? इसका खास कारण यह था कि प्रथम तो मुनिश्री से ज्ञान प्राप्त करना था, द्वितीय मुनिश्री को अपनी ओर आकर्षित कर अपने गच्छ में मिलाना था । एक दिन ज्ञानश्री वल्लभ श्रीने यों ही बात निकाली कि आप इतने विद्वान हैं पर इस से हम लोगों को क्या लाभ ? यदि आप हमारे गुरु बन जावें तो हम सब प्रकार से आप की सेवा भक्ति कर विशेष ज्ञान प्राप्त कर सकें। महाराज साहब हमारे सिंघा में २०० साध्वियां होने पर भी कोई सुयोग्य साधु नहीं है । ज्ञान Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ खरतरगच्छ वालों की कोशीश पढ़ने के लिए हमारी बहुत इच्छा एवं अभिलाषा सदैव रहाकरती है किंतु कोई पढ़ानेवाला ही नहीं है यद्यपि हमारा सिंघाडा में साबु हैं । किंतु वे इतने पढे लिखे नहीं हैं । अतः हम कहाँ जाकर पढ़े यदि ज्ञानरूची वाली साबियों को पढ़ाने वाला हो तो वे पढ़कर अच्छा होसीयार हो सकती हैं व्याकरण के अभ्यास के लिए ब्राह्मण के पास पढने की गुरुणीजी साहब की मनाई है फिर भी हम लोग अलग दूसरे ग्रामों में रहें तो पण्डितों से थोड़ा बहुत अभ्यास करती करवाती हैं पर जैनशास्त्रों के लिए तो अभी हम अनभिज्ञ हो हैं । श्रतएव श्राप से प्रार्थना है कि आप हमारे सिंघाड़ा में पधारने की अवश्य कृपा करावें | और खरतरगच्छ नया नहीं पर पुराणा गच्छ है बड़ा छोटा दादा साब बड़े ही प्रभावशाली हुए हैं । मुनि: आप के सिंघाडा में कौन और कैसे २ साधु हैं और उनकी क्या इच्छा है, जब तक मैं उनसे न मिल लूं तब तक क्या कहा जा सकता है फिर भी मैंने अभी तक निश्चय नहीं किया है कि किस के पास रहना इस पर साध्विजी को कुछ आशा हुई कि महाराज ने हमारी प्रार्थना पर कुछ ध्यान तो दिया है 1 इधर साध्वियों ने अपने गच्छ के श्रावकों को कहा कि हमारे और मुनिश्री के इस प्रकार वार्तालाप हुआ है, आप लोग कोशिश करें तो यह कार्य बन सकेगा और यह अमूल्य रत्न सहज हो हाथ आ गया है इसको बेपरवाही से नहीं खो देना चाहिये, इसलिये सब से पहली बात तो यह है कि हरिसागरजी में तो इतनी योग्यता नहीं है पर मुनिश्री आनन्दसागरजी जो बीका नेर में है उनको यहां बुलावें तो यह मामला बन सकता है । इस पर सब लोगों ने सलाह कर के पाबुदानजी गालेछा को Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३६६ बीकानेर भेजा, और वे वहाँ जाकर सब हाल कह कर फलौदी पधारने की प्रार्थना की, किंतु आनन्दसागरजी ने कह दिया कि इस समय गर्मी बहुत ज्यादा बढ़ गई है मैं नहीं आ सकता हूँ, यदि मुनिजी यहाँ आ जावें तो आप भेज दिरावें । पाबुदानजी ने कहा कि हम लोगों ने बड़ो कोशिश करके तो उनका दिल कर. माया है इस पर भी आप गर्मी का बहाना करके फलौदी पधारने से इन्कार करते हो, यह ठीक नहीं है किन्तु आपको जरूर पधारना चाहिये । इस पर भी आनन्दसागरजी ने ध्यान नहीं दिया और कह दिया कि चतुर्मासा के पश्चात् मैं अवश्य मिल लूंगा । इस पर पाबूदानजी निराश होकर वापिस फलौदी श्राये और सबको वहाँ का हाल सुना दिया इस पर साध्वी वगैरह सब हताश हो गये। ५५ स्था०साधु रूपचंदजा की दीक्षा हरसाला में पूज्य श्रीलालजी की समुदाय । के रूपचंदजी नामक साधु थे, आप का एक पत्र मुनिश्री के पास आया, जिस में लिखा था कि मैं इढ़ियापना का त्याग कर आप की सेवा में रहना चाहता हूँ, अतः आप श्रावकों को सूचित कर मार्ग के लिए एक आदमी का इंतजाम करदें ताकि मैं आपकी सेवा में शीघ्र ही उपस्थित हो जाऊं। साधु रूपचंदजी पहिले ही से आप के पास रहे हुए थे, आप उन की प्रकृति से ठोक जानकार भी थे, फिर भी एक भव्यात्मा के उद्धार की भावना से आपने सब प्रबन्ध करवा कर लिख दिया कि आप अपनी पूर्व प्रकृति को बदल दी हो तो खुशी से मेरे पास आ सकते हैं। बस फिर तो देरही क्या थी। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ स्था० साधु रूपचन्दजी की दीक्षा रूपचंदजी फलोदी से भेजा हुआ आदमी के साथ हरसाल से विहार कर सीधे ही ओसियां आये। वहां हूँढियापन के वेष का त्याग कर आपने भ० महावीर के मंदिर में मुनीम चुन्नीलाल के सामने प्रतिज्ञा कर ली कि मैं गयवर मुनिजी का शिष्य हूँ। ओसियां से चलकर आप फलौदी पधारे यहाँ से कई श्रावक श्रापका स्वागत करने को सामने गये जब मंदिरों के दर्शन करके धर्मशाला में आए तो मुनिजो ने मधुर वचनों से श्राप का अच्छा सत्कार किया। ___ रूपचंदजी ने वंदन करते हुए कहा कि मैं आप के विश्वास पर आया हूँ आप ढूंढ़ियापना में भी दीक्षा पर्याय में वृद्ध हमारे गुरु थे, और यहां भो श्राप मेरे गुरु हैं मैने ओसियां के भगवान महावीर के मंदिर में इस बात की प्रतिज्ञा करली है । अतः आप जो कुछ क्रिया करवानी हो करवा कर मेरा उद्धार कराने । मुनिश्री ने कहा बहुत अच्छी बात है ओसियाँ के मुनीम का पत्र मेरे पास आया था श्राप स्वयं जानते हो कि गुरु और शिष्य कहलाना तो एक व्यवहार मात्र है वास्तव में तो अपने को स्वकल्याण के साथ भूले भटके भद्रिक जीवों का उद्धार करना है, यदि आप की ऐसी भावना हो तो मैं दीक्षा देने को तैयार हूँ पर आप अपनी प्रकृति को शांत और समाधि में रखना। __ रूपचंदजी- जो आप फरमा मैं करने को तैयार हूँ कल अच्छा दिन है वैसाख बद ५ को ही दीक्षा दे दीजये ॥ मुनिश्री ने श्रीगौड़ पार्श्वनाथ के मन्दिर में चतुर्विध श्री संघ की समीक्षा विधि विधान के साथ दीक्षा देकर वालक्षेफ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३६८ देते समय कहा कि गच्छ उपकेशगच्छ, आचार्य श्रीरत्नप्रभसरि, गुरु मुनि ज्ञानसुंदर कह कर आप का नाम रूपसुंदर रख दिया । ... रूपसुंदरजी के न जाने ज्ञानावणिय कर्म का कैसा उदय था कि आप को न तो ज्ञान पढ़ने की रुची थी और न इसके लिए उद्योग हो करते थे फिर भी साधुओं के अवश्य करने योग्य प्रतिक्रमण देववन्दनादि क्रियाएं कंठस्थ करने की परमावश्यकता भी थी दूसरे आप को प्रकृति भी कुछ जल्द थी। तीसरे आप को इधर उधर की बातें और पंचायत करने का भी अधिक शोक था गुरु महाराज ने एक दो बार ठीक समझा दिया तब भी आप के दिल में ज्ञान पढ़ने का कुछ भी असर नहीं हुआ खैर जैसा क्षयोपशम । ___ रूपसुंदरजी का जैसे ढूंढियों के प्रतिभाव था वैसे खरतरों के प्रति भो कम नहीं था । व्याख्यान और दो पहर को शास्त्र बँचना होती थी उस में खरतरागच्छ के श्रावक और साध्वियां आती थी तो रूपसुंदरजी उनसे भी नाराज रहते थे गुरु महाराज ने समझाया कि देखिये आप के पूर्व जन्म के उदय होने से इस भव में आपको ज्ञान पढ़ ने की रुची कम है पर दूसरे ज्ञान पढ़ते हैं उसके लिए अनुमोदन न कर इस प्रकार द्वेष कर अंतराय कर्म क्यों बाँधते हो ? यह तुम्हारे लिए ठीक नहीं है । अपने लिये तो क्या खरतर और क्या ढूंढियां कोई भी क्यों न हो पर ज्ञान देना तो लाभ का ही कारण है इतने लोगों से कोई भी पढ़ लिख कर अपनी आत्मा का कल्याण करेगा इसमें अपने को तो फायदा ही है। ढूंढियों के साथ अपना कोई द्वेष नहीं है वे लोग गलत रास्ते पर जा रहे हैं उनको सद्बोध देना अपना कर्तव्य है फिर माने . या न माने यह उनको मरजी पर है यदि अपने कारण से वे लेख Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९ श्रावकों को उत्तेजित करना लिख जनता में गलत फहमी फैलावे उस हालत में अपना फर्ज है कि उसका प्रतिकार कर दें वह मैं कर ही रहा हूँ फिर आप इस प्रकार क्लेश कुसम्प पैदा कर अपने और दूसरों के कर्मक्यों बंधाते हो इत्यादि। ___ रूपसुंदरजी ने उपकेश (कंवला) गच्छ के श्रावकों को उत्ते. जित किया कि खरतरगच्छ के श्रावक एवं साध्वियों गुरु महाराज को अपने गच्छ में लेने की बहुत कोशिश करते हैं गुरु महाराज साफ नहीं कहते हैं शायद वे लोग महाराज को बहका कर अपने गच्छ में न ले जाय अतः आप लोगों को कोशिश कर जाहिर करवा देना चाहिए कि यह दोनों साधु उपकेशगच्छ में हैं अतः सब की आशा तूट जाय । इत्यादि। ____ श्रावकों ने कहा महाराज आप व्यर्थ ही विचार करते हो हमें दृढ़ विश्वास है कि गुरु महाराज उपकेशगच्छ में हैं और रहेंगे। गुरु महाराज भले ही किसी को इन्कार नहीं करते हों पर इतने भोले नहीं है कि जिस प्रकार आप घतलाते हो । दूसरे योगिराजश्री ने आपको दोक्षा दी उस समय भी यही कहा था कि आप उपकेशगच्छ की क्रिया कर इस ज्येष्ठगच्छ का उद्धार करना । इत्यादि । ___ रूपसुंदरजी ने कहा आपका सब कहना सत्य है पर मुझे इन खरतरगच्छ वालों का विश्वास नहीं है अतः स्वयं गुरु महाराज पब्लिक में श्रीगौड़ी पार्श्वनाथ के मँदिर में सबकी समक्ष उपकेशगच्छ का वासक्षेप लेकर जाहिर कर दें कि हम उपकेशगन्छ में है फिर किसी को कोशिश करने की जरूरत न रहे । ____ श्रावकों ने कहा ठीक है हम समय मिलने पर गुरु महराज को अर्ज कर देंगे। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३७० एक दिन सुलतानचंदजी, जोगराजजी, लीछमलाल जी,समरथमलजी, भतुजी वैद वगैरह मिलकर मुनिश्री के पास आये और अर्ज की कि यों तो हम लोगों को पूर्ण विश्वास है कि आप हमारे गुरु हैं। और उपकेशगच्छ का उद्धार के लिये कमर कसी है अतः लुप्त प्राय इस गच्छ का उद्धार करेंगेही पर हमारे दिल में यह उत्साह है कि हम श्रीगौड़ी पार्श्वनाथ के मंदिर में अट्ठाई महोत्सव करावें आप उस समय उपकेशगच्छ का वासक्षेप लेकर सब गच्छवालों को उत्साही बनावें और जो लोग आशाओं का व्यर्थ ही पुल बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं उनको भी संतोष हो जाय अतः हमारी अर्ज को स्वीकार कर हम लोगों पर उपकार करावें तथा रूपसुंदरजी की भी यही राय है। मुनिश्री समझ गये कि ये सब बातें रूपसुंदरजी से ही आई हुई हैं पर आपने श्रावकों को उत्तर दिया कि आप जानते हो कि मैंने रूपसुंदरजी को दीक्षा दी थी तब वासक्षेप के समय हमारा गच्छ उपकेशगच्छ ही कहा था फिर इस प्रकार वासक्षेप लेने का क्या अर्थ है ? इस पर भी आप लोगों का आग्रह हो तो मेरी ओर से किसी प्रकार का इन्कार नहीं है । इस पर श्रावकों ने बड़े हीखुश होकर कहा कि हम श्रीगौड़ी पार्श्वनाथ के मंदिर में अठाई महो. त्सव कल से ही प्रारम्भ कर देंगे। मुनिश्री ने कहा ठीक, मैं कल व्याख्यान में ही इसका खुलासा कर दूंगा बाद आप अपनी भक्ति कर सकते हो ? __दूसरे ही दिन मुनिश्री ने व्याख्यान में एक ऐसा उदाहरण दिया कि एक बाप की संतान में एक भाई के बहुत से पुत्र हैं; तथा दूसरे भाई के खूब व्यवसाय होने पर भी उसका काम संभा Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ श्रावकों की साग्रह प्रार्थना लने वाला कोई नहीं है। यदि अपने भाई का काम व्यवस्थासर रखने के लिए बहुपुत्र वाला भाई अपने एक पुत्र को वहाँ भेज कर उसको अपने बराबरी का बना दे तो इसमें लाभ है या हानि ? सबने कहा कि इसमें हानि का क्या काम है इसमें तो बड़ा भारी लाभ है। मुनि०-इसी प्रकार आप समझिये कि तपागच्छ खरतरगच्छ कँवलागच्छ यह सब एक पिता के पुत्र हैं; तपा, और खरतर बहुपरिवार वाले हैं तथा कँवलों को कोई सँभालने वाला भी नहीं है । अतः गुरू महाराज ने तो मुझे आज्ञा दे दी है, पर यह बात शायद थोड़े हो भाई जानते होंगे इसलिए यदि आप मुझे आज्ञा देवें तो मैं उपकेश ( कॅवला ) गच्छ की सेवा कर सकूँ। संघ- कँवलागच्छ वाले तो इस बात को चाहते ही थे; तपागच्छ वालों का सम्बन्ध हमेशा से कँवलागच्छ के साथ रहता ही आया है और वे यह भी समझ गये कि खरतरों में जाने की अपेक्षा कँवलागच्छ में जाना अच्छा ही है । बस, कँवला और तपागच्छ वालों ने तो इस बात को स्वीकार कर कह दिया कि बहुत खुशी की बात है कि आप कॅवलागच्छ में जन्म लेकर इस गच्छ का पुनरुद्धार करते हो अतः इसमें हमारी सम्मति है; ऐसी हालत में खरतरगच्छ वालों को भी अपनी सम्मति देनी पड़ी; किन्तु उस समय उनका मुँह ताप खा गया था कि अपनी सब आशाएँ रूप. सुंदरजी के आने के बाद मिट्टी में मिल गई; पर इसका कोई उपाय भी नहीं था। बस, फिर तो देर ही क्या थी ? बैसाख कृष्ण ११ से श्री गौड़ीजी महाराज के मंदिर में वैद्यों की ओर से अठई महोत्सव Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३७२ शुरू हो गया; और बैसाख शुक्ला ३ (अक्षक्ष तृतीया ) के दिन चतुर्विध श्रीसंघ की विद्यमानता एवं सम्मति से मुनिश्री ने उपकेशगच्छ का वासक्षेप लेकर आप अब विशेष रूप से उपकेशगच्छ के कहलाने लगे। ___उसो शुभ दिन मध्यान्ह में पाठशाला के कमरे में एक सभा की गई, जब श्रीसंघ एकत्र हुआ तब मुनिश्री ने प्राचार्य रत्नप्रभसूरि का जैनसमाज तथा विशेषकर श्रोसवाल समाज पर कितना उपकार है वह खूब-विस्तार से समझाया, और अंत में अपील की कि ऐसे महान उपकारी पुरुष की स्मृति के लिए इस नगर में एक संस्था स्थापित होनी चाहिये ? श्रीमान् फूलचंदजी माबक ने इसका जोरों से समर्थन किया, अतएव उसी बैटक पर संस्था स्थापन करने का निश्चय कर लिया और आचार्य रत्नप्रभसूरिजी तथा हमारे चरित्रनायकजी एवं दोनों के नाम की स्मृति चिरकाल स्थायी बनी रहे अतः संस्था का नाम 'श्रीरत्रप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला रखना निश्चय कर लिया तत्पश्चात संस्था के नियम और उद्देश्य बनाये । खास उद्देश्य तो यहो रखा गया था कि इस संस्था द्वारा छोटे छोटे ट्रैक्ट छपवा कर समाज में सद्ज्ञान का प्रचार करने का ही रक्खा था । इस संस्था के लिए उसी बैठक में चंदा की फेहरिस्त भी तैयार हो गई, जिसमें नपागच्छ, और कँवलागच्छ वालों ने तो बड़ी उदारता से उस फेहरिस्त में चन्दा चढ़ा दिया, किन्तु खरतरगच्छ वाले किसी एक भी सज्जन ने उस फेहरिस्त में चंदा नहीं चढ़ाया और कहा कि हम फिर विचार कर चॅदा भर देवेंगे। लोग समझ गये कि खरतरों के हाथ में आया हुआ एक अमूल्य रत्न निकल Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ चतुर्मास की साप्रा बिनती गया, इस हालत में यह चंदा कैसे चढ़ावें ? खैर, खरतरों के देखते ही देखते बात ही बात में १५००) चंदा हो गया । बस फिर तो था हा क्या संस्था की ओफिस के लिये जैन पाठशाला का मकान मुकर्रर करके कार्य को भी प्रारम्भ कर दिया-फलस्वरूप में आज पर्यन्त उस संस्था के छोटे बड़े २०१ पँथों की करीब ४००००० पुस्तकें प्रकाशित हो गई हैं और जिससे भारत के चारों ओर ज्ञान का खूब प्रचार हुआ और हो रहा है शायद ही ऐसी कोई भी लायब्रेरी बची हो कि जिसमें इस संस्था की किताब वहाँ न हो। अभीभी संस्था का प्रकाशन कार्य खूब ही रफ्तार से चल रहा है यहसब हमारे चरित्रनायकजी कीअनुग्रह कृपा का ही मधुर एवं सुंदर फल है। ५६ वि० सं० १६७३ का चतुर्मास फलौदी में ___ फलौदी श्रीसंघ ने (तीनों गच्छवाले) मुनिश्री को.चतुर्मास के लिये बहुत आग्रहपूर्वक विनती की, उत्तर में आपने कह दिया कि यहाँ चतुर्मास करने से हमको क्या लाभ होगा ? - श्रीसंघ: क्या आपको लाभ कम हो रहा है ? हमने हमारी उम्र में व्याख्यान, प्रतिक्रमणादि में इतने लोगों की उपस्थिति कभी नहीं देखी है, जितनी की अब आपके समय में देखते हैं, तथा श्रापकं चतुर्मास बिराजने में तो और भी बहुत लाभ होगा। इसके अतिरिक्त श्राप जो आज्ञा दें वह शिरोधार्य करने को श्रीसंघ तैयार है। ___ मुनि०-हमको हमारे निज के लिये तो कुछ भी नहीं कहना है, क्योंकि हम गोचरी शहर से और कपड़ा बाजार से २४ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३७४ श्राते हैं, शेष रहा समाज के लिये इसमें आपका ही भला है, हमें तो केवल दलाली ही मिलती है. श्रीसंघ - हाँ, आप का कहना सत्य है, श्राप श्री जी जो कुच्छ फरसा वह हम करने को तैयार हैं, किन्तु आपको चतुर्मास की विनती तो स्वीकार करनी ही पड़ेगी ? मुनि० - हम दो बातें करवाना चाहते हैं, ( १ ) जैन पाठशाला, (२) जैन लाइब्रेरी । श्रीसंघ — दोनों कार्य हो जायंगे । मुनि० - जब आप दोनों शुभ कार्य कर देंगे तो हम चतुसभी पके वहीँ करने की स्वीकृति दे देंगे । श्रीसंघ - ठीक है, हम विचार कर कल जवाब देंगे । मुनि:- इसमें विचार क्या करना है, यदि सच्चे दिल की लग्न है तो एक व्यक्ति भी पाठशाला के कार्य को कर सकता है, तथा नव-युवक मंडल लायब्रेरी का कार्य उठा सकते हैं । श्रीसंघ — मोतीलालजी कौचर ने विनय की कि आपका वचन कभी खाली ज ने का नहीं है, क्योंकि आपका प्रभाव ऐसा ही है । बाद मोतीलालजी कौचर ने अपने भतीजे माणकलालजी को एकाँत में ले जा कर कहा कि ऐसा सुश्रवसर क्यों जाने देते हो, यह कार्य तो अभी हो जायगा, इस लिये यदि तुम अकेले नहीं करो तो आधा भाग मेरा रहने दो, इत्यादि । इस पर मारकलालजी कोचर ने मुनिश्री के सामने आकर कहा कि श्रीसंघ मुझे आज्ञा दे तो मैं मेरी ओर से पाठशाला की सब योजना करने का तैयार हूँ | बस लोगों का उत्साह खूब बढ़ गया, और इसी उत्साह में गुलाबचंदजी गोलेछा बोल उठा कि यदि माणकलालजी Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ जैन पाठशाला-लायमेरी साहब पाठशाला का लाभ लेते हैं तो हम नवयुवकलाईब्रेरी का कार्य अपनी जिम्मेवारी पर उठा लेते हैं । बस, फिर तो देर ही क्या थी; श्रीसंघ ने मुनिश्री से कहा कि आपके फरमाये हुए दोनों काम श्रीसंघ ने स्वीकार कर लिया है, अब पापको चतुमास के लिये मंजूरी दे देना चाहिये। ' मुनि०-मैंने मंजूरी पहिले ही दे दी है, किन्तु ये दोनों कार्य कार्य रूप में परिणित कर देने पर मेरी ओर से चतुर्मास की स्वीकृति है। .श्रीसंघ-हष और उत्साह के मारे चतुर्मास की जय बोल कर मकान को गुञ्जित कर दिया और बाद प्रभावना के साथ व्याख्यान समाप्त हुआ। ____मध्यान्ह काल में मोतीलालजी, माणकलालजी, रेखचंदजी कोचर, शिवदानमलजी कानुंगा रेखचंदजी लोकड़, सुल्तानचंदजी जोगराजजी भतुजी वैद्य, मेघराजजी मुनोयत, फूलचंदजी माबक, रेखचंदजी, फूलचंदजी, पाबूदानजी मूलचंदजी, शोभागमलजी गोलेछा इत्यादि बहुत से श्रावक लोग मुनिश्री के पास आये और पाठशाला के लिए किस प्रकार का कार्य करना इत्यादि सलाह ले रहे थे, किंतु सबसे पहिला सवाल मकान का उठ खड़ा हुआ कि किस मकान में पाठशाला खोली जाय, शोभागमलजी गोलेछा ने कहा श्रीगौड़ीजी महाराज के मँदिर के सामने पाठशाला है, उस मकान में पाठशाला स्थापित करने में बहुत अच्छा सुभाता रहेगा, कारण एक तो यह मकान शहर के मध्य में, दूसरा मंदिर के पास में, तीसरा चारों रास्ते यहाँ मिलते हैं, जिससे कि पाठशाला की देख-रेख में सुभीता रहेगा । यह बात सबके जंच गई पर पाठशाला Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादशान द्वितीय खण्ड म्युनिसिपल को किराये पर दे दी है। अतः वे छोड़े तब काम बन सकता है । जोगराजजी वैद्य ने कहा, मैंने अभी म्युनिसिपल बालों को पूछा है, वे कहते हैं कि जब तक हमको दूसरा मकान न मिले, हम पाठशाला खाली नहीं कर सकते हैं । खैर, इसका फिर विचार किया जायगा। - उस समयं फलौदी हुकूमत में श्रीमान् किस्तूरचंदजी सँघी जोधपुर वाले हाकिम थे, वे स्थानकवासी थे किंतु मुनिश्री के व्याख्यान का ऐसा रंग लग गया था कि बिना चूक हमेशा व्याख्यान सुनने को आया करते थे और श्रीगौड़ी पार्श्वनाथजी के मन्दिर का तो आपको इतना इष्ट हो गया था कि दर्शन किए बिना भोजन तक भी नहीं करते थे। संघजी मुनीश्री को हमेशा अर्ज किया करते थे कि कभी तो गोचरी की कृपा उधर भी किया करें। · मुनिश्री समयज्ञ थे; एकदिन संघीजी के वहां गोचरी के लिए पधारे, संघीजी बड़े ही खुश हुए और आहारादि विहारने लगे, उस समय मुनिश्री ने कहा कि सँघीजी साब आप जैसे श्रद्धासम्पन्न हाकिम के होते हुए भी हमारा महान कार्य रूका हुआ है। संघवीजी-आपका ऐसा कौनसा कार्य है जो कि रुका पड़ा है? मुनि- हमारा आवश्यक कार्य है। संधवी- फरमावें, मेरे से बनेगा तो मैं तुरन्त करूंगा। मुनि-मैंने श्रावकों को उपदेश देकर यहां जैन पाठशाला स्थापित करवाने का निश्चय करवाया है किंतु मकान के अभाव से वह कार्य हो नहीं सका यदि समय व्यतीत हो जाने पर श्रावकों का इरादा हट गया हो तो हमारा उपदेश मिट्टी में मिल जायगा। संघवी- आपने किस मकान को पसंद किया है ? Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठशाला कामकान ३७७ मुनि- श्री गौड़ीजी के मन्दिर के सामने पाठशाला। संधवी-यह मकान तो अपना ही है. फिर पाठशाला क्यों नहीं खोली जाती है . मुनि- मकान तो अपना ही है पर म्यूनीसिपलिटी दबा कर बैठी है ना ? संधवी-मैं प्राज ही खाली करवा दूगा, आप गौचरी लीरावें । . मुनिश्री गौचरी लेकर पधार गये। दूसरे ही दिन संघवी जी ने पाठशाला का मकान खाली करवा दिया बस फिर तो विलम्ब ही क्या था वैशाख शुक्ला १० के दिन मुनिश्री की अध्यक्षता में श्रीसंघ एकत्र हुआ तथा स्वनामधन्य सेठ माणक लालजी की और से पाठशाला का मुहुर्त कर दियागया तथा लोगों ने अपने लड़कों को पढ़ाने के लिए भेजना शुरु कर दिया, फिल हाल एक अध्यापक रख लिया बाद में जब विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने लगी तो बीकानेर से यति प्रेमसुंदरजी को बुलाकर धार्मिक अध्यापक के स्थान पर रख लिया। :, पाठशाला का मकान कंवला गच्छ की ओर से बनवाया गया था, पर उस में रकम देवद्रव्य की लगी थी, इस लिए जो किराया म्युनीसिपाल वाले देते थे, वही किराया ३) रूपये माहवारी माण कलालजी ने देना स्वीकार कर लिया है। ...... जब पाठशाला का मकान स्वाधीन हो गया तथा पाठशाला स्थापित हो गई, तो नवयुवक मंडल में इस पाठशाला की तीसरी मॅजिल पर अपनी लाईब्रेरी खोलने का निश्चय कर लिया । मुनीश्री की अगवानी में श्रीसंघ को एकत्रित कर नवयुवकों ने बड़े उत्साह के साथ लाईब्रेरी स्थापित कर दी, कई पुस्तकें भेंट द्वाग आई व Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञानद्वितीय खण्ड ३७८ कई मूल्य से मँगवाई गई, कई समाचार पत्र ( अस्त्रबार ) मँगवाये गये । एक नौकर भी रख लिया ताकि लाईब्रेरी हर समय खुली रहे। एक तो फलोदी के लोग दिसावरी होने से उनको काफी समय मिलता था, दूसरे भवन रास्ते पर होने से जाने को सुविधा, तीसरे मुनीश्री का हर समय उपदेश । अतः पाठशाला और लाईब्रेरी का कार्य खूब जोर-शोर के साथ चलता रहा। .. ____ मुनीश्री बहुत समय तक तो बड़ी धर्मशाला में ठहरे, बाद कॅवलेगच्छ के श्रावकों के आग्रह से कॅवलेगच्छ के उपाश्रय में विराजे, तदान्तर तपागच्छ वालों की प्रार्थना से तपागच्छ के चो भुर्जा नाम के उपाश्रय में रहे, किन्तु व्याख्यान हमेशा बड़ो धर्मशाला में ही होता था, कारण दूसरे उपाश्रय में इतना स्थान नहीं था कि मुनीश्री के व्याख्यान की परिषदा बैठ सके । ५७धर्मशाला से सराय में पधारना जब जेष्ठ मास में गर्मी का प्रचण्ड तप पड़ने लगा तब सबकी इच्छा हुई कि बन्द मकान की अपेक्षा व्याख्यान सेठ मोतीलानजी कोचर की सराय में हो तो जनता को श्राराम रहेगा, क्योंकि वहाँ खुले मन में हवा चारों ओर से आया करती है । बस, सबकी सम्मति से तथा सेठ मोतीलालजी की आग्रहपूर्वक विनती से मुनीश्री सराय में पधार गये, तथा व्याख्यान में महाप्रभाविक श्री भगवतीजी सूत्र बांचने का निर्णय हुआ तो वेदों की वासवालों ने श्रीसूत्रजों को अपनी वास में ले जाकर बड़े ही समारोह से रात्रि जागरण वरघोड़ा,और पूजा प्रभावना के साथ लाकर गुरु महाराज के कर कमलों में अर्पण किया तत्पश्चात् मुक्ताफल और सोने की मोहरों Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ श्रीभगवती सूत्र की वाचना आदि से सूत्रपूजा हुई थी। बाद वाचना शुरू हुई श्रोताओं को व्याख्यान का आनन्द इस प्रकार श्राता था कि जिसका वर्णन हम इस लेखनी द्वारा नहीं कर सकते हैं, और जनता मुनीश्री की बराबर प्रसंशा कर उपकार मानता हुई कहती थीकि पूज्य गुरु महाराज हम ने तो हमारी जिंदगी में इस प्रकार श्रीभगवती सूत्र पहिले पहल ही सुना है। हे उपकारी ! आपके सिवाय हम हत् भाग्यों को इस प्रकार सूत्र कौन सुना सकता है हम लोग आपके उपकार का बदला किस प्रकार से अदा करेंगे ? ___ जब श्री भवगतीसूत्र में स्थान २ पर पन्नवण सूत्र की भोलावण श्रान लगी तो श्रावकों की इच्छा हुई कि यदि दोपहर को मुनिश्रोजो पनमवणसत्र वांचा करें तो कैसा आनंद आवे । प्रार्थना करने पर मुनिश्री ने दोपहर को श्री पन्नवणसूत्र बांचना शुरू कर दिया, क्योंकि श्राप ढू दियापना में दोनों समय व्याख्यान बांचे हुए थे और आपको सूत्र बांचने का शुरू से अच्छा प्रेम भी था। यद्यपि दोपहर को आने में लोगों को तकलीफ उठानी पड़ती थी, कारण जीन की रेती खूब तप जाती थी, पैरों में फाला तक हो जाते थे; किन्तु सूत्र ने जनता पर इतना प्रभाव डाला कि वे उस कष्ट को कुछ भी नहीं समझ कर सूत्र का आनन्द लूटने में ही जोवन की सार्थकता समझती थीं। ___ रूपसुन्दरजा यों तो अच्छे गधु थे। फिर भी आपको प्रकृति बहुत तेज थी । जब वे गोचरी पानी को जाते और उनको कोई स्थानकवासी कह देता कि महाराज आपने दूँढिया धर्म क्यों छोड़ा तो वे उनसे लड़ने लग जाते थे, और कभी २ तो कह देते थे कि मैं मूत्र-पेशाब पी-पी कर थक गया, अब मेरे से पेशाब Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाद-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३८० नहीं पाया जाता है, अतः हूँढिया धर्म छोड़ दिया; इत्यादि हमेशा एक-न-एक झगड़ा तो कर हो आते, फिर आकर गुरू महाराज को कहते कि हँढिया लोग अपनी निंदा करते हैं और आप उन्हें कुछ कहते भी नहीं हो। गुरु महाराज कहते थे कि ढूंढियों के साथ अपने द्वेष भाव या लड़ाई नहीं है किंतु अपनी मान्यता के मतभेद का झगड़ा है, वह लड़ने से हल नहीं होगा किंतु प्रमाणों से हल होगा। इसलिये मैं लेख तो लिख सकता हूँ पर. झगड़ा करना नहीं चाहता हूँ, और मैं तुमको भी कहता हूँ कि इस प्रकार झगड़ा कर कर्मबन्ध मत करो, परंतु तुम्हारी तो एक आदत सी पड़ गई है। ५८,ढ़ियों की माफी और पूज्यजी का तार - एक समय का जिक्र है कि मुनि रूपसुन्दरजी गौचरी गये थे; वहाँ ढ ढियों ने उनको कई-एक ऐसे अप-शब्द कहे कि जिससे वे स्थान पर आकर गुरु महाराज के सामने रोने लगे। इस पर गुरु महागज ने तहकीकात करवाई ता ज्ञात हुआ कि इसमें रूपसुंदरजी का नहीं अपितु ढं ढियों का ही जुल्म एवं अन्याय है। फिर तो था ही क्या ? मुनिश्री ने व्याख्यान में इस दंग का उपदेश दिया कि सुनने वालो के अंदर अपने धर्म का इतना गौरव प्रकट हुआ कि वे लोग जो वहाँ उपस्थित थे सबको कह दिया कि आप भोजन कर एक बजे सराय जल्दी पधारना तथा सेवग को कह कर सकल श्रोसंघ में कहला दिया कि आज एक बजे श्रीसंघ सराय में एकत्र होगा, यथा समय सब जल्दी पधारें। " ठीक समय पर श्री संघ एकत्र हो गया, सब के दिल में Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ दूढियों का अन्याय की सजा हूँढियों के न्याय के लिए रोष था, और उन लोगों ने निश्चय कर लिया कि ऐसे देव, गुरु, धर्म के निंदकों के साथ रोटी बेटो का व्यवहार क्यों रखा जाता है गोड़वाड़ वालों की भांति लिखत कर इनके साथ सब व्यवहार तोड़ दिया जावे, इत्यादि जोश भरी बातें हो रही थी। - इधर ढूढिया समाज को इस बात का पता मिला कि आज मूर्तिपूजक समाज ने सराय में एकत्रित हो कर अपने से व्यवहार बंद करने का निश्चय कर लिया है तो उनके होश हवास उड़ गये और वे भी अपने स्थानक में एकत्र हो कहने लगे कि ऐसी निन्दास्मक चर्चा किसने की है कि मूर्तिपूजकों को एकत्र हो इस प्रकार के मार्ग का अवलंबन करना पड़ता है। ___उन लोगों में से सूरजमलजी, अगरचंदजी वैद्य, वस्तावर चंदजी डढा, अलसीदासजी चोरड़िया वगैरह अगुवा लोग चल कर सराय में आए और पहिले मुनिश्री के पास जाकर वन्दन किया और नम्रता पूर्वक प्रार्थना करने लगे कि आप विद्वानों के विराजते हुए भी यह फूट व क्लेश के बीज क्यों बोये जा रहे हैं ? अगर हमारी ओर से किसी प्रकार का कसूर हुआ हो तो हम आप से बार बार माफी मांगते हैं। मुनिश्री:-श्रावकों मैंने आपकी ओर के दुर्ववचनों को बहुत दिनों से सहन कर रहा हूँ; किंतु आप हमारे देव, गुरु, तथा धर्म की निंदा करते हो यह कितना जुल्म और अन्याय है भला इसको कहां तक सहन किया जावे । दू-महाराज हम लोग इस बात को जानते तक भी नहीं है कि किस नालायक - बेवकूफ ने ऐसा अघटित कार्य किया है, Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ૧૮૨ 1 यदि तहकीकात करने पर हमको मालूम हो जायगा तो हम उस को सख्त दण्ड़ देखेंगे । और आईन्दा से हम ऐसा प्रबंध करेंगे कि कोई भी किसी की निदा नहीं कर सकेगा परन्तु इस समय तो आप कृपा कर क्षमा करें; हम बार बार माफी मांगते हैं । मुनिश्री ने कहा कि आप बाहर पधारें जहां कि सकल श्रीसंघ एकत्र हुआ है और जैसी यहां माभी मांगी है वैसा ही उन से माफी मांग लें और भविष्य में निंदा नहीं करने का विश्वास दिला दें तो मामला शांत हो जावेगा । सराय के कमरे में जहाँ कि श्रीसंघ एकत्र हुआ था वहाँ चारों अग्रसरों ने जाकर नम्रता पूर्वक माफी माँगी और प्रतिज्ञा पूर्वक वचन दिया कि भविष्य में हमारी समुदाय से कोई भी आपके देव. गुरु और धर्म की निन्दा नहीं करेंगे, किन्तु श्राप रूपसुन्दरजी को भी कह देना कि वे शान्ति रखें । बस इतनी लाचारी, इतनी नम्रता और साथ में माफी मांगने से श्रीसंघ के दिल में रहोमता श्रा गई और उन्हें माफी प्रदान कर उभय समाज में शांति स्थापित की। इस बात की तँ ढ़ियों पर इतनी असर हुई कि वे बाद में निंदा करना तो दूर रहा पर कई तो व्याख्यान में आने लग गये थे और कई लोग मन्दिर के दर्शन करने के लिये हमेशा जाने लग गये । फलौदी के हाल बीकानेर पूज्य श्रीलालजी महाराज के पास पहुँच ही जाते थे, वर्तमान हाल पहुँचने पर पूज्यजी की ओर से फलौदी तार आया कि यदि गय वर चंदजी फलौदी में चतुर्मास करे तो हमारा कोई साधु साध्वी वहाँ चतुर्मास न करें अर्थात् वहाँ चतुर्मास करने की मेरी श्राज्ञा नहीं है । इस पर कई साधु Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ पूज्यजी का फलौनी में नार साध्वी जो वहाँ चतुर्मास करने को आये हुए थे विहार कर अन्यत्र जाकर चतुर्मास किया। केवल तेजसीजी की समुदाय के छोटे प्यारचंदजी का चतुर्मास फलौदी में ही रहा, कारण वे प्रदेशी साधु थे, दूरसे आये हुए अब चौमासे के नजदोक दिनों में कहाँ जावें और आस पास में ऐसा कोई क्षेत्र भी नहीं था। ५६ फलौदीमेचतुर्मासऔर धर्मसुन्दरकीदीक्षा असाढ़ का महिना थ', चतुर्मास लगने की तैयारी थी, एक ढूंढ़िया साधु धूलचंदजी पू० रुगनाथजी की समुदाय के रत्रचंदजी का शिष्य था, वेष छोड़ कर फलौदी आया था और वह रूपसुन्दरजी से मिला। रूपसुन्दरजो ने मुनिश्री को कहा तो मुनिश्री ने कहा कि जिसने दीक्षा लेकर छोड़ दी और कहा पानी पी लिया, ऐसे को दीक्षा देकर क्या लाभ उठाओगे ? मेरी तो इच्छा ऐसे पतितों को दीक्षा देने की नहीं है रूपसुंदरजी ने श्रावकों को उत्तेजित किया कि महाराज साहब ने गच्छ का उद्धार करने का निश्चय किया है, और ऐसे नवयुवक दीक्षा लेने वाले को दीक्षा देने से इनकार करते हैं; फिर गच्छ कैसे चलेगा ? श्रावकों ने मुनिश्री को विनय की, उत्तर में आपने कहा कि रच्छ ऐसे पतितों से न तो चला और न भविष्य में चलने का; मैंने ठीक परीक्षा करली है, वह दीक्षा के योग्य नहीं है। फिर भी रूपसुन्दरजी की स्वछन्दता को आपश्री रोक नहीं सके, पाँच दिन बिंदोरा खिला कर असाढशुद्ध १३ को उसको दीक्षा देकर, उसका "धर्मसुन्दर' नाम रख रूपसुन्दरजी का शिष्य बना दिया। दूसरे ही दिन था चातुर्मासिक प्रतिक्रमण-एक तो था उस दिन उप Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय व ३८४ वास, दूसरे तीन घंटों का प्रतिक्रमण; ज्यों त्यों करके धर्मसुन्दर ने प्रतिक्रमण किया। किंतु प्रतिक्रमण के पश्चात् धर्मसुन्दर ने कहा कि, क्या संवेगियों का प्रतिक्रमण इतना बड़ा होता है, मेरे से तो इतना बड़ा प्रतिक्रमण न होगा। मुनिश्री ने रूपसुन्दरजी को कहा, लो, मेरी इच्छा के प्रतिकूल होकर दीक्षा दी, अब चेले को संभालो। . ... धर्मसुन्दर को पूछा गया कि जब तुम्हारे से प्रतिक्रमण ही बन नहीं आता है तो तुमने दीक्षा क्यों ली ? धर्मसुन्दर ने कहा कि मैंने तो सुनाथा कि संवेगियों में तो माल खाना और मजा करना, वहाँ प्रचार विचार और काष्ट क्रिया तो है ही नहीं, अतः मैं संवेगी बन गया हूँ, किन्तु मैंने अब देख लिया कि संवेगियों की क्रिया ट्रॅढ़ियों से कई गुणा अधिक है जिसको ढूंढिया लोग पालना तो दूर रहा पर समझते भी नहीं हैं। . ... मुनिश्री-अब क्या करना है, सच सच कह दें कि संवेगी दीक्षा तेरे से पजेगी या नहीं ? ... धर्मसुदर-नहों पले, मैं तो दो दिनों में ही थक गया हूँ। । मुनिश्री ने रूपसुंदरजी से कहा कि अभी भी कुछ नहीं हुआ है तुम्हें इनको रजा दे दो, कारण यह ज्यादा रहेगा ज्यादा नुकसान करेगा। रूपसुंदरजी ने कहा कि अभी तो इसको बड़ी धाम धूम से दीक्षा दी है यदि आज ही निकाल दिया जायगा तो लोगों में एवं दैदियों में अच्छी नहीं लगेगी अत: इस चातुर्मास में तो मैं ज्यों त्यों कर इसको निर्वाह लँगा इतने में ठोक निकलेगा तो 'अच्छा है वरन् यहाँ से बिहार करने के बाद रजा देवी जायगी। . मुनिश्रा ने कहा मेरी तो इच्छा नहीं है फिर जैसी तुम्हारी Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ बीसलपुर वालों का फलौदी मरजी हो वैसा करें पर तुम दोनों की प्रकृतिः देखने से मुझे विश्वास नहीं है कि तुम इनको चार मास निर्वाह सकोगे। ... रूपसुंदरजी ने कहा-ठीक है रहने दो इसको। आपको मालूम हो जायगा कि मैं निर्वाह सकूँ हूँ या नहीं ? मुनि-अच्छा तुमारी मरजी। रूपसुंदरजी की प्रकृति जल्द थी, ज्ञान पढ़ने में बिल्कुल कम रुचि थी; अभी तक आप राइदेवसि प्रतिक्रमण ही नहीं कर पाये थे। पांच सात दिनों के बाद तो गुरु चेले के भी मड़ने लगी। मुनिश्री जब व्याख्यान देने को जाते तो वे पीछे से दोनों आपस में लड़ने लगजाते थे, फिर भी थोड़े बहुत दिन तोज्यों त्यों निकले। मुनिश्री को जब गुरु महाराज के वचन याद आये, तब आपने अपने किये हुए वचनों का भंग के लिए बड़ा भारी पश्चात्ताप किया कि मैंने बड़ी गल्ती की है कि गुरु महाराज के दिये हुए वचनों का अनादर कर दिया. यही कारण है कि मैं हर दम संकल्प विकल्प का घर बना रहता हूँ। ६० बीसलपुर में ग़लतफ़हमी का फैलाना - जब गयवर मुनिजी ढूंढ़ियों से संवेगो साधु ज्ञानसुंदरजी बन गये, और फलौदी में आपके यशः का डंका जोर से बजने लगा, तब कितने ही ढूंढिये साधु, आरजियों ने बीसलपुर में जाकर कह दिया कि गयवर मुनि तोभ्रष्ट हो गया, उसने साधुपना छोड़ दिया, इत्यादि बहुत कुछ निंदा की, उस समय गणेशमलजी दिसावर से आये हुए थे, उन्होंने कागज पत्र से पता लगाया कि आप फलौदी विराजते हैं तो अपनी भावज ( राजकुँआर) और सब भाईयों को Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खग लेकर फलौदी आये, और उसी सराय में ठहर गये, जो जिसके एक ओर मुनिश्री ठहरे हुए थे। इस बात की खबर श्रावकों को हुई तो उन्होंने आपका बहुत सत्कार किया। अभी तक मुनिश्री की मुलाकात आपसे नहीं हुई थी, मुनिश्री को खबर मिलते ही श्राप अपनी क्रिया से निवृत्त होकर थडिला भूमिका पधार गये । और वहाँ से सीधे ही श्रीचिन्तामणि पार्श्वनाथ के मन्दिर जाकर जब तक व्याख्यान का समय नहीं हुआ वहीं ठहर गये । जव व्याख्यान का समय हुआ तो आकर सीधे ही व्याख्यान के पाटे पर बैठ कर व्याख्यान शुरू कर दिया, इतने में गणेशमलजी, रानकुँवार वगैरह सब निपट कर व्याख्यान में आ पहुँचे। ___ मुनिश्री बड़े ही समयज्ञ थे, आपने व्याख्यान में स्थानकवासी मत की उत्पत्ति का समय और कारण अच्छी खूबो से बयान किये, बाद में मूर्तिपूजा के विषय में शास्त्रीय प्रमाण तथा आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा ओसवाल एवं श्रेष्टि गोत्र की वैद्य मेहता शाखा और इस गोत्र में अनेक नर रन हुए उनका इतिहास और अन्त में कहा कि मैं ढूँदिया वेष का त्याग क्यों किया है, और वेष त्याग करने के पश्चात् मेरे आचार व्यवहार में क्या २ परिवर्तन हुआ इत्यादि ढाई घण्टे तक व्याख्यान दिया। - गणेशमलजी और राजकुंवर मुनिश्री का व्याख्यान सुन कर चकित हो गये और मन ही मन कहने लगे कि जो बीसलपुर में बातें सुनी थीं वे सबकी सब गलत एवं द्वेषपूर्ण थीं । यदि भ्रष्ट हो जाते तो इस प्रकार हजारों लोग सेवा कैसे कर सकते हैं, वैर इस बात का निर्णय फिर दोपहर को करेंगे। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० राजकुंवरी के प्रभों का स्तर ' व्याख्यान समाप्त हुआ और सभा विसर्जन हुई । गणेशमलजी बहुत वर्षों से बम्बई रहते थे और फलौदी वालों से खूब जान. पहचान भी थी। सब लोगों ने बहुत मनुहार की पर आज वे जोगराजजी वैद्य के यहाँ मेहमान थे। ___इधर तो मुनिश्री गौचरी पानी से निमट गये थे, उधर से गणेशमलजी वगैरह भोजन कर के आ गये थे, जब वे मुनिश्री के पास बैठे तो इस प्रकार वार्तालाप होने लगाः-- - राजकुँवर-हम लोगों की तो आपकी दया नहीं आई, रोतें को छोड़ आपने दीक्षा ले ली, लेकिन अब आपने यह क्या काम किया, हम लोगों ने तो सुना कि आप भ्रष्ट हो गये तो हमारा होश उड़ गया; इसका क्या रहस्य है ? ___ मुनिश्री-भ्रष्ट का मायना क्या होता है ? राज०-हम लोगों ने तो सुना है कि आपने साधुपना छोड़ दिया है, और यह बात हमारे यहाँ सर्वत्र फैल भी गई है। इसलिए ही हम सब लोग आये हैं। मुनिः-क्या मैं दीक्षा छोड़ संसारी बन गया, क्या किसी रंडी को लेकर भाग गया हूँ या किसी प्रकार का अत्याचार किया है कि जिसको भ्रष्ट हुआ कहा जा सकता है। राज०-फिर आपने पहिले लियाहुआ साधुपन क्यों छोड़ दिया? मुनि-यह तो मेरी इच्छा है, मैं किसी के यहां मोल नहीं बिका हूँ, मेरी इच्छा हो वहां साधुपना पालूँ । राज-पर अब तो आपके साधुपना नहीं है ना ? मुनि-क्यों मैं बराबर साधुपना पाल रहा हूँ। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३८८. - । राज०-यदि साधुपना पालते हो तो मुँह पर मुँहपत्ती क्यों नहीं है ? मुनि०-क्या मुँह पर मुँहपत्ती बांधने में ही साधुपना है ?.. राज०-साधु होते हैं वे तो मुंह पर मुंहपत्ती बांधे रखते हैं ? . मुनि-बस, आप लोगों ने इसको साधुपना मान रखा है। ... गणेशमलजी-मोजाईजी ! संवेगी साधु मुँहपर मुंहपत्ती न बांध कर हाथ में रखते हैं, बम्बई में संवेगी साधु बहुत से आते हैं, हम लोग वहाँ जा कर व्याख्यान सुनते हैं वे बड़े ही विद्वान् होते हैं। राजा-मैंने तो कभी नहीं देखा है। ___गणेश.-गुजरात में बहुत से संवेगी साधु रहते हैं, अपने मारवाद में वे बहुत कम आते हैं, यदि आते भी हैं तो अधिकतर शहरों में रहते हैं, इसलिये आपको मालूम नहीं है। गणेशमल-ढूंढियापन छोड़ने का मुख्य कारण क्या है ? मुनि०-ढदिये लोग मुंह से तो कहते हैं कि सूत्रों के एक अक्षर को भी कम ज्यादा कहने से अनंत संसार परिभ्रमण करना पड़ता है, और वे स्वयं सूत्रों के पाठ पर स्याही-सुफेद और काराज चिपका कर पाठ के पाठ उत्थाप देते हैं, सूत्रों में जगह २ मूर्ति जा के पाठ आते हैं, हजारों वर्षों के जैन मन्दिर मूर्तियाँ आज भी विद्यमान हैं, इस हालत में मंदिर मातयों को न मान कर इसके विपरीत निंदा कर बेचारे भोले भद्रिक जीवों को उन्मार्ग पर ले जा रहे हैं। मुझ को यह बात ठीक नहीं जंची अतः मैंने ढूंढ़िया पन्ध छोड़ दिया है। गणेश-सूत्र में मन्दिर मूर्तियों के लेख हैं,या नहीं किंतु Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज Rao Page #473 --------------------------------------------------------------------------  Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ बीसलपुर वालों को सद्बोध के किले में मैंने बहुत पुरानी प्रतिमाएं देखी हैं । नासिक के पास गुफाओं में भी बहुत पुरानी मूर्तियां हैं; फिर दूँढ़िया लोग मन्दिर मूर्ति को क्यों नहीं मानते हैं ? ___ मुनि०-बस,मगड़ा ही इसी बात का है । यदि आपको सूत्रों का निर्णय करना हो तो यहाँ छोटे प्यारचन्दजी साधु का चतु. मांसा है, लो मैं आपको यह 'गयवर विलास' नामक पुस्तक देता हूँ, इसमें ३२ सूत्रों के पाठ दिए हुए हैं जिनसे मूर्तिपूजा सिद्ध कर बतलाई है; आप स्वामी प्यारचन्दजी को पूछ कर निर्णय कर सकते हो। __ गणेश०-पुस्तक हाथ में लेकर देखी तो मालूम हुआ कि पुस्तक मुनिश्री की बनाई हुई है। ___ मुनि:-आप विश्वास रखो, मैं भ्रष्ट नहीं हुआ, अपितु भ्रष्ट होने से बच गया हूँ । भला, आप समझदार हो विचार कर सकते हो कि यदि मैं चारित्र से भ्रष्ट हो गया होता तो हजारों समझदार और इज्जत वाले इस प्रकार सेवा भक्ति कर मेरा व्याख्यान सुन सकते ? यहाँ मारवाड़ में संवेगी साधु बहुत कम आते हैं, इसलिए मूर्ति पूजा का प्रचार कम है; और ढूंढियों के विशेष आने जाने से प्रायः सब लोग ढूंढिया हो गये हैं,परन्तु गुजरात वगैरह में जाकर देखो तो प्रायः सब लोग मन्दिर मार्गी ही हैं, और भी सुनिये:. ढूंढ़िये तीन पात्रे या इन से भी अधिक रखते हैं, जब कि मैं दो पात्रे ही रखता हूँ। हूँ दिये तीन चहरें रखते हैं, जब कि मैं दो ही रखता हूँ। जब तक मैं शत्रुञ्जय की यात्रा न करूं वहां तक छ विगई से केवल १ ही विगई काम में लेना रख शेष का त्यागकर दिया है। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड हूँढ़िया उत्सूत्र प्ररूपना करते हैं, मैं स्पष्ट सूत्रों की सच्चा बातें निर्भय होकर कहता हूँ। ___ और भी मेरा आचार-व्यवहार हूँ ढ़ियों से कम नहीं किन्तु बढ़कर है । इत्यादि बातें होने से गणेशमलजी व राजकुंवर के दिल में जो शल्य था वह निकल गया, और निश्चय हो गया कि जिन लोगों ने गलतफहमी फैलाई है उसका कारण केवल द्वेष भाव ही है। इतने में व्याख्यान का समय हो गया, कमरा श्रोताओं से भर गया; बहुत सी साध्वियें भी आ गई । जब लोगों को खबर हुई कि गणेशमलजी, महाराज के संसारी भाई और गजकुंवर संसारी धर्मपत्नी हैं, तो लोगों ने उनको धन्यवाद देना शुरू किया, कि धन्य है मुनिश्री के माता पिताओं को कि. जिन्होंने ऐसे लोको. त्तर नररत्न को जन्म देकर जैनधर्म पर महान् उपकार किया है, धन्य है आपके खानदान एवं कुलवंश को और विशेष धन्यवाद है इन राजकुंवर बाई को कि आपने अपनी जवानी में ऐसे पति देव को चारित्र्य के लिये आज्ञा देकर आप अपने जीवन को सफल बनाया है धन्य है आपके इन लघु बंधुओं को इत्यादि । - बाद, दोपहर में सूत्र की बांचना शुरू हुई जो कि लोग बड़े ही आनन्द के साथ सुनने लगे; गणेशमलजी तथा राजकुंवर भी सुनने को बैठ गये। आपकी विद्वता और सूत्र बांचना तथा समझाने की शैली पर सब लोग मुग्ध बन गये। व्याख्यान समाप्त होने के पश्चात् गणेशमलजी, एवं राजकुँवर वगैरह जोगराजजी वैद्य के वहां जाने लगे तो रास्ते में प्यारचन्दजी स्वामी का मकान पाया, गणेशमलजी ने अन्दर जाकर वन्दन Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ गणे० और प्यारचंदजी किया । स्वामीजी ने नाम ग्राम पूछा और कहा कि क्या आप गयचरचंदजी के संसार पक्ष के भाई हैं ? गणेश० - जी हां। प्यार ० - यह बाई कौन हैं ? गणेश० - हमारे भोजाई जी हैं। प्यार० - गवरचंदजी की संसार की धर्म पत्नी हैं ? गणेश जी हां । - प्यार०—गयवरचंदजी अच्छे बुद्धिमान हैं, हमारे पास भी कई बार रहे हुए हैं; पर कर्मों की गति विचित्र होती है, उनकी श्रद्धा बदल गई । 31 गणेश – 'गयवरविलास' पुस्तक सामने रखकर कहा, महा राज साहब इस पुस्तक में सूत्रों का पाठ दिया है, वह ठीक है या ग़लत है ? ● प्यार - यह पुस्तक पहिले से हमारे पास आई हुई है, सूत्रों से मिलाई तो सूत्रों के पाठ तो बराबर ही हैं किन्तु अर्थ में फेरफार कर दिया है। गणेश० --- अर्थ में रद्दोबदल है तो श्राप निशान कर दें कि मैं वरचन्दजी महाराज से पूछ कर दरियाफ्त कर लूँगा । प्यार - नहीं भाई हम तो इस झगड़े में नहीं पड़ते हैं । गणेश० - इसमें झगड़ा किस बात का है, सच्ची बात कहने में क्या डर है ? प्यार० - हमको तो पूज्यजी महाराज की मनाई है कि गयवरचंदजी से किसी प्रकार की चर्चा नहीं करना । अतः हम इस विषय में कुछ भी नहीं कह सकते हैं । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञानद्वितीय खण्ड ३९२ गणेश० - आप मेरे को सत्य बात कहें उसके लिये तो पूज्यजी महाराज की मनाई नहीं होगा न १ प्यार० - इस विषय में मैं कुछ भी कहना नहीं चाहता हूँ । गणेश खैर, इस पुस्तक में दिये हुये ३२ सूत्रों के पाठ तो सूत्रों से मिलते हैं ना ? प्यार० - हाँ, यह बात तो मैं आपसे पहिले ही कह चुका हूँ । गणेशमलजी बन्दना कर वहाँ से आ गये और उनके मन में यह निश्चय अवश्य हो गया कि लोग कुछ भी कहें पर मुनिश्री का कहना तो सत्य ही है, जैसे श्राप संसार में सत्य कहने में निडर थे, उसी प्रकार यहाँ भी सत्य को डंके की चोट कह देते हैं, यही कारण है कि आप ढूँढ़िया पन्थ छोड़कर संवेगी साधु बन गये हैं। गणेश० - दूसरे दिन मुनिश्री से अर्ज की कि हम कल जावेंगे, हमारे लिये क्या आज्ञा है ? मुनि० - आप हमेशा वीतराग की मूर्ति के दर्शन व पूजा किया करना और यही श्रद्धा आम्नाय रखना, क्योंकि यदि किसी को भी सदरास्ता मिले तो वह अपने सज्जनों को सब से पहिले सद्ास्ता बतलावे, अतएव मुझे सद्मार्ग मिला है तो मेरा मुख्य कर्तव्य है कि मैं मेरे सज्जनों को उन्मार्ग जाते हुए को रोक कर सद्मार्ग का प्रदर्शन करवा दूँ । राज० - क्या आप हम लोगों को भी संवेगी बनाना चाहते हो । मुनि० - हाँ, इससे ही आप लोगों का कल्याण है । राज ०. - कल मैं प्रतिक्रमण करने को गई थी तो सबके हाथ में मुँहपत्ती थी, और सामने एक चार पैरों वाली लकड़ियों के ऊपर कपड़े में लपेट कर कुछ रखा हुआ था, तथा प्रतिक्रमण भी Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ बीसलपुर वालों को सद्बोध बहुत लंबा चौड़ा था । क्या हम लोगों से इस प्रकार हमेशा क्रिया हो सकती है ? हाँ, आप कहोगे तो मन्दिर तो हम लोग हमेशा जाया करेंगे। ___मुनि०-आत्मकल्याण करना कोई हँसी-ठट्ठे की बात नहीं है, सब कार्य विधिपूर्वक करने से ही फल होता है। अतएव आप लोगों को इसका अभ्यास कर विधिविधान सीखना चाहिये । राजा-पर कोई सिखानेवाला भी तो होना चाहिये ? मुनि०-यहाँ ठहर जाओ साध्वियों बहुत हैं, एक मास में सब क्रिया एवं विधिविधान सीख जाओगे। राज०-आप तो घर छोड़ कर निकल गये, पर हम लोग तो घर में बैठे हैं, एक मास घर छोड़ कर यहाँ कैसे रहा जा सकता है। मुनि०-पर यह घर मग्ने पर साथ न चलेंगे, इतनी ममत्व क्यों रखते हो?वह दिन कहाँ गये जो दीक्षा लेने को तैयार हुए थे। ___ राज०-दीक्षा लेने के बाद तो यही काम रह जाता है, पर अभी तो हम गृहस्थ हैं, आप अपने छोटे भाइयों को छोड़ आये हैं, उनकी सार संभाल भी तो हमव्हो ही करनी पड़ती है । गणेश. मलजी दिसावार जाने वाले हैं, इस हालत में मैं यहाँ कैसे ठहर सकती हूँ। ____ मुनि०-खैर, एक तो आप सब गुरु आम्नाय का वासक्षेपले लें, दूसरे मंदिर मूर्ति का हमेशा दर्शन करना, समय पा कर शत्रुजय वगैरहः तीर्थों की यात्रा करना। सामायिक करने के समय उच्चासन पर एक पुस्तक की स्थापना कर तीन नवकार गिन ले Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड ३९४ ना, इतना तो अवश्य करना, शेष फिर कभी समय मिलेगा जब करना। राज-लो भाई गणेशमलजी ! आप कहें वैसा कर लो। मुनिश्री ने सराय के कमरे (हाल ) में नांद मंडवाई और प्रभु प्रतिमा मँगवा कर सब विधिविधान करवा कर गुरु आम्नाय का वासक्षेप दिया और कई व्रत पच्चरकान करवाये और उन सब को शुद्ध जैन बनाये। ____ गणेश-दूसरे दिन ठहर कर व्याख्यान में प्रभावना और दोपहर को श्रीगोडीजी महाराज के मंदिर में निनाणवें प्रकार की पूजा भणाई। जोगराजजी ने मुनिश्री से अर्ज की कि गणेशमलजी अच्छे समझदार हैं, सबके साथ वात्सल्यता भाव रखते हैं, हम बम्बई में शामिल ही रहते हैं। आपसे हम अच्छी तरह से परिचित हैं, आप जैसे सत्यप्रिय हैं वैसे ही आप परिश्रमी तथा शाँत प्रकृति के पुरुष हैं। आपने जब दीक्षा ली थी तब इनके सब भाई छोटे थे, उन सबको आपने ही होशियार किया, अपना खुद का विवाह तथा दोनों भाइयों का विवाह आपके ही हाथों से हुआ, अपने माता पिता का मोसर भी आपने ही किया। अपनी भावज का मान तो आप माताजी से भी विशेष रखते हैं, और हमारे साथ तो आपका चिरकाल से प्रेम है। मुनिश्री- हाँ, जोगराजजी हम पाँच भाइयों में गणेशमलजी पड़े ही शांत प्रकृति वाले हैं, और समझदार होने से ही थोड़ी-सी बात में समझ कर सत्य का ग्रहण कर लिया है। क्या यह कम समझदारी है ? Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९५ फलौदी के चतुर्मास में ज्ञान० ... जोग०-जी हाँ। ... दूसरे दिन वे सब रवाना हो अपने ग्राम को चले गये और वहाँ जा कर सबको पूर्ण हाल सुना दिया, और ढूंढिया साधुसाध्वियों के कथन को अपने ग़लत सिद्ध कर दिया। ___बाद में आपके संसारपक्ष के मामाजी चाँदमलजी वगैरह फलौदी आये । उनमें जो लोग पहिले क्रोधित होकर निंदा करते थे, किंतु जब आपका व्याख्यान और परिषदा का ठाठ देखा तो वे भी चकित हो गये, और उनको यह भी मालूम हो गया कि संवेगी धम भी एक प्राचीन धर्म है । मुनिश्री के साथ वार्तालाप होने पर वे मुख्यतः संवेगी नहीं बनें किंतु मन्दिर जाने का नियम अवश्य ले लिया। भाद्रपद शुक्लपक्ष में आपके संसारपक्ष के सुसराल वाले सब लोग आये; श्राप श्री से प्रश्नोत्तर होने पर वे लोग भी संवेगी श्रद्धा कोधारण कर मंदिर के पूर्ण भक्त बन गये। मुनिश्री ने इस प्रकार जो अकथनीय उपकार किया उसको हम कभी भी भूल नहीं सकते हैं। ६१-फलौदी के चतुर्मास में ज्ञान-प्रचार . यों तो आप प्रातःकाल के व्याख्यान में श्रीसुखविपाक सूत्र के बाद श्रीभगवतीजीसूत्र बांचते ही थे,किंतु रेखचंदजी गोलेच्छा रेख चंदजी लीछमीलालजी कौचर मूलचंदजी निमाणी मेघराजजी मुनौयत अगरचंदजी लोढ़ा तथा साध्वियों एवं श्रावकों के अत्यन्त आग्रह से अन्यान्य सूत्रों की वाचना भी दिया करते थे जिसमें श्री आचारॉग दशवैकलिक प्रश्नव्याकरण,व्यवहारसूत्र, वृहत्कल्पसूत्र,निशीथसूत्र, Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३९६ दशश्रुतस्कन्धसूत्रादि साधु आचार के सूत्र भी थे जिन्होंका दर्शन भी होना मुश्किल था, पर विना इन सूत्रों को पढ़े साधु धर्म पालन भी नहीं हो सकता है कारण शास्त्रकारों ने तो स्पष्ट फरमाया है कि जहाँ तक साधु साध्वी श्रीआचारांग सूत्र और निशीथसूत्र के ठीक जानकार नहीं हैं वे साधु साध्वी श्रागेवान हो कर विहार न करें, न व्याख्यान बांच सके और न गंचरी ही जा सकता है। तद्यपि आज का हाल देखा जाय तो कई नामधारी आचार्य व साधुओं ने भी शायद ही इन छेद सूत्रों के दर्शन किये हों। उन्हीं सूत्रों की वाचना मुनिश्री ने आम परिषदा और ४० साध्वियों को दी; उस समय साध्वियों मुनिश्री का इतना उपकार मानती थीं कि जिसका हम यहाँ वर्णन भी नहीं कर सकते हैं; तथापि मुनिश्री तो यही कहते थे कि हमने तो हमारा कर्तव्य बजाया है। इनके अतिरिक्त दोपहर में श्री पन्नावणाजीसूत्र, जीवाभिगमजीसूत्र, राजप्रश्नीसूत्र, उववाइसूत्र आदि की वाचना की। नेमीचंदजी और रेखचंदजी गोलेच्छा यही कहते थे कि सूत्र सुनाने वाले न तो कोई ऐसा साधु अभी तक पाया और न भविष्य में आने की आशा ही है । मुनिश्री असीम परिश्रम करके फलौदी के ज्ञान पिपासुओं को कण्ठस्थ ज्ञान भी इतना करवाया कि जिसका हम इस लोहा की लेखनी से वर्णन ही नहीं कर सकते हैं । रेखचंदजी, लीछमीलालजी कौचर,समरथमल जी गुलाबचंदजी गुलेच्छा, रावतमल जोरावरमल, नेमीचंद, आसकरण वेद और कई २०-२५ साध्वियों ने अनेक प्रकार के तात्विक ज्ञान को कण्ठस्थ कर लिया था और कई एकों ने व्याख्यान देने की तर्ज एवं मसाला को हासिल कर भाषण लेक्चर देने भी सीख गये थे फूलचंदजी झाबक तो रात्रि में Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ पुस्तकों का प्रचार दो-दो तीन-तीन बजे तक प्रश्न तर्क-वितर्क कर द्रव्यानुयोग-नयनिक्षेपादि अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया था। इसमें कई सज्जन तो आज पर्यन्त आपका बड़ा भारी उपकार समझते हैं पर कई कृतनियों ने तो जैसे सांप को दूध पिलाने से जहर होता है वहावत को चरितार्थ भी कर बतलाया है । __फलौदी में जैन पाठशाला और लाइब्रेरी स्थापित होने से विद्यार्थियों और नव-युवकों में ज्ञान का अच्छा प्रचार हुआ, इस के अतिरिक्त यहाँ पर 'श्रीज्ञानप्रेमपुस्तकालय' नामक संस्था भी स्थापित करवाई जिसमें कई सूत्रों का संग्रह किया गया था, जिस से कि साधु-साध्वियों को अच्छा सुभीता हो गया था । . आपश्री के विर.जने से जैसे फलौदी में ज्ञानप्रचार हुआ, वैसे ही पुस्तकों के प्रकाशित होने से अन्य स्थानों में भी ज्ञानप्रचार कम नहीं हुआ था। 'प्रतिमा-छत्तीसी' जिसकी शुरु में सादड़ी वालों ने २००० प्रतिएं छपवाई थीं, जब वे तत्काल ही खल्लास हो गई तो तीवरी से ७००० प्रतियें पुनः मुद्रित करवाई किंतु वे भी थोड़े ही समय में हाथों हाथ खल्लास हो गई। इस हालत में फलौदी की संस्था की ओर से १०००० प्रतियें और छपवाई गई। इस छोटी सी पुस्तक को जनता ने खूब ही अपनाई और यह इतनी लोकप्रिय बन गई थी कि एक वर्ष भी पूर्ण नहीं हुआ जिसमें तीन श्रावृति की १९००० पुस्तकें छप गई। ___प्रतिमा-छत्तीसी में केवल सूत्रों के नाम, अध्ययन, उद्देश्य वगैरहः स्थान ही बतलाये गये थे; जैसे व्यापारियों के खाता-बही होती है पर साथ में रोकड़ बही की भी आवश्यकता रहती है। अतः आपने 'गयवर-विलास' की रचना की जिसकी तीवरी वालों Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३९८ ने १००० प्रतियें छपवाई थी, पर वह भी बात की बात में खलास हो गई और इसकी मांग बहुत होने से १००० प्रतियें संस्था की ओर से और छपवाई गई थीं। इनके अतिरिक्त १००० 'पैंतीस बोल-संग्रह' छपवाये जिससे कि सर्वसाधारण में शास्त्रीय ज्ञान का प्रचार हो । यों तो पैंतीस बोलों की पुस्तकें पहिले भी कई स्थानों से छपी थीं, किंतु आपने ऐसी प्रतिपादन-शैली से इस किताब को लिखी कि जिससे थोड़ी बुद्धि वाले को भी विशेष ज्ञान हो सके। १००० स्तवन संग्रह भाग पहिले की पुस्तकें गे मुनिश्री के बनाये हुए स्तवन जो लोगों को बहुत रुचिकर हुये और प्रिय लग. ते थे । ४००० पुस्तकें 'तेरहपन्थीभाई जो दान-दया का गला घोट रहे हैं। उनके हित-शिक्षा के लिये २००० पुस्तकें 'दान-छत्तीसी' तथा २००० 'अनुकम्पा छत्तीसी' की पुस्तकें मुद्रित करवाई। ___ १००० कई भाई केवल ३२ सूत्र मूल मानने का आग्रह करते हुए पूर्वाचार्यों रचित टीका नियुक्ति वगैरह विवरणों का अनादर कर अधोगति की ओर मुँह कर रहे हैं, उनको बचाने के लिये एक प्रश्नमाला स्तवन जो १०८ गाथाओं का बनवाया जिसमें १०० प्रश्न ऐसे पूछे गये हैं कि यदि टीका नियुक्ति वरीरह न मानी जावे तो एक सूत्र से दूसरा सूत्र प्रतिकूल हो जाता है, अतः पूर्वोक्त प्रश्नों का उत्तर ३२ सूत्रों के मूलपाठ से देने का मानो उन लोगों को एक नोटिस ही था। १००० लिंग-निर्णय-बहुतरी-एक प्रदेशी तीजकुँवरज ढूँढनी की प्रेरणा से मुनिश्री ने न 'लिंग-निर्णय-बहुतरी' नामक पुस्तक बनाई जिसमें जैन साधुओं का वेष कैसा होना चाहिये, और Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ पुस्तकों का प्रचार आज दूं ढ़ियों का वेष कैसा है, तथा तेरहपंथी ढूंढ़ियों की आचारना ने जनता पर कैसा बुरा प्रभाव डाला है उसकी भी १००० प्रतियें छपवाई । १००० ' चर्चा का पब्लिक नोटिस' - जब शेर के सामने गीदड़ नहीं आ सकता है तब वह पीछे पड़ा २ अपनी बड़ाई किया करता है, इसी तरह हमारे द्व ढ़िये भाई भी घर में घुस कर शास्त्रार्थ करने की डींग हांका करते हैं। अतः मुनिश्री ने एक चर्चा का पब्लिक नोटिस निकाल कर ढढ़ियों को आम तौर से इत्तला दे दी कि यदि तुम ३२ सूत्र जिसमें भी मूलपाठ से चर्चा करना चाहते हो तो हम शास्त्रार्थ करने को तैयार हैं । समय, स्थान, विषय और मध्यस्थ तय करके मैदान में आओ, इस नोटिस की भी १००० प्रतियें छपवा कर वितीर्ण कर दी । २००० दादा साहब की बड़ी पूजा - यह किताब श्रीमान् जोगराजजी वैद्य ने आचार्य श्रीरत्नप्रभसूरिजी महाराज की बड़ी पूजा छपवा कर संस्था को भेंट दी थी । ५००० “देव गुरु वन्दन माला " - सेठ मोतीलालजी और माणकलालजी के परस्पर कुछ लेनदेन का ऐसा झगड़ा पड़ गया कि उन्होंने अदालत तक जाने की तैयारियाँ कर लीं । यदि चले जाते तो दोनों ओर से हजारों का पानी हो जाता। जब मुनिश्री को इस बात की खबर मिली तो दोनों सज्जनों को बुलवा कर कहा कि तुम श्रापस में काका भतीजा, जो बाप बेटे की भांति हो कर भी कचहरी में जाते हो। यह ठीक नहीं है मानलो कि दो चार हजार रुपैये एक के दूसरे की ओर रह गये तो भी कचहरी में जाकर हजारों का धुंश्री करने के बजाय तो घर में ही रहेंगे, आखिर उन समझदारों ने Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ४०० गुरुआज्ञा शिरोधार्य कर जोगराजजी वैद्य को बीच में डाल कर उन के कहने के अनुसार आपस में समझौता कर लिया जिसकीस्वशी में दोनों की ओर से ५००० प्रतिएं 'देव गुरु वन्दन माला' छपवा कर स्वधर्म भाईयों को भेंट दी गई। कुल ३६००० पुस्तकें छपी थीं। ___ इसके अतिरिक्त कँवलागच्छ के उपाश्रय का प्राचीन एवं विशाल ज्ञानभंडार का अवलोकन किया, उसमें आपको कई प्राचीन ग्रन्थ पट्टावलिये एवं ऐतिहासिक पँथ, देखने का सौभाग्य मिला और कई प्राचीन ग्रन्थ एवं पट्टावलियों की आपने नकलें भी करवा ली थी। तथा चौरासी गच्छ की धर्मशाला एवं तपागच्छ के उपाश्रय का भंडार भी आपने देखा, इस प्रकार इस चतुर्मास में श्रापको ज्ञान-ध्यान का बहुत लाभ हुआ और जनता का भी आपने कामी उपकार किया। ज्ञानपंचमी के दिन फौदी के मूर्तिपूजक जैन लोग ज्ञान की इतनी भक्ति करते हैं कि जिसको हजारों जैनेत्तर लोग भी दर्शन कर अनुमोदन किया करते हैं। मुनिश्री को इस प्रकार ज्ञान की भक्ति देखने का यह पहिला ही मौका था, बड़ा ही आनंद रहा और ज्ञान का अनुमोदन भी किया। इधर चतुर्मास उतरने की तैयारी थी, मुनिश्री के विहार के लिए कई ग्रामों के श्रावक एवं प्रार्थनापत्र आ रहे थे, उत्तर में यही कहा जाता था कि, 'क्षेत्र-स्पर्शना' । फलौदी के स्थानकवासी भाई अपने पूज्य श्रीलालजी महाराज की विनती करने के लिए बीकानेर गये और पूज्यजी महाराज की स्वीकृति लेकर वापिस फलौदी में आ कर हा हुमचा दिया कि अब हमारे पूज्यजी आते हैं, गयवरचंदजी भाग जावेगा, क्योंकि पूज्य Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसलमेर की यात्रार्थ जी के सामने यहां रहेगा-तो जबर्दस्त शास्त्रार्थ करना पड़ेगा, इत्यादि । 'भोले सैण भी कभी दुश्मन का काम दे दिया करते हैं। कदाचित् उन्होंने इसी कहावत को चरितार्थ किया हो। श्रावक लोगों ने श्रा कर मुनिश्री से अर्ज की कि इस समय चतु. मास उतरने में आया है परंतु आपका यहाँ से विहार न होगा। कारण ढूंढ़ियों के पूज्यनी आते हैं, और उनके भक्तलोग कहते हैं कि गयवरचंदजी भाग जायगा, अतः पूज्यजी श्रावें तब तक श्रापको अवश्य ठहरना होगा, हाँ आपकी इच्छा हो तो खीचॅद तक पधार सकते हो । सशक्ति बरदाश्त होना मुश्किल है, मुनिश्री ने कहा कि खैर, मैं ठहर जाऊँगा पर पूंज्यजी कब तक श्रावेंगे यह तो उनसे मालूम कर लो? श्रावकों ने ढूंढ़ियों से पूछा तो उन्होंने कहा कि एक मास के अंदर हमारे पूज्यजी यहाँ पधार जायेंगे, यह बात मुनिश्री को सुना दी गई। उत्तर में मुनिश्री ने उन दोनों समुदाय वालों को संतोष हो जाय इस प्रकार का जवाब दे दिया । अस्तु ! ६२-जैसलमेर की यात्रार्थ विहार। मुनिश्री ने विचार किया कि इतने दिन यहाँ ठहर कर क्या करेंगे, इससे तो अच्छा है कि जैसलमेर की यात्रा और प्राचीन ज्ञानभंडार का दर्शन कर आवें । इस बात को प्रकट की तो श्रीमान् अखेचंदजी वेद ने कहा कि मैं भी आपकी सेवा में चलू, ताकि मुझे भी यात्रा का लाभ मिल जायगा; बस यह बात प्रायः तय हो गई कि मुनिश्री को जैसलमेर यात्रा के लिए जाना है। ____जब चतुर्मास समाप्त हुआ तो मुनिश्री ने सराय के मकान से विहार कर कँवलागच्छ के उपाश्रय में आकर चतुर्मास बदल दिया। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ४०२ ' पीछे हम ध सुन्दर का हाल लिख चुके हैं कि वह साधु धर्मपालन करने में असमर्थ था, इधर फलौदी के दूँढ़ियों को, इस चातुर्मास में जबरदस्त पराजय होना पड़ा था, अतः वे लोग ऐसे समय की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कोई मौका हाथ लगे तो संवेगियों से हम बदला लेवें। धर्मसुन्दर की हालत हूँ ढ़ियों को भी मालूम हो गई थी, उन्होंने एक यति को एक सौ रुपये का लोभ लालच देकर यह प्रयत्न किया कि जिस समय गयवर मुनि विहार कर बजार के मंदिर जावें, उस समय सह उपाधि धर्मसुन्दर को आप अपने उपाश्रय में बुला लेवें; फिर उसको पीली चद्दर और संवेगियों के वेष में मुँह पर मुँहपत्ती बाँध कर बज़ार में घुमा कर बदला लेवें; यति. ने लोभ के मारे इसको स्वीकार कर धर्मसुंदर से कई वार मिल कर सब बात तय कर ली। ____ मुनिश्री ने जब सराय से विहार कर कँवलागच्छ के उपा. श्रय में प्रतिक्रमण किया, बाद में यति ने आकर मकान के नीचे ज्योंही संकेत किया त्योंही धर्मसुंदर नीचे गया । बहुत देर होगई, सब श्रावक चले गये तो मुनिश्री ने रूपसुंदरजी से कहा कि धर्मसुंदर को नीचे गये बहुत देर हो गई है वह अभी तक क्यों नहीं आया है ? उत्तर दिया कि वह एक यति के साथ बातें कर रहा है । आपने कहा कि मकान का दरवाजा बंद कर लो; बस, मकान का दरवाजा बन्द कर लिया गया । थोड़ी देर के बाद यति के जाने पर धर्मसुंदर ने दो चार बार पुकार की कि दरवाजा खोलो, किंतु दरवाज़ा नहीं खोला गया, इस हालत में पास में कँवला. गच्छ का एक दूसरा उपाश्रय था वहाँ जा कर सो गया। प्रातःकाल धर्मसुंदर आया तो मुनिश्री ने कहा, 'रख दे ओघा, मुंहपत्ती' Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ धर्मसुन्दर के लिबे ढूंढिया धर्मसुंदर ने ओघा, मुँहपत्ती 'रख दिया', 'रख दे काँवली' । वह भी रख दी । बाद एक फटी हुई चद्दर और पुराना चोलपट्टा पहिनने को रहा, तब कह दिया कि तुम दीक्षा के योग्य नहीं हो । जहाँ तुमको सुख हो वहाँ ही जगह देखो, तुम हमारे योग्य नहीं हो । ____धर्मसुंदर चल कर उस यति के पास गया कि जिसके साथ पहिले से बातचीत हुई थी। यति ने कहा, इस भांति क्यों आया, सब पुस्तकें उपाधि कहाँ हैं ? उत्तर दिया कि महाराज ने ले ली। यति ने कहा कि मैं जानता ही था कि ज्ञानसुंदरजी बड़े ही होशियार साधु हैं । खैर यतिजी धर्मसुंदर को ले कर ढढ़ियों के अग्रसरों के पास गये और कहा कि लो, धर्मसुंदर को ले आया हूँ । ढूंढ़ियों ने कहा, हम चाहते थे कि संवेगी-वेश-संयुक्त आवे पर इसके पास तो ओघा, मुंहपत्ती, कंबली तक भो नहीं है, इसको हम क्या करें ? बस हँढ़ियों की मन की मन में रह गई और मुनिश्री का डंका बज ही गया। ____ मागसर कृष्णा तृतीया के शुभ दिन मुनिश्री तथा रूपसुंदरजी ने फलौदी से जैसलमेर की ओर विहार कर दिया, अखेचंदजी वैद्य सपत्नीक और अन्य कई भाईव बाईयों वगैरह सेवामें थे। सातवें दिन जैसलमेर की यात्रा की । वहाँ के भव्य मंदिर जो शिल्प-कला के नमूने थे, तथा मनोहर मूर्तियों के दर्शन कर चित्त को बड़ा ही आनन्द हुआ, बाद मुनिश्री न वहाँ के श्रावकों से कहा कि हमें ज्ञानभंडार का दर्शन करना है। किंतु एक तो ज्ञानभंडार की कुजियें पृथक् २ व्यक्तियों के पास रहती थीं, दूसरे मुनिश्री के साथ ऐसा बाडम्बर भी नहीं था अतः आपको साधारण साधु ही समम लिया, यही कारण है कि ज्ञानभंडार के दर्शन नहीं हुए Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड जिसके लिये कि श्राप आशा कर के पधारे थे । खैर, आप अमृतसर और लौद्रवाजी की यात्रा कर पुनः जसलमेर पधारे । खरतरगच्छ के उपाश्रय में श्रावकों को एकत्रित करवाये और कहा कि हम लोग हूँढ़ियों से निकल कर संवेगी हुए हैं और हमको खास प्राचीन सूत्र देखने हैं इस लिये हम यहाँ आये हैं, मूर्ति पूजा के विषय प्रमाण की तो हमको खास ही रूरत है । यदि आपके घर में पोल हो, एवं आप सूत्र नहीं बतलावोगे तो हमारे दिल में बड़ा ही रॅज रहेगा और मूर्तिपूजा की सिद्धि के लिए हम दूसरों को डंके की चोट कह भी नहीं सकेंगे, तथा फलौदी जा कर हम इस बात का खूब जोरों से प्रचार करेंगे कि श्रीसंघ की सम्पति होने पर भी जैसलमेर वाले ज्ञानभंडार क्यों नहीं दिखाते हैं । अतः इस बात को आप खूब सोच लेना, इत्यादि जोशीले शब्दो में धमकी दी। साथ मेंअखेचँदजी ने भी कहा कि मुनिश्री को आपने साधारण साधु ही समझ लिया होगा पर यदि आप इस बात का आंदोलन कर देंगे तो आपको जवाब देना मुश्किल हो जायगा इत्यादि । बस फिर तो देर ही क्या थी, उसी समय कुञ्जियों ला कर ज्ञानभंडार खोल कर सूत्रों की प्रतियें बाहर लाये । चार घंटे तक आपने वहाँ बैठ कर सत्रों को देखा और कई खास जरूरी बातें थीं उनका मल सूत्र वगैरह को नोट भी कर लिया। दूसरे दिन भी आपने जल्दी जा कर और भी जो सत्र देखने थे वे देखे और उस ज्ञानभंडार का एक स्तवन भी वहीं पर बना कर श्रावकों को सुना दिया। _____ आप १९ दिनों में यात्रा कर मागसर शुक्ला ७ को पुनः फलौदी पधार गये, पर अभी तक पूज्याजी हा बीकानेर से फलौदी पधारना नहीं हुआ था। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ खीचन्द में पूज्यजी का पधारना खीचंद में एक विधवा अनोपबाई ज्ञानश्री वल्लभश्री के पास दीक्षा लेने वाली थी, पर उसकी आज्ञा के लिये खेंचातानी थी, अतः साध्वियों ने मुनिश्री से अर्ज की कि आप खीचंद पधार कर व्याख्यान दिला तो दीक्षा का मार्ग निष्कण्टक हो जाय, एवं अच्छा ठाठ रहेगा। साथ में दीक्षा लेने वाली वैरागिन ने भी बहुत आग्रह किया कि मेरे पास कुछ द्रव्य है, मैं उसे आपकी आज्ञनुसार सुकृत में लगाना चाहती हूँ, अतः श्राप अवश्य खीचन्द पधारें। इस हालत में आप खीचन्द पधार गये, जहाँ ४.५ घरों के अतिरिक्त सबके सब ढूंढिया समुदाय के घर थे। __ आपका व्याख्यान प्रातःकाल तथा दोपहर दोनों समय होता था, आप में यह खूबी थी कि क़लम से आप कुछ भी लिखें, पर कोई भी मतवाला आपके पास में आता था तो आप बड़े मधुर वचनों से समझाते थे, यही कारण है कि आप ढूंढ़ियों को जैन बनाने में काफी सफलता पा गये थे। दीक्षा लेने वाली बाई की ओर से दोनों समय व्याख्यान में और रात्रि भावना में खूब खुले दिल से प्रभावना होती थी; फलौदी वालों ने तो आने जाने का एक तांता सा लगा दिया, हमेशा सौ, दो सौ आदमियों का आना जाना तो बना ही रहता था। जब श्रीमंदिरजी में अट्ठाई महोत्सव शुरू हुआ, तथा वरघोड़ा और स्वामिवात्सल्य होने लगा तो लोगों का उत्साह और भी बढ़ गया । मुनिश्री ने ३५ घरवालों को इस शत पर संवेगी बनाये थे कि जब पूज्यजी कह दें कि सूत्रों में मूर्ति २६ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाद-ज्ञान-द्वितीय खण्ड का उल्लेख है, फिर पूजा वगैरह का विधिविधान तो तुम अपनी अकल से समझ लेना । कारण जब विवाह होता है तो विवाह के विधान भी हुआ ही करते हैं, इसी प्रकार यदि मंदिर मूर्ति है तो उसकी पूजा विधि भी अवश्य ही होती है। ३५ घर वालों को हमेशा व्याख्यान सुनने से या पूजा में जाने गाने से अच्छा रंग लग गया था, इधर फलौदी वालों के विशेष आने जाने का प्रभाव भी था अतः लोगों की श्रद्धा मूर्तिपूजा को ओर मुक रही थी। खीचद वालों ने सुना कि आज पूज्यशी पधारेंगे तो सब लोग सामने गये । किसी के पास 'चर्चा का पब्लिक नोटिस' की पुस्तक भी थी, रास्ते में ही पूज्यजी को दिखाई, पूज्यजी पहिले से ही जानते थे कि वातावरण गर्मागर्म है । जिस समय पूज्यजी खीचंद में पधार रहे थे, उस समय मुनिश्री तो व्याख्यान बांच रहे थे, किंतु रूपसुंदरजी मकान की छत पर जाकर देख रहे थे। क्या कारण हुआ कि एक छोटासा कॅकर पूज्यजी के पास में आ पड़ा, पूज्यजी ने नजर दौड़ाई तो देखा कि मकान के ऊपर रूपसुंदरजी खड़े थे, आपने सोचा कि कॅकर शायद रूपसुंदर ने ही फेंका होगा । पूज्यजी महाराज बड़े ही समयज्ञ थे, आपने मकान में ठहर कर सर्वप्रथम देशना दी। उसमें मूर्ति के विषय की चर्चा की और कहा कि कई लोग कहते हैं कि ढूंढ़िया मूर्ति नहीं मानते हैं, किंतु यह बात गलत है,हम मूर्ति को जिस प्रकार सूत्रों में लिखी है उसी भांति बराबर मानते हैं। बस, मुनिश्री ने जिन ३५ घर वालों को जैनी बनाया था, वे लोग पूज्यजी का पहिला ही व्याख्यान सुन कर समझ गये कि मूर्ति तो जैन सूत्रों में है और पूज्यजी महाराज ने स्वयं फरमाया भी है कि हम मूर्ति मानते हैं फिर विधि विधान Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ मुनिश्री और सूरजमलजी का भले ही झगड़ा हो और इतना झगड़ा नहीं, होता तो फिर मत अलग ही क्यों कहलाया जाता । दोपहर में लोहावट वाले सूरजमलजी श्रोस्तवाल नो मुख्य तौर पर पूज्यजी महाराज के पूर्ण भक्त थे, मुनिश्री के पास आये, तथा वन्दन कर के प्रश्न किया । सूरज – महाराज यह मंदिर मूर्ति का क्या झगड़ा है, श्राप भी मूर्ति मानते हो और हमारे पूज्यजी महाराज भी कहते हैं कि सूत्रों में मूर्ति है और हम मूर्त्ति मानते हैं । मुनि०- यदि पूज्यजी महाराज मूर्ति को मानते हैं तो फिर झगड़ा ही किस बात का है ? सूरज ० - पूज्य महाराज ने श्राज ही व्याख्यान में फरमाया है । मुनि ०. - यह कहने मात्र का है । सूरज़० – क्यों ? -- ---- मुनि:- यदि पूज्यजी मूर्त्ति मानते हैं तो फिर मंदिर में जाकर दर्शन क्यों नहीं करते हैं, और श्राप जैसों के लिये मंदिर जाने की मनाई कर अंतरायकर्म क्यों बांधते हैं ? सूरज ० - मंदिर मागियों ने धूमधाम बढ़ा दी । मुनि० -- इसमें आपको क्या हानि है ? सूरज - हमारे पूज्यजी म० कहते हैं कि शास्त्रों में लिखा है कि गुलाब का झाड़ के नीचे शुद्ध कपड़ा बिछादें और रात्री में जो फूल स्वतः ही टूट कर उस कपड़े पर गिर जावे वह फूल भगवान की मूर्ति पर चढ़ाना चाहिये। आज हम बंबई में देखते हैं तो गाड़ों बंद फूल मंदिर में चढ़ाये जाते हैं, यही कारण है कि पूज्य Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४०८ जी ने या हम लोगों ने मंदिर जाना छोड़ दिया है, बाकी मंदिर में जाकर मूर्ति का दर्शन करने में कोई दोष नहीं है। ___ मुनिः- एक धर्मस्थान में बहुत से श्रावक दया पालते हैं, उनके लिए मिठाई, भुजिये, साग, सेवें, फुलके, पुडियां, दही का रायता वगैरह नाना प्रकार के भोजन आते हैं, कई पुरसगारी करते हैं तो कहीं मिष्टान्न के टुकड़े गिर भी जाते हैं, वहां कीड़िये तथा मक्खियें भी आ जाती है, उस समय एक चौविहार उपवास वाला श्रावक आकर उन दयावालों का आडम्बर देख दया से घृणा कर स्थानक में आना ही छोड़ दे तो क्या आप उस को ठीक समझते हो? सूरज:- नहीं। मुनि- तो फिर मंदिर का आडम्बर देव मंदिर ही छोड़ देना क्या समझदारों का काम है ? सूरज- आप का कहना ठीक है किंतु अब तो परम्परा हो गई है न ? मुनि- भला पूज्यजी महाराज स्वतः टूटा हुआ फूल तो भगवान की मूर्ति पर चढ़ाना स्वीकार करते हैं न ? सूरज-हां खास पूज्य महाराज ने मुझे कहा था । मुनि- उस फूल में तो फिर भी सचेत पना रह ही जाता है पर मैं तो आप से यह कहता हूँ कि फूलों के बदले लौंग ही चढ़ाया करें, इस में तो कोई हर्ज है ही नहीं क्योंकि लौंग अचित होते हैं जिसको साधु भी ले सकते हैं। सूरजः- हां इसमें तो कोई हर्ज नहीं है। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ मुनिश्रो और सूरजमलजी मुनि- तो आज से नियम कर लो कि मैं मंदिर जाकर मूर्ति का दर्शन करके ही अन्न-जल ग्रहण करूँगा। ___ सूरज- हाँ नियम तो कर लेता हूँ किंतु मंदिर जाने में मंदिरमार्गी हमारो हंसी करते हैं। ___ मुनि- यदि मुंह पर मुंहपत्ती बांधने की कोई हंसी करें तो आप उसे भी त्याग देवेंगे। सूरजः- नहीं। मुनिश्रीः- तो फिर मंदिर क्यों छोड़ा, इसी कारण तो आपने मंदिरों से अपना हक़ भी खो दिया है सूरज०-हाँ महाराज ! आपका कहना तो सत्य है । मुनि०-सत्य है तो नियम ले लो। सूरज०-बम्बई में तो मैं मन्दिर का दर्शन करता था, पर यहां नहीं होता है, यदि नियम लूँ और कभी भूल जाऊँ तो ? मुनि-जिस दिन भूल जाओ उस दिन एक विगई या नमक का त्याग कर देना। सूरज-आप तो खूब पकड़ में लेते हो। मुनि-धर्म का कार्य तो इसीप्रकार कठिनता से ही होता है । सुरज-लो, एक मास का नियम तो दिलवा दो। मुनि-बड़ी शर्म की बात है, जो मुख्याः जन्म भर का कर्तव्य है उसके लिये आप एक मास का नियम लेते हैं ? क्या इसमें आपको जोर पड़ता है ? सूरज-अच्छा, एक वर्ष का नियम दे दीजिये। मुनि-अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, और आत्मा की साक्षी से एक वर्ष तक मन्दिर गये बिना अन्नजल Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ४१० नहीं लेना, कभी भूल जायें तो दूसरे दिन एक विगई या नमक छोड़ देना । प्रतिज्ञा करवा दी । सूरज ० - वन्दना कर सीधे ही पूज्यजी के पास गये तथा मुनिश्री के साथ जो वार्तालाप हुआ वह सब निवेदन कर दिया, पूज्यजी ने मन में तो शायद पश्चाताप किया ही होगा किंतु ऊपर से कुछ भी नहीं कहा । पूज्यजी महाराज का एक आचारांगसूत्र मुनिश्री के पास था, और मुनिश्री का एक जीवाभिगमसूत्र पूज्यजी के पास था, जब खीचन्द में आप दोनों पधारे तो पूज्यजी ने एक साधु के साथ कहलाया कि गयवरचंदजी को कहना कि मेरा आचारांग सूत्र तुम्हारे पास है, यदि तुम्हारी इच्छा हो तो दे दो, क्योंकि हमें आवश्यकता है । मुनिश्री ने उत्तर दिया कि एक श्राचारांग ही क्यों, पर यदि आपको कोई भी सूत्र चाहिये तो मैं सेवा में उपस्थित कर सकता हूँ, कारण आपका मेरे पर बड़ा भारी उपकार है, यदि आपको साधु के योग्य और भी किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो कृपा कर फरमावें, मैं सेवा में हाजिर कर सकता हूँ । मेरा जीवाभिगम सूत्र आपके पास है और यदि आप को उसकी आवश्यकता न हो एवं श्रापकी इच्छा हो तो बक्शीश करावें, आपका आचारांग सूत्र फलौदी पड़ा है, यदि आप फरमावें तो मंगवा दूं । साधु ने मुनिश्री के कहे हुए सब समाचार पूज्यजी महा राज के पास जाकर पूर्णतः वर्णन कर दिये, पूज्यजी समझ गये कि गयवर चंदजी पक्का मुत्सद्दी । एवं बोलने में बड़ा ही मीठा है किन्तु जीवाभिगम मिलने पर आचारांग सूत्र देने की उनकी इच्छा है, अतः न जीवाभिगम सूत्र देना है, और न आचारांग लेना है । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ फलादी मे पूज्यजी और मुनिज का मिलाप फलोदी के स्थानकवासी श्रावकों के श्राग्रह से पूज्यजी महा राज फलोदी पधारे। इधर खीचन्द में अनोपबाई की दीक्षा बड़े ही धूमधाम से मुनिश्री के हाथों से हो गई थी, बाद मुनिश्री लोहावट को ओर विहार कर रहे थे, किन्तु फलोदी के अग्रसर लोगों ने आकर स्पष्ट कह दिया कि एक बार तो आप को फलोदी चलना ही पड़ेगा, नहीं तो ढूंढ़िये कह देंगे कि पूज्यजी से डर कर ज्ञानसुंदरजी भाग गये । मुनि०- पूज्यजी महाराज ने तो यहां श्राते ही व्याख्यान में फरमा दिया कि हम मूर्त्ति मानते हैं, फिर फलोदी चल कर क्या करना है ? श्रावक०- -कुछ भी हो आप को एक दफे चलना ही पड़ेगा । मुनि श्रावकों के लिहाज के मारे विहार कर फलोदी गये, दोनों ओर व्याख्यान होते र किन्तु फलोदी में ढूंढ़ियों के घर थोड़े और मूर्तिपूजकों का समुदाय अधिक होने से पूज्यजी के बनिस्बत मुनिश्री के व्याख्यान में परिषदा का जमघट खूब जोरदार रहता था । एक दिन स्थानकवासी श्रावकों ने मर्त्तिपूजकों से आग्रह किया कि पूज्यजी महाराज के पास पधारें और प्रश्न वग़ैरहः करें। इस पर फूलचंदजी माबक, रेखचंदजी लोकड़, गाढ़मलजी पारख, मेघराज जी मुनेयित, शोभागमलजी नेमीचंदजी गोलेच्छा वग़ैरहः मूर्तिपूजक श्रावक, स्था० श्रावक, बखतावर चंदजी ढड्ढा, Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड * चंदनी वैद्य, वग़ैरह: के साथ पूज्यजी महाराज के पास गये । कुशल-क्षेम पूछकर बैठ गये । पूज्यजो० --- श्राप को कुछ पूछना है ? फूलचंदजी - जी हां। ܘ पूज्य ० – पछो । - । Q फूल० - पूछना यही है कि हम लोग देश विदेश जाकर कई प्रकार की कठिनाइयों एवं अनेकों मुसीबतें उठा कर पैसा पैदा कर के लाते हैं । हमारे आचार्य व साधु आते हैं, वे हम लोगों को उपदेश देकर अट्ठाई महोत्सव, वरघोड़ा, इत्यादि धर्म के नाम पर हजारों रुपये खर्च करवा देते हैं, और इसमें मोक्ष स्वर्गादि बतलाते हैं, और आप उसमें पाप कहते हो यदि वास्तव में पाप ही होता हो तो हम दोनों तरफ से नुक़सान उठाते हैं। यदि दूसरा संवेगी साधु हो तो उसमें पक्षपात का संभव हो सकता है, किंतु हमारे भाग्योदय से इधर तो आप जैसे शांतिस्वभावी विद्वानों का पधारना हुआ, और उधर आपकेही पढ़ाये हुए आपके शिष्य ज्ञानसुंदरजी महाराज का बिराजना है, ऐसा सुश्रवसर हमारे लिये फिर हाथ लगना कठिन है; अतः आप गुरु शिष्य एक स्थान पर बिराज कर हम लोगों को रास्ता बतला दीजिये; जिससे कि आपको भी बड़ा भारी लाभ होवेगा और हम लोगों का कल्याण हो जावेगा । पूज्यजी- मैं इस प्रकार वाद-विवाद करना नहीं चाहता हूँ । फूल० - इसमें वाद-विवाद को स्थान ही कहाँ मिलता है, कारण, आप दोनों महात्मा सूत्रों के पाठों से निर्णय कर लें, हम दोनों श्रर के श्रावक मौन रह कर सुनते रहेंगे, तथा आप दोनों का एक निर्णय होने पर हम भी उसी मार्ग को स्वीकार कर - Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ मुनिश्री और पूज्यजी म. लेवेंगे। पूज्य महाराज इननी तकलीफ तो आपको उठानी ही पड़ेंगी, और आपके थोड़े से कष्ट से हम लोगों का कल्याण हो जायगा, क्योंकि साधु हमेशा परोपकारी होते हैं। पज्यजी-यदि हम दोनों एक निर्णय पर आ सकते तो अलग ही क्यों होते, तथा गयवरचंदजी जैसा साधु श्रापके हाथ ही क्यों लगता। फूल०- स्त्रैर, पहिले श्राप एक नहीं हो सके तो अब हो जाइये, कारण सूत्र तो आप दोनों के एक ही हैं। पूज्यजी-आपको कह दिया न कि हम इस प्रकार का वादविवाद करना नहीं चाहते हैं । रेखचन्दजी-आपको नहीं पर हमको निर्णय करना है। रेखचन्दजी लौकड़ ने एक श्रावक को कहा जाओ ज्ञानसुँदरजी महाराज को बुला लाओ। पूज्यजी-क्या श्राप परस्पर बखेड़ा कराना चाहते हैं, यदि गयवरचन्दजी यहाँ आवेगा, तो मैं ऊपर कमरे में जाकर मौन कर बैठ जाऊंगा । इन वचनों को सुन कर रेखचन्दजी ने स्थानकवासी श्रावकों को कहा कि श्राप कहते थे कि हमारे पूज्यजी भाते हैं, गयवरचन्दजी भाग जावेगा, यह बात आप अपने दिल से ही कहते थे या पूज्य महाराज के कहने से। भला शास्त्रार्थ करने के लिये तो हम लोगों ने मुनिश्री को विहार करते रोका । अब आप पूज्यजी महाराज को खानगी समझा कर कल तैयार कर देना कि गुरु शिष्य शास्त्रार्थ कर अपने में जो मत-भेद है उसको मिटा कर दोनों सम्प्रदायों को एक करदें और गुरु-शिष्य एक बन जावें; इंदना कह कर श्रावकगण उठ कर चल धरे । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४१४ बाद में पज्यजी ने अपने भक्त श्रावकों को समझा दिया कि इस प्रकार का वितंडावाद करने में कर्म बन्ध के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं है। ___ श्रावक-किंतु यदि सूत्रों के पाठ से मूर्ति का खण्डन होता हो तो चार मान्यवरों के सामने सूत्र पाठ बतलाने में अर्थात् शाखा थं करने में क्या नुकसान है ? __पूज्य०-सूत्र तो स्याद्वाद है और इसमें सब तरह के पाठ हैं, जिसको जिस पाठ की आवश्यकता हो वह निकाल कर आगे कर देते हैं। श्रावक-क्या सूत्रों में मूर्तिपूजा के भी पाठ हैं ? तज्य०-हाँ ,सुरियाभदेव या द्रौपदी के अधिकार में आता है। तथा जीवाभिगमसूत्र में 'धूवदाउणं जिणवराणं,' पाठ है अतः जिन प्रतिमा को देवताओं ने धूप देने का भी लिखा है। ___श्रावक-एक दिन गयवरचंदजी ने अपने व्याख्यान में कहा था कि जिन-प्रतिमा जिन-सारखी है, मैं सूत्रों से सिद्ध कर सकता हूँ, तो क्या सूत्रों में जिन-प्रतिमा जिन-सारखी कही है ? ____ पूज्य-हाँ, यदि जिन-प्रतिमा को जिन-सारखी मान लें तो इससे क्या हुआ, दरबार की फोटो ( तस्वीर ) दरबार जैसी हम मान भी लें तो फोटो दरबार का काम थोड़े ही दे सकती है ? श्रावक-तब तो जिन-प्रतिमा को जिन-सारखी मान लेने में कोई नुक्सान नहीं है न ? पूज्य-नहीं, मैं भी जिन-प्रतिमा को जिन-सारखी मानता हूँ। मुख्यतः अपना पक्ष तो यह है कि भगवान का धर्म हिंसा में नहीं, अपितु दया में है, इसको कोई इन्कार नहीं कर सकता है । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू० कहने से हूँ० श्रावकों को शंका श्रावक - तो फिर कल इस विषय का ही शास्त्रार्थ क्यों न किया जाय, नहीं तो मंदिरमार्गी कह देवेंगे कि तुम्हारे कहने से हम पूज्यजी के पास गये पर तुम्हारे पूज्यजी ने पूज्य ० - चर्चा में कर्चा है; अपने करना है और वह दया में है समझे न ? शास्त्रार्थ नहीं किया । को तो आत्म-कल्याण ४१५ श्रावक - श्रावकों को इतनी श्रवश्य शंका हो गई कि पूज्य महाराज इतने विद्वान् होने पर भी शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते हैं और हरेक बात में टाल-मटोल कर देते हैं, अतः शास्त्रों में मूर्त्ति का विषय श्रवश्य है और मंदिरमार्गियों में इतने बड़े २ श्राचार्य हुए हैं, आत्मारामजी जैसे धुरंधर विद्वान् व सैंकड़ों साधु अपने में से निकल कर मूर्तिपूजक समुदाय में चले गये हैं, हजारों वर्षों के मंदिर विद्यमान हैं । यही कारण है कि जिनसे पूज्यजी महाराज चर्चा नहीं करते हैं । दूसरे गयवर चंदजी को हाथों से पढ़ाया है अतः वे घर की सब बातें जानते भी हैं । स्त्रैर, समय हो गया, चलो । दूसरे दिन प्रातःकाल ही पूज्यजी ने धनराजजी साधु को गथवरचंदजी के पास भेजा और कहलाया कि यहाँ तुम्हारा राजपाट है तुम कहो तो हम लोग ठहरें; यदि तुम चर्चा एवँ शास्त्रार्थ का बहाना लेकर क्लेश करवाना चाहते हो तो हम विहार कर जावें । धनराजजी ने मुनिश्री को पूज्यजी के सब समाचार कहे । मुनिश्री ने वापिस कहलाया कि पूज्यजी का मेरे पर बहुत उपकार है, मैं उसको भूल नहीं गया हूँ, तथा आपके श्रावक मेरी ही निंदा करें तो मैं सहन कर सकता हूँ किंतु हमारे कारण हमारे देव, गुरु, धर्म की निंदा करते हैं उसको मैं सहन नहीं कर सकता Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४१६ हूँ। आप अवश्य बिराजें, व मेरे योग्य सेवा हो वह कृपा कर फर• मायें, मैं हाजिर हूँ। मैं आप के पास आने को भी तैयार हूँ हमारे श्रावकों की हमको दक्षण्यता भी नहीं है किंतु आपके श्रावक क्लेश न कर बैठे। पूज्यजी धनराजजी से यह उत्तर सुन बहुत प्रसन्न हुये और श्रावकों को कह दिया कि अपनी क्रिया अपन करते हैं, उन की वे करते हैं; किसी की निंदा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि निंदा कमबन्ध का कारण है । यदि तुम गयवरचॅदजी को जान-बूझ कर छेड़ते हो तब ही वह करते हैं इसलिये मेरा कहना है कि तुम उनके लिये एक शब्द भी न निकालो। मूर्तिपूजक-स्थान० से कहा । लो आपके पूज्यजी आ गये हैं, अब शास्त्रार्थ क्यों नहीं करवाते हो ? । _____ स्थानकवासी-क्या हमारे पूज्यजी गयवरचंदजी महाराज जैसों के साथ शास्त्रार्थ करेंगे। मूर्ति-क्यों इसका क्या कारण है ? स्था०-गयवरचंद जी को तो हमारे पूज्यजी ने ही पढ़ाया है। मूर्तिः -तब तो और भी सुविधा है न ? स्था०-हमारे पूज्यजी ने २१ बार भगवती सूत्र बांचा है और ३२ सूत्र तो आपके कण्ठस्थ जैसे ही हैं, क्या घेवरमुनि हमारे पूज्यजी के सामने एक शब्द भी उच्चारण कर सकेगा ? मूर्ति०-आकर सब हाल मुनिश्री से कहा। मुनिश्री ने दूसरे ही दिन व्याख्यान में फ़रमाया कि यदि पज्य. जी महाराज अपने ३२ सूत्रों में से एक आंबिल का प्रत्याख्यान Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ जिनप्रतमा-जिनपारखी करवा दें तो फलोदी में एक हजार घर मूर्तिपूजकों के हैं, उन सब को मैं स्थानकवासी बना दूं। ____यह बात स्थानकवासी श्रावकों के पास पहुंची और उन्होंने पूज्यजी के पास जाकर कहा कि आज गयवरचंदजी ने व्याख्यान में कहा है कि यदि पूज्यजी ३२ सूत्रों में से एक आंबिल का पञ्चरकान करवा दें तो मैं १००० घर मूर्तिपूजकों को स्थानकवासी बना हूँ। पज्य०-गयवरचंदजी बोलने में बड़े ही होशियार हैं; तुम्हें इनकी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए; कहे सो सुन लिया करो। श्रावक०-क्या ३२ सूत्रों में आंबिल के पञ्चक्खान कराने का पाठ एवं विधान नहीं है ? पूज्य०-हाँ जैसा संवेगियों में पच्चक्खान के पाठ एयं विधान है वैसा अपने ३२ सूत्रों में नहीं है । श्रावक-तो फिर अपने अंदर आंबिल करते हैं उन्हें पच्चक्खान कैसे करवाया जाता है ? पज्य०-गुरु गम्य एवं परम्परा से । श्रावक-किन्तु गुरु गम्य और परम्परा में भी तो कोई पाठ या विधान तो होगा न ? ... पूज्य०-तुमको कह दिया कि पाठ है पर संवेगियों के जैसे नहीं है क्या इतने में आप समझ नहीं सकते हो। श्रावक-समझ गये कि आदि धर्म तो संवेगियों का ही है । एक दिन जिस रास्ते पूज्यजी महाराज थडिले भूमिका पधारे थे, मुनिश्री एक श्रावक को लेकर उसी रास्ते गये । आपकी इच्छा पूज्यजी महाराज से मिलने की थी, और ऐसा ही हुआ कि जब Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४६८ आप जाते थे तब पूज्यनी वापिस पधारते थे; अतः रास्ते में आप दोनों की भेंट हो गई। - मुनि०-आपके सुख साता है ? दर्शनों की अभिलाषा तो बहुत दिनों से थी पर इतिफाक हो नहीं हुआ, आज तो मैं मुख्यतः इसी कारण आया हूँ। पज्य०-बहुत अच्छा है, आपके भी तो समाधि है.न ? मुनि०- देव गुरु कृपा से आनन्द है। पूज्यजी०-गयवरचंदजी देखो, “थारे रुचि सो थे कीनी पण अबे निंदा विगता तो मति करो, कारण इण सुं कर्मबन्ध हुवे है"। मुनि०-निंदा करने का तो मेरे त्याग है; न तो मैं किसी की निंदा करता हूँ और न मैं निन्दा करना अच्छा ही समझता हूँ, आपको यह किसने आकर कह दिया है। पज्य०-लोग बातें करते हैं। मुनि०-आपने लोगों की बातों पर विश्वास कर लिया ? पूज्य०-थे पुस्तकां छपाई, लेख छपाया, जिणा में निंदा है । मुनि०-क्या सत्य बात कहने को भी आप निन्दा समझते हा; और लोग तो कहते हैं कि गयवरचंद भ्रष्ट हो गया; साधुपना पला नहीं इससे पूज्यजी ने निकाल दिया। क्या यह लोगों का कहना सत्य है ? यदि सत्य है तो निशीथसूत्र लेकर सामने बैठ जाइये । दोषी कौन ज्यादा है ? पज्य महाराज ! आप तीन पात्रे रखते हो, मैं दो ही रखता हूँ, आप तीन चहरें रखते हैं, मैं दो ही रखता हूँ, आपके छः विगई का त्याग नहीं, तब मैं केवल एक विगई ही काम में लेता हूँ इत्यादि । यदि मैं आपकी समुदाय में Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ फलौदी में पूज्यजी का मिलाप था उस समय मेरे त्याग वैराग्य और आज के त्याग वैराग्य में कोई फर्क या दोष हो तो आप ही फरमावें। पूज्यजी०-मैं कब कहता हूँ कि तुम चारित्रसम्बन्धी दोष के कारण हम से अलग हुए और भंडोपकरण ज्यादा कम रखना यह तो अपनी २ क्षयोपसम का ही कारण है । यदि तुम अच्छा चारित्र पालोगे तो तुम्हारा कल्याण जल्दी होगा, पर मेरा तो कहना है कि तुम किसी को निन्दा मत करो। ___ मुनि-पूज्य महाराज आप मेरी प्रकृति तो अच्छी तरह से जानते हो; आप अपने श्रावकों को उपदेश एवं हिदायत कर दो कि, तुम किसी की निंदा मत करो, बस स्वयमेव शान्ति हो जायगी। ___ पूज्य०-ठीक, मैं श्रावकों को कह दूंगा। समय हो गया है, अतः मैं जाता हूँ। आप सुख शान्ति और आनन्द में रहना । . पूज्य महाराज समय का बहाना ले अपना पीछा छुड़ा कर चले गये और विचार किया कि यहां ज्यादा रहने में सार ( तत्व ) नहीं है तथा, शायद अपने साधुओं से एक दो साधु फिर संवेगी न बन जावें इसलिए जल्दी से विहार करना ही अच्छा है। ___बस, दूसरे ही दिन किसी को खबर भी नहीं हुई और पूज्यजी विहार कर चीले पधार गये और वहाँ से लोहावट चले गये । लोहावट के जाटावास में १२५ घर मूर्तिपूजक और केवल एक घर ढूंढ़िया का है, किन्तु मूर्तिपूजक मालचन्दजी कोचर की श्रद्धा के विषय में पहिले गड़बड़ सुनी थी, पूज्यजी का इरादा उस को मुंह बंधाने का था। अतः आपने जाटावास में डेरा लगा दिया। तिसरे दिन मुनिश्री ने विहार किया तो चीले ३५० आदमी पहुँचाने के लिए गये और ४० आदमी लोहावट से लेने के Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४२० तो मालम मालचन्दजी काले और म लिए चीले श्राये । दूसरे दिन लोहावट बड़े ही धूमधाम से पधारे तो मालूम हुआ कि पूज्यजी महाराज इसी वास में विराजते हैं । जिस मालचन्दजी कोचर की आपको भाशा थी, वही मालचन्दजी पूज्यजी के पास गये और मूत्रि के विषय में प्रश्न किया जिसकी चर्चा करीब १॥ घंटे तक चली। आखिर पूज्यजी जान गये कि इनको समझाने में कहीं एक दो साधुओं की श्रद्धा न खो बैठे। __पूज्यजी दूसरे दिन बिसनाई वास में जाकर ९ दिन ठहर वहां से खेतार होकर तीवरी पधार गये, किन्तु वहां भी सुना कि नेमी सूरिजी संघ लेकर आ रहे हैं और उनके पास कई ऊंट तो शास्त्रों की पेटियों से ही भरे रहते हैं। शायद चर्चा का काम पड़ जाके, अतः ऐसे गस्ते को क्यों ग्रहण करें इसलिए आप तीवरी से बालेसर पधार गये, तब ही जाकर पूज्यजी के दिल में शान्ति आई। ६५ लोहावट म सूत्रों की वाचना जब मुनिश्री लोहावट पधारे तो वहाँ खरतरगच्छीय साधुसागरजी आदि और उनकी वृद्ध साध्वियां देवश्री, प्रतापश्री, प्रेमश्री इत्याद २१ साध्वियें ठहरी हुई थीं। मुनिश्री को ओसियाँ जाना था, परन्तु साधुओं ने मुनिश्री से कहा कि:____"मुनिजी, आपने फलौदी में तो जिनवाणी की खूब झड़ी लगा दो, थोड़ी बहुत बूंदें तो यहाँ भा बरसावें, हम तो कई दिनों से श्राशा किये बैठे थे। कम से कम एक श्री जीवाभिगम सूत्र तो हम लोगों को भी बाँच दीजिये।" ___ मुनिश्री-मुझे ओसियाँ जाना जरूरी है, और श्री जीवाभिगम सूत्र बड़ा भी है, अतः मैं लाचार हूँ। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२१ लोहावट में सश वाचना साधुजी-आपको जाना तो ओसियाँ ही है एक सूत्र बांच के भी पधार सकते हों। ____ छोगमलजा कोचर ने कहा कि इतना आग्रह है तो आगे जा कर ही आपको क्या करना है ? मुनिराज एवं साध्यिों के कारण हम लोगों को भी एक बड़ा सूत्र सुनने का सौभाग्य मिलेगा कि जिसके दर्शन तो क्या पर नाम तक भी हम लोगों ने नहीं सुना है। मुनि-आपको सूत्र बांचने की बड़ी रूची थी, दुसरा आप कष्ट सहन कर के भी परोपकार करने में तत्पर रहते थे अतः आपने कहा-अच्छा ठाक है । किंतु दोपहर को ठीक एक बजे सूत्र शुरू होगा तब ही १५ दिनों में समाप्त होवेगा । लोहावट में एक प्रकार से पर्युषणों का ठाठ लग गया; सूत्र सुनने को इतने लोग आ रहे थे कि बैठने को स्थान भी मुश्किल से हो मिलता था । तद्यपि मुनिश्री ने क्रमशः १५ दिनों में श्री जीवाभिगम जैसे एक बड़े सूत्र को बड़ी खूबी के साथ बाँच दिया; यही कारण है कि लोहावट एक खरतरों का पक्का गाँव होने पर भी मुनिश्री पर इतनी श्रद्धा भक्ति बढ़ गई कि वे खरतरों के साधु साध्वियों से भी आप पर अधिक श्रद्धा रखने लग गये, और यह भी उस समय तक ही नहीं किंतु आज पर्यन्त उसी उत्साह से सेवा भक्ति करते हैं । खरतरगच्छीय साधु साध्वियों ने मुनिश्री का इतना उपकार माना कि जिसका मैं यहाँ वर्णन नहीं कर सकता हूँ । वास्तव में ज्ञानदाता का उपकार मानना ही चाहिये। मुनिश्री लोहावट से ओसियां पधारे, रूपसुंदरजी आपके साथ में ही थे । नौ मास हो गये किंतु आपको अभी तक राई देवसि Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४२२ प्रतिक्रमण भी नहीं आया; मुनिश्री ने दो तीन बार कह दिया कि यदि तुम इस प्रकार प्रपंच और प्रमाद का बर्ताव रखोगे तो मेरे पास तुम्हारा निर्वाह नहीं होगा । फिर भी आपकी प्रकृति आण में नहीं रह सकती थी। __मुनिश्री ने ओसियां पधार कर बोर्डिंग का निरीक्षण किया, जो २ त्रुटियें थी उनके लिये मुनीम को सूचना दी। द्रव्य सहायता के लिये फलोदी से मदद करवाई थी और जहाँ मौक़ा आता था वहाँ उपदेश किया ही करते थे। ___आचार्य श्री स्नप्रभसूरीश्वरजी महाराज ने इसी ओसियाँ में पधार कर श्रोसवंश की स्थापना की। प्राचार्य कक्कसरि ने देवी के उपद्रव को शांत किया । इन महापुरुषों के नाम की स्मृति के लिए यहाँ कोई न कोई संस्था होनी चाहिए, अतः इस पर विचार कर आपश्री के कर कमलों से श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्प-माला फलोदी की एक सहायक ( Branch ) शाखा यहाँ भी स्थापित कर दी और स्तवन संग्रह द्वितीय भाग की १००० प्रतिएं छपवा दी गई। दूसरे श्राचार्य कक्कसरि की स्मृति के लिए एक कक्कक्रान्ति जैन लाईब्रेरी की स्थापना करवाई कारण जहां बोर्डिंग हो वहाँ छात्र, व अध्यापक या तीर्थ यात्रार्थ आये हुए सज्जनों के लिए एक लाइब्रेरी की मुख्य जरूरत थी। उपस्थित सजनों में से कई ने अपनी २ ओर से पुस्तक भेंट देने का तथा कई समाचारपत्र मंगवा देने का अभि वचन भी दिया । बहुत सी पुस्तकें मुनिश्री ने अपनी ओर से भेंट कर दी। ____ इधर आचार्य विजय नेमिसूरीश्वरजी पालड़ी से जैसलमेर जाने के लिए संघ लेकर क्रमशः ओसियां पधारने वाले थे और Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ नयी मूर्तियों के लिये सूरीजी का उप संघ के स्वागत के लिए फलोदी लोहावट के कई श्रावक पहिले ही आ पहुँचे थे। विद्यालय के अध्यापक, विद्यार्थी, आये हुए श्रावकगण, मुनीम और मुनिराज गाजे बाजे सहित संघ के सामने गये और बड़े ही ठाठ से स्वागत कर श्रीसंघ को बधाया और भी श्रीसंघ प्राचीन तीर्थ की यात्रा कर परमानन्द को प्राप्त हुआ। _मन्दिर की भमती की एक कोठरी में कई मूर्तिएं विराजमान थीं, सरिजी की दृष्टि पड़ते ही आपने मुनीम को बुला कर पूछा कि यह नई मूर्तियां कहां से आई, कारण सरिजी ने जोधपुर में कई लोंगे से सुना था कि खरतरगच्छ की साध्वी सुंदरश्री नई मूर्तियों बना कर बिना अञ्जनसिलाका की हुई मूर्तियों मूल्य बेचती हैं और वही मर्तियां अनजान लोग ले जा कर मन्दिरों में स्थापन कर देते हैं । जो चतुर्विध श्री संघ के लिए अपूजनीक होती हुई भी पूजी जाती हैं, इत्यादि । अतः सूरिजी ने मुनीम से पूछा मुनीम- साहिब यह मूर्तियां जोधपुर थी आवी छ । सूरिजी-कौन लाव्या छ ? मुनीम-सेठजी फूलचंदजी साबे लाव्या। सरिजो-अरे फूलचंदजी बधी गुजरात ने धूती खादी तो पण तेनी भूख नथी गई एटले जैनधर्म थी विरुद्ध काम कर छे । शुं श्रा मूर्तियां कोई ने आपी तो नथी न ? .. मुनीम - बे ठोकाणे बे त्रिगड़ा पाप्या छ । सूरिजी- शुं पैसा लिधा छे न ? मुनीम--हां साहिब एक एक तीगड़ा ना तीन तीन सौ रूपैया लीधा छै। सरिजी-तमे मोटा में मोटो जुल्म करो छो, शुं तमारे देवा Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान - द्वितीय खण्ड ४२४ लो श्रावियो छे के विना अञ्जनसिलाका नी मूर्त्तियाँ प्रतिष्ठा माटे श्रापो छो ? क्याँ छे फूलचन्द सेठ ? मुनीम -- फूलचंदजी साब तो गुजरी गया छे । सूरिजी — यहाँ नों काम कौन देखे छं । मुनीम - फुलचन्दजी ना बेटा नेमीचन्दजी | सूरिजी - यहाँ श्राव्या छे ? मुनीम -- नथी श्राव्या | सूरिजी - तमे कहो दीजो के हवे थी या बिना अञ्जन सिलाका नी मूर्तियाँ प्रतिष्ठा माटे कोइने नहीं पे | मुनीम - कहि देसुं साहिब । सूरिजी - सूरिजी ने मँदिरजी के दर्शन एवं चैत्यबन्धन किया बाद मकान पर पधार गये । दोनों मुनिराज तथा सब लोगों ने सरिजी को बन्दन किया, सूरिजी ने मुनिश्री के सामने देख कर कहा: सूरिजी -- घेवरमुनि तमारो नाम छे । मुनि० - जी हुजूर । सूरिजी - केटला दिवस थी यहाँ आव्यो छे । मुनि - दस दिवस थया के आपनी राय जोई ये छे । सूरिजी - ठीक है, तमारो पत्र सादड़ी मां मल्यो हतो अने तेनी अन्दर केटलाक प्रश्न पण हता पण कागल में केटलो उत्तर लिखाय दीवे तमांरे जे कंइ पूछवानों होय तो खुशी थीं पुछ लीजो | मुनि० - जी साहिब ! अज्ञा थाय के हमणा तो श्रमें जाइये छे । आप पण गौचरी करशो | सूरिजी - ठीक छे आवजो दोपहर मां । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. Deeeeee... . . Bseasese . ................... . . .. . . .. . . .. Beees.0000000000 .. 50.00000000000 ........... RE ०००००००.०० DERSHA आचार्य श्री विजयनेमिसूरिजी-अोसियाँ आदर्श-ज्ञान ..." Page #511 --------------------------------------------------------------------------  Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ मुनिश्री के प्रश्नों का उत्तर । दोनों ओर गोचरी पानी होने के बाद करीब एक बजे मुनिश्री प्रश्नव्याकरण सूत्र जो टव्वावाली प्रति आपके पास में थी, ले कर सूरिजी महाराज की सेवा में पहुँचे, साथ में फलोदी, लोहावट, तीवरी, जोधपुर के श्रावक भी थे; उधर संघ के भी बहुत से लोग उपस्थित थे। अहमदाबाद से भी कई लोग सूरिजी महाराज के दर्शन एवं जैसलमेर की यात्राथ आये हुए थे, अर्थात अधिक लोगों की उपस्थिति और सरिजी बातों में लगे हुए थे, इस हालत में मुनिश्री ने प्रश्न करना उचित नहीं समझा, फिर भी सरिजी ने मुनिश्री से बड़े ही प्रेम के साथ कहा. सूरिजी-मुनिजी तमारे कांई पूछना हो तो पूछी लो ? - मुनि-साहिब ! अभी श्रावकलोग आये हुए हैं फिर कभी समय मिलने पर पूछ लूंगा । . सूरिजी-ना अमे शुं छै ? तमे लाया छो न सूत्र ? मुनि-अपने पास से सूत्र सूरिजी के हाथ में दिया। सूरजी-उस सूत्र को लेकर पहले तो आपने देखा बाद उद्यविजयजी को दिया और कहा कि उत्तर आपि दो। मुनिश्री-उदयविजयजी ने उस सूत्र को ले कर मूलपाठ देखा । जिसका पाठ निम्न लिखित था। "किचि पुप्फ फन तया पवाल कंद मल तरण कठ्ठ सकराई, अप्पं च बहुं च, अणुं च थुलंगं च ण कप्पती उग्गहे अदिणं गएहउ जे हणि हणि उग्गहं अणुणाविय गेण्हियाब्वं" "प्रश्नव्याकरण सूत्र तीसरा संवरन्द्रार" Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४२६ इस पाठ को देख उदय० विचारने लगे, इतने में सरिजी ने दो तीन बार कह दिया, एटली बार शु जोओ छो उत्तर आपी दो" शायद सूरिजी ने गुजराती श्रावक ही समझ लिया होगा पर यह प्रश्न तो एक विकट समस्या का था । आखिर मुनि उदयविजयजी ने कहा कि श्राशुंबात छे समझ में नयी भावती, आ सूत्रनी टीका तमारे पास छे ? मुनिजी ने कहा, टीका तो मंदिर में है। उदय-अमारे पास प्रश्नव्याकरण टीका वालो छ पण पेटी में पैक करेलुछे, समय मलसे तो खोलीश । त्यारे जाइश। ___ मुनि-ठीक साहिब। समय चार बजे का आ गया था, मुनिजी सूरिजी की आज्ञा ले कर अपने स्थान पर आये किंतु रूपसुंदरजी वहां सरिजी के पास ही ठहर गये, मुनिजी के जाने के बाद सूरिजी और रूपसुंदरजी की बातचीत हुई और रूपसुन्दरजी के कान में सूरिजी ने फूंक मार कर कुछ समझाया होगा कि उनको भावना सूरिजी के पास रहने की हो गई। सूरिजी ने प्रसंगोपात बातें करते हुए फलोदी के श्रावकों को कहा कि कँवलागच्छ तो लगभग १००-१५० वर्षों जिटलो पुराणा छ । ___ जोगराजजी वैद्य इस बात को सुन कर मुनिश्री के पस आये और सूरिजी के वचन मुनिश्री को सुनाया । मुनिश्री ने सोचा कि रात्रि में तो मैं वहां जा नहीं सकूँगा, प्रातः काल सूरिजी शायद विहार कर जायंगे, फिर आप के दिल में कँवलागच्छ अर्वाचीन है, यह शल्य ज्यों का त्यों रह जायगा। मुनीश्री ने जोगराजजी को कहा कि श्राप सूरिजी से कहो Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ कॅवलागच्छ की प्राचीनता कि आपने कॅवलागच्छ का अर्वाचीन बतलाया है , किंतु मुनिश्री ने कहलाया है कि कँवलागच्छ चौरासी गच्छों में सब से प्राचीन और जेष्ठ गच्छ है इत्यादि । जोगराजजी ने जा कर मुनिको का संदेश सूरिजी को ज्या का त्यों सुना दिया। ___ सुरिजो एकदम चौंक उठे और संघपति को बुलाकर पूछा 'केम काल यहाँ रहवानुं छे के चालवानुं । सँघपति ने कहा, साहिब चालवाD निश्चय करी लीधु छे । इस पर सूरिजीने जोगराजी को कहा, घेवरमुनिजी को कह दो कि तुम अपनी उपाधि ले कर यहाँ आ जाओ, प्रतिक्रमण यहाँ कर के गत्रि में यहो रहो । योगराजजी ने मुनिश्री के पास आकर कह दिया कि सूरिजी ने आपको वहाँ ही बुलाया और रात्रि भर वहीं ठहरने को कहा है। . ____ मुनि-बहुत अच्छी बात है, मुनिजी अपने वस्त्रादि ले कम, सरिजी की सेवा में चले गये, जाते ही सरिजी ने तो गच्छसंबंधी बातें छेड़ दी, अतः प्रतिक्रमण रात्रि को १० बजे किया । गच्छसम्बन्धी बातों में मुनिश्री ने उपकेशगच्छ एवं आचार्यरत्नप्रभसूरि और आपके गुरु स्वयंप्रभसूरि का इतिहास कह सुनाया, उसी समय सरिजी ने अपनी भूल कबूल की और कहा कि मेरा खयाल तो था कि १००-१५० वर्ष पूर्व तपागच्छ से एक कॅवलकलासा नामक शाखा निकली है जिसमें वर्तमान धनारी के श्रीपूज्य हैं अतएव मैंने उस कँवलगच्छ को ही अर्वाचीन कहा था । ___ प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के लिये मैं जानता तो था ही, किन्तु जितना तुमने सुनाया उतना मैं नहीं जानता था। तो क्या अब तुम इस गच्छ का उद्धार करोगे ? मुनिः-मेरे जैसों से उद्धार तो क्या हो सकता है, किन्तु Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४२८ गुरुवर ने गच्छों के झगड़े से बचाने के लिये ऐसा फरमाया है । सूरिजी-तुम्हारा शिष्य रूपसुंदर हमारे साथ जैसलमेर चलने को कहता है, तुम्हारी क्या मरजी है ? मुनि०-आप समझ गये कि यह हथा मारने की बात है, फिर भी मुनिश्री ने कहा कि मैं और रूपसुंदरजी तो अभी जैसलमेर की यात्रा कर आये हैं। सरिजी-उनकी इच्छा हमारे साथ पुनः यात्रा करने की है। मुनि०-केवल यात्रा करने की है या कोई दूसरी बात भी है ? सूरिजी-हाँ वह कहता था कि मैं आपके पास रहने की इच्छा करता हूँ। मुनि०-आपने उसे क्या कहा ? सरिजी-मैंने कहा कि तुम्हारे गुरु से मैं पूछगा, यदि वे कहेंगे तो तुमको साथ ले चलंगा; अब तुम्हारी क्या इच्छा है ? ___ मुनि०-आप जैसे पज्य महात्मा एवं भाग्यशालियों के दर्शन से कुछ लाभ की आशा थी, किंतु आपने तो मेरी ही जेब ( पामेंट ) काटने की तजवीज की है। साहिबजी ! मारवाड़ में फैले हुए अज्ञान को हटाने के लिये मैं तो आपसे कुछ सहायता लेना चाहता था; किंतु आपने तो मेरे उत्साह को मिट्टी में हो मिला देने का साहस कर डाला। सरिजी- ज्ञानसुंदरजी मैं आपके उत्साह को नहीं तोड़ता हूँ, एक रूपसुन्दरजी ही क्यों किंतु मेरा खयाल तो है कि तुम भी मेरे पास आ जाओ तो मैं तुमको पन्यास एवं आचार्य पदवी दे दूं ताकि तुम मारवाड़ का ही क्या अपितु जैन समाज का भला कर सकोगे। इतना ही क्यों, किंतु आत्मारामजी की भांति सर्वत्र Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ न पर सरिजी का जादु प्रख्यात हो जाओगे । कहो अब तुम्हारी क्या इच्छा है ? सुनि०-आपकी इस प्रकार शुभ दृष्टि है जिसके लिये मैं आपका उपकार मानता हूँ, और आपके पास रहने के लिये भी मैं तैयार हूँ किन्तु मेरा नाम,गुरु और गच्छ तो जो है वह ही रहेगा। सूरजी-नहीं दीक्षा तो आपको पुन: लेनी होगी, कारण रविजयजी की दी हुई बड़ी दीक्षा हम प्रमाणिक नहीं समझते हैं । __ मुनि०--इसका क्या कारण है ? रत्नविजयजी महाराज तो बड़े ही योगीराज हैं और वे हैं भी आपके सिंघाड़ा के। ___ सूरिजी-रत्नविजय तो क्या पर मैं तो उनके गुरु धर्मविजयजी की दीक्षा को भी प्रमाण नहीं करता हूँ आदि, हमारे पास आओगे तो तुमको हमारे पास दीक्षा लेनी होगी। मुनि०-क्या आपकी दीक्षा में और रत्नविजयजी महाराज की दीक्षा में कुछ भेद है ? ' सूरिजी-भेद तो कुछ नहीं, किन्तु हम हमारे सिवाय दूसरों को दीक्षा को प्रमाणिक नहीं मानते हैं। ___ मुनि०-यदि कोई आपकी दीक्षा को भी प्रमाणिक नहीं माने तो आपकी दीक्षा भी अप्रमाणिक है न ? सूरिजो-नहीं-नहीं; हमारी दोक्षा प्रमाणिक है, स्त्रैर, इतनी बातों से क्या मतलब है ? तुम हमारे पास आना चाहते हो या नहीं ? एक बात कह दो। मुनि-तब तो इस भारत में आपके सिवाय कोई साधु भी न हागा ? पर इस बात की साबुति के लिये किसी ज्ञानियों के हाथ का फरमान भी बतलाना पड़ेगा। __ सरिजी- हम कहते हैं इसको तुम सत्य फरमान ही समझ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय स्खण्ड ४३० लेना । यदि तुम हमारे पास दीक्षा लोगे तो आचार्य बन दुनिया में बड़ी भारी नामवरी पैदा कर सर्वत्र प्रसिद्ध हो जाओगे और तुम्हारे बहुत शिष्य भी करवा देंगे। ___ मुनिश्री ने सोचा कि अहो ! आश्चर्य है कि ऐसे बड़े आचार्य को भी इतना अहंभाव और शिष्य बनाने का इतना मोह है कि मेरे शिष्य को तो आपने ले जाने का निश्चय कर ही लिया, पर श्राप तो मेरे पर भी पदवी का जादू डालने की बातें कर रहे हैं; किंतु यहाँ कोई मेवाड़ी रूपसुन्दर नहीं है कि बिचारे भद्रिक साधु पर जादू डाल दिया-खैर अभी मैं ऐसे बड़े आचार्य को नाराज क्यों करूँ ? मुनिश्री ने कहा, ठीक, आप जैसलमेर पधार कर वापिस फलोदी पधारें तब तक मैं ओसियाँ तथा तीवरी में ठहरूँगा; आपकी सूचना प्राने पर मैं ठीक सममूंगा तो फलोदी श्रा जाऊँगा, वहाँ आने पर फिर विचार करूँगा। सरि०-अभी हमारे साथ क्यों नहीं चलते हो ? ___ मुनिः--मैं अभी जैसलमेर जा कर आया हूँ, और फलोदी तो मेरा चतुर्मास हो था, इस कारण अभी तो मैं वहाँ चलना ठीक नहीं समझता हूँ। आप जैसलमेर की यात्रा कर वापिस फलोदी पधारें तब मुझे सूचित कर दिलावें। ___ सूरिजी को थोड़ा बहुत विश्वास हो गया कि यदि फलोदी आवेगा तो इनको समझा-बुझा कर अपने शिष्य बना कर शामिल कर लेंगे, इसलिये सूरिजी ने कहा, ठीक, रूपसुंदर हमारे साथ चलता है, किंतु तुम खात्री रखना कि जब तक हम वापिस फलोदी आकर तुमसे न मिलें वहाँ तक हम रूपसुंदर को दीक्षा नहीं देंगे। मुनि:--हाँ, मेरी आज्ञा बिना तो रूपसुंदर को आप अपने Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ रूपसुंदरजी के विषय में पास ही नहीं रख सकते हो तो दीक्षा तो दे ही कैसे सकोगे ? सूरिः--तुम रूपसुंदर के गुरु हो और मुझे भी तुमको गुरु ही रखना है, अतः तुम्हारे से मिले बिना तो मैं रूपसुंदर को किसी हालत में भी दीक्षा नहीं दूंगा। मुनिः--यदि ऐसा ही है तो मैं आपके विश्वास पर ही कहता हूँ कि रूपसुंदरजी को भले आप अपने साथ ले ज ईये, पर वापिस ला कर मुझे सौंप देना आवश्यक है। ___ सूरि०~-ठीक है, मैं रूपसुंदर को ला कर आपके सुपुर्द कर दूंगा। कहो ज्ञानसुन्दरजी मैंने सुना है कि इस समय फलोदी के संघ में झगड़ा है, इसका हाल मैं जानना चाहता हूँ। मुनि०-सब हाल कह सुनाया और इस मामले को निपटाने की तरकीब भी बतला दी। . सूरि०-तुम इतने दिन फलोदी में रहे तो इस झगड़े को क्यों नहीं निपटा दिया ? ____ मुनि०-मैंने प्रयत्न तो बहुत किया, किन्तु रूपसुंदरजी के कारण खरतरगच्छ वाले हमारे पर विश्वास कम रखते हैं। दूसरे आप नये ही नये पधारते हो, और श्रीसंघ का आडम्बर भी साथ में है, इससे प्रभाव भी अच्छा पड़ेगा । आप पहिले दोनों तरफ के दस्तख्त करवा लें तो मामला निपट जायगा, कारण दोनों सँघ (पार्टी) वाले समझौता करना चाहते हैं, क्योंकि इन झगड़ों से दोनों को तकलीफ़ है । अतः यह यश आपको ही मिलेगा। सूरिजी-तुम जैसलमेर जा कर आये हो, कहो वहाँ के मन्दिरों के एवं श्री संघ का क्या हाल है ? मुनि०--जैसलमेर में एक ग्राम का मंदिर तपागच्छ वालों Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ४३२ के हाथ में है, दूसरे किले के आठ मन्दिर, अमृतसर के तीन और लोद्रवा का एक मन्दिर खरतरगच्छ वालों के हाथ में है, और वहाँ उनकी नादिरशाही चलती है, आय-व्यय का कोई हिसाब नहीं है। राजमलजी वहाँ के कार्यकर्ता हैं, वह बोलने में बड़ा ही चतुर एवं सफाई वाला है, सुना गया था कि राजमल देव-स्थान की कितनी ही रक्कम हजम कर गया है। अतः वहाँ श्रीसंघ चढ़ावा करे तो आप इस बात का लक्ष रखें; कि उस चढ़ावा की रकम को या तो तपागच्छ के मन्दिर के उद्धार में लगा दिया जाय या इसकी कोई अलग ही व्यवस्था हो, किन्तु राजमलजी को देना तो मानों जान बूझ कर देवद्रव्य का खून कर एक गृहस्थ को डुबोना है । बाद में ओसियों को विषय में बातें हुई; फूलचन्दजी का हाल भी श्राचार्यश्री जान गये । इन बातों में क़रीब ४ बज गई, बाद में प्रतिक्रमण कर सूरिजी विहार की तैयारी में लग गये और मुनिश्री अपने स्थान पर श्री कर रूपसुँदरजी को किपूछा - मुनिश्री - क्यों रूपसुन्दरजी तुम्हारी इच्छा सूरिजी के साथ जैसलमेर की यात्रा करने को जाने की है ? रूप०–यदि आप आज्ञा फरमावें तो मैं जा सकता हूँ । मुनि० - अभी चार मास ही हुए अपने यात्रा तो कर श्राये हैं ? रूप० – पर मेरा विचार है कि मैं सूरिजी के साथ और भी जैसलमेर की यात्रा करूँ । मुनि० - केवल यात्रा हो करना है या सूरिजी के पास रहने का विचार भी कर लिया है ? रूप०—हाँ यदि आप आज्ञा दें तो मैं सूरिजी के पास भी रहना चाहता हूँ । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपसुन्दर के लिये माया जाल नि०- क्या सूरिजी और तुम्हारे आपस में सलाह हो कर यह बात निश्चय हो गई है न ? ४३३ रूप० - सूरिजी ने कहा कि यदि तुम हमारे साथ चलो तो मैं तुमारे कई शिष्य बना कर पदवी दे दूंगा । मुनि - फिर तुमने क्या निश्चय किया है। रूप० - आपकी आज्ञा बिना तो मैं एक क़दम भी नहीं उठा सकता हूँ । मुनि० - रूपसुन्दरजी तुम अभी भद्रिक हो, इन संवेगियों की अभी तुम्हें मालूम नहीं है सूरिजी ने तो रात्रि में मुझे भी बहुत कहा और शिष्य एवं पदवी का लोभ भी दिया पर मैं उनकी फाकी में आने वाला नहीं हूँ जैसे कि तुम आ गये हो ? रूप - फिर आपने सूरिजी से क्या कहा ? क्या मेरे लिये भी बातचीत हुई थी ? मुनि:- हाँ तुमारे लिए भी बात हुई है जिसका तात्पर्य यह है कि सूरिजी ने कहा कि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं रूपसुन्दर को साथ ले जा सकता हूँ, पर जैसलमेर से लौट कर वापिस फलोदी आ कर तुमसे न मिलू वहां तक मैं रूपसुन्दर को किसी हालत में दीक्षा नहीं दूंगा, अतः वे चाहते हैं कि जैसलमेर से वापिस आ कर मुझे और तुमको अर्थात् दोनों को अपने शिष्य बनाना चाहते हैं । रूपः तब क्या वे उपकेशगच्छ का नाम भी रखना नहीं चाहते है जिसका सब गच्छों पर उपकार है । मुनि: - इस बात को तुम स्वयं सोच लो । रूप० - खैर यदि आप आज्ञा दीरावें तो मैं सूरिजी के साथ जैसलमेर की यात्रा कर आऊँ बाद देखा जायेगा ? Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४३४ मुनि:-यदि तुमारी इच्छा हो तो खुशी से जाओ, पर मेरे वचन को तुम ध्यान में रखना कि यह संवेगी साधु हैं तुमको लालच दे कर न अपना लें और तुम इनके धोखा में न आ जाओ। ____रूप.-नहीं महाराज आप खात्री रखें। जब तक मैं जैसलमेर से आ कर आपसे न मिल लूं वहां तक मैं आपका ही शिष्य हूँ और जो कुछ करना होगा आपकी आज्ञा बिना कुछ भी नहीं करूंगा। ____ मुनि:-रूपसुन्दरजी मैं तुमको केवल शिष्यमोह से ही नहीं कहता हूँ पर खास तुमारे हित के लिए कहता हूँ कि तुम जो आत्मकल्याण हमारे पास में रह कर करोगे वह दूसरी जगह रह कर नहीं कर सकोगे, कारण इन संवेगियों का चारित्र एवं आचार व्यवहार इतना शिथिल और दोषित है कि पास में रहने वाला भी पासत्था बन जाता है । और मैं फिर तुमसे यह भी कह देता हूँ कि तुमारी प्रकृति बहुत जल्द है। मैंने तो हर प्रकार से तुम्हारा निर्वाह कर लिया है पर दूसरों के पास रह कर इस प्रकार व्यवहार न रखना वरन लोग कह देंगे कि ढूँढ़ियों में सब साधु ऐसे ही होते होंगे अतः आप शान्तचित से रहना । ___ रूपः-गुरु महाराज श्रापका कहना मैं कभी नहीं भूलूँगा। आप एकले रहेंगे इस बात का तो मुझे रंज जरूर है पर आप एक मास तक श्रोसियाँ ही विराजे । मैं एक मास के करीब में आपकी सेवा में आ जाऊंगा। गुरु महाराज आपका मेरे पर बड़ा भारी उपकार है जिसको मैं कभी भूल ही नहीं सकता हूँ। और आज मैं जाता हूँ वह भी आपकी आज्ञा से ही जाता हूँ। ___मुनि:-तब तैयारी करो, तुम्हें जो कुछ चाहिये वह ले लो और विहार के लिए कमर बाँध लो,सरजी भी तैयारी कर रहे हैं। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ रूप० सूरिजो के आनन्म का पार रूप०-आखों से अश्रुधारा तो बह हो रही थी, फिर भी रूपसुन्दरजी संघ के आडम्बर और सूरिजी के डाले हुए जादु के कारण कमर बांध कर गुरुजी को वन्दन नमस्कार कर उपकार मानते हुए सूरिजी महाराज के पास चले गये । बस सूरिजी के साधुओं में बड़ा ही आनन्द छा गया कि मारवाड़ में आते हो आज एक सोने की चिड़िया हाथ लग गई है। जैसे किसी अपुत्रिय के पुत्र होने से खुशी मनाई जाती हो बस उसी खुशी से सूरजी महारज संघ के साथ लोहावट होते हुए फलौदी पधारे । फलौदी के श्रीसंघ ने सूरिजी और श्रीसंघ का बड़ा ही सत्कार किया किंतु रूपसुँदरजी को साथ देख कर माणकलालजी कोचर ने सूरिजी से कहा कि आप इस बला ( आफत ) को साथ कों लाये हो ? हमने यहां ९ मास तक आपकी प्रकृति देख ली है। इस पर सूरिजी ने कहा अपना गया भी क्या है, यदि पढ़ेगा नहीं तो पानी के घड़ तो लावेगा, कपड़ों को भी तो धो डालेगा, इस उपरान्त भी योग्य नहीं जचा तो कान पकड़ कर निकालते क्या देर लगती है ? सूरिजी महाराज ने फलोदी का झगड़ा निपटा कर जैसलमेर की ओर विहार किया, जब श्राप लाटी पहुँचे तो साधुओं की बातों में आ कर अपने वचनों को भूल गये और रूपसुंदरजी को छोटी दीक्षा दे दो। बाद जैसलमेर जाकर यात्रा की । वहाँ जो सात आठ हजार का चढ़ावा हुआ था वह जैसलमेर वालों को न दे कर अहमदाबाद आनन्दजी कल्याणजी की पेड़ी में जमा करवा दिया, वहां से लौट कर वापिस फलौदी पधार गये । इधर मुनिश्री ने आचार्यश्री के वचनों पर विश्वास कर Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान- द्वितीय खण्ड ४३६ कुछ दिन ओसियां ठहर कर बाद वहां से मथाणिये पधार गये । वहां जोधपुर के भंडारी मनमोहनचंदजी स्टेशन मास्टर थे । उन्होंने बहुत आग्रह कर अपने कमरे (क्वार्टर) में एक सप्ताह तक रखा । यद्यपि मथाये में सब स्थानकवासियों के ही घर थे तथापि उनको व्याख्यान का इतना प्रेम लगा कि वे स्टेशन पर आ कर व्याख्यान सुना करते थे, इतना ही क्यों पर वहाँ के जागीरदार वगैरह जैनेत्तर भी व्याख्यान में आते थे । कई लोगों ने मांस मदिरा के त्याग भी करा दिये, बाद आप तीवरी पधारे, वहां भी आपके तीन व्याख्यान पब्लिक हुए बाद वहां से पुनः मथाणीये पधार गये । जब मुनिश्री ने फलोदी के समाचार सुने कि आचार्य महाराज ने रूपसुन्दरजी को लाटी में ही दीक्षा देदी है, इस पर आपने यही विचार किया कि धन्य है गुरुदेव को कि उन्होंने मुझे ऐसे संवेगियों से बचा दिया । हा हा एक शिष्य के लिए सूरिजीने अपने वचन को असत्य कर, सत्यव्रत का निलाम कर डाला; धन्य है (!) ऐसे संवेगियों को । सूरिजी ने सुना कि ज्ञानसुंदरजी मथाणिया ठहरे हुए हैं । आपने फलोदी से दो श्रावकों को मुनिश्री के पास भेज कर कहलाया कि मैंने तुमको वचन दिया था कि फलोदी आ कर तुम्हारे से मिले बिना रूपसुन्दर को दीक्षा न दूंगा; पर कई साधुओं और रूप सुन्दर का आग्रह के कारण उसको दीक्षा तो मैंने लाटी में ही दे दी है, इसमें हमारी ग़लती तो अवश्य हुई है, किंतु भवितव्यता ऐसी ही थी, अब भी तुम आओ तो मैं तुमको दीक्षा में बड़ा रख सकता | अतः आप फलोदी अवश्य पधार जाना । जब फलौदी के श्रावकों द्वारा यह समाचार मिला तो उत्तर में मुनिश्री ने सूरिजी से कहलाया कि शास्त्रकारों ने शेष दोषों के Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ रूपसुंदर की प्र० का परिचय लिये प्रायश्चित बतला कर उसको पुनः पदवी देने को कहा है, किंतु वचनपतित के लिये जावत्जीव तक पदवी के लिये अयोग्य बतलाया है । मुझे दुःख के साथ अफ़सोस होता है कि आप जैसे आचार्य ने एक तुच्छ ममत्व के कारण अपने सत्यव्रत का खून कर इतने वर्षों की दीक्षा पर्याय का निलाम कर डाला । अतः ऐसे वचन पतितों के पास आने में मुझे लाभ भी क्या है ? दुसरे मुझे जो रास्ता मिला है उससे आपके पास किसी प्रकार की अधिकता भी नहीं है; मैंने जो आपसे ओसियां में अर्ज की थी वह यह थी कि मेरे शिष्य को मेरी आज्ञा के बिना दीक्षा न देवें, और वह बात आपने मंजूर भी कर ली थी; अतः आपने रूपसुन्दर को दीक्षा देकर तीसरे व्रत को भी भंग किया है, इत्यादि । श्रावकों ने मुनिश्री के कहने को नोट कर लिया ओर फलौदी जा कर सूरिजी को ज्यों के त्यों समाचार सुना दिए । इधर रूपसुंदरजी ने बड़ी दीक्षा के समय अपनी प्रकृति का परिचय दे ही दिया तब सूरिजी की आंखें खुलीं तथा श्रावकों ने भी कहा महाराज आपने इस बला को साथ में क्यों लिया है इस को तो ज्ञानसुंदरजी ने ही मुशकिल से निभाया था । सूरिजी ० - उदयविजय ! मेरी बड़ी भारी भूल हुई है कि अमूल्य रत्न को छोड कर कांच के टुकड़े को ले लिया है, इत्यादि पश्चाताप कर मुनिश्री के वचनों को बार २ याद करते ही रहे । आप मथा गया से विहार कर तीवरी हो कर मंडोर पधारे, जब यह खबर जोधपुर के श्रावकों को हुई तो वे मंडोर प्राये और आग्रह पूर्वक बिनती कर बड़े ही सम्मान व स्वागत के साथ जोधपुर ले गये । दूसरे ही दिन आप का व्याख्यान हुआ । फिर तो २८ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ४३८ कहना ही क्या था ? जोधपुर की जनता एक दम उलट पड़ी कि धर्मशाला खचाखच भरी जाने लगी । इधर अग्रसर लोगों ने चतुर्मास के लिए इतने आग्रह से विनती को कि मुनिश्री को श्रावकों के कथन को मान देकर उनकी विनती को स्वीकार करनी पड़ी । ६६ संवत् १६७४ का चातुर्मास जोधपुर जब मुनिश्री का चातुर्मास जोधपुर होना निश्चय हो गया तो जोधपुर के श्रीसंघ में हर्ष का कोड़े पार तक भी नहीं रहा, कारण एक तो आपका व्याख्यान ही प्रभावोत्पादक था दसरी आपकी भाषा मारवाड़ी थी कि मनुष्यों तो क्या पर औरतें और बाल बच्चे तक भी सुखपूर्वक समझ सकते थे । तीसरी खास बात यह थी कि आपके पास न पण्डित न लेखक न श्रादमी अर्थात् खर्चा का नाम तक भी नहीं था फिर क्यों न खुशी मनावें । गत वर्ष फलौदी में सूत्रों की वाचना होने से कई साध्यियों आपका चातुर्मास कहां होगा वे राह देख रही थी । जब फलौदी लोहावट में इस बात की खबर पहुँची कि मुनिश्री का चातुर्मास जोधपुर में होना निश्चित हो गया है तब वे बिना ही विनती जोधपुर आ कर चातुर्मास करने का निर्णय कर लिया। उनको उम्मेद थी कि यहां पर भी मुनिश्री के मुखार्विन्द से सूत्र सुनने का सुश्रवसर मिलेगा और बात भी यही बनी । आप पधारते ही महामङ्गलिक श्रीसुख विपाक सूत्र व्याख्यान में वंचना प्रारम्भ कर दिया । साथ में एक उपदेशिक ऐसी कथा छेड़ दी जिस में भी छंद कवित्त श्लोक और इस प्रकार के दृष्टान्त दिया करते थे कि धर्मशाला इतनी विशाल होने पर भी पीछे से आने वालों को बैठने के लिए स्थान Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३९ फलोदी के समाचार बडी मुशकिल से मिलता था। केवल यही बात नहीं थी कि आपश्री के व्याख्यान में मात्र मूर्तिपूजक जैन ही आते थे पर यहां तो जैन जैनेतर स्थानकवासी व्यापारी मुत्सद्दी वगैरहः सब लोग आते थे । कई दर्जन तो वकील आपके व्याख्यान में हाजिर रहते थे । फलौदी के वर्तमान जोधपुर में आया हो करते थे जिस में यह भी समाचार मिला कि सूरिजी के नाक में दम आ गया है और वे कहते हैं कि मैंने मेरा सत्य व्रत भी खोया, ज्ञानसुंदरजी जैसे एक विद्वान साधु को नाराज भी किया, अतः रूपविजय को दीक्षा देने में बड़ी भारी ग़लती की है। इधर रूपविजय का एक पत्र मुनिश्री के पास आया जिसमें उन्होंने लिखा कि गुरू महाराज मैंने आपकी शिक्षा का अनादर कर बहुत ही बुरा किया है, मैं यह नहीं समझता था कि यह पीत वस्त्रधारी संवेगी साधु . ऐसे धूर्त होते हैं कि पहले तो मुझे मीठे मीठे वचनों से खूब फुसलाया और अब मेरे साथ इस प्रकार का व्यवहार करते हैं कि तो मैंने ढूंढ़ियों में इस बात का अनुभव किया था और न आप के पास रह कर देखा था । मैं बड़ा ही दुःखी हूँ । इस समय चातु मस है वरन मैं आपकी सेवा में जरूर श्री जाता यहाँ तो सब के सब गुजराती हैं मैं मेरा दुःख कहूँ भी किसको इत्यादि समाचार पढ़ मुनिश्री ने कहलाया कि मैंने तो तुमको पहले ही कह दिया था पर तुम आडम्बर देख वचन दे कर भी मुझे भूल गये इसी का ही फल है । पर खैर अब तुम मेरे काम के तो नहीं रहे हो । मेरा तो यही कहना है कि साधु हुए हो तो अन्य परिसहों के साथ इसको भी सहन कर लो और जिसको तुमने अपने गुरु बनाये हो उनकी आज्ञा का आराधन करो, अपनी प्रकृति Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४४० को बदलो और गुरु आदि का विनय भक्ति करो। विनय एक ऐसा मोहनी मंत्र है कि जिससे गुरु तो क्या पर सब जगत वश में हो जाता है, इत्यादि समाचार कहलाये जिससे उन को थोड़ी बहुत शांति अवश्य मिली थी। ___ मुनिश्री के नेत्रों में हरदम तकलीफ रहा करती थी; डाक्टर निरंजननाथजी को देखने से मालूम हुआ कि ऑपरेशन करना पड़ेगा, लेकिन उन दिनों में डाक्टर साहब का एक पुत्र शांत हो गया था, अतः आप शफाखने में नहीं जाते थे और प्रायः उदास रहते थे। एक दिन मुनिश्री डाक्टर साहब के यहां गये थे और आपको संसार असारता के विषय में ऐसा वैराग्यमय उपदेश दिया कि डाक्टर साहब को कुछ शांति मिली । बाद आपने कहा कि जब मैं शफ़ाखाने में जाऊंगा तब आपको सूचना कर दूंगा । अतः आप पधारजाना मैं आके ऑपरेशन कर दूंगा। ___जोधपुर के श्रीसंघ एवं साध्वियों के आग्रह से व्याख्यान में श्रीभगवतीजी सूत्र बांधने का निश्चय हुआ और आषाढ़ कृष्ण ३ को सुबह सब तरह की तैयारी हो रही थी, केवल आधा घंटे की देरी थी। इतने में तो डाक्टर साहब का श्रादमा आया मुनिश्री रत्नराजजी बंधा मेहता को साथ लेकर शफ़ास्त्राने गये । न्यों हो वहां पहुंचे कि डाक्टर साहब ने आप के आंख का ऑपरेशन कर डाला । विशेषता तो यह थी की डाक्टर साहब ने आंख पर पट्टी तक भी नहीं बांधी और जबानी व्याख्यान देने को भी आज्ञा दे दी। मुनिश्रीजी ने रत्नराजजी को कह दिया कि आप अभी ऑपरेशन की बात किसी से भी नहीं कहना, कारण लोग फिजूल में ही हाँ हुँ मचा देवेंगे । बस आपने जा कर व्याख्यान के Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ मुनिश्री को सावधानी पाटे पर बैठ मुख जबानी व्याख्यान दे दिया । बाद में मालूम हुआ कि आज मुनिश्री ने आँखों का ऑपरेशन करवाया है। जोधपुर में इस समय तपागच्छ की साध्वी धनश्रीजी, कल्याण श्रीजी का भी चातुर्मासा था वे भी साध्वियें ढूंढ़ियों से निकल कर संवेगी हुई थी । वे भी ज्ञानरुची एवं पूर्ण भक्ति के साथ व्याख्यान में आया करती थीं । 1 साध्वी ज्ञानश्री वल्लभश्री फलौदी की भांति यहां भी दोपहर को सत्रों की वाचना लेना चाहती थीं पर फलोदी के लोग दीसावरी और उनको सूत्र सुनने का रुचि थी एवँ दोपहर को भी सैंकड़ों लोग एकत्र हो जाते थे । अतः वहां दोपहर का सूत्र बच सकता था किंतु यहां की जनता को दोपहर को समय नहीं मिलता था अतः मुनिश्री ने साफ इनकार कर दिया कि व्याख्यान के अतिरिक्त मुझे समय नहीं मिलता, जिससे कि मैं आपको सूत्रों की वाचना दे सकूं । इस पर साध्वियों ने कहा कि हम लोगों ने ज्ञानभ्यास के लिए तो जोधपुर में चातुर्मास ही किया है । यदि हम अकेली आती हैं इसलिए ही आप को इन्कार हो तो एक दो बाईयों को साथ में ले कर आया करेंगे । फिर भी मुनिश्री ने कह दिया कि दोपहर को मुझे समय नहीं मिलता है । जोधपुर में एक से ज़ी जो कि एक नास्तिकों की गिनती का आदमी था उसका वल्लभश्री के साथ इतना परिचय हो गया था कि साध्वी के पास रात्रि में दस २ बजे तक धर्मशाला में पड़ा रहा करता था । वल्लभश्री भी उसके मकान पर टाइम ब टाइम जाया करती थी जिससे शहर में इस बात की काफी चर्चा होने लगी कि कुंवारी दीक्षा लेने वाली युवा साध्वी इस नास्तिक 1 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान-द्वितीय खण्ड से परिचय क्यों करती है ? इस में विशेष लोग खरतरगच्छ के ही थे और उन्होंने उनके दुश्चरित्र के बुरे फल का होना सोच कर ज्ञानश्री को कह दिया कि वल्लभश्री को आप रोक दो, इस में ही आपको तथा गच्छ की शोभा है, वरना हमको दूसरे मार्ग का अवलंबन करना पड़ेगा । इस पर ज्ञानश्री ने वल्लभश्री को बहुत समझाया पर जवानी के घमंड में मस्तान बनी हुई बिचारी ज्ञानश्री की कब मानने वाली थीं उसने तो एक चेतनश्री नाम की युवा कुंवारी १९ वर्ष की साधी को भी अपने सदृश पतित बना दी । अब तो एक से दो हुई अधिक कहने पर जवाब मिला कि लो तुम्हारा श्रोघा पात्रा, मैं घर मांड संसार में रहूँगी । ४४२ जब मुनिश्री ने सुना कि साक्षियों का यह हाल है तो व्याख्यान में खूब फटकार लगाई और साधु साध्वियों के आचारव्यवहार और संसारियों से परिचय पर शास्त्रीय प्रमाणों से खूब जोरों से उपदेश दिया, जिससे साध्वियाँ नाराज हो गई थीं। फिर भी वे बाह्य प्रेम बताने के लिए तथा ज्ञानप्राप्ति के लिए व्याख्यान में सदैव आया करती थीं । इधर शहर में इस बात की खूब जोरों से चर्चा होने लगी, इस हालत में कई खरतरगच्छ वालों ने वल्लभश्री को बहुत सम माया कि तुम सेठजी की हवेली पर आना जाना छोड़ दो; इस से समुदाय में हो नहीं, किन्तु शहर में भी खराब चर्चा हो रही है कि जिससे हम लोगों को लाचार हो मुंह नीचा करना पड़ता है। किन्तु इश्क़ एक ऐसी बुरी बला होती है कि वल्लभश्री ने एक Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ दोपचंदजी की प्रार्थना नहीं मानी और अपनी प्रवृति को ज्यों की त्यों चलने दी । आस्त्रिर नतीजा वह हुआ जो कि ऐसे काम में होना चाहिये । ६७-खरतरगच्छ वालों के पर्युषण ___ इस वर्ष भाद्रव मास दो होने से खरतरों के पर्युषण पहिले भाद्रव में तथा तपागच्छ, उपकेशगच्छ, और प्रदेशी ईढ़ियों के पर्युषण दूसरे भाद्रव में थे। खरतरगच्छ के अग्रसर श्रावक और साध्वियों ने श्रा कर मुनिश्री से अर्ज को कि कृपा कर आप हमारे पर्युषण में कल्पसूत्र का व्याख्यान बांच दीरावें, क्योंकि हमारे यहां यह रिवाज है कि साधु मौजूद हो तो साध्वियां व्याख्यान नहीं बांचती हैं, जिसमें हम तो खास आप ही के पास पढ़ी हैं तो आपके विराजते हुए हम व्याख्यान बांच ही कैसे सकें ? मुनिश्री ने अपना पर्युषण न होने के कारण व्याख्यान बांचना उचित तो नहीं समझा किन्तु वात्सल्यता बनी रहने के कारण खरतरों का कहना स्वीकार कर लिया। ___ एक दिन दीपचन्दजी साहिब पारख ने मुनिश्री से विनय की कि हमारी समुदाय में भंडारी हनुतचन्दजी साहिब और आपके भाइयों की तमाम हवेलियों वाले मन्दिरमार्गी और समुदाय में अग्रसर हैं । पूज्य श्रआत्मारामजी महाराज इनको ब्रष्णु हो तों को बचाकर जैन धर्म में स्थिर रखे हैं। तथा ये तपागच्छ में मुख्य हैं । किन्तु अभी इन्हों की हवेलियों में हूँ ढ़ियों का प्रचार बढ़ रहा है। इसका कारण यह है कि स्वरूपचन्दजी साहब के पुत्र गोड़ीचन्दजी बीमार थे, एक दिन उन्होंने रात्रि में श्री केसरियानाथजी की यात्रा बोली थी, कि मेरी बीमारी मिट जावे तो मैं आपके दर्शन कर......... Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ४४४ इतना केसर चढ़ाऊंगा। दूसरे ही दिन पूज्य श्रीलालजी इनके यहां गौचरी को आये और स्वरूपचन्दजी साहब ने अर्ज की कि गोड़ीचन्द के बहुत दिनों से तकलीफ़ है; पूज्यजी ने कहा कि नवकार की माला फेरा करो। उपरोक्त कारणों मे बीमारो चली गई। जिससे कि भंडारीजी का दूढ़ियों पर कुछ विश्वास जम गया; तद्यपि गोडीचन्दजी ने तो कह दिया कि मैंने श्री केसरियानाथजी की यात्रा बोली थी और उससे ही मेरा रोग गया है । आप आराम होने पर श्री केसरियानाथ की यात्रार्थ पधार कर यात्रा भी की थी। और केसर भी चढ़ाया। ____ भंडारियों की हवेली में ढूंढ़ियों का इतना प्रचार हो गया कि इस साल खास भंडारीजी ने अपने मकान में दंदिया साधु फूलचंदजी का चातुर्मास भी करवा दिया है और वे व्याख्यान सुनने को भी वहीं जाते हैं; तात्पर्य यह है कि स्वामी आत्माराम जी ने तो इनको अन्य मत में जाते हुए को बचाकर जैन रखा, और अब आपकी विद्यमानता में ये दूं दिया बन रहे हैं, इस पर आप ध्यान दिरावें । मुनिश्री ने कहा ठीक, मैं ध्यान रखूगा। जब पहिले भाद्रव में पर्युषण का व्याख्यान शुरू हुआ तब भाद्रव कृष्ण ५४ को बड़ा व्याख्यान था, उस दिन भंडारियों की तमाम हवेलियाँवाले सब सरदार मुनिश्री के व्याख्यान में आये थे । मुनिश्री ने कल्पसत्र बाँचना तो बंद कर दिया, और नाडोल के राव दुद्धाजी आदि को आचार्य यशोभद्रसरि ने मांस-मदिरा छुड़वा कर जैन बनाये वे ही लोग भंडारी कहलाये तथा भंडारियों मे अच्छे २ धार्मिक कार्य किए, जिनका इतिहास सुना कर कहा कि एक तरफ तो हम ढूंढ़िया धर्म को असत्य समझ कर उनका Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ भंडारीजी को उपदेश त्याग कर जैन बन रहे हैं. दूसरी ओर हमारे जैन भाई सत्य धर्म का त्याग कर ढूंढ़िये बनने की तैयारी कर रहे हैं, इत्यादि खूब प्रभावशाली उपदेश दिया। अंत में मुनिश्री ने फरमाया कि यदि किसी को ट्रॅढ़िया धर्म अच्छा भी प्रतीत हुआ हो तो पहिले हमारे से दलील करे और ढढ़ियों को पास में बैठा कर दोनों पक्ष की दलीलें सुन लें, बाद जो सत्य समझ में श्रावे वही धर्म स्वीकार कर ले, वरना हम हमारे आचार्यों के बनाये श्रावकों की रक्षा के लिय लट्ठ लिये फिरते हैं, इत्यादि । भंडारीजी समझ गये कि श्राज मुनिश्री का व्याख्यान हमारे लिये ही हुआ है। ___भंडारीजी-महाराज पर्युषणों के दिनों में ऐसा व्याख्यान क्या हो रहा है ? मुनि:-भँडारी साहब, यह आपके लिये ही है । भंडारी-क्यों हमने क्या कसूर किया है ? - मुनि०-हमने सुना है कि भंडारीजी की हवेलियाँ वाले हूँ ढ़िया बनने की तैयारी करर हे है। भंडारी०- केवल सुनने पर ही आपने सत्य मान लिया। मुनि-नहीं, मैंने अनुभव भी किया है ? भँडारी–किप तरह से ? मुनि-मुझे पाये को करीब दो मास हुए हैं, व्याख्यान हमेशा बंचता है, किंतु आप सरदारों को मैंने कभी व्याख्यान में नहीं देखा तथा आप अपने मकान में दूढ़िये साधुओं का चातुर्मास करवा कर वहाँ व्याख्यान सुनते हो । इससे अनुमान किया जाता है कि संवेगी साधुओं से आपको अरुचि और हँढ़ियों से रुचि Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४४६ हो गई है। इस बात का मुझे आश्चर्य भी होता है कि भँडारीजी साहिब की हवेली में ढूँढ़िया साधु चातुर्मास करे । C भँडारीजी - क्या मकान में चातुर्मास करवाने से कुछ हानि होती है ? मुनि - हाँ जरूर हानि होती है, मकान में चौमासा तो क्या पर उत्सूत्ररूपक विप्रीत श्रद्धा वालों की संगत करने से एवं मुंह देखने में भी पाप लगता है भला आप ही अपने दिल से विचार करें कि इन लोगों की सँगत करने में आपके दिल कैसे बन गये हैं ? क्या भंडारीजी साहब की मौजूदगी में कोई उत्सूत्रप्ररूपक हवेली में पैर तक रख सकता था । जब आपने अपने मकान में चातुर्मा करवा दिया । आप भले अपने मन को मजबूत रख सकेंगे, पर आपकी संतान एवं महिलाओं पर इसका कितना बुरा असर पड़े - गा इसका भी अपने विचार किया है ? भंडारीजी - क्या किसी को संगति करने में भी पाप लगता है । मुनि - भंडारीजी आप क्या नहीं जानते हो कि अखिल जैन समाज मूर्त्ति पूजक था पर कुसंगत करने से श्राज वे हजारों लाखों मनुष्य मूर्त्ति के कट्टर दुश्मन बन मुंह बांधने लग गये हैं । भंडारी०—महाराज हम ढूँढ़ियों के जाते जरूर हैं पर हमने कभी डोरा डालकर मुंह पर मुँहपत्ती नहीं बांधी है और मूर्ति पर हमारी अटल श्रद्धा है, यदि कोई देवता भो कह दे तो अन्यथा नहीं हो सकती है। मुनि - तब तो हमको शंका करना ही व्यर्थ है, यदि हमारे व्याख्यान से आपके दिल को ठेस पहुँची हो तो हम क्षमा चाहते हैं । भंडारी० -- नहीं जी महाराज; आप किस बात की क्षमा Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ व्याख्यान में पैशाब का प्रश्न चाहते हैं ? क्षमायाचना तो हमें करनी चाहिए कि आप जैसे विद्वान और सत्य के संशोधक यहाँ होने पर भी हम लोगों से आप की कुछ भी सेवा बन नहीं आई, किंतु अब हम प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि हम लोगों से बनेगा वहां तक आपकी सेवा करेंगे, अर्थात् हमेशा व्याख्यान सुनेंगे | ६८ - व्याख्यान में प्रश्न और उसका निर्णय इस प्रकार बातें होती ही थों कि बीच में एक व्यक्ति बोल उठा कि महाराज मेरे दिल में एक शंका है और वह यह है कि कई लोग कहते हैं कि ढूँढ़िया पेशाब से शौच करते हैं शौच के समय शिर धोते हैं, मोली, मुंहपत्ती भी धोते हैं और कभी २ पेशाब को पी भी लेते हैं क्या यह सत्य है ? कारण आप ९ वर्ष ढूँढ़ियों में रहे हैं और आप पर मैं इतना विश्वास रखता हूँ कि आप कभी झूठ बात नहीं कहेंगे ? ● मुनि - ऐसा प्रश्न न तो आपको व्याख्यान में पूछना चाहिए श्रौर न मैं ऐसे प्रश्न का उत्तर देना भी चाहता हूँ । यदि मैं इस प्रश्न के उत्तर में सत्य भी कहूँ तो लोग समझ लेंगे कि द्वेष के मारे निंदा करते हैं । अतः मैं ऐसे प्रश्न का उत्तर व्याख्यान में देना चाहता हूँ । व्यक्ति-तब आप सच्चे साधु ही नहीं हैं, कारण सत्यः कहने में आप इतने घबराते हैं, तो फिर आप अपना एवं दुनिया का कल्याण ही क्या कर सकोगे ? मुनि० - आप, जैसी आप की इच्छा हो वैसा ही समझो, किन्तु मैं ऐसे प्रश्न का उत्तर व्याख्यान में देना नहीं चाहता हूँ । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४४८ ___ भंडारी०-पास में बैठे हुए भंडारीजी धीरे से बोले कि हां लोगों को इस बात की शंका तो जरूर है; यदि इनका इतना आग्रह है तो सत्य बात कहने में आपको क्या नुकसान है ? ___मुनि:-नुकसान तो कुछ नहीं, किन्तु जिस बात के कहने से गग-द्वेष की वृद्धि होती हो, ऐसी सत्य बात कहने में भी क्या फायदा है ? यदि आप को निर्णय ही करना है तो आपके मकान में स्वामी फूलचन्दजी हैं, और मुझे विश्वास है कि उनके गले पर तलवार भी रखदी जावे तो वे झूठ कदापि नहीं बोलेंगे । मैं उनके पास रहा हुआ हूँ; आप उनके पास जाकर निर्णय कर लिरावें, किन्तु मेरे मुँह से न कहलावें । भँडारीजी व्याख्यान समाप्त होते ही वहाँ से उठ कर सीधे ही फूलचंदजी के मकान पर गये, फूलचंदजी गौचरी लेने को गये हुए थे, एक तपस्वी साधु जो ६५ उपवास किया हुआ वहाँ बैठा था। भँडारीजी ने उनसे कहा कि महाराज मैं एक बात पूछता हूँ और यदि आप दूंठ बोल गये तो आपके ६५ उपवास निरर्थक चले जावेंगे। तपस्वी साधु था अपठित, और भद्रिक, अतः उसने सच्चे दिल से कह दिया कि भंडारी जी मैं साधु हो कर दूंठ कैसे बोलूगा, आप क्या पूछना चाहते हों ? भँडारी०-आप पेशाब को काम में लेते हो ? तपस्वी०-हाँ । भँडारो०-किस काम में लेते हो ? तपावी-रात्रि में टट्टी का काम पड़ता है तो शौच करते हैं, शौच करने पर मस्तक भी धोते हैं; झोली चिकनी हो तो उसको Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४९ भंडारीजी और हूँढ़ियों के भी धो लेते हैं, कभी २ मुँहपत्ती भी धो लेते हैं, क्योंकि इसमें खार होता है जिससे कपड़ा साफ हो जाता है । भंडारीजी को घृणा आने लगी, किन्तु इतना ही ठीक हुआ कि आपने अभी तक भोजन नहीं किया था नहीं तो के हो जाती। खैर, भँडारीजी ने आगे चल कर सवाल किया कि, आप पेशाब पीते तो नहीं हो न ? तपस्वी-कभी शीतकाल में खांसी की व्याधि हो जाती है तब थोड़ा सा पी भी लेते हैं। ___ भंडारी-हाय ! हाय ! यह ओसवालों के गुरू अघोरी साधु । शायद् हमारे घरों में ऐसे अघोरियों के आने से ही लक्ष्मी देवी रुष्ट होगई हा तथा हमारे पुन्य भी इसीलिए ही क्षीण हो गये हो कि एक समय तो हम राज चलाते थे, लेकिन आज छोटी सी नौकरी के लिए मुह ताकना पड़ता है। भंडारीजी इस प्रकार पश्चाताप कर ही रहे थे कि इतने में फूलचंदजी गौचरो ले कर आगये । फूल०-क्यों भंडारीजी ! आज व्याख्यान में नहीं आये,आज तो पर्व की बड़ी तिथी थी ? भंडारीजो०-श्राज धर्मशाला में चला गया था। फूल०-क्या गयवरचंदजी का व्याख्यान सुनने को ? भडारी०-हां और इस बख्त खरतरगच्छ के पर्युषण भी हैं। फून-किंतु ऐसे पतितों का व्याख्यान सुनने में क्या लाभ है? भंडारी०-पतित कौन है ? फूल-गयवरचंदजी हैं। भंडारी०-क्या गवरचंदजी महाराज पतित हैं । फूल-हां पतित हैं। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४५० भंडारीजी-इसका कारण क्या है ? फूल०-साधु पना छोड़कर संवेगी बन गये हैं ? भंडारी -यही कारण है या गयवरचंदजी में चारित्र संबंधी भी कोई दोष है ? ____ फूल-- नहीं भंडारीजी ! चारित्रसंबन्धी दोष तो सेरी समझ में कुछ भी नहीं है । सब ऋद्धि को छोड़ कर जवानी में वैराग्य के साथ दीक्षा ली एवं गयवरचंदजी मेरे पास में रहे हुए हैं। किसी के ऊपर झूठा दोष कैसे लगादें; गयवरचंदजी त्यागा वैरागी हैं परन्तु पाषाण उपासक बन पत्थर को नमस्कार करते हैं । भडारी-मन में समझ गये कि यह शीतलदासजी, तो अग्नि के ही पुतले हैं; मैंने तो समझा था कि फूलचंदजी जैसा कोई साधु है ही नहीं किंतु आज तो इनके हृदय के भाव इस प्रकार निकल रहे हैं । खैर, अब पूर्ण निर्णय ही कर लो। क्यों महाराज वे पत्थर को नमस्कार कैसे करते हैं ? __फूल-मन्दिर में मूर्ति पत्थर की है जिसको कि वे नमस्कार भंडारी०-किन्तु मूर्ति तीर्थङ्करों की है, और नमोत्थुणां भी तीर्थङ्करों को ही देते हैं । यों तो आपका शरीर हड्डी मांस का है और हम आपको भी नमस्कार करते हैं। फूल-ठीक आपने व्याख्यान में क्या सुना ? भंडारीक-एक व्यक्ति ने व्याख्यान में प्रश्न किया था कि ट्रॅढ़िया पेशाब को काम में लाते हैं या नहीं? गयवरचन्दजी महाराज ने इस के उत्तर में कहा कि मैं ऐसे प्रश्न का उत्तर देना नहीं चाहता हूँ, यदि आपको निर्णय ही करना है, तो स्वामी फूलचन्द Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ शास्त्रार्थ के लिये कोशिश जी से पूछ लो; वे झूठ नहीं बोलेंगे; अतः मैं आपके पास पूछने के लिए आया हूँ। फूल०-हम हमारा आचार है वैसा करतेहैं, गयवरचन्दजी हमा री निंदा क्यों करते हैं; क्या उनको पढ़ाया जिसका बदला देते हैं ? भंडारी०-महाराज हमने दो घन्टे तक गयवरचंदजी महाराज का व्याख्यान सुना, किंतु उनकी जबान से निंदा का एक शब्द भी नहीं सुना, भले ही आप जी चाहे सो कहें। ___ फूल-गयवरचंदजी पीठ पीछे कहते हैं, किंतु सामने आवे तो खबर पड़े, क्यों कि मैंने तो उन को पढ़ाया है, वह विचारा मेरे सामने आ ही कैसे सकता है ? - भंडारी-पर आप अब उस ख्याल में न रहना, अब गयवरचंदजी वे नहीं रहे हैं पर उन का ज्ञान बहुत बढ़ गया है । .. फूल-तब लाओ मेरे सामने । - भंडारी०-हाँ मैं उनको आपके पास ला सकता हूँ। फूल-यदि वह आवेंगे तो मैं चर्चा करने को तैयार हूँ। अधिक नहीं किंतु मैं उनसे ये ही तीन बातें पूछंगा, जिन का उत्तर वे ३२ सूत्रों से दें; (१) रात्रि में पानी रखना साधु के लिए कहाँ लिखा है ? (२) शत्रुजय को तीर्थ कहाँ कहा है ? (३) क्या किसी श्रावक श्राविका ने जिनप्रतिमा को पजी है ? • भंडारी०-अच्छा, मैं गयवरचंदजी महाराज को पुच्छ कर निर्णय करके आता हूँ। आपतो चर्चा करने को तैयार हैं न ? फूल-हां, मैं तैयार हूँ। भंडारी०-तपस्वीजी के और हमारे बातें हुई वे तो सब सत्य हैं ना ? Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४५२ फूल-आप के और तपस्वीजी के क्या बातें हुई ? मुझे क्या मालूम ? भंडारी०-तपस्वी साधु को बुला कर उनसे ही सब हाल वापिस दुहरा दिया। फूल०-यह तो हमारा जैसा आचार है वैसा ही हम करते हैं इस के लिए आप को किस ने पंच बनाया जो कि आप निर्णय करने की कोशिश करते हैं ? - भंडारीजी समझ गये और आप को अभी भोजन करना था। वे सीधे हो हवेली आय और हुक्म लगा दिया कि ढूँढ़िया साधुओं का आचार व्यवहार ठीक नहीं है अतः बसाली ( मकान में प्रवेश होता ही पहला स्थान) में खड़ा रख रोटी दे दो यदि अंदर आगये और पात्रा रख दिया तो सब जगह धोनी पड़ेगी इत्यादि । ___ भंडारीजी भोजन कर सीधे ही मुनिश्री के पास आये और फूलचंदजी के साथ चर्चा करने का विवरण (प्रोग्राम ) सुनाया । ___ मुनि०-बहुत खुशी की बात है किंतु आपने समय, स्थान भौर विषय भी निर्णय कर लिया है या नहीं ? तथा दो चार मध्यस्थ भी होने चाहिए। ___भंडारीक-फूलचंदजी आपको तीन प्रश्न पूछने का निश्चय किया है ( १ ) रात्रि में पानी रखना किस शास्त्र में लिखा है ( २ ) शत्रुञ्जय को तीर्थ किस शास्त्र में कहा है (३) किस श्रावक श्राविका ने जिन प्रतिमा की पूजा को है ? और स्थान के लिए मेरा नोहरा तथा समय या दिन आप फरमावे वही रख लिया जावे । और मध्यस्थों के लिये अभी निर्णय नहीं किया है। मुनि:-अभी तो हमारे पर्युषणों का व्याख्यान है, पर्युषण Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्थ में विजय के बाद भाद्र शुक्ल ६ या ७ का दिन मुक़र्रर कर दिलावें । भंडारी० - यदि आदित्यवार का दिन रख दिया जावे तो हम सब लोगों को भी सुभीता रहे तथा सब लोग प्रश्नोत्तर सुनभी, लें। मुनि० - अच्छा आदित्यवार का दिन रख लो, किंतु मध्यस्थ तो अवश्य होना ही चाहिए । ४५३ भंडारी० — ठीक, मैं फूलचंदजी से पूछ लूँगा । इधर खरतरगच्छ बालों के पर्युषण सानंद समाप्त हो गये, मुनिश्री ने सब विधिविधान बिना भेद भाव के करवा दिया । ६६ — ढूँढियों के साथ शास्त्रार्थ में विजय भंडारीजी ने चर्चा का दिन भाद्रव शुद्ध ७ का रखा श्रतः उसी दिन मुनिश्री अपने सत्रों कों साथ ले तथा दीपचंदजी पारख, मानमलजी खीवंसरा एवं और भी कई लोगों के साथ भंडारीजी के नौहरे में क़रीब १ बजे पहुँच गये । जब सूत्रों के साथ मुनिश्री को और मन्दिरमार्गी श्रावकों को बजार से जाते हुए देखा तो ढूँढये श्रावक लछीरामजी सांद और राजमलजी सुनौयत एक दम दोड़ कर फूलचंदजी के मकान पर गये और कहने लगे कि आप यह क्या करते हो ? अपने से निकले हुए साधु को किस कारण बुलाहै ? क्या आप गृहस्थों के सिर फुड़ाओगे ? हम नहीं चाहते हैं कि संवेगियों के साथ शास्त्रार्थ किया जाय । फूल० - इसमें क्या हानि है १ भंडारीजी मध्यस्थ हैं। २ह Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ट्रॅढ़िये०-कोई भी क्यों न हो, पर अपने को तो चर्चा नहीं करनी। फूल-मैंने भंडारीजी को वचन दे दिये हैं। टूदिये०-वचन क्यों दिया ? यदि दे दिया तो प्रायश्चित ले लेना, पर अपने को मकान के बाहर चर्चा के लिये नहीं जाना चाहिए। ___ फूल०-किंतु मैं तो मेरा वचन मूंठा करना नहीं चाहता हूँ तुम कुछ भी कहो मैं तो एक दफा जाऊंगा और अवश्य जाऊंगा। - ढूंढ़िये-आप तो क्या, किंतु फलौदी में लोगों के बहुत कहने पर भी पूज्यजी ने चर्चा नहीं की तो आप के ही ऐसी कौन पड़ी है श्राप मनाई करते हुए भी चर्चा करने को तैयार हो गये हो ? फूल-मेरी उम्र में यह पहिला ही मौका है कि तुम मेरे वचनों को असत्य करवाते हो। - ढूंढ़िये०-भले ही आप इसका प्रायश्चित हमको दे देना पर हम आप को चर्चा करने को तो हर्गिज भी नहीं जाने देंगे। यदि इस उपरांत भी आप नहीं मानेंगे एवं अपनी हठ नहीं छोड़ोगे तो हम आपको न तो अपने साधु मानेंगे और न वन्दना व्यवहार ही करेंगे । आप खूब सोच लीजिये । फूल-विचार में पड़ गये। इधर भंडारीजी का नोहरा जैन-जैनेत्तरों से भर गया और वे सुनने के इच्छुक थे कि देखें संवेगी और ढूंढ़ियों के क्या चर्चा होगी ? समय दो बजने का आ गया, फूलचंदजी दृष्टिगोचर नहीं हुए, अतः मुनिश्री ने भंडारीजी को कहा फूलचंदजी अभी Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ फूलचंदजी सभा में नहीं आये तक क्यों नहीं श्राये हैं ? इस पर समीप में ही फूलचंदजी का मकान था भंडारीजी वहां गये तथा कहा कि गयवरमुनिजी तो कब के ही गये हैं, अब दो बज गई है अतः आप भी पधारिये । फूल०- मेरी तो इच्छा है, और मैंने आपको जबान भी दे दी थी, किंतु ये श्रावक लोग मना करते हैं और आने नहीं देते हैं । भंडारी० – बड़े आश्चर्य की बात है - आप श्रावकों की आज्ञा में हो, या श्रावक आपकी आज्ञा में हैं ? फूल० - किंतु देखो तो सही, ये तो श्री कर श्रड़े बैठ गये हैं । भंडारी० -- तब आपको पहिले ही श्रावकों को पूछ कर गयवरमुनिजी को बुलाना था; अब यदि आप नहीं आओगे तो एक तो आप साधु हैं और आपकी जबान जावेगी; दूसरे लोग समझ लेंगे कि दूँ ढ़ियों में सत्यता नहीं हैं इसी कारण वे चर्चा निश्चय करके भी नहीं आते हैं और आपको इन श्रावकों की इतनी क्या दाक्षिण्यता है ? यदि ये रोटी पानी न दें तो शहर बहुत बड़ा है; अतः आपतो हिम्मत कर के चलिये, इस में ही ठीक है फिर जैसी आपकी इच्छा। यदि आप नहीं पधारो तो स्पष्ट कह दो जिससे कि मैं सभा में जाकर कह दूँ कि वे अपने अपने ठिकाने जावें । फूल - हाँ कह दो | ● भंडारी० - महाराज हमको ऐसी आशा नहीं थी कि आपके यहाँ इतनी पोल है, तथा गृहस्थों से डर कर आप अपने जीवन तुल्य वचन को मिट्टी में मिला देवेंगे ? फूल० - आप चाहें जो समझें, अब मैं आ तो नहीं सकता हूँ । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४५६ भंडारी० - -काकर परिषदा में कह दिया कि स्वामि फूलचंदजी नहीं आवेंगे। इस हालत में मुनिश्री ने उपस्थित जनता के सामने, रात्रि में पानी रखने के लिए निशीस्थ सूत्र उदेशा ४ का मूलपाठ बतलाया कि जैन सूत्रों में स्पष्ट लिखा है कि यदि टट्टी पेशाब करके कोई भी साधु साध्वी शौच नहीं करेगा तो वह दंड का भागी होगा, अतः इस सूत्र से रात्रि समय पानी में चूना डाल कर पानी रखना सिद्ध होता है । कारण रात्रि में टट्टी नहीं तो पैशाब का तो काम पड़ता ही है, और पैशाब कर सूची करना शास्त्रकार फरमाते हैं । दूसरे ज्ञाता सूत्र, एवं अंतगढ़ादि सूत्रों में शत्रुञ्जय पर अनेक मुनियों की मोक्ष हुई है, यह ३२ सूत्रों के मूल पाठ में है अतः तीर्थंकरों के कल्याणक भूमि जेसे पवित्र स्थान को तीर्थ कहना न्यायसंगत एवम युक्तियुक्त है। तीसरे जैनशास्त्रों में अनेक श्रावक श्राविकाओं ने प्रभु प्रतिमा की पूजा की है, जिसके लिए उपासक दशांगसूत्र, उत्पतिक, राजप्रश्नी, भगवती, ज्ञाता आदि बहुत से सूत्रों के मूल पाठ में उल्लेख है, इसलिए मैं सूत्र लेकर आया हूँ किंतु दुःख है कि स्वामी फूलचंदजी सभा में हाजिर नहीं हुए, अतः लीजिये सूत्रों का पाठ आपको बताया जाता है । इनके अतिरिक्त भी जैन धर्म का सच्चा स्वरूप जैन श्रावकों की उदारता, उनके कराये हुए प्राचीन मन्दिर, तीर्थ यात्रार्थ निकाले हुए संघ वगैरह का वर्णन करते हुए कहा कि जबसे जैन शासन में मूर्ति उत्थापक लौंका और दूँ दिया पैदा हुए उस दिन से ही जैनों के दिन फिर गए, तद्यपि इतना अच्छा हुआ कि जैनाचार्यों ने इनके प्रचार को शीघ्र ही रोक दिया, Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेत्तरों के अभिप्राय ४५७ केवल भद्रिक लोग ही इनके फंदे में फंस कर जैन धर्म की अवहेलना करवाते हैं, इत्यादि उपदेश देकर जयध्वनि के साथ मुनिश्री अपने श्रावक वर्ग के साथ धर्मशाला पधार गए । जिन जैनेतर लोगों ने मुनिश्री का उपदेश सुना वे भी समझ गए कि दूँ ढ़िये लोग मैले-कुचैले रह कर धर्म का सत्यानाश करते हैं। क्या ऐसा भी कोई धर्म हो सकता है कि टट्टी जा कर पैशाब से शौच करे। बिचारे भंगी लोग टटटी झाड़ते हैं पर शौच तो वे भी पान से ही करते हैं। ढूँढ़ियों ने तो गजब कर डाला, दुनिया के इतिहास में इन्होंने अपना नाम लिखा कर तो आर्य धर्म और भारत भूमि को भी कलंकित कर लज्जाई है ऐसे पुत्रों को जन्म देनेवाली माताएं यदि बांझ ही रह जातीं तो अच्छा था ! अर्थात ' जितने मुँह उतनी ही बातें ' वाली कहावत चरितार्थ होती थी; पर किस किस के मुँह को बंद किया जाय । इतना होने पर भी देशी स्मुदायवाले मुनिश्री के व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र सुनने के लिए श्रया ही करते थे, क्योंकि वे भी प्रदेशियों की धूल उड़ाने में ही थे । मुनिश्री अच्छे विद्वान एवम् वक्ता थे आपके व्याख्यान की पब्लिक खूब प्रशंसा कर रही थी, सत्याग्रह होने से एक व्याख्यान न्याति नौहरा में दूसरा कटरा में और तीसरा गीरदी कोटे में हुआ जिसका प्रभाव जनता पर इस प्रकार हुआ कि वे धर्मशाला में आ आ कर आपकी देशना सुनने लगे और जैनधर्म और मुनिश्री की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे । क्योंकि मुनिश्री के व्याख्यानों में तात्विक दार्शनिक राष्ट्रीय औपदेशिक और वर्तमानसमय सुधार विषय रहा करती थी कि सबको रुचीकारक थी Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०-स्वामि बात्सल्य में मतभेद क्यों हुआ? जोधपुर के मन्दिरमार्गी समुदाय में तपागच्छ के ६०० घर और खरतर गच्छ के १०० के करीब घर हैं । तपागच्छ वाले प्रायः मुत्शही-राजधर्गी होने से मन्दिरों के या धर्मशालाओं के सब हिसाब पोता प्रायः खरतरों के पास ही थे, और पर्युषण वगैरहः की आमन्दानी भी उनके वहां ही जमा होती थी। कई अर्सा तक तो काम ठीक चलता रहा पर कलिकाल की कुटल गति से तपागच्छ की उदारता का परिणाम उल्टा ही आया कि कई वर्षों से न तो वे श्रीसंघ के पुच्छने पर हिसाब बतलाते हैं और न जमां रकम का ही पता है। फिर भी खरतरों की ऐसी नादिरशाही कि आमन्दानी तो जमा कर लें पर तपागच्छ के साधु साध्वी श्रावें तो आदमी वगैरहः के लिए एक पैसा भी नहीं देवें, वे अपनी टीप कर अपना काम चलावें; इतना ही क्यों पर धर्मशाला के नीचे एक धर्मशाला की दुकान है, उसका किराया खरतर ले जाते हैं, किन्तु धर्मशाला में कचरा निकलवाई का आठ आना महिनो मांगें तो नहीं दे । बिंटोरा के मन्दिर की रकम से एक दुकान खरीद की थी जिसका २०) माहवारी किराया आता है उसका भी कुछ हिसाब नहीं, जोधपुर के मन्दिरों की काफी आमन्दानी होने पर भी उसका कुछ हिसाब नहीं । गुरां के तालाब पर एक मन्दिर है, और लोग प्रत्येक मास की १० को वहां जाया करते हैं, और जिसके स्वामिवात्सल्य Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५९ गुरां के तालाब का स्वामिवात्सल्य के लिए एक स्थायी फंड किया जिसमें मुख्य चंदा भी तपागच्छ वालों का ही था पर वह भी खरतरों के हाथ में सौंप दिया तथा उसका भी कोई हिसाब नहीं । इस धर्मांधता के कारण ही वे लोग कमजोर और बेइज्ज़त होते गये; तपागच्छ वाले इतने उदार कि न तो खरतरों को हिसाब पूछते हैं और न इस ओर लक्ष ही दिया और इस हालत में भी आमन्दानी उनको ही देते गये । मन्दिरों का और धर्मशाला का जेवर व रकम वगैरहः सब खरतरों के पास ही रहता है । खरतरगच्छ वालों का चतुर्मासा होता है तब पोवा से खर्च कर देते हैं पर तपागच्छ वालों का चतुमास हो तो वे अपने गच्छ में टीप कर खर्च करें । अन्याय अपनी चर्मसीमा तक पहुँचा हुआ था आखिर पाप का घड़ा फूट ही जाता है । तपागच्छ के साधु साध्वियों विशेष नहीं आते थे तथा खरतर गच्छ को साध्वियाँ हरदम रहने से तपागच्छ के लोग भी प्रायः सब क्रिया या तिथी पर्व वगैरह : खरतरों के ही किया करते थे, जिसमें श्राविकाएँ तो तपागच्छ की होती हुई भी वे सब खरतरगच्छ की ही कहलाती थीं। हाँ, तपोगच्छ में एक दीप चन्दजी पारख, नथमलजी भुरंट वगैरह : थोड़े से लोग ऐसे थे कि वे जरूर तपागच्छ की क्रिया करते थे । इस वर्ष खरतरों के पर्युषण पहिले भाद्रवा में थे मुनिश्री के व्याख्यान एवं तपागच्छ की उदारता से सानंद समाप्त हो गये, पर तपागच्छ के पर्युषण अभी होने वाले थे, इसलिए सबको सम्मति से गुरां के तालाब का बड़ा स्वामिवात्सल्य द्वितीय भाद्रपद शुक्ला १० को रखा गया था । एक दिन श्रीकेसरियानाथजी के मन्दिर में स्नान करने की Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४६० कोठरी में तपागच्छीय वकील मंडल ने स्नान करते २ कहा कि लो खरतरों का पर्युषण तो अच्छा हो गया है, अब अपना पर्युषण आ रहा है, एक दिन सबको एकत्र हो प्रभावना आदि का इन्त. जाम कर लेना चाहिये इस पर कई वकीलों ने कहा कि क्या प्रबन्ध करना है ? अपने पर्युषण खरतरों से भी अच्छे और जोर शोर के साथ मनाया जायगा, इत्यादि बातें कर रहे थे। उस कोठरी के पीछे के भाग में धर्मशाला थी और वहाँ वल्लभश्री ऋतु आई हुई बैठी थी । इस बात को सुनकर वह ऋतु आई हुई होने पर भी चल कर सेठजी के पास गई और कहने लगी कि तपागच्छ वाले अपनी निंदा करते हैं, अतः गुरां के तालाब का स्वामीवात्सल्य इसी दशमी को कर देना चाहिये । वे मेंम साहब का हुक्म कैसे लोप सकें, क्योंकि सेठजी तो वल्लभश्री के हाथ का कठपुतला बना हुआ था, बस उसने प्रथम भाद्रपद शुक्ला ९ को किसी को पूछे बिना ही स्वामिवात्सल्य का सामान खरीद कर गुरां के तालाब भेज दिया क्योंकि पोते की रकम तो उनके पास ही थी । शुक्ला १० को व्याख्यान में श्रा कर कहा कि आज गुरां के तालाब स्वामिवात्सल्य है, सब सरदार पधारना, साध्वी ज्ञानश्री वल्लभश्री भी व्याख्यान में उपस्थित थीं। ___ बस्तीमलजी गोलिया ने कहा कि गुरां के तालाब का स्वामि वात्सल्य तो दूसरे भाद्रव शुक्ल १० को होना निश्चित हो चुका था। फिर यह स्वामिवत्सल्य किस की ओर का है ? खरतरों ने कहा कि सदा की भांति स्वामिवात्सल्य फंड से किया जाता है; इस पर बहुत सा वाद-विवाद हुआ । अन्त में नैनमलजी वकील ने कहा, कि सामने टूदियों की दुकानें हैं, परस्पर इस तरह बोलना ठीक Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरां के तालाब का स्वामिवात्सल्य नहीं है; मैं एक अर्ज करना चाहता हूँ कि प्रथम तो यह बात तय हो गई थी, दूसरे जब फंड में तपागच्छ का अधिक चंदा था तो आपको अधिकार भी क्या कि आप अकेले कुछ कर सकें । खैर, आपने कर भी लिया तो समुदाय में वात्सल्यता भाव बना रहे; इस पाराय से मैं कहता हूँ किः १-यह स्वामिवात्सल्य सेठजी अपनी ओर से कर दें तो मेरी इतनी हैसियत नहीं है तथापि दूसरे भाद्रपद का स्वामिवात्सल्य में मेरी ओर से कर दूंगा। २--यह स्वामिवात्सल्य खरतरों के चंदा से कर लें, तो दूसरा स्वामिवात्सल्य तपों के चंदा से कर लेंगे। ३-या दोनों स्वामिवात्सल्य स्थायी चंदा से हो जानेचाहिए। इन तीन बातों से आप जिस को स्वीकार करलें वह ही हम लोग करने को तैयार हैं । सबने कहा कि नैनमलजी का कहना ठीक है, किन्तु साध्वियों अपनी बात रखनी चाहती थीं उनकी सलाह से खरतरों ने तीन बातों में से किसी एक को भी स्वीकार न कर उठ गये । इस हालत में तपागच्छ वालों ने अपने गच्छ में कहला दिया कि जब तक निपटारा न हो वहाँ तक अपने गच्छ का एक मनुष्य भी खरतरों के स्वामिवात्सल्य में भाग न लें। इधर भट्टारकजी को खबर पड़ी तो उन्होंने अपने आदमी एवम् वकील को तालाब पर भेज कर कहला दिया कि तालाब का मंदिर हमारा है, अभी हमारे पर्युषण नहीं हुए, अतः आप भगवान की सवारी नहीं निकाल सकते हो। भट्टारकजी के कहने से आदमी ने श्रीसंघ की सौगंध दिला दी। वकील ने Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४६२ कहा कि यदि हमारी मनाई होते हुए भी आप लोग सवारी निकाली तो क़ानून के अनुसार आप पर दावा कर दिया जायगा । इस पर खरतरों में खलबली मच गई, कारण एक तो तपागच्छ वाला कोई एक बच्चा भी नहीं आया, दूसरे सवारी की मनाई हो गई, इस हालत में खरतरों में दो पार्टियां हो गई; अधिक लोगों का जोर समाधानी करने का था, अतः लछमणदासजी भंसाली को इक्का दे कर शहर में भेजा, वह सीधा ही मुनिश्री के पास आया और कहा कि आप जैसे कहो वैसे ही हम समाधानी कर लेने को तैयार हैं । मुनिश्री ने कहा कि हम तो कँवला हैं, हमारे लिये तो क्या तपा और क्या खरतर सब बराबर हैं, किंतु समुदाय में फूट न पड़े इसलिए समाधान हो जाना अच्छा है । भंशालीजी बस्तीमलजी गोलिया को ले कर कचहरियों में गए कारण वकील मण्डल सब वहाँ था । I नथमलजी भुरंट के पास एक पुरानी बही थी जिसमें जिन जिन वर्षों में दो भादवा हुए उन उन समय में स्थायी चंदा का स्वामिवात्सल्य दूसरे भादवा में ही हुए थे, अतः वह बही भी बस्तीमजी साथ में ले गये थे । कचहरी में सब एकत्र हो भंडारीजी फैजचंदजी साहब के पास गए, सब हाल सुनने पर भण्डारीजी को खरतरों के अन्याय पर बहुत गुस्सा हुआ और कहने लगे कि हम लोग चाहे धर्मशाला में कम आते होंगे, किन्तु हमारी नसों में तपागच्छ का खून भरा हुआ है, खरतरों के इस प्रकार के अन्याय को हम कभी बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे । स्थायी चंदा में इस स्वामीवात्सल्य की रकम कदापि खर्च खाते नहीं Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ चैत्य परिपाटी का महोत्सव मंडेगी । हम लोगों ने स्थायी फंड सेठजी केसरीमल जी की योग्यता पर सौंपा था न कि गणेशमलजी की उइंडता पर । यदि खरतर लोग इस प्रकार का अन्याय करेंगे तो कल ही सब हिसाब ले लिया जावेगा, इत्यादि। __इस पर लिछमणदासजी भंशाली ने कहा कि जिस प्रकार यह स्वामीवात्सल्य स्थायी चंदा से हुआ है, उसी प्रकार दूसरे पर्युषण के बाद शुक्ला १० को स्वामिवात्सल्य स्थायी चंदा से हो जायगा । यदि सेठजी नहीं करें तो तमाम खर्चा मैं मेरा घराघरू दूंगा, इस बात की तहरीर लिख दी तब ४ बजे गुराँ के तालाब जाने को तपागच्छ वालों को इजाजत मिली, समय थोड़ा होने से कोई थोड़े से मनुष्य गये होंगे, इस खेंच में खरतरों को नीचा देखना पड़ा । ठीक है औरतों के कहने पर काम करने वालों का यही तो हाल हुआ करता है । मुनिश्री समझ गये कि खरतरों की बड़ी कृतघ्नता है, इनको ज्ञान पढ़ाना मानो सर्प को दूध पिलाना है, खैर इस परस्पर की खेंचा तान से तपागच्छ कुछ जागृत होकर समझने लगे कि खरतर गच्छ वाले बड़ा अन्याय करते है। इतना बड़ा तपागच्छ जिसको कुछ समझते भी नहीं हैं । इधर दीपचन्दजी पारख ने एक 'तपागच्छ की विधि' नामक छोटी सी किताब की १००० प्रतिए छपा कर गच्छ वालों को दे दी कि वे अपनी गच्छ की क्रिया का ज्ञान कर स्वगच्छ की क्रिया करने में तत्पर हो गये। दूसरे पर्युषण के लिये तो फिर कहना ही क्या था ? क्योंकि सब के दिल में उमंग और उत्साह था; बड़े ही धूम-धाम एवं Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान - द्वितीय खण्ड ४६४ पूजा प्रभावना. वरघोड़ा, पुस्तकजो एवँ स्वप्नापालनाजी का महोत्सव और प्रतिक्रमण वगैरह बहुत ही अच्छे ठाठ से हुये जिसको खरतर एवँ उनकी साध्वियाँ देखती ही रही । जोधपुर में अभी तक चैत्यपरिपाटी नहीं हुआ करती थी; मुनिश्री ने उपदेश दिया किंतु खरतरों को दुःख इस बात का था कि हमारे पर्युषणों में तो यह कार्य नहीं हुआ, तो तपा के पर्यषण में ही क्यों हो; अतः खरतरों ने बहुत विरोध किया, दूसरा पिछली रात्रि में वर्षा भी आने लगी । सब लोग निराश हो गये; मुनिश्री ने कहा कि तुम तुम्हारी सामग्री तैयार रखो । बस, बाजा गाजा, नक्कार-निशान वगैरह तैयार किये, मुनिश्री ने न जाने क्या अनुष्ठान किया कि बरसात बंद हो गई और चातुर्विवि श्री संघ के साथ चैत्य परिपाटी बड़े ही समारोह से हुई, उसमें खरतरों को भी शामिल होना पड़ा जो कि पहिले से खिलाफ थे मुनिश्री की चलाइ हुई चैत्य परिपाटी आज पर्यन्त चलती है और जनता को मालूम हो जाता है कि जैनों के पर्युषण सुख, शांति और आनन्द मँगल से समाप्त हो गये हैं । 1 आपश्री का चतुर्मास जोधपुर हुआ तब परम योगिराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज का चतुर्मास सीपरी (शिवपुरी) था। यों तो आपश्री का कृपा पत्र बहुत से श्राये ही करते थे, पर श्रास्त्रिर पत्र आया जिसमें लिखा था कि मैं गुजरात जाता हूँ, यदि तुम गुजरात की ओर आओ तो मगड़िया तीर्थ पर अपना मिलाप हो सकता है । श्रपश्री ने उत्तर लिख दिया कि श्राप के कथनानुसार मैं विहार कर झगड़ियानी आ जाऊँगा, इसमें एक बात यह भी थी कि आपको श्रीशत्रुञ्जय की यात्रा भी करनी थी । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर में चातुर्मास 19 चतुर्मास के अंदर यों तो फलौदी, लोहावट, खीचंद, बीसल-पुर, सेलावास, पाली, और सादड़ी वगैरह के बहुत लोग दर्शनार्थ आये थे, पर चतुर्मास की समाप्ति के दिनों में जालौर, बाड़मेर, वाढोतरा, गढ़शिवाना, बीसलपुर, सेलावास, पाली और सादड़ी वगैरह कई ग्रामों के लोग विनती करने को आये थे और अपने अपने नगर की ओर पधारने की श्राग्रहपूर्वक विनता भी करी, किंतु आपको तो गुजरात की ओर पधारना था । और इसके लिये जाने का रास्ता पाली हो कर ही था अतः पाली वाले हो भाग्यशाली थे कि उनकी विनती स्वीकार हो गई । ४६५ जोधपुर में चतुर्मास रहने से धर्म की उन्नति बहुत हुई । इस वर्ष में ५०० प्रतिएं 'डंके पर चोट' जो ढूँढ़ियों के 'जाहिर डंका' के प्रतिकार में थी; १००० प्रतिएं 'स्तवन संग्रह' भाग तीसरे की, और १००० प्रति 'तपागच्छ क्रिया-विधि' की; एवं २५०० प्रतिएं छपी थीं । जोधपुर में मुनिश्री की यों तो दीपचंदजी पारख कुनणमलजी नथमलजी भुरंट, जालमचंदजी, नैनमलजी, हस्तीमलजी, धनपत - 'चंदजी, मानमलजी वकील वगैरह ने भक्तिपूर्वक सेवा करी थी, किंतु भंडारीजी चन्दनचन्दजी साहब की सेवा ही नहीं अपितु समय २ पर नेक सलाह बहुत प्रसंशनीय थी । चतुर्मास समाप्त होते ही आप मंडोर की यात्रा कर महा-मंदिर पधारे; साध्वी ज्ञानश्री, वल्लभश्री वगैरह भी महा-मन्दिर आई । एक दिन साध्वी किसी कारण गृहस्थी के वहाँ से एक. पीतल की परात लाई थी, जिसको देख ढूँढ़िया निंदा करने लग Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४६६ गये थे; किंतु दूसरे ही दिन फूलचंदजी का एक साधु दवाई कूटने के लिये लोहा का इमामदस्ता लाया था, मुनिश्री ने साधु का हाथ पकड़ ठहराया और पूछा कि साधु को परात तो नहीं कल्पे, किंतु यह धातु का इमामदस्ता तो कल्पता है न ? साधु ने कहा कि हम तो सरचीणा मांग कर लाये हैं । तो क्या साध्वी परात मूल्य लाई थी ? इस प्रकार साधु से माफी मंगवा कर छोड़ा। एक दिन का जिक्र है कि संवेगियों के चस्मा को देख ढूंढिया साधु निंदा करने लगा पर दूसरे ही दिन एक हुँढ़िया साधु व्याख्यान बाचता था उसके चस्मा लगा हुआ था। मूर्तिपूजक श्रावक ने व्याख्यान के विच साधु से प्रश्न किया कि क्या साधु को चस्मा लगाना कल्पता है ? उत्तर में कहा कि यह तो ज्ञान का सोधन है जब सूत्र में पुस्तक रखना भो नहीं कहा है पर ज्ञानवृद्धि के लिये जैसे पुस्तकें रखते हैं वैसे ही चस्मा रखा जाता है मूर्तिपूजक श्रावक ने कहा कि आपके अँध भक्त यह लोग संवेगी साधु की निंदा कर व्यर्थ ही कम-बन्धन करते हैं इनको जरा समझायें कि साधु चस्मा क्यों रखते हैं ? वहाँ बैठे हुये ढूँढिये साधु एवं श्रावकों ने माफी माँग कर अपना पिच्छा छुड़ाया। ७१ मुनिश्री का गोडवाड़ की ओर विहार वर्ष था १९७४ का मारवाड़ में प्लेग की बीमारी का सर्वत्र दौरादौर था; एक गाँव के मनुष्य को दूसरे गांव जाने में रोकटोक की जाती थी, तथापि श्रार महामंदिर से विहार कर सेलावास पधारे; यहां आपने संसारपने में तोरण वाँदा था, अर्थात् Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ पोली में शान्ति स्नान पूजा आपका सुसराल था। चार दिन ठहर कर खूब उपदेश दिया; कई लोगों ने ढूंढ़ियापना छोड़ कर आपका वासक्षेप ले कर संवेगी श्राम्नाय धारण की। वहाँ से रोइट पधारे, वहाँ भी दो सुयोगों को वासक्षेप दिया, वहाँ से पाली पधारे, वहाँ भी प्लेग चलता ही था, ब्राह्मण लोगों ने वर्णी बैठा कर कई मन घृत होम डाला पर कुछ भी नहीं हुआ। आपके पधारने पर केवल जैन ही नहीं पर सब कौमों, एवं शहरवालों ने आकर अर्ज की कि आप महात्मा हो हम लोगों पर उपकार कर शान्ति का उपाय बतलाइये। आपश्री ने कहा कि शांतिस्नात्र बड़ी पूजा पढ़ाओ; शहरवालों ने मुनिश्री के उपदेश से चॅदा कर रकम इकट्ठी की और राजलदेसर से यति माणकसुंदरजी को बुलवा कर वृहत् शांति स्नात्र पूजा पढ़ाई, मंत्राक्षरों से बल बाकुल दिलवाया। गुरु कृपासे सब तरह शांति हो गई, यह एक आपके यश नाम का ही उदय था कि जिस काम में आप हाथ डालते वही कार्य सिद्ध हो यश आ ही जाता । पाली के हिंदू--मुसलमान मुनिश्री की एवं जैनधर्म की भूरि २ प्रशंसा करने लगे। ___ पाली से विहार कर बूसी, बरकाणा, राणी स्टेशन तथा राणी गाँव पधारे । वहाँ पन्यासजीश्री हर्षमुनिजी महाराज के दर्शन हुए, और भंडारीजी चन्दनचंदजी साहब भी वहां ही मिल गये । पं० हर्षमुनिजी ने कहा कि तुमको गुजरात चलना है तो हमारे साथ चलो । किंतु आपने कहा कि मुझे पहिले श्रीकेसरियानायजी की यात्रा करनी है, अतः आप भी पधारें, पन्यासजी ने इन्कार कर दिया तब वहाँ से आप मुड़ारे पधार गये। सादड़ी में इस बात Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४६८ की खबर होते ही सादड़ी और मुड़ाग के बीच नर-नारियों का तांता सा लग गया क्योंकि सादड़ी वालों को आपके पधारने की कई दिनों से आशा एवं अभिलाषा थी; दूसरे ढूँढ़ियों के साथ झगड़ा भी चल रहा था, उस समय उनको एक ऐसे उपदेशक की आवश्यकता थी कि जिसको श्राप पूर्ण करने में सर्व प्रकार से समर्थ थे । सादड़ी वालों ने बड़े ही गाजे-बाजे और धूमधाम से नगर-प्रवेश का महोत्सव किया। सब से पहले दिन के उपदेश से ही लोग चकित हो गये । बाद प्रभावना के अन्त में सभा विसर्जन हुई, अब तो हमेशा बिना ही प्रभावना व्याख्यान में उपाश्रय भर जाने लगा। आखिर उपाश्रय में परिषदा नहीं समाई, इस हालत में व्याख्यान पब्लिक बाजार में होने का निश्चय हुआ, जिस दिन बाजार में व्याख्यान था, उस दिन आप प्रातःकाल थडिले भूमिका पधारे, वहाँ दुढिया साधु बख्तावरमलजी मिला, वह पहिले तो खूब प्रेम के साथ बातें करता रहा, किन्तु जब वे शौच करके पास में आया और हाथ धोने लगे तब मुनिश्री ने पूछा कि पानी है या नौपानी, इस पर ढूढकजी चिढ़ पड़े और क्रोध में लाल ताते होकर कहने लगे कि बख्तावरमल:-अरे संवेगड़ों ! तुम्हारे शास्त्रों में रात्रि के समय कितना पानी रखना लिखा है ? मुनि:-आपके शास्त्र में रोटी कितनी खानी लिखी है ? बख्ताः -रोटी जितनी आवश्यक हो उतनी खा सकते हैं । मुनि०-पानी भी जितना चाहिये उतना रख सकते हैं । बख्ता०-क्या तुम जड़ मूर्ति को मानते हो ? मुनि० -तुम्हारे सूत्रों के पाने जड़ हैं य चैतन्य ? Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६९ इंढियों का पराजय बख्ता० – पन्ने तो जड़ हैं । मुनि० तुम उसको मानते हो या नहीं ? - सूत्र बता० --- सूत्र तो मानते हैं पर वन्दन पूजन नहीं करते हैं । मुनि० - यही तो तुम्हारी अज्ञानता है कि जिस सूत्र के द्वारा सद् ज्ञान प्राप्ति कर आत्म-कल्याण करना चाहते हो, फिर भी उन सूत्रों को अवन्दनीक ही समझते हो । इत्यादि कई प्रश्नोत्तर हुए, वहाँ से आकर बजार में व्याख्यान देने के आशय से जाकर पाटे पर बैठ गये । व्याख्यान में विषय था मूर्ति पूजा का । जिसके लिए शास्त्रों के मूलपाठों के साथ हूँ दिये साधुओं की २० तसवीरे ( फोटो ) नाम ले २ कर बतलाइ जो कि आपने पहले से ही संग्रह कर रखी थीं । आपने कहा कि यह मूर्ति हैं या नहीं ? यदि इनके नाम लेकर इन फोटो की कोई बेअदबी करें तो हूँ ढ़ियों का दिल दुःखे या नहीं ? व्याख्यान के पाटे के दोनों तरक्क दुकानों पर बहुत से दूँ ढ़िये बैठे २ सुन रहे थे । इस व्याख्यान में एक ऐसी बात हुई कि व्शख्यान का पाटा मैदान में जो चारों ओर से खुला था; पीछे से एक कुत्ता पाटे के नीचे होकर स्थापनाजी के पास आ गया तो दूँ ढ़िये लोग हँसने लगे । मुनिश्री ने कहा, 'अरे कुत्ते ! तूं अब क्या माफी माँगने को आया है ? शायद इशारा करता है कि मैं मूर्ति मानने को आया हूँ पर मनुष्य के भव में जब तुम्मको किसी ने उपदेश दिया होगा उस समय यदि मूर्ति मान ली होती तो इस कुत्ते की योनि में क्यों आता । खैर, मैं तो आज भी उपदेश देता हूँ कि जिस किसी को कुत्ता और कुत्ते जैसी योनि से बचना हो तो मूर्त्ति निंदकों की मिथ्या श्रद्धा एवं ३० Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४७० हट को छोड़कर मूर्तिपूजक जैन बन जाना चाहिये । अब भी समय है वरन् इस कुत्त' की माफिक पश्चात्ताप करना पड़ेगा और अन्त में माफी मांग कर मूर्तिपूजा स्वीकार करनी पड़ेगी; समझे न ? इसको सुनकर हँसी करने वाले हूँढ़ियों को लज्जित होना पड़ा और कहा कि मुनिजी ने हमारे लिए कुत्ते की योनि बतलाई है इत्यादि। आप एक मास सादड़ी में ठहर कर जो कुछ करना था वह कार्य कर लिया, इस प्रकार हमेशा व्याख्यान होने से लोगों की श्रद्धा खूब मजबूत हो गई । सादड़ी में आपका पधारना मूर्ति पूजक समाज के लिये इतना लाभ का कारण हुआ कि मैं लेखनी द्वारा लिख ही नहीं सकता हूँ। ७२ श्रीकेसरियाजी की यात्रार्थ मेवाड़ में वहाँ से आप रानकपुरजी पधारे, लगभग ७०० श्रावक श्राविकाएं साथ में थे, मन्दिरों का दर्शन कर परमानंद को प्राप्त हुए; एक लड़ाई का स्तवन बना कर प्रभु के सामने बोल दिया, बाद श्रावकों ने मुँवारे खोलाये उनके भी दर्शन किये यानी अच्छी तरह से यात्रा की । भाप तथा प्रभावविजयजी और जिनश्री आदि साध्वियां, भंडारीजी या बछराजजी पोरवाल वगैरह कई श्रावक एवम बहुत सी बाइयाँ वगैरह वहाँ से अवलीपहाड़ चढ़ कर भानपुर पधारे। प्लेग के कारण भानपुर के लोग आपको ग्राम में आने नहीं दिये, इसलिए आप गांव के बाहर किसी कुए पर ठहर गये । भंडारी जी ने ग्राम में जाकर राजअधिकारी लोगों से कहा कि आप बड़ी भारी भूल करते हो, कि ऐसे महात्मा सहज ही में पधार गये Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ भानपुरा में शान्तिस्नात्र जिनकी लोग आशा और अभिलाषा करते हैं: पाली में शांति पूजा पढ़ाने से प्लेग चला गया, आप भी इन महात्मा से विनय कर अपने यहां शांति पूजा पढ़ाइये । राजाधिकारी लोगों ने महाजनों को बुलाकर कहा कि तुम्हारे महाराज आये हैं; रीति रिवाज के अनुसार ग्राम में लाभ और शांतिस्नात्र बडी पूजा पढ़ाओ । महाजन मुनिश्री के पास श्राये; किंतु मुनिश्री ने उस समय इन्कार कर दिया कि हम लोगों को तो आगे जाना है, रात्रि में यहाँ ठहर कर प्रातः ही चले जावेंगे ऐसी हमारी भावना है। यह बात राज्य कर्मचारियों को ज्ञात हुई तो राज की एवम् अखिल ग्राम की ओर से श्रति आग्रह हुआ जिसको एक उपकार का कारण समझ कर स्वीकार किया, फिर तो था ही क्या राज की र से सम्मेला कर मुनिश्री को ग्राम में ले गए। दूसरे दिन मैदान में मांड़वा बना कर निन्यानवे प्रकार की पूजा पढ़ाई गई; गुरु कृपा से शांति हो गई तथा उस दिन प्लेग का एक भी केस नहीं हुआ । यही कारण था कि उदयपुर तक दो ऊँट व दो आदमी राज्य की ओर से दिये गए, और कई लोग वहां से यात्रार्थं मुनिश्री के साथ हो गये। वहां से सायरे गये एक रात्रि वहां ठहरे वहां से एक गुरां, कुंकुम और केसरबाई वगैरह यात्रार्थ साथ हुए । S वहाँ से ढोल, कंबाल, नादांमा, मोटेग्राम और मदार आये रास्ते में कई स्थानकवासी कई तेरहपन्थी लोग भी मुनिश्री का उपदेश सुनकर साथ में हो गए और वहाँ से चलकर उदयपुर आये किंतु वहां भी प्लेग होने के कारण रोशनलालजी चुतर वगैरह बहुत से आदमी समीने खेड़े ठहरे हुए थे, कारण वहां एक सम्प्रति राजा का बनाया Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ४७२ & हुआ मंदिर एवं भव्य मूर्ति थी, मालुम होने पर उन्होंने कई श्रावकों को सामने भेजा अतः मुनिश्री अपना संघ ले कर समीने खेड़े पहुँचे । इस विकट स्थिति में गुरु महाराज का पधारना उन लोगों के लिये बहुत ही उपकार का कार्य हुआ; दो दिन वहां ठहरकर धूमधाम से पूजा पढ़ाई, वरघोड़ा निकाला। श्रीमान् रोशनलालजी ने कोशिश कर रास्ते में चौकी माफ का परवाना भी मंगवा दिया; वहां से संघ रवाना हो क्रमशः धूलेवाजी पहुँच कर श्री केसरियानाथ बाबा का दर्शन किया; यह दर्शन पहले पहल होने से इतना श्रानंद आया कि जिसका वर्णन न तो मुख द्वारा ही कहा जा सकता है और न लेखनी से लिखा जाता है । आपने धूलेवे पांच दिन ठहर कर खूब ही आनंद लूटा, केसरियाजी के कई स्तवन भी बनाए। जिस समय आपको बिहार करना था तो मन्दिर में दर्शन करने को गए किंतु प्रभु की भक्ति नहीं छूट सकी, वहां ही एक स्तवन बनाया " मनमोहन श्रलु आ रही " 1 संघ के सब लोग वापिस लौट कर सादड़ी की ओर गये, केबल भंडारीजी चंदन चंदनी ही आपके साथ रहे, उस समय प्लेग का इतना जोर था कि भंडारीजी खेरवाड़ा की छावणी तक अर्थात् पांच कोस तक एक आदमी की मजदूरी के पांच रुपये देने को तैयार हो गये पर आदमी नहीं मिला, उस हालत में भंडाराजी ने हिम्मत कर चार कोस तक सब सामान उठा कर मुनिश्री के साथ पैदल चले । चार कोस चल कर जंगल में एक कुँवां पर भँडारीजी ने रसोई बनाई, भोजन कर वहाँ से आगे चले, एक तो भंडारीजी के पास छोटा मोटा बजन ज्यादा था, दूसरे बहुत से Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ विकट परिस्थित में बिहार नींबू एवं शाक ले लिया जिसका कि आपको बहुत ही शौक़ था तीसरे भोजन कर रवाना हुए और हाथ में पानी का घड़ा भी था 'फाल्गुन मास का ताप भी जोर से पड़ रहा था । आधे मील भी नहीं गये कि भंडारीजी घबरा गये और आपके नेत्र फिरने लगे, अतः एक माड़ के नीचे थोड़ी देर बैठ गये । उस विकट अवस्था में भंडारीजी के पास जो पुस्तकें व कौसाने के मंदिर की रसीदें, टीप की बही वगैरह का जो वजन था वह मुनिश्री ने उठाया और ज्यों त्यों कर खेरवाड़ा की छावनी तक पहुँचे, किंतु वहाँ सिपाही दूर से ही पुकार कर रहे थे कि 'अंदर नहीं जाना' २ भंडारीजी विचार में पड़ गये; दिन तो रह गया थोड़ा, ग्राम में जाने नहीं देते, अब क्या करना चाहिये । फिर हिम्मत कर आगे चले, पिछले दिन में न तो रसोई बनाई और न भोजन किया, फिर चार मील चलने पर एक भीलों का प्राम आया, उस समय की विकट परिस्थिति सूर्य से भी देखी नहीं गई अतः वह भी अस्ताचल की ओर भाग छूटा अँधेरे ने अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया, ग्राम के पास में जाते ही चारों ओर से पुकार होने लगी, 'गांव में नहीं आना' २ पुनः भंडारीजी विचार में पड़ गये, मुनिश्री ने कहा, भंडारीजी ! यह झाड़ पा गया है, इसके पास बैठ जाओ, थोड़ी रात्रि चली जावे तो फिर ठहरने की तजबीज करना । बिकट अवस्था इसी का ही नाम है, भूखे प्यासे दोनों कैर का माड़ के पास बैठ गये, जब थाड़ी-सी रात्रि गई और सब लोग घरों में जाकर सो गये तब भंडारीजी ने एक नजदीक के घर में कुछ मिठाई और चार आने के पैसे लेकर गये। भीलनी को देकर पूछा, बाई इस ग्राम में किन लोगों के घर हैं ? उत्तर-भीलों के ! अच्छाबाई, हम Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४७४ मुसाफिर हैं, तुम्हारे घर के पास बाहर विश्राम लेना चाहते हैं । भीलनी ने कह दिया कि यहाँ नहों, पर यह बाड़ा है इसमें ठहर जाओ, पर प्रातः जल्दी ही चले जाना नहीं तो हमारी और तुम्हारी बड़ी भारी खराबी होगी-भंडारीजी ने आकर कहा, चलो रात्रि में ठहरने की तजबीज कर आया हूँ, बस दोनों गये तो वहाँ एक गायों का बाड़ा था जहाँ इतनी गंदगी थी कि एक मिनट भर भी नहीं ठहर सके, पर क्या करें; मूल्य समय का ही है, रात्रि वहाँ ही निकाली। सुबह उठ कर भीलनी को कहा कि लो, ये चार आने और हमको मार्ग बतला दो भीलनी ने कहा चार आना क्या पर चार रुपैया भी देवो तो मैं नहीं चल सकती हूँ, तुम चढ़ जाओ । इस पहाड़ पर से जाओगे तो आगे का ग्राम तीन कोस है और रास्ते २ जाओगे तो पांच कोस होगा, बाबा ! चले जाओ . नहीं तो मुझे भी ठपका मिलेगा। _____भंडारीजी और मुनिजी वहाँ से रवाना हुए, पाँच कोस के रास्ते पर चले, किंतु कोस भी तो मेवाड़ के थे, जो १५ मील जितने दूर थे, चलते २ करीब ११ बजे गांव आया, पूछने पर मालूम हुआ कि यहाँ ६० घर हैं और वे सब भीलों के हैं, न नजदीक में पानी ही है। वहाँ भूखे प्यासों का जीव घबरा गया था पर चलने के सिवाय और उपाय ही क्या था ? चार कोस अर्थात् १२ मील दूर शांतिनाथजी की पाल ग्राम था, वहां सरावगियों के घर थे, एक रुपये में एक मज़दूर किया, भंडारीजी का वजन उसको दे दिया। वहां से ठीक १२ बजे रवाना हुए, एक तो भूख प्यास, दूसरे १५ मील चल कर आये, तीसरा ऊपर से ताप नीचे से पैरों का जलना एवं गर्मी के मारे प्राण जा रहे थे, Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ विकटावस्था की सीमा फिर भी पहाड़ का रास्ता, न मिले मनुष्य और न पाया पानी या छाया। जैसा हम कथानीक शास्त्रों में किसी महापुरुष के दुःख याने विकट अवस्था का व्याख्यान सुनते हैं और सुनने पर करुणा आजाती है, ठीक वही हालत मुनिश्री और भंडारीजी साहब की हुई थी । मुनिजी का पहिला मरणांत कष्ट दरा के पहाड़ का था, दूसरा आज का है, जब उस पहाड़ पर एक कोस गये तो दोनों के जीने की आशा छूट गई। फिर भी मजदूर होशियार था, भंडारीजी ने उसको पूछा कि कहीं पानी आता है, उसने, हाँ यह पानी आया, यह आया इस प्रकार प्राशा ही आशा में एक कोस और ले आया, पर अब तो प्राण जीव से अलग होने का समय नजदीक ही आ पहुँचा था, एक झाड़ आया तो भंडारीजी धका खाकर वहीं गिर पड़े और मुनिजी भी अचेत होकर वहां पड़ गये। साथ के आदमी ने उन दोनों की मृत्यु सी दशा देख कर पानी की सोध करने को गया; पहाड़ में खूब भटका पर पानी नहीं मिला, बिचारा भील भी घबरा गया, फिर दूसरी दफे भील ने हिम्मत कर पानी की तलाश की; भाग्यवश नजदीक ही एक खाड़ी में पानी दीख पड़ा और उस पर एक झाड़ की छाया भी थी। आदमी भंडारीजी के पास आया, और कहा की सेठजी पानी नजदीक हो है भंडारीजी सावधान हुए और हिम्मत करके उठे और पानी का घड़ा भर लिये और अपने पास शक्कर थी उसमें से करीब १ सेरशक्कर डाली तथा पचास नींब भी उसमें निचोड़ दिये, जब कुछ देर हो गई तो मुनिश्री को आमन्त्रित किया; दो तृपणो पानी पीने पर आपको थोड़ी बहुत तृप्ति हुई, बाद में भंडा-: Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . आदर्श ज्ञान - द्वितीय खण्ड ४७६ जी ने भी उस पानी को पिया, थोड़ा आदमी को भी पिलाया; इस हालत में जीव को कुछ तसल्ली हुई, वहां एक घंटे ठहरे । मुनिश्री सुबह के भूखे प्यासे थे भंडारीजी ने कहा कि अभी दो कोस ग्राम दूर है जाने में दो घंटा लग जायगा, वहां जाकर रसोई बनानी हैं हिम्मत कर चलिये । बस वहां से सब वाने हुए पर मुनिजी के पैर फूट २ कर रक्त बह रहा था । अतः आपने कहा भंडारीजी आप और आदमी आगे चलिये मैं धीरे धीरे जाऊंगा । यही कारण था कि भंडारीजी और श्रादमी श्रागे चले और पिच्छे मुनिजी धीरे २ पहाड़ी रास्ते से आ रहे थे पर दुर्देव के कोप से पीछे मुनिश्री रास्ता भूल कर पहाड़ में भटकने लगे उस निर्जन पहाड़ में न मिला कोई भी और न मिला ग्राम का रास्ता, भटक २ कर थक गये और इधर दिन भी बहुत " कम रह गया । भंडारीजी ग्राम के पास गये एक झाड़ सी नदी में पानी चल रहा था वहां डेरा डाल थोड़ा रहने पर भी मुनिजी न आये वहां एक घुड़सवार आया उसको एक रुपया देकर मुनिजी को शोधने के लिये भेजा, पर वह गया रास्ते २ मुनिजी भटक रहे थे पहाड़ में अतः सवार वापिस आकर कहा कि यहां कोस भर भूमि में कोई आदमी को सूरत ही नहीं दिखती है इसको सुनकर भंडारीजी के होश उड़ गये, आदमी को वहां बैठा कर आप खुद तथा घुड़सवार फिर दुबारा मुनिजी की शोध में गये । इधर देखा जाय तो कुछ घंटा भर रात्रि गई होगी कि मुनिजी एकले ग्राम के पास आ निकले । श्रादमी बैठा था पूछने पर मालूम हुआ कि भंडारीजी आपके सामने गये हैं । के पास ही छोटी रसोई बनाई दिन Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४७७ विहार में मरणान्त कष्ट मुनिजीवहां ठहर गये। करीब पहर रात्रि गयी होगी कि भंडारीजी निराश होकर ग्राम के पास आए और मुनिजी को बैठा देखा तब उनके जीव को संतोष हुआ । उस दिन की विपत्तावस्था एक जीव की बाजी लगाने की ही थी फिर भी समय निकल गया। मुनिश्री एवं भंडारीजी दोनों थक गये थे एवं मरणान्त कष्ट से मुक्त हुए थे आपस की बातें की और वह बनाई हुई रसोई आदमियों को खिला दी कारण मुनिश्री के सदृश भंडारीजी के भी रात्रि में अन्न जल के त्याग अर्थात् चौवीहार था। रात्रि समय नाई को बुला कर भंडारीजी ने तेल की मालिश करवाई तथा मुनिश्री की भी व्यावच्च को और क्रिया काण्ड कर वह रात्रि उसी झाड़ के नीचे व्यतीत की । जहां ठहरें वहां एक बाबाजी का मठ था सुबह बाबाजी से जाकर भंडारीजी मिले । बाबाजी इतने सज्जन और मिलनसार थे कि भंडारीजी की बात सुन कर वे अपने मठ में ले गये और इस प्रकार का स्वागत किया कि शायद ही ऐसा कोई खास सम्बन्धी भी कर सकता हो बस दूसरे दिन वहां बाबाजी के मठ में रह गये और पिछले दिन का थकेला वहां उतारा और पास में दिगम्बरों के घर और एक बड़ा मन्दिर था जिसका दर्शन भी किया। ___ तीसरे दिन विहार कर ईडर आये, फिर तो था ही क्या ? यहां सब प्रकार से श्रानन्द था एवं श्रावकों के बहुत से घर थे, उस दिन तो वहीं ठहरे, दूसरे दिन किल्ले के मन्दिर के दर्शन करने को गये । मन्दिर बड़ा ही विशाल था, आसपास में पहाड़ के अन्दर बहुत सी गुफायें थीं, जिसको देख मुनिश्री का तो वहीं ठहरने का विचार हो गया और कहा कि ध्यान करने के लिए तो Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड ४७८ यही स्थान सुरम्य है, किन्तु एक तो गुरु महाराज से मिलना था, दूसरे सिद्ध गिरी की यात्रा करनी थी; ३ दिन ठहर कर आपने बिहार कर दिया। ७३ अामनगर में एक बुट्ठी श्राविका ! आप ईडर से बिहार कर क्रमशः आमनगर पधारे, भँडारीजी आपके साथ ही थे । श्रावक की आज्ञा से आप एक धर्मशाला में ठहर गये, थोड़ी देर के बाद एक बुढ़िया आई और उसने कहाः बुढी०-तमें कौन छो ? भँडारीo-आ एक साधु छ। बुढी०-साधु होय तो कापड़ पीला केम नथी ? भँडारी–पीला कापड़ आप नथी राखता । बुढी०-त्यारे साधु शा ना ? मुनि० -बहिन अमारे पास रंग नथी । बुदि०-लो हूँ लावी आपु? मुनि-शुं तमारे पास रंग छे ? बुढि०-अरे अमारे पास न होय तो शुथयो बजार में बेचातो तो मले छे न ? मुनि०-वेचातो रंग अमारे खपतो नथी। बुढ़ि-त्यारे शुरंग घर में बनतो हशे ? मुनि०-बेहन घरना रंग थी रंगेला कापड़ वापरे तेश्रोज साधु यहवाय । बुढि०-त्यारे शु एटला बधा साधु घरना रंग थी कापड़ रगता हशे ? Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बुड़िया के प्रश्नों के उत्तर मुनि० - जे घरना रंग थी कापड़ रंगाय तेने ज साधु कहवाय; बीजा मूल्य ना रंग थी रंगवा मां साधुत्व नथी, आतो पोतानी . पेट भराइनु साधन छे । ४७९ बुढी० - कांइक समझी, अने कहवा लागी के घरनो रंग अने वेचातो बाजारनो रंग नो तमें शु अर्थ करो छो ? मुनि-घरनो रंग पटले श्रात्मानो वैराग्यरंग होय तो साधु कहवाय अने बजारनो मोल बेचाता रंगथी, कापड़ रंगवा अटेले रोटला माटे साधु कहवाई, पेटनी पूजा करवी । बुढी० -त्यारे शुं कापड़ रंगवा वाला साधु पेटना पुजारी छे ? मुनि० - हुँ ऐम नथी, कहतो जेने घरनो रंग होय पछे बेचाता रंग थी कापड़ रंगे या न रंगे तो पण खरा साधु कहवाय । बुढी० - तमे कापड़ रंगता नथी ओटले तमारे घरनो रंग छे, नो अर्थ तो एमज थयो के तमे खरा साधु हो । मुनि० - ना बहेन तमे भूल करो छे दधुं हतो के मे तो पहला थी कही मारे पास रंग नथी टले कापड़ रंगता नथी । बुढी० - तमें कई भणेला पण छो ? मुनि० - साधारण । बुढी० - श्री जंबुद्वीप फेटलो लंबो पहुलो छे ? मुनि०- एक लाख योजन नो । बुट्टो०- एनी परिधि केटलो छे ? -- मुनि० - सुनो बहीन ३१६२२७ योजन, तीनगाउ, एकसौ अठावीस धनुष्य, साडा तेरहअंगुल एक जों, एक जूँ, एक लीख अने पांच व्यवहारिया परमाणु जेटली । बुड्ढी० - जम्बुद्वीप मां शाश्वता पर्वत केटला है ? 10 Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४८० मुनि०-२६९ पर्वत शाश्वता छ । बुढी०-केवा केवा ? मुनि०-२०० कांचनगिरी, ३४ दीर्घवैताड़, ६ वर्षधर, ४ गजदंता, ४ वाटलावैताड़, ४ जमक समक चित्र विचित्र, १६ वखारा, पर्वत तथा १ मेरुगिरी, कुल २६९ पर्वत छ । बुड्डी०-जम्बुद्वीप मां द्रह केटला छे ? मुनि०-१६ द्रह छ । बुढी०-जम्बुद्वीप मां नदियां केटली छे ? मुनि०-१४५६०९० नदियां छ । बुढो-जम्बुद्वीप मां विजयात्रो केटली छे ? मुनि०-३२ छ। बुढी-खंड की विजय नो नाम अने क्यां छे ? मुनिः-महाविदेह क्षेत्र मा ३२ विजयाश्रो छे तेमां चौबीसमी सलीला विजय छ । बुढी–तमे कहो छो के साधारण ज्ञान आवड़े छे, पण तमे तो महाज्ञानी होय एम लागो छो, एटलो बधो कठस्थ ज्ञान । ___ भंडारी०-आ महाराज ने ४०० थोकड़ा आवे छे, अने घणा शास्त्र कण्ठस्थ करेला छे। बुदि-हाँ करता हशे त्यारेज अमारा प्रश्नों ना खडाखड़ उत्तर आपो दोधा, साहेब अत्र मास कल्प विराजो अने पछी चौमासो कर जो, तमने बहु लाभ था शे। मुनि०-नारे बहेन अमारे तो काले विहार करवानो छ। बुड्ढी-साधु थइ गया पछी एटली बधी दौड़ धूम शानी ? मुनि-अमरे गुरु महाराज ने पासे जउ छे, अने शत्रुञ्जय Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTTER ४८१ एक बुढ़िया प्रश्नों के उत्तर नी यात्रा करवी छे, एटला माटे तो अमे मारवाड़ थी आव्याछिये । बुढी-करजो यात्रा शत्रुञ्जय त्यांज छ । मुनि-अमे पहिला ढूंढिया हता यात्रा करी नथी अटले तीर्थ भेटवानी उमंग लागो छ, एटले सत्वर थी जवा ना। बुढ्ढी-शुतमे ढूँढिया हता? मुनि०-हाँ। बुढी-तो तमे आ बधो ज्ञान ढूंढिया मां रही भण्या छो ? मुनि०-हाँ, बहेन । बुड्डी-तो शुढिया मां पण एटलो ज्ञान होय छे ? मुनि०-ज्ञान नो कोई ए इजागे नथी लीधो, भणे तेनो ज्ञान । बुड्डी-त्यारे तमें ढिया धर्म केम छोडी आव्या ? मुनि०-ढियाओं नी श्रद्धा खोटी छे तेत्रों मूर्तिपूजा मानता नथी। ' बुड्ढी-अरे श्रा शुकहो छो मूर्तिपूजा नथी मानता त्यारे तेश्रो जैन तो पण मनुष्यत्व मां पण नथी। मुनि०-त्यारेज अमे मिथ्या पंथ ने छोड़ी निकल्या अने सिद्धाचलनी यात्रा जवा आज्या लिए । ____ बुढी-हाँ साहेब तमारो कहेवू साचुछे, लो टाइम थई गई छे, आहार पानी माटे पधारो, हूँ आपने साथे चालीने घर बतावी आपुं। मुनि:-शुतुमारे त्याँ श्रावक नथी ? - बुड्डी-श्रावक छे पण लागणी ओछ। छे एनो कारण अहीं साधु ठेरता नथी, कदी विहार करता आवे तो एक बे दिवस ठेरे छ । मुनि०-तमे अवसर देखो, हुँ तो गोचरी पाणी लइ आवीश । बुड्डी-पण. आ तमारे साथे बुढा ( डोसा) माणस छे ते रोटला क्या जमशे। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानी जरूरत भाई अमार रोटी करा पछे हाथ आदर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड ४८२ मुनि०-आ माणस नथी, पण भक्ति वाला श्रावक छ । बुढी-त्यारे अमारे त्यां, मोकलो । मुनि०-आ तो श्रावक जाणे के तमे जाणो, अमने बचमां पड़वानी जरूरत नथी। बुड्डी-चालो भाई अमारे त्या रोटला खाइलो । भंडारी-ना बहेन हुँ तो हाथे रोटी करी खाउं छु। बुड्डी-शु करवा छता अमारे श्रावक ना घर छे पछे हाथे रोटला श करवा करो छो। ____ बुढ़िया की मुनिश्री पर इतनी श्रद्धा हो गई कि दोपहर में आकर बहुत से प्रश्नोत्तर किये और ठहरने के लिये बहुत कोशिश की, किंतु जाना आवश्यक था, अतः उसकी इच्छा होने पर भी मुनिश्री ठहर नहीं सके। ७४-पाँतिज के श्रावकों के प्रश्नोत्तर ___ दूसरे दिन विहार कर प्रांतेज गये, यह क्षेत्र बुद्धिसागरसूरि का था प्रान्तेज में एक अति सुरम्य उपाश्रय भी था, पर उसमें प्रायः बुद्धिसागरजी व आपके शिष्य ही ठहरते थे, इस समय प्रांतेज में प्लेग का रोग चल रहा था अतः सब लोग ग्राम के बाहर पृथक् पृथक् मकान या मोंपड़ा बांध कर ठहरे हुए थे। जब कि मुनिश्री रास्ते से निकले तो आपके सफेद वस्त्र देख उन एकत्र हुए श्रावकों में से किसी एक ने कहा, 'गौरजी आव्या छ।' मुनिश्री ने सुना तो आप वहां ठहर गये और उन श्रावकों से कहने लगे कि, शुतमे गौरजी शब्दनो अर्थ जाणो छो।' श्रावक-गौरजी नो अर्थ एटले पतित थयेला साधु । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौरजी शब्दनो सच्चार्थ मुनि० - हुं व्यक्ति ने माटे नथी पूछतो, पण गौरजी शब्द नो अर्थ पूछूं छू । श्रावक - अमे नथी जाणता, अगर आप जाणो छो तो बताओ श्रमे पण सुशु ं । मुनि० - गौरजी यानि गुरु शब्द के अर्थ को ऐसी युक्ति से समझाया कि जिसको सुन कर एक दफे तो सब श्रावक चकित हो गये, बस उसी समय विनती की कि साहेब आप यहां विराजो और हमारे दुःखो के दिनों में कुछ उपदेश देकर हमारे सहायक बनिये । हम आपका बड़ा ही उपकार समझेंगे। बस, फिर तो देर ही क्या थी, उपाश्रय खोल दिया, साथ चल कर आहार पानी की सब योगवाइ करवा दी, भंडारीजी ने भी अपने हाथ से रसोई बना कर भोजन कर लिया । दोपहर को बहुत से आवक आये और आग्रहपूर्वक विनती की कि साहिब आप यहां एक मास ठहरो किन्तु इतना श्रवकाश न होने से दो दिन वहां ठहर कर उनको चार टाइम व्याख्यान सुनाया । वहां से विहार कर जब मुनि नरवाड़े आये तो भंडारीजी अहमदाबाद चले गये थे । नरवाड़ में अहमदाबाद के कई यात्री आये हुए थे, वहां उन्होंने रसोई बनाई, मुनिश्री को वहां देख . लेने पर भी उन्होंने श्राहार पानी के लिये आमन्त्रण नहीं किया आखिर उन लोगों ने भोजन करने को बैठने की भी तैयारी कर ली, वहां दूसरे स्थान आहार पानी का योग नहीं था । मुनिश्री ने उपवास के पच्चर कान कर लिए, बाद उन श्रावकों के पास जाकर पूछा: ४८३ * Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावश-ज्ञान-द्वितीय खण्ड मुनि०-भाई में कौन छो? श्रावक-अमे श्रावक छिए। मुनि०-क्यां प्रामना छो ? श्रावक-अहमदाबाद ना। मुनि०-वहीं शुकरवा आव्या छो ? श्रावक-यात्रा करवा आव्या छिए । मुनि०-गुंतमे कहो छो ते साचुछे के कल्पित ? श्रावक-कल्पित केम अमे सांचैकहीये छिए। मुनि०--पण तमें श्रावक छो कोना ? श्रावक-भगवान महावीर ना। मुनि०-महावीरना श्रावक एवा निर्दय हृदय वाला नथी होय ? श्रावक-शुअमे निर्दय लिए। मुनि०-बीजुशु। श्रावक-एटले । मुनि-शुतमे जाणता नथी के आ धर्मशाला मां एक साधु आव्या छे तेने माटे तमारी वन्दन तो रही, पण आहार पानी माटे पण एटली, बेदरकारी ? शुं यात्रार्थ आवेला श्रावकोना एवाज कर्तव्य होय छे ? श्रावक-समझी गया कि अपणी भूल जरूर थइ छे तो पण कहवा लाग्या कि साहिब अमे जाण्यो के घोला कपड़ा वाला कोई गोरजी हशे। ____ मुनि०-शु गौरजी ने आहार पानी आपवामों पण एटलो बधो पाप लागतो हशे कि तमे कुतरा ने टुकड़ा नाखो छो अने गौरजी माटे उपेक्षा करो छो । वीरना श्रावकों ना अावाज लक्षण होय छेन ? Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमदाबाद के धावक श्रावकः -- लज्जित थई गया, तथापि पूछवा लाग्या के साहेब तमे किया सिंघाड़ ना हो ? ४८५ मुनि० - सिंघाड़ा बधा सड़ी गया छे श्रमे लिए वीरना साधु । श्रावक० – पण तमारे दीक्षा गुरू कौन छे ? मुनि०- परम योगीराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज जो तमारे उजवाई नी धर्मशाला मां चौमासौ रही गयेला छे । श्रावक० - बहु भक्तिपूर्वक कहवा लाग्या के साहेब पधारो भात पानी नो लाभ श्रापो ? 1 मुनि० - श्रावको ! श्रमे तमने एटलो उपदेश आप्योते केवल भात पाणी माटे नथी श्राप्यो, पर तमारो कर्तव्य समझाव्यो छे कारण तमे जैन छो । गमे तेओ वेषधारी होय तो आहार पानी आपवा मां थोड़ी पण बेदरकारी नज होवी जोइए, शुं तमें वस्तुपाल तेजपाल नो चरित्र नथी सांभल्यो के ते एक पतित साधु ने प्रदक्षिणापूर्वक वंदन कीधी हती, अने ते साधु पोतानो पतित आचार छोड़ी, उम्र बिहारी बनी गयो हतो तो पछी आहार पानी आपवा मां शुरूं नुकसान छे । श्रावक० - चालो साहेब वक्त बहु थई गयो छे । मुनिः - तमारी भावना छे, एटले तमने लाभ थई गयो छे अमारे तो आज उपवास छे ते पण चौवीहार | श्रावक० - ना साहेब भात पाणी नो लाभ तो आपवो ज पड़शे । मुनि० - कहीदीर्धुने मारे चौवीहार उपवास छे । श्रावक० - आप क्या रे उपवास ना पञ्चरकाण किधा छे ! मुनि० -- हमणा तमारे पास आव्या पहला । श्रावक - अरे साहिब तो उपवास श्रमारे कारण श्रमारी ३१ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड ४८६ बेदरकारी ने लीधेज थयो छे, एटले अमे केवी रोते भोजन करिये । ___ मुनि०-गमे तेम हो, अमारे तो श्राज उपवास छे पण तमने एटलुज कहुँ छू के तमे गमे त्यां जाओ, पहिले साधुसाध्वीनी सार संभाल लीजो। - श्रावक-पश्चाताप करवा पछी तेश्रो भोजन किधु अने स्यार बाद मुनिश्री ने पास भाव्या, हवे क्यां पधारशो आपने साथ कोई माणस नथो ? ____ मुनि-अमे मारवाड़ थी श्री केसरियाजी नी यात्रा करी ने श्राव्या छीए जघड़ीये गुरु महाराज पासे जावना छाए अने पछी शत्रुञ्जयनी यात्रा करवी छ, अमारे साथे माणस नथी पण एक जोधपुरना श्रावक छे ते आजनी गाड़ी थी अहमदाबाद गया छे। ___ श्रावक-साहिब आप काले यहाँ ठेरो अमे पण रही जासु, काले पारणो करीने विहार करजो। . मुनि-पारणाने लीधे तुमने रहवु पड़े, आ प्रमाणे अमे रहवाने माटे तैयार नथी, सुबह विहारना भाव छ। श्रावक-अहमदाबाद आप क्याँ उतरसो। मुनि-अमारो त्या घर मठ के, उपासरो नथी, ज्याँ जगह मिलशे त्या विश्राम लइ लेसु। ___ श्रावक-फक्कड़ गुरुना शिष्य पण फक्कड़ज होय छ, साहिब आप अहमदाबाद में पहली आवेला छो ? कोई ने साथे जाण पैचाण छे? मुनि०-ना, पहली नथी आव्यो, जाण पैछाण के भगवान महावीर ने साथ । बीजु त्यां मारवाडियो ना ५०० घर छे, अने केटलाक तो अमारे संसार पक्ष ना संबंधी पण छे, पण जाण Page #574 --------------------------------------------------------------------------  Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर प्रवेश महोत्सव-अहमदाबाद आदर्श-ज्ञान Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ मुनिश्री का अहमदाबाद में पैछाण न होय तो अमारे लेवु देवु शुछे मन्दिरों ना दर्शन करी चाल्यो जावु छे, समज्या न श्रावको ? - श्रावक-पोताना मनमां अफसोस करवा लाग्या, अने आखिर ते रवाना थई अहमदाबाद चाल्या गया । ७५-मुनिश्री का अहमदाबाद में पापण भंडारीजी के अहमदाबाद जाने से फलौदी वालों, सालावास वालों, तथा केरू सेतरावावालों एवं सबको मालूम हुई कि मुनिश्री फल पधारेंगे, उन्होंने सब मारवाड़ी समाज को सूचना दे दी, और अगवानी के लिये बाजा गाजा वगैरह की बड़े जोश के साथ तैयारियां करने लगे, कारण फलौदं वाले तो आपके पूर्ण भक्त थे ही, सालावास वाले आपके सँसार पक्ष के सुसराल वाले ही थे, केरु वाले वह भी आपके नजदीक संबंधी थे । दूसरे मारवाड़ी समाज को मारवाड़ी साधु का यह सर्व प्रथम ही अवसर मिला था, अतः सबके दिल में उत्साह उमड़ उठा था। - प्रातःकाल होते ही सब लोगों ने अपने मारवाड़ी रिवाज के अनुसार श्राभूषण, वस्त्रादि से सजधज हो कर सैकडों नर-नारियों मुनिश्री के सामने बहुत दर तक चले गये। जब मुनिश्री के दर्शन हुये तो जयनाद से गगन गुंज उठा, फिर बाजे गाजे के साथ नगर प्रवेश किया तो जो नरवाड़ा में मिले थे वह गुजराती श्रावक अगवानी में आ सम्मिलित हुए । जब मुनिश्री सदर बाजार बड़ी सड़क पर आये तो कई गुजराती साधु आपकी अगवानी के जुलूस का ठाठ देख पूछने लगे कि 'या एकला साधु किया गच्छ एवं क्या थी श्राव्या छे अने क्या उपासरा में उत्तरसे इत्यादि ? Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श- ज्ञान-द्वितीय खण्ड ૪૮૮ आपके उतरने के लिये नागौरी सराय के पास एक मकान पहिले से ही मुक़रर्र कर रखा था, आप मन्दिरों के दर्शन करते हुए मकान पर आये और मंगलाचरण के बाद थोड़ा सा व्याख्यान दिया, केवल एक ही गाथा का उच्चारण किया जो : नय भंग पमाणेहिं, जो आया सब बपहिं । सम्मदड्डि उस नात्रो, भणिय वियरायेहिं ॥ १ ॥ इसका अर्थ आपने साधारण तौर पर किया जिसमें एक घंटा लग गया, गुर्जर श्रावक तो आपकी देशना सुन कर चकित हो गये । जो उनके लिये इस प्रकार नय निक्षेप प्रमाण स्याद्वाद से आत्मा का स्वरूप सुनना अपूर्व ही था पाँच सज्जनों की ओर से श्रीफलादि पाँच प्रभावना के साथ सभा विसर्जन हुई । तत्पश्चात् गोचरी पानी से निवृत होने पर कई मारवाड़ी और गुजराती श्रावक श्राये और व्याख्यान के लिये प्रार्थना की पर आपश्री ने फरमाया कि मैं तो अहमदाबाद के मन्दिरों के दर्शन करने को आया हूँ, और मेरे स्थिरता भी कम ही है । मन्दिरों के दर्शनों का समय भी सुबह का है और व्याख्यान का समय भी सुबह का होता है, अतः दोनों काम एक समय कैसे बन सकते हैं ? विशेषतया मारवाड़ी समाज ने जोर दे कर कहा कि यहाँ गुजरातियों का ही साम्राज्य है, न तो मारवाड़ी साधु यहाँ विशेष हैं और न आपके जैसा व्याख्यान हो होता है, अतः गुर्जरों को मालूम तो हो जावेगा कि मारवाड़ में भी ऐसे २ विद्वान साधु विद्यमान हैं, अतः आप हमारी प्रार्थना स्वीकार कर व्याख्यान तो कल से शुरू कर ही दें । मुनिश्री ने श्रावकों की आग्रहपूर्वक प्रार्थना को स्वीकार कर दूसरे दिन से ही व्याख्यान चालू कर दिया । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ अहमदाबाद साधु० यद्यपि अहमदाबाद के कई उपाश्रय एवं धर्मशाला में व्याख्यान बचता ही था किंतु वे वाड़ाबन्धी के थे, आपका व्याख्यान सब के लिये समान होने से परिषदा का इतना जमघट रहता था कि आखिर श्राप ठहरे उस स्थान को जगह के अभाव से छोड़ कर अन्य स्थान में व्याख्यान देना पड़ा; आपके व्याख्यान में अधिक तर द्रव्यानुयोग का विषय ही रहता था; भावना अधिकार में आप कथानीक संबंध भी इस प्रकार कहा करते थे कि दिन कितना ही क्यों न आ जावे किंतु उठने की इच्छा ही नहीं होती थी । आप को साधुओं से मिलने का तो इतना प्रेम था कि जहां साधु के लिए सुना, कि भंडारीजी को ले कर वहां चले ही जाते, और शास्त्रीय बातों की चर्चा करने में बड़ा ही रस आता था । (१) विद्याशाला में वयवृद्ध श्री सिद्धिविजयजी मेघविजयजी । ( २ ) ड़ेलों के उपाश्रय-पन्यास धर्मविजयजी महाराज आदि । ( ३ ) लवार की पोल मुंशी सिद्धिविजयजी महाराज आदि । (४) उजमबाई की धर्मशाला में मुनिललितविजयजी आदि । ( ५ ) लालभाई के वाड़ा में मुनिश्री कर्पूरविजयजी महाराज । (६.) बली के उपाश्रय में श्री बुद्धिसागरसूरिजी के साधु | ( ७ ) पांजरापोल के उपाश्रय में आचार्य नेमिसूरिजी के साधु । ( ८ ) भट्टी के उपाश्रय में पं० गुलाबविजयजी । (९) उजमबाईकी धर्मशाला में श्री केसरविजयजी आदि । (१०) सामड़ो की पोल में मुनि पूनमचन्दजी सागरचंदजी | ( ११ ) खरतरों की खिड़की में मुनिरत्नसागरजी । ( १२ ) देवासा के पहाड़ में मुक्तिविमलजी वगैरहः । (१३) शाहपुर के उपाश्रय में मुनि कनकविजयजी आदि । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ४९० और भी कई स्थानोंपर कई साधु थे, आप उन सब से मिले और कई प्रकार के प्रश्नोत्तर भी किए, अहमदाबाद की जैन समाज में यह बात सर्वत्र फैल गई कि एक मारवाड़ी साधु आया है, जो ढूँढ़ियों से निकल कर संवेगी हुआ वह जैन-शास्त्रों का बड़ा ही जानकार है । मुनिश्री जिन २ साधुत्रों से मिले वे सब उपाश्रय पुस्तक भंडार और पदवियों का लालच बतला कर अपनी २ ओर खेंचने का प्रयत्न करते थे, किन्तु आपने किसी को भी इन्कार नहीं किया तथा यही कहते रहे कि मैंने दीक्षा तो परम योगीराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज के पास ली है, अब रहना किस के पास, इसलिये सब साधुओं से भेंट कर रहा हूँ, जहां मेरा दिल स्थिर हो जावेगा वहां ही मैं ठहर जाऊंगा। इस प्रकार कहने से कोई निराश नहीं हुआ किन्तु सब आशा रखते थे । आप जितने साधुओं से मिले उनमें बहुत कम सधुत्रों को जैनशास्त्रों के अभ्यासी पाये और आचार विचार में भी जहां देखा वहां शिथिलता ही पाई गई, पूछने पर अपवाद का कारण बतलाते थे । एक दिन आप भटी की पोल के उपाश्रय में गये जहां गुलाबविजयजी पन्यास ठहरे हुए थे, श्राप आचार विचार में शिथिल थे परन्तु आपको शास्त्रों का अभ्यास अच्छा था, आप दोपहर में कई साधुओं को श्री भगवतीजी सूत्र की वाचना दिया करते थे, तथा कई श्रावक गण जो सूत्रों के प्रेमी और रुचि रखनेवाले थे वे भी वहां आया करते थे । श्राप जिस समय वहां पधारे तब १५ साधु और ५० श्रावक श्राविकाएं सूत्र सुन रहे थे, आप भी फेटा वन्दन करके बैठ गये । भगवती सूत्र का ३४वां शतक महाजुम्मों का अधिकार बंच रहा था । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९१ पन्यासगी से प्रश्नोत्तरः पन्यासजी-शुतमे भगवती सूत्र जोयो छे ? मुनिश्री-जी साहिब । पन्यासजी-केटली बार तमे भगवतीजी सूत्र बांच्यो छे ? मुनिश्री-सात बख्त बांच्यो छे । पन्यासजी-भगवतीजी सूत्र ना वर्ग केटला छे ? मुनिश्री---१९ वर्ग अने तेना १९० उदेशा छ। पन्यासजी-श्रा महाजुम्मा बचाय छे तमने समझ पड़ेछे ? मुनिश्री-जी हाँ खुड़िगजुम्मा, रासीजुम्मा, अने महाजुम्मा अमारे कण्ठस्थ करेला छे। .. पन्यासजी-गसी जुम्मा बोलो। मुनिश्री-विस्तार थी कही संभलाव्या। पन्यासजी-गजब तमें ज्ञान कण्ठस्थ कियो छ । भंडारीजी-४०० थोकड़ा आपका कण्ठस्थ याद हैं । पन्यासजी-अरे एटलो बधो ज्ञान तमे कौने पासे भण्या । मुनिश्री-ढूंढ़िया ने पासे। पन्यासजी-शुं ढूंढ़ियों मां पण शास्त्रनो एटलो बोध-ज्ञान छे? मुनिश्री-साहिब मारा ख्याल थी तो शास्त्र नो जेटलो ज्ञान कण्ठस्थ करवा में ढूंढ़िया मेहनत करे छे तेटली शायद ही संवेगी करता हशे । हूँ घणा संवेगी साधु ना दर्शन किधा छे पण शास्त्रो नो बोध ओछा नजर आवे छे । भले व्याकरण न्याय तर्क नो अभ्यास करता हशे पण ज्यां सुधी जैनागमों नो अभ्यास नयी त्यां सुधी चारित्र नी शुद्धता नज होय । पन्यासजी-पण ढूंढिया टीक वगैरह नथी मनता ? मुनिश्री-पण ए एटला पुरतीज के मूर्ति पजा विषयबाली Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान-द्वितीय खण्ड टीका ने नथी मानता शेष सर्व माने छे । पन्यासजी ——–त्यारे ढूँढिया भगवान ना चौरतो खराज न ? - . मुनिश्री - एटला माटे तो अमे ढूंढिकपण नो त्याग करीय छए । पन्यासजी-तमे सारूं कीघो, पण बधा ढूँढ़ियां एम भरणेछे ? मुनिश्री - ना, १०० साधुओं में केवल २ साधु थोकड़ा जाणेछे । पन्यासजी - तमारे ज्ञानाभ्यास सारो छे ? ४९२ पन्यासजी ने मुनिश्री की परीक्षा के लिये कई प्रश्न पूछे जिनके उत्तर आपने बिना किसी विलम्ब के दे दिये । तथा बाद में पुच्छयो के शु तमे गमा पण कण्ठस्थ किधा छे ? मुनिश्री - जी हाँ । पन्यास ०- -गमा ना विषय में केटलाक प्रश्न पूछया । मुनिश्री —- तेना पण उत्तर शीघ्रता थी आपी दीधा । --- पन्यास० - आप यहाँ केटला दहाड़ा रोकाशी ? मुनिश्री - हाल १५ दिवस ठहरवाना भाव छे । पन्यास ० — ठीक छे, तमे हमेशा दोपहरना यहाँ आव्या करो | मुनिश्री - श्रवानो तो समय मिलवा थी श्रावाय, आज तो केवल आप थी मिलवा माटेज आव्यो छु । पन्यासजी - खैर समय मिले तो जरूर श्रावजो । मुनिश्री - जी साहिब | मुनिश्री ने पन्यासजी को कई प्रश्न पुच्छे पर उस समय पन्यासजी उन प्रश्नों के उतर नहीं दे सकें और कहा कि हूँ आ प्रश्नों ने माटे विचार करीश तमे काले भावजो । एक दिन एक पोल के मंदिर में पूजा थी, टेलिया ( खबर देने वाला) फिर गया था, कितने ही मारवाड़ी भावकों ए Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ उपकेशगच्छ की प्राचीनता भंडारीजी के साथ आपश्री भी पूजा में पधारे कितने ही साधु वहां पहले से पूजा में बैठे हुए थे उनके पीछे जाकर आप भी बैठ गये; बाद ज्यों २ साधु आते गये त्यों २ पीछे बैठते गये। करीब ७५ साधु पूजा में आ गये जिनमें कई गाने वाले भी थे; जब साधुओं का इतना जमघट था तो फिर श्रावकों का तो कहना ही क्या था। बीच में मुनिश्री को बैठा हुआ देख कई साधु कहने लगे, 'तमे किया गच्छना छो। मुनि-अमे उपकेश गच्छ ना छए । साधु-उपकेश एटले ? मुनि-एक प्राचीन थी प्राचीन जेष्ट गच्छ एटले उपकेशगच्छ । साधु-ये केवो गच्छ अमे तो नाम शुधी नथी संभल्यो । मुनि-हमणाँ पूजा भणाय छे, पूजा समाप्त थइजा श्रेटले तमने समझावीश के उपकेश गच्छ शुछे। पूजा समाप्त होने के पश्चात् बहुत से साधु चारों ओर खड़े होकर मुनिश्री को पछनेलगे कि 'हीवे समझाओ उपकेशगच्छ कौनो गच्छ छे?" मुनि-तमे जो रोटला लाओ छो ते बदा श्रावक उपकेश गच्छ ना छ। साधु-ते केम ? मुनि-उपकेश गच्छ ना आचार्योंए श्रीमाल, पोरवाल अने ओसवाल जातियां बनाई, तेज जातियां आपनी सेवा करे छ । साधु-शुषाधी जातियों उपकेशगच्छ ना आचार्योए बना वीछे तो अम वताओं के ते प्राचार्यों ना शु नामो हता ? मुनि-आचार्य रत्नप्रभसूरि ने ओसवाल बनाया, आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमाल, पोरवाल बनाव्या । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४९४ साधु-केम पोरवाल हरिभद्रसूरि अने श्रीमाल उदयप्रभसूरि ने बनाव्या छ। तो तमे स्वयप्रभसूरि नो नाम केम बतायो छो ? मुनि-हरिभद्रसूरि कियारे थया ? साधु-वि० सं० ५८५ नो समय छ। (वि० सं० ११५) मुनि-शत्रुञ्जय नो उद्धार जावड़ पोरवाल ने क्यारे कराव्यो ? साधु-वि० सं० १०८ में । मुनि- त्यारे हरिभद्रसूरि थी पूर्वे पोरवाल हता खरा न ? साधु-हाँ आ प्रमाणे तो थावाज जोइये । इतने में लोहारनी पोलना मुनिश्री सिद्धिविजयजी मुंशी बीच मां ही बोली उठ्या; 'साधुओं तमने खबर नथी के उपकेश गच्छ सब गच्छों में जेष्ठ अने पूराणा गच्छ छे; रत्नप्रभसूरि पार्श्वनाथ ना संता निया हता; ओसा नगरी में ओसवाल तेओने ज बनाव्या छ । इत्यादि बहुत समझाया फिर समय थोड़ा रहने से सब साधु तथा मुनि अपने स्थान चले गये, किंतु प्रत्येक उपाश्रय में यह एक नई चर्चा ही छिड़ गई कि एक उपकेशगच्छना साधु यहाँ आव्या छ । ___ एक दिन मुनिश्री भंडारी जी को साथ ले कर लालभाई के बड़े मुनिश्री कपूरविजयजी के पास गये, आप बातें करते ही थे कि इतने में कई काठियावाड़ के नवयुवक श्रावक आये और उन्होंने अपनी दुःख गाथा मुनिश्री को सुनाई कि अब हमारी स्थिति ईसाई या आर्यसमाजी बनने को आ पहुँची है, फिर भी हम जैन धर्म छोड़ना नहीं चाहते हैं। मुनिश्री ने सेठ को बुला कर कहा, तुम्हारे मिलों में हजारों नौकर हैं, इन ११ जैनों को भी नौकरी दे धर्म से पतित होते हुओं की रक्षा करो। सेठजी ने मुनिश्री कर आज्ञा को शिरोधार्य कर उनको एक रुक्का लिख कर मिल में Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ अहमदाबाद के मंदिरों की चर्चा भेज दिये, मिल मेनेजर ने उनको तीन दिन रख बहाँ से छुट्टी दे दी और सेठजी को लिख दिया कि ये आदमी काम करने में योग्य नहीं हैं, इत्यादि । बस, वे काठियावाड़ी श्रावक वापिस मुनिश्री के पास आए, संयोगवश उस दिन भी आप मुनिश्री के पास गये थे। मुनिश्री ने सेठ को बुला कर कहा कि मैनेजर ने इन आदमियों को छुट्टी दे दी ? सेठ ने कहा, ये काम नहीं जानते हैं । मुनिश्री ने सेठ को इतना फटकारा कि तुम केवल नाम के ही जैन हो, यदि ये लोग मिल का काम जानते तो तुम्हारे यहाँ क्यों आते, बहुत मिले हैं, कहीं भी अपना निर्वाह कर लेते। जाओ इनको मिल का काम सिखात्रो और इनका उद्धार करो; मैं तो और भी कहता हूँ कि ऐसे धर्म से पतित होनेवाला स्वधर्मी पा जावे तो जैनेत्तरों की बजाय जैनों को ही नौकर रखना तुम तुम्हारा कर्तव्य समझो इत्यादि । सेठ ने उन जैनों को पुनः मिल में भेज दिये । मुनिश्री ने अहमदाबाद के मंदिरों की यात्रा कर अपने आप को अहोभाग्य समझा । भगवान् श्रीसीमंधर स्वामि के मंदिर में एक लकड़े का हाथों से बनाया हुआ झाड़ देखा तो भारत के प्राचीन शिल्पकला का गौरव आपके हृदव में उत्पन्न हो गया; क्योंकि झाड़ की शाखा शाखा पर नृत्य करती हुई पुतलियें हैं और उस झाड़ के एक चाबी है, वह चाबी देने पर सब पुतलियें नृत्य करने लग जाती हैं, मुख्यतः यह दृश्य देखने योग्य है। ____श्राप करीब एक मास तक अहमदाबाद में विराजे। सेठाणो गंगा बहिन को तो आपके व्याख्यान से इतना प्रेम हो गया कि बिना नागा हमेशा व्याख्यान सुनती थी, मनसुख भाई के वहां से Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ४९६ भी बहिनें व्याख्यान में पाया करती थीं, आपको कपड़ा, कांबली वगैरहः के लिये आमन्त्रण कर मकान पर ले गये, उनका भंडार देख कर आप चकित हो गये, वह कमरा केवल साधुओं के उपकरणों से ही सजा हुआ था आपको इतनी जरूरत तो नहीं थी तथापि सेठ साहिब का मन रखने को थोड़ा बहुत लाभ देकर आगये। ___ मुनिश्री अकेले थे, मारवाड़ियों के घर बहुत थे, तथापि एक दिन जवेरी वाड़ा में गुजरातियों के वहाँ गोचरी गये, एक घर में प्रवेश कर धर्म लाभ दिया तो बहिन बोली:-- बहिन-तमें किया गच्छ ना छो अने क्यां डतरिया छ ? मुनि-तमें किया गच्छबालो ने रोटली आपो छो, तथा कियां उतरे तेने भात वेहरावो छो ? बहिन-ना साहिब, हुँ तो अमथा पूछीयो लो वेहरो। मुनि-ना बहिन, यदि तमारे नियम होय के अमे अमुक गच्छ वाला तया अमुक ठिकाने उतरेला ने ज रोटली आपिये छे तो अमे तमारो व्रत तोड़वा माटे नथी आव्या; कहो दो तमे क्या गच्छ वाला ने रोटली आपो छो, जो तमारा नियम में अमारा गच्छ नो नाम हशे तो रोटली लइस नहीं तो त मारो व्रत भंग करावीश नहीं । बहिन-अरे साहिब अमारी भूल थई छे तमे वेहरो रोटली। ___मुनि-बहिन अमे श्रावक ने तारवा निकल्या छ न कि कोई ना ब्रत भंगावा, एटले तमे कही दो, तमे क्या गच्छवाला ने रोटली आपो छो? इतने में तो उस बहिन का पति आ गया जो हमेशा मुनिश्री का व्याख्यान सुनता था, उसने अन्दर से मिष्ठान्न का डब्बा लेकर आमन्त्रणा की, साहिब बेहरे । मुनिश्री ने श्राविकानी की Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९७ गुजरात के साधुओं की वाटाबंदी संकुचितता बतलाकर उदारता का उपदेश दिया, फिर श्रावक के आग्रह से यथा खप आधार लिया क्योंकि जब तक आप शत्रुब्जय की यात्रा न कर पावे तब तक कई विगइ का त्याग कर रखा था अतः मिष्ठान्न का तो आपके त्याग ही था और कहा बहिन ! इस प्रकार कहना श्रावक का कर्तव्य नहीं है। कोई भी गच्छ का साधु क्यों न हो, तुम गृहस्थों का घर सब के लिये खुला है। __दूसरे देशों के बजाय गुजरात में बाड़ बन्धी अधिक है; एक दूसरे के उपाश्रय में जाकर व्याख्यान नहीं सुनते; एक माने हुए साधु के अतरिक्त कोई साधु आवे तो उन भावों से आहार पानी नहीं देते हैं. इसका कारण श्रावकों का अपराध नहीं है, अपितु मुनियों का अधिक ठहरना ही है और अधिक परिचय से औरतें उनके वाडा में बंध जाती हैं और वे इतनी विश्वास अंध बन जाती हैं कि अपने माने हुए साधु के अतिरिक्त अन्य कोई उनको साधु ही मालूम नहीं होता है, अस्तु । तीवरी वालों की ओर से जो 'सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली भाव' नगर विद्याविजय प्रेस में छपती थी, उसकी १००० प्रतिएं छप कर तैयार हो गई जिसका प्रचार भी सर्वत्र होने लगा और कई लोग अपना हट एवं भ्रम को छोड पुनः मूर्ति के उपासक बन गये । अचलदासजी बागरेचा सेलावास वाले ने मुनिश्री को अर्ज करी कि बीसलपुर का पत्र आया है, हमारे राजकुंवरबाई का देहान्त हो गया लिखा है । मुनिश्री ने कहा कि नाशमान शरीर का यही धर्म है और काल की कुटिल गति का यह स्वभाव है, दुनियां में कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है इत्यादि । आप श्रीमान ने अपने मन में इस अनित्य संसार का स्वरूप Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ४९८ विचारते हुए जाना कि यदि मैं स्त्री के मोहवश संसार में रह गया होता तो आज तो वह मुझे छाड़कर चली ही जाती । वीतराग का कथन सत्य है कि इस संसार में कोई किसी का नहीं है, अतः आत्म कल्याण करना ही अपना है अर्थात् आपके वैराग्य में और भी वृद्धि हो गई। आपके साथ भंडारीजी चन्दनचंदजी थे, जोधपुर में आपके सबसे बड़े पुत्र चंचलचंदजी का देहान्त हो गया जिसके समाचार मुनिश्री को पदमचंदजी के पत्र द्वारा मिले । मुनिश्री ने भँडारीजी को उपदेश दिया कि हम को तो जघड़िया जाना है, आपके लिये सिद्धाचल नजदीक है, इधर ओलियां आगई हैं, आप सिद्धाचल जाकर ओलियां का आराधन करो । भंडारीजी ने कहा कि पहिले पत्र में चंचलचंद की बीमारी के समाचार थे, उसके पश्चात् पत्र नहीं आया है, मैं पत्र को राह देख रहा हूँ। मुनिश्री ने 'सँसार असार है और सर्वजीव कर्माधीन है' इस विषय का ऐसा उपदेश दिया कि भंड़ारी जी उसी दिन रवाना हो कर सिद्धाचलजी चले गये, बाद उनको शत्रुजंय में समाचार मिले, उस समय मुनिश्री का बड़ा भारी उपकार माना कि आर्तध्यान के बदले तीर्थ पर ओलियां करने का मुझे समय मिला | भँडारीजी एक आत्म कल्याणी पुरुष थे । मुनिश्री अहमदाबाद से विहार करने की तैयारी में थे इतने में मारवाड़ की ओर से पन्यासजी हर्षमुनिजी पधार गये, आपको सूरत जाना था; मुनिश्री को कहा कि तुमको जघड़िये जाना है तो चलो हमारे साथ में, हम भी जघड़िया होकर ही सूरत जावेंगे । पन्यासजी का मुनिश्री पर बड़ा ही धर्म प्रेम था, मुनिश्रा ने पन्यासजी के साथ ही अहमदाबाद से विहार कर दिया । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जघड़िया में गुरु महाराज के दर्शन अहमदाबाद से विहार कर जैतपुर होकर खेड़ा में श्राये, वहां पं० वीरविजयजी लामविजयजी के दर्शन किए, यहाँ के मन्दिर में एक लकड़ी का फाड़ बना हुआ है, शाखों पर कई नृत्य करती हुई पुतलियें हैं, जिन्हों के हाथ में कई प्रकार के वाजिंत्र भी हैं, झाड़ के एक ऐसी चाबी है कि चाबी देने से वे सब पुतलियें नृत्य करने लग जाती हैं और वाजिंत्र भी बजाया करती हैं। इस प्रकार की शिल्पकला देख कर विचार किया कि बिना यंत्र ( बिजली ) भी हमारे भारतीय विद्वान् इस प्रकार के शिल्पज्ञ थे कि ऐसे २ आचर्यात्पादकप दार्थ बना सकते थे । ८ खेड़ा से मातर गये, वहां मोहनविजय साधु धर्मशाला के ऊपर ठहरा हुआ था और नीचे उनकी साध्वियें ठहरी हुई थीं, अर्थात् उनके परस्पर में परिचय ऐसा प्रतीत होता था, मानो साधु साध्वियें शामिल ही ठहरे हुए हों। जिस मोहन विजय के साध्वियों और गृहस्थनियों के साथ कई बार बाजा बाज चुके थे, तद्यपि गुर्जर लोग इतने अन्ध विश्वासी हैं कि ऐसे पतित को भी साधु मानते हैं। मातर से संजित गये, वहां मुनिश्री हंसविजयजी, पॅ० संपत - विजयनी आदि के दर्शन हुए; वहाँ दिन भर रहने से और हँस विजयजी महाराज की सेवा करने में बड़ा ही आनन्द आया, हँसविजयजी महाराज बड़े ही मिलनसार और अच्छे साधु थे, चारित्र की ओर आपका विशेष लक्ष था । पन्यास सम्पतविजय Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड जी ने मुनिश्री को अपने पास रहने के लिये बहुत कहा था, पर आपने कहा कि अभी तो मुझे बहुत से साधुओं से मिलना है । वहां से क्रमशः वटादरे गये, वहाँ प्लेग के कारण आचार्य विजयकमलसूरि, उपा० वीरविजयजी, दानविजयजी, लब्धिविजय जी वग़ैरह ग्राम के बाहर डेरा साइवान लगा कर ठहरे थे । वहां आचार्यश्री से मिले, इनमें उपा० वीरविजयजी अच्छे साधु थे, तथा दूसरे साधुत्रों में एक लब्धिविजयजी नामक सांधु बड़े ही शिष्य पिपासु थे; उसके साथ वार्तालाप होने से तथा मुनि श्री का ज्ञानाभ्यास एवं शास्त्रीय प्रश्न करने से लब्धिविजय को इतना लोभ हो आया कि जैसे बने वैसे मुनीजी को अपने पास रख लें, इतना ही नहीं पर आपका मनोरथ तो मुनिश्री को अपना शिष्य बनाने का ही था, पर मुनिजी भी ऐसे भोले भट्ट नहीं थे कि गुज रातियों के जाल में फंस जावे । ५०० दूसरे दिन विहार किया तो लब्धिविजयजी ने अपने शिष्य गंभीरविजय को मुनिश्री के साथ तीन कोस तक समझाने को भेजा । गंभीर विजयजी ने अपने गुरु की बहुत सी तारीफें करीं, कई लाख रुपयों की पुस्तकों का लोभ बतलाया और श्राचार्य पदवी का जादू भी डाला; किंतु आस्त्रिरकार वे अपने कार्य में सफल हो वापिस लौट गये । वहां से पेटलाद बोसरोद होते हुए गंभीरे गये, वहां नदी बहती थी, सब साधुओं को नाव में बैठना पड़ा, खैर क्रमशः पादरा होकर बड़ोदरे पहुँचे तथा वहां चार दिन की स्थिरता की। मारवाड़ी श्रावकों के आग्रह से एक दिन उपाश्रय में तथा दूसरे दिन पब्लिक में श्री का व्याख्यान हुआ । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जघड़िया तीर्थ पर मिलाफ बड़ोदरे से मकरपुर, इटाला, मीयागांव, करजण, पालेज, जिणोर, अंगालेसर होते हुए जघड़िया जाकर भगवान श्रादीश्वर जी के और गुरु महाराज श्री रत्नविजयजी के दर्शन किए जिससे बड़ा ही आनन्द हुआ; क्यों न हो ? दो वर्ष से गुरु महाराज के दर्शन हुए, मुनिश्री ने योगीराजश्री को अर्ज की कि आप कौसाने का नाम ले कर मुझे नवदीक्षित को अकेला छोड़ श्राये ? गुरुजी उत्तर दिया कि जीव तो सब अकेले ही हैं फिर यदि तुम्हारे जैसे को अकेला छोड़ दिया तो क्या हुआ ? मैंने फलौदी एवं जोधपुर के सब समाचार सुन लिये हैं, तुम एक ही सौ जितने हो और इस बात का मुझे पक्का विश्वास है कि तुम अकेले रहो तो भी कोई हर्ज नहीं है, इत्यादि । किर रात्रि में दो वर्ष की सब बातें हुई | गुरु महाराज ने भी कौसना की घटना से लगा कर जघड़िया तक का सब हाल कह सुनाया, अंत में मुनिश्री ने कहा, गुरु महाराज अब इस दास को कहीं दूर न रखें, कारण आप भी अकेले और मैं भी अकेला रहूँ, इसमें अच्छा नहीं मालूम होता है । गुरुजी - कहा तुम्हारा यह कहना सत्य है । पन्यासजी और योगीराज के भी आपस में मिलाप होने से बड़ा ही आनंद श्राया; हम पहिले कह चुके हैं कि पन्यासजी बड़े ही मिलनसार साधु थे । मान, बड़ाई, अहंपदतो आपके दिल के नजदीक तक भी नहीं फटकता था, इतना बड़ा साधु होने पर भी ऐसी सादगी, सरलता और लघुताई शायद ही किसी साधु में होगा ? ५०१ ३२ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ - नगर प्रवेश का शानदार महोत्सव । श्रीमान् मोहनलालजी महाराज का सूरत एवं गोपीपुर के श्रावकों पर बड़ा भारी उपकार था, पन्यासजी श्री हर्षमुनिजी आपके बड़े शिष्य थे और तपागच्छ की क्रिया करते थे, आपका सूरत में पुनः पधारना बहुत वर्षों बाद हुआ था, सूरत की जनता आपकी प्र तीक्षा कर रही थी । जब समाचार मिला कि पन्यासजी महाराज जघड़िये पधार गये हैं तो सूरत वालों का सूरत और जघड़िये के बीच तांता सा लग गया, कुछ मोटरों से तो अन्य रेल से, इस प्रकार सैंकड़ों आदमी जघड़िया में जमा हो गये । साथ में योगीराज के दर्शन करने पर तो उन लोगों के लिए सोना और सुगन्ध वाला लाभ मिल गया, गोपीपुरा के लोग पन्यासजी कि वीनती करते थे तब बड़ाचोरा वाले योगीराजश्री की मह पूर्वक प्रार्थना कर रहे थे । दोनों महात्माओं ने कहा, हम सूरत तो चलते ही हैं, वही आने के बाद जहां की स्पर्शना होगी, वहीं ठहर जावेंगे, पर बड़े चोटा वालों ने कहा कि महाराज सूरत में बहुत से पुरा और उपा श्रय हैं, अतः आप हमारी विनती स्वीकार कर लें तो हम को तस ल्ली हो जाय। इस पर पन्याव जी महाराज ने कहा कि हम तो गोपीपुरा के उपाश्रय ठहरेंगे और योगीराज या मुनिजी आपके बड़ेचोटे के उपाश्रय ठहर जायंगे, बस फिर तो था ही क्या ? श्रा ने वाले श्रावकों के मनोरथ सिद्ध हो गये मुनि मंडल दो दिन जघड़िये ठहरे, और सूरत के श्रावक दूसरे दिन सूरत जाकर अग Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ कतार ग्राम की यात्रा वानी की तैयारी में लग गये, उनके हृदय में इतना उत्साह था कि अपने कुटुम्बियों और संबंधियों को तार देकर बम्बई से बुलाये और आने वाले झवेरी, सुरतीलाला, लाखों रुपयों का आभूषण अगवानी के जूलूस के लिये ले आये । गोपीपुरा एवं बड़ाचोंटा के श्रावक समुदाय एकत्रित हो सम्मेला का चिट्ठा किया था,उस में २५ सम्मेला* वालों के नाम मंडवाये । ___पन्यासजी, योगीराज और सर्व साधु जघड़िया से विहार कर लीबेट, मांगरोल, कठोर होकर जब कतार ग्राम जो सूरत से तीन मील होता है, वहां आये तो देखा कि सूरत के सैंकड़ों श्रावक पहिले ही उपस्थित हो गये थे; उस दिन तो वहां की यात्रा की वह दिन था बैसाख शुक्ला १४ का शुभदिन । ___भंडारीजी --शत्रुञ्जयतीर्थ पर ओलियाँ एवं सेवा भक्ति कर के वहाँ र कतारग्राम आ कर सब मुनियों के दर्शन किया वहाँ कई मारवाड़ के लोग जिन्हों की दुकानें बंबई में थीं वे लोग भी दर्शनार्थ कत्तारग्राम आये हुए थे मुनिश्री ने उन लोगों को कहा कि भंडारोजी आपके स्वाधर्मी भाई हैं यदि आपका बंबई आना बन जाय तो स्वागत करने का ध्यान रखना । बस फिरतो था ही क्या चारों *सम्मेला का अर्थ यह है कि जिस में एक पुष्पादि एवं जरि के वस्त्रों से अलंकृत हुई मोटर जिसमें पांच २ दश २ लाख के आभूषण पटिने हुए सकुटुम्ब बैठ जाना और उसके आगे सोलह आदमियों का एक अंगरेज़ो बाजा और श्रृंगार किया हुआ कोतल हो उसको सम्मेला कहा जाता है और यह सब ख़र्चा एक धणी की ओर से होता है, इस प्रकार से २५ सम्मेला होना निश्चय हुभा था, जिसमें २५ सुसज्जित मोटरे, २५ कोतल, और ४०० बैंड बाजा में बजंत्री होते हैं । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड . ५०४ ओर से भंडारीजो को बंबई का आमन्त्रण होने लग गया ।* दूसरे दिन शुक्ल पूर्णिमा को सूरत नगर में प्रवेश करना था, सम्मेला के गाजा-बाजा, नक्कार-निशान और मोटरें 'कतार' ग्राम तक श्रा पहुंची थी । मोटरों को इस प्रकार अलंकृत की गई थी कि किसी मोटर में सुरती लालाओं के दास लाख का आभूषण तो कि सी के आठ लाख का, तो किसी के दो लाख का । सब मोटरें बच्चों से भरी थी; ऊपर से फुलवारी की रचना इस प्रकार की थो की जिसको देख कर लोग चकित हो जाते थे; अर्थात इन्द्र की सवारी का ही भान होता था। सुरत और कतारग्राम, तक रास्ते में मनुष्य ही मनुष्य दृष्टिगोचर होते थे; गाजे बाजे से गगन गूंज उठा था, पास २ में भी एक दूसरे की आवाज नहीं सुन सकता था, केवल ४०० बाजा तो २५ सम्मेले के ही थे; शेष बेन्ड और देशी बाजा तो अलग ही थे। वह समय भंडारीजी की क्सौटी का था कारण आपके ४ पुत्रों से दो तो पढ़ाई करते थे, दो बाइयां छोटी र्थी इन सबके विवाह भी करने थे बड़ा पुत्र का देहान्त हो गया था एक को गोद दे दिया था अतः सबका खर्च भंडारीजी पर ही था भंडारीजी इनने धर्मचुस्त और खरे भादमी थे कि इस विकटावस्था में भी अपने पथ से एक रात भी विचलित नहीं हुए इतनाही क्यों पर इस बात का कभी विचार भी नहीं किया पर अपने इष्ट नियम में अडिग रहे इसका ही फल है कि बंबई जा कर आप ने दलाली करनी शुरु की जिससे सब कार्य कर पाये और भाप अपना जीवन इतनी शांति और धर्म कार्यों में गुजारा कि जिसका अनुमोदन अच्छे २ मुमिराज ही करते रहे । अखिर सब साहबी में आप सं० १९९४ का आसोज शुद्ध ५ को स्वर्गवास सिधार गये आपके धार्मिक जीवन का विस्तार तो मैं आगे . चल कर यथा प्रसंग पर ही करूंगा। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ नगर प्रवेश का महोत्सव बादशाहो जमाने के जामा और सुरती पगड़ियों से सुसजित हुए सेठियेलोग मदोन्मत्त हस्ती की चाल चलते थे, और आसपास की जनता से वे तारों के परिवार से चन्द्र की भांति शो भायमान थे,बहिनों की पोशाक भी उसी भांति की थी क्योंकि 'वि लायत में पेरिस' और 'भारत में सूरत ।' सम्मेला हरिपुरा, छापरियासेरी, नवापुरा होता हुआ बड़ा चोटा में आया और श्रावकों ने पन्यासजी से अर्ज की कि योगी. राजश्री को यहां ठहरने की आज्ञा फरमा; किंतु गोपीपुरा वालों की इच्छा थी कि अभी तो सब मुनि साथ ही में गोपीपुरा पधारें, बाद वहां से योगीराज बड़े चोटे आ जावेंगे। पर इसमें बढ़ाचोटा वालों का उत्साह भंग होता देख पन्यासजी महाराज ने योगीराज श्री एवं मुनिश्री को आज्ञा देदी । वे बड़ेचोटा के उपाश्रय जहां स्वामी आत्मारामजी महाराज विराजमान हुए थे, वहीं पधार गये, देशना के अन्त में श्रीफलों को प्रभावना हुई। ___ पन्यासजी महाराज अपने शिष्य मंडल के साथ गोपीपुरा प. धारे, उस समय का ठाठ देख लोगों ने कह दिया कि ऐसा सम्मेला सुरत में पहिले शायद हुआ हो ? सम्मेले का दृश्य देखने को जैन तो क्या पर हजारों की संख्या में जैनेत्तर जनता एकत्र होगई थी, जिसकी गणना करना मुश्किल ही नहीं पर असंभव था । जब व्या ख्यान पीठ पर पन्यासजी महाराज पधारे तो एक इन्द्र की सभा की भांति मकान शोभित दीखने लगा । देशना के अन्त में उस रोज इतनी प्रभावनाएं हुई कि कई लोगों के पास तो लेने को बढ़ा वस्त्र भी नहीं था, तथा स्त्रियें अपनो साड़ियों में प्रभावना लेकर उसके वजन से मुश्किल से मकान पर पहुंची। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८-दुर्घटना के साथ पन्यासजी का स्वर्गवास सुरल गोपीपुरा के श्रावकों ने श्रीमान मोहनलालजी महाराज के उपदेश से धर्म कार्य साधन निमित्त एक उपाश्रय बनाया, वह तीन मंजिल वाला मकान था; उसमें प्राय: श्रीमोहनलालजी महाराज के साधु ही ठहरा करते थे । जब श्रीमोहनलालजी महाराज के साधु देविंद्रमुनि, न्याय मुनि पद्ममुनि श्रादि कई साधु वहां ठहरे हुए थे, उस समय कृपाचन्द्र सूरि बंबई से विहारकर बारडोली आये और उनका इरादा सुरत आने का था; लेकिन यह विचार करते थे कि सुरत जावेंगे तो ठहरेंगे कहाँ ? अतः श्रीमोहनलालजी महाराज के उपाश्रय पर धावा बोलने को एक मग्नसागर नामक साधु को सुरत भेजा, और उसने श्रीमोहनलालजी के उपाश्रय आकर साधुओं को कहा कि आपकी आज्ञा हो तो मैं नीचे के भाग में ठहर जाऊँ, जो कि बिलकुल खाली पड़ा है, मुझे केवल २, ३ दिन ठहर कर ही विहार करना है। पहिले तो साधुओं ने इन्कार कर दिया, किन्तु उसके लाचारी करने पर दया आगई, तथा उसको ठहरने के लिए नीचे का भाग दे दिया। यह समाचार कृपाचन्द्रसूरि को मिला, उन्होंने लिख दिया कि हम विहार कर शीघ्र ही आते हैं, तुम उपाश्रय को छोड़ना मत । बस, कृपाचन्द्र जी भी आकर उसी उपाश्रय में मनाई करते हुए भी ठहर गये । साधुओं ने बहुत कहा कि हमारी आज्ञा नहों है, किन्तु जिसको जबरदस्ती कब्जा करना,उनको आज्ञा की क्या परवाह है ? कृपाचन्द्रजी के साधुओं ने उपाश्रय के नीचे के भाग Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ दुर्घटना से पन्य० मृत्यु पर अधिकार किया सो तो किया ही, पर थोड़े दिनों के बाद ती सरे मंजिल के दरवाजा के ताला तोड़ कर उस पर भी अधिकार कर लिया। जब श्रीहर्षमुनिजी के पधारने की खबर हुई तब श्रावकों ने जाकर कृपाचन्द्र जी को बहुत कहा, परन्तु उन्होंने किसी की भी न सुन कर अपना अड्डा वहीं जमाये रखा। ___जब प० श्रीहर्षमुनिजी अच्छे ठाठ से आये, और पाटे पर बैठ कर देशना दी बाद में उनका मिजाज ( हालत ) खराब हो गया । दो साधुओं ने शरीर पकड़ कर पाटे से नीचे उतरे तो उनके मुँह से खून बहाना शुरू हो गया, एकदम श्रावक एकत्रित हुए, पन्यास जी ने कहा कि योगीराज व मुनिराज को बड़ाचोटा से जल्दी बु लाओ । बस, आदमी के आते ही हमारे योगीराज व मुनिराज तु रंत गोपोपुरा के उपाश्रय पहुँचे, इधर बहुत से श्रावक एवं डाक्टर भी आगये। डाक्टरों की समझ में नहीं आया कि बीमारी क्या है ? इस हालत में लोगों को कृपाचन्द्रजी पर वहम हुअा कि यह पहिला यति था, कहों इसने ही कुछ कर न दिया हो ? कई श्रावकों ने नीचे जाकर कृपाचन्द्रजी को कहा कि पन्यासजी बेहोश हो गये हैं, आप चल कर देखो कि क्या हुआ है ? कृपा चन्द्रजो ने अपने हृदय को इतना कठोर बना लिया कि उन्होंने ऊपर चलने से बिल्कुल इन्कार कर दिया, अतः लोगों का विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि इस यति ने ही कुछ दिया होगा। पन्यासजी की हालत देख कर हरेक को त्रास आती थी, यो गोराज व मुनिश्री ने पन्यासजी को सूत्रों की स्वाद्याय खूब सुनाई आलोचना करवाई और वह रात्रि तो ज्यों त्यों करके निकाली। किन्तु अभी तक किंचित मात्र भी आराम नहीं हुआ, इतना ही Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५०८ क्यों, पर हालत और भी अधिक खराब होती गई । एक २ घंटे के अन्तर में डाक्टर निगाह करते, तो भी उनके समझ में नहीं श्राती कि यह क्या बीमारी है । सुरत में कृपाचंद्रजी और उनके साधुओं के अतिरिक्त शायद ही ऐसा कोई जानकार आदमी बचाहो कि जिसने आकर पन्यासजी की वेदना के लिए हमदर्दी प्रकट नहीं की हो। ____आखरि दूसरे दिन पांच बजे पन्यासजी का हंसा राजा उड़ गया। बस इस बात की खबर पहुंचते ही शहर में हा-हा कार मच गया। शोक के काले बादल चारों ओर छा गये इस प्रकार से एक महात्मा का अकाल मृत्यु श्री संघ को तो क्या पर जैनेत्तर लोगों में बड़ा भारी दुःख उत्पन्न कर रहा था । कई लोग तोयहाँ तक भी कहने लग गये कि एक यति ने पन्यासजी को जान से मा रडाला ऐसे हत्यारा का मुख देखने में भी बज्रपाप लगता है इस को उपासरा से ही नहीं पर शहर से निकाल देना चाहिये वरना यह किसी और मनुष्य का भक्षण कर लेगा इत्यादि। __ भक्त लोगों ने रात्रि से ही विमान की सामग्री एकत्र कर विमान (मांडी) बनाना शुरू कर दिया वे लोग भक्ति की धून में इस प्रकार का विमान बनाया कि सूरत में ऐसा विमान पूर्व शायद ही बना हो । पन्यासजी के मृत्यु कलेवर को उस विमान में बैठा कर जब स्मशान की ओर चले तो उस समय इतने मनुष्यों की भीड़ थी कि जिन्हों की गिनती लगानी मुश्किल थी क्या जैन और क्या जैनेशर क्या हिन्दू और क्या मुसलमान हजारों की मेदनी स्मशान यात्रा के लिये एकत्र हो श्रीमान पन्यासजी महाराज की प्रशंसा से गगन गूंजा दिया और उन निर्दय दैत्य एवं काली Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०९ पाप का घड़ा कैसे फूटा करतून वाला यति की निर्दयता पर थु-थु कार कर रही थी। अगर तगर चन्दन नलयेर धूपादि सुगन्धी पदार्थों से पन्यासजी के कलेवर का अग्नी-संस्कार किया उस दिन सूरती ला. लाओं ने गायों को घास, गरीबों को अन्न वस्त्र तथा और भी पुन्य किया था मृत्यु विमान के पीछे सोना चांदी के फूल सच्चे मोती और रुपये वगैरह करीब ५०००) रुपयों की उछाल की थी। अग्नि-संस्कार कर लोग वापिस आये थे तो सब के चहरे पर उदासीनता थी जब योगिराजश्री के पास मंगलीक सुनने के लिये आये तो योगिराजश्री ने परम शान्तिमय उपदेश दिया कि संसार की सब वस्तुएं नाशमान हैं कोई भी कार्य किसी न किसी निमित्त कारण से बनता हैं पर समझदारों का यह कर्तव्य है कि अपना लाभ में निमित्त कारण और अपना नुक्सान में उपादान कारण को याद करना चाहिये कि जिससे न तो नया कर्म बन्धता है और न आत ध्यान ही रहता है इत्यादि बाद शांत सुनाई और सब लोग अपने २ स्थान गये। पन्यासजी महाराज के साधुओं को आश्वासन दे कर योगीराज तथा मुनिराज गोपीपुरा से बड़े चोटे के उपासरे पधार गये । ७६ पाप का घड़ा किस प्रकार फूटता है ? सुरत का नगरसेठ बाबलालाभाई जो बड़ाचौटा में रहता था, उसके वहाँ कृपाचंद्रजी के शिष्य जीतसागर ने एक पेटी पैक कर भेजी थी कि हम विहार करेंगे, यह पेटी आपके यहाँ रखी जाती है; हम मंगावें वहाँ भेज देना । नगर सेठ तो थे बम्ब ई, उनके मुनीम ने सोचा कि कृपाचंद्रजी के साथ न तो नगरसेठ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५१० का सम्बंध है और न मेरा हो, फिर यह पेटी यहाँ क्यों भेजी है ? इधर पन्यासजी की मृत्यु से नगर में यह अफवाह फैल गई थी कि पन्यासजी को इस कृपाचन्द्र यति ने ही मारा है इत्यादि । मुनीम ने दीर्घ दृष्टि से विचार कर दो मातबर आदमियों को बुलाकर उनके सामने उस पेटी को खोली तो उसमें क्या देखते हैं:-काला कपड़ा, काला डोरा; नींबू के अंदर चुभी हुई सुइयाँ, उड़दों के बाकुला वगैरह थे। इनको देखते ही उन लोगों ने निश्चय कर लिया कि इन यतियों ने ही पन्यांसजी के प्राण लिए हैं, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। ___ मुनीम ने सब से पहले एक तार तो नगरसेठ को बम्बई दिया कि तुम बंबई में ठहरो और सुस्त मत आवो, जब तक कि हमारा पत्र आपको न मिल जावे । मुनीम को वहम हो गया था कि इन हत्यारों ने यह कर्म नगरसेठ के लिए ही तो न किया है, अतः नगर सेठ का यहाँ न आना ही अच्छा है । फिर तो यह बात सब नगर में फैल गई । मजदूर लोग भी उपाश्रय की ओर मुँह कर कर कहने लगे कि इस हत्यारा यति ने एक साधु को मार डाला; गृहस्थ लोग तो काली तृपणी देख कर चौंक उठते थे, खरतरों के साधुओं को घर में प्राने तक नहीं देते थे। आखिर किसी एक गृहस्थ को कृपाचन्द्र ने एक डोरा यंत्र कर दिया था। और उसने एक चौका खोल दिया, उस चौके से कृपाचन्द्र के साधु दोनों समय अन्न जल ला कर वे साधु घावी लोग अपना निर्वाह करने लगे। बाद में उन्होंने पात्रा तृपणिये लाल रंग की रंगली, और वे गृहस्थों के वहां भी गौचरी जाने लगे, परन्तु लोग जान गये थे अतः उन्हें घरों में नहीं आने देते थे। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतियों की काली करतूतें इस बात को निश्चयात्मिक रूप से तो ज्ञानी ही कह सकते हैं, किन्तु सुरत में यह बात सर्वत्र सत्य मानी जा सकती थी, जिस के कि दो तीन कारण हम ऊपर लिख आये हैं । ५११ यति लोगों में कई लोग ऐसे गंदे मंत्र, जादू टोना करने वाले होते भी हैं, शायद या तो इधर पन्यासजी की आयुषको अवधि समाप्त हो गई हो, और उधर इनके परस्पर किसी पूर्व भव के सम्बन्ध से इस प्रकार का निमित्त कारण बन गया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं कि इस प्रकार का मामला बन जावे । फिर, निश्चय तो ज्ञानी ही जान सकते हैं, हमने तो जैसी उस समय उपस्थित रह कर इस घटना को देखी वैसी ही लिखी है । ८० योगोद्वाहन का गजब मूल्य पन्यासजी महाराज अंत समय योगीराज एवं मुनिश्री को कह गये थे कि क्षांतिमुनि तथा जयमुनि को भगवती के योग्य करवाने की मेरे दिल में थी । अब मेरा तो यह अंत समय ही है, पर तुम को मैं कहे जाता हूँ कि किसी भी आचार्य के पास तुम इन दोनों साधुओं को भगवती के योग्य करवा देना | आपके स्वर्गवास के पश्चात सूरत में नेमुभाई की बाड़ी में आचार्य विज य कमलसूरि तथा पंडित लाभविजय वग़ैरह आये थे; मुनिश्री उनसे मिले और योग की बात की तो वे मुँह फाड़े ही बैठे हुए थे । उन्होंने पुस्तक, पात्र, उपाश्रय के बहाने २०००) का महनाना बतलाया और कहा कि इतनी रक़म ( रुपये ) हो तो मैं योग करवा सकता हूँ। मुनिश्री ने कहा कि आप गजब करते ह यह तो एक दुकनदारी ही हो गई है, धर्म और उपकार कहाँ रहा Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५१२ है, पर फिर भी पन्यासजी का कहना था इसलिये आस्त्रिर दोनों मुनियों के योग करवाने को १०००) रुपये रोकड़ उपाश्रय से और श्रावकों से दिलवा कर उनका योग करवाया। कहा जाता है कि आचार्य विजय कमल सरि की मृत्यु के पश्चात् उनके पास दस हजार की रकम रोकड़ निकली, जिसमें से एक तो धमशाला बनो उसमें कुछ रकम लगाई गई। शेष की क्या. व्यवस्था की इसका अभी तक कुछ पता नहीं मिला है। ___ यशमुनि को आचार्य पदवी के योग करवाने के पन्द्रह सौ रुपये लगे तब कृपाचन्दजी को पदवी के तीन हजार रुपये दीराने पड़े । आचार्य विजय नेमि सूरि ने एक व्यभिचारी साधु मोहन विजय को आचार्य पद दिया जिसके कई दश हजार रुपये लिये बतलाते हैं और यह बात संभव भी हो सकती है कारण कि यदि ऐसा न होता तो एक प्रसिद्ध व्यभिचारी को आचार्य जैसा महान पद क्यों दिया जाता? ___योग और उपधान एक ज्ञान प्राप्ती के लिये शुभ क्रिया थी और शास्त्रों में भी इन क्रियाओं का विधान श्रत ज्ञान की प्राप्ती के लिए ही किया है पर वर्तमान में इन परिग्रह धारियों ने प्रस्तुत किया के नाम पर कल्पित विधान बनाकर परिग्रह का मुख्य साधन समझ रखा है गोड़वाड़ में एक हेतविजय नामक पन्यास था उस ने गोड़वाड़ की साध्वियों से बड़ी दीक्षा के योगों के बायने से कई तीस हजार रूपये एकत्र कर लिये थे पर वे स्वयं पुष्करणा ब्राह्मण होने के कारण उनकी विशेष रकम तो उनके प्रहस्थ भाई पुष्करणे ब्राह्मण ही खा गये । शेष बचित रकम घाणेराव के श्रावकों में जमा थी वे लोग हजम कर गये । इस प्रकार कई पन्यासों एवं Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१३ योगोद्वान को पोप लोला प्राचार्यों ने योग उपाधान के बायने से हजारों ही क्यों पर लाखों रूपये एकत्र कर अपने संयम को निलाम कर पतित एवं परिग्रहचारी बन गये । यह बात केवल एक मैं ही नहीं लिख रहा हूँ पर कई प्रसिद्ध अखबारों में अनेक बार छप चुकी है जिसका किसी ने उत्तर नहीं दिया कि हमको परिग्रहधारी क्यों लिखते हो या लिखने वालों के पास क्या साबुती है कारण वे थोड़ा ही चूं करते तो जनता प्रत्यक्ष प्रमाण बतलाने के लिये तैय्यार है । ___योगोद्वाहन में परिग्रह का संग्रह तो होता ही है पर साथ में साधुओं को आधाकर्मी आहारादि का भी दोष लगना है कारण भगवत्यादि के योगों में आदेश देकर साधुओं के लिये आहार बनवाना पड़ता है जिसको शास्त्रकारों ने अनन्त संसारी बतलाया है इत्यादि यदि योग और उपधान के विषय अधिक जानना हो वह हमारे चरित्र नायकजी का बनाया हुआ 'मेमर नाम' नामक पुस्तक मंगा कर अवश्य पढ़ें। ___स्वामी अत्मारामजी ढूंढ़ियापन्थ को छोड़ कर स्वामि बटेराय जी के पास छोटी दीक्षा ली थी पर प्रचलित प्रवृति के अनुसार योग करना था और यज्ञकों की भांति उस समय ऐसी बाड़ाबन्धी कर रखी थी कि बिना पन्यास बड़ी दीक्षा के योग करवा नहीं सके अतः स्वामि आत्मारामजी को डेलों के उपासरे पन्यास के पास जाना पड़ा पर पन्यास ऐसा निस्पृही साधु नहीं था कि खाली हाथें योग करवा दे । पन्यास ने आत्मारामजी को पूछा कि-- पन्यास-आप योग करना चाहते हो पर किसी श्रावक को लाये हो या नहीं ? श्रात्मारामजी क्यों श्रावक की क्या जरूरत है ? Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श- ज्ञान-द्वितीय खण्ड पन्याश – यहाँ कुछ द्रव्य की आवश्यक्ता पड़ेगी ? आत्मा साधु योग करते हैं और साधु योग करवाते हैं फिर द्रव्य की क्या जरूरत है ? दूसरा पन्यास – उपासरा में पुस्तक वगैरह मंगानी लिखानी और भी कई प्रकार का खर्चा है अतः रकम की जरूरत पड़ेगी । श्रात्मा० - यदि आपको किसी बात की जरूरत है तो श्रीसंघ स्वयं खर्च करेगा पर योग करवाने में यह सवाल क्या किया जाता है ? ५१४ पन्यास - योग करना है तो हम कहें उतना खर्चा तुमको हो दिलाना होगा । अत्मा० - मैं ऐसा योग करना नहीं चाहता हूँ और न ऐसा योग करना किसी शास्त्र में लिखा है । पन्यास - यदि तुम योग नहीं करोगे तो तुमारी बड़ी दीक्षा न होगी ? आत्मा० – कुछ भी हो मैं ऐसे पतित परिग्रहधारियों से योग करना किसी हालत में नही चाहता हूँ । पन्यास -योग नहीं करोगे तो क्या बड़ी दीक्षा भी नहीं | लोगे ? आत्मा० - पन्यासजी मैं केवल लकीर का फकीर ही नहीं हूँ यदि आप योग नहीं करावेंगे तो मैं भगवान् महावीर के मन्दिर में जा कर स्वयं योग कर लूंगा और गुरुमहाराज से बड़ी दीक्षा भी ले लूँगा । पन्यास - आत्मारामजी ! क्या तुम पूर्वाचार्यों की मर्यादा तोड़ने में ही अपना उदय समझते हो पर इस प्रकार की तुम्हारी Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१५ पन्यास की पाप लीला बढ़ी दीक्षा मानेगा कौन ? इस बात का भी विचार कर लेना ? आत्मा - किस पूर्वाचार्य ने यह लिखा है कि रूपये ले कर योग करवाना ? पन्यास -- योग करवाने का रूपये नहीं लिया जाता है पर पुस्तकादि के लिये जरूरत है अतः आपको कहा है यदि ऐसे अवसर पर ही काम नहीं निकले तो फिर कब निकलेगा ? O आत्मा - आपकी इच्छा हो तो योग करावें हमतो एक पैसा भी नहीं दीरावेंगे और इस बात का मैं जोरों से विरोध भी करूँगा । पन्यास — बिचारा पन्यास घबड़ा गया और कहा कि ठीक है तुम योग तो कर लो फिर तुम्हारी इच्छा हो सो करना । अत्मा - योग कर लिया पर वे समझ गये कि यह क्रिया बिलकुल कल्पित है । जिस समय आत्मारामजी ढूँढ़ियों से आये थे उस समय संवेगी साधु इतने शिथलाचारी बन गये थे कि उनके परिग्रह को देख स्वामिज) को अतिशय दुःख हुआ क्योंकि वे साधु वर्तमान के यतियों की भांति डेरा डाल कर एक ही स्थान में बैठ गये थे । श्रतः स्वामि श्रात्मारामजी ने अहमदाबाद में चतुर्मास कर ऐसा उपदेश दिया कि उन पासत्थों को बिहार कर अपने आप को संभा लना पड़ा । स्वामि आत्मारामजी महाराज ने योग एवं उपधान की कल्पि - त क्रिया को निर्मूल करने के लिये मुनिराज श्री कान्तिविजयजी हंस विजयजी को पंजाब में आप स्वयं बड़ी दीक्षा दे दी जो कि पन्यास बिना दी नहीं जाती थी इस पर भी उन पंजाबी शेर के सामने किसी पन्यास ने चूं तक भी नहीं किया । इसका अनुकरण रूप में आचार्य विजयधर्म सूरि और आचार्य विजयवल्लभ सूरि Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ५१६ ने बिना योग किये ही आचार्य पदवी लेली जैसे कि स्वामि श्रात्मा रामजी ने ली थी । अन्ध परम्परा के उपासकों में बाज भी उस योग और उपधान की क्रिया को स्थान मिल रहा है पर साथ में सुधारक लोगों का विरोध भी कम नहीं है वे डंका की चोट से कहते हैं कि ब यह पोपलीला अधिक समय नहीं चल सकेगी हाँ कनक और कामनी की अभिलाषा वाले साधु थोड़े दिन भले चलाले पर जमाना जागृति एवं सत्य का आ रहा है I ८१ वि० सं० १९७५ का चतुर्मासा सूरत में हमारे चरित्रनायकजी को इस वर्ष सुरत बड़े चौटे गुरु महाराज की सेवा में चतुर्मासा करने का शौभाग्य प्राप्त हुआ, यह ब हुत ही खुशी की बात है। योगीराज की इच्छा तो हमेशा निवृत्ति की ही रहती थी, फिर भी मुनिश्री का संयोग मिल गया । सब खटपट आपने मुनिश्री पर डाल दी, इतना ही क्यों पर व्याख्या न भी मुनिश्री को सौंप दिया था। आपने पहले तो श्री सुखविपा कसूत्र व्याख्यान में बांचा था, बाद में श्री संघ के अत्यन्त श्रा ग्रह से श्रीमान् छोटूभाई इच्छाचंद झवेरी के वहाँ रात्रि जागरण, वरघोड़ा एवं पूजा प्रभावना पूर्वक व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र बांचना प्रारम्भ किया । सेठ चुन्नीलाल, दूसरा चुन्नीलाल, नानचंद, फकीरचंद, बालूभाई, इच्छाचंद और सादड़ीवाला उदय राम वनाजी, किसनाजी, जोधाजी वगैरह : आपके पूर्णभक्त थे और अग्रसर भी थे । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र __इस वर्ष सुरत में बहुत से साधुओं के चतुर्मास थे । जैसे, नेमुभाई की बाड़ी में, मोहनलालजी के उपाश्रय में, हरीपुरा में, छापरिया सेरी में, संग्रामपुर में, इत्यादि सब उपाश्रयों में चतुर्मास था; किन्तु मुनिश्री के व्याख्यान ने तो सब उपासरों की परिषदा तोड़ डाली । कारण, श्रापका व्याख्यान इतना रसीला था, फिर श्रीभगवती सत्र का अतिशय प्रभाव और सूत्र बांच कर समझाने की छटा तदुपरान्त छन्द, कवित्त, और दृष्टान्त इतने सारगर्भित थे कि जिसने एक बार भी आपश्री का व्याख्यान सुन लिया तो उसको दूसरी बार पाना ही पड़ता था । __ जब आप श्री ने व्याख्यान में श्रीभगवतीसत्र बांचना प्रारम्भ किया तब मठवासी साधुओं ने यह प्रश्न उठाया कि "टूढ़िया थी आवेला साधु दीक्षा कौने पास लीधी, योग कौने पास कि या, अने भगवती ना योग किया सिवाय भगवती सत्र बांचे तो अनंत संसार वृद्धि नो कारण थाय छे, अने सूत्र बांचवा वाला अनंत संसारी छे त्यारे सुनवा वालों ने लाभ क्या थी थाय । एटले बड़ाचोटा ना उपासरे कोइ ने व्याख्यान संभलवा जागो नहीं इत्यादि निंदा के नांद फूकने लगे।" योगीराजश्री ने एक दिन व्याख्यान में बैठे कर स्वयं कहने लगे कि लोग ईर्षा के कारण जो कुछ कहते हैं वह सब मिथ्या है, यदि मेरे पास आ कर कहें तो मैं साफ़ जवाब देने को तैयार हूँ कि मुनिजी को मैंने छोटी एवं बड़ी दीक्षा दी है तथा श्री भगवती सूत्र के सच्चे योग जो करने चाहिये मुनिजी ने किये हैं और श्री भगवतीजी सूत्र वांचने का आपको बराबर अधिकार है इत्यादि । दूसरों के लिये मुझे कहने की यहाँ जरूरत तो नहीं थी पर कई ३३ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५१८ लोग अभी अन्धेरे में गोते खा रहे हैं अतः मुझे बतला देना चाहिये कि आजकल जो अयोग्य एवं अपठित साधु प्राधाकर्मी आहार खा कर केवल कल्पित योग करते हैं ऐसे योग न तो किसी शास्त्रों में लिखा है और न पूर्व जमाने में किसी ने किया भी था यदि कोई समझदार मेरे सामने आवे तो मैं सूत्रों के पाठ निकाल कर बतला दूं कि धन्नामुनि ने नौ मास में ग्यारा अंग तथा श्री बहलमुनि ने छः मास में ग्यारह अंगों का अभ्यास किया था इतना ही क्यों बल्कि काली महाकाली जयंति और देवानंदा जैसी हजारों साध्वियों ने एकादशांग सूत्रों को वांचा था जिसको आज के कलयुगिये लोगों ने योगद्वाहन करने की बिलकुल मनाई कर रखी है ऐसे तो अनेक उदाहरण जैन शास्त्रों में भरे पड़े हैं जो समय आने पर मैं तथा मुनिजी बतला देंगे इत्यादि । साथ में मैं यह भी सचित कर देना चाहता हूँ कि निंदक लोगों की बातें सुन कर कोई भी सज्जन वीर वाणी सुनने से वंचित न रहे कारण ऐसा सुअवसर शुभोदय से मिल गया है। ___योगिराजश्री के वचनों को सुन कर लोगों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और निर्णय की ओर लोगों की रुवी बढ़ती गई । और वे इस प्रकार और भी कई बातों का निर्णय कर के सत्य बातों को प्रहन करते रहे। मुनिश्री के व्याख्यान में इतनी परिषदा जमा होती थी कि इतना विशाल मकान होने पर भी बैठने को स्थान नहीं मिलता था, वहाँ के वृद्ध लोग कहा करते थे कि या तो आत्मारामजी महाराज के व्याख्यान में इतने आदमी आते थे या आपके व्याख्यान में आते हैं। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१९ हेमचन्द भाई का प्रश्न सुरत में एक हेमचंद भाई नामक अच्छा जानकार श्रावक था, और वह गोपीपुरा में रहता था पर किसी उपासरा के बंधन में नहीं था । तात्विक एवं द्रव्यानुयोग पर व्याख्यान होता तो वह कहीं भी जा कर व्याख्यान सुनने में आनंद मानता था, जीवचार, दंडक, संग्रहनी, क्षेत्र-समास और कर्म-प्रन्थ का उसने अच्छा अभ्यास किया था। उसने सुना कि बड़ाचोटे मारवाड़ी साधु श्री भगवती सूत्र अच्छी तरह से बांचते हैं अतः वह भी व्याख्यान में आया करता था, पर उसमें एक खूबी यह थी कि चाहे कोई भी साधु क्यों न हो, व्याख्यान में तर्क विवर्क किया करता था और इसी से साधारण साधु उनसे डरते रहते थे। ____ मुनिश्री के व्याख्यान में भी १-२ बार तर्क वितर्क का करना तो बुरा नहीं था पर भाई को अपने जानपने का गर्व था खैर हेमचंद की तक का तो आपने समाधान कर दिया, पर इस प्रकार तक करने से अन्य लोगों को व्याख्यान की अंतराय पड़ने से अरुचि कारक मालूम होता था और बहिनें तो इस पर नाराज ही रहती थीं । खैर इसका इलाज करने के लिए एक दिन मुनिश्री ने पूछाः मुनिश्री हेमचन्द भाई स्पर्श केटला ? हेमचन्द-स्पर्श आठ। मुनि:-काई विचारी ने कहो ? हेम०-ए मां शानो विचार, स्पर्श तो आठज होय छे । मुनि०-फरी थी विचार करो ? हेम०-श्राप शुं कहो छो ? मुनि०-विचार करीने कहवानो हुँ कहुँ छ। हेम-आमां शुं विचार करवानु छ, स्पर्श तो आठज होय Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-शान द्वितीय रूण्ड ५२० छे, विच मां कई सामान्य ज्ञान वाले भाई बहिन भी बोल उठे, साहिब स्पर्श तो आठज होय छे, ता आप बार २ हेमचन्द्र भाई ने शुकहो छो ? ___ मुनि०-भाईयो अने बहिनो, हुँ तमने नी पूछतो अने श्रा तमारो काम पण नथी के आवी चर्चा में तमे भाग लो; हुँ तो हेमचंद्र भाई ने पूछ छु । ___हेमचंद्र-गुस्सा में आवी ने कहवा लाग्या के साहिब के सो आप आठ स्पर्श स्वीकार करी लो, नहीं तो प्रायश्चित लो। मुनि०-आठ स्पर्श हुँ नथी स्वीकार करतो, अने नथी लेतो प्रायश्चित । तमे कांई विचारोने बोलो तो ठीक छे, समझे न ? हेमचंद्र कहवा लाग्या के शुं मारवाड़ी साधु एवा हटीला होय छे के सत्य ने पण स्वीकार नथी करता? ___मुनिः-हुँ हटीलो नथी पण तमने पूछू छ के स्पर्श केटला ? अने उत्तर हमणे नहीं तो आवती काले विचारी ने आपजो । हम०-त्यारे ठीक हमणे तो आप व्याख्यान वांचो। ___ सभा ना लोग चकित थाई गया, कोई ने लाग्यो के हेमचंद्र ठीक कहे छे, पण मारवाड़ी मुनि मानता नथी; त्यारे कोई कहवा लाग्या कि मारवाड़ी साधु बहु भणेला छे, एटले आ प्रश्न में कोइ रहस्य हशे, त्यारे कई कहवा लाग्या कि आ हेमचंद्र भाई बधा साधुओं ने पइमाल करे छे पण आ मारवाड़ी साधुज एनी रूबर लेशे खरा। इत्यादि जेने जे गमे ते वातो करे, पर महिला समाज तो मुनिश्री ना व्याख्यान थी एटली बधी मोहित थई गई के व्याख्यान में जराए विक्षेप तेओने गमतोज नथी । . व्याख्यान समाप्त थयो एटले हेमचंद्र भाई गया गुरु महा Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२१ प्रश्न का खुलासा राज ने पासे, अने पूछवा लाग्या कि साहिब स्पर्श केटला ? गुरु महाराज व्याख्यान नो बधो मामलो पासना कमरा में बैठा सुना लीधो हतो एटले तेश्रो श्री मुनिजी ने बोलावी कहवा लाग्या कि आ हेमचंद्र भाई ठीक कहे छे के स्पर्श आठ होय छे; तमे शु करवा ना पाड़ो छो अने तेनो कारण शु छे ? मुनि० - साहिबजी ! कोई साधारण अम्यासी यदि आठ स्पर्श कही दे तो हैं स्वीकार करवाने तैयार हूँ, पर हेमचंद्र भाई जेवा विद्वान आठ स्पर्श कहे तेने हुँ स्वीकार करतो नथी; अतः हेमचंद्र भाई हजु पण विचारी ने उत्तर आपे तो सारू । योगीराज : - लो तमे पोता नो निर्णय बतावी आपो । -- मुनि - हाँ हेमचन्द्र भाई कहे तो हूँ कही सकूँ हूँ । हेम०-हुँ हुँ कहूँ साहिब, अमारी मानता तो आठ स्पर्श मानवानी हती ते आपने कही दोघु । मुनि० – ठीक, तमे घेरे जाइ विचार करजो, नहीं तो पछे आवती काले व्याख्यान में हूँ कहीश । हेम ० - वन्दन करीने चाल्या गया, पण ते खरोखर विचार में पड़ी गया; अने कर्म-ग्रंथ लइ ने जोवा लाग्या पर स्पर्श तो आठ ना आठज रह्या । तेजा बीजे दिवसे व्याख्यान थयो लोगो बहु जल्दी आव्या, ता हता के हेमचंद्र भाई ना प्रश्नोत्तर में कौनो कहवो साँचो छे । मुँह पत्ती का प्रतिलेखन के पश्चात फिर वही चर्चा शुरू हुई, श्राखिर मुनिश्री ने समझाया कि मूल स्पर्श तो शीत, उष्ण, रूक्ष और स्निग्ध एवं चार ही हैं, इन चारों के संयोग से ४ स्पर्श पैदा हुए हैं, पर वे असली स्पर्श नहीं हैं; हाँ बालजीवों को समझाने के Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ ओदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड लिये उपचरित नय से शास्त्रकारों ने आठ स्पर्श बतलाए हैं; इस पर हेमाद्र भाई ने मुनिश्री का बड़ा भारी उपकार माना, और कहा कि साहिब, हूँ तो एक अभ्यासी हुँ पण आ वात मोटा मोटा मुनिराज पण नहीं जाणता होय, आप सूक्ष्म दृष्टि थी सागे जाणपणो कीधो छ । ____ इससे श्रोतागण पर मुनिश्री का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा और हेमचन्द्र भाई ने भी व्याख्यान के बीच में तर्क वितर्क करना छोड़ कर रात्रि में हमेशा आ कर प्रश्नोत्तर किया करता था; व्याख्यान के प्रेमियों ने भी कहा कि 'पा मारवाड़ी साधु ठीक आव्या छे के व्याख्यान नो मार्ग निष्कंटक बनावी दी), ___ एक दिन हेमचन्द्र भाई, गुरू महाराज ने अर्ज की के आपना शिष्य श्रा मारवाड़ी साधु सारा विद्वान अने शास्त्रो ना जानकार छे अने व्याख्यान नी शैली एवम् तर्क-समाधान करवानी ढब पण सारी छे, पण साहिबजी तेमने व्याकरण नो ज्ञान भोलो होवाथी शब्द शुधी नथी, एटले आप तेमने थोडु व्याकरण नो अभ्यास करावो तो भविष्य में ये एक सारां मां सागे साधु निवड़ी सके । ___ योगीराज ने ते वख्तेज श्रावकों ने कही दीधु के एक सारो शास्त्रीहोय तो लाओ, एटले मुनिजी ने व्याकरण शुरू कराविये । इतना कहने पर क्या देरी थी, श्रीयुक्त मनसुखराम शास्त्री को बुला लाये और मुनिजी को गुरु महाराज ने आदेश देदिया कि सिवाय व्याख्यान और गौचरी के जितना समय बचे पंचायत न कर के आप व्याकरण का अभ्यास किया करो, जो आ तमारे माटे पंडित तैयार छ, व्याकरण नो अभ्यास करशो तो तमारा ज्ञाननी शोभा वधारे थाशे एटले व्याकरण नो ज्ञान अवश्य करो। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२३ व्याकरण का अभ्यास मुनिश्री ने गुरु वचन शिरोधार्य कर उसी दिन मुहूर्त कर दिया। पंडितजी ० - को मुनिजी आप शुं शुरू करशो ? मुनि० - जैसी आपकी इच्छा; किंतु मेरे पीछे व्याख्यान एवं गौचरी पानी आदि की मटें बहुत हैं, थोड़े समय में मैं जो श्र भ्यास कर सकूँ ऐसा शास्त्र प्रारम्भ करिये । पंडित - मेरे विचार से तो आप संस्कृत मार्गोपदेशिका शुरू करलें और उसके दो भाग चार मास में हो भी जावेंगे, तथा इनसे आपका काम भी निकल जावेगा। यदि आप आगे अभ्यास को बढ़ाओगे तो भी आपको बहुत अच्छी सुविधा रहेगी । मुनि० - गुरु महाराज को पूछा कि पंडितजी संस्कृतमार्गोपदेशिका के लिये कहते हैं । योगी० - हाँ, बहुत अच्छा है; फिलहाल तुम दो भाग कंठस्थ कर लो बाद योग मिलेगा तो दूसरा व्याकरण भी सुगम हो जावेगा । बस, मुनिश्री ने संस्कृतमार्गोपदेशिका का पढ़ना शुरू कर दिया, पर पढ़ाई का समय तो प्रातःकाल का था, उसमें तो आप को सुबह से १२ बजे तक तो अवकाश ही नहीं मिलता था, दोपहर को थके हुए कितनी पढ़ाई कर सके । मुनि - गुरू महाराज ! यदि आप कृपा कर व्याख्यान बांचा करें तो मैं दोनों भाग इसी चतुर्मासा में कण्ठस्थ कर लूँ । - योगी – मुनिजी व्याख्यान तो आपको ही बांचना पड़ेगा, कारण कि एक तो भगवती सूत्र के सत्र थोकड़ा तुम्हारे कण्ठस्थ हैं; अतः जिस प्रकार मूल पर तुम भगवती सूत्र बाँच कर समझाते हो, वैसे मैं नहीं समझा सकता हूँ; दूसरे परिषदा जैसी तुम्हारे से प्रसन्न है वैसी मेरे से नहीं होगी, कारण तुम सूत्र के Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५२४ अतिरिक्त छन्द, कवित्त, दृष्टांत वगैरह देते हो जिससे कि परिषदा बहुत खुश रहती है, अतः व्याख्यान तो तुमको ही बाँचना पड़ेगा, यदि तुम कहो तो गोचरी पानी मैं ला सकता हूँ। __ मुनि०-नहीं गुरू महाराज जनता श्रापके व्याख्यान से बहुत खुश है आप अपने ध्यान का समय न दे सकें यह बात दूसरी है और मेरी उपस्थिति में आप गौचरीपानी ला यह कैसे बन सकता है ? खैर मैं जितना अभ्यास होगा उतनाही करूँगा। अभ्यास से भी मैं आपके बचनों की आराधना अधिक कल्याण का हेतु समझता हूँ। । मुनिश्री के पीछे केवल व्याख्यान एवम् गोचरी का ही काम नहीं था, पर गुरु महाराज ने यह भी आज्ञा करदी थी कि तुमको ४०० थोकड़े आते हैं, इन सबको छपवा दो, वरना संवेगी समुदाय में थोक ड़ों का प्रचार कम होने से तुम भूल जाओगे। यह शास्त्रों का एक सार है, तुम्हारे अभ्युत्थान का मूल कारण है। तुम व्याकरण आदि नहीं पढ़े हुऐ होने पर भी लोगों में तुम्हारी पूरी धाक जम गई है कि मारवाड़ी साधु शास्त्रों का अच्छा जानकार है; अतः यहां द्रव्य-सहायक भी बहुत हैं, और प्रेस का संयोग भी अच्छा है, अतः सब थोकड़ें छपवा दें। यह भी आपके सिर पर एक जबरदस्त काम था, कारण थोकड़ा लिखना, प्रेस कापी तैयार करना, प्रफ संशोधन करना इत्यादि; इतना काम था कि जिसकी वजह से समय बहुत कम मिलता था, इतना ही क्यों पर कई लोगों के प्रश्न भाते थे, उनके उत्तर भी आपको ही लिखने पड़ते थे । तथापि मुनिजी एक पुरुषाथ एवम् परिश्रमी जीवी थे कि इतना काम होते हुए भी आपने व्याकरण पढ़ना शुरू कर दिया था। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ श्री सागरजा के साथ प्रश्नोत्तर मुनिश्री व्याख्यान में श्री भगवती सूत्र पहिले शतक का दुसरा उद्देशा बाँच रहे थे, उसमें असंयतिभविद्रव्यदेवादि चौदह बोलों का वर्णन चल रहा था, जिसकी व्याख्यान में आपने फरमाया कि असंयतिभविद्रव्यदेव मर कर देवताओं में जावे तो जघन्य भवनपति और उत्कृष्ट नौवी नौग्रीवेग तक जा सकता है और इसमें अभव्य जीव भी शामिल है। .. ____ श्रावक ने प्रश्न किया कि अभवी नौग्रीवेग तक जाता है, अतः वह ऐसी क्या क्रिया करता है कि इतना ऊँचा जासके ? मुनि०-अभव्य के भी चार नय की समकित होती है, नौवा पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक वह ज्ञान पढ़ता हैं, और चारित्रपद की आराधना करने से वह नवी नौग्रीवेग तक जाता है । इस बात को सुन कर सुरत का एक श्रावक बंबई गया, वहाँ सागरानंदसूरिजी का चतुर्मासा था, और आप भी श्रीभगवतीसूत्र १.२ ही बांच रहे थे। संयोम ऐसा बना कि सुरत का श्रावक मुनिश्री के पास जो व्याख्यान सुन के बंबई गया था, वही असंयतिभवीद्रव्यदेव का विषय सागरानंदसूरि के व्याख्यान में चलता था; उन्होंने कहा कि अभव्य जीव दीक्षितों की पूजा सत्कार देख कर स्वयं पूजित होने के श्राशय से दीक्षा लेता है और कष्ट क्रिया करने से नौग्रावेग तक जाता है; उसके समकित नहीं होती है, वह नौ तत्वों से मोक्ष तत्व को श्रद्धता भी नहीं है, इत्यादि । सुरत के श्रावक ने कहा कि महाराज मैंने सुरत के बड़ेचोटे Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५२६ में मारवाड़ी साधु के व्याख्यान में इस विषय को सुना है, उन्होंने कहा कि अभव्य जीव को चार नय की समकिन होती है, नौवा पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक ज्ञान पढ़ता है और चारित्रपद की आराधना से वह नौग्रीवेग तक जा सकता है, इत्यादि । इसके जवाब में सागरानंदसरि ने झट से कह दिया कि वह ढूंढ़ियों से पाया है और न टीकात्रों के शास्त्रों का अभ्यास ही किया है, वह बिचारा मारवाड़ी साधु क्या समझता है; भगवती सूत्र में । उसको गुरु गम्य भी नहीं है, पर लोग गाड़री प्रवाह होते हैं, जोऐसे अज्ञों के व्याख्यान को सुन कर खुश हो जाते हैं । सागरजी के व्याख्यान में एक मारवाड़ी बैठा था । सागरजी ने मारवाड़ और मुनिश्री का हल्के शब्दों द्वारा तिरस्कार किया वह उससे सहन नहीं हुआ, और उसने कहा कि महाराज ! ज्ञानसुंदरजी महाराज भी शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता हैं; उन्होंने भी तो कुछ कहा होगा वह ठीक सोच समझ के ही कहा होगा। सागरजी०-क्या सोच समझ के कहा, यह हमारे पास श्री भगवती और उसकी टीका तैयार है, तुम देख लो। ___ श्रावक०-मैं कोई शास्त्र थोड़े ही पढ़ा हुआ हूँ, यदि मुनिश्री ज्ञानसुंदरजी महाराज इस समय आपके रूबरू होते तो आपको माकुली जवाब देते ही। सागरजी०-अच्छा, तुम ज्ञानसुन्दरजी को पत्र लिख कर जवाब मंगवा लो। श्रावक-ठीक है, मैं लिख दूंगा-भंडारीजी ने अपने स्थान पर जा कर सब हाल पत्र द्वारा मुनिश्री को लिख दिया और संयोगवशात वह सुरत का श्रावक भी बंबई से पुनः सुरत आ गया और Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ सागरानन्द सूरि से प्रश्न सागरजी के व्याख्यान के सब समाचार कह सुनाये । इस पर मुनि श्री ने अभव्य जीवों के विषय में कुछ प्रश्न तैयार कर उसकी ए. क नकल तो भंडारीजी को भेजदी कि आप सागरजी के पास जा कर इन प्रश्नों का उत्तर लिखवा कर भिजवा देना, और एक नकल सुरत के श्रावक को दे दी कि तुम बंबई जाओ तो सागरजी से इन प्रश्नों का उत्तर लिखवा कर मुझे भेज देना । उन प्रश्नों का असली कागज मुनिश्री ने अपने पास रख लिया था जिसकी नकल यहां दे दी जाती है। (१) क्या दीक्षा लेने वाला अभव्य यह जानता है कि मैं अभव्य हूँ? . (२) क्या दीक्षा लेने वाला साधु यह जानता है कि जिस व्यक्ति को मैं दीक्षा देता हूँ, वह भव्य है या अभव्य ? (३) आपने स्वयं मोक्ष की अभिलाषा से दीक्षा ली है और नौ तत्व की सरधना रख कर प्ररूपना भी करते हैं तो आप भव्य हैं या अभव्य ? यदि आप शायद अभव्य ही हैं तो आपके मत अनुसार अभव्य भी दीक्षा ले कर आपकी भांति चारित्र पालें या प्ररूपना करें तो कर सकता है या नहीं ? कारण यह तो आप फरमाते ही हैं कि अभव्य के उपदेश से अनंत जीव मोक्ष चले गए हैं। (४) अभव्य जीव नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु का ज्ञान पढ़ता है जो उस ज्ञान के सामने आपका ज्ञान समुद्र में एक बूद जितना भी नहीं हैक्या वह अभव्य आपके जैसी प्ररूपना नहीं कर सकता है ? (५) शायद आप कहोगे कि अभव्य रूपना तो शुद्ध करता है पर उसकी श्रद्धना शुद्ध नहीं होती है, तो यह भी ठीक नही है, क्योंकि: Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान द्विताय खण्ड ५२८ ( क ) श्रद्धना से प्ररूपना भिन्न करता है, तो उसको माया का स्थान लगता है या नहीं ? (ख ) यदि मायाचारी कहा जावे तो चारित्र का आराधी हो ता है या विरोधी ? (ग) यदि विरोधी होता है तो वह प्रथम देवलोक से ऊपर जा सकता है या नहीं ? (घ ) यदि चारित्र का विरोधी प्रथम देवलोक से ऊपर नहीं जा सके तो फिर अभव्य जीव उत्कृष्ट नौग्रीवेग जाता है वह कि स आधार से ? (६) जब आप अभव्य के समकित चारित्रही नहीं मानते हो तो उसको मिथ्यादृष्टि कहना चाहिये, और मिथ्यादृष्टि वेषधारी की गति उस्कृष्ट पांचवें देवलोक से ऊपर नहीं है, फिर अभव्य नौप्रीवेग कैसे जा सकता है ? (७) अभव्य जीव पूजित होने की आशा एवं पौदगलिक सुखों की अभिलाषा से ही दीक्षा लेता हो तो वह नौग्रीवेग तक कैसे जा सकता है ? (८) यदि आप कहो कि क्रिया कष्ट के जोर से अभव्य नौग्रीवेग तक जाता है तो मिथ्यात्वी मास मास खामण का पारणा करने वाले पांचवा देवलोक से ऊपर क्यों नहीं जाता है ? (९) यदि आप कहोगे कि अभव्य जीवों के व्यवहार ज्ञान दशन चारित्र होता है, जिससे नौग्रीवेग जाता है ? (१०) यदि अभव्य के व्यवहार समकितादि हैं तो सात नय से कितनी नय की हैं ? यदि आप चार नय की समकित मानते हो तो ऋजुसूत्र नय परिणाम प्राही है, अतः अभव्य के Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२९ सागगनन्द सूरि से प्रश्न परिणामों की अपेक्षा ज्ञान दर्शन चारित्र है और उसके बल से हो वह नौग्रीवेग जाता है । इस हालत में आपका एकान्त कहना मिथ्यासिद्ध होगा कि भव्य केवल दूसरों की पूजा देख कर पूज नीय होने के लिए ही दीक्षा लेता है ? ( ११ ) आपने बंबई के व्याख्यान में फरमाया था कि अभ व्य जीव दूसरों को पूजा देख पूज्यनीय होने की अभिलाषा से दीक्षा लेता है, क्या यह कारण भव्यों के लिए नहीं बनता है ? यदि बनता है तो फिर एक अभव्य के लिए ही आपका आग्रह क्यों है ? हाँ कई भव्य इस प्रकार पूज्यनीय होने की आशा से दीक्षा लेते होंगे पर इस प्रकार कई भव्य भी दीक्षा लेते हैं ? किंतु मेरा प्रश्न तो भव्य जीव उत्कृष्ट नौमी वेग जाने वाले के लिए ही है । ( १२ ) शास्त्रकारों की मान्यता और मेरी श्रद्धा है कि उत्कृष्ट भौग्रीवेग जाने वाले अभव्य के चारनय की समकित होती है और वह व्यवहार चारित्र का श्राराधिक होता है । यदि आप को इस विषय में शंका हो तो कृपा कर लिखावें, ताकि मैं आपकी शंका का ठोक समाधान करने का प्रयत्न करूँगा । वि० सं० १९७५ आपका दर्शनाभिलाषी 'ज्ञानसुन्दर' श्रावण शुद्ध २ उपरोक्त प्रश्नों की एक नक्कल तो सुरत वाले श्रावक के द्वारा और दूसरी नकल भंडारीजी द्वारा सागरजी के पास पहुँचाई गई और उन प्रश्नों को सागरजी ने ध्यानपूर्वक पढ़ भी लिए, तथा उन प्रश्नों को पढ़ कर आप बड़े ही चक्र में पड़ गये; इतना ही क्यों पर आपका गर्व गलकर उसका पानी भी होने लगा । भंडारी जी ने कहा कि मुनिश्री ने इन प्रश्नों का उत्तर मंगवाया है; जब Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५३० आपको समय मिले उत्तर लिख कर मुझे दे दीजिए ताकि मैं मुनिश्री की सेवा में भेज दूंगा। ___सागरजी ने कहा कि जब ये हँढ़ियों से निकले थे उस समय भी एक पत्र में इनके प्रश्न आये थे। मैंने उत्तर नहीं दिया; अतः इन प्रश्नों के भी उत्तर लिखने की आवश्यक्ता नहीं, यदि उनको प्रश्नों का उत्तर लेना है तो रूबरू आ कर ले जावें । . भंडारीजी -आप केवल मुनिश्री के प्रश्नों का उत्तर ही नहीं लिखते हो, या सब के लिए ऐसा नियम है ? क्यों कि आप समाचार-पत्रों में तो खण्डन मण्डन के लेख दिया करते हो, फिर इन प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं लिखते हो ? सागर जी-इस बात की तुम को क्या पंचायत करनी है ? भंडारीजी-पंचायत नहीं करनी है, पर आपने अपने व्याख्यान में कहा था कि 'यह मारवाड़ी साधु विचारो शुजाणे छे; अब तो आप जान गये ना कि मारवाड़ीयों के पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर देने के लिए गुजरातियों को मौन या क्रोध की शरण लेनी पड़ती है ? सागर-जाओ २ देखलिया तुम्हारे मारवाड़ी साधु को जिस को कि पूर्ण शुद्ध भाषा भी लिखना नहीं आता है, और प्रश्न पूछने को तैयार हुए हैं, जाओ तुम्हारे मुनी को कह दो कि पहिले थोड़ा शुद्ध लिखने का अभ्यास करें। भंडारीजी-महाराज ! यदि लिखने में कहीं गलती भी हो तो इससे प्रश्नों का उत्तर मारा तो नहीं जाना चाहिये । मैंने आपके ही व्याख्यान में सुना था, एवं आपने ही फरमाया था कि आत्मीयज्ञान, केवल भाषा के आधीन नहीं है, तो फिर भाषा की Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३१ सागरानन्द सूरि और भंडारी जी अशुद्धियों की ओट में प्रश्नों के उत्तर मारा जाना आप जैसे विद्वानों को शोभा नहीं देता है, फिर आपकी इच्छा की बात है। सागर-पर प्रश्नों का उत्तर देना या नहीं देना तो मेरी इच्छा की बात है न ? भंडारीजी०-वंदन कर वहां से स्थान पर जाकर सब हाल मुनिश्री को लिख दिया, जिसको पढ़ कर मुनिश्री ने समझ लिया कि सागरजी केवल पाटा के ही विद्वान हैं । कागज पर लिखे हुए सूत्र पढ़ कर साधुओं को सूत्रों की वाचना देकर एवं पंडितों द्वारा प्रेस कापियाँ करवा कर व सूत्र छपवा करके ही नाम पैदा किया है । खैर कभी रूबरू मिलने का मौका भी मिल जावेगा। ८२ सूरत के चतुर्मास में साहित्य प्रचार . इस चतुर्मास में भी आपने कई पुस्तकें मुद्रित करवाई थीं, ५०० प्रतिए बत्तीस सूत्र दर्पण-इसमें ३२ सूत्रों के स्थान लिख कर यह बतलाया गया है कि कई आचरण ३२ सूत्रों में होने पर भी ढूंढ़िया नहीं करते हैं, तब कई आचरण मन कल्पित करके जैन धर्म की निंदा करवा रहे हैं। १००० प्रतिए जैन दीक्षा-इसमें यह बतलाया गया है कि दीक्षा के योग्य कैसा मनुष्य होना चाहिये । १००० प्रतिए जैन नियमावलि-मारवाड़ के कई अज्ञानी लोग अपने नियमों से बिलकुल अज्ञात ही हैं, उनकी सुविधा के लिये यह छोटो सी पुस्तक बनाई थी। __ १००० प्रतिए प्रभु पूजा-प्रभु पूजा निश्चय ही मोक्ष का साधन है, पर कई अज्ञ लोग अभी तक पूजा की विधि को भी Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५३२ नहीं जानते हैं; अतः उनके लिए इस पुस्तक की रचना की गई है। ___ १००० प्रतिए जैन मंदिरों की ८४ आशातना-यह नाम से ही प्रख्यात है। ___ १००० प्रतिएं आगम निर्णय - इसमें यह स्पष्टतः बताया है कि आगमों में क्या लिखा हुआ है और ढूंढ़िया क्या कररहे हैं। १००० प्रतिए चैत्यवन्दनादि-इसमें मुनिश्री के बनाये हुए चैत्यवन्दन, स्तुतिएं स्तवन,स्वाध्याय आदि का संग्रह किया हुआ है। __१००० प्रतिए जिन स्तुति-इसमें मंदिर में जाते समय जिनस्तुति करने योग्य कविताओं का संग्रह है। १००० प्रतिएं व्याख्या विलास-इसमें योगीराज श्री रत्नविजय जी महाराज साहिब के व्याख्यान का संग्रह किया हुआ अच्छा साहित्य है। ___ ५०० प्रतिए श्रीसुखविपाक सूत्र मूल पाठ-यह महा मंगलिक सूत्र जब कि साधु महात्मा चतुर्मास करने को किसी गाम में जाते हैं तब सबसे पहला इस सूत्र को बांचते हैं कि श्रीसंघ में सदैव मंगल रहता है । इसमें यह विशेषता है कि जहां सूत्र में अन्य सूत्रों की भोलामण दी हैं आपने वहां का पाठ भी यहां दर्ज कर दिया है कि पढ़ने वालों को अच्छी सुविधा एवं आनंद रहे। १००० प्रतिए शीघ्र बोध भाग प्रथम ! ___१०००,, , भाग द्वितीय । १००० ,, ,, भाग तृतीय । इन तीनो भागों में शास्त्रीय तात्विक ज्ञान को थोकड़ा के रूप में लिखा गया है, जो कि मुनिश्री को कण्टस्थ थे। इस प्रकार सुरत के चतुर्मास में मुनिश्री के उपदेश से कुल Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३३ कागज हुन्डी पैठ परपैठ मेझर. १२००० पुस्तकें छपों, जिनका मारवाड़, मेवाड़, मोलवा, खानदेश इत्यादि प्रांतों में प्रचार हुआ, जहां कि ऐसी पुस्तकों की खास आवश्यकता थी । क्योंकि गुजराती एवं संस्कृत प्राकृत की पुस्तकें साधारण लिखे पढ़े मारवाड़ियों को उतनी उपयोगी नहीं थी जितबी कि मुनिश्री की बनाई हुई मारवाड़ी भाषा की पुस्तकें सिद्ध हुई थीं। यही कारण है कि श्रापकी बनाई हुई पुस्तकें सर्वत्र लोकप्रिय बन गई थीं। ___मुनिश्री ने जब से गुर्जर भूमि में पदार्पण किया तथा वहां के साधु साध्वियों का शिथिल आचार व्यवहार देखा एवं सुना तो आपको अतिशय दुख हुआ, पर पासत्थों के साम्राज्य में कौन किसको कहे और कौन सुने, यह केवल आपने ही नहीं किंतु म. होपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने भी इसी विषय की पुकार की थी। अतः इस बाल लीला को लेखनी द्वारा लिख कर परमात्मा सीमधर तीर्थकर की सेवा में भेजना उचित समझ कर आपने 'कागज हुँडी, पैठ, परपैठ और मेझरनामा' लिखना प्रारंभ किया। लेकिन आपको दिन का समय तो बहुत कम मिलता था, अतः मेझरनामे का कार्य रात में ही किया करते थे । आप रात्रि में कविता बना कर पेंसिल से कागज पर लिख लेते थे जिसमें आपको रोशनी वगैरह की आवश्यकता नहीं रहतो, केवल इशारे मात्र से ही रात्रि में लेख लिख लिया करते थे ओर उसको दिन में सुधार कर ठीक कर लेते। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३-सत्याग्रह में जैनसाधुओं का व्याख्यान जिस समय सत्याग्रह आंदोलन खूब जोरों से चल रहा था, उस समय हमारे चरित्र नायकजी सूरत में विराजमान थे । कांग्रेस के नेता दयालजीभाई योगीराज के पास भाये और कहा कि जैन साधु तो जगत उपकारी होते हैं, अतः आपको भी देश सेवा में भाग लेना चाहिये । योगीराज ने कहा, इसमें कहने की क्या बात है ? हम तो इसलिये ही साधु हुए हैं, इत्यादि। . एक दिन कांग्रेस वालों ने एक बड़ा भारी सरघस निकाला जिसमें कम से कम ५०००० आदमी होंगे; दयालजीभाई आदि कई देशभक्त योगीराजादि मुनिवरों को बुलाने के लिए आये, और कहा कि आप भी पधार कर सभा में भाषण दिलावें । उस समय मुनितिलकविजयजी पंजाबी भी वहां उपस्थित थे, उसने कहा कि योगीराज ! क्या हर्जा है, सभा में चलिये मैं भी चलूँगा। यह हाल जब श्रावकों को मालूम हुआ तो उन्होंने आकर मुनियों को रोक दिया और कहा कि राज-सम्बन्धी मामलों में आपको भाग नहीं लेना चाहिये। योगी०-क्यों, इसमें क्या नुकसान है ? श्रावक-यह राज संबन्धी मामला है,शायद पकड़ा-पकड़ी होगा तो ? योगी-यदि सत्य कहते हुए भी पकड़े जावेंगे तो जैसे हम लोग तुम्हारी कैद में पड़े हैं वैसे राज्य की कैद में पड़े रहेंगे। इस प्रकार वादविवाद करने के पश्चात् मुनियों ने आखिर Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३५ जैन मुनिवरों के व्याख्यान सभा में जाने का निश्चय कर ही लिया, और दयालजीभाई को कह दिया कि सरघस में तो हम नहीं आवेंगे किन्तु सभा में श्रा कर भाषण अवश्य देवेंगे। मुनियों ने विदेशी वस्त्रों को त्यागन पहले से ही कर रखे थे अतःवे सब खादी के कपड़े पहिन कर, दयालजीभाई आदि नेताओं के साथ सभा में पहुँचे । वहाँ जाकर देखा तो, ४-५ जगह तो, प्लेट-फार्म थे और कई जगह लाउडस्पीकर (Loud Speaker) लगे हुए थे ५०००० आदमियों के होने पर भी वातावरण अत्यन्त ही. शान्त था; वक्ताओं के बड़े ही जोशीले व्याख्यान हो रहे थे; पुलीस का चारों ओर दौर-दौरा था, व्याख्यान के नोट लेने वाले भी उपस्थित थे । साधु भी वहाँ अनेकों थे, किन्तु जैनों के केवल तीन ही साधु थे; जब व्याख्यान के लिए कहा गया तो सर्वप्रथम योगीराज का भाषण हुआ, १५ मिनट का समय मिला और आपका स्वदेशी वस्त्र के विषय में सारगर्भित भाषण हुआ। दूसरे पंजाबी तिलकविजयजी का भाषण हुआ, आपको २० मिनिट का समय दिया गया था; आपने स्वधर्म रक्षा के बारे में व्याख्यान दिया । तीसरा नम्बर हमारे चरित्र नायकजी का था, आपको २५ मिनिट का समय मिला; आपने स्वराज्य के विषय में कहा कि जब तक आत्मा स्वतंत्र नहीं होगी तब तक स्वराज्य नहीं मिल सकता है; अतः श्रात्मा को भय तथा पराधीनता से मुक्त कर स्वतंत्र बनावें इत्यादि । जैन मुनियों के भाषणों ने सबको मंत्र मुग्ध बना दिये । सुरत के चतुर्मास से योगीराज एवं मुनिराज का जनता पर खूब अच्छा प्रभाव पड़ा, इसका कारण आपकी विद्वत्ता ओर निस्पृहिता ही था । चातुर्मास की समाप्ति के दिन निकट आये तो Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५३६ बंबई के सेठिये लोग आपकी विनती करने को आये और अत्यन्त ही प्रहपूर्वक विनती की, किंतु मुनिश्री को परम पुनीत शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा करने की बड़ी भारी उत्कंठा थी और आपने कई विगइयां आदि को भी छोड़ रखी थी, अतः बंबई की विनती न मान कर यात्रा का ही निश्चय किया गया । चतुर्मास समाप्त होने पर झवेरी छोटुभाई इच्छाचंद के वहां गोपीपुरा में चतुर्मासा बदलाया जिसमें सेठ साहिब ने पूजा प्रभावना ज्ञानवृद्धि में और स्वामी- वात्सल्यादि शुभ कार्यों में करीब दो हजार रुपयों का खर्च किया । ८४ श्री सिद्धगिरि की यात्रा के लिए प्रस्थान BASE सुरत में श्रीमोहनलालजी महाराज के साधुओं का गोपीपुरा में चतुर्मासा था, उनमें श्रीमाणकमुनिजी और लब्धिमुनि जी को भी शत्रुंजय की यात्रा करनी थी। मुनिश्री को अच्छा संयोग मिल गया, गुरु महाराज की आज्ञा लेकर मुनिश्री ने यात्रा के लिये बिहार किया, दोनों मुनिवर भी साथ में थे कतार गांव, सायण, कोम कसुबा हो कर कलेसर आए - जिस रोज आप त्रिपुटो, अंकले सर पहुँचे तो वहां एक दुखद घटना यह घटी कि अंकलेसर के पास दो कोस पर एक गांव था; वहां दो जैनमंदिर और दो सो घर पाटीदार श्रावकों के थे। किंतु स्वामीनारायण पंथ का कोई उपदेशक आया, उसने उन २०० घर वालों को उपदेश देकर इस प्रकार चक्र में डाला कि वे जैन धर्म त्यागने के लिये उद्यो गए तथा उनके असर लोग अंकलेसर आकर मंदिरों की चावि यां डालड़ीं और कहा कि हम स्वामिनारायण मत में जाते हैं, Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतित जैनों का उद्धार ५३७ आप अपने मंदिरों को संभालें । जब मुनिवरों को इस बात की खबर हुई तो उन पाटीदारों को बुलाकर खूब समझाया; उन्होंने कहा कि आप हमारे ग्राम में पधारें, इस पर तीनों मुनिराज पाटीदारों के साथ उनके ग्राम में जाकर स्वामिनारायण मतवालों से धर्म के विषय में शांति के साथ वार्तालाप कर उनको निरुत्तर कर दिए । तथा धर्म से पतित होते हुए २०० घरों का उद्धार कर दि या । इस प्रकार की गड़बड़ होने का कारण यही है कि गुजराती साधुओं ने मुख्य मुख्य शहरों को अपने आराम के लिये निवास स्थान सा ही बना लिया है, उन्होंने प्रामों में जाने का न तो कभी कष्ट उठाया और न कभी उन ग्रामीण श्रावकों को उपदेश दिया; कई तो ऐसे नागर ब्राह्मण बन बैठे हैं कि उन पाटीदार श्रावकों के घर का आहार पानी तक भी नहीं लेते हैं, जैन धर्म पालने वालों से इस प्रकार घृणा करने से यदि वे जैनधर्म को त्याग दें तो इसमें आश्चर्य की कौनसी बात है ? मुनिश्री गुजरात के विहार के दरमियान जिस गांव में पहुँचे वहां पूछने से मालूम हुआ कि जहां सैकड़ों घर जैन पाटीदार, माढ़, गुर्जर, निमा, भावसार वगैरा के थे, वे प्रायः सब स्वामिनारायण पंथ में चले गए; इसका कारण एक तो उनको उपदेश ही नहीं मिलता है, दूसरे उनके साथ रोटी बेटी व्यवहार नहीं था, तीसरे जैन साधु उनसे घृणा करते थे । अतएव स्वामिनारायण मत के उपदेशकों ने उनको अपने मत में मिला लिये । मुनिश्री को मेरनामा लिखने में ऐसे ऐसे अनेक कारण मिलते गये कि जिसका कलेवर मनसा से भी कई गुना अधिक चढ़ता गया । Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५३८ ___ वहां से क्रमशः विहार करते हुए भड़ोंच नगर में आये और वहाँ मुनिसुव्रत तीर्थकर का प्राचीन मंदिर-मूर्ति के दर्शन कर परमानन्द को प्राप्त हुए । बाद आमोद-जम्बुसर होते हुए आपने श्रीकाबी तीर्थ की यात्रा की, वहां से खंभात जाना था; रास्ते में समुद्र पाता है अतः हमारे त्रिपुटो मुनिराज नाव में बैठे। सदैव नाव दिन रहते हुए खंभात पहुँच जाती थी, पर उस दिन प्रकृति का ऐसा प्रकोप हुआ कि वायु प्रतिकूल चलने से नांव चक्कर खागई और नांव में ही करीब गत्रि नौ बज गई । बिचारे नाविक ने बहुत प्रयत्न किया तब दस बजे नांवा पानी के किनारे पर पहुँची; पर वह किनारा खंभात का नही किंतु किसी अन्य छोटे ग्राम का था । बस, वहां लाकर पानी में नांव को खड़ी करदी, सब लोग उतरने लगे, इस हालत में मुनिमंडल भी उतरे । शीतकाल होने से एक ओर तो जाड़ा बहुत पड़ रहा था, दूसरी ओर से अंधेरी रात्रि थी, तदु परांत गहरे पानी से निकल कर जाना था; मानिकमुनिजी का पैर उचककर पानी में जा पड़ा, दूसरे मुनियों के भी वस्त्र वगैरह भीग गए थे, फिर भी हाथ में डंडा होने से उसके सहारे से पानी से पार हुए पर वे शीत के मारे खड़ खड़ धूजने लगे । बड़ी मुश्किल से गांव में पहुँचे, वहां पूछने पर मालुम हुआ कि यहां केवल एक घर श्रावक का है, पूछते २ वहाँ गये। श्रावक इतना भक्तिवान था कि उसने अपना मकान खोल दिया, गांव से माँग कर ८.१० कंबलें ला दी जिससे सब कपड़ा खोलकर तणी पर डाला और उन कंवलों से काम लिया । श्रावक ने गर्म तैल लाकर तीनों मुनियों की मालिश की तथा रात्रि भर वहीं ठहरे। सुबह ही श्रावक नेबहुत आग्रह किया अतः गोचरी पानी वहीं किया और दूसरे दिन खं. Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३९ खंभात में शास्त्रों की चर्चा भात पहुँचे । तथा वहाँ जाकर बाबू पन्नालाल अंबालाल की धर्म शाला में ठहर गए । ८५ खम्भात में शास्त्रों की चर्चा जिस समय हमारे त्रिपुटी मुनिराज खम्भात में पहुँचे उस समय आचार्यविजयकमलसूरि अपने १७ साधुओं के साथ खंभात नगर में विराजमान थे माणकमुनिजी आदि तीनों साधु सूरि जी के दर्शनार्थ उनके उपाश्रय गये पर वहां जाकर वे क्या देखते हैं कि श्राचार्यादि साधु तो एक ओर बैठे थे और मुनि दानविजय एक तरफ एकान्त में बैठा हुआ एक युवा विधाव को उपदेश दे रहा था उस विधवा ने कुछ रुपये दात विजय के पास रखा था जिसको उठाकर दानविजय ने अपनी आलमारी में रख दिया । माणकमुनि एक ओर खड़ा रहकर इस वितिकार को ज्यों का त्यों देखा फिर उन से रहा नहीं गया अतः माणकमुनि दानविजय के पास जाकर पूछा । माणक—पन्यासों को पापी बतलाने वाले दानविजयजी आप यह क्या जुल्म कर रहे हो ? दानविजय - यह तो ज्ञान की पूजा की है और यह द्रव्य ज्ञानखाता में काम आवेगा । इसमें तुमको पूछने एवं कहने का क्या अधिकार है ? माणक — इसका भविष्य में क्या परिणाम आवेगा और आप के शिष्यों पर कैसा बुरा प्रभाव पड़ेगा एक कनक ही मनुष्य को रसातल में पहुँचा देता है अतः आपके इस कृत्य में तो कनक और कामनी दोनों का अनुचित व्यवहार दीखता है क्या यह साधुओंका आचार है कि एक युवा विधवा के साथ एकान्त में बातें करना Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खंण्डं ५४० और उसके दिये हुए रुपयेको हाथों से उठाकर आलमारी में रखना ? _____ दान-इसमें हमारा क्या स्वार्थ है इस श्राविका ने ज्ञान के लिये रुपये दिये हैं कोई श्रावक न होने के कारण मैंने रुपये आ. लमारी में रख दिये हैं। ___ माणक-इस प्रकार आपने कितने रुपये एकत्रित किये हैं जिसका कुछ हिसाब भी होगा ? ___ दान-हिसाब पूछने वाले तुम कौन हो ? उन रुपयों की पुस्त के मंगवानी हैं और भी हमारे पास बहुत पुस्तकें हैं । माणक-वे पुस्तकें हैं किसकी ? · दान-हमारी माणक-इस प्रकार लाखों रुपयों की पुस्तकों को तुम अपनी बतलाते हो तो क्या इससे तुम्हारे महाव्रत रह सकते हैं ? क्यों कि यह तो परिगृह धारियों के ही लक्षण हैं। दान-इससे क्या हुआ साधु पुस्तकें तो रखते ही हैं । माणक-पर इसकी कुछ मर्या भी है ? दान-क्या एक हमारे ही पुस्तकें हैं ? विजयनेमि सूरि के तो हमारे से भी कई मुणी अधिक पुस्तकें हैं। ___माणक-मैं व्यक्तिगत बात नहीं करता हूँ, पर मेरा कहना है कि साधु पुस्तकों पर अपना हक रखता है पर उन्होंने किस प. रिश्रम से द्रव्योपार्जन कर पुस्तकों का संग्रह किया है ? वास्तव में पुस्तकें संग्रह करने में श्री संघ का ही द्रव्य लगा है। अतः ऐसे पुस्तकों के भंडार श्रीसंघ के अधिकार में क्यों नहीं रखा जावे ? जिसने कि किसी भी साधु को पुस्तक चाहिये तो सुविधा से मिल जावे, अन्यथा आपके भंडार में तो व्यर्थ ही पुस्तकें सड़ती हैं Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४१ दानविजयजी की बुरी दानत और जब किसी दूसरे साधु को पुस्तक की श्रावश्यकता हो तब गृहस्थों का द्रव्यं व्यय कर मंगवानी पड़ती है । दान- हमने अत्यन्त परिश्रम से पुस्तकों का संग्रह किया है । तुम्हारे जैसे नास्तिकों को इस बात का अभी ज्ञान नहीं है । मामाक -- जैसे इस बहिन ने आपको रुपये दिये हैं, इस प्रकार कितनी विधवाओं ने आपको रुपये दिये और उसको आपने किस काम में लगाये और अब शेष आपके पास कितनी रकम जमा रही है। उसका आपके पास कुछ हिसाब होगा; जिसको हम देख ना चाहते हैं । दान - मैंने कह दिया कि तुम हिसाब पूछने वाले कौन हो ? मारक — श्रीसंघ की रकम का हिसाब कोई भी व्यक्ति पूछ सकता है; मैं संघ में एक हूँ अतः सुझे भी अधिकार है कि मैं हिसाब पूछ सकूं । तुम इस प्रकार कितने ही मनुष्यों की रकम हजम कर जाते हो और फिर साधु कहलाते हो । दान - क्रोध में आकर कहा कि चले जाओ हमारे उपाश्रय से । मारणक—क्या उपाश्रय भी आपका है ? यदि है तो इस का पट्टा ( रजिस्ट्री ) बतलाइये । दान - जाओ २ । तुम्हें कौन पूछता है ? माणक - उपाश्रय से निकल कर सीधे ही छापेखाने ( प्रेस ) में गये; और १००० नोटिस छपवा कर स्वभात भर में वित्तीर्ण करवा दिये जिसमें लिखा था कि परिग्रह धारी दानविजय के पास पुस्तकें हैं वे श्रीसंघकी हैं या साधुओं की ? यदि साधुओं की पुस्तकें हैं तो ऐसे परिग्रह धारियों को साधु क्यों मानना चाहिये ? एक जवान विश्वा ने दानविजयजी को रुपये दिये उस समय कोई Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ५४२ श्रावक भी पास में नहीं था । वे रुपये दानविजयजी ने उठाकर आलमारी में रखदिये तो इस प्रकार कितनी ही स्त्रियों को धोखे में डाल अपनी मनोकामना पूर्ण करता होगा ? अतः ऐसे परिग्रह धारियों को कोई भी जैन - जैनसाधु नहीं माने । इत्यादि । माणकमुनि की प्रेरणा से पन्नालाल बाबू की धर्मशाला की ओर से एक जनरल सभा होने का निश्चय हुआ, जिसके हैण्डबिल भी वित्तीर्ण करवा दिये। यह सुनकर दानविजयजी, लब्धि विजयजी ने सोचा कि माणकमुनिजी और यह मारवाड़ी साधु बड़े ही झगड़ायल हैं; यदि वह सभा में अपने विषय में कुछ कहेगा और अपने भक्त लोग सुनेंगे अतः कहीं शंका पड़ गई तो पाप का घड़ा फूट जावेगा । अत: कल अपने यहां भी सभा करें ताकि कम से कम अपने भक्त तो माणक मुनि की सभा में न जावेंगे । बस, दूसरे दिन दोहर को दोनों श्रोर से सभाएं हुई। मुनिश्री ने माणिकमुनि से कहा कि अपनी सभा में तो मैं भाषण कर दूंगा, और आप उनकी सभा में पधार जाओ, श्रतः यदि वह कुछ कहेगा तो आप सभा में जवाब दे सकोगा। यह बात माणकमुनिजी के भी जंच गई और वह टाइम पर दानविजयजी के वहाँ चला गया । तथा एक हैंडबिल जो उनकी तरफ निकला था वह भी साथ लेता गया, जब माणिकमुनिजी वहाँ से गया तो साधुओं ने कह दिया कि तुम यहाँ क्यों आये हो ? बहुत से गृहस्थ एवं नवयुवक भी उपस्थित थे, साधुत्रों का कहना उनको नागवार गुजरा। माणिक मुनिजी ने हैंडबिल निकाल कर बतलाया कि मैं श्रामन्त्रण से आया हूँ । बस, मारणकमुनि एक खाली पड़े हुए पाटे परआसन लगा कर बैठ गये। बाद में साधुओं का व्याख्यान शुरू Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान खम्भात की सभा में भाषण करते हुए Page #633 --------------------------------------------------------------------------  Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४३ खंभात में पब्लिक व्याख्यान हुआ, किंतु माणिक मुनिजी के लिये किसी ने भी चर्चा नहीं की, ज्यादा जोर अंग्रेजी पढ़ने वालों को धर्महीन, श्रद्धाहीन, क्रियाहीन और नास्तिक बतलाने पर ही दिया गया । उसी समय एक ग्रेजुएट ( Graduate ) विद्वान् वकील जो कि वहाँ बैठा था - साधुओं का निरंकुश भाषण सुनकर उठ खड़ा हुआ और कहने लगा - महाराज ! अंग्रेजी पढ़े हुए नास्तिक नहीं पर आस्तिक अर्थात् परीक्षक हैं, हाँ वे आज गृहस्थ से भी कई गुनी अधिक मौज श्रानन्द करने वाले साधुओं की पोपलीला को मानने में अवश्य नास्तिक हैं, आपको शायद ही मालूम होगा कि गृहस्थ लोग किस परिश्रम से अपना निर्वाह करते हैं, तब आप तो साधु हो, आपको बिल्कुल सादा जीवन व्यतीत करना चाहिये । पर सर्वती मलमलें, बढ़िया कपड़े, दिन में तीन २ बार गोचरी, जिसमें भी केवल भक्त लोगों की तैयारी पर हाथ मारना, फल, फूल ( फूट ) और दिन में तीन २ दफे चाय तो साधुधों की साधारण खुराक बनी हुई है, फिर भी साधु कहलाते हुए नवयुवकों की निंदा करते हो, पर आपकी यह नादिरशाही सुनता कौन है ? अब आप अपने को संभाल लो, वरना आपके हक में ठीक न होगा जमाना बदल गया है इत्यादि निडर होकर भाषण दिया । बाद में माणिकमुनिजी उठ खड़े हुए और कुछ कहने को ही थे कि इतने में साधुओं ने कहा कि तुमको आज्ञा नहीं है। बस, हा हु होकर सभा विसर्जन हो गई और सब लोग चले गये । इधर मुनिश्री की विद्यमानता में सभा हुई थी, इसमें पहिले हालत और उनका तो जमाने की खूबी, प्रामों के गरीब जैनों की उद्धार तथा विद्या प्रचार की आवश्यकता और अन्त में जैन Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड ५४४ साधुओं का वर्तमान आचार व्यवहार, विहार क्षेत्र की संकुचितता, परिग्रह की वृद्धि और निर-नायकता एवं स्वच्छन्दता पर जोर दिया गया था, तथा श्रावकों के बिना सोचे-समझे पक्षपात ने हो साधुओं को इस दक्षा पर पहुँचाया है, इत्यादि विवेचन किया। आपका व्या रुवान जनता को बहुत रुचिकर मालूम हुआ और दूसरे दिन इस प्रकार सार्वजनिक (पब्लिक ) व्याख्यान के लिए प्रार्थना की, पर मुनिश्री ने अपने को शत्रुञ्जय की यात्रा करने का कारण बतलाया तथा बिहार करने को कहा, इतने में माणकमुनिजी भी आ गये, जनता की आग्रहपूर्वक विनती को मान देकर एक दिन और ठtal स्वीकार कर लिया और सार्वजनिक व्याख्यान देना भी नि. श्चय कर दया । को दूसरे दिन ठीक एक बजे सभा हुई, आचार्य श्री के साधुओं आमन्त्रण करने से उनके दो साधु सभा में आये, पर उस पार्टी के गृहस्थ लोग प्रायः सबके सब हाजिर हो गये तथा दूसरे भी जैनजैनेतर खूब गहरी तादाद में उपस्थित हो गये थे, कारण पहिले दिन के व्याख्यान ने जनता पर अच्छा प्रभाव डाला था, जिससे कि व्याख्यान सुनने की लोगों की अत्यंत रुचि थी । सर्व प्रथम तो हमारे चरित्र नायकजी ने व्याख्यान देना प्रा. रम्भ किया। आपका विषय था "जैन धर्म की फिलासाफी और वर्तमान विज्ञान", इस पर एक घंटा तक इस खूबी से व्याख्यान दिया कि क्या पुराने जमाने के और क्या नई रोशनी वाले, आपका भाषण सुनकर मंत्र मुग्ध बन गये; यह व्याख्यान खंभात की जनता के लिए सर्व प्रथम ही था, तत्पश्चात् एक वकील का आधे घंटे तक भाषण हुआ । उसने पहिले तो मुनिश्री के लिए कहा कि Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४५ भावनगर में प्रवेश मुझे आशा नहीं थी कि हमारे जैन साधुओं में भी इस प्रकार का ज्ञान है कि आज मैंने सुना है, अतः मैं मुनिश्री को प्रार्थना करता हूँ कि तीर्थ यात्रा तो श्राप जब चाहोगे तब ही कर सकोगे, पर फिलहाल एक मास यहाँ विराज कर आप खंभात की जनता को इस प्रकार उपदेश सुनायें कि जैनेतर विद्वानों को भी ज्ञान हो कि जैनों में भी ऐसे विद्वान् और समयज्ञ साधु हैं, तत्पश्चात् वकील साहिब ने अल्प किन्तु सारगर्भित व्याख्यान दिया, उसके बाद माणकमुनिजी वर्तमान जैनसाधुओं की परिस्थिति और पूर्व युग के साधुओं का परोपकार की तुलनात्मक विषय में व्याख्यान दिया, अन्त में सभा जयध्वनि के साथ विसर्जन हुई। ___ अफ़सोस है कि खंभात की जनता की इतनी आग्रह-पूर्वक विनती होने पर भी मुनियों का अधिक ठहरना नहीं हुआ। ८६ मुनि श्री का भावनगर में प्रवेश ___ वहाँ से भेरुंदा, पीपली होते हुए धोलेराव आये, वहाँ श्राप के दो व्याख्यान हुए, वहाँ से बलवाड़ा होकर वला में आये वहाँ श्रीउत्तमविजयादि कई मुनिराज विराजते थे, उनके साथ भी बहुत वार्तालाप हुई; पर वे साधु बड़े ही भद्रिक एवं सरल स्वभावी थे, लिखे-पढ़े तो कम थे पर आचार-व्यवहार ठीक था; वहाँ भी आप के तीन व्यख्यान पब्लिक में हुए वहाँ से सिहोर पधारे, वहाँ भी श्री लाभविजयादि कई साधु मिले, वहाँ आपके दो व्याख्यान हुए वहाँ से भावनगर पधारे। भावनगर में एक मारवाड़ी बंडा है, और वृद्धिचन्दजी महा. राज की समुदाय के कई साधु वहाँ ठहरे हुए थे, लब्धिमुनिजी Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान - द्वितीय खण्ड ५४६ ने ऊपर जा कर साधुओं से कहा, हम यहाँ ठहरते हैं, आपकी आज्ञा है न ? साधुओं ने टूटता जवाब दिया कि 'अत्र जगहा नथी, जाओ बीजे स्थानक मां उतरो, जाओ।' बस, हताश होकर लब्धिमुनिजी लौट आये और कहा कि यहाँ तो ठहरने की आज्ञा नहीं देते हैं, चलो दूसरी जगह निगाह करें। पांच कोस से थके हुए मुनियों को उतरने को स्थान तक साधुओं ने नहीं दिया। जब मुनिश्री ने ऊपर जाकर साधुओं से प्रार्थना की कि आप तो ऊपर ठहरे हुए हैं, नीचे सब मकान खाली पड़ा है, यदि नीचे के मकान में हम ठहर जावें तो आपको क्या नुक्सान है ? हम भी तो साधु ही हैं, थके हुए आये हैं अतः आप हुक्म फरमावें । साधुओं ने कहा कि 'कही दीन्धु न अत्र जग्यांनथी; जाओ तमे, बीजी जग्या मां उतरो ।' मुनि - यह मारवाड़ी बंडा तो मारवाड़ी साधुओं के ठहरने के लिए है, अतः हम तो यहीं ठहरेंगे, आप यहाँ से अन्य स्थान चले जाओ, आप गुजराती साधुओं का इस मारवाड़ी बंडामें हक़ ही क्या है; निकलो बाहर "ठीक दुनियां की रीति है कि मृत्यु ब-तलाने पर ही ताव स्वीकार करती है ?" साधु - शुं तमे मारवाड़ी को ? मुनि - हाँ, तब तो मारवाड़ी बंडा पर हमारा अधिकार है । साधु -- पर हम आज्ञा लेकर उतरे हैं। मुनि - श्राज्ञा आप ठहरें उतने मकान की ली है या सब काठियावाड़ प्रदेश की ? साधु - टला बद्धा आड़ा-टेडा केम बोलो छो ? मुनि - महाराज ! आपने किसी परसेवा की कमाई से मकान Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ मारवादी साधु० मारवाड़ी गंडा नहीं बनाया है कि इसपर इतना हक्क रखते हो? आपका कर्तव्य तो यह था कि हम आपके मेहमान आये तो हमारा आप स्वागत करते, वह तो दूर रहा, पर आपमें इतनी उदारता भी नहीं कि बिल्कुल खाली पड़ा हुआ मकान को उतरने के लिए देने में भी इन्कार करते हो, यह कैसी साधुता ? यह कैसी वात्सल्यतो ? और यह कैसी दया ? साधु-केटला दिवस ठेर शो ? । मुनि-हमको यहाँ चतुर्मास नहीं करना है। साधु-ठीक छे, नीचे उतरी जावो । इतने में तो कुंवरजीभाई, जसराजभाई, देवचंदभाई, गुलाबचन्दभाई, कर्मचन्दभाई वैगरह श्रावकों को खबर पड़ने पर सब लोग यहाँ आये, मुनिश्री को वन्दन कर कहा, साहिब क्यारे पधारथा छो? मुनि-आधो घंटो थयो हशे। श्रावक-त्यारे भंडोपकरण केम नथी मुकता ? मुनि-आ सधु अहीं ठेरवा माटे ना पाड़े छ । श्रावक-शुं करवा ? मुनि०-शायद आ मकान पा साधुओं ने पटाबंद हशे ? श्रावक-ना साहिब, अमारी आज्ञा छे, आप खुशी थी ठेरो, श्राप जेवों ना पागल्या क्या पड्या छे, अमने तो काल पधारवानी खबर हती अने सामया वैगरहः नी बधी तैयारी किधी हती, पण आप तो छाने माने पधारी गया; एटले अमारा मन नी मन मांज रही। मुनिराज मारवाड़ी बंड़ा में ठहर गये, और श्रावक लोगों ने Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५४८ गोचरी के घर बताये, वहां से गोचरी लाकर आहार पानी करके आराम किया ही था कि इतने में तो कुंवरजी भाई वैगरहः आ गये। कुँवरजी भाई- - अमोए सांभलता हता के तमने शास्त्रों नो सारो बांध छे ? तो हवे कांई लाभ आपो ? - मुनि० - साधुओं ने यथा क्षयोपसन शास्त्रों नो अभ्यास कर कुंज जोईये, 'नाणेण मुणि होई' श्रा उत्तरा ध्यान तो पाठ छे । कुँवर० - साहिब जीव ने आराधना केवी रीते आवी सके ? मुनि० - जीव नरकनिगोदना दुःखो ना डर थी अनंतीवार धर्म क्रिया कधी पण आत्म भाव थी तथी करी एटले संसार छूटतो नथी । आराधना, जिन वचनों नी आराधना करवा थी आवी सके छे, अने ते आराधन क्षयोपसम ने लिधे जघन्य मध्यम अने उत्कृष्ट एवं तीन प्रकार नी होय छे । कुँवर० - साहेब ने जरा विस्तार थी कहीने संभलाओ तेथी आ बेठे ला बधा श्रावक सारी रीते समझी सके । मुनि० - आराधना तीन प्रकार नी होय छे; ज्ञान, दर्शन, चा रित्र तेमां ज्ञान, दर्शन मूल वस्तु छे, अने तेना रक्षण माटे चारित्र बताव्यो छे, जेम के खेत्र मां धान हाय छे तेना रक्षण माटे कांटां नी बाड़ करे छे । द्रव्य चारित्र ने अभावे पण ज्ञान दर्शन थी मोक्षथइ सके छे, पण ज्ञान, दर्शन बिना केवल द्रव्य चारित्र थी मोक्ष नथी थाती, हाँ । ज्ञान दर्शन नो साथे चारित्रनी पण जरूरत छे, कारण आ व्यवहार चारित्र पण मोक्ष साधवा मां सहायक बने छे 1 कुँवरजी० - केम साहेब सिद्धों मां पण चारित्र होय छे न ? मुनि० - जो सामयिकादि पंच चारित्र छे तेने श्रापणे चारित्र कहिये छिए, ते चारित्र सिद्धों मां नथी, अने हुँ तेज चारित्र नी वात Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४९ भाराधना के प्रश्नोत्तर करूंछु अने आराधना पण तेनी ज होय छे, अने अध्यवसाय. रूप जो चारित्र छे ते सिद्धों मां पण होय छ। कुँवर०-आराधना माटे कहो साहिब के जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्टी आराधना कौने कहवाय ? मुनि०-शान आराधना ना तीन भेद छे। (१) जघन्य- अष्ट प्रवचन माता नो ज्ञान भणj । (२) मध्यम-एकदशांग ज्ञान भणओ। (३) उत्कृष्ट-द्वादशांग नो पारगामी थाओ। अभ्यास ने माटे एम पण कहवाय छे के(१) साधारण ज्ञान नो अभ्यास करवू ते जघन्याराधना । (२) मध्यम कोटिनो अभ्यास ते मध्यम आराधना । (३) उत्कृष्ट अभ्यास ते उत्कृष्टी आराधना। कुँवरजी-कोई मनुष्य उत्कृष्ट ज्ञानाभ्यास करे छे, पण ते ने ज्ञान चढतो ज नथी, तेने उत्कृष्ट आराधना कही सकाय खरूं ? : मुनि०–हां उत्कृष्ट अभ्यास करे छे पण ज्ञानावर्णी कर्मोदय तेने कदाच ज्ञान नहीं पण चढतो होय तो पण उत्कृष्ट आराधना कही सकाय, कारण उ०ज्ञानाभ्यास सजड़ ज्ञानावर्णीय कर्म ने पण तोड़ी नाके छे-आ भव मां, चाहे परभव मां केवल ज्ञान थइ जाय छ। तिसक मुनि नो अधिकार तमे सांभलियो छे के तेओने बार वर्ष सुदि परिश्रम करवा छतां एक पद पण नथी श्राव्यो पण ते केवल ज्ञान लइ लीधो, आ उत्कृष्ट अभ्यासनु ज कारण छ। कुँवरजी-हां साहेब, बात खरी छे।। मुनि-दर्शनाराधना ना पण तीन भेद छे(१) जघन्य-जघन्य क्षयोपसम समकित । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान-द्वितीय खण्ड ( २ ) मध्यम में - मध्यम क्षयोपसम समकित । ३ - उत्कृष्ट में: - क्षायक समकित । शासन पर प्रस्तुत रागपण दर्शनाराधना नुं कारण थाय छे, जेओ शासन पर राग तेवी दर्शनाराधना थाय छे । कुँवर० - शँ शासन पर राग राखवाथी पण दर्शनाराधना थई सके छे ? मुनि० - आपणे कारण थी कार्य मानिये छिए तो शासन पर राग ते कारण अने ते रागथी दर्शन प्राप्त थाय ते कार्य, श्र तो आप जाणो छो के वैराग्य, राग थीज थाय छे, राग न होय तो वैराग्य थायज नहीं | कुँवर०—- केम ? G ५५० मुनि० - राग कारण श्रने वैराग्य कार्य, केम के आपणे राग बे प्रकार वो मानिये छिए ( १ ) प्रशस्त ( २ ) अप्रशस्त, देव गुरु धर्म ऊपर प्रशस्त राग थाय त्यारे दर्शन नी रुचि जागे छे, के देव गुरु धर्म की उपासना करू ने जो उपासना करे छे, त्यारे वैराग्य थाय छे । टले राग थी ज वैराग्य थयो । कुँवर०- - साहब श्रापनी युक्ति बहु प्रबल अने प्रमाणिक छे । मुनि० - हवे चारित्र आराधनाना पण तीन भेद छे१ - जघन्यः -- सामयिकादि चारित्र, - मध्यमः - पड़िहार विशुद्ध व सूक्ष्म संपराय चारित्र । ३ - उत्कृष्टः - यथाख्यात चारित्र । आ मां पण चारित्र नो खप करवो ते जघन्य, मध्यम भने P उत्कृष्ट खप ने अनुसार चारित्रनी आराधना थाय छे । कुँवर - सूक्ष्म संपराय चारित्र नो शुद्ध अर्थ थाय छे ? J Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंवरजी माई के प्रश्नोतर ___ मुनि-क्रिया बे प्रकारनी होय छे, एक संपराय अने. बीजी इयांवाही । कषाय अने योग एवं बेने थी क्रिया लागे तेने संपराय क्रिया कहवाय छे, अने केवल येगो थी लागे सेने इर्यावही क्रिया कहे छे, पहिला गुणस्थान थी दसवा गु० सुधी संपराय क्रिया लागे, पर दसवां गु० मां केवल संजल नो लाभ रहवा थी, त्यां संपराय क्रिया तो खरी पण ते सूक्ष्म होवाथी आगुणस्थान नो नाम सूक्ष्मसंपराय छे, अने ते गुणस्थान वालाना चारित्र नो नाम पण सूक्ष्मसंपराय चारित्र छ। - ऊपर बतावेली आराधना माटे एम पण कहेलो छ के जघन्य ज्ञान दर्शन चारित्र आराधना वालो उत्कृष्ट पन्दर भवः करी मोक्ष जाय छे, मध्यम ज्ञान दर्शन चारित्र आराधना वाला तीन भव करी मोक्ष जाय अने उत्कृष्टी आराधना वाला ते भवमांज मोक्ष जाय छे । ___ मुनि०-आपणे मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री मली गई छे तो श्रोलामा ओछी जघन्य आराधना तो करवीज जोइये । ___ कुंवर०-हाँ साहेब आपनो कहq बराबर ठीक छे पण आ पंचम काल मां आराधना थावी मुश्किल छ न ? मुनि -त्यारे जिनेश्वर देवना शासन D आलंबन करवानो सार नकल्यो जो जघन्य अाराधना पण न थाय तो आबधीमापणी धर्म करणी श्रावकपणो अने साधुपणो, वाणियानी दुकानज कहवाय न ? ____ कुँवर०-हाँ साहेब आप साँची २ कहो छो-आपना दशननी तो घणा काल थी अभिलाषा हती पण आज अमारे शुभ कर्मना उदय थी आपना दर्शन थई गया, अने साहिबजी आप तो जेम Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५५२ अमे सांभलता हता तेम सार ज्ञानी नकल्या । लो हवे काले श्राप व्याख्यान वांचजो, बधा श्रावक अने श्राविकाए व्याख्यान सांभलवा आवशे, बाद मुनिश्री ने वन्दन कर कुंवरजी भाई ऊपर साधुओं नी पासे गया और कहवा लाग्या के महागन ढूंढिया मां सारा सारा साधु होय छे । श्रा ज्ञानसुंदरजी साधु पण ढूंढिया माँ थी आवेला छे, अने शास्त्रों सारो अभ्यास किधे लुं छे, तेत्रो आराधना नो स्वरूप हमणा अमने सारी रीते समझाव्यो छे, आवती काले तेओ ने व्याख्यान माटे अमोए बिनती पण कीधी छ। साधु०-पण एनो व्याख्यान थशे क्यों ? कुँवर०-अहीं ज थवानो। साधु०-पण गुरु महाराज ना पाटा पर तो न बेसाय । कुँवर०-ए मां हुँ वाँधो आवे छे ? साधु०-तमे समझदार थइ ने, एम केम बोलो छो, | गुरु महाराज ना पाटा पर बीजा साधु थी बेसाय खरूँ ? कुँवर०-पछि श्रापणा साधु तेज पाटा पर बेसी व्याख्य न केम वाँचे छ ? साधु-पण आ साधु तो आपणा सिंघाड़ाना नथी ना ? कुँवर०-सिंघाड़ा ना नथी एटले शुं थयो?गुणी तो छे ना? साधुः-शाना गुणी, इँढियां माथी श्रावेला नथी, लीधी कोई ने पासे बड। दीक्षा, नथी किधा योग, एवा साधु गुरु महा राज ने पाटे बेसी व्याख्यान केम वांची सके ? कुँवर० साहेब ढूढिया माँ थी ओव्या आथी थयो ? गुरु महाराज पण पहिला दूं ढयाज हता, दढिया ने पाटे ढूंढिया बेसे पा मां हूँ तो कोई नुकसान जोतो नथी । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५३ भावनगर में व्याख्यान साधु-अगर तमने व्याख्यान वंचाववा नो ज होय तो छोटा पाटा पर बेसाड़ी ने वंचाव जो, गुरु महाराजना पाटा ऊपर न बेसे। कुँवरजी-ना साहेब ! एक विद्वान साधु नो पा प्रमाणे अपमान करवो अमने तो उचित नथी लागतो। _____ साधु-अरे ा साधु तो बहु बोलाक अने चालाक छे, अमने पण कही दीधुं के आ मारवाड़ी बांडा तो मारवाड़ो नो ज होय छे, नकली जाओ तमे आ मकान थी तो एवा साधु ने शु गुरु महाराज ना पाट बेसवा ने अपाय खरूं ? कुँवर-पण, जेम ते मकान ऊपर हक बताव्यो तेम पाटा पर इक बतावी पाटे बेसी जा से तो पाछे श्रापणे शुं करीशुं ? ___मुनि-शुं मगदूर छे के ते पाटे बेसो जाय पण तमारी दानतज एक नकामा साधु ने गुरु ना पाट पर बेसाड़वानी हाय तो पछी अमारे शुं करQ जोइये । कुंवरजी-साहेब ! मांनो के श्रापणे ना पाड़ता छतां ते पाट पर बेसे तो पछि आपणे शुं रह्या ते करतो तो पाट श्राप वो ज सारूंछे न। साधु-जेम तमने गमे तेम करो। कुंवरजी-जोइ सुं जसराजभाई ने पुश्री ले सुं। - इधर-मुनिवरों को शाम को गौचरी तो करनी ही नहीं थी, वे श्रावकों को साथ लेकर शहर में गये तो पहिले प्रात्मानन्द सभा, बाद यशोविजय प्रन्थमाला, जैनधर्म प्रसारक सभा और जैन-पत्र के आफिस में जा कर साधारण तौर पर निरीक्षण किया । श्रामानन्द सभाका हाल अच्छा था उन्होंने व्याख्यान के लिए प्रार्थना की थी कि आपका एक व्याख्यान यहाँ होना चाहिये। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श - ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५५ ने कहा कि कल तो बंडा में व्याख्यान होगा, यदि परसों ठहरेंगे at are यहाँ एक व्याख्यान बांच देवेंगे । शाम के प्रतिक्रमण के पश्चात् फिर कुँवरजी भाई, जसराज भाई वगैरह बहुत से श्रावक आये और धर्म चर्चा तथा कई प्रश्नोतर हुए, उस समय ऊपर ठहरे हुए साधु भी कई पास में बैठ कर प्रश्नोत्तर सुन रहे थे जो उनके लिए अपूर्व ही थे। मुनि श्री का ज्ञान और समझाने की शैली देख सब लोग प्रसन्न चित्त हो गये थे र चतुर्मास के लिए आग्रह पूर्वक विनती करने लगे कि आप सिद्धाचल की यात्रा कर थोड़े दिन काठियावाड़ में विहार कर च तुर्मास भावनगर में करें, आपको बहुत लाभ होगा, कारण यहाँ कई श्रावक सूत्र सुनने के अभिलाषी हैं और ज्ञानाभ्यास करने वाले भी हैं। मुनिश्री ने कहा, क्षेत्र स्पर्शना, किन्तु हमको तो लौट कर गुरु महाराज की सेवा में जाना है । एक श्रावक बोल्यो के साहेब आपना गुरु को नाम शुं छे ? मुनि - परमयोगिराज मुनि श्री रत्नविजयजी महाराज | श्रावक - आ महाराज कोना सिंघाड़ ना छे । मुनि - आचार्य विजयधर्मसूरिजी महाराज ना शिष्य छे ? श्रावक —त्यारे तो आप पण वृद्धिचन्दजी महाराज ना सिंघाड़ा ना ज छो न ? मुनि - सिंघाड़ा अमे जाणता नथी अमे छीए प्रभु महावीर "मा साधु | श्रावक - ते तो खरूं पण तमे वृद्धिचन्दजी महाराज ना सिं Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ मुनिश्री की विशाल भावन बाड़ाना साधु थइ ने आ मोहनलालजो ना साधुओं ने साथे केम विचरो हो ? मुनि - आ थी शुं थयो, तमेतो चौरासी जाति ना वाणीओ ने साथ रहो छो तो शुं श्रमने बीजा साधुओं नी साथे विचरवा नो पण अधिकार नथी ? अमारा गुरु महाराज नो हृदय तो टलो विशाल छे के पांचांगी पूर्ण आगमों ने माने छे ते गमे ते गच्छ सिंघाड़ाना साधु होय अमारे साथ रहो सके छे अने ते पण तेनी इच्छा होय जेटला वख्त सुधी भेटले मैत्रिक भाव थी रहनुं जोइए । श्रावक — ठीक छे साहेब | - मुनि श्री की विशाल भावना का उपस्थित श्रावकों पर अच्छा प्रभाव पड़ा बाद वन्दन कर चले गये । दूसरे दिन मुनिश्री का व्याख्यान उसी बंड़ा में व्याख्यानपीठ पर हुआ, व्याख्यान का विषय था 'पट द्रव्य' जो सातनय चार निक्षेपों पर छः द्रव्यों को घटाया गया था, और उनके द्रव्य गुण पर्याय विषय को खूब विस्तार से समझाया जिसको सुनकर श्रोतागण और विशेषतः कुँवरजी भाई बहुत ही प्रसन्न हुए । तीसरे दिन मुनिश्री का व्याख्यान श्रात्मानंद सभा के हॉल में हुआ, यह सार्वजनिक व्याख्यान था, विषय 'श्रात्मा और कर्म' का था, इस व्याख्यान का तो जनता पर बहुत ही जबरदस्त प्रभाव पड़ा तथा उन्होंने शायद ही इस विषय का ऐसा व्याख्यान पूर्व - कभी सुना हो। कई जैनेतर लोग जैनों को नास्तिक कहते हैं, पर आपका आत्मा के विषय का व्याख्यान सुन कर उनको भी कहना पड़ा कि जैन नास्तिक नहीं पर पक्के भास्तिक हैं । त्रिपुटी मुनिवरों ने तीन दिन भावनगर में ठहर कर वहां के Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड लोगों पर खूब ही प्रभाव डाला । भावनगर एक अच्छा शहर है जैनों की आबादी भी अच्छी है, धर्म पर पूर्ण प्रेम है, जैन संस्थाएं ठीक व सुचारू रूप से कार्य कर रही हैं, मुनिराज पाते समय तो चुप चाप आ गये, पर जाते समय तो सबको मालूम थी, अतः विहार के समय सैंकड़ों नर-नारियां आपको बहुत दूर तक प हुँचाने को गये, लोगों का दिल वापिस लौटने को नहीं चाहता था। ८७ श्रा सिद्धगिरि की यात्रा का आनन्द० जब आपने सुरत से विहार किया था तब से मार्ग में जितने गुजराती साधु साध्वियों की भेंट हुई, उनके आचार व्यवहार देख कर आप को घृणा आने लगी, तथा मेझरनामा लिखने में इतने कारण मिलते गये कि सिद्ध क्षेत्र पहूँचे वहाँ तक मैझरनामा का • कलेवर बढ़ता हो गया अतः मेझरनामा सम्पूर्ण नहीं हो सका। ... जब भावनगर से विहारकर देवगण हो कर दूर से सिद्धगिरि के दर्शन किए तथा वहां चैत्यवन्दनादि सब क्रियाएं की। शहर समीप आने लगा तो माणक मुनि ने पूछा, कहो मुनिजी आप कहां ठहरोगे ? मुनिश्री ने उत्तर दिया कि आप यह बात क्यों पूछते हो, क्या आप हमारे से अलग ठहरोगे ? ____ माणक मुनि-हां, हमारे सिंघाड़ा के पद्ममुनि वैगरहः 'मोती सुखिया' की धर्मशाला में ठहरे हुए हैं हम तो उनके साथ में ठहरेंगे, यदि आप भी ठहरें तो कोई नुकसान नहीं है, पर वे शत्रुञ्जय पर रहे हुए हैं अतः फिर आप उनके आचार व्यवहार देख छेड़-छाड़ नहीं कर सकोगे, कारण सब साधुओं की प्रकृति एक सी नहीं होती है। Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५७ पात्रीताणा में व्याख्यान मुनि०-यह तो मेरे से रहा नहीं मावेगा अतः मुझे एक कोठरी मिल जावेगी तो मैं तो उसमें ही मेरा निर्वाह कर लूंगा, पर ऐसे शिथिलाचारियों के शामिल रहना तो मुझे पसंद नहीं है । तीनों मुनिराज नगर देरासर के दर्शन कर मोती मुखिया की धर्मशाला में गए, और वहाँ अलग कोठरी की याचना की तो मुनीम ने कहा कि यहाँ कोठरी खाली नहीं है, अतः दूसरी धर्मशाला में गये वहां भी कहा कि यहाँ कोठरी खाली नहीं है। तीसरी धर्मशाला में गये तो पूछा कि आपके साथ क्या कोई गृहस्थ हैं ! म. तलब यह था कि वहां धर्मशाला के सब मुनीम भज कल्दारम् के जाप जप रहे हैं । यदि साथ में श्रावक हो तो उनके पास से पैसा लेकर कोठरी दे दे। अतएव जहां गए वहां ही मुनीम लोग अपनी दुकानदारी लेकर बैठे हुए पाये । मुनिश्री ने आम सड़क पर अपना भंडोपकरण रख अपना भाषण देना शुरू कर दिया; पहले तो श्रा. पने तीर्थ महात्म्य और यात्रार्थ आने का कारण बतलाया। आप. की आवाज बहुत बुलन्द थी कि जिसको सुनकर बहुत से लोग एकत्रित हो गए, जब अधिक संख्या में लोग जमा हो गये तब आपने फरमाया कि भाइयो ! मैं सिद्धगिरि की यात्रा करने तो आया ही हूँ, पर मेरा खास ध्येय तो यहां पर मारवाड़ियों की अलग पेटी खोलने का ही है. कारण हम दूर बैठे सुनते थे कि पालीताणा की पेटी में ।-) गुर्जरों की और ॥2) मार. वाड़ियों की आमदनी होने पर भी मारवाड़ी लोग सिर पर पोट लिये उठाये हुए जगह के लिये मारे मारे भटकते फिरते हैं; फिर भी धर्मशाला के मुनीम उनको कुत्तों की भांति दुतकार कर धर्मशालाओं से निकाल देते हैं, अतः बिचारे मारवाड़ियों को इस Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान- द्वितीय खण्ड तीर्थ पर घास फूँस जितनी भी कदर नहीं है ? यह तीर्थ क्या एक चौर पली है, जिसकी जेब में मुनीमों का खप्पर भरने को पैसा है वह तो वहां आराम से ठहर सकता है, नहीं तो भटकता फिरो, कोई पूछता भी नहीं है जिसको मैं आज नजरों से देख रहा हूँ । श्रतएव अलग पेटी खोल कर मारवाड़ी यात्रियों का प्रबंध करवाना हमारा मुख्य कर्तव्य है, इसी कारण मेरा यहां आना हुआ है ! हां मुझे यदि जगह नहीं मिले तो मैं तो सड़क पर भी ठहर सकता हूँ, पर हमारे भाइयों को हम इस प्रकार दुखी देखना नहीं चाहते हैं, इत्यादि १|| घंटे तक मुनिश्री ने व्याख्यान दिया । यह बातें पेडी के मुनीम एवं धर्मशालाओं के मुनीमों के कानों तक पहुँची । पेडी के मुनीम ने आकर मुनिश्री से प्रार्थना की कि, साहेब श्र पने माटे श्रीं बहु मकान छे, चालो मोती सुखियानी धर्मशाला चालो आ कोटावालानी धर्मशाला, आ मधुलाल बाबूनी धर्मशाला, चालो श्रा पुरीबाई नी धर्मशाला, नहीं तो मारवाड़ी बंडो आपने माटे तैयार छे । तथा धर्मशालाओं के मुनीमों ने भी आकर रही विनती की, इस पर मुनिश्री ने कहा, मुनीमजी मैं तो अकेला साधु हूँ, मुझे इतने बड़े मकानों की आवश्यकता नहीं है, मैं तो इस सड़क एवम् किसी घोटला पर रह कर भी तीर्थयात्रा कर सकूंगा, पर इस तीर्थ पर इतना पक्षपात ! इतना भेदभाव कि किसी के लिये तो बंगला खुल्लता है, और किसी भाई को पैर रखने को भी स्थान नहीं मिले, यह कितना अन्याय है ? मुनीम ने कहा नासाहेब, वात गलत छे, अहीं कोई नो पक्षपात नथी पण बधा नो सरकार थाय छे। साहेब दिन चढ़ी गयो छे, हम तो पधारो, पछी हूँ आपनी सेवा में हाजिर थईश, अने अहीं नी बधी ५५८ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ खरतर गच्छीय साधुनों का मिलाप हकीकत आपने कहीश। बस, पास में ही कोटावालों की धर्मशाला थी वहां ऊपर के एक हाल में खरतर गच्छ के क्षमासागरजी व हरिसागरजी वगैरह साधु ठहरे थे, उनके हॉल के पास में ही एक दूसरा अच्छा हॉल था वह मुनिश्री के लिये खोल दिया गया और मुनीम ने साथ चल कर श्राहार पानी की सब योगवाई करवा दो। ___ गोचरी पानी करने के बाद खरतर गच्छ के साधु आये जिस. में एक क्षमासागरजी नाम का अच्छा साधु था, तथा बल्लभसागर. जी जो पढ़ा लिखा तो मामूली था पर अपने आचार व्यवहार में अच्छा साघु था। इन सब साधुओं में बड़े हरिसागरजी थे थोड़ी देर बात चीत को तथा कहा मुनिजी आज तो आपने व्याख्यान दे कर मारवाड़ियों की ठीक सिफारिश की । यहां का ढंग ही ऐसा है हम लोगों ने भी बीकानेर की बाई के पास से इस मुनीम की मुट्ठो गर्म कराई तब यह एक कमरा मिला है, पर आपने तो आते ही ऐसे हाथ बताये कि खास मुनीम ने आकर आपके लिये कमरा खोल दिया, यदि कोई अन्य अकेला साधु आया होता तो यहां कोई पूछता तक भी नहीं । खैर अच्छा हुआ, आपका समागम होगया जिसकी कि बहुत दिनों से अभिलाषा थी, कल हमारे साथ पहाड़ पर चलना, हम आपको सब यात्रा करवा देंगे। मुनिश्री ने कहा, बहुत अच्छी बात है। पालीताणा में १॥ घण्टे का व्याख्यान देने से मुनिश्री का छापा जम गया । गर्म पानी करने वाले को भी साधु-साध्वी कुछ न कुछ दिलावें तब ही सुख से पानी मिल सके; परन्तु जब मुनि श्री पानी के लिये गये, आप हाथ में डंडा भी खूब जाड़ा-मोटा रखते थे, पानी वाले ने पूछा, शुं मारवाड़ी साधु तमेज छो ? मुनि Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० श्रीने कहा हाँ बोल तमारे शु कहवानो छे १ ना साहिब आप वे- ला आवी ने पानी बोहरिया करें, आपने माटे पाणी ठारी घड़ो जुक्षेज राख्यो छे, पेढ़ी ना मुनीमजी श्रमने कही गया छे, ओटले आपने अर्ज करी छे । आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड 1 1 दूसरे दिन तड़के २ ही पास में ठहरे हुए खरतरों के साधुओं ने तैयारी कर मुनिश्री से कहा, चलो यात्रा करने को। मुनिश्री ने कहा अभी तो अंधेरा है, प्रतिलेखन भी करनी है, साधुओं ने कहा कि हम लोगों ने तो प्रतिलेखन कर ली है, पहाड़ पर चढ़ना है अतः शीघ्रता करो । मुनिश्री ने कहा, महात्मन् यात्रा संयम की वृद्धि के लिए की जाती है, न कि विराधना के लिए जरा ठहर जाओ, सूर्योदय होने दो । मुनिश्री के कथनानुसार वे साधु ठहर गये, जब ठीक समय हो गया तो मुनिश्री प्रतिलेखन कर तैयार हुए । चलते समय खरतरों की साध्वियाँ एवं कई थली की विधवा औरतें भी साथ हो गई, वे हरिसागर के पास चलती हुई खूब दिलगी एवं मजाक की बातें कर रही थीं, पहाड़ पर चढ़ने में तो वे साध्वियाँ एवं विधवाएँ इतनी छालों पर आ जाती थीं कि अपने - शरीर से साधुओं का संगटा भी कर देती थीं, साध्वियाँ भी उनसे किसी प्रकार कम नहीं थी, इस प्रकार का दुश्चरित्र देख पहिले ही दिन मुनिश्री को घृणा आने लगी कि इस पवित्र तीर्थ यात्रा का समय कर्म तोड़ने का है यदि यहाँ ही कर्मबंध का कारण हो तो -बड़ी अफसोस की बात है । क्षमासागरजी समझ गये, तथा वे मुनिश्री को लेकर आगे बत घरे । हरिसागरजी, साध्वियों और विधवाओं के साथ पीछे रह गये। मुनिश्री से रहा नहीं गया अतः क्षमासागरजी से कहा कि आपके साधु-साध्वियों की यह Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६१ श्री सिद्धगिरि की यात्रा क्या प्रवृत्ति है ? इस प्रकार तीर्थ स्थान पर गृहस्थ भी हंसी-मजाक नहीं करते हैं, क्षमासागरजी ने कहा, मुनिजी आप जानते हो कि सब जीव कर्माधीन हैं, मैं बहुत कहता हूँ पर इन्हों की तो यह एक आदत सी हो गई है, मैं इस बात को अच्छी तरह से सम मता हूँ, पर क्या करूँ ? यहाँ यात्रा करने को आये अतः अब अलग रहना भी योग्य नहीं समझता हूँ, और यह बीकानेर की विधवा बाई है तथा यह हरिसागरजी के कहने से दो पैसा खर्च भी करती है, अतः इनका लिहाज भी नहीं तोड़ा जा सकता है । मुनि श्री ने इन बातों को सुन कर अत्यन्त खेद प्रकट किया कि पंच. महाव्रत और नौवाड़ ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने वालों का यह हाज यह तो समुद्र में लाय लगाने जैसा हाल है। क्षमासागरजी के साथ मुनिश्री ने सब से पहिले आदीश्वरजी की टुक विमलवसही में जाकर दर्शन किए तो आपके हर्ष का पार नहीं रहा-प्रतिक्षणा दे कर पांच स्थानों पर चैत्य वन्दन किया और बहुत देर तक वहाँ मूर्तिवत् होकर ध्यान लगा दिया। बाद में क्षमासागरजी ने श्रीरत्नप्रभसूरि के पादुके बतलाये और कहा कि इन महात्मा ने सब से पहिले ओसवंश की स्थापना की और इस पवित्र स्थान पर शरीर का त्याग कियाथा अतः मुनिश्री ने वहाँ पर भी बहुत देर तक गुरु भक्ति की। बाद में मोतीशाह की टुक में आये, वहाँ के दर्शन कर शेष दूकों के देव जुहार कर गोटी की पाग गये और वापिस विमलवसही वी यात्रा कर करीब चार बजे क्षमासागरजी, वल्लभसागरजी और हमारे मुनिश्री पहाड़ से नीचे उतरे वहाँ तक हरिसागर का मि. लाप तक भी नहीं हुआ, वह सखियों के साथ कहाँ घूमता रहा जिसका पता भी नहीं लगा। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५६२ मुनिश्री ने क्षमासागरजी से पूछा कि दिन बहुत कम रहा है हरिसागरजी अभी तक आये नहीं हैं फिर वे अहार-पानी कब करेंगे। क्षमासागरजी ने कहा कि मुनिजी मैं आपको क्या क्या कहूँ। आज कल का साधुपना केवल नाममात्र का ही है। जिसमें भी दो दो चार चार वर्षों के लड़कों को दुकाल में मूल्य स्वरीद कर साधु बना देते हैं वे विचारे साधुधर्म को कैसे पाल सकते हैं। इतना ही नहों पर वे साधु पद को कलंकित करने में भी नहीं चूकते हैं। मुनिश्री-क्या हरिसागरजी भी इस कोटि के साधु हैं ? ' क्षमा०-हाँ इनको भी बच्चपने में मूल्य खरीद कर साधु बनाया है। मुनिश्री-हरिसागरजी जाति के कौन हैं । क्षमा०-जाट हैं ! मुनिश्री-चुप होकर अपने मन में विचार करने लगे कि अहा-हा वीरथारा शासन जिस दीक्षा को आत्म-कल्याण का कारण बतलाया था वही दीक्षा आज इन जाटड़ों के सुखभोग और "उदरपूर्णा का कारण बना है भला घरांण की विधवाओं और साध्वियों ऐसे जाटड़ों के हाथ लग गई और द्रव्य की खुल्ले हाथों छूट फिर तो कहना ही क्या वे न करे उतना ही थोड़ा है इत्यादि अफसोस करते हुए पूछा की क्या हरिसागर अहार-पानी यहाँ आ कर करेंगे। Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धिगिरि को यात्रा क्षमा०-बीकानेर की औरतों के साथ एक रसोईदार है वह रसोई बना कर तलेटी पर ले जाता है वहाँ साध्वियों बाइयों और हरिसागरजी अहार-पानी कर लेते हैं बाद यहाँ आते हैं। मुनिश्री क्षमासागरजी से और भी बातें होने से ज्ञात हुआ कि हरिसागर पतित प्राचार वाला नाम मात्र कासाधु है और यह लोग साधुओं के लिये बनाया हुआ तथा सामने लाया हुआ इतना ही क्यों पर साध्वियों का लाया हुआ आहार-पानी भी साधु कर लेते हैं, अधिक ठहर ने से आर क्या देखते हैं कि कभी २ तो आहार पानी करते समय बीकानेर की विधवा या जाती थी तब हरिसागर श्राहार पानी छोड़ कर उसके पास बैठ कर एकान्त में गुप्त बातें करने लग जाता था; इसका कारण कदाचित् यह हो सकता है कि हरिसागर जाति का जाट है, छप्पना के दुकाल में जब यह चार वर्ष का था तब ढाई रुपयों का धान देकर इसे मूल्य लिया था, अतः यह बिचाग जैन दीक्षा में क्या समझे ? और इसको बिना दीक्षा इस प्रकार के साधन कब हाथ लगने का था। खैर इस विषय में मैं यहाँ अधिक लिखना अप्रासंगिक समझता हूँ; दूसरे जैसी गति वैसी मति आया ही करती है। हमारे चरित्रनायकजी निरन्तर २० दिन तक यात्रा का आनन्द लूटते ही रहे, पर बाद में आपको जोर से बुखार आने लग गया, इससे यात्रा करना बन्द हो गया और पहिले आपका विचार गिरनारजी की यात्रा करने का था पर वह भी फिलहाल स्थगित रखा। दूसरा एक यह भी कारण था कि आपका शरीर बहुत कम Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५६४ जोर हो गया था और यह भी सोचा कि गिरनार की यात्रा रह जायगी तो श्री सिद्धगिरि की फिर दुबारा यात्रा हो जायगी, अतः इस प्रकार शरीर की लाचारी के कारण विहार कर गुरु महाराज के पास या गुरु आज्ञा से मारवाड़ जाना ही आपने अच्छा समझा था । क्षमासागरजी, वल्लभसागरजी ये दोनों गुरु शिष्य अच्छे सुशील और क्रियापात्र साधु थे, क्षमासागरजी को ज्ञान पढ़ने को भी अच्छी रुचि थी। मुनिश्री के पास रात्रि में चार चार घंटा रह कर ज्ञानाभ्यास करते थे और आपकी इच्छा थी कि एक दो चतुर्मास भी मुनिश्री के पास करूं तो शास्त्रों का अच्छा अभ्यास हो जाय। मुनिश्री ने अपना शरीर के कारण विहार करने का निश्चय कर लिया तब क्षमासागरजी ने सोचा कि यहाँ तो हरिसागरजी का यह हाल है अधिक रहने से इसके साथ मेरा भी नाम बदनाम होगा अतः मुनिश्री के साथ मारवाड़ जाकर एक दो चतुर्मास आपके साथ कर सूत्रों का अध्यन करना उचित है । अतः मुनिश्री से प्रार्थना की कि यदि आप मारवाड़ पधारें तो हम लोग भी आपकी सेवा में साथ चलना चाहते हैं ? मुनिश्री ने कहा बहुत खुशी की बात है, जहाँ तक बन सका में आपको शास्त्रों की बंचना और ज्ञान देता रहूँगा । साथ में आपसे मैं यह भी कह देता हूँ कि आपको इस हरिसागरजी के साथ में भी नहीं रहना चाहिये इसका कारण श्राप जानते ही हैं इत्यादि । अगर हरिसागर को आप साथ में रखोंगे तो मेरे पास में आपका निर्वाह नहीं होगा। ___ जब क्षमासागरजी वल्लभसागरजी मुनिश्री के साथ चलने को तैयार हो गये तो हरिसागरजी वहाँ कब रहने वाले थे ? वे भी Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ मेझर नामा में वृद्धि साथ में हो गये अर्थात् सब जने साथ में विहार करने का निश्चय कर लिया । शत्रुञ्जय पर आप २५ दिन ठहरे, वहाँ के साधु साध्वियों का आचार व्यवहार देख कर तो आप यही सोचने लगे कि यह बिचारे बाल जीव यात्रा की ओट लेकर उल्टे कर्म बन्धन कर रहे हैं । हाँ, इनमें कई अच्छे साधु भी होंगे, पर प्रायः ऐसे साधु अधिक थे कि यदि कोई दातार श्रावक वहां आ निकलता और मिष्टान्नादि रसोई बनाई हो तो एक के ऊपर एक साधु साध्वी उन पर इस प्रकार का श्राक्रमण करते थे कि उन गृहस्थों को अपने लिये फिर दूसरी बार रसोई बनानी पड़ती थी; तथा कई वेशधारी तो ऐसे भी थे कि गोचरी की लाई हुई रोटियों तक को बेच कर पैसा जमा कर लेते थे — और कपड़ा, पुस्तक वगैरः के लिये रुपया, - आठ आना, और चार चार श्राने मांगने में भी नहीं चूकते थे । जिसमें साध्वियों की हालत तो इससे भी खराब थी; जिस समय चौकी (मोटलों) पर बैठ कर कपड़ा धोती थीं तो उनको क. पड़ों तक की भी सुधि नहीं रहती थी । इस प्रकार के हाल आपने संक्षिप्त से मेरनामा में दर्ज भी कर दिए थे । मुनिश्री ने गुजराती साधु साध्वियों के आचरण और विशेषतः पालीताणा का हाल देख कर यही विचार किया कि ढूँढिये लोग यों तो जिन शासन से प्रतिकूल हैं, इनकी श्रद्धा और आचरणा लोक निंदनीय है, पर इनके अन्दर से आए हुए साधुओं ने शासन का उद्धार अवश्य किया है । यदि ढूँढ़ियों में से स्वामि बुटेरायजी, आत्मारामजी, मूलचन्दजी, वृद्धिचंदजी जैसे उद्धारक नहीं निकलते, अर्थात वे संवेगी नहीं बनते तो, न जाने इन संवे ३६ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५६६ गियों का क्या हाल होता १ अर्थात् घर मांड कर बैठ जाते और क्या होने वाला था? ____ यतिओं की शिथिलता के कारण तो पीला कपड़ा कर संवे. गियों ने शासन का उद्धार किया, पर पीले कपड़े वाले नामधारी संवेगियों के लिए किसी उद्धारक को आवश्यकता थी जिसको कि हूँ ढियों से निकले हुए साधुओं ने पूर्ण को, अर्थात् पतित होते हुए संवेगियों का उद्धार किया । पर इस समय तो वह शिथिलता अपनी चरम सीमा तक पहुंच गई है, और पीले कपड़ों का जीर्णोद्वार करने की और भी आवश्यकता प्रतीत होने लगी है । खैर, शासनदेव किसी न किसी को बल एवं योग्यता प्रदान करेगा ही। ८८ मनि श्री का सिद्धगिरि से बिहार श्री सिद्धगिरी की यात्रा कर माघ कृष्ण पंचमी को वहाँ से विहार कर क्षमाागरजी वगैरह ४ साधुओं तथा हमारं चरित्र नायकजी, एवम् सब पांच साधुओं ने वहाँ से विहार कर सिहोर होकर वल्लभी आए, वहा जिनमंदिर में एक ओर गुरुमन्दिर बनवाया था; उसमें बहुत से पाचार्यों की मूर्तियां भी स्थापित की गई थीं उनके भी दर्शन किये बाद वहाँ से वर वाला, चाकी, खरल होकर धंधूके आये । वहाँ दो दिन ठहरे मुनिश्री ने एक सार्वजनिक व्याखान भी दिया। वहाँ से फुलेरा, उतेलिया, कोट, गंगार बाबला और सरखेज होते हुए अहमदाबाद अ ये और हटीसिंह की बाड़ी में श्रीधर्मनाथ तीर्थकर के दर्शन कर बाड़ी में ठहर गये । पीछे पीछे साध्धियाँ भी अहमदाबाद आ पहुँची और वे भी उसी बाड़ी के दूसरे मकान में ठहर गई और उनके आने जाने का प Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७ श्री सिद्धिगिरि की यात्रा रिचय पहिले था उसी भाँति रहा; उनमें एक विनयश्री साध्वी थी वह तो इतनी नादान तथा खराब आचरण वाली थी कि कभी २ हरिसागर के साथ कुश्ती, खेल आदि किया करती थी, और आखिर उसकी यह दशा हुई कि उसने गर्भवती हो वेष परित्याग कर एकपुत्र को जन्म दिया। जब उसका छुटकारा हुआ तो फिर खरतरों के गुरुबन गई । और आज वह विद्यमान भी है । मुनिजी की तबियत पालीताणा में ही कुछ खराब थी, फिर विहार के कारण विशेष खगब होगई थी। इधर अहमदाबाद वालों ने नगर में पधारने का आग्रह किया, पर बाड़ी की आबहवा अच्छी थी, तथा फलौदीवाले पदमचंदजी, संपतलालजी. वगैरह नया माधौपुरा में नजदीक ही थे; वहाँ आप कुछ औषधि सेवन कर रहे थे; जब थोड़ी बहुत तन्दुरुस्ती हुई कि उधर से गुरु महाराज का पत्र पाया कि तुम मारवाड़ न जाश्रो किंतु मेरे पास श्रा जाओ। इस हालत में आपको अहमदाबाद से विहार कर सुरत जाना पड़ा, रास्ता पहिले वाला ही था। रास्ते में जो कोई साधु होता तो श्राप उससे अवश्य मिलते । आपको इस बात का बड़ा शौक था । यदि भार्ग में ५-७ मील की दूरी पर इधर उधर भी साधु का नाम सुन लेते तो आप चक्कर खा कर भी उनसे अवश्य मिलते थे। • जब गुरु महाराज को यह समाचार मिला कि आज मुनिश्री कतारगांव पधारने वाले हैं तो आप स्वयं कई भक्त श्रावकों को साथ लेकर तारगांव पधारे, तथा आप गुरु शिष्य की वहाँ पर आनन्द पूर्वक भेंट हुई, मुनिजी ने अपनी यात्रा वगैरह, का सब हाल गुरुजी को निवेदन किया । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५६८ मुनिश्री चलने में भी बड़े तेज निकले, कार्तिक चतुर्मास गुरुजी के शामिल किया था, बाद में इतनी यात्रा करके भी फाल्गुन चतुर्मास गुरुजी की सेवा में आकर कर लिया आपके पधारने पर पुनः आपका व्याख्यान प्रारम्भ हुआ, क्योंकि जनता को आपका व्याख्यान पसंद एवं प्रिय था। ___ चतुर्मास में प्राचार्य श्रीविजय धर्मसृरिजी ने पालीताना से योगीराज ऊपर एक पत्र लिखा था कि सुरत में बहुत से पुरुष धनाड्य हैं, यशोविजय प्रन्थमालादि संस्थानों के लिए उपदेश कर महायता भिजवाना । योगीराज इन बातों से हजार हाथ दूर रहते थे, उन्होंने मुनिश्री को बुलाकर कहा, "जोओ टुकानदारी ना काम" श्राचार्यश्री का पत्र बंचाया और साथ में आपने उत्तर लिखा था वह भी बंचाया, जिसमें आपने लिखा था कि, पैसा छोडीने अमें योगी थया लिए, अर्थात् अमारा तकदीर मां पैसा नथी, पण योग लखेलो छे, हुँ कोई ने पैसा नो उपदेश आप तो नथी अने कदी आपुं तो मारे पासे कोई लोग आवशे पण नहीं, अटले चतुर्मास उतरी जाय, पच्छी आप स्वयं अत्र पधारीने उपदेश आपो, अने दुकान नो काम चलाओ । पत्र पढ़कर मुनिश्री ने विचार किया कि खरो-खरी महात्मा यही है। पालीताणा का चतुर्मास के पश्चात् सूरिजी ने सुरत की ओर विहार किया। चैत्र शुक्ला १ के दिन इन्द्रविजयजी, विद्याविजयजी, न्यायविजयजी और एक अन्य साधु अर्थात् चार साधु सुरत आये। कदाचित् पहिले सूचना न मिलने से कोई भी सामने नहीं गया, वे गोपीपुरा नेमुभाई की बाड़ी में जाकर ठहर गये । जब योगोराज को मालूम हुई तो मुनिश्री को साथ लेकर आप गोपीपुरा Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान 0 *++++ +++ Dr Winter nutz Hermans Jacobi Otto Stein PW Thomas स्वर्गस्थ - शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी Jarl Charpenter CH Krause Helmuth vorGlase napp A Guarinot Jon Notect VIJAYADNRM SUR Sylvan Levi. BFadd gon ---- Dr J Hertel. FBellor Filip Jadi usver Negelsin. अनेक यूरोपियनों को जैनधर्म के भक्त बनाये Hultasch Sten Konow -0 ++++++ Page #661 --------------------------------------------------------------------------  Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६९ सुरिमी और योगीरान पधारे और अर्ज की कि मैं यहाँ ठहरा हुआ था, फिर आप यहाँ भाकर अलग ठहरे, इसका क्या कारण है ? क्या आपको प्राचार्यश्री की ऐसी श्राज्ञा है ? इन्द्रविजयजी ने कहा नहीं मुझे यह मालूम नहीं थी कि आप बड़ेचोटे ठहरे हुए हैं अतः मैं यहाँ ठहर गया। योगी०-खैर, सूरिजी महागज कब पधारेंगे ? ३० वि०-कल कतार गांव पधारेंगे। योगीराज दूसरे दिन कतारगांव गये, मुनिश्री ने भी साथ चलने को कहा, पर योगीराज ने कहा कि तुम यहीं ठहरो। योगीराज कतार गांव गये, इधर से सरिजी भी पधार गये। सूरिजी के साधु गोचरी-पानी लाये और सूरिजी ने योगीराज को कहा, आश्रो रत्नविजयजी गोचरी करो। - योगी०-मैं आपके साथ गौचरी नहीं कर सकता हूँ ? • सूरिजी०-क्यों क्या कारण है ? योगी-मैं ज्ञानसुन्दरजी के साथ गोचरी करता हूँ, कदाचित आपके साधु इसके लिए ऐतराज करें; शायद इन्द्रविजयजी आदि इसी कारण गोपीपुरा में अलग ठहरे हुए हैं । सूरिजी-हाँ, तुमको व्यवहार तो रखना ही चाहिये । 'ज्ञान सुन्दरजी' की अभी बड़ी दीक्षा नहीं हुई है, अतः तुम आहार पानी उसके शामिल कैसे करते हो ? योगी०-ज्ञानसुन्दरजी को मैंने बड़ी दीक्षा दे दी है, अतः उनके साथ रहने में एवं आहार पानी करने में मुझे कोई दोष मालूम नहीं होता है। :: सूरिजी-ज्ञानसुन्दरजी ने योग किसकेपास किया ? Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड योगी०-जब आचार्य ही वीना योग के होने लग गये तो बड़ी दीक्षा को तो कौन पूछता है ? और ज्ञानसुन्दरजी ऐसे कल्पित योग करना भी नहीं चाहते हैं, अतः सच्चा योग तो उन्हो ने कर लिया है। सरिजी-- हाँ, तुम्हारा कहना सत्य है, मैं बिना योग का आचार्य बन गया हूँ। ___ योगी-मैं आपके लिए ही नहीं कहता हूँ, पर यह प्रथा स्वामि आत्मारामजी की चलाई हुई है, जो कि एक समर्थ महापुरुष थे, और उन्होंने याग नहीं करने पर भी अपने साधुओं को बड़ी दीक्षा दी थी तथा आज वह प्रमाणिक भी समझी जा सकती है, तो फिर ज्ञानसुन्दरजी की बड़ी दीक्षा के लिए ही ऐसा क्यों कहा जाता है ? सूरिजी-पर बड़ी दीक्षा तो विना योग नहीं हो सकती है ? योगी-व्यवहार सूत्र में कहा है कि छोटी दीक्षा के बाद कम से कम सातवें दिन बड़ी दीक्षा आ सकती है। यदि दीक्षा के योग्य हुए साधु को सातदिनों में बड़ी दीक्षा नहीं दी जावे तो नहीं देने वाले श्राचार्य या अग्रसर साधुको प्रायश्चित होता है, ऐसा मूल सूत्रकारों ने बतलाया है । तब, फिर मैंने ज्ञानसुन्दरजी को बड़ी दीक्षा दे कर कौनसा अन्याय किया है ? __सूरिजी-पर आज तो यह प्रवृति सर्वत्र चल रही है कि ७ दिन मांडली के ८ दिन आवश्यक सूत्र के, और १५ दिन दश वैकालिक सूत्र के एवं एक मास का योग किए बिना बड़ी दीक्षा नहीं दी जाती है। योगी०-क्या हम प्रवृति को सत्य मानें और सूत्र के पाठ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७१ स.रिजी और योगीराज को झूठा समझे ? जो गणधरों ने फरमाया है । सूरिजी-नहीं, सूत्रों के पाठ को पहले मानना चाहिये । योगी०-बस, मैंने सूत्र के अनुसार ही ज्ञान सुन्दरजी को बड़ी दीक्षा दी है, यदि इस विषय में कोई शास्त्रार्थ करना चाहता हो तो मैं शास्त्रार्थ कर इस बात को सिद्ध करने को प्रस्तुत हूँ कि योग्य साधु को सातवें दिन बड़ी दीक्षा दी जा सकती है । फिर आपके एक मास के योग को वहाँ स्थान मिल सकता है ? सूरिजी-तुम योगीराज हो, तुम्हारे लिए हम कुछ भी नहीं कह सकते हैं । लो आओं आहार पानी तो करलो । योगी-आहार पानी करने के लिए मेरा इन्कार नहीं है, पर दूसरे साधु आपको कुछ कहेंगे तो नहीं न ? ___सूरिजी-दूसरे साधु क्या कह सकते हैं, वे मेरी आज्ञा में हैं या मैं उनकी श्राज्ञा में हूँ ? पर मैं एक बात तुमको और कह देता हूँ कि यदि हम सुरत में रहें वहाँ तक तुम ज्ञानसुन्दर के साथ न रह कर हमारे साथ रहो तो अच्छा है । योगी-यह हमारे से नहीं बन सकता। सूरिजी-अच्छा तुम बड़ेचोटा के उपाश्रय में ठहरना, तथा हम गोपीपुरा में ठहर जावेंगे। योगी०- बहुत अच्छा है। सरिजी-लो, अभी तो आहार पानी कर लो। योगीः-सरिजी के साथ श्राहार पानी कर लिया और रात्रि भर वहीं सूरिजी महाराज की सेवा में रहे । ____ दूसरे दिन तो सूरिजी महाराज का बड़ा ही शानदार सम्मेलन हुभा, मुनि ज्ञानसुन्दरजी भी सूरिजी की सेवा में पहुँच गये; सूरि Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५७२ जी महाराज इतने दयालु, मधुर भाषी और मिलन सार थे कि कोई भी उनके पास जाओ, उनका यथोचित सत्कार कर उनके दिल को खुश कर दिया करते थे । अतः आपके स्वागत में बाजा गाजा, नक्कार-निशान, कोतल, मोटरें आदि तो थी ही, पर सातों उपाश्रय के सब श्रावक, श्राविकाएं भी उपस्थित थे । बादशाही जमाने के गेरदार जामे और आभषण पहिने हुए सेठियां. को देख सूरिजी महाराज ने कहा कि सुरत वास्तव में एक जैन पुरी ही है । धर्म पर लोगों की अत्यन्त श्रद्धा और अच्छा प्रेम है । जब सूरिजी गोपीपुरा में पहुंचे तो नेमुभाई की वाड़ी के उपाश्रय में मंगला चरण एवं अल्प किन्तु सारगर्भित देशना दी, फिर प्रभावना के साथ सभा विसर्जन हुई । सूरिजी का सुरत में पहिले पहल ही पधारना हुआ छतः जनता के दिल में बड़ा ही उत्साह था। _____ जब गोपीपुरा में सूरिजी का व्याख्यान होने लगा तो बड़ा चोटा में मुनिश्री ने अपना व्याख्यान बन्द कर दिया और कभी कभी योगीराज तथा मुनिश्री सूरिजी का व्याख्यान सुनने को गोपीपुरा भी चले जाते थे। ___जब भगवान महावीर की जयन्ती का दिन निकट आया तो श्रीसंघ द्वारा यह निश्चय किया गया कि जयन्ती एक ही स्थान होनी चाहिये और इसके लिये नेमुभाई की वाड़ी में सरिजी की अध्यक्षता में ही होना निश्चय किया तथा उत्सव के लिए बड़ी भारी तैयारियां होने लगीं । जनता को नोटिस द्वारा खबर पहुँचा दी थी अतः ठीक जयन्ती के समय जैन-जैनेतर लोग इतने जमा हुए कि लोगों को वहाँ बैठने को स्थान तक भी मुश्किल से मिला मंगला चरण के पश्चात् सबसे पहिले मुनि न्याय-विजयजी का Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७३ सुरत में महावीर जयन्ति व्याख्यान हुआ, बाद मुनि विद्याविजयजी का बाद सूरिजी ने कहा, मुनिजी आप भी कुछ बोलोगे ? मुनिजी ने कहा कि आपकी आज्ञा होनी चाहिये ? सूरिजी ने कहा, समय तो थोड़ा ही है, पर १५ मिनिट का समय आपको दिया जाता है । हमारे चरित्रनायकजी ने सूरिजी महाराज को नमस्कार करके 'महावीर का मुख्य सिद्धान्त और गणधर रचित प्रथम अंग, ' आत्मवाद 'लोक (सृष्टि) वाद, कर्म-वाद' और क्रिया-वाद इन चारों का इतना सुन्दर वर्णन किया कि आपने अपने 'ज्ञान सुंदर' नाम को सार्थक बना दिया । उपस्थित श्रोता गण तो क्या पर सूरिजी माहाराज भी आश्चर्यान्वित हो गये । इस पर सूरिजी के मन मन्दिर में यह लग्न लग गई कि ज्यों त्यों कर मुनिजी को अपने साथ में ले लेना चाहिये, अस्तु । अन्त में सूरिजी महाराज ने उपसंहार करते हुए महावीर के जीवन की विशेषताएं बड़ी खूबी से बतलाई जिसको सुनकर सब लोग मंत्र मुग्ध बन गए और जयध्वनि के साथ सभा विसर्जित हुई एक दिन सूरिजी ने अपने माननीय शिष्य योगीराज रत्न विजयजी से कहा कि तुम हमारे साथ बम्बई चलो । योगी० - अमारे बम्बाई थी शुं लेवो छे ? सूरिजी -- बम्बाई सारो क्षेत्र छे । योगी : - अमारी प्रकृति आप जाणो छो, पेटला बधा साधुनों नी धमाल मने गमती नथी । सुरिजी० - खैर, ज्ञानसुन्दर को तो हमारे साथ भेज दो । योगी० - पूछी लेजो ज्ञानसुन्दर ने, पण मारा खयात थी ते आपनी साथे चाल से नहीं । Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५७४ सूरजी०-शुं कारण छे ? योगी०-श्रा पण एकांत मां रह पसंद करे छ। ' सूरिजी०-आवा विद्वान् साधु एकान्त मां रही शुं लाभ उठायी सकशे। योगी-तेओने जे लाभ एकान्त मां मले ते धमाल मां मलतो नथी। सूरिजी-शुंतमें ज्ञानसुन्दर ने उपकेश गच्छमां की दीधा ? योगी-जी हाँ। सूरिजी-आनो शु कारण छे ? योगी-कारण एज के एकान्त मां रहे। सूरिजी-शुतपा गच्छ मां एकान्त नथी रही सकता ? ओछामां श्रोछ तेने तमारो शिष्य तो बनाव्या होत । योगी-हुँ पोते पण शिष्यज छं, श्रेटले बीजाने केवी रीते शिष्य बनावें । सूरजी-पण उपकेशगच्छ मां नथी कोई साधु, नथी कोई साध्वी, पछे एक साधु बनावा मां लाभ शु? योगी-आ जेष्ठ गच्छ छे, आ गच्छनो जैन समाज पर घणु उपकार छे, पण लोगो आ गच्छ ने बिल्कुल भूली गया छे, अटले कृतघ्नी बनेला जीवों ने ा कृतज्ञ बनावशे । सूरिजी-जे तमे करो ते सारुंज छ। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ सागरानन्दसूरि का सुरत में पधारना । सागरानन्दसूरिजी बम्बई से भू भ्रमण करते हुए सुरत पधारे और उस दिन श्रापका मुकाम संग्रामपुरा में हुआ, आचार्यविजयधर्म सूरिकी इतनी उदारता एवं वात्सल्यता कि आपने अपने शिष्यविद्याविजयजी और न्याय विजयजी को सागरजी के सामने भेजे, इधर से योगीराजश्री ने भी हमारे चरित्र नायकजी को सागरजी की सेवा में भेजे, सब साधुओं ने वन्दन व्यवहार किया, बाद सागरजी ने पूछा, आपका नाम क्या है ? पनिश्री ने कहा कि मेरा नाम ज्ञानसुन्दर है, सागरजी समझ गये कि प्रश्न करने वाला ज्ञानसुन्दर साधु यही है । सुरत की जनता ने सागरजी का अच्छा सत्कार एवं संमेला किया; जब श्राप नगर में आ रहे थे तो आचार्य विजयधर्मसूरिजी भी सागरजी के सामने आए, पर सागरजी ने अपने घमन्ड में सूरिजी का श्रादर सत्कार भी नहीं किया, इस पर समझदारों ने समझ लिया कि कहाँ तो विजयधर्मसूरि की उदारता कि सागरजी के स्वागत के लिये आप स्वयं चलाकर आए, और कहाँ सागरजी की संकुचितता कि इन्होंने थोड़ा भी आदर नहीं किया। विजयधर्मसूरि थोड़ी देर तो वरघोड़ा के साथ चले, बाद मौका पाकर गोपीपुरे चले गए, और सागरजी बड़ेचोटा के उपाश्रय जहाँ योगीराज और मुनिश्री ठहरे थे वहाँ जाकर एक तरफ कमरे में उतर गए; किंतु सुरत की जनता के दिल में जैसा उत्साह और उमंग वनयधर्मसूरिजी के आगमन के समय था वैसा अब नहीं रहा। जब सागरजी ने आहार पानी से निवृत्ति पाई तो मुनिश्री श्रा Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान द्वितीय खण्ड ५७६ पके पास गए और फेटा वन्दना कर बैठ गये; किंतु सागरजी किसी पुस्तक का प्रुफ लेकर उसका संशोधन करने लग गये । जब सागरजी को बोलते नहीं देखा, तो मुनिश्री ने कहा आपने आगम छपवाकर जैन जनता पर बड़ा भारी उपकार किया है । __ सागरजी प्रफ नीचा रख कर बोले कि इस प्रकार सब साधुओं को शासन का कार्य करना चाहिये; पर कई साधु तो शासन को केवल भारभूत बन कर गृहस्थों के रोटले मुफ्त में ही खा रहे ____ मुनि०-हाँ साहिब, साधुओं को शासन का कार्य अवश्य क. रना चाहिये, जैसा कि आप कर रहे हैं । सागरजी-मुंह से कहने वाले बहुत हैं पर करते कौन हैं ? मुनि०-श्राप समझ गये कि सागरजी का कहना आत्मश्लाघा के रूप में है, क्योंकि शायद आप जानते होंगे कि शासनका कार्य केवल एक मैं ही कर रहा हूँ। मुनिश्री ने पुनः अर्ज की कि जैसे आपने आगम टीका सहित छपाया है, उसी भाँति इसका प्रचलित भाषा में भाषान्तर कर दिया होता तो यह आगम सर्व समान को बड़ा उपयोगी सिद्ध होता। सागरजी०-थोड़े गर्म होकर जबाब दिया कि मैं श्रागमों का भाषान्तर करना ठीक नहीं समझता हूँ, यदि कोई अज्ञानी मूल और टीका से लाभ नहीं उठा सके, उसका मैं क्या करूँ ? उनको अभ्यास करना चाहिये, कितने ही लोग टीका वगैरहः का अभ्यास किये बिना ही सूत्र बांचने लग जाते है और बिचारे भोले जीव के सामने अर्थ का अनर्थ भी कर डालते हैं, जैसे तुमने यहाँ भग. यती सूत्र बांच के अभव्य जीवों के विषय में किया था। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान आचार्य श्री सागरानन्दसूरि-सुरत %%%%% Page #671 --------------------------------------------------------------------------  Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरजी से वार्तालाप - ठीक ! सागरजी मौन खोल कर बोले तो सही। - मुनि०-~मैंने जो आपकी सेवा में प्रश्न-पत्र भेजा था, वह आपको मिल गया था या नहीं ? सागरजी०-प्रश्न-पत्र तो मुझे मिल गया था। मुनि-फिर उन प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं दिया ? सागरजी०-हमको इतना अवकाश कहाँ मिलता है कि इस . प्रकार प्रश्नों के उत्तर दिये जावें । मुनि०-आप क्या करते हैं जो कि जिज्ञासुओं के प्रश्नों का उत्तर देने में आपको अवकाश नहीं मिलता ? सागरजी०-हमको शासन के कई कार्य करने पड़ते हैं। मुनि-क्या प्रश्नों का उत्तर देना शासन का कार्य नहीं है ? सागरजी०-ऐसे कार्यको हमशासन का कार्य नहीं समझते। मुनि:-तब आप दूसरे सच्चे मनुष्यों को झूठे बतलाना ही शासन का कार्य समझते हो न ? ... सागरजी०-फंठे को पूँठा बतलाना, यह भी शासन का कार्य ही है। मुनि-फिर दूंठा सिद्ध करने में इतनी कमजोरी क्यों ? तथा ऐसी कमजोरी आप जैसे विद्वानों को शोभा भी नहीं देती है। सागरजी०-इसमें आपने मेरी क्या कमजोरी देखी है ? मुनि-प्रश्नों के उत्तर नहीं देना, यही कमजोरी है । सागरजो०-जोश में श्राका अत्यन्त गर्म हो छोटे से नेत्रों कोरक्त वर्ण कर जोर से बोल उठे, तुम ढूँढ़िया हो, तुमको शास्त्रों का ज्ञान नहीं है। मुनि०-ढुढ़ियों ने ही तो आप संवेगियों का उद्धार किया Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५७८ है । यदि ढुंडियों में से स्वामि बुटेरामजी, आत्मारामजी, मूलचंदजी तथा वृद्धिचंदजी नहीं आये होते तो आप संवेगी आज यतियों के रूप में ही पाये जाते; समझे न सागरजी महाराज ? । ___ सागरजी तो इतने आवेश में आगये कि अपने बोलने का भान तक भी मूल गये कि मैं क्या बोलता हूँ। आप बोले कि बुटेरामजी, श्रात्मागमजी वगैरः ने ढूंढ़ियों में से श्राकर क्या किया है ? और तुम भी ढूंढ़ियों से आकर क्या कर सकोगे ? मुनि०--ढूंढ़ियों से जितने योग्य पुरुष आये हैं, उन्होंने पतित होते हुए संवेगियों का उद्धार किया है । और आगे कुछ कहते ही थे परः____ इस प्रकार जोशीला वार्तालाप होता सुन कर योगीराजश्री ने सोचा कि उधर तो सागरजी जिद्दी आदमी हैं, इधर मुनिजी भी बोलने में पीछे रहने वाले नहीं हैं; अतः कहीं बात ही बात में अनर्थ न हो जोय, एतदर्थ योगीराज ने कहा कि मुनिजी इधर आओ, कुछ काम है; मुनिश्री उठकर गुरु महाराज के पास गये । ___ योगी-सागरजी विद्वान हैं, तुम इनके साथ वाद विवाद क्यों करते हो ? मुनि:- नहीं साहिब, मैं वाद-विवाद करने को नहीं गया था, मैं तो मेरे प्रश्नों का उत्तर लेने को गया था, किंतु उन्होंने जब विषयांतर बातें निकाली तो उनका उत्तर देना मेरा कर्तव्य था, और मैंने जवाब दिया भी था, इसमें मेरा क्या कसूर है अपने २ गौरव की रक्षा करना सब के लिये समान बात है ! योगी-पर जहाँ राग द्वेष की वृद्धि हो वहाँ क्षण मात्र भी नहीं ठहरना चाहिये, यही मेरी आज्ञा है । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७९ सागरजी के साथ वार्तालाप ___मुनि-सागरजी कितने ही विद्वान क्यों न हों, पर सत्य का गला घोंट कर सत्य को असत्य बतावें, यह कैसे सहन हो सकता है। सागरजी विद्वान हैं तो उनका कर्तव्य था कि मेरे प्र. श्नों का उत्तर देकर मुझे समझाते, पर मुझे तो यही ज्ञात हुआ कि सागरजी अपनी पंडिताई केवल अज्ञ पुरुषों के सम्मुख ही जाहिर करते हैं, मैंने सागरजी की विद्वत्ता की परीक्षा करली है, आपका छपाया हुआ श्री पन्नवण सूत्र मैंने देखा है जिसमें इतनी अशुद्धियां हैं कि भविष्य में मालूम होगा कि इसका छपाने वाला एवं संशोधन करने वाला कोई अज्ञ ही था। सागरजी-इन बातों को सुन कर आप मारे क्रोध के भूत बन कर योगीराज के पास आये और मुनिश्री की ओर लक्ष करके बोले, अरे मूर्ख ! तुमने पन्नवण सूत्र में कहाँ अशुद्धियों देखी, ला अभी बतला। . मुनि०-सागरजी महाराज ! यहाँ आप मग्नसागर न समझ लेना कि आपने उनको पराजित कर उन पर विजय प्राप्त करली है, पर मैंने आपकी विद्वता को अच्छी तरह से समझ लिया है, ज्यादा करोगे तो आप अपनी प्रतिष्ठा को खो बैठोगे। यदि आप विद्वत्ता का कुछ घमण्ड रखते हो तो पहिले मेरे प्रश्नों का उत्तर देदो, वरना मैं एक सभा कर आपसे प्रश्नों के उत्तर लेने का प्रयत्न करुंगा। ____सागरजी--प्रश्नों का उत्तर देना, या न देना तो मेरे आधीन है, किन्तु तुम जो कहते हो कि पन्नवणासूत्र में अशुद्धियाँ हैं, जिसका संशोधन मैंने सात २ प्रतिएं पास में रखकर किया है। फिर भी, लं! यह पन्नवणासूत्र मेरे पास में है, इसमें कोई भी अशुद्धि हो तो निकाल कर बतलाओ । यदि तुम एक भी अशुद्धि Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान - द्वितीय खण्ड बतला भोगे तो मैं स्वीकार करने का प्रस्तुत हूँ । मुनि० - लाओ पन्नवरणा सूत्र | सागरजी - पेटी खोल कर पन्नवरणा सूत्र लाकर मुनिजी को - ५८० दिया । लो बतलाओ इसमें अशुद्धियें ? 1 योगी – लो अभी तो प्रतिलेखन का समय हो गया है, फिर देखना | योगीराज ने सोचा कि सुरत में चतुर्मास कर मुनिजी ने बहुत अच्छा यश एवं नाम प्राप्त किया है, पर यह सागर - विवाद सब पर पानी फेर देवेगा, अतः यहाँ रहना ठीक नहीं "संकले सं जहा ठाणं दूरे श्रो पड़िवज्जए" इस शास्त्राज्ञा को शिरोधार्य कर यहाँ से विहार कर जाना ही अच्छा है । एक दो श्रावकों को सूचित कर दिया कि कल हमको विहार करना है । इधर गोपीपुरा वगैरह में खबर हुई कि आज सागरजी के और मुनिश्री के आपस में प्रश्नोत्तर के लिए खूब तकरार और गरमा गरम चर्चा हुई थी, न जाने भविष्य में इसका क्या नतिजा निकलेगा । सुरत में कई लोग सागरजी के भक्त एवं पक्षकार थे, किन्तु कई लोग उनके प्रतिकूल भी थे। जो लोग सागरजी के प्रतिकूल थे वे मुनिश्री के पास आकर कहने गले कि, साहेब आप घबराशो नहीं, अगर सागरजी ने साथ आपनो शास्त्रार्थ थाय तो श्रमे जो जोइये ते सहायता करवाने तैयार छिए, श्र सागर हमणो मिध्या भिमान करी कोई ने विद्वान मानतोज नथी, पण तमे ठीक मल्या, सागर ना दांत तो तमेज खाटा करवाना हो विराजो अहीं अने करो शास्त्रार्थं । योगीराज ने मुनिश्री को कह दिया कि, विहारनी तैयारी करो, Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८१ सुरत से विहार का कारण काले विहार करी कतार गांव जवानो छ। मुनि०-क्या कल ही विहार करना है ? योगी०-हाँ, कल ही। मुनि०-इसका क्या कारण है ? पन्नवणा सूत्र तो देखने दो। योगी०- नहीं, कल ही विहार करने का है। मुनि:-श्राप समझ गये कि आप इस क्लेश के कारण ही विहार करते हैं, किन्तु मुनिश्री दुविधा में पड़ गये, क्योंकि इधर तो सागरजी का कार्य अधूग छोड़ जाना अच्छा नहीं समझा, उधर गुरु महाराज की आज्ञा का पालन करना भी आवश्यक था, गुरु महाराज को कई भांति अर्ज की, किन्तु आपने फरमा दिया कि मेरी आज्ञा में रहना है तो कल विहार करो। बस, फिर तो सवाल ही नहीं रहा अतः विहार की सब तैयारी कर ली। . योगी-जात्रो सागरजी से मिल लो और क्षमाप्रार्थना भी कर लो। मुनि०-मैं जाऊँ ? योगी-हाँ, इसमें क्या है ? क्या तुमने बृहत्कल्प सूत्र नहीं पढ़ा है ? वहाँ स्पष्ट लिखा है कि खमावा है वह आराधीक होता है और जो नहीं खमावा है वह आराधोक नहीं होता है । अतः यदि तुमको पाराधीक होना हो तो जाकर सागरजी को खमालो। ___ मुनि०-गुरु माझा शिरोधार्यकर साथ में पन्नवणाजी सत्र लेकर पास ही में ठहरे हुए सागरजी के पास गये और कहा कि हम लोग विहार करते हैं, अतः हमारे कारण से आपको रंज पहुँचा हो तो हम क्षमा चाहते हैं, तथा यह आपका पन्नवणा सूत्र, यदि आप भाज्ञा दें तो मैं कतार प्राम तक साथ में ले जाउँ, वहाँ इसका Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५८२ शुद्धि पत्र तैयार कर किसी के साथ भेज दूंगा। यदि आपके पास हो तो एक समावायांगली सत्र भी दे दीजिए क्योंकि मैंने उसमें भी कई अशुद्धिएं देखी हैं और मेरी नम्रतापूर्वक अर्ज है कि जिस जिस सूत्र में अशुद्धियाँ रह गई हों, उनका शुद्धिपत्र सूत्रों के साथ जोड़ दिया जावे तो भविष्य की प्रजा के लिए अत्यन्त उपकारी सिद्ध होगा। ____ सागरजी०-मेरी प्रकृति ऐसी ही है, यदि मेरे कहने से श्रा. पकी आत्मा दुःखित हुई हो तो मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ । पन्नवणा सत्र आप खुशी से ले जा सकते हैं और समवायांगजी सूत्र मैं आपको दे देता हूँ, आप शुद्धिपत्र तैयार कर भिजवा देना यदि वास्तव में अशुद्धियाँ होंगी तो में शुद्धि पत्र छपवा कर सूत्रों के साथ जोड़ दूंगा-मुनिजी आप श्राज ही विहार क्यों करते हो ? मुनि०-गुरु महाराज की आज्ञा है ! सागरजी-फिर कभी मिलना । मुनि०-कृपा दृष्टि रखना, अविनय हुई हो तो माफ करना । बैशाख शुक्ला २ को योगीराजश्री व मुनिजी विहार कर कतार गांव पधारे, इस बात की खबर थोड़े लोगों को ही पड़ी, जब विहार करने के बाद आचार्यश्री तथा शहर के लोगों को खबर हुई तो दूसरे दिन अक्षय तृतीया होने से बहुत से लोग कतार गांव यात्रार्थ आये । मुनिश्री ने दो दिनों में पन्नवणा सूत्र के मूल पाठ का शुद्धि पत्र तैयार कर सागरजी के एक भक्त के साथ भेज दिया और कहा कि कल हमारा यहाँ से विहार होगा, तथा समवायांगजी सत्र के लिए सागरजी से कहना कि उसको शुद्धि पत्र तैयार नहीं Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३ सागरजी के क्षमापना हो सका है अतः जघड़ीये जाकर समवायांगजी सत्र तथा इसका शुद्धि पत्र भी भेज देंगे। ___ सागरजी के भक्त ने पन्नवणा सूत्र और उसका शुद्धि पत्र सागरजी को दिया तब जाकर सागरजी की आँखें खुली कि मुनिजी को शास्त्रों का वोध तो बहुत अच्छा है। मुनिजी का विहार करना अच्छा ही रहा वरना उनके प्रश्नों के लिए बड़ी भारी पंचायत पड़ जाती। मुनिश्री के पूछे हुए प्रश्न आज पर्यन्त सागरजी के सिर पर ऋणस्वरूप अमर यानि जीवित हैं। जिन प्रश्नों को आप पिच्छले पृष्ठों में पढ़ आये हैं। ६० वि० सं० १९७६ का चतुर्मासा जघड़िया में। ___योगीराज व मुनिजी कतारग्राम से विहार कर अनुक्रमे ज. घड़िया तीर्थ की यात्रा की, वहाँ की आब हवा अच्छी थी, मकान निर्वृत्ति का था । यागीराज की इच्छा जघड़िया में चतुर्मास करने की हो गई, ठीक है निर्वृत्ति चाहने वाले योगियों के लिए ऐसा हो स्थान योग्य होता है । पर वहाँ श्रावकों के केवल तीन ही घर थे। इधर दो साधु जघड़िये और भी आ गये; जिसमें एक थे उ० सोहनविजयजी के शिष्य मित्रविजयजी, दूसरे थे मुनिश्री हंसविजयजी महाराज के प्रशिष्य बसन्तविजयजी, जब वे योगीराजजी से मिले और अपनी इच्छा ज्ञान पढ़ने की प्रदर्शित की। इस पर योगीराज ने कहा तुम हमारे साथ रह कर खुशी से ज्ञानाभ्यास कर सकते हो, बस मुनियों का मनोरथ सफल हो गया। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५८४ एक दिन सीतोर के श्रावक जघड़िये यात्रा करने के लिए आये थे, वहाँ योगीराज को देख उन्होंने चतुर्मास की विनतो की, पहिले तो श्रापश्री का विचार नहीं हुआ था, पर बाद में मुनिश्री ने कहा गुरु महाराज यहां श्रावकों के घर केवल तीन ही हैं, इसलिये यहां चार साधुओं का निर्वाह नहीं होगा । सुरत में मैंने संस्कृत का अभ्यास शुरू किया था, पर व्याख्यानादि कार्यों से मेरे कुछ भी अभ्यास नहीं हुआ, अतः मैं आपको सेवा में जघड़िया चतुर्मास कर दूँ और आये हुए दोनों साधु सीनोर चतुर्मास कर देंगे । गुरु महाराज ने फरमाया कि ये दोनों साधु ज्ञानाभ्यास - रने के लिये आये हैं इनको निराश करना अपना कर्तव्य नहीं है अतः मैं इन दोनों साधुओं के साथ सीनोर चतुर्मास कर दूँगा तुम जघड़िया में रह कर व्याकरण का अभ्यास कर लो । मुनिश्री ० - मैं आपसे अलग रहना नहीं चाहता हूँ अतः चला सब साधु सीनोर ही चतुर्मास कर लेंगे । > गुरु महाराजः - तुम्हारा कहना तो ठीक है पर यह देख लेना सीनो में भी तुम्हारे इतना ज्ञान प्राप्त न होगा अतः मेरा खयाल है कि तुम जघड़िये चौमासा कर लो तुम्हारे लिये अच्छा रहेगा । गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर मुनिश्री ने जब ड़िये चौमासा करना मंजूर कर लिया और योगोराज तथा दो मुनिराजों का चतुर्मास सीनोर होना मुकर्रर हो गया । सुरत में खबर हुई कि योगिराज जघड़िये पधार गये हैं, तो वे लोग दर्शनार्थ घडिये श्राये, योगीराज ने उपदेश दिया कि हम तीन साधु तो सीनोर चतुर्मास करेंगे और मुनिजी ज्ञानाभ्यास के लिये जघड़िये रहेंगे, इसलिये श्राप लोग इनके लिये Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ सरत के श्रावकों की भक्ति पंडित वगैरह का साधन कर देना। श्रावकों ने कहा कि पंडित वगैरह का सब प्रबन्ध हम लोग स्वयम् कर लेवेंगे, और भी कुछ हुक्म फरमावें । योगीराज ने कहा, बस आत्म-कल्याण करना, और दूसरी बात क्या कहनी है ? ____ योगीराज का सुरत के लोगों पर काफी प्रभाव हो गया था, वे बम्बई जाते समय यदि आसपास में गुरु महाराज होते तो आपका वासक्षेप ले कर जाते थे; क्योंकि आपके चारित्र, विशुद्धता, निस्पृहता और योगबल पर विश्वास कर लोग भापके पक्के भक्त बन गये थे। आपके चमत्कार के २-४ ऐसे उदाहरण बन चुके थे कि उन लोगों को पूर्ण विश्वास बंध गया था कि योगीराज एक चमत्कारी महात्मा हैं जिससे आस-कल्याण के साथ इस भव में भी अनेक फायदे हो सकते हैं। - सुरत के भक्त लोग सुरत जाकर उसी मनसुखराम शास्त्री को तथा चतुर्मास के योग्य कपड़ा वगैरह सब के सब आवश्यक पदार्थ साथ लेकर गुरु महाराज की विद्यमानता में ही जघडिये आगये, कपड़े वगैरह की आमन्त्रणा की, मुनियों को जितना आवश्यक था उतना वेहर लिया । श्रावकों ने पण्डित को कोई दो सौ रुपये इस आशय से दे दिये कि यहाँ पुस्तक टीपालादि चिट्ठी पत्री श्रादि में जो कुछ खर्च हो वह खुशी से करे । सुरत के लोग अभी जघड़िये ही थे कि इतने में तो सीनोर के लोग गुरु महाराज को लेने को आगये । गुरु महाराज ने विहार किया तो मुनिश्री व सुरत के श्रावक एक मंजिल तक पहुँचाने गए, बाद गुरु महाराज ने सिनोर की ओर विहार किया और मुनिश्री Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान-द्वितीयखण्ड ५८६ वापिस लौट कर जघड़िये पधार गये और उस निवृति के स्थान पर पण्डितजी के पास ज्ञानाभ्यास में लग गये।। जघड़िया की पेढी पर एक वृद्ध ब्राह्मण मुनीम था, जब उस. को मालूम हुआ कि मुनिश्री ने यहां चतुर्मास करने का निर्णय कर लिया है, अतः मुनीम विचार में पड़ गया क्योंकि यहां श्रावकों के तो केवल ३ घर है और वे भी साधारण स्थिति के, और चतुर्मास में यहाँ अधिक यात्री लोग भी नहीं आते हैं, पहिले कभी जैन साधुओं का चतुर्मास यहां हुआ भी नहीं है, इनका चतुर्मास कैसे होता है ? क्या क्या बातों की आवश्यकता रहती है ? मैं इन सब बातों से अनभिज्ञ हूँ, और न मुझे पूछा भी है, फिर समझ में नहीं आता कि यहां चतुर्मास कैसे करते होंगे ? ___ मुनीम ने यहां के ट्रिस्टियों को जो अंकलेसर वगैरह पास के प्रामों के थे, खबर दी । वे जघड़िये आये, मुनीम से बात चीत की जिसका आशय यह था कि मुनिजी यहां चतुर्मास न करें तो अच्छा है,पर वे ट्रिस्टी लोग मुनिश्री के पास तक नहीं आये और मुनीम से मिला कर वापिस चले गये। गुजराती लोगों का एवं ट्रिस्टी जैनों का यह हाल है कि तीर्थ पर आना और मुनियों के दर्शन तक भी नहीं करना, यह कैसी श्रद्धा ? खैर कुछ भी हो, मुनिश्री ने तो दुःख सुख की परवाह न करके अपने निर्णयानुसार जघड़िया में चतुर्मास कर ही डाला। बस उस निर्वृति के स्थान में रह कर पर्युषण पहिले ही संस्कृ. त मार्गोपदेशिका का प्रथम भाग समाप्त कर लिया। गांव में तीन घर मारवाड़ी श्रावकों के थे, वे साधारण स्थिति वाले होने पर भी अच्छे भक्ति वाले थे। वे समझते थे कि हमारा अहोभाग्य है कि Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वृर्ति स्थान का आनन्द | हम लोगों पर पूर्ण कृपा कर मुनिश्री ने यहाँ चतुर्मास कर दिया है, 'दूसरे पण्डितजी भी अच्छे योग्य उपयोग वाले थे श्रावकों की ओर से द्रव्य की छूट थी । फिर भी मुनिश्री के एक दिन तपस्य और एक दिन तीन घरों से या आए हुए यात्रार्थ लोगों से भिक्षा लेते थे कभी २ छट अठमोदि तप भी किया करते थे पर एकान्तरतप तो हमेशा के लिये चलता ही था । पाठक ! इस बात को तो आप भली भांति समझ गये होगे कि मुनिश्री को एकान्त में रह कर अध्यात्म एवं तात्विक विषय में रमणता एवं ध्यान करने की कैसी अभिरुचि थी; यही कारण है कि आप किसी गच्छ समुदाय में न मिल कर अकेले ही रहे और यहाँ अकेले चतुर्मास करने का भी यही कारण था । अत: आप निर्वृति के साथ जघड़िया तीर्थ पर चतुर्मास कर दिन में ज्ञानाभ्यास और रात्रि में खूब ध्यान किया करते थे । जिस प्रकार से मुनिश्री का ज्ञानाभ्यास चलता था, वैसे ही पुस्तकों की छपाई का काम भी अच्छी तरह से चलता था, केवल एक प्रेस में ही नहीं किन्तु दो प्रेस में पुस्तकें छप रहीं थीं । मुनिश्री के नाम की डाक मुनीमजी की पेढ़ी पर आती थी, तथा वह ऊपर आकर मुनिश्री को दे जाता था । किन्तु हमेशा इतनी डाक और उसमें भी प्रफों के बण्डल के बण्डल आते जाते देख मुनीमजी विचार में पड़ गये । जब कभी त्रिस्टी ल ग आते थे और पूछते थे कि यहाँ जिस साधु ने चतुर्मास किया है वह तुम्हारे से खर्च ग़ैरह कुछ मांगता तो नहीं है न ? मुनीन कहता था कि न जाने यह अकेला साधु क्या करता है, इनके यहाँ हमेशा इतनी डाक श्राती जाती है उसका खर्चा भी न मालूम कहां से श्राता है ? ५८७ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५८८ हमको तो आपने आज पर्यन्त एक पाई के खर्चे का काम भी नहीं बताया है, इनके पास एक पण्डित रहता है दिन भर पढ़ाई का ही काम करता है, मालूम होता है कि मारवाड़ी साधु अच्छा विद्वान् है। इतने पर भी हमारे तीर्थ की पेढ़ि के जैन त्रिस्टियों का हृदय रहीम नहीं हुआ कि वे चतुर्मास रहने वाले साधु की कुछ सार सम्भाल करें, इसका कारण शायद यह हो कि गुजराती लोग धर्मात्मा नहीं किन्तु दृष्टिरागी हुआ करते हैं, अपरिचित साधु को वे साधु तक भी नहीं समझते हैं। जब पर्युषण के दिन नजदीक आने लगे तो जघड़िया के आस-पास के छोटे २ ग्रामों के मारवाड़ी लोगों में जघड़िये आकर मुनिश्री को अर्ज को कि हमारे ग्रामों में श्रावकों के घर अल्प होने के कारण हमको पर्युषणों के व्याख्यान सुनने का लाभ नहीं मिलता है, इस वर्ष श्राप का चतुर्मास इस तीर्थ पा हो गया है, अतः हम लोगों की इच्छा है कि हम सब यहाँ श्राकर पर्वाराधना कर श्री कल्पसूत्रजीका व्याख्यान सुनें ? इस पर मुनिश्री ने फरमाया कि हम लोग तो इसी काम के लिए हैं, आप खुशी से यहाँ श्राकर पर्वाराधना कर सकते हैं । बस, फिर तो था ही क्या ? उन लोगों ने आसपास के तमाम प्रामों में पत्रिकाएं छपा कर भेज दी । बस पर्युषणों के पहिले दिन में ही करीब २५० नर-नारियों ने आकर दूसरे दिन व्याख्यान प्रारम्भ करवा दिया। बाद में तो श्रावक लोग हमेशा आते ही रहे, व्याख्यान में हमेशा दो २ चार २ प्रभावना, हमेशा स्वामी-वात्सल्य, तथा पुस्त्रकजी का वरघोड़ा बड़े ही ठाठ से निकला, सुरत से स्वप्ने पालना मंगवाया, भगवान महावीर के जन्मदिन तो सुरत वगैरह के लग भग ५०० श्रावक Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८९ जड़िया के त्रिस्टियों की माफि श्राविकाएं थे, इसमें जघड़िया तीर्थ की पेढी के मेम्बर लोग भी शामिल थे, उन्होंने अपने मन में बहुत पश्चाताप किया कि अपन लोग तो यह ही समझ बैठे थे कि कोई ऐसा ही मारवाड़ीअकेला साधु होगा, पर यह साधु तो बड़ा ही जबर्दस्त, एवं प्रभावशाली तथा विद्वान है, अब अपन लोग जाकर मुंह कैसे दिखावें, फिर भी वे दोपहर को एकान्त में आकर मुनिश्री से मिले और कहने लगे कि साहिबजी हमारी बड़ी भारी भूल हुई कि आप जैसे मुनिराज का यहाँ बिराजना होते हुए भी हम हतभाग्य कुछ भी लाभ नहीं उठा सक, हम यहाँ कई दफे आये पर अज्ञानतावश हम आपकी कुछ भी सेवा नहीं कर सके । साहिब यहाँ पेढी में ज्ञान खता की रकम जमा है, आपके डाक एवं पुस्तकों में काम में आवे तो मुनीम को कह देना, वह पेढो की ओर से प्रबन्ध कर देगा । और आप हमारे अपराध को क्षमा करावें । मुनि०-श्रावको ! हमारे पास हुकूमत या पुलिस नहीं है कि हम आप लोगों के कसर के लिए आप पर जोर-जुल्म करें । हमने यहाँ चतुर्मास किया था उसके लिए सब तरह का प्रबन्ध सुरत वालों ने पहले से ही कर दिया था, किन्तु दुःख इसी बात का है कि तुम यहाँ आये और जैन होते हुए भी जैन साधु से मिले तक भी नहीं, यह कितनी अफसोस की बात है । खैर, मेरे लिए तो कुछ नहीं पर विचारा कोई साधारण साधु आकर एकानिवृति का स्थान देख ठहर गया होता तो उसका क्या हाल होता ? स्मरण में रहे कि तीर्थ की स्थापना उनकी उन्नति पेढी और पैसा साधुओं के उपदेश से ही हुआ और होता है जिन्हों के लिये आपकी इतनी बेपरवाही, क्या यह कम अफसोस की बात है ? Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ५९० त्रिस्टी०-हाँ साहिब आपका कहना पूर्ण सत्य है ! यह हमारी बड़ी भारी भूल हुई है, पर आज तो हमें यह शिक्षा मिल गई है कि अब हम भविष्य में ऐसी गली कभी नहीं करेंगे, किन्तु आप की डाँक एवं पुस्तकों के लिए आज्ञा फरमाइये कि अब सब खर्चा यहाँ को पेढी से ही हो। मुनि०-डाक, पुस्तकें, पंडित की तनख्वाह इत्यादि का सब प्रब. न्ध सुरत वालों ने कर दिया है, अतः हमें कोई आवश्यकता नहीं है। त्रिस्टी०-साहिब सुरत वाले तो भाग्यशाली हैं, उनको तो हमेशा लाभ मिलता हो रहता है, पर हम लोगों को ऐसा अवसर कब मिलने वाला है । इस जघड़िया तीर्थ पर तो सर्वप्रथम श्राप का ही चतुर्मासा हुआ है, अत: हम आग्रहपूर्वक प्रार्थना करते हैं कि जो हुआ सो हुआ, पर अब तो यह सब लाभ हमको ही मिलना चाहिये। मुनि:-आपको तो यह लाभ मिलेगा कि यहां स्वप्ना पालना की श्रामंद जो श्रावेगी वह तुम्हारी पेढी में जमा होगी। त्रिस्टी०-यह तो आप साहिब की कृपा है, पर हमारी विनती को भी आप स्वीकार करो नहीं तो हमें दुःख होगा। मुनि-तुम दुःख क्यों करते हो ? यहाँ तो पेढी , द्रव्य किसी भी काम में श्रा सकेगा, यदि आपका इतना ही आग्रह है तो अवसर देखा जायगा। जघड़िया में पर्युषणों का बड़ा ही ठाठ रहा, हमेशा स्वामिवात्सल्य, तीनों समय प्रभावनाए, रात्रि में प्रभुःभक्ति होती थी, तथा स्वप्नों की बोली के तथा साधारण में रुपये आये थेबेसब खर्चा बाद करके पेढी में जमा करवा दिए। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणों का अजब ठाठ सावत्सरिक प्रतिक्रमण पोषध और दूसरे दिन पोषध के पारणे तथा दोनों बख्त के स्वामिवात्सल्य हुए, बाद सब लोग आनंद मंगल मानते हुए अपने २ स्थान पर गये । जघड़िया में यह पहले ही पहल चतुर्मास होने से जैनेत्तर लोगों पर भी अच्छा प्रभाव पड़ा और धर्म की खूब उन्नति हुई । जघड़िये के वर्तमान हाल जब गुरुमहाराज के पास पहुंचे तो आपके हर्ष का पार नहीं रहा तथा आपके पास में रहने वाले साधुणों को कहा, देखो मुनिजी कैसे भाग्यशाली हैं; जंगल में भी मंगल कर देते हैं। __पर्युषणों के बाद बंबई से बाबू जीवनलालजो सपत्न, एवं नौकर, रसोईया को साथ लेकर जघड़िये आये, कारण उनकी तबियत ठीक नहीं थी, अतः उन्होंने यह सोचा कि यात्रा भी हो जायगो और आबहवा का बदला भी हो जायगा । यह प्रसिद्ध सेठ पन्नालाल पूनमचंद की फर्म के मालिक थे, इनके पिता का देहान्त हुआ था तब आठ लाख रूपये ज्ञान-प्रचार के लिए निकाले थे, जिसकी बम्बई में हाईस्कूल चलती है, अतः पेडी के मुनीम को आशा होना स्वभाविक ही, था कि ऐसा भारी सेठ पाया है तो हमारी धर्मशाला का काम अधूग है, अर्थात् पांच हजार रुपैयों का काम शेष रहा है, उसके लिए घर २ मीख न मांग कर एक ही करोड़पति सेठ की ओर से मिल जाय तो अच्छा है । अतः मुनीम ने मुनिश्री को अर्ज करो और मुनिजी ने कहा कि ठीक है, अवसर होगा तो मैं उपदेश करूँगा। __जब बाबू साहब मुनिश्री के पास आये तो पहिले उन्होंने अपना हाल मुनिश्री को सुनाना शुरु किया कि साहिब में इतना Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५९२ बीमार हुआ था कि मुझे धरती पर भी उतार लिया था और मेरे जीने की कोई आशा नहीं थी; पर देव गुरु की कृपा से मैं उस मृत्यु से बच गया । अब मैं जानता हूँ कि संसार असार है, जो सुकृत किया जाता है वही साथ में चलता है, यदि मेरा उस समय देहान्त हो जाता तो यह सब करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति यहाँ रह जाती, अतः अब मेरी इच्छा सम्पत्ति बढ़ाने क' तो नहीं है, पर मेरे पास में है उसमें से याद कोई मांगे तो मेरी इच्छा देने की नहीं होती है, इतना ही नहीं पर कभी लिहाज से दे भी दिया जाय तो मेरा जीव कट जाता है। मुनिश्री ने कहा, सेठ साहिब आपने ठीक कहा, अब मुझे आपको उपदेश देने का परिश्रम करने की आवश्यकता ही नहीं है कि श्राप कुछ सुकृत करें । सेठजी १५ दिन ठहरे पर एक स्नात्र पूजा तक भी नहीं पढ़ाई, हाँ प्रभु पूजा सामायिक वगैरह अवश्य करते थे । जब सेठजी के बम्बई का तार आया तो आप बम्बई चले गये, पर आपकी धर्म पत्नी की तबियत पूर्ण रूप से नहीं सुधरी थी, अतः वे और उनके भृत्यादि जघड़िये हो रहे। मुनिश्री ने सेठानीजी को उपदेश दिया, अतः उन्होंने अपने हाथखर्चे में से अच्छी रकम धर्मशाला के लिए प्रदान की तथा बड़ी पूजा पढ़ाई, वात्सल्य किया, और मुनिश्री की अच्छी भक्ति करी। तथा उनको मुनिश्री पर इतनी श्रद्धा हो गई कि उसने प्रार्थना की कि आप बम्बई पधारो, मैं मार्ग का सब प्रबन्ध कर दूंगी और बम्बई पधारने पर भी श्राप की सेवा करूंगी और जो कुछ भी द्रव्यादि का कार्य होगा वह भी सब मैं मेरी ओर से करूंगी। मुनिश्री ने कहा, क्षेत्र स्पर्शना, पर यह कार्य हमारे गुरु महाराज के आधीन है। सेठानीजी फिर Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९३ जघड़िये में पुस्तकों का प्रचार १५ दिन ठहरी आपके पण्डिा के लिए भी दो मास की तनख्वाह सेठानीजी ने दी बाद बम्बई चली गई। ___ जघड़िया में मुनिश्री ने तपस्या भी खूब को, एकान्तर तो हमेशा चालु ही था, एक अट्टाई एक पाचोला, आठ तेला वगैरह कई छटकर तपस्या की थी तीर्थ स्थान पर रहने का यही तो भानंद है कि मनमाना ज्ञानाभ्यास और तप हो सकता है । ___पर्युषणों के बाद शेष रहे हुए दिनों में आपके इतना ज्ञानाभ्या । नहीं हुआ, जितना की पहिले हुआ था। इसका कारण, एक तो यहाँ पर्युषणों का महोत्सव हो जाने से आस पास के ग्रामों में सर्वत्र प्रसिद्ध हो गये, दुसरे श्रोलियों का आराधन करने को सी बहुत लोग आ गये अतः व्याख्यानादि में समय चला जाता था, तीसरे पुस्तकें छपवान में प्रेस कापी बनाना, प्रूफ संशोधन करना इत्यादि कार्यों में विशेष समय खर्च हो जाता था, तथापि संस्कृत मार्गो पदेशिका के दूसरे भाग के १८ पाठ आपने कर लिए थे। जघड़िये के चतुर्मास में दो भाई दीक्षा लेने वाले भी आये थे पर मुनिश्री ने उनका सीनोर गुरु महाराज के पास भेज दिये थे और गुरु महाराज ने उनको अनुत्तीर्ण ( ना पास ) कर कोरा जबाब दे दिया । धन्य है ऐसे निस्पृही महात्मा को। ____इस चतुर्मास में आपश्री की और से निम्न लिखित पुस्तकें प्रकाशित हुई जो खास आपने ही लिखी थीं। १००० प्रतिए शीघबोध भाग चौथे का जिसमें साधुओं के करने योग्य शास्त्रीय विधान का खूब ही अच्छा संग्रह किया था, जो कि प्रत्येक साधु साध्वी के पढ़ने योग्य है। १००० प्रतिए शीघ्रबोध भाग पांचवें की, इसमें कों की Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान-द्वितीय खण्ड ५९४ विषय इस प्रकार संग्रह किया कि जिसको पढ़ने से साधारण मति वाला भी कर्मों के विषय का ज्ञान हांसिल कर सके । १००० प्रतिए शीघ्रबोध भाग छटे की इसमें नन्दी सूत्र से पांच ज्ञान का सविस्तर वर्णन कर अपने जनता के समक्ष एक आत्म कल्याण का साधन ही रख दिया । १००० प्रति शीघ्रबोध भाग सातवें की, इसको लिखकर तो आपने कमाल ही कर दिया, क्योंकि अनेक शास्त्रों का सार और सैंकड़ों प्रश्नों से विभूषीत यह भाग है, इसको पढ़ने से मुमुक्षुओं ज्ञान और तर्क शक्ति बढ़ जाती है । इसके विषय में यह कहना भी अतिशयोक्ति न होगा कि मन एकाग्र रखने का यह एक अपूर्व साधन है। १००० दश- वैकालिकसूत्र मूल पाठ इस छोटी सी पुस्तक साधु साध्वियाँ विहार के समय भी साथ में स्वाध्याय करने के लिए रख सकते हैं । मुनिश्री ने गुजरात में विहार कर वहाँ के साधु साध्वियों का ही नहीं अपितु बड़े २ आचार्यों पन्यासों का हाल देखा जिससे आपका हृदय व्याकुल हो गया था । सुरत में श्रीसीमंधर परमात्मा की सेवा में भारत के समाचार भेजने के लिए कागज, हुन्डी, पैठ, पर पैठ और मेकर नामा को रचना शुरु की तथा श्रीसिद्धक्षेत्र में उसको सम्पूर्ण भी कर दिया था, किन्तु गुरु महाराज की आज्ञा के बिना उसे छपवाना आपने ठीक नहीं समझा। उस मेझरनामा को माणकमुनिजी, लब्धिमुनिजी, विनयविजयजी, तिलक विजयजी आदि कई साधुओं ने देखा था और उन्होंने सम्मति भी दे दी थी कि इसको छपवा देने से बहुत ही जागृति होगी, तथा शासन के Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९५ मेझरनामा की विवस्था प्रति आपकी यह बड़ी से बड़ी सेवा समझी जायगी। महोपाध्याय जी श्री यशोविजयजी महाराज ने भी हुन्डी का स्तवन बनाया था, पर आपका मेमरनामा तो उससे भी बढ़ कर है कारण इसमें पृथक पृथक् विषयों को शास्त्रीय प्रमाणों के साथ खूब ही विस्तार से लिखा है । जब आप गुरु महाराज की सेवा में पधारे तो मेमरनामा भेंट किया गुरु महागज ने देखा और तुरन्त ही छपवाने की अाज्ञा देदी। योगीराज ने एक ऐसा ही विनती शतक बनाया था, पर वह अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ था, तथा वह इस मेमरनामा में समावेश भी हो सकता था, अतः मेझरनामा को शीघ्र ही छपाने की आज्ञा देदी । यद्यपि मुनिश्री गुजराती में बोलते या व्याख्यान देते थे, तद्यपि मेझरनामा को साफ गुजराती में लिखने में आप सर्वथा सफल नहीं हुए, अतः कहीं २ मारवाड़ी शब्द का मिश्रण रहा ही गया जो आपकी मातृ भाषा का परिचायक है। बस, जघड़िया में प्रेस कापी तैयार कर भावनगर आनन्द प्रेस में छपने के लिए भेज दिया, जिसकी कुल ५००० प्रतिए छपवाने की थीं, उसमें १५०० तो पुस्तक के आकार में और ३५०० जैन पत्र के ग्राहकों को अखबार के साथ घर बैठों को बिना डाक व्यय के पहुँचा दी जाय, यह निश्चय जघड़िया में ही कर डाला था। - जघड़िया के चतुर्मास में यों तो आपके दर्शनार्थ बहुत से प्रामों के भक्त श्रावक आये थे; इसका कारण एक तो पहिले जघड़िया तीर्थ का दर्शन बहुत ही कम लोगों ने किया था, दूसरे श्रापका वहां बिराजना, तीसरे मारवाड़ी लोग बम्बई जावें तो जघडिया मार्ग में ही पड़ता है अतः आने वालों को सब तरह की सुविधाएं Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श ज्ञान-द्वितीय खण्ड थीं; दर्शनार्थ आने वालों ने मुनीश्री के उरदेश से पुस्तकें छपवाने में द्रव्य सहायता भी खूब खुल्ले दिल से दो यो । भंडारीजी चन्दनचंदजी जोधपुर वाले, तथा मेघराजजी मुनी. यत फलौदी वाले तो चतुर्मास उतरते ही आये थे। जब जघड़िया का चतुर्मास समाप्त हुआ तो सुना गया कि गुरुमहाराज सीनोर से जघड़िया का संघ निकाल कर पधार रहे हैं, इस हालत में भंडारीजी, मेघराजजी और मुनीश्री ने गुरु महा. राज के सामने जाने के लिए विहार कर दिया । पर जो संघ तीन या चार दिनों में जघड़िया पहुँच सकता था उसे मार्ग में ही सात दिन लग गये; कारण रास्ते में जैन और जैनेतर लोगों ने बत हो भक्ति कर संघको र क दिया था क्यों कि उन ग्रामों के लोगों ने पहिले कभी संघ देखा ही नहीं था, तदुपरान्त गुरु महाराज का प्रकाण्ड प्रभाव; एवं व्याख्यान । फिरतो कहना हो क्या था ? भंडारीजी ने जाकर गुरु महाराज के दर्शन कर लिए; मुनिश्री तथा मेघराजजी एक ग्राम में ठहर गये, जहाँ केवल तीन घर ही श्रावकों के थे । आपके ठहरने का कारण यह था कि आपका एक पुस्तक लिखनी थी और मेघराजजी का संयोग भी था। जब गुरुमहाराज चातुर्विध श्री संघ के साथ पधारे तो मुनी. श्री वगैरहः सब साथ में होकर जघड़िये पधारे । संयोग वश उस दिन जघड़िया में सुरत के बहुत से लोग आये हुए थे; उन्होंने संघ को अत्यन्त हो आडम्बर एवं धूम धाम से बधाया। ___ मुनियों के पधारने से एवं मुनिश्री के चतुर्मास रहने से इस तीर्थ की बहुत दूर तक प्रसिद्धि हो गई और यात्रियों की संख्या Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९७ सूरत के श्रावको की विनती भी बढ़ गई। मुनीश्री ने इस तीर्थ की प्रसिद्धि के लिए परिश्रम भी बहुत उठाया था। सुरत के भक्त लोगों ने आग्रह पूर्वक विनती की कि आप सब साधु कृपा कर सुरत पधारें, तथा दो वर्षों से बंबई के लिए भी हमारी बिनती है, आप जैसे निःस्पृही योगीराज के पधारने से बंबई की जनता को बहुत लाभ होगा, अतः हमारी विनती स्वीकार करावें। ____ योगीराज ने कहा कि सुरत का तो हमारा भाव है, बंबई दूर है इसलिए हम अभी नहीं कह सकते हैं । इस प्रकार बातें हो रही थी, कि इतने में डाक के कागज आये, जिस में एक पत्र श्रोसियां का भी था, जिसमें बोर्डिङ्ग का हाल लिख कर अन्त में लिखा था कि या तो आप पधारो अथवा ज्ञानसुन्दरजी महाराज को शीघ्रातिशीघ्र भेजो नहीं तो बोर्डिङ्ग उठ जायगा । कारण खर्चे का इन्तजाम नहीं है, नमीचंदजी पेढी से एक पैसा भी देने को इन्कार हैं, बोर्डिङ्ग में केवल १० लड़के रह गये हैं, अतः प्रार्थना है कि इस ओर लक्ष देकर आप मुनीश्री को शीघ्र भेज दिरावें, और द्रव्य सहायता के लिए भी उपदेश दिरावें ताकि मारवाड़ में श्रापके हाथ का लगाया हुआ यह वृक्ष सूखता हुआ बच जावे, इत्यादि। इस पत्र को पढ़कर गुरुमहाराज को बड़ा ही दुःख हुआ कि बड़े ही परिश्रम से स्थापन की हुई एक संस्था का यह हाल ! उपस्थित श्रावकों को पत्र बंचा कर उपदेश किया और उन लोगों ने कुछ रकम भेजने का वचन भी दिया । ३८ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श - ज्ञान- द्वितीय खण्ड ५९८ योगी - मुनिश्री के सामने देखकर गुरु महाराज ने कहा, C मुनिजी, क्या करना है ? मुनिः - गुरुमहाराज की शुभ दृष्टि से सब कुछ अच्छा होगा । योगी :- तुमको बुलाया है । मुनि०- मेरे जाने से क्या होता है, वहाँ तो द्रव्य की आव 0 श्यकता है । मुनि योगी :- वह भी तो तुम जावोगे तब हो होगा। -मारवाड़ का हाल तो आप जानते ही हो । योगी० – पर मुझे विश्वास भी तो है कि तुम्हारे जाने से सत्र व्यवस्था ठीक हो जायगी । 18 मुनि० - गुरुमहाराज ! दूर का मामला है, मैं आपकी सेवा छोड़ना नहीं चहाता हूँ । योगी - मेरा काम करना भी तो मेरी सेवा ही है । मुनि० -- यह कार्य तो यहाँ रहने से भी हो सकेगा । यौगी - यदि यहां रहते हुए, होने योग्य कार्य्य होता तो मुनीम इतना जोर देकर नहीं लिखता । मुनि०- गुरुमहाराज ! मुख्य कार्य तो द्रव्य सहायता का है, और यह मारवाड़ में बन नहीं सकेगा; यदि बोर्डिङ्ग को स्थायी बनाना हो तो बंबई पधारो, वहां जैसे गुजराती लोग हैं वैसे मारबाड़ी लोग भी बहुत से पैसे पात्र हैं; अतः एक खासा फंड हा जायगा । अभी योगी० - अच्छा तुम इस समय तो मारवाड़ जाओ; मैं सुरत श्रर सुरत के आस पास विहार करूँगा । यदि इस वर्ष तुम वहां की व्यवस्था ठीक कर पाओ तो बंबई तुम्हारे लिए Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९९ ओसिगाँ का पत्र और गुरु आज्ञा कोई दूर नहीं है । यदि इस वर्ष में तुम नहीं आ सकोगे तो मैं यहीं कहीं चतुर्मासा कर दुगा, मेरे साथ दो साधु हैं ही, चतुः र्मास के पश्चात् तुम आजावोगे तब बंबई चल कर बोडिङ्ग की नीव सुदृढ़ कर देवेंगे। मुनि०-गुरुमहारज ! आपकी सेवा छोड़ना मेरी आत्मा स्वीकार नहीं करती है। योगी०-ऐसा होना तो मुमुक्षुओं का कर्तव्य ही है, पर जब मैं कहता हूँ और तुम्हारे गये बिना एक स्थापित संस्था उठ जावे इस हालत में तुम विचार कर सकते हो कि मेरे पास में रहना अच्छा है या मैं कहूँ जैसे करना अच्छा है। ___ मुनिः-गुरुमहाराज ! मैं इस बात को जानता हूँ, तथापि आप की सेवा छोड़ने में मैं राजी नहीं हूँ। . योगी०-लो अब तुम मारवाड़ जाने की तैयारी करो, हमको भी विहार करना है। मुनि०-क्या आपश्री ने निश्चय कर लिया है कि बिचारे एक साधु को बिना इच्छा अकेले मारवाड़ को भेज देना। योगी-अरे तुम शेर होकर इस प्रकार कायरता क्यों बतलाते हो, मैं कहता हूँ कि तुम जाकर इस बोर्डिंग की व्यवस्था सुधारोगे तो तुम को बहुत लाभ होगा, और भविष्य में समाज को इसके सुन्दर फल मिलेंगे। यदि यह सर्वप्रथम स्थापित संस्था जीवित रही तो इसकी शाखा प्रतिशाखा रूप में अनेक संस्थाएं जन्म लेकर तुम्हारे मारवाड़ का उद्धार कर देवेंगी। मुनि-मेरे अकेले के जाने से कई लोग प्रश्न करेंगे कि आप गुरू को छोड़ अकेले क्यों आये? मैं इसका क्या उत्तर दूगा Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ६०० योगी०-लो मैं तुमको सार्टिफिकेट लिख दूं कि मुनिजी मेरी श्रीज्ञा से एवं मेरे भेजे हुए जा रहे हैं इसको कोई एकल विहारी न समझे । बस वहाँ देर क्या थी, तुरंत कागज मंगवा कर आज्ञा पत्र लिख एक कागज की पट्टी पर चिपका के दे दिया, और कह दिया कि कल ही तुम विहार कर देना। ६१ मुनिश्री का मारवाड़ की ओर विहार मुनिश्री ने गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर के इच्छा नहीं होने पर भी वहां से विहार किया, शुक्लतीर्थ तक तीनों महात्मा पहुँचाने को आये । मुनिश्री ने गुरु महाराज को वन्दन कर अर्ज की कि यदि बोर्डिंग की स्थिति थोड़े दिनों में सुधर गई तो चतुर्मास आपके पास आकर करूँगा, यदि वहाँ ठहरने की आवश्यकता हुई तो चतुर्मास के बाद आऊँगा ? पर आप जहाँ पधारें, इस बोर्डिंग को हमेशा याद में रखें। गुरु-अधिष्ठायक आपसे आप करेगा, यह तुम्हारा लगाया हुआ माड़ है, तुम ही इसका सिंचन करो, और इसका फल (यश) भी तुमको ही मिलेगा ! मैं तो एक तुम्हारा सहायक हूँ। ____ मुनिश्री ने दोनों मुनिराजों से कहा कि आप बड़े ही भाग्यशाली हो, जो कि ऐसे महात्मा की सेवा का आपको सुअवसर मिला है, मैं कमनसीब हूँ कि आज गुरु सेवा से अलग हो रहा हूँ । किस का बोर्डिंग और किसके लड़के ? पर क्या करूँ गुरु महाराज की आज्ञा पालन करना मेरा कर्तव्य बन गया है। अब मैं आप से सविनय अर्ज करता हूँ कि जहाँ तक मैं मारवाड़ से न आऊँ वहाँ तक आप गुरु महाराज की सेवा में ही रहना, आपको अनेक Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०१ मुनि श्री का मारवाड़ को ओर प्रकार से लाभ है, एक तो महात्मा की सेवा, दूसरे ज्ञान की वृद्धि, तीसरे प्रचलित धमाल की अपेक्षा यहाँ आपका चारित्र भी निमलता से पलेगा, तथा प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी। युगल मुनिवरों ने विश्वास दिलाते हुए कहा, मुनि जी! आप इधर की ओर का किंचित् मात्र भी फिक्र न करें, यह जैसे आपके गुरु हैं वैसे हमारे भी गुरु हैं, बन सकेगा वहाँ तक हम सेवा भक्ति और व्यावञ्च का लाभ अपश्य उठावेंगे, आप वापिस शीघ्र पधारें, आपके पधारने के बाद अपन सब बम्बई चलेंगे कारण बम्बई में आप जैसे व्याख्यानी वक्ताओं की खास आवश्यकता है, इत्यादि कहने के पश्चात् गुरु महाराज ने मंगलिक सुनाया, सिर पर हाथ रख कर कहा, जाओ ! तुम्हारा कार्य सिद्ध होगा । गुरुवर तो अपने दोनों साधुओं के साथ वापिस लौटे, और मुनिश्री ने मारवाड़ की तरफ मुँह कर विहार किया लेकिन आपको पग २ पर गुरु महाराज का ही स्मरण होता रहा। शाम को एक ग्राम में पहुँचे, वहाँ जाकर बैठे तो श्राप इतने उदासीन हो गये कि श्रावकों के श्रामत्रण होने पर भी गोचरी पानी की नहीं सूझी, रात्रि में आप विचार करने लगे कि प्रातःकाल झगड़िया चल गुरुवर्य के दर्शन करें, फिर विचार आता है कि कहीं इससे गुरु महाराज नाराज तो नहीं हो जावेंगे, इत्यादि । प्रातः काल विहार किया और इस प्रकार विहार करते हुए क्रमशः आप पादरे पाये, वहाँ आचार्य बुद्धिसागरसूरि विराजते थे, आप बड़े हो योगीराज, शान्त स्वभावी और अच्छे मिलनसार थे । आपश्री ने मुनिश्री का अच्छा स्वागत किया। श्राया हुआ आहार-पानी सबने साथ में बैठ कर भोजन किया । दूसरे दिन Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ६०२ मौन एकादशी होने से सूरिजी ने बहुत आग्रह करके मुनिराज को वहाँ ठहरा दिया । पादरा में एक मोहनलाल हेमचन्द भाई वकील सूरिजी का परम भक्त था, उसको द्रव्यानुयोग को अच्छा जान पना था और इस ओर उनकी खूब ही रुचि थी। रात्रि में मुनिजी के पास बैठ कर द्रव्यानुयोग के विषय में कई प्रश्न किये। मुनिश्री के दिये हुए उत्तर से वकील साहब बहुत प्रसन्न हुए, व मुनिश्री की बहुत प्रशंसा की कि साहिब आपने तो जैन शास्त्रों एवं द्रव्यानुयोग का बहुत अच्छा अभ्यास किया है । टला बधा साधुओं ने अमे जोया छे, पण कोई ने पास अमे आ प्रकार जो ज्ञान सांभल्यो नथी, हवे कृपा करो मास दिवस हीं विराजो, अने अमने व्याख्यान सम्भलाओ । पास में बैठे हुए सूरिजी ने भी कहा, तुम्हारा गुजरात में कब आना होता है ? ठहरो, फिर जाना तो है ही । मुनि - गुरु महाराज का श्राज्ञापत्र निकाल के बतलाया और कहा कि हमको जाना आवश्यक है, वकील साहब ने कहा, कम से कम दो चार दिन व्याख्यान तो सुनादो, फिर हम आपको याद ही क्या करेंगे । अतः उनका इतना आग्रह देख मुनिराज ने पादरा में ३ दिन की स्थिरता की, एक सार्वजनिक व्याख्यान हुआ, तथा वकील साहब तो रात दिन मुनिश्री की सेवा में रह कर तात्विक ज्ञान सुनकर मस्त बन गये और कहा, साहिब ! आप जहाँ चतुर्मास करें वहाँ से पत्र लिखना ताकि हम वहाँ आकर दो मास ठहर कर आपका व्याख्यान सुन कर अपनी आत्मा को सफल बनावेंगे ? देखो, जैसा अवसर | Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ सूरीश्वरजी और मेझरनामा । आपश्री ने पादरा से विहार कर दिया । आपकी यह तो एक प्रवृति ही होगई थी कि मार्ग में यदि दो-चार कोस के फेर में भी किसी भी साधु का नाम सुन लेते तो वहाँ जाकर उनसे अवश्य मिलते थे। गुजरात में भ्रमन करके आपने ऐसे कोई भी नामाकित साधु को नहीं छोड़ा कि जिससे आप नहीं मिले हों, कारण कि मिले बिना मालूम ही क्या पड़े कि कौन साधु किस विषय के विद्वान् हैं, उनकी प्राचार प्रवृति कैसी है, वे शासन का क्या कार्य कर रहे हैं ? इत्यादि। ___ आप मारवाड़ से गुजरात में गये उस समय दो पात्रे, एक तृपणी, दो चद्दर, एक चोल पट्टा, एवं एक संस्तारिया; बस इतनी ही उपाधि थी। दो वर्ष गुजरात में रहने पर भी आपको गुजरात का रङ्ग नहीं लगा; चाय को तो आपने पास में भी नहीं फटकने दी । हाँ, सुरत में कई लोग विनती करते थे, पर आप कह देते थे कि हम मारवाड़ी साधु हैं और हमको वापिस मारवाड़ जाना भी है। यों तो आपके एकान्तर तर चलता ही था और आप प्रायः पौरसी तो हमेशा करते ही थे। ___जब अहमदाबाद के श्रावकों को खबर हुई कि मुनिश्री पधार रहे हैं तो उन लोगों को बड़ी आशाबंधी कि इस वर्ष मुनिश्री को अहमदाबाद चातुर्मास करवा कर लाभ प्राप्त करेंगे और गुर्जरों को बतला देंगे की मारवाड़ी साधु ऐसे होते हैं । आचार्य विजयनेमी सूरिजी उस समय अपनी शिष्य मंडली के Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ६०४ साथ सेठ हटीसिंह की वाड़ी में विराजते थे। जब सूरिजी ने सुना कि ज्ञानसुन्दरजी अहमदाबाद आते हैं तो रूपविजय को कहा, कि तुम्हारे गुरुजी आते हैं उनके लिए मकान साफ कर तैयार रखना और उनके श्राने पर तुम सेवा करना, कारण तुम्हारे पर उनका उपकार है । रूपविजय ने कहा, कि हांजरूर मेरे पर उपकार और मैं बन सकेगा अवश्य सेवा करूंगा । क्रमशः विहार करते हुए मुनिश्री अहमदाबाद पधारे। श्रावकों को आपके पधारने का समय मालूम न होने से वे निश्चिन्त थे, किन्तु जब खबर मिली तो इक्का, मोटरों द्वारा वाड़ी में आ पहुँचे मुनिश्री मन्दिरजी के दर्शन कर आये तो बाहर रूपविजयजी खड़े थे, उनको देख पूछा कि क्या सूरिजी महाराज यहीं विराजते हैं ? रूप हाँ बस, सीधे ही सूरिजी महाराज के पास जाकर वन्दन की सूरिजी ने इतना प्रेम दर्शाया कि मानो एक अपने मित्र का ही मिलाप हुआ हो बाद में पहिले से ही साफ किया हुआ मकान में आप ठहर गये, गोचरी पानी लाये आहार कर लिया, बाद श्रावक लोग आ गये और चातुर्मास के लिए विनती करने लगे । मुनिश्री ने गुरु महाराज का आज्ञा पत्र दिखाया तथा कहा कि मुझे जल्दी से मारवाड़ जाना है । फिर वे श्रावक कह ही क्या सकते ? कारण इतने बड़े कार्य के लिए गुरु सेवा छोड़ कर आये वे बीच में कैसे रुक सकें ? दूसरे दिन शहर के मन्दिरों के दर्शन किए और विहार के लिए तैयार हुए पर सूरिजी महाराज ने कहा कि दो दिन तो और ठहरें, अभी तो तुमने हमारा उपासरा भी नहीं देखा है, अतः सूरिजी के कहने से दो दिन और ठहरना स्वीकार कर लिया। तत्प Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०५ सूजी और मेझरनामा श्चात् तीसरे दिन सूरिजी के साधुओं के साथ शहर में गये और सूरिजी का उपाश्रय तथा आपकी पुस्तकादि का संग्रह देखा तो आप चकित हो गये कि अहा-हा यह साधुपना क्या पर एक राज वैभव का सा ठाठ है । चतुर्थ दिन इधर तो मुनिश्री सूरिजी को बन्दन करने को गये, तथा वन्दन कर आप उदयविजयजी के पास बैठकर शास्त्रीय बातें कर रहे थे, उधर सूरिजी एक साधु को योग की क्रिया करवाते थे इतने में डाक आई. जिसमें जैन अखबार जो भावनगर से निकलता है वह भी शामिल था, उसको खोल कर सूरिजी ने देखा तो उसमें मेरनामा का सबसे पहिला फार्म था, सूरिजी ने उसको साधारण तौर पर देखा तो आपके क्रोध का पार नहीं रहा और जोर से आवाज दी कि, 'ज्ञानसुन्दरजी आम आओ,' मुनिश्री उठकर सूरिजी के पास गये, तो सूरिजी मारे क्रोध के नेत्रों को लाल कर कहने लगे: सूरिजी - अरे तमे आ शुं करो छो, ढूँढ़िया थी लड़ता लड़ता अमारे सुधी पहुँची गया न ? मुनि० - साहेब शुं थयो ? सूरिजी - श्ररे श्र शुं छे ? मुनि० - समझ गये कि मेकरनामा के कारण सूरिजी का शरीर मारे क्रोध के कांप उठा है, अतः यहाँ शान्ति और नम्रता रखना ही ठीक है । 'साहेब या तो सीमंधर स्वामी ने विनती पत्र लखेल छे ।' सूरिजी - पण विनती माँ भेटला विषय होय शाना, ? अने विनती माँ टला शास्त्रों ना प्रमाणो नी पण शुं जरूर होय, श्र Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ६०६ तो आचार्यों, पन्यापों, भने आधु-साध्वियों नो निंदा पुराण जेवो लागे छे, ज्ञानसुन्दरजी तमे गजब करो छो। ___मुनि०-हां, साहेब ! आ भरतक्षेत्र ना साधु-साध्वियों नो रिपोर्ट छे, अने आपणा मालक सीमंधर स्वामि ने त्यां मोकलवा माटे तैयार करवा माँ श्रावेल छ । सूरिजी-बस, आ तमारी विनती ने बंध करी लो नहों तो तमारो भविष्य सारो नथी समझी ले जो । हुँ तमने ठीक कहुँ छु । मुनि०-ठीक छे साहेबजी ! जे थयो ते तो थइ गयो हवे पछी उपयोग राखीश । सूरिजी-पास में फलोदी वाला संपतलालजी कोचर बैठे थे । सूरिजी ने कहा, संपतलाल आ मेमर नामा नो जेटलो खर्ची थयो छे ते अत्र थी मोकलावी आपो, असे त्यांची प्रेस कोपी मंगवीलो, ज्ञानसुँदरजी तमे पण बिना कारण शा माटे धमाल करो छो, केम संपतलाल हुँ ठीक कहुँ छै न ? ___ संपत-जी हाँ साहिब आपनो कहुवँ ठीक छै । मुनिक-आप शामाटे खचों मोकलवो छो ते तो बधो थइ जशे सूरिजी-बहु सारू त्यागे तमे करी श्राप जो। मु नश्री को तो विहार करना ही था, पांचवें दिन विहार कर सरखेज पधारे, सेलावास एवं फलौदी वाले कई लोग विहार में बहुत दूर तक पहुँचाने को आये। संपतलालजी ने कहा, गुरु महाराज ऐसी किताब लिखने की आपको क्या जरूरत पड़ी थी ? ___ मुनि०-मैंने गुजरात में दो वर्ष विहार कर के केवल सुना ही नहीं पर नजरों से साधुओं की खास बाल लीलाएं देखी तो मुझ से रहा नहीं गया कि वीर शासन की इन साधुओं ने क्या Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०७ विहार और सम्पताल दशा कर रखी है ? इनसे तो गृहस्थ भी अच्छे हैं कि वे अपने लिए हुए व्रत को निर्मलता से पालते हैं, और मर्यादा में चलते हैं, तथा पाप से डरते हैं, पर ये साधु तो इतने निध्नेंस परिणामी हो गये हैं, इतने शिथिलाचारी और परिप्रहधारी बन गये हैं कि थोड़े दिनों में यति होने की तैयारियाँ कर रहे हैं। क्या इस हालत में भी gकार न कर चुपचाप बैठ जाना अच्छा है ? शक्ति होते हुए भी चुप साध कर बैठ जाना, मैं तो शासन का खून काना ही समझता हूँ । क्या तुमने कभी विजय नेमीसूरि का उपाश्रय जाकर देखा है ? जिसमें पुस्तकों के अतिरिक्त कपड़ े, कांब लिये, पात्रा इत्यादि का इतना संग्रह है कि शायद ही साधारण गृहस्थों के वहाँ मिलता हो; जब कि एक ओर तो बिचारे गृहस्थों कों दोनों समय पेट भरने को अन्य एवं तन ढ़ाकने को वस्त्र भी नहीं मिलता है, तब दूसरी ओर संढ-मुढ जैन साधुओं को तीन २ दफे गौचरी, चाय, दूध, फल, मिष्टान्न, सरबती, मलमल और भी बहुमूल्य अनेक पदार्थों का उपयोग। क्या ऐसे पासत्थों को छिपा कर रखना अग्नि को रुई में रखने के समान नहीं है ? इत्यादि बातें होने पर संपतलाल को मालूम हो गया कि महाराज का कथन तो सत्य है, पर ऐसा मेफरनामा सुनेगा कौन ? दूसरे महाराज अकेले हैं; गुजरात में साधुओं का जोर है; इसलिए मुनिश्री को अर्ज की कि साहिब ! इस समय तो आपका मेझरनामा बंद रखना ही अच्छा है, कारण गुजरात में साधुओं का बहुत जोर है, श्रतः आपका मेरनामा कौन सुनेगा ? मुनि० : - सम्पतलाल ! मेरा मेझरनामा जमाना सुनेगा और Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान-द्वितीय खण्ड ६०८ एक ऐसा नवयुवक मंडल तैयार हो जावेगा जो कि इन साधुओं के अखाड़ों को नष्ट भ्रष्ट कर एक ओर फेंक देगा । संपत : - पर आप श्री विजय नेमीसूरिजी को कह कर आये. जो हु सो 'हुआ, अब और इस विषय को किताब के लिए उपयोग रखूंगा । हैं, मुनि०:- इससे क्या हुआ, ਮੈਂਥੋ यह तो नहीं कहा कि जो मेझरनामा छप रहा है उसको नहीं छपावेंगे ? मैंने तो कहा, 'जो हुआ सो हुआ, इसका अर्थ है कि जो मेझरनामा लिखा सो तो लिख दिया, अब इस विषय की किताब के लिए उपयोग रखूंगा । संपत०:--: - महाराज ! आपने विचार तो कर लिया है, पर यहाँ तो आप अकेले हो और वहाँ सब साधु समाज है, समाज के बड़े २ सेठिया इनके हाथ में हैं । कभी लालन एवं बेचरदास वाली तो न हो गुजरे ? मुनिः : - इस बात की हमको परवाह नहीं है, सत्य कहने में मैं एक कदम भी पीछे हटने वाला नहीं हूँ । सत्य की शोध में मैंने घर छोड़ा, सत्य की शोध में मैंने ढूंढ़िया ममाज को छोड़ा है तो अब इन हीनाचारी पात्थों से क्या डरना है ? संपत०:- - महाराज ! आप मारवाड़ी हैं, और फलोदी चतुर्मास करने से आपके साथ हमारा धर्मस्नेह भी है, इसलिए कहना है कि जो कुछ करो वह ठीक सोच समझ के ही करना पीछे से पश्चाताप न करना पड़े । मुनि० - क्या मारवाड़ी मैंशाशाह आदि ने गुर्जरों को पराजय नहीं किया है, मेरे ख्याल से तो मारवाड़ी मात्र को अपनी Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०९ मेझरनामा और सम्पतलाल भूमि का गौरव है और होना ही चाहिये, क्या तुमको मारवाड़ का गौरव नहीं है ? संपत० - नहीं क्यों ? अवश्य है । मुनि० - सम्पतलाल ! मेरा कहना केवल भूमि गौरव का नहीं है, पर मेरा कहना सत्य के लिए है, एवं मैंने मेफरनामा को ऐसे अकाट्य प्रमाणों से दृढ़ बनाया है कि किसी को बोलने के लिए जगह तक भी नहीं रखी है । संपत० : - इस मेफरनामा छपवाने में आपके अतिरिक्त अन्य कितने साधुओं की सम्मति है । मुनि० : - यों तो सात आठ साधुओं की सम्मति है, पर मालो कि किसी को भी सम्मिति न हो तो क्या सत्य का कोई खून कर सकता हैं ? संपत ० :- अब क्या आपका इरादा मेफरनामा को छपवा देने का ही है ? मुनि० : - इस समय तो मैंने निश्चय कर ही रखा है । संपत ० :- वन्दन कर वापिस लौट गया और मुनिश्री सरखेज पहुँचे, सम्पतलाल सीधा ही वाड़ी में सूरिजी के पास गया, आचार्य श्री को बन्दन किया । सूरिजी ने पूछा कि, सम्पतलाल ज्ञानसुन्दरजी ने क्या सुधी पहोंचावी आया छो, अने मेमरनामा नी विषय मां कांई वात थई छे ? सम्पतलाल सूरिजी का भी पक्का भक्त था, अतः उसने कहा साहिबजी ! मेरनामो तो छपी जाखे । सूरि० सम्पतलाल ! तमारे सामने ज्ञानसुन्दरजी कही गया छे के जे थयो ते थइ गयो इत्यादि । Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ६१० संपत--तेश्रो तो कह्यो हतो के 'थई गयो ते तो थई गया 'होवे श्रावी किताब माटे उपयोग राखीसु अने तेनो अर्थ तेओ एम कयों हतो के श्रा मेझरनामो तो छपी जाशे,अविषयनी बीजी किताब लिखवा माठे उपयोग राखेश । ___ सुरि०-अरे आ मारवाड़ी साधु बहूज हुशियार निकल्यो, अमरा पंजा मां थी छुटी गयो, अमने छेत्रीलीधा सम्पतलाल आ मुत्शही साधु अम्हारा हाथ थी चाल्यो गयो खैर हमणो ना हमणो जाओ , ज्ञानसुन्दरजी ने तेड़ी अमारे पास लाओ ___संपत०-साहिब ते ओ मारा एक ना कहवाथी श्रावशे नहीं। सूरि०–बे श्रावक बीजा लई जओ पण गमे तेम करी ज्ञानसुन्दर ने अमारे पास लइ आओ आ मेझर नामो गमे तेम बन्ध करावानो छै ,नहीं तो शासन ने मोटा में मोटो नुक्सान था शे । संपत०-साहिब ! आप रुपविजयजी ने दीक्षा देव मां बहुत उतवल करी तेनोज आ परिणाम छ । सूरि०-हाँ सम्पतलाल, तमारी कहवु सांचो छे अमे एक अमूल्य रत्न गमाबी कांच नो ककड़ो लेवा मां बहुत भूल करी छे पण तेतो बनवा वालो हतो ते बनी गयो होवे तो गमे तेम करी ज्ञानसुन्दर ने यहीं लाओ अने मेझरनामो बंद करावो आ मोटा मां मोटी शासन नी सेवा छ । सम्पत ! हुँ साचु कहूँ छु के मने अटली बड़ी चिंता थइ छ के पूरी गोचरी पाणी नथी करी सक्यो । सम्पत-घर पर जाकर रोटी भी नहीं खा सका और शहर में जाकर सेलावास वालों को साथ लेकर एक स्पेशल मोटर में बैठ सरखेज गये, मुनिश्री के पास जाकर बन्दन की और कहा कि आपको सूरिजी महाराज ने जरूरी काम के लिए याद Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरखेज में अहमदाबाद के श्रावक फरमाया है, इसलिए आपको तकलीफ तो होगी पर एक बार अहमदाबाद पधारो। मुनि०-आप समझ गये कि सूरिजी के दिल में मेझरनामा के विषय में गड़बड़ है, अतः अपने कहा, मुझे तो शीघ्रता से ओसियाँ मेला पर पहुँचना है,और अहमदाबाद में ऐसा कोई जरूरी कार्य भी नहीं है, सरिजी की मेरे पर कृपा है जो वे मुझे याद फरमाते हैं, यदि सरिजी ने कुछ काम फरमाया हो तो आप मुझे कह दो, मैं उस पर विचार करूंगा। सम्पत०-काम तो वही मेझरनामा बन्द करवाने का है। मुनि०-तो फिर वहाँ चलने में क्या फायदा है, यह तो मेरी इच्छा की बात है, वहाँ चल कर भी यदि मैं मेझरनामा बंद नहीं करूँ तो चलने में क्या फायदा होगा ? . सेलावास वाले ने मुनिश्री को समझाया कि सरिजी एक बड़े साधु हैं, इनसे प्रतिकूल होकर मेमरनामा छपवाने में आपको क्या लाभ है ? यदि आपकी ऐसी इच्छा हो तो आप बाद में भी छपा सकोगे, अतः फिलहाल हम आये हैं, अतः हमारा कहना मान कर भी आप मेझरनामा को बंद करवा दो ! ___ मुनि०-ठीक है, लो मैं प्रेस वालों को पत्र लिख देता हूँ। मुनिश्री ने एक पत्र तो प्रेस वालों को लिख दिया कि 'मेझरनामा' मत छापो, प्रेस कापी हम जहाँ मंगावें वहां भेज देना, इत्यादि । दूसरा पत्र गुरुवर्य रत्नविजयजी महाराज को लिखा कि मेझर नामा का एक फार्म तो जैन पत्र में वितीर्ण हो चुका है, वह आपके पास पहुँच गया होगा,किन्तु अहमदाबाद में श्री विजयनेमिसुरिजी ने बहुत आग्रह किया है कि मेझर नामा बंद करवादो, इस Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान- द्वितीय खण्ड ६१२ समय सरखेज मुकाम पर भी सूरिजी महाराज के भेजे हुए दो श्रावक आये और उन्होंने बहुत आग्रह किया, इसलिए मैंने भात्रनगर जैन पत्र वाले को लिख दिया है कि मेझर नामा बंद रखो, अर्थात् अब मत छापो, इत्यादि ! दोनो पत्र लिख कर लिफाफों पर नाम कर के संपतलाल को दे दिये कि तुम सूरिजी को पत्र बंचा कर बंद कर डाक में डाल देना । दोनों श्रावक संतुष्ट होकर वापिस अहमदाबाद जा कर दोनों पत्र सूरिजी को बचाकर बंद कर डाक में डाल दिए तब जाकर सूरिजी को आहार पानी करने की रुचि हुई और शान्ति से आराम किया, इतना ही क्यों पर सूरिजी ने अपनी विजय इस प्रकार समझो कि जैसी कि बादशाह अकबर ने राणा प्रताप के पत्र पर समझी थी । योगीराज के पास पत्र पहुँचते हो एक तार तो जैन पत्र वाले को दिया कि मेरनामा बंद मत करो छाप वर जैन में वितीर्ण करते रहना, दूसरा एक खुला कार्ड फलौदी वालों के पते पर अहमदाबाद मुनि श्री को लिखा कि यदि तुम्हारा भेकर - नामा शुद्ध भावना और पक्के प्रमाणों से लिखा है तो फिर किसी के कहने से डरपोक बन उसको रोक देने का क्या कारण है, यदि तुम किसी के कहने मात्र से घबरा जाते हो तो पहिले लिखा ही क्यों था, अब तो उसको सम्पूर्ण छपा देना ही अच्छा है 1 इसलिए आज मैंने भावनगर जैन पत्र वाले को तार दिला दिया है कि मेरनामा बंदमत करो और छापते जाओ । Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१३ मेझरनामा बन्ध करवाने की कोशिस __ यह कार्ड जब सम्पतलाल की दुकान पर आया और उसको पढ़ाने से मालूम हुआ कि मेझानामा छपाने में केवल ज्ञानसुन्दरजी ही नहीं, किन्तु इसमें तो रत्नविजयजी का भी हाथ है। सम्पतलालजी ने श्राकर सूरिजी से कहा, साहिब ! मेमर नामो बंद था से नहीं पर ते तो निरान्तर, छपीने बाहर पड़ी जाशे। सूरिजी ने कहा कि मैं जानता ही था कि यह मारवाड़ी साधु चालाक एवं मुत्सद्दी है; आप ने नहीं छपवाया तो रत्नविजय को लिख दिया । यदि ज्ञानसुन्दर को मेमरनामा बन्द ही करवाना था तो रत्नविजय को लिखने की क्या आवश्यकता थी; दूसरे अपन लोगों ने भी भूल की कि रत्नविजय वाला पत्र डाक में डाल दिया, यदि वह रख लिया होता तो मेझरनामा बंद हो जाता।खैर, सम्पतलाल कोई दूसरा उपाय नहीं है ? सम्पतलाल! जब तक यह मेझरनामा बंद नहीं हो वहाँ तक मुझे चैन नहीं पड़ेगा। समझ गया न ? सम्पत-साहिब ! दूसरो उपाय तो शुं थइ सके ? सूरिजी.-एक उपाय तो छ के तमे भावनगर जाई छापा वाला ने हजार बे हजार रुपयों नो लोभ आपो ने ते धारे तो मेझरनामो बंद करी सके तेम छ । __ सम्पत०-साहिब जैन पत्र वालों तो साधुओं नो कट्टर दुश्मन छे तेने हाथ मेझरनामो लाग्यो एटले हाथ में श्रावेला अमूल्य अवसर ने, ते केम जावा दें अमनें तो उम्मेद नथा के पांच हजार श्रापवा छतो ते मेमरनामो छपवानो बंद करी दे। सूरिजी.-सम्पतलाल ! तमे फलोदीवाला कोई जोर श्रापो तो ज्ञानसुन्दर मानी ले खरोके ?; Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ६१४ सम्पत-पण हीव तो आ काम केवल ज्ञानसुन्दरजी ने हाथ में नथी रह्यो, न ? केम के रत्नविजयजी मेमर छापवानो आर्डर आपी दीg पछी ज्ञानसुन्दरजी अकला शुं करी सके। ___ सूरिजी-पण मेझरनामो लिखेलो तो ज्ञानसुन्दरजी नो छे न, ते धारे तो बंद करावी सके छे, अटले तमे फलोदी वाला ज्ञानसुन्दरजी ने उपर जबर्दस्त दबाव डालो तो काम बनी सके । सम्पत-पण ज्ञानसुन्दरजी रत्नविजयो ने गुरु माने छे अने ते ते ओनी अाज्ञा में पण चले छे, पछे ज्ञानसुन्दरजी नो शुं चाली सके आ प्रयत्न करवू तो अमने नकामु लागे छ । सूरिजी०-मेमरनामा ना पहिला फाम नी विषयानुक्रमण का अने आगमों ना प्रमाण जोतां ते साधुओंनी धूल कहाड़ी नाकशें अमने लागे छे के अाज सुधी साधुओं नो अवो दुश्मन कोई नथी जाग्यो । एक तरफ तो अंगरेजी अणेला नवयुवक साधुओं थी खिलाफ थाता जाय छे भने बीजी बाजु आ मेमरनामो तेश्रो नो हथियार बनी जाशे । भाई सम्पत अमने तो रात्रि में निंद्रा पण नथी श्रावती अने श्रेज पिचार श्राव्या करे छे के कोई न कोई उपाय थी मेझरनामो बंद थाय तो सारूँ। सम्पतः-साहिब संभलाय छे के उपाध्यायजी श्री यशाविजयजी महाराज पण एक लांबो चोड़ो हुन्डीनो स्तवन लिखि गया छ। सूरिजी-हाँ तेओ श्री हुन्डीनो स्तवन लिख्यो छे पण जेम मेझरनामा में खास साधुओं ने माटे विषय छुटा पाड़ि ने आक्रमण करेल छे तेम उपाध्यायजी ने नथी कयौँ तेत्रों तो समुच्चय लिखेलो छे तेने माटे अमोए ढूंढ़िया तेम यतियों नी अपेक्षा बतावी पोतानो बचाव करी सकिये छे पण मेझरनामा नी विषय जोवा थी अमाग Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१५ अहमदाबाद से विहार रुवाटा कंपी जाय छे बीजो ते जमानो जुदो अने आजनो जमानो जुदों अने ते लिखाण तो पुरांणो थई गयो छे पण आ मेझरनामो तो नवो बंड जगाव से। सम्पतलाल गमे ते उपाये मेझरनामो बन्ध करो तो ज सारूँछे। सम्पत०-साहिब भवि भाव ने कौन टाली सके छे, अगर रूपविजयजी ने श्राप दीक्षा न आपता अने ज्ञानसुन्दरजी ने अपनावता तो आ प्रकार नो पश्चाताप करवानो समय नहीं ज आवतो । पण आप घणी उतावल थी काम किधो छ । । सूरिजी.-सम्पतलाल ! ते वखते अमे प्रेम नथी जाणता हताके आ मारवाड़ी साधु अमाराथी सेवा प्रकार नो बदलो लेशे ने एक अमाग अपराध ने लिधे अखिल शासन डोली नाकशे पण हिवेतो तेनो उपाय ज शु थइ सके ? इत्यादि । १०० मुनिश्री अहमदाबाद से अोसियाँ र ___ इधर मुनिश्री सरखेज से शोरीसर पधारे यहाँ बड़े २ बिंब भूमि से प्रगट हुए और उनको बनाने वाला वस्तुपाल तेजपाल बतलाये जाते थे, वहाँ की यात्रा कर कलोल होकर पानसर आये, वहाँ महावीर के दर्शन कर भोयणी श्रीमल्लीनाथजी की यात्रा की। वहाँ अहमदाबाद के बहुत से श्रावक आये हुए थे उन्होंकी आग्रह से एक व्याख्यान भी दिया, वहाँ से जेटाणे होते हुए म्हेसाणे आये, वहां तीन दिन ठहरे, दो व्याख्यान हुए तथा जनता पर वीर वाणी का अच्छा प्रभाव पड़ा, वहाँ के लोगों ने कुछ दिन ठहरने के लिए विनती की, पर श्रापको जल्दी से मारवाड़ जाना था। ___ म्हेसाना से वड़नगर शिनगर खेरालू होकर आप तारंगाजी Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय स्खण्ड ६१६ पहुँचे, वहाँ पर मोतीविजय पन्यास अपने एक शिष्य के साथ ठहरा हुआ था; आप भी वहाँ जाकर ठहर गये । जब गौचरी के लिए मुनिश्री तयार हुए तो पन्यासजी साथ चल कर उपधान के रसोड़े में ले गये, वहाँ बीदाम, पिस्ता की चक्कियें वगैरहः इतना मिष्टान्न पदार्थ देखा तो मुनिश्री ने पूछा कि यहाँ क्या है, और कौन रहता है, यह रसोड़ा किस की ओर सेचलता है ? पन्यासजी ने कहा, 'यहाँ उपधान चले छे अने श्रा रसोड़ो पण तेओ नो ज छे अने आमाथी साधुओं आहार पानी ले तो कोई दोष नथी, वेहरीलो पर्याप्त गौचरी, कारण यहाँ कोइ बीजो साधन नथी ।" पेट को भाड़ा तो देना ही था, अतः मुनिश्री ने गौचरी पानी ले लिया । जब उपधान वाली बेहनो क्रिया करने को आई तो ६० बहिनों में एक भी श्रावक नहीं, और वे भी सब की सब विधवायें जिसमें भी कोई ५-७ विधवायें तो अर्द्ध बुड्डी थों, शेष सब युवतियें थीं । पन्यासजी ने शाम को क्रिया करवा के प्रतिक्रमण किया, बाद में पन्यासजी नीचे चले गये, तथा एक २ विधवा पन्यासजी के पास आलोचना करने को आती थी, कई विधवाए पन्यास के शिष्य के पास आती थीं, परन्तु मुनिश्री वहाँ ठहर जाने से उसने मना करदी; जब मुनिजी पेशाब करने को नीचे आये तो पन्यास की पाप लीला को देख आश्चर्य होने लगा कि हे वीर, तुम्हारा यह शासन और पंच महाव्रत एवं नौवाड़ ब्रह्मचर्य के पालने वाले गोपियों के नाथ बन कर धर्म के नाम पर इस प्रकार अधर्म एवं व्यभिचार का प्रचार करे, इसको हम कैसे देख सकें, एवं पुकार किए बिना मौन साध कर कैसे बैठे रहें। आपको वहाँ एक ही दिन ठहरना था, पर पन्यास की पाप Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ तारंगा जी पर उपधान लीला देखने के लिए वहाँ तीन दिन ठहर गये; वहाँ रहकर सब हाल देखा या सुना जिसको मेमरनामा में फिर से संकलित कर दिया । शायद सब उपाधान कराने वाले पन्यासों का यह हाल नहीं भी होगा परन्तु इनमें कनक, कामिनी से अस्पर्शित तो शायद ही कोई रहता होगा; कारण जहाँ अधिक परिचय होता है वहाँ मन, वचन, और काया से किसी न किसी प्रकार का पाप तो लग ही जाता है । यह प्रवृति इतनी खराब है कि चाहे क्रिया कराने वाला पाक भी हो पर उनके शिष्यों का चारित्र पवित्र नहीं रह सकता है, कारण सब एक सी प्रकृति वाले नहीं होते हैं, यही कारण है कि गुजराती साधु-साध्वियों में इसकी मात्रा बढ़ी हुई है। दूसरे द्रव्य -यह तो प्रकट ही नक्कारा वासक्षेत्र वगैरह: के लिए लेते ही है, हाँ चाहे साधु अपने पास में न रखें किन्तु उस पर स्वामित्व तो - साधुओं का ही रहता है; यह ही कारण है कि वे साधु मन चाही मौज मजा कर सकते हैं । यह बात तो अब किसी से अनजानी नहीं रही है कि किसी साधु के पाछ पांच लाख, तो किसी के पास तीन लाख, किसी के पास एक लाख या कर लादा स्टाक जमा रहता ही है; योग उपधान कराने वाला शायद ही कोई ऐसा आचार्य पन्यास होगा कि जिसके पास हजारों, लाखों की रकम जमा नहीं हो । केवल साधु ही क्यों पर मारवाड़ की साध्वियों के पास भी हज़ारों की रकम जमा रहती है और कई विकटावस्था में इज्जत रखने में काम भी आती है । पढो अवचलश्री के बयान | तारंगाजी में एक गुजराती भाई मुनिश्री के पास दीक्षा लेने Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान - द्वितीय खण्ड ६१८ को आया जिसका नाम मोरचंद था; २१ वर्ष की आयुष्य थी, विवाह हुए को केवल दो वर्ष ही हुए थे; बारीकी से पूछने पर ज्ञात हुआ कि आर्थिक संकट के मारे यह पामर दीक्षा लेता है । दूसरे दिन उसकी औरत अपने भाई को साथ ले कर तारंगाजी ई और मुनिश्री से सब हाल कहा; मुनिश्री को बड़ी दया आई कि यदि इसको दीक्षा दे दी जावे तो सर्वप्रथम तो इस प्रकार से दीक्षा लेने वाला क्या दीक्षा पालेगा ? द्वितीय विचारी निराधर बाई का क्या हाल होगा; अतः आपश्री ने फोरचंद को अच्छी तरह से दीक्षा का स्वरूप समझाया और कहा कि तुम घर में रह कर ही त्याग वैराग्य रखोगे तो तुम्हारा कल्याण हो सकेगा, दीक्षा की भावना रखो, घर में रहकर अभ्यास करो; फिर क्षयोपस होगा तो दीक्षा आ भी जावेगी वरन परभव में दीक्षा लेना इत्यादि । धन्य है मुनिश्री की निस्पृहता को ! मुनिश्री ने सोचा कि एक ओर तो संड-मुसंड साधु माल उड़ा रहे हैं, तब दूसरी ओर आर्थिक संकट के मारे केवल पेट के लिए लोग साधु वेष पहिन कर उसको कलंकित करने को उतारू हो रहे हैं बस । समाज का पतन इसी कारणों से हो रहा है । आपने तागंगाजी में सुना कि इन पहाड़ों में एक कुंभारियाजी नामक जैनों का प्राचीन एवं प्रभावशाली तीर्थ है जहाँ किसी दिन जैनों के ३६० मन्दिर थे किन्तु ज्वाला मुखी के कारण अब केवल ५ मन्दिर बचे हुए हैं; आपका इरादा हुआ कि बारंबार तो घर आना मुश्किल है अतः ऐसे तीर्थ को क्यों छोड़ा जाये ? यद्यपि पहाड़ों में जाने में तकलीफ तो होगी, पर फिर भी रास्ता इधर से नजदीक पड़ेगा, आप तारंगाजी से विहार कर बाव और Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१९ चन्द्र विजय साधु का मिलाप भालासन आये वहाँ एक चन्द्रविजय नामक साधु मिल गया, पूछने पर उसने कहा कि मैं रत्तविजयजी महाराज का शिष्य हूँ। आपने विचार किया कि गुरु महाराज के तो कोई शिष्य है ही नहीं, तो फिर यहसाधु रत्नविजयजी का शिष्य कैसे बताता है पुनः पछने पर उसने कहा कि रत्नविजयजी ने तो मुझे शिष्य नहीं बनाया पर मैं रत्नविजयजी महाराज पर श्रद्धा रख उनको अपना गुरू मानता हूँ। साधु-आप कहाँ पधारोगे ? मुनि०-मैं कुम्भारियाजी तीर्थ की यात्रा कर आबू होकर मारवाड़ जाऊँगा। ____ साधु-यदि आप कृपा कर मुझे साथ ले चलें तो मेरे यात्रा भी हो जायगी और मारवाड़ के तीर्थों के भी दर्शन कर लूंगा। ' मुनि:- बहुत खुशी की बात है, चलो साथ में । ___ भलासणा में करीब १५ घर श्रावकों के हैं, पहिले घर ज्यादा थे तब वहाँ यति लोग भी रहते थे और उनका एक ज्ञान भंडार भी था । जब मुनिश्री वहां पधारे और उस भंडार को खोल कर देखा तो उसमें प्राचीन हस्त लिखित पुस्तकों से दो पेटिये भरी थीं परन्तु कई वर्ष तक उनको नहीं देखने से कई पुस्तक तो उदाई खा गई और कई के पाने चिप गये; उनमें एक ४५ श्रागमों का हस्तलिखित गुटका था जिसको चारों ओर से उदाई खा गई थीं; बीच में भी सब पन्ने चिपे हुए थे, उसको देख मुनिश्री की आखों से पानी आने लगा कि देखो हमारे परम पूजनीय आगमों की यह दशा ? मुनिश्री ने कहा कि श्रावकों यह पुस्तक हमको दे दो, हमारे पढ़ने में तो यह काम Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान-द्वितीय खण्ड ६२० नही आवेगी, परन्तु हमारे धर्म के मुख्य ४५ आगम इसमें लिखे हुए हैं अतः दर्शनीक है। श्रावकों ने सोचा कि यह कोई अच्छी पुस्तक होगी, तब ही तो मुनिजी ने इसको ले जाने के लिए आग्रह किया है अतः टालमटोल कर आखिर उन्होंने पुस्तक नहीं दी । भालासन से २४ मील दांता पड़ता है; रास्ते में सब भीलों केही ग्राम आते हैं। गांव के श्रावकों की आदमी देने जितनी भी स्थिति नहीं थीं; यद्यपि मुनिश्री दो वर्ष गुजरात में घूमे पर किसी एक भी दिन कहीं से भी आदमी नहीं लिया। शाम को जंगल जाते तब रास्ता देख आते और सुबह विहार कर देते; उपाधि आपके पास अधिक थी नहीं फिर आदमी की क्या आवश्यकता थी ? भालसा से सुबह ही विहार किया तो करीब १ बजे आप दोनों साधु दान्ते पहुँचे, वहां महाजनों के घर थे, पर समय अधिक हो जाने के कारण आहार पानी का योग नहीं मिला; थोड़ी सी छाछ मिली जिसको पीकर तपोवृद्धि की शाम के टाइम में गौचरी पानी कर रात्रि वहीं रहे । दूसरे दिन २४ मील कुमारिया का सफर करना था; वहाँ भी मार्ग में भीलों के सित्राय कोई उच्च जाति के घर नहीं थे, इस लिए दूसरे दिन भी २४ मील का विहार करना पड़ा; फिर भी दुर्देव से दोनों मुनि आगे पीछे चलते-चलते पहाड़ों में रास्ता भूल कर पृथक २ हो गये । वहां भयानक पहाड़, निर्जन भूमि, चारों ओर जंगल ही जंगल किसको तो रास्ता पूछे; और कौन रास्ता बतलावें इधर उधर भटक कर बहुत दुःखी हुए । करीब २ बज गई लेकिन ग्राम का कोई पता नहीं; भूख एवं प्यास के मारे Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुम्भारियातीर्थ की यात्रा आँखों में जीव आ रहा; ऐसी विषम अटवी में कायर आदमी छाती फाट कर मर जाता है; तथापि-हमारे चरित्रनायकजी उस विपत्ति में धैर्य रख एक माड़ की छाया में लेट गये । जब १ बजी तो वहां से उठ कर रवाना हुए, भाग्यवश बहुत नजदीक ही रास्ता मिल गया; भूखे प्यासे करीब आध घंटा गत्रि व्यतन हुई तब जाकर आप कुंभारियाजो पहुँचे । किन्तु आपके दिल में चन्द्रविजयजी का बड़ा ही फिक्र था, लेकिन वे तो आपके पहिले ही कुंभरिया पहुँच गये थे । बस, दोनों महात्माओं ने भूखे प्यासे ही रात्रि व्यतीत की। - कुंभारिया में एक आनंदजी कल्याणजी की पेढ़ी है; जैनेत्तर मुनीम और दो नौकर भी रहते हैं। मुनीम ने मुनियों की अच्छी खातिर की; इतना ही क्यों पर उसने अफसोस प्रकट किया कि जैन मुनियों को इस प्रकार तकलीफ उठानी पड़ी। खैर, दूसरे दिन वहाँ की यात्रा की; कुंभारियाजी के मन्दिरों का निरीक्षण किया तो वहाँ आस पास में बहुत से जले हुए पत्थर देखे, इससे पाया जाता है कि अग्नि का उपद्रव अवश्य हुआ होगा। खैर, पांचों मन्दिरों के दर्शन किए; जिनमें एक नेमिनाथ स्वामि की भव्य मनोहर, वैराग्यमय शान्ति मूर्ति के दर्शन किए तो उस मूर्ति का इतना प्रभाव पड़ा कि मुनिश्री दो घंटे तक वहाँ से उठ नहीं सके, ऐसे ध्यान में तल्लीन हो गये थे। यहां से पास में ही दो मील के फासले पर जैनेत्तरों के एक अम्बाजी का मन्दिर है, जो पहले जमानों में यह भी एक जैन मन्दिर ही था, वहाँ भी बहुत से यात्री आया करते हैं अतः दूसरे दिन वहां भी जा आये। कुंभारिया से खराड़ी २४ मील है; वहाँ भी मार्ग में भीलों Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श - ज्ञान - द्वितीय खण्ड ६२२ के सिवाय अन्य वस्ती के ग्राम नहीं; अतः कुँभारिया से खराड़ी २४ मील चलकर आये उस दिन भी करीब १ बज गई थी । उस समय सड़कें नहीं बनीं थी अतः रास्ता विषम था । उस दिन तो खराड़ी में ही रहे, दूसरे दिन वहां से विहार किया तो २४ मील चल कर चौकी पर ठहरे, और वहाँ से श्राबू देलवाड़े जाकर भगवान् - आदीश्वर एवंनेमिनाथ केदर्शनकर थकावट दर की। वहां का आनन्द तो भुक्त भोगी ही जानता है और आबू की शिल्प विश्वविख्यात भी हैं । यों तो मुनिश्री ३६ मील का विहार किये हुए थे, पर यहाँ एक तो पहाड़ों के रास्ते चलते २ पैरों से रक्त बहने लग जाता था, दूसरे २४ मील में कोई उच्च जाति का घर नहीं कि गौचरी, पानी या छाछ भी लेकर खावें पीवें; तीसरे एक दिन हो नहीं किन्तु निरन्तर ४ दिन तक पूर्वोक्त कष्ट के साथ २४ - २४ मील का विहार करना फिर भी पुरुषार्थो पुरुष क्या २ नहीं कर सकते हैं ? अर्थात सब कुछ कर सकते हैं। आबू और अचलगढ़ में चार दिन की स्थिरता कर मंदिरों के दर्शन, शिल्प कला का निरीक्षण, गोपीचंद भरतरी, नल वगैरह : गुफाएं, और जो भी देखने योग्य स्थान थे उन्हें देख कर वहाँ से अनादरा की नाल से उतर कर क्रमशः विहार करते हुए सिरोही आये । यहां के १४ मन्दिरों के दर्शन किए तथा श्रावकों के आग्रह से दो व्याख्यान भी दिए। सिरोही से शिवगंज आये, यहाँ भी एक व्याख्यान हुआ, यहाँ से विहार कर क्रमश: एक एक रात्रि ठहरते हुए पली आये । पाली में आप तीन दिन ठहरे तथा दो व्याख्यान भी दिए; वहाँ से चल कर गेयट, सेलावास होकर जोधपुर आये; दो रात्रि यहां ठहर मंडोर, मंथाणिये होकर फाल्गुन Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान 2012 आबू विमल वसही की प्राचीन मूर्त्ति १९ Page #719 --------------------------------------------------------------------------  Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२३ मेझरनामा में वृद्धि शुक्ला २ के दिन ओसियाँ आकर शासनाधीश भगवान् महावीर की यात्रा कर आनंद को प्राप्त हुए । १०१ मुनीश्री का प्रोसियाँ में पधारना मन्दिरजी से बाहर आकर बोर्डिङ्ग का निरीक्षण किया तो २. लड़के जैनों के और ३ जैनेत्तरों के, कुल ५ लड़के नजर आये । वहाँ की परिस्थिति मुनीम द्वारा सुनी और मुनीम ने कहा कि कल मेले पर इन लड़कों को बिदा देकर बोर्डिंग उठा देने का नश्चय हुआ है; पर हमारा अहो भाग्य है कि आप पधार गये, आशा है बोर्डिंग की जड़ फिर हरी भरी हो फले फूलेगी । मुनि० - मुनीमजी फिक्र मत करो, गुरु कृपा से सब अच्छा होगा; फिर भी यह कहावत ठीक है कि जो होता है वह अच्छे के लिये ही होता है; क्योंकि ऐसा होने से यह तो परीक्षा हो गई कि श्रावक लोग शासन के कैसे भक्त हैं; परमार्थ का कार्य किस प्रकार करते हैं, इत्यादि । मुनीम० - साहिबजी ! धर्म की नाव चलाने वाले तो आप साधु लोग ही हैं। मुनिः - विद्यार्थी क्यों चले गये ? मुनीम० - खर्चे का इन्तजाम नहीं है । मुनि० - अभी सूरत से रकम भेजवाई थी न? मुनीम० - पेढी की कुछ रकम देखी थी जिसमें जमा करला मुनि० -- यह तो ठीक है; किन्तु वास्तविक अन्दरूनी दर्द क्या है सो कहो। तुम छिपा कर क्यों रखते हो; मैंने थोड़ा बहुत हाल जोधपुर में सुन लिया है । Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ६२४ मुनीम - गुरु महाराज की शुरु से आज्ञा थी कि जो जिस गच्छ का विद्यार्थी हो, उसको उसी गच्छ की क्रिया पढ़ाई जावे । किन्तु खरतरों ने इस बात का आग्रह किया कि ओसियाँ के बोर्डिंग में सबको खरतर गच्छ की ही क्रिया पढ़ानी चाहिये | इसो कारण से जोधपुर में साध्वी ज्ञानश्री, वल्लभश्री ने मुझे बुलाया और कानमलजी, सिवराजजी, फैजराजजी वगैरहः खरतर गच्छ के श्रावकों ने साध्वियों के पास आकर मुझको कहा कि कृपाचन्द सूरि और सोन श्रीजी के पत्र आये हैं कि ओसियाँ के बोडिंग में विद्यार्थियों को खरतर गच्छ की ही क्रिया कराई जावे, इसलिये तुमको कहना है कि आज से तुम वहाँ पर सब विद्यार्थियों को खरतर गच्छ की क्रिया पढ़ाया करो ! तब मैंने कहा कि पहिले कई विद्यार्थी तपागच्छ की क्रिया पढ़ चुके हैं, उनके लिए क्या करना ? साध्वियाँ - क्या करें ? उनको फिर से खरतर गच्छ को क्रिया पढ़ा दो और प्रतिक्रमणादिमें खरतर क्रिया कराया करो | मैं — ठीक, किन्तु ऐसा करने से यदि तपा गच्छ वाले सहायता देना बन्द कर देवेंगे तो आप सहायता करवा देओगे न ? साध्वियें - जागो कृपाचन्द्रसूरि और सोनश्रीजी के पास, वे अवश्य सहायता करवा देवेंगे । क्या खरतर गच्छ में धनाढ़यों की संख्या कम है ? मैं ठीक है, मैं सूरत और बड़ोदरे जाऊँगा, पर एक बात और भी है कि शायद तपा गच्छ वाले अपने लड़कों को नहीं रखेंगे तो १ साध्वियें - जितने हों उतनों को हो पढ़ाना । Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२५ खरतरों को खेंचा-तानी मैं-ठीक है। बाद में पहिले बड़ोदरे सोनश्रीजी के पास गया और सब बातचीत की, उन्होंने मुझे खरतर गच्छ की क्रिया के लिए बहुत जोर दिया. पर जब द्रव्य-सहायता के लिए कहा तो उन्होंने कोरा जबाब दिया कि इस समय तो यहाँ कुछ नहीं है, अभी तो तुम काम चलाओ, फिर समय पाकर मैं कहाँ से ही द्रव्य की सहायता पहुँचाती रहूँगी, पर याद रखना भोसियां के बोर्डिंग में सब विद्यार्थियों को क्रिया खरतर गच्छ की ही पढ़ाते रहना । खैर, मैं वहाँ से कृपा. चन्द्रसूरि के पास गया। वहां भी गच्छ राग तो उतना ही था पर द्रव्य-सहायता के लिए कोरा जबाब मिला जैसा सोनश्रीजी से मिला था। __ मैंने सूरिजी से कहा कि आप क्रिया के लिए तो इतना आग्रह करते हो पर द्रव्य सहायता के लिये कुछ भी नहीं, फिर हम क्रिया कैसे करा सकते हैं इस बात को आप स्वयं विचार कर लीरावें और मैं खर्चा लगाकर आयाहूँ कुछ सहायता तो करवानी चाहिए। जब खरतरों पे द्रव्य-सहायता की मुझे बिलकुल ही उम्मेद नहीं रही तब इस हालत में मैं जो शुरू से क्रिया चलती थी वह सी सिलसिला रखा। इस पर खरतर गच्छ वाजों का बोर्डिग प्रति ऐसा प्रकोप हुआ कि अब वे इस बोर्डिंग को जड़ा मूल से नष्ट कर देना चाहते हैं । इस कार्य में मुख्य कारण तो ज्ञानश्री, बल्लभश्री ही हैं। उन्होंने ने मचन्दजी को बहका दिया है और नेमिचंदजा साध्वियों के डाया हाथा का कठपुतला बना हुआ है। यहां का जैसा हाल है वैसा मैंने आपकी सेवा में निवेदन कर दिया। अब आप जैसा उचित समझ वैसा करावें; पर अब बोडिङ्ग को चलाना हो Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ६२६ तो आप पक्के पाये पर काम करना, नहीं तो यह खरतर गच्छ वाले काम चलने नहीं देंगे। ___मुनि०-खैर, अब क्या करना है ? मुनीम-जैसी आपकी आज्ञा हो । कल मेला है, अतः सब जोग एकत्र होंगे ही। ___ मुनि-मुनीमजी! यह कार्य चलाना साधुओं का काम नहीं, अपितु श्रावकों का काम हैं; कारण साधु एक स्थान पर तो रह ही नहीं सकते हैं, साधु तो उपदेश दे सकते हैं। भला आपका पत्र आने पर परमदयालु गुरु महाराज ने मेरी इच्छा नहीं होते हुए भी मुझे भेज दिया, नहीं तो क्या दो-दो, तोन-तीन सौ कोस से साधुओं का आना-जाना बन सकता है । अब भी कोई अच्छा प्रेमी और परिश्रमी मनुष्य इस बोर्डिंग को सँभालेगा, तब ही यह चल सकेगा। मुनाम-हाँ साहिब आपका कहना सत्य है। मुनि:-ये पत्थर यहाँ क्यों डाले गये हैं ? मुनीम यहाँ कोठरियाँ बनाने का निश्चय हुआ है। मुनि०-यह जगह तो एक बड़ा हॉल ( कमरे ) के लिए रखी गई थी न ? मुनीम-हॉल बनाने में खर्चा बहुत होता है, इतना पैसा नहीं है; कोठरियाँ बनाने में तो एक २ कोठरी हर कोई बनवा देवेगा। मुनि०-मुनीमजी ! यह तीर्थं है, इसकी सहायता करने वाला श्री संघ है। पैसा पा जावेगा, मकान बिगाड़ो मत, यहाँ तो एक ही हॉल होने दो; यदि पैसा कम है तो मैं फलौदी जाकर Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२७ ओसिर्या के बोर्डिंग का विचार का फिलहाल मन्दिरों से रकम दिलवा दूंगा; बाद गुरु महाराज विचार बंबई जाने का है। क्षेत्र स्पर्शना होगी ता मैं भी जाऊँगा; यदि बंबई जाना बन गया तो इस तीर्थ के लिए एवं बोर्डिंग के लिए उपदेश कर सहायता करवा देवें गे। पर मकान बनाने के बाद ऐसी भूमि नहीं है कि जहाँ हाँल बन रुके । मुनीम-ठीक मेरी भी यही राय है; धर्मशाला में इतनी ही शेष जगा है यदि यहाँ एक ही हॉल बन जावे तो ठीक है । मुनिः:- ये यात्री कहां के हैं ? मुनीमः - समीरमलजी सुराणा और उदयचंदजी साब रामपुरिया वगैरह : बीकानेर के श्रावक हैं । जब फलौदी, लोहावट वालों को मालूम हुआ कि मुनिश्री ओसियांजी पधार गये हैं तब तो उनका उत्साह द्विगुणित बढ़ गया, और नहीं आने वाले भी मेले पर शुक्ल पक्ष की द्वितीया को दोपहर की गाड़ी से सैंकड़ों लोग आ पहुँचे । रात्रि के समय बोर्डिंग के लिए एक मीटिंग हुई जिसमें फलौदी, लोहावट और बीकानेर वाले करीब २५ आदमी थे । सबसे पहिले तो यह ही सवाल पेश हुआ किं रकम जमा नहीं है, और रकम बिना बोर्डिंग चल नहीं सकता है; पेढ़ी में ज्यादा रकम है नहीं कि बोर्डिंग में लगाई जावे। फिर भी पेढ़ी से कर्जा लेकर बोडिंग कहां तक चलाया जा सकता है, अतः बोर्डिंग के लिए स्थायी फंड हो जाय तो बोर्डिंग चल सकता है, नहीं ता कल से बोर्डिंग उठा दिया जाय । इस विषय में बहुत सी चर्चा हुई, आखिर यह तय हुआ कि बोर्डिंग के जन्म दाता मुनि श्री Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श- ज्ञान द्वितीय खण्ड ६२८ ५०० मील से चलाकर आये हैं, अतः आपकी भी राय लेना वश्यक है | यह बात सबके जच गई । नेमीचंदजी, शोभागमलजी गोलेच्छा, मेघराजजी मुनौयत, नोगराजजी वैद्य मेहता, तथा समीरमलजी उदयचंदजी बीकानेरवाले एवं छः श्रावक मुनिश्री के पास आये और बोर्डिंग के विषय में पूछा, तो मुनिश्री ने कहा कि परम योगीराज की कृपा से मारवाड़ में यह कल्प वृक्ष खड़ा हुआ है, अतः इसको जैसे बने वैसे चलाना ही चाहिये; गुरु महाराज ने मुझे खास इसीलिए भेजा है और मैं ताकीदी से ५०० मील चलकर आया हूँ, अतः बोर्डिंग किसी भी हालत में नहीं उठना चाहिये | श्रावकः -- 'नहीं उठना चाहिये' यह तो हम भी चाहते हैं, पर द्रव्य बिना खर्चा चल नहीं सकता है, अतः इसके लिए क्या करना चाहिये ? मुनि:- आप अपने घर में साते रहोगे तब तो आपको कोई रुपये लाकर नहीं देवेगा, यदि आप चार सज्जन कहीं भी जाओ तो रुपयों की कमी नहीं है । बोर्डिंग से विद्या प्रचार तो है ही पर वह इस तीर्थ की उन्नति एवं प्रसिद्धि का भी एक प्रधान कारण है । बड़े अफसोस की बात है कि आप लोग इतने धनाढ्य होते हुए भी क्या एक बोर्डिंग को नहीं चला सकते हो ? यदि सच्चा दिल की लग्न वाला एक श्रादमी भी विचार ले तो ऐसे बोर्डिंग को चला सकता है, इत्यादि । मुनिश्री के कहने का थोड़ा-बहुत प्रभाव हुआ तो सही, पर वे लोग बोले, खैर, इसको फिर कल विचारेंगे। दूसरे दिन समीरमलजी, उदयचन्दजी मुनिश्री के पास आये Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२९ ओसियाँ का बोडिंग के लिए और पूछा कि बोर्डिङ्ग जमा जमाया है; इसको उठा देने में फलौदी वालों की ऐसी इच्छा क्यों हैं ? . मुनिश्री ने कहा कि इन लोगों के दिल में दर्द और ही है, और वह यह है कि जब गुरु महाराज की मौजूदगी में बोडिङ्ग की स्थापना हुई तब से ही यह नियम रखा गया कि तपागच्छ का विद्यार्थी हो उसे तपागच्छ की क्रिया और खरतर गच्छ के लड़के को खरतरगच्छ की क्रिया पढ़ाई जावे और यही मुनीम को आर्डर दे दिया गया था। बाद खरतर गच्छ को साध्वियों ने यह आन्दोलन उठाया कि ओसियाँ में तपागच्छ की क्रिया क्यों पढ़ाई जाती है, सबको खरतर गच्छ की क्रिया करवानी चाहिये, पर उनका कोई ऐसा प्रभाव नहीं पड़ा; तब सोनश्रीजी ने जोधपुर के श्रावकों को पत्र लिखा कि तुम्हारी मौजूदगी में ही श्रोसियों में तपा-गच्छ की क्रिया पढ़ाई जाती है, यह बड़ी भारी अफसोस की बात है । कृपाचंद सूरि ने नेमीचंदजी के कान भर दिये कि तुम तो हमारे गच्छ के दुश्मन पैदा कर रहे हो, इत्यादि । इसलिए इन लोगों की राय बोर्डिङ्ग उठा देने की है। बीकानेर वाले सुनकर दंग हो गये कि अहो आश्चर्य है ! केवल एक गच्छ कदाग्रह के लिए इस प्रकार शासन को नुकसान पहुँचाना कितनी अज्ञान दशा है ? उदयचन्दजी ने कहा कि यदि फलौदी के अतिरिक्त किसी अन्य प्राम वाले इस कार्य को हाथ में ले तो क्या वह चला सकता है ? मुनिक-खुशो से, कारण यह तो श्रीसंघ का ही कार्य है। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड . ६३० उदय-कल एक कमेटी बनाकर इसकी व्यवस्था करेंगे। मुनिः-कमेटी से कुछ काम नहीं होगा, कारण कमेटी में तो आप बहुत से मेम्बर चुनोगे, अतः उसमें मतभेद अवश्य ही पड़ जावेगा, इस हालत में आप काम नहीं चला सकोगे। मेरी राय तो यही है कि कमेटी वगैरहः कुछ भी नहीं की जावे और श्राप इस काम को देखा करें; जो काम देखे वही मेम्बर, वही प्रेसीडेन्ट और वही सेक्रेटरी है । वास्तव में आप को काम करना है, तो फिर स्वतंत्रता से ही क्यों ना कया जावे ? उदयः-हां ठीक है, अब बात हमारी समझ में आ गई है। मुनि०:-कल जब आप लोग एकत्र हो मिले तब आप सब मिल कर मेरे पास अवें; मैं कह दूंगा कि फिलहाल एक वर्ष बीकानेर वाले काम चलावेंगे, आगे फिर देखा जावेगा। समीरमलजी, उदयचंदजी के सब बात समझ में आ गई, तथा वे दिल में समझ गये कि फलौदी वालों के अन्दरूनी दर्द तो मुनिश्री ने कहा वह गच्छ कदाग्रह का ही है। दूसरे दिन मेला था; सब भक्त लोगों ने एकत्रित हो प्रमु की सवारी निकाली और भक्ति कर अपने जीवन को सफल नाय ।। रात्रि में फिर मीटिंग हुई; बोडिंग के सवाल के साथ चुन्नीलाल मुनीम ने यह भी सवाल पेश किया कि जो जगह खुली पड़ी है, तथा वहां पर कोठरियों का हुक्म हुआ है। बहुत से लोगों की तथा मुनिश्री की गय एक ही हॉल बनाने की है, अतः आप लोग इस विषय में क्या कहते हो ! नेमिचंदजी ने कहा, हम भी चाहते हैं कि यहां पर हॉल क्यों महल बन जावे तो अच्छा Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसियाँ का बोडिंग के लिये पर उसके लिए रकम तो होनी चाहिये नां ? रकम के लिए कहा है कि फिलहाल फलोदी के मन्दिर से रकम मंगवा लें, पर हॉल होना आवश्यक है; समय जाने पर फिर रकम होने पर भी कुछ नहीं होगा। इस पर उपस्थित लोगों में बहुत से सज्जनों के जच गई कि कोठरियों की अपेक्षा हॉल होना अच्छा है और जो रकम कोठरियों के लिए खर्च की जाती है उसके अतिरिक्त जो खर्च हो वह मन्दिरों से नाम मंड़ा कर रकम ले ली जावे, पुनः ब्याज सहित जमा करा दी जावेगी । बस, यह बात तो सर्व सम्मति से निश्चित हो गई कि खाली पड़ी हुई भूमि पर एक ही हॉल बनवाना चाहिये। ____ अब रहा बोर्डिङ्ग का सवाल; किसी ने कहा मुनिश्री के पास चलो, इस मामले को वहां तय किया जावेगा; इस पर सब लोग उठ कर मुनिश्री के पास आये और इस विषय में बहुत कुछ तर्क वितर्क हुए; आखिर में मुनिश्री ने कहा कि फिलह ल एक वर्ष के लिए बोर्डिंग का काम बीकानेर वालों पर छोड़ दिया जावे, तथा एक वर्ष तो वे मेहनत कर इसको चलावें, आगे के लिए फिर देखी जावेगी। इस पर सबकी सम्मति हो गई, और समीरमलजी उदयचंदजी ने मुनिश्री के हुकम को शिरोधार्य कर लिया। गुरु महाराज का आर्शीवाद रूप मंगलीक ही ऐसा था कि बिना परिश्रम ही काम फतह हो गया । बीकानेर वालों ने मुनि श्री को कहा, आपने इतना बड़ा काम हमारे सुपुर्द तो कर दिया पर अब आपको बीकानेर पधार कर इसके लिए उपदेश करना होगा। Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड ६३२ मुनिश्री ने कहा कि अभी तो मैं कुछ दिन यहां ठहरूंगा, तथा बोर्डिङ्ग के विद्यार्थियों को बुलाने का प्रयत्न करूंगा, यह भी आप का ही काम है; बाद क्षेत्र स्पर्शन होगा सो काम आवेगा । मैंने सुना हैं कि आपके वहां मुनिश्री वल्लभविजयजी महाराज का चतुर्मास होने वाला है ? हां, विनती तो की है । बीकानेर वालों ने मुनीम को कह दिया कि तुम विद्यार्थियों को बढ़ाओ, तथा खर्चे के लिए एकेक मास का बिल भेजते जाओ और रकम आवश्यकतानुसार मंगाते जाओ; मुनिश्री हुक्म दें उसी माफिक कार्य करते जाओ और सब समाचार लिखते रहना । बोर्डिङ्ग के बारे में खरतरों के हाथ से बाजी चली गई; साध्वियों ने इस बात को सुनी तो उन्होंने कहा कि यह बात तो हम लोग पहले से ही जानती थी कि ज्ञानसुन्दरजी महाराज इतने दूरदेश से चला कर आये हैं तो आप कुछ न कुछ नया जूना अर्थात् अपना अड़ंगा जमावेंगे ही और उन्होंने हमारा विचारों को सत्य कर बतला भी दिया। इतना ही क्यों पर आपने तो ओसियां बोर्डिंग की मत्ता भी खरतरों के हाथों से छीन ली है, न जाने भविष्य में फिर क्या करेगा । फलौदी वालों ने मुनिश्री से फलौदी पधारने के लिए आग्रह पूर्वक विनती की, कारण फलौदी के लोग सूत्र के बड़े ही प्रेमी थे, उनकी इच्छा थी कि मुनिश्री फलौदी पधार जावें तो हम पुनः सूत्र सुनने का लाभ उठाव; किन्तु मुनिश्री ने कहा कि अभी तो मैं ओसियां ठहरूँगा । रायपुर सी० पी० में उपकेशगच्छीय यति लाभसुन्दरजी रहते थे, उनके पास कुछ पुराने शास्त्रों का ज्ञान भण्डार था, वह Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसियाँ में रत्नप्रभाकर ज्ञान भण्डार ज्ञान भण्डार ज्यों का त्यों मुनिश्री को भेज दिया, कुछ प्रतिएं यतिवर्य माण कसुन्दरजी ने राजलदेसर से भी मुनिजी का भेज दी, कुछ सूत्र आपके पास जो दढ़यों से आये तब साथ ले आये वे भी थे । कुछ पुस्तकों की आपको आवश्यकता थी वे श्रावकों को उपदेश दे कर मंगाई थीं। पुस्तकों का संग्रह इतना बढ़ गया कि एक खासा भंडार ही हो गया। आपश्री ने सोचा कि यह तो एक गृहस्थों के संग्रह वाला झमेला हो गया, और इसको संभालने में भी टाइम व्यतीत होती है अतः इस संग्रह का इस तीर्थ पर भंडार कर देना ही लाभ का कारण है, क्योंकि एक तो ममत्व हट जावे, दूसरे संभालने की झंझट मिट जावे । अतः फलोदी से मेघराजजी मुनोयत और लीछमोलालजी कोचर आ गये; उन्होंने परिश्रम कर सब पुस्तकों की फेहरिस्त एक रजिस्टर में बनाली, जिसमें विशेषता यह थी कि सब पुस्तकें मुनिश्री के उपदेश से आई, मुनिश्री के अधिकार की होने पर भी जिन २ सज्जनों ने आप को पुस्तकें भेट की रजिस्टर में 'उनकी तरफ से आई' लिखवा दी। यह आपकी कितनी बड़ी उदारता की बात है कि आपको अपना नाम बढ़ाने की तनिक भी परवाह नहीं थी। धन्य है ऐसे महास्माओं को। उस ज्ञान भण्डार का नाम श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान भण्डार रखा गया था, उसके सुन्दर नियम प्रणाली तैयार कर व सब हकीकत लिख कर वह रजिस्टर गुरु महाराज के अवलोकनार्थ भेज दिया। गुरु महाराज ने किसी से प्रेस कापी करवा कर उसे ज्यों का त्यों छपा दिया। मुनीम चुन्नीला न भाई अभी तक अविवाहित हो थे और Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड ६३४ आप थे भी अच्छे सुशील, आपकी प्रकृति सरल और साफ थी, सत्य कहने में कोई भी क्यों न हो वे किसी को भी परवाह नहीं करते थे । एक समय उन्होंने सेठजी फूलचंदजी को भी स्पष्ट कह दिया कि तीर्थ पर इस प्रकार अनुचित कार्य होना बहुत बुरा है, यदि ऐसा हुआ तो मैं यहां रहना नहीं चाहता हूँ । ओसियाँ की धर्मशाला के बाहर जो कुत्रा है उसका धर्मशाला के साथ पट्टा नहीं हुआ था, अतः जागीरदार ने अपना अधिकार जमाना चाहा । किन्तु धर्मशाला के पास को जभीन तदुपरान्त उसमें कुधा होने से अत्यन्त ही उपयोगी थी, अतः उसकी श्रावश्यकता थी, कुछ जमीन कोठरियों के पीछे थी, उसकी भी आवश्यकता थी । चुन्नीलाल भाई ने उसकी कोशिश कर उस जमीन को खरीद कर ली; इसमें भी मुनिश्री का ही उपदेश था । जिस पहाड़ी पर एक प्राचीन आचार्य की पादुके थे और वह कई वर्षों से यों ही जंगल में होने के कारण अपूज्य थे; मुनिश्री ने एक यात्रि को उपदेश देकर वहाँ एक छत्री भी करवा दी । उस पादुका पर एक शिलालेख भी था, जिसकी नकल मुनिश्री ने अत्यन्त परिश्रम से जी जो कि नीचे दी जाती है: - सं० १२४६ माघ वदि १४ शनिवार दिने श्रीमज्जिनभद्रोपाध्याय शिषैः श्री कनकप्रभ महत्तर मिश्र कायोत्सार्ग कृत । धर्मशाला की जिस जमीन पर एक हॉल होने का निश्चय हुआ था, उसका कार्य भी प्रारम्भ हो गया; अर्थात् मुनिश्री के पधारने से ओसियां तीर्थ का उद्धार तथा प्रसिद्धि और बहुत ही उन्नति हुई । कई काठियावाड़ी भाई यात्रार्थ ओसियाँ आये थे, वे मुनीम Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ६३५ मुनीम चुनीलाल का कल्याण चुन्नीलाल के सम्बन्धी थे; उन्होंने चुन्नीलाल को विवाह करने के लिए बहुत कुछ कहासुना, चुन्नीलाल का मानस भी मुक गया, किन्तु मुनिश्री ने चुन्नीलाल भाई को ऐसा उपदेश दिया था कि उन्होंने उसी समय चतुर्थ व्रत धारण कर लिया और यह प्रतिज्ञा कर ली कि मेरे पास जो धन माल है, उस पर जब तक मैं मौजूद हूँ मेरा हक है, तथा मेरे देहान्त के पश्चात् सब का सब ओसियाँ तीर्थ में साधारण खाते भेंट कर देता हूँ ताकि मेरा कोई भी सम्बन्धी उज नहीं कर सके । बस, फिर तो चुनीलाल भाई निर्भय हो गया, पर भाग्यवश श्राप थोड़े ही समय जीवित रहे; अन्त समय मुनिश्री का परोमोपकार माना कि यदि मुनिश्री मुझे इतना जोर दे कर उपदेश नहीं देते तो मैं एक बालिका को थोड़े ही दिनों में विधवा बना कर वन पाप कीपोट परभव में साथ ले जाता। अतःमुनिश्री को शीघ्र कल्याण हो। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAP-2 - - आदर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड समाप्तम् G Page #734 -------------------------------------------------------------------------- _