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________________ आदर्श-ज्ञान रह सकेगा, इसलिए तुम मेरे कहने से इसको स्वीकार करलो । गयवर०-जो आज्ञा । मैं इस प्रायश्चित को आपके कहने से स्वीकार करता हूँ, पर इस प्रायश्चित के लिए क्या तप करना पड़ेगा। पूज्यजी-अभी इसको स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है; तुम तो इसे स्वीकार करलो; कारण; चतुर्मासिक प्रायश्चित अनेक प्रकार का होता है, जैसे-छेद प्रायश्चित, तप प्रायश्चित; पच्चरखान प्रायश्चित, इसमें भी लघु चतुर्मासिक, दीर्घ चतुर्मासिक आदि कई भेद है, इसलिए मैं तुमको बाद में कह दूंगा। गयवर.-ठीक है, मैं तो आपकी आज्ञा के आधीन हूँ, जो आप कहें वह करने को तैयार हूँ, किन्तु मुझे थोड़ा-सा सङ्केत हो जाय तो मेरा चित्त स्थिर हो सकता है। . पूज्यजो०-इस प्रायश्चित में तुमको तप प्रायश्चित दिया जाता किन्तु अभी इसे जाहिर करने की आवश्यकता नहीं है । अब रहा तुम्हारे गुरु के लिए, इसमें तुम्हारी क्या इच्छा है। गयवर:-पूज्यवर, यह बात तो सर्व प्रथम रतलाम में ही तय हो चुकी थी कि मैं आपका ही शिष्य बनूँगा और मेरा यही आग्रह था। पूज्यजी०-गयवरचंदजी तुम्हारा कहना तो ठीक है पर मैंने तो मेरे मुंह से यह नहीं कहाथा कि मैं तुमको अपना शिष्य बनाऊँगा। हाँ भंडारीजी ने तथा अन्य कई साधुओंने अवश्य कहा था कि आप को पूज्यजी महाराज का चेला कर देवेंगे। गयवर०-किन्तु जब भंडारीजी वगैरह ने आपके सामने कहा था तब उस समय आपने इन्कार भी तो नहीं किया था।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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