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योगिराज जी का विहार
गये । सुबह विहार के समय मुनिजी, मुनीमजी, बोर्डिंग के विद्यार्थी, और ग्राम के कई महेश्वरी लोग आये और बहुत दूर तक पहुँचाने को गये । जब गुरू महाराज आगे की ओर बढ़ने लगे तो हमारे मुनिजी की आँखों में से अश्रुधारा बहने लगी । गुरू महाराज ने मुनिजी के सिर पर हाथ रख कर कहा कि तुम वीर होकर इतने अधीर क्यों होते हो, तुम खुद सुयोग्य हो, तुम जाओगे वहीं तुम्हारी जय होवेगी; तुम शासन को प्रभावना करोगे; किन्तु मेरी दो बातें याद रखना जो कि मैंने तुम्हें पहिले कह दीं थीं तो भी उनको फिर दुहरा देता हूँ । ( १ ) किसी को शिष्य नहीं बनाना, यदि कोई ढूंढ़ियों से निकला हुआ सुयोग्य हो तो उसको सम्मा पर लाकर दीक्षा देने मात्र का निमित्त कारण बनना, जैसे मैं बना हूँ । दूसरे साध्वियों या बाईयों का बिल्कुल परिचय नहीं रखना, बस इन दोनों बातों पर पूर्ण लक्ष रखोगे तो तुम्हारा डंका चारों ओर बजता हो रहेगा ।
इतना कह कर गुरु महाराज तो विहार कर गये और हमारे मुनिजी गुरुवचन को शिरोधार्य कर सबके साथ ग्राम की ओर लौट आये ।
गुरु महाराज के साथ मुनिश्री बहुत थोड़े समय रहे पर आपके सद्गुणों से इतने मुग्ध बन गये कि बापिस आने के बाद एकान्त में जाकर बैठ गये, आपके दिल में इतनी उदासीनता छा गई कि बस सिवाय गुरु महाराज के आपका ध्यान कहीं भी चलायमान नहीं हुआ। इसमें आप गोचर - पानी की सुध भी भूल गये । मुनीमजी ने
कर आहार पानी का आमन्त्रण किया, जिस पर भी लक्ष नहीं दिया गया, हां सच्चे विनोत शिष्यों का यही हाल हुआ करता है ।