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________________ ५४३ खंभात में पब्लिक व्याख्यान हुआ, किंतु माणिक मुनिजी के लिये किसी ने भी चर्चा नहीं की, ज्यादा जोर अंग्रेजी पढ़ने वालों को धर्महीन, श्रद्धाहीन, क्रियाहीन और नास्तिक बतलाने पर ही दिया गया । उसी समय एक ग्रेजुएट ( Graduate ) विद्वान् वकील जो कि वहाँ बैठा था - साधुओं का निरंकुश भाषण सुनकर उठ खड़ा हुआ और कहने लगा - महाराज ! अंग्रेजी पढ़े हुए नास्तिक नहीं पर आस्तिक अर्थात् परीक्षक हैं, हाँ वे आज गृहस्थ से भी कई गुनी अधिक मौज श्रानन्द करने वाले साधुओं की पोपलीला को मानने में अवश्य नास्तिक हैं, आपको शायद ही मालूम होगा कि गृहस्थ लोग किस परिश्रम से अपना निर्वाह करते हैं, तब आप तो साधु हो, आपको बिल्कुल सादा जीवन व्यतीत करना चाहिये । पर सर्वती मलमलें, बढ़िया कपड़े, दिन में तीन २ बार गोचरी, जिसमें भी केवल भक्त लोगों की तैयारी पर हाथ मारना, फल, फूल ( फूट ) और दिन में तीन २ दफे चाय तो साधुधों की साधारण खुराक बनी हुई है, फिर भी साधु कहलाते हुए नवयुवकों की निंदा करते हो, पर आपकी यह नादिरशाही सुनता कौन है ? अब आप अपने को संभाल लो, वरना आपके हक में ठीक न होगा जमाना बदल गया है इत्यादि निडर होकर भाषण दिया । बाद में माणिकमुनिजी उठ खड़े हुए और कुछ कहने को ही थे कि इतने में साधुओं ने कहा कि तुमको आज्ञा नहीं है। बस, हा हु होकर सभा विसर्जन हो गई और सब लोग चले गये । इधर मुनिश्री की विद्यमानता में सभा हुई थी, इसमें पहिले हालत और उनका तो जमाने की खूबी, प्रामों के गरीब जैनों की उद्धार तथा विद्या प्रचार की आवश्यकता और अन्त में जैन
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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