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आदर्श-ज्ञान
मुनिश्री-तीर्थङ्कर वर्षी दान देते हैं उसे आप स्वीकार करते हैं न ?
तेरह-हाँ, तीर्थङ्करों ने वर्षी-दान दिया है। मुनिश्री-वह दान किस ने लिया ? तेरह-गृहस्थ लोगों ने लिया था। मुनिश्री-वे गृहस्थ संयति थे या असंयति ? तेरह-असंयति थे।
मुनिश्री-आपके कथन से ही आपका प्रश्न हल होगया। जब तीर्थङ्करों ने ही असंयति को दान दिया है तब दूसरों के लिए तो कहना ही क्या है ?
तेरह०---इस दान में हम पुण्य हुआ नहीं मानते हैं। ' मुनिश्री-तो क्या आप पाप हुआ मानते हो ? तेरह० हाँ, हम पाप होना मानते हैं।
मुनिश्री-तो फिर तीर्थङ्कर देव ने ऐसा पाप का पंथ क्यों चलाया और वह भी एक नहीं अनन्त तीर्थङ्करों ने।
तेरह-यह तो उनका आचार है । मुनि-किन्तु श्राचार में भी पुण्य या पाप तो होता ही है। तेरह-हम तो वर्षी-दान में पाप ही समझते हैं।
मुनि०- यह आप अपने दिल से ही मानते हो, या किसी शास्त्र में दान में पाप होना कहा है ?
तेरह-हाँ, शास्त्र में कहा है।
मुनि-यदि तीर्थङ्करों के वर्षी-दान से पाप लगना शास्त्र में कहा हो तो आप उस शास्त्र का पाठ बतलाइये।
तेरहः-यदि पुण्य कहा हो तो आप सूत्र का पाठ बतलावें।