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________________ ४२९ न पर सरिजी का जादु प्रख्यात हो जाओगे । कहो अब तुम्हारी क्या इच्छा है ? सुनि०-आपकी इस प्रकार शुभ दृष्टि है जिसके लिये मैं आपका उपकार मानता हूँ, और आपके पास रहने के लिये भी मैं तैयार हूँ किन्तु मेरा नाम,गुरु और गच्छ तो जो है वह ही रहेगा। सूरजी-नहीं दीक्षा तो आपको पुन: लेनी होगी, कारण रविजयजी की दी हुई बड़ी दीक्षा हम प्रमाणिक नहीं समझते हैं । __ मुनि०--इसका क्या कारण है ? रत्नविजयजी महाराज तो बड़े ही योगीराज हैं और वे हैं भी आपके सिंघाड़ा के। ___ सूरिजी-रत्नविजय तो क्या पर मैं तो उनके गुरु धर्मविजयजी की दीक्षा को भी प्रमाण नहीं करता हूँ आदि, हमारे पास आओगे तो तुमको हमारे पास दीक्षा लेनी होगी। मुनि०-क्या आपकी दीक्षा में और रत्नविजयजी महाराज की दीक्षा में कुछ भेद है ? ' सूरिजी-भेद तो कुछ नहीं, किन्तु हम हमारे सिवाय दूसरों को दीक्षा को प्रमाणिक नहीं मानते हैं। ___ मुनि०-यदि कोई आपकी दीक्षा को भी प्रमाणिक नहीं माने तो आपकी दीक्षा भी अप्रमाणिक है न ? सूरिजो-नहीं-नहीं; हमारी दोक्षा प्रमाणिक है, स्त्रैर, इतनी बातों से क्या मतलब है ? तुम हमारे पास आना चाहते हो या नहीं ? एक बात कह दो। मुनि-तब तो इस भारत में आपके सिवाय कोई साधु भी न हागा ? पर इस बात की साबुति के लिये किसी ज्ञानियों के हाथ का फरमान भी बतलाना पड़ेगा। __ सरिजी- हम कहते हैं इसको तुम सत्य फरमान ही समझ
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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