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________________ ८९ भीनासर में पूज्यजी महाराज के दर्शन पूज्यजी० - हाँ मैंने इन्कार नहीं किया था । गयवर० - यही कारण है कि मैंने निश्चय कर लिया था कि मैं पूज्यजी का ही शिष्य बनूँगा । प्राज पर्यन्त किसी को शिष्य नहीं पूज्यजी महाराज पूज्यजी० - खैर मैंने - बनाया है और संसार में यह भी प्रसिद्ध है कि के चेले बनाने का त्याग है; ऐसी हालत में यदि तुमको चेला कर भी लूँ तो लोगो में अविश्वास का कारण होगा। तुम्हारे लिए मैं किसी का भी नाम कर दूँ, पर तुमको मैं अपना चेला ही समभूँगा, और तुम हमको गुरु समझना अतएव तुम अपना हठ छोड़ दो और मैं कहूँ वैसा करलो । -जैसी आपकी इच्छा मैं तो आपका हुक्म उठाने गयवर० को तैयार हूँ । : ------- पूज्यजी हमारी समुदाय में मोड़ीरामजी, जो मेरे गुरु भाई हैं एक शान्त प्रकृति वाले व्यायावचिया साधु हैं हमारे इतने - साधुओं में से उनकी बराबरी करने वाला एक भी साधु नहीं है। मैं तुमको उन मोड़ीरामजी का शिष्य करना चाहता हूँ तुम - इस बात को स्वीकार करलो । गयवरचंदजी - मोड़ीरामजी से परिचित नहीं थे, पर वास्तव में पज्यजी का कहना सोलह आना सत्य था । मोड़ीरामजी क्या वे साधुओं की माता ही कहलाते थे । आपने पूज्यजी के बचनों को मंजूरकर अपने गुरु मोड़ीरामजी महाराज को स्वीकार कर लिया । बस फिर क्या था, सब तरह से शान्ति होगई । मोड़ीरामजी 'महाराज उस समय पूज्यजी की सेवा में ही थे, अतः उन्हें बुला
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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