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आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड
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के हाथ में है, दूसरे किले के आठ मन्दिर, अमृतसर के तीन और लोद्रवा का एक मन्दिर खरतरगच्छ वालों के हाथ में है, और वहाँ उनकी नादिरशाही चलती है, आय-व्यय का कोई हिसाब नहीं है। राजमलजी वहाँ के कार्यकर्ता हैं, वह बोलने में बड़ा ही चतुर एवं सफाई वाला है, सुना गया था कि राजमल देव-स्थान की कितनी ही रक्कम हजम कर गया है। अतः वहाँ श्रीसंघ चढ़ावा करे तो आप इस बात का लक्ष रखें; कि उस चढ़ावा की रकम को या तो तपागच्छ के मन्दिर के उद्धार में लगा दिया जाय या इसकी कोई अलग ही व्यवस्था हो, किन्तु राजमलजी को देना तो मानों जान बूझ कर देवद्रव्य का खून कर एक गृहस्थ को डुबोना है । बाद में ओसियों को विषय में बातें हुई; फूलचन्दजी का हाल भी श्राचार्यश्री जान गये । इन बातों में क़रीब ४ बज गई, बाद में प्रतिक्रमण कर सूरिजी विहार की तैयारी में लग गये और मुनिश्री अपने स्थान पर श्री कर रूपसुँदरजी को किपूछा
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मुनिश्री - क्यों रूपसुन्दरजी तुम्हारी इच्छा सूरिजी के साथ जैसलमेर की यात्रा करने को जाने की है ?
रूप०–यदि आप आज्ञा फरमावें तो मैं जा सकता हूँ । मुनि० - अभी चार मास ही हुए अपने यात्रा तो कर श्राये हैं ? रूप० – पर मेरा विचार है कि मैं सूरिजी के साथ और भी जैसलमेर की यात्रा करूँ ।
मुनि० - केवल यात्रा हो करना है या सूरिजी के पास रहने का विचार भी कर लिया है ?
रूप०—हाँ यदि आप आज्ञा दें तो मैं सूरिजी के पास भी रहना चाहता हूँ ।