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________________ १५१ मुखवस्त्रका की चर्चा प्रकार की है। उष्ण योनि वाले जीव गरमी में ही उत्पन्न होते हैं, तब फिर गरम हवा का कारण क्यों बतलाया जाता है । अग्निः इतनी गरम होनेपर भी उसमें उष्ण योनि के जीव उत्पन्न होते हैं । पज्यजी-तो क्या तेरी मान्यता मुंह-पत्ती नहीं बांधने की या हाथ में रखने की है ? परन्तु क्या तुम ने कभी संवेगियों को देखा है ? वे हाथ में मुँह-पत्ती रखते हुए निःशंक खुले मुँह बोल कर वायुकाय के जीवों की हिंसा करते हैं। गयवर०-यदि मुँह पत्ती बांधने में समुत्सम जीवों की हिंसा होती हो, तो वायुकाय जीवों का पार अधिक है या समुत्सम जीवों का ? पूज्यजी-पाप तो समुत्सम जीवों का अधिक है, क्योंकि वायुकाय के जीव तो एकेन्द्रिय चार प्राण वाले हैं, और समुत्सम जीव पंचेन्द्रिय नौ प्राण वाले हैं। गयवर०-क्यों, पूज्यजी महाराज, वायु काय के जीव एक खुले मुँह बोलने से ही मरते हैं या अन्य कार्यों में भी मरते हैं ? पूज्यजी-अन्य कोई भी कार्य करो, पर वायु-काय के जीव तो मरते ही हैं, आँख की पलकों के तथा शिर के बाल चलने से भी वायु-काय के जीव मरते हैं। गययर०-फिर केवल एक खुले मुँह बोलने के लिये ही इतना आग्रह क्यों है ? पूज्यजी-खुले मुँह बोलने की भगवान की आज्ञा नहीं है । गयवर०-भगवान् घंटों तक व्याख्यान देते थे तब वे खुद खुले मुँह बोलते थे या मुँह-पत्ती बाँध कर ?
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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