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________________ आदर्श-ज्ञान-द्वितीय स्खण्ड ४३० लेना । यदि तुम हमारे पास दीक्षा लोगे तो आचार्य बन दुनिया में बड़ी भारी नामवरी पैदा कर सर्वत्र प्रसिद्ध हो जाओगे और तुम्हारे बहुत शिष्य भी करवा देंगे। ___ मुनिश्री ने सोचा कि अहो ! आश्चर्य है कि ऐसे बड़े आचार्य को भी इतना अहंभाव और शिष्य बनाने का इतना मोह है कि मेरे शिष्य को तो आपने ले जाने का निश्चय कर ही लिया, पर श्राप तो मेरे पर भी पदवी का जादू डालने की बातें कर रहे हैं; किंतु यहाँ कोई मेवाड़ी रूपसुन्दर नहीं है कि बिचारे भद्रिक साधु पर जादू डाल दिया-खैर अभी मैं ऐसे बड़े आचार्य को नाराज क्यों करूँ ? मुनिश्री ने कहा, ठीक, आप जैसलमेर पधार कर वापिस फलोदी पधारें तब तक मैं ओसियाँ तथा तीवरी में ठहरूँगा; आपकी सूचना प्राने पर मैं ठीक सममूंगा तो फलोदी श्रा जाऊँगा, वहाँ आने पर फिर विचार करूँगा। सरि०-अभी हमारे साथ क्यों नहीं चलते हो ? ___ मुनिः--मैं अभी जैसलमेर जा कर आया हूँ, और फलोदी तो मेरा चतुर्मास हो था, इस कारण अभी तो मैं वहाँ चलना ठीक नहीं समझता हूँ। आप जैसलमेर की यात्रा कर वापिस फलोदी पधारें तब मुझे सूचित कर दिलावें। ___ सूरिजी को थोड़ा बहुत विश्वास हो गया कि यदि फलोदी आवेगा तो इनको समझा-बुझा कर अपने शिष्य बना कर शामिल कर लेंगे, इसलिये सूरिजी ने कहा, ठीक, रूपसुंदर हमारे साथ चलता है, किंतु तुम खात्री रखना कि जब तक हम वापिस फलोदी आकर तुमसे न मिलें वहाँ तक हम रूपसुंदर को दीक्षा नहीं देंगे। मुनि:--हाँ, मेरी आज्ञा बिना तो रूपसुंदर को आप अपने
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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