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________________ ४३१ रूपसुंदरजी के विषय में पास ही नहीं रख सकते हो तो दीक्षा तो दे ही कैसे सकोगे ? सूरिः--तुम रूपसुंदर के गुरु हो और मुझे भी तुमको गुरु ही रखना है, अतः तुम्हारे से मिले बिना तो मैं रूपसुंदर को किसी हालत में भी दीक्षा नहीं दूंगा। मुनिः--यदि ऐसा ही है तो मैं आपके विश्वास पर ही कहता हूँ कि रूपसुंदरजी को भले आप अपने साथ ले ज ईये, पर वापिस ला कर मुझे सौंप देना आवश्यक है। ___ सूरि०~-ठीक है, मैं रूपसुंदर को ला कर आपके सुपुर्द कर दूंगा। कहो ज्ञानसुन्दरजी मैंने सुना है कि इस समय फलोदी के संघ में झगड़ा है, इसका हाल मैं जानना चाहता हूँ। मुनि०-सब हाल कह सुनाया और इस मामले को निपटाने की तरकीब भी बतला दी। . सूरि०-तुम इतने दिन फलोदी में रहे तो इस झगड़े को क्यों नहीं निपटा दिया ? ____ मुनि०-मैंने प्रयत्न तो बहुत किया, किन्तु रूपसुंदरजी के कारण खरतरगच्छ वाले हमारे पर विश्वास कम रखते हैं। दूसरे आप नये ही नये पधारते हो, और श्रीसंघ का आडम्बर भी साथ में है, इससे प्रभाव भी अच्छा पड़ेगा । आप पहिले दोनों तरफ के दस्तख्त करवा लें तो मामला निपट जायगा, कारण दोनों सँघ (पार्टी) वाले समझौता करना चाहते हैं, क्योंकि इन झगड़ों से दोनों को तकलीफ़ है । अतः यह यश आपको ही मिलेगा। सूरिजी-तुम जैसलमेर जा कर आये हो, कहो वहाँ के मन्दिरों के एवं श्री संघ का क्या हाल है ? मुनि०--जैसलमेर में एक ग्राम का मंदिर तपागच्छ वालों
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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