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________________ आदर्श-5 १५२ पूज्यजी - तीर्थकर वस्त्र ही नहीं रखते तो फिर मुँह-पत्ती कहाँ से बाँधते; पर उनका तो अतिशय था । गयवर०—समवायांगजी सूत्र में तीर्थकरों के ३४ अतिशय कहे हैं, उन में तो यह बात नहीं आई कि तीर्थङ्करों के खुले मुँह बोलने से वायु-काय के जीव नहीं मरते, दूसरा फिर उनके समयसमय कर्म-बंध क्यों होता है ? - पूज्यजी — कुछ भी हो, अपने को तो भगवान ने किया वैसा नहीं, परन्तु कहा जैसा करना चाहिये । -ज्ञान गयवर०- -क्या भगवान् ने किसी सूत्र में यह फरमाया है कि तुम मुँह पत्ती में डोरा डाल दिन रात मुँह पर बाँधी रखना, चाहे बोलने का काम पड़े या न पड़े; और उस में श्लेष्मादि लग कर समुत्सम जीव उत्पन्न हों, उसकी भी परवाह न करना । पूज्यंजी - साधु के ५४ उपकारों में मुँह पत्ती रखना भगवान् बतलाया है । गयवर०- - मुँह - पत्ती तो भगवान् ने कही है, पर भगवान् ने यह कब कहा है कि तुम मुँह- पत्ती में डोरा डाल दिन भर मुँह पर बाँधी रखना । पूज्यजी - अपना उपयोग न रहे और खुले मुँह बोलने में वायु-काय के जीवों की विराधना हो, इसलिये डोरा डाल मुंहपत्ती को मुँह पर बाँधी है । गयवर०- - पर जब मौन या ध्यान में रहते हैं, तो उस समय - पत्ती क्यों बाँधी जाती है ? पूज्यजी - यह तो प्रवृत्ति पड़ गई है, वास्तव में तो बोलते समय ही मुँहपत्ती की आवश्यकता है ।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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