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दानविजयजी की बुरी दानत
और जब किसी दूसरे साधु को पुस्तक की श्रावश्यकता हो तब गृहस्थों का द्रव्यं व्यय कर मंगवानी पड़ती है ।
दान- हमने अत्यन्त परिश्रम से पुस्तकों का संग्रह किया है । तुम्हारे जैसे नास्तिकों को इस बात का अभी ज्ञान नहीं है ।
मामाक -- जैसे इस बहिन ने आपको रुपये दिये हैं, इस प्रकार कितनी विधवाओं ने आपको रुपये दिये और उसको आपने किस काम में लगाये और अब शेष आपके पास कितनी रकम जमा रही है। उसका आपके पास कुछ हिसाब होगा; जिसको हम देख ना चाहते हैं ।
दान - मैंने कह दिया कि तुम हिसाब पूछने वाले कौन हो ? मारक — श्रीसंघ की रकम का हिसाब कोई भी व्यक्ति पूछ सकता है; मैं संघ में एक हूँ अतः सुझे भी अधिकार है कि मैं हिसाब पूछ सकूं । तुम इस प्रकार कितने ही मनुष्यों की रकम हजम कर जाते हो और फिर साधु कहलाते हो ।
दान - क्रोध में आकर कहा कि चले जाओ हमारे उपाश्रय से । मारणक—क्या उपाश्रय भी आपका है ? यदि है तो इस का पट्टा ( रजिस्ट्री ) बतलाइये ।
दान - जाओ २ । तुम्हें कौन पूछता है ?
माणक - उपाश्रय से निकल कर सीधे ही छापेखाने ( प्रेस ) में गये; और १००० नोटिस छपवा कर स्वभात भर में वित्तीर्ण करवा दिये जिसमें लिखा था कि परिग्रह धारी दानविजय के पास पुस्तकें हैं वे श्रीसंघकी हैं या साधुओं की ? यदि साधुओं की पुस्तकें हैं तो ऐसे परिग्रह धारियों को साधु क्यों मानना चाहिये ? एक जवान विश्वा ने दानविजयजी को रुपये दिये उस समय कोई