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रूपसुन्दर के लिये माया जाल
नि०- क्या सूरिजी और तुम्हारे आपस में सलाह हो कर यह बात निश्चय हो गई है न ?
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रूप० - सूरिजी ने कहा कि यदि तुम हमारे साथ चलो तो मैं तुमारे कई शिष्य बना कर पदवी दे दूंगा ।
मुनि - फिर तुमने क्या निश्चय किया है। रूप० - आपकी आज्ञा बिना तो मैं एक क़दम भी नहीं उठा सकता हूँ ।
मुनि० - रूपसुन्दरजी तुम अभी भद्रिक हो, इन संवेगियों की अभी तुम्हें मालूम नहीं है सूरिजी ने तो रात्रि में मुझे भी बहुत कहा और शिष्य एवं पदवी का लोभ भी दिया पर मैं उनकी फाकी में आने वाला नहीं हूँ जैसे कि तुम आ गये हो ?
रूप - फिर आपने सूरिजी से क्या कहा ? क्या मेरे लिये भी बातचीत हुई थी ?
मुनि:- हाँ तुमारे लिए भी बात हुई है जिसका तात्पर्य यह है कि सूरिजी ने कहा कि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं रूपसुन्दर को साथ ले जा सकता हूँ, पर जैसलमेर से लौट कर वापिस फलोदी आ कर तुमसे न मिलू वहां तक मैं रूपसुन्दर को किसी हालत में दीक्षा नहीं दूंगा, अतः वे चाहते हैं कि जैसलमेर से वापिस आ कर मुझे और तुमको अर्थात् दोनों को अपने शिष्य बनाना चाहते हैं ।
रूपः तब क्या वे उपकेशगच्छ का नाम भी रखना नहीं चाहते है जिसका सब गच्छों पर उपकार है ।
मुनि: - इस बात को तुम स्वयं सोच लो ।
रूप० - खैर यदि आप आज्ञा दीरावें तो मैं सूरिजी के साथ जैसलमेर की यात्रा कर आऊँ बाद देखा जायेगा ?